Sunday, February 9, 2020

सिविल मामलों विचारण (Trial )प्रक्रिया जानिये नयें अधिवक्ताओं के लिए

जानिए सिविल मामलों में विचारण (Trial) की प्रक्रिया 

9 Feb 2020 11:59 AM 

      नए अधिवक्ता एवं छात्रों द्वारा सिविल विधि को कठिन समझा जाता है। सिविल विधि आपराधिक विधि के मुकाबले थोड़ी कठिन होती है।

          सिविल विधि को यदि उसके व्यवस्थित क्रम में पढ़ा जाए तो यह विधि कठिन नहीं होती। इस लेख के माध्यम से हम सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के प्रावधानों से विचारण (Trial) की प्रक्रिया को सरलतापूर्वक समझने का प्रयास करेंगे। सिविल प्रक्रिया संहिता विचारण की प्रक्रिया बताती है। सहिंता के अनुसार व्यवस्थित प्रक्रिया दी गई है तथा कोई भी मुकदमा किस प्रकार प्रारंभ से समाप्त होता है। 

        वाद पत्र एवं वाद के पक्षकार (आदेश 1) सिविल प्रक्रिया संहिता में वादों का प्रारंभ वाद पत्र से किया जाता है। एक वाद, वाद के पक्षकार से प्रारंभ होता है। किसी भी वाद में दो से अधिक पक्षकार हो सकते हैं। कोई भी वाद एक पक्षीय नहीं होता है। ऐसा ना हो कि कोई पक्ष न्याय से वंचित रह जाए अथवा निर्दोष व्यक्ति अनावश्यक ही अन्याय का सामना करे। 

         वाद संस्थित करते समय इस बात का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए कि वाद में वादी प्रतिवादी के रूप में उन सभी व्यक्तियों को सम्मानित कर दिया जाए जो न्याय के लिए आवश्यक है। यह दूसरी तरफ उन व्यक्तियों को वाद में सम्मिलित कर आवश्यक रूप से परेशान नहीं किया जाए जिनको सम्मिलित किया जाना आवश्यक नहीं है। वाद पत्र में सबसे पहले वादियों का उल्लेख किया जाता है। 

         वाद में मुख्यतः दो पक्षकार होते हैं वादी एवं प्रतिवादी। वादी वह होता है जो वादपत्र प्रस्तुत कर न्यायालय से अनुतोष की मांग करता है। प्रतिवादी वह है जो वादपत्र का अपने लिखित कथन द्वारा उत्तर देकर प्रतिरक्षा प्रस्तुत करता है। पक्षकारों का चयन सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए तथा जो आवश्यक पक्षकार हैं उन्हें वाद पत्र में नहीं जोड़ा जाना चाहिए। वाद की रचना (आदेश 2) सिविल प्रकरणों में वाद की रचना महत्वपूर्ण होती है। इसका उल्लेख आदेश 2 में मिलता है। जहां वाद का संयोजन एवं कु-संयोजन बताया गया है। यह कहा गया है कि किसी भी हेतु के लिए एक समय में वाद लगा लेना चाहिए तथा बार-बार वाद लगाने से बचना चाहिए।

         यह आदेश यह स्पष्ट करना चाहता है कि किसी वाद में वाद का संयोजन करना चाहिए। सभी हेतु उस एक ही वाद में आ जाए तथा अलग-अलग हेतु के लिए अलग-अलग वाद लगाने की समस्या से बचा जा सके। वाद की बहुलता से बचा जा सके। न्यायालय वाद की बाहुल्यता से बच सके। राज्य के ऊपर अधिक मुकदमे होंगे,अधिक समय मुकदमे में देना होगा। जनता को सरल न्याय नहीं मिल पाएगा इसलिए इस आदेश के अंतर्गत बताए गए नियमों में वाद की बाहुल्यता को रोकने के प्रयास किए गए हैं। वाद का संयोजन इस प्रकार करने को कहा गया है कि वाद के सारे प्रमुख कारण इस एक ही वाद में आ जाए। अभिवचन (आदेश 6) जब वादी द्वारा कोई वाद पत्र प्रस्तुत किया जाता है तथा अनुतोष मांगा जाता है तो प्रतिवादी द्वारा अपना लिखित अभिवचन पेश किया जाता है,जिसे अभिवचन कहते है।

         यह प्रावधान सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के आदेश 6 में डाला गया है। अभिवचन ऐसे कथन होते हैं जो किसी मामले में पक्षकार द्वारा लिखे हो तैयार किए जाते है, इसमें उन सब बातों का उल्लेख देता है जिनके आधार पर वाद निर्मित किया जाएगा तथा प्रतिवादी अपना लिखित कथन प्रस्तुत करेगा। अभिवचन शब्द वादपत्र एवं प्रतिवादी के लिखित कथन दोनों को शामिल किया गया है। लिखित कथन प्रतिवादी का अभिवचन होता है जिसमें वह वादी के कथनों का उत्तर देता है।


         सामान्यता वह अपने लिखित कथन में तो वादों के तथ्यों को अस्वीकार करता है या फिर स्वीकार करता है, यह कभी-कभी विशेष कथन प्रस्तुत कर अपनी प्रतिरक्षा करता है।जिन तथ्यों को अस्वीकार करता है वह विवाधक तथ्य बन जाते है। वादपत्र (आदेश 7) वाद पत्र वादी द्वारा न्यायालय में पेश किया गया एक पत्र होता है, जिसमें वह उन तथ्यों का अभिकथन करता है जिसके आधार पर कि वह न्यायालय से अनुतोष की मांग करता है। न्यायालय की प्रत्येक न्यायिक प्रक्रिया का आरंभ वादपत्र के दायर किए जाने से होता है। इस वादपत्र में वादी अपना अभिकथन करता है तथा न्यायालय से इन्हीं बिंदुओं पर अनुतोष मांगता है। वाद का पेश किया जाना वाद को किस अदालत में पेश करना है,किसी भी न्यायिक कार्यवाही का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है। जब वाद रचना हो जाती है, वाद पत्र तैयार कर लिया जाता है तो वाद कौन से न्यायालय में पेश किया जाएगा यह तय करना सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत धारा 15 से लेकर 20 तक बताया गया है। वाद को पेश करने के लिए सर्वप्रथम तो यह नियम है कि कोई भी वाद सबसे निम्न स्तर की अदालत में विचारण के लिए पेश किया जाएगा।

        विचारण की प्रक्रिया से ऊपरी अदालतों के भार को कम करने हेतु इस प्रकार का नियम रखा गया है। वाद को पेश करने के लिए इन धाराओं के अंतर्गत मूल्य के आधार पर, क्षेत्र के आधार पर, कुछ अन्य आधार भी संहिता के अंतर्गत बताए गए हैं। 

        वाद का संस्थित होना सिविल प्रकिया संहिता की धारा 26 आदेश 4 के अंतर्गत वाद के संस्थित होने के संदर्भ में बताया गया है। जब क्षेत्राधिकार रखने वाले न्यायालय में पेश किया जाता है तो वह या तो वाद को खारिज कर देता है या वाद को संस्थित कर लेता है और वाद का नम्बर अपने रजिस्टर में अंकित कर वाद क्रमांक पेश कर दिया जाता है। वाद संस्थित हो गया इसका अर्थ है न्यायालय वाद में आगे की कार्यवाही करेगा। सम्मन धारा 27 आदेश 5 के अंतर्गत प्रतिवादी को सम्मन किए जाते हैं। सम्मन न्यायिक प्रक्रिया की महत्वपूर्ण कड़ी है, जब न्यायालय किसी मामले को सुनने के लिए आश्वस्त हो जाता है तो वह मामले में बनाए गए प्रतिवादियो को सम्मन जारी करता है। धारा 27 में सम्मन का उल्लेख किया गया है। आदेश 5 में इस सम्मन की तामील के संबंध में उल्लेख किया गया है। 

          मामले के संस्थित होने के बाद सबसे पहली कार्यवाही सम्मन की होती है, जिस न्यायालय में मामला संस्थित किया जाता है। उस न्यायालय द्वारा सर्वप्रथम सम्मन निकाला जाता है।यह सम्मन सब प्रतिभागियों को होता है। उपस्थिति व अनुपस्थिति के प्रभाव (आदेश 19) इस आदेश के माध्यम से यह जाना जाता है कि यदि सम्मन हो जाने के बाद सम्मन पर बुलाया गया प्रतिवादी उपस्थित नहीं होता है तो क्या कार्यवाही होगी,प्रतिवादी उपस्थित होता है तू क्या कार्यवाही होगी। उपस्थित होने पर कार्यवाही आगे बढ़ायी जाती है और अनुपस्थिति में सम्मन की तामील की प्रक्रिया में परिवर्तन इत्यादि किया जाता है अंत में एकपक्षीय भी किया जा सकता है। डिस्कवरी ऑफ फैक्ट्स आदेश 11 में तथ्य को जाना जाता है तथा विवाधक तथ्यों को पहचान कर उन्हें इंगित किया जाता है।जब डिस्कवरी ऑफ फैक्ट होता है तब किसी विवाद में न्यायिक कार्यवाही ठीक अर्थों में आरंभ होता है।यहाँ से विवाधक तथ्यों को साबित नासाबित किये जाने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है।विचारण भी यहीं से आरंभ होता है। डिस्कवरी ऑफ फैक्ट्स के अंतर्गत सभी तथ्यों को प्रकट करना होता है जिनसे मामले का गठन होता है। एडमिशन (स्वीकारोक्ति) विवाद के निपटारे में एडमिशन का एक महत्वपूर्ण स्थान है। 

          सिविल प्रकिया के अंतर्गत एक पक्षकार दूसरे पक्षकार के मामले को स्वीकार करता है और ऐसे स्वीकार किए गए मामले के संबंध में पक्षकारों के बीच कोई विवाद नहीं रह जाता है। परिणामस्वरूप ऐसे मामलों को साक्षी द्वारा सिद्ध करने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है और न्यायालय एडमिशन के आधार पर अपना निर्णय सुनाने के लिए अग्रसर हो सकता है। इस प्रकार एडमिशन वाद के निपटारे को सुलभ कर देता है। संहिता के आदेश 12 में ऐसे एडमिशन के बारे में प्रावधान किया गया है। दस्तावेजों का प्रस्तुतीकरण आदेश 13 के अंतर्गत दस्तावेजों की मूल प्रतियां प्रस्तुत की जाती है तथा इन दस्तावेजों को प्रकरण का साक्ष्य कहा जाता है। साक्ष्य को प्रकरण इस चरण पर आने के बाद ही प्रस्तुत किया जाता है। वाद पत्र के साथ दस्तावेजों की छायाप्रति लगा सकते है, परंतु एडमिशन होने या नहीं होने के उपरांत जिन मूल दस्तावेज पर विचारण चलेगा तथा विवाधक तथ्यों के संबंध में दस्तावेजों का प्रकटीकरण किया जाता है। वाद पदों का निश्चय किया जाना सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 14 के अंतर्गत फ्रेमिंग ऑफ इश्यू अर्थात वाद पदों का निश्चय किया जाता है। किन तथ्यों पर विवाद है यह तय किया जाता है, जिससे आगे मामले का विचार किया जा सके। साक्षियों सूची सहिंता के आदेश 16 के अंतर्गत साक्षियों की सूची प्रस्तुत की जाती है तथा इस सूची में साक्षियों की संख्या होती है, तथा उनके नाम होते हैं जो किसी विवादित तथ्य को साबित ना साबित करने के लिए पेश किए जाते है। साक्ष्य लेखन सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 18 के अंतर्गत साक्ष्यों को लिखा जाता है,साक्ष्य का लेखबद्ध किया जाना अत्यंत आवश्यक होता है। 

सिविल प्रक्रिया संशोधन 
     
         अधिनियम 2002 द्वारा साक्ष्य को लेखबद्ध किए जाने की प्रक्रिया में संशोधन भी किए गए है तथा प्रत्येक साक्षी शपथ पत्र पर माना गया है।न्यायालय साक्ष्य को लेखबद्ध कराने की प्रक्रिया पूरी करता है। निर्णय व डिक्री.     
            अधिनियम के आदेश 20 व धारा 35 के अंतर्गत मामले में अंतिम निर्णय लिया जाता है या डिक्री दी जाती है। डिक्री एवं निर्णय में कुछ अंतर होते है परंतु इस लेख में सागर में गागर भर पाना संभव नहीं होगा। इस अंतर को समझा जाना थोड़ा कठिन है। डिक्री एवं निर्णय के अंतर को किसी अन्य के लेख के माध्यम से समझा जाएगा। न्यायाधीश सबसे अंत में किसी भी मामले में निर्णय सुना देता है, आज्ञप्ति जारी कर देता है। 

प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुचाने के मामले में क्या कहता है कानून

 प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंंचाने के मामलों पर क्या कहता है कानून? 

 22 Dec 2019 1:28 

       कई बार देश में विरोध प्रदर्शन, हिंसक हो जाते हैं और जिसके परिणामस्वरूप लोक संपत्ति को काफी नुकसान पहुचंता है। हाल के समय में उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पश्चिम बंगाल और असम के कुछ हिस्सों में इसी प्रकार की हिंसा देखने को मिली, जहाँ लोक संपत्ति को नुकसान पहुंंचाया गया। हम एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते यह समझते हैं कि इस तरह की हिंसा में न केवल लोक संपत्ति को नुकसान पहुंंचता है, बल्कि टैक्स अदा करने वाले नागरिकों के धन का नुकसान होता है, सरकार के खर्चों पर बोझ बढ़ता है, अशांति फैलती है और आमजन का जीवन प्रभावित होता है। ऐसे में यह जरुरी हो जाता है कि हम लोक संपत्ति को होने वाले नुकसान से सम्बंधित कानूनी बातों को विस्तार से समझें। हाल ही में जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में छात्रों पर कथित पुलिस ज्यादती की याचिकाओं पर सुनवाई के लिए सहमत होते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एस. ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की बेंच ने दंगों और सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करने पर नाराजगी व्यक्त की थी। उन्होंने कहा था, "हम जानते हैं कि दंगे कैसे होते हैं। इसे पहले बंद कर दें। हमारे लिए सिर्फ यह तय नहीं कर सकते क्योंकि पथराव किया जा रहा है। हमने काफी दंगे देखे हैं। यह तब तय करना होगा जब चीजें शांत हों। हम कुछ भी तय कर सकते हैं। दंगे रुकने दो। सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट किया जा रहा है। कोर्ट अभी कुछ नहीं कर सकता है, दंगों को रोकें।" अगर विरोध प्रदर्शन ऐसे ही चले और सार्वजनिक संपत्तियों को नष्ट किया गया तो हम कुछ नहीं करेंगे।" इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों के खिलाफ पुलिस हिंसा की कोर्ट की निगरानी में जांच की मांग करने वाली याचिकाओं के एक समूह पर कार्रवाई करने से इनकार कर दिया था। वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह, संजय हेगड़े और कॉलिन गोंजाल्विस की दलीलें सुनने के बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने आदेश दिया, "मामले और विवाद की प्रकृति के संबंध में, और जिस विशाल क्षेत्र में मामला फैला हुआ है, हमें नहीं लगता कि इसके लिए एक समिति नियुक्त करना संभवतः है। उच्च न्यायालयों से संपर्क किया जा सकता है जहां घटनाएं हुई हैं।" लोक संपत्ति को हुए नुकसान को लेकर क्या है कानून? लोक संपत्ति को होने वाले नुकसान के लिए संसद द्वारा वर्ष 1984 में एक कानून बनाया गया था जिसे लोक संपत्ति नुकसान निवारक अधिनियम, 1984 के रूप में जाना जाता है, इसके अंतर्गत कुल 7 धाराएँ हैं, हालाँकि हाल ही में इसमें बदलाव की मांग उठी है जिसे हम आगे समझेंगे। यह कानून यह कहता है कि जो कोई व्यक्ति किसी लोक संपत्ति की बाबत कोई कार्य करके रिष्टि (Mischief) करेगा, उसे 5 वर्ष तक के कारावास और जुर्माने के साथ दण्डित किया जायेगा [धारा 3(1)]। गौरतलब है कि इस अधिनियम के अंतर्गत 'रिष्टि' का वही अर्थ है, जो धारा 425, भारतीय दंड संहिता, 1860 में है [धारा 2 (क)]। इसके अलावा यदि कुछ विशिष्ट प्रकार की संपत्तियों के बाबत कोई व्यक्ति कोई कार्य करके रिष्टि करेगा, उसे कम से कम 6 महीने की कठोर कारावास (अधिकतम 5 वर्ष तक का कठोर कारावास) एवं जुर्माने के साथ दण्डित किया जायेगा [धारा 3 (2)]। धारा 3 (2) के मामलों में, इन विशिष्ट संपत्तियों में निम्नलिखित संपत्तियां शामिल हैं:- (क) कोई ऐसा भवन, प्रतिष्ठान या अन्य संपत्ति, जिसका उपयोग जल, प्रकाश, शक्ति या उर्जा के उत्पादन, वितरण या प्रदाय के सम्बन्ध में किया जाता है, (ख) कोई तेल प्रतिष्ठान, (ग) कोई मॉल संकर्म, (घ) कोई कारखाना, लोक परिवहन या दूर संचार का कोई साधन या उसके सम्बन्ध में उपयोग किया जाने वाला कोई भवन, प्रतिष्ठान या अन्य संपत्ति. इसके अलावा यदि अग्नि या विस्फोटक पदार्थ द्वारा लोक संपत्ति को नुकसान कारित करने वाली रिष्टि की जाती है तो ऐसे व्यक्ति को कम से कम 1 वर्ष के कारावास (अधिकतम 10 वर्ष तक के कठोर कारावास) और जुर्माने से दण्डित किया जाएगा [धारा 4]। गौरतलब है कि इस धारा के अंतर्गत धारा 3 की उपधारा (1) एवं (2) के विषय में बात की गयी है। लोक संपत्ति क्या है? इस कानून में "लोक संपत्ति" का मतलब भी समझाया गया है। अधिनियम की धारा 2 (ख) के अनुसार, "लोक संपत्ति" से अभिप्रेत है, ऐसी कोई संपत्ति, चाहे वह स्थावर हो या जंगम (जिसके अंतर्गत कोई मशीनरी है), जो निम्नलिखित के स्वामित्व या कब्जे में या नियंत्रण के अधीन है :- (i) केन्द्रीय सरकार; या (ii) राज्य सरकार; या (iii) स्थानीय प्राधिकारी; या (iv) किसी केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन स्थापित निगम; या (v) कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 617 में परिभाषित कंपनी; या (vi) ऐसी संस्था, समुत्थान या उपक्रम, जिसे केन्द्रीय सरकार, सरकारी राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे: क्या मौजूदा कानून है पर्याप्त? सुप्रीम कोर्ट ने कई मौकों पर इस मौजूदा कानून, अर्थात लोक संपत्ति नुकसान निवारक अधिनियम, 1984 को अपर्याप्त पाया है, और इसके लिए दिशानिर्देशों के माध्यम से कानून में मौजूद कमी को दूर करने का प्रयास किया है। वर्ष 2007 में, अदालत ने "विभिन्न ऐसे उदाहरणों के बारे में संज्ञान लिया, जहां आंदोलन, बंद, हड़ताल इत्यादि, के नाम पर सार्वजनिक और निजी संपत्तियों को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुँचाया गया था"। दरअसल गुर्जर नेताओं द्वारा अपने समुदाय को एसटी का दर्जा देने की मांग करने के बाद, कई राज्यों में हिंसा भड़क गयी थी जिसके बाद इस कानून में बदलाव का सुझाव देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश के. टी. थॉमस और वरिष्ठ वकील फली नरीमन के नेतृत्व में 2 समितियों का गठन भी किया था। गौरतलब है कि सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के. टी. थॉमस की अध्यक्षता वाली समिति ने जहाँ लोक संपत्ति नुकसान निवारक अधिनियम 1984 के प्रावधानों को कड़ा करने के लिए और विरोध प्रदर्शन के दौरान बर्बरता के कृत्यों के लिए नेताओं को जवाबदेह बनाने पर विचार किया, वहीँ वरिष्ठ अधिवक्ता फली एस नरीमन को ऐसे बंद इत्यादि के मीडिया कवरेज को लेकर उपायों की सिफारिश करने का काम सौंपा गया था। सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के. टी. थॉमस की अध्यक्षता वाली समिति ने यह पाया कि राज्य सरकारों द्वारा 1984 के इस अधिनियम का कम ही इस्तेमाल किया जाता है, जबकि उनके द्वारा ज्यादातर भारतीय दंड संहिता, 1860 के प्रावधानों का इस्तेमाल किया जाता है। इसके बाद वर्ष 2009 में, In Re: Destruction of Public & Private Properties v State of AP and Ors (2009) 5 SCC 212. के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने 2 विशेषज्ञ समितियों की सिफारिशों के आधार पर दिशा-निर्देश जारी किए थे। वर्ष 2009 में आये इस मामले के बाद से, सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश (संपत्ति के विनाश के खिलाफ) यह हैं कि उस नेता/प्रमुख/आयोजक पर इस विनाश के दायित्व को स्वीकार किया जाएगा, जिसने विरोध करने का आह्वान किया था। समिति के सुझाव को स्वीकार करते हुए, अदालत ने वर्ष 2009 के इस मामले में यह कहा था कि अभियोजन को यह साबित करने की आवश्यकता होनी चाहिए कि किसी संगठन द्वारा बुलाये गए डायरेक्ट एक्शन में सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचा है, और आरोपी ने भी ऐसी प्रत्यक्ष कार्रवाई में भाग लिया है। अदालत ने यह भी कहा कि दंगाइयों को नुकसान के लिए सख्ती से उत्तरदायी बनाया जाएगा, और हुए नुकसान की "क्षतिपूर्ति" करने के लिए, कंपनसेशन वसूला जाएगा। अदालत ने यह साफ़ शब्दों में कहा था कि, "जहां व्यक्ति या लोग, चाहे संयुक्त रूप से या अन्यथा, एक विरोध का हिस्सा हैं, जो हिंसक हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप निजी या सार्वजनिक/लोक संपत्ति को नुकसान होता है, तो जिन व्यक्तियों ने यह नुकसान किया है, या वे उस विरोध का हिस्सा थे या जिन्होंने इसे आयोजित किया है, उन्हें इस नुकसान के लिए कड़ाई से उत्तरदायी माना जायेगा, और इस नुकसान का आकलन सामान्य अदालतों द्वारा किया जा सकता है या अधिकार को लागू करने के लिए बनाई गई किसी विशेष प्रक्रिया द्वारा किया जा सकता है।" दिशानिर्देशों के अनुसार, "यदि विरोध या उसके कारण, संपत्ति का एक बड़ा विनाश होता है, तो उच्च न्यायालय स्वयं से, मुकदमा चलाने की कार्रवाई शुरू कर सकता है और नुकसान की जांच करने और मुआवजा देने के लिए एक मशीनरी स्थापित कर सकता है। जहां एक से अधिक राज्यों में हिंसा हुई है, वहां सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ऐसी कार्रवाई की जा सकती है। इस नुकसान का दायित्व, अपराध करने वाले अपराधियों पर होगा और इस तरह के विरोध के आयोजक भी उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित दायित्व के अनुसार उत्तरदायी होंगे।" इसके अलावा इस मामले में यह भी दिशानिर्देश जारी किये गए कि, प्रत्येक मामले में, उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय, जैसा भी मामला हो, हर्जाने का अनुमान लगाने और दायित्व की जांच करने के लिए एक आयुक्त या सेवानिवृत्त जिला जज को क्लेम कमिश्नर (दावा आयुक्त) के रूप में नियुक्त कर सकता है। क्लेम कमिश्नर की सहायता के लिए एक असेसर नियुक्त किया जा सकता है। नुकसान को इंगित करने और अपराधियों के साथ सांठगांठ स्थापित करने के लिए, दावा आयुक्त और अस्सिटेंट, हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट से, जैसा भी मामला हो, मौजूदा वीडियो या अन्य रिकॉर्डिंग को निजी और सार्वजनिक स्रोतों से तलब करने के लिए निर्देश ले सकते हैं। इसके अलावा अनुकरणीय हर्जाना (Exemplary damages) एक सीमा तक प्रदान किया जा सकता है जो देय होने वाली क्षति की राशि के दोगुने से अधिक नहीं हो सकता है। वर्ष 2018 में कोडूनगल्लुर फिल्म सोसाइटी बनाम भारत संघ (2018) 10 SCC 713 के मामले में अदालत ने वर्ष 2009 के मामले में जारी दिशा-निर्देशों के अतिरिक्त कुछ दिशा-निर्देश जारी किये. पुलिस को जिम्मेदारी को दिशा-निर्देशों में संकलित करते हुए अदालत ने कहा:- A) जब हिंसा की कोई भी घटना, संपत्ति को नुकसान पहुंचाती है, तो संबंधित पुलिस अधिकारियों को प्राथमिकी दर्ज करनी चाहिए और वैधानिक अवधि के भीतर यथासंभव अन्वेषण पूरा करना चाहिए और उस संबंध में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करनी चाहिए। एफआईआर दर्ज करने और पर्याप्त कारण के बिना वैधानिक अवधि के भीतर जांच करने में किसी भी विफलता को संबंधित अधिकारी की ओर से कर्तव्य के खिलाफ माना जाना चाहिए और ऐसे मामलों को सही तरीके से विभागीय कार्रवाई के माध्यम से आगे बढ़ाया जा सकता है। B) चूंकि नोडल अधिकारी, सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों और अन्य संपत्तियों के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए प्रत्येक जिले में समग्र जिम्मेदारी रखता है, इसीलिए उसे एफआईआर दर्ज करने और / या उस संबंध में अन्वेषण कराने में किसी भी अस्पष्ट और / या असंबद्ध देरी को, उक्त नोडल अधिकारी की ओर से निष्क्रियता का मामला माना जाएगा। C) वीडियोग्राफी के संदर्भ में अधिकारी-प्रभारी को सर्वप्रथम, संबंधित पुलिस स्टेशन द्वारा घटनाओं को वीडियो-रिकॉर्ड करने के लिए बनाये गए स्थानीय वीडियो ऑपरेटरों के पैनल में से सदस्यों को कॉल करना चाहिए। यदि उक्त वीडियो ऑपरेटर, किसी भी कारण से घटनाओं को रिकॉर्ड करने में असमर्थ हैं या यदि प्रभारी अधिकारी की यह राय है कि पूरक जानकारी की आवश्यकता है, तो वह निजी वीडियो ऑपरेटरों से भी ऐसा करने को कह सकते हैं कि वे घटनाओं को रिकॉर्ड करें और यदि आवश्यक हो तो उक्त घटना के बारे में जानकारी के लिए मीडिया से अनुरोध करें। D) इस तरह के अपराधों के संबंध में अन्वेषण / परीक्षण की स्थिति रिपोर्ट, इस तरह के परीक्षण (ओं) के परिणामों सहित, संबंधित राज्य पुलिस की आधिकारिक वेबसाइट पर नियमित रूप से अपलोड की जाएगी। E) किसी भी व्यक्ति (यों) को इस तरह के अपराधों के आरोपों से बरी करने की स्थिति में, नोडल अधिकारी को ऐसे अभियुक्त के खिलाफ अपील दायर करने के लिए लोक अभियोजक के साथ समन्वय करना चाहिए। क्या है मौजूदा समस्या? हालाँकि, चूँकि ऐसा विनाश सामूहिक भीड़ द्वारा किया जाता है, और ऐसे ज्यादातर मामलों में, कोई पहचानने योग्य नेता/आयोजक नहीं होता है। यहां तक कि उन मामलों में, जहां बड़े पैमाने पर बुलाये गए आंदोलनों में पोस्टर पर कई बड़े नाम मौजूद होते हैं, परन्तु अदालत में यह तर्क दिया जा सकता है कि ऐसे लोगों ने कभी भी स्पष्ट रूप से ऐसे आन्दोलन/बंद/हड़ताल को नहीं बुलाया है। जैसा कि हमने जाना इस अधिनियम की धारा 4 के तहत, लोक संपत्ति को आग से नुकसान पहुंचाने की सजा, अधिकतम 10 साल तक की कारावास एवं जुर्माना है। लेकिन हाल के दौर में यह देखा गया है कि इस अधिनियम का इस्तेमाल न होने के कारण, यह क़ानून अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल रहा है। बंदों की संख्या में वृद्धि, उत्पीड़न, आंदोलन और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के बावजूद, अदालत में कम ही लोग दोषी करार दिए जा पाते हैं। इस तरह की घटनाओं से जुड़े सबूतों की उचित समझ न होना और अन्वेषण प्रक्रिया को उचित रूप में समझ पाने में असमर्थ अधिकारियों के कारण ऐसे मामलों में अपराधियों को दंडित करने में असमर्थता देखि गयी है। राज्य सरकारों ने नियमित रूप से अपराधियों को बुक करने के लिए विशिष्ट कानून के बजाय भारतीय दंड संहिता के कम सख्त प्रावधानों का सहारा लिया है जोकि उचित नहीं है। जैसा कि हमने देखा कि बंद, हड़ताल या आंदोलन के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले व्यक्तियों या राजनीतिक संगठनों द्वारा जिस तरह से क्षति पहुंचाई जाती है, उसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बात पर जोर दिया है कि इस तरह के कृत्यों से संबंधित पार्टी से क्षतिपूर्ति की जाए, हालाँकि वो भी करने में सरकारें अभी तक समग्र रूप से असमर्थ रही हैं। कोशी जैकब बनाम भारत संघ WRIT PETITION (CIVIL) NO.55 OF 2017 के मामले में, अदालत ने यह दोहराया था कि 1984 के इस कानून में बदलाव लाने की आवश्यकता है, और वास्तव में सरकार को इस कानून में बदलाव की दिशा में कदम उठाने चाहिए। एक ताज़ा मामले में, जब उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ और राज्य के अन्य हिस्सों में हाल ही में संशोधित नागरिकता अधिनियम के खिलाफ हिंसक विरोध प्रदर्शन हुआ तो उसमे भी हिंसा के चलते सार्वजनिक एवं निजी संपत्ति को बहुत नुकसान पहुंचा, जिसपर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यह इंगित किया कि संपत्ति को हुए नुकसान की भरपाई के लिए तोड़-फोड़ एवं हिंसा करने वाले व्यक्तियों की संपत्ति की नीलामी की जाएगी। उम्मीद यह है कि राज्य सरकार की यह कार्यवाही, सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के अंतर्गत, उचित रूप से अंजाम दी जाएगी, जिससे इन दिशा-निर्देशों का पालन करने की देश में एक बेहतर शुरुआत हो सके।