हिन्दू विवाह अधिनियम
भारत की संसद द्वारा सन् १९५५ में पारित एक कानून है। इसी कालावधि में तीन अन्य महत्वपूर्ण कानून पारित हुए : हिन्दू उत्तराधिका अधिनियम (1955), हिन्दू अल्पसंख्यक तथा अभिभावक अधिनियम (1956) और हिन्दू एडॉप्शन और भरणपोषण अधिनियम (1956). ये सभी नियम हिन्दुओं के वैधिक परम्पराओं को आधुनिक बनाने के ध्येय से लागू किए गये थे।
स्मृतिकाल से ही हिंदुओं में विवाह को एक पवित्र संस्कार माना गया है और हिंदू विवाह अधिनियम १९५५ में भी इसको इसी रूप में बनाए रखने की चेष्टा की गई है। किंतु विवाह, जो पहले एक पवित्र एवं अटूट बंधन था, अधिनियम के अंतर्गत, ऐसा नहीं रह गया है। कुछ विधिविचारकों की दृष्टि में यह विचारधारा अब शिथिल पड़ गई है। अब यह जन्म जन्मांतर का संबंध अथवा बंधन नहीं वरन् विशेष परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर, (अधिनियम के अंतर्गत) वैवाहिक संबंध विघटित किया जा सकता है।
अधिनियम की धारा १० के अनुसार न्यायिक पृथक्करण निम्न आधारों पर न्यायालय से प्राप्त हो सकता है :
त्याग २ वर्ष, निर्दयता (शारीरिक एवं मानसिक), कुष्ट रोग (१ वर्ष), रतिजरोग (३ वर्ष), विकृतिमन (२ वर्ष) तथा परपुरुष अथवा पर-स्त्री-गमन (एक बार में भी) अधिनियम की धारा १३ के अनुसार - संसर्ग, धर्मपरिवर्तन, पागलपन (३ वर्ष), कुष्ट रोग (३ वर्ष), रतिज रोग (३ वर्ष), संन्यास, मृत्यु निष्कर्ष (७ वर्ष), पर नैयायिक पृथक्करण की डिक्री पास होने के दो वर्ष बाद तथा दांपत्याधिकार प्रदान करनेवाली डिक्री पास होने के दो साल बाद 'संबंधविच्छेद' प्राप्त हो सकता है।
स्त्रियों को निम्न आधारों पर भी संबंधविच्छेद प्राप्त हो सकता है; यथा-द्विविवाह, बलात्कार, पुंमैथुन तथा पशुमैथुन। धारा ११ एवं १२ के अंतर्गत न्यायालय 'विवाहशून्यता' की घोषणा कर सकता है। विवाह प्रवृत्तिहीन घोषित किया जा सकता है, यदि दूसरा विवाह सपिंड और निषिद्ध गोत्र में किया गया हो (धारा ११)।
नपुंसकता, पागलपन, मानसिक दुर्बलता, छल एवं कपट से अनुमति प्राप्त करने पर या पत्नी के अन्य पुरुष से (जो उसका पति नहीं है) गर्भवती होने पर विवाह विवर्ज्य घोषित हो सकता है। (धारा १२)।
अधिनियम द्वारा अब हिंदू विवाह प्रणाली में निम्नांकित परिवर्तन किए गए हैं :
• (१) अब हर हिंदू स्त्रीपुरुष दूसरे हिंदू स्त्रीपुरुष से विवाह कर सकता है, चाहे वह किसी जाति का हो।
• (२) एकविवाह तय किया गया है। द्विविवाह अमान्य एवं दंडनीय भी है।
• (३) न्यायिक पृथक्करण, विवाह-संबंध-विच्छेद तथा विवाहशून्यता की डिक्री की घोषणा की व्यवस्था की गई है।
• (४) प्रवृत्तिहीन तथा विवर्ज्य विवाह के बाद और डिक्री पास होने के बीच उत्पन्न संतान को वैध घोषित कर दिया गया है। परंतु इसके लिए डिक्री का पास होना आवश्यक है।
• (५) न्यायालयों पर यह वैधानिक कर्तव्य नियत किया गया है कि हर वैवाहिक झगड़े में समाधान कराने का प्रथम प्रयास करें।
• (६) बाद के बीच या संबंधविच्छेद पर निर्वाहव्यय एवं निर्वाह भत्ता की व्यवस्था की गई है। तथा
• (७) न्यायालयों को इस बात का अधिकार दे दिया गया है कि अवयस्क बच्चों की देख रेख एवं भरण पोषण की व्यवस्था करे।
विधिवेत्ताओं का यह विचार है कि हिंदू विवाह के सिद्धांत एवं प्रथा में परिवर्तन करने की जो आवश्यकता उपस्थित हुई थी उसका कारण संभवत: यह है कि हिंदू समाज अब पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति से अधिक प्रभावित हुआ है
हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 उन सभी लोगों पर लागू होता है, जो धर्मत: हिन्दू, जैन, बौध्द और सिख हों। या वह सभी व्यक्ति जो हिन्दू विधि से संचालित होते हैं। हिन्दू उसे माना जाता है, जिसके माता-पिता दोनों ही एक धर्मत: हिन्दू, बौध्द, जैन या सिक्ख हों। धर्म परिवर्तन करके हिन्दू बनने वाले व्यक्ति पर भी यह अधिनियम लागू होता है। अन्य शहरों की स्थितिदिल्ली महिला आयोग के आंकड़ों के अनुसार इस महानगर में हर साल करीब 1 लाख 30 हजार शादियां होती हैं और दस हजार तलाक होते हैं। एक अनुमान के मुताबिक, पिछले पांच वर्षों में तलाक लेने वालों की संख्या दोगुनी हो गई है।
इस बात का अंदाजा सिर्फ इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि दिल्ली की विभिन्न पारिवारिक अदालतों में हर वर्ष दस हजार से अधिक तलाक की अर्जियां डाली जाती हैं। आंकड़ों के मुताबिक, मुम्बई में 4000 और बंगलुरू में 5000 अर्जियां दाखिल की जाती हैं। यहां तक की देश के सबसे शिक्षित प्रदेश केरल में भी पिछले दस वर्षों में तलाक के मामलों में 350 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।
पंजाब व हरियाणा में पिछले एक दशक में 150 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। वहीं अगर पारिवारिक अदालतों के न्यायाधीशों की बात करें तो 1960 में न्यायाधीशों के पास एक से दो मामले आते थे। 1980 में यह बढ़कर 100 से 200 तक हो गया, 1990 में यह आंकड़ा 1000 तक पहुंच गया। अब यह बढ़कर 9000 तक पहुंच गया है।
तलाक के 9 आधार व्यभिचार क्रूरता परित्याग धर्म परिवर्तन पागल कुष्ठ रोग छूत की बीमारी वाले यौन रोग संन्यास सात साल से जीवित होने की खबर न हो विधि आयोग की सिफारिशें अप्रैल, 1978 विधि आयोग की 71वीं रिपोर्ट में कहा गया कि 'इरिट्रिवेएबल ब्रेकडाउन ऑफ मैरिज' यानी शादी के टूट चुके रिश्ते के दोबारा जुड़ने की संभावना न होना भी तलाक का एक आधार माना जाए। कानून में संशोधन कर हिन्दू मैरिज एक्ट में धारा 13 सी जोड़ने की सिफारिश की गई। मार्च 2009 विधि आयोग की 217वीं रिपोर्ट में भी 'इरिट्रिवेएबल ब्रेकडाउन ऑफ मैरिज' को तलाक का आधार बनाए जाने की सिफारिश की गई।सुप्रीमकोर्ट के अहम फैसले जॉर्डन डाइंगडेह बनाम एसएस चोपड़ा नवीन कोहली बनाम नीलू कोहली समर घोष बनाम जया घोष
हिन्दू विवाह अधिनियम1955 तथा विशेष विवाह अधियम1954 इस लिंक में पढें--http://lawcommissionofindia.nic.in/Hindi_Reports/H59.pdf
हिन्दू विवाह विधि में पहले तो तलाक था ही नहीं। फिर उस में विवाह विच्छेद जोड़ा गया। जिस में कुछ खास आधारों पर विवाह विच्छेद के लिए पति या पत्नी आवेदन कर सकता था। आधारों की पुष्टि साक्ष्य से होने पर विवाह विच्छेद हो सकता था। सहमति से विवाह विच्छेद का कानून तो बहुत बाद में विवाह विधि में जोड़ा गया।
भारत की संसद द्वारा सन् १९५५ में पारित एक कानून है। इसी कालावधि में तीन अन्य महत्वपूर्ण कानून पारित हुए : हिन्दू उत्तराधिका अधिनियम (1955), हिन्दू अल्पसंख्यक तथा अभिभावक अधिनियम (1956) और हिन्दू एडॉप्शन और भरणपोषण अधिनियम (1956). ये सभी नियम हिन्दुओं के वैधिक परम्पराओं को आधुनिक बनाने के ध्येय से लागू किए गये थे।
स्मृतिकाल से ही हिंदुओं में विवाह को एक पवित्र संस्कार माना गया है और हिंदू विवाह अधिनियम १९५५ में भी इसको इसी रूप में बनाए रखने की चेष्टा की गई है। किंतु विवाह, जो पहले एक पवित्र एवं अटूट बंधन था, अधिनियम के अंतर्गत, ऐसा नहीं रह गया है। कुछ विधिविचारकों की दृष्टि में यह विचारधारा अब शिथिल पड़ गई है। अब यह जन्म जन्मांतर का संबंध अथवा बंधन नहीं वरन् विशेष परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर, (अधिनियम के अंतर्गत) वैवाहिक संबंध विघटित किया जा सकता है।
अधिनियम की धारा १० के अनुसार न्यायिक पृथक्करण निम्न आधारों पर न्यायालय से प्राप्त हो सकता है :
त्याग २ वर्ष, निर्दयता (शारीरिक एवं मानसिक), कुष्ट रोग (१ वर्ष), रतिजरोग (३ वर्ष), विकृतिमन (२ वर्ष) तथा परपुरुष अथवा पर-स्त्री-गमन (एक बार में भी) अधिनियम की धारा १३ के अनुसार - संसर्ग, धर्मपरिवर्तन, पागलपन (३ वर्ष), कुष्ट रोग (३ वर्ष), रतिज रोग (३ वर्ष), संन्यास, मृत्यु निष्कर्ष (७ वर्ष), पर नैयायिक पृथक्करण की डिक्री पास होने के दो वर्ष बाद तथा दांपत्याधिकार प्रदान करनेवाली डिक्री पास होने के दो साल बाद 'संबंधविच्छेद' प्राप्त हो सकता है।
स्त्रियों को निम्न आधारों पर भी संबंधविच्छेद प्राप्त हो सकता है; यथा-द्विविवाह, बलात्कार, पुंमैथुन तथा पशुमैथुन। धारा ११ एवं १२ के अंतर्गत न्यायालय 'विवाहशून्यता' की घोषणा कर सकता है। विवाह प्रवृत्तिहीन घोषित किया जा सकता है, यदि दूसरा विवाह सपिंड और निषिद्ध गोत्र में किया गया हो (धारा ११)।
नपुंसकता, पागलपन, मानसिक दुर्बलता, छल एवं कपट से अनुमति प्राप्त करने पर या पत्नी के अन्य पुरुष से (जो उसका पति नहीं है) गर्भवती होने पर विवाह विवर्ज्य घोषित हो सकता है। (धारा १२)।
अधिनियम द्वारा अब हिंदू विवाह प्रणाली में निम्नांकित परिवर्तन किए गए हैं :
• (१) अब हर हिंदू स्त्रीपुरुष दूसरे हिंदू स्त्रीपुरुष से विवाह कर सकता है, चाहे वह किसी जाति का हो।
• (२) एकविवाह तय किया गया है। द्विविवाह अमान्य एवं दंडनीय भी है।
• (३) न्यायिक पृथक्करण, विवाह-संबंध-विच्छेद तथा विवाहशून्यता की डिक्री की घोषणा की व्यवस्था की गई है।
• (४) प्रवृत्तिहीन तथा विवर्ज्य विवाह के बाद और डिक्री पास होने के बीच उत्पन्न संतान को वैध घोषित कर दिया गया है। परंतु इसके लिए डिक्री का पास होना आवश्यक है।
• (५) न्यायालयों पर यह वैधानिक कर्तव्य नियत किया गया है कि हर वैवाहिक झगड़े में समाधान कराने का प्रथम प्रयास करें।
• (६) बाद के बीच या संबंधविच्छेद पर निर्वाहव्यय एवं निर्वाह भत्ता की व्यवस्था की गई है। तथा
• (७) न्यायालयों को इस बात का अधिकार दे दिया गया है कि अवयस्क बच्चों की देख रेख एवं भरण पोषण की व्यवस्था करे।
विधिवेत्ताओं का यह विचार है कि हिंदू विवाह के सिद्धांत एवं प्रथा में परिवर्तन करने की जो आवश्यकता उपस्थित हुई थी उसका कारण संभवत: यह है कि हिंदू समाज अब पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति से अधिक प्रभावित हुआ है
हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 उन सभी लोगों पर लागू होता है, जो धर्मत: हिन्दू, जैन, बौध्द और सिख हों। या वह सभी व्यक्ति जो हिन्दू विधि से संचालित होते हैं। हिन्दू उसे माना जाता है, जिसके माता-पिता दोनों ही एक धर्मत: हिन्दू, बौध्द, जैन या सिक्ख हों। धर्म परिवर्तन करके हिन्दू बनने वाले व्यक्ति पर भी यह अधिनियम लागू होता है। अन्य शहरों की स्थितिदिल्ली महिला आयोग के आंकड़ों के अनुसार इस महानगर में हर साल करीब 1 लाख 30 हजार शादियां होती हैं और दस हजार तलाक होते हैं। एक अनुमान के मुताबिक, पिछले पांच वर्षों में तलाक लेने वालों की संख्या दोगुनी हो गई है।
इस बात का अंदाजा सिर्फ इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि दिल्ली की विभिन्न पारिवारिक अदालतों में हर वर्ष दस हजार से अधिक तलाक की अर्जियां डाली जाती हैं। आंकड़ों के मुताबिक, मुम्बई में 4000 और बंगलुरू में 5000 अर्जियां दाखिल की जाती हैं। यहां तक की देश के सबसे शिक्षित प्रदेश केरल में भी पिछले दस वर्षों में तलाक के मामलों में 350 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।
पंजाब व हरियाणा में पिछले एक दशक में 150 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। वहीं अगर पारिवारिक अदालतों के न्यायाधीशों की बात करें तो 1960 में न्यायाधीशों के पास एक से दो मामले आते थे। 1980 में यह बढ़कर 100 से 200 तक हो गया, 1990 में यह आंकड़ा 1000 तक पहुंच गया। अब यह बढ़कर 9000 तक पहुंच गया है।
तलाक के 9 आधार व्यभिचार क्रूरता परित्याग धर्म परिवर्तन पागल कुष्ठ रोग छूत की बीमारी वाले यौन रोग संन्यास सात साल से जीवित होने की खबर न हो विधि आयोग की सिफारिशें अप्रैल, 1978 विधि आयोग की 71वीं रिपोर्ट में कहा गया कि 'इरिट्रिवेएबल ब्रेकडाउन ऑफ मैरिज' यानी शादी के टूट चुके रिश्ते के दोबारा जुड़ने की संभावना न होना भी तलाक का एक आधार माना जाए। कानून में संशोधन कर हिन्दू मैरिज एक्ट में धारा 13 सी जोड़ने की सिफारिश की गई। मार्च 2009 विधि आयोग की 217वीं रिपोर्ट में भी 'इरिट्रिवेएबल ब्रेकडाउन ऑफ मैरिज' को तलाक का आधार बनाए जाने की सिफारिश की गई।सुप्रीमकोर्ट के अहम फैसले जॉर्डन डाइंगडेह बनाम एसएस चोपड़ा नवीन कोहली बनाम नीलू कोहली समर घोष बनाम जया घोष
हिन्दू विवाह अधिनियम1955 तथा विशेष विवाह अधियम1954 इस लिंक में पढें--http://lawcommissionofindia.nic.in/Hindi_Reports/H59.pdf
हिन्दू विवाह विधि में पहले तो तलाक था ही नहीं। फिर उस में विवाह विच्छेद जोड़ा गया। जिस में कुछ खास आधारों पर विवाह विच्छेद के लिए पति या पत्नी आवेदन कर सकता था। आधारों की पुष्टि साक्ष्य से होने पर विवाह विच्छेद हो सकता था। सहमति से विवाह विच्छेद का कानून तो बहुत बाद में विवाह विधि में जोड़ा गया।