Wednesday, January 22, 2020

CRPC की धारा394 जेल एवं आर्थिक जुर्माना अभियुक्त की मौत के बाद समाप्त नहीं हो जाती

 सीआरपीसी की धारा 394 : जेल एवं आर्थिक जुर्माने की एक साथ सजा के खिलाफ दायर अपील अभियुक्त की मौत के बाद समाप्त नहीं हो जाती : सुप्रीम कोर्ट 

22 Jan 2020 12:23 PM

        सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जेल और आर्थिक जुर्माने की मिश्रित सजा के खिलाफ अपील लंबित होने के दौरान यदि अभियुक्त-अपीलकर्ता की मौत हो जाती है तो अपील समाप्त नहीं हो जाती। इस मामले में आरोपी को अबकारी अधिनियम की धारा 55(ए)(जी) के तहत दोषी ठहराया गया था और उसे दो साल जेल की सजा सुनायी गयी थी तथा एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया था। अपील लंबित होने के दौरान हाईकोर्ट ने अपीलकर्ता की मौत के तथ्य पर गौर किया, हालांकि इसने दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 394 के सिद्धांत का हवाला देते हुए अपील की स्वीकार्यता के निर्धारण का फैसला लिया था। हाईकोर्ट ने रिकॉर्ड में लाये गये साक्ष्यों पर विचार करते हुए अपीलकर्ता की दोषसिद्धि बरकरार रखी थी। हाईकोर्ट ने कहा कि चूंकि अपील लंबित होने के दौरान ही अपीलकर्ता की मौत हो गयी, इसलिए जेल की सजा अव्यावहारिक हो गयी है, लेकिन जहां तक जुर्माना की बात है तो निचली अदालत के फैसले को गलत ठहराने का उसे कोई कारण नजर नहीं आता। इसके साथ ही अपील खारिज कर दी गयी। अभियुक्त के कानूनी वारिस ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। अपील में यह दलील दी गयी थी कि यदि जेल और आर्थिक जुर्माने की सजा एक साथ थी तो अभियुक्त की मौत के बाद दोनों को समाप्त किया जाना चाहिए था। न्यायमूर्ति अशोक भूषण एवं न्यायमूर्ति एम आर शाह की पीठ ने 1898 की संहिता की धारा 431 के परिप्रेक्ष्य में सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व के फैसले का हवाला देते हुए कहा : उपरोक्त फैसले में स्पष्ट किया गया है कि भले ही धारा 431 के तहत जेल की सजा के साथ आर्थिक जुर्माना लगाया गया हो, लेकिन यह अपील निरस्त नहीं होगी। धारा 431 में वर्णित 'जुर्माने की सजा से संबंधित अपील के अलावा' जैसी अभिव्यक्ति का इस्तेमाल सीआरपीसी की धारा 394 में भी किया गया है। इस प्रकार, जेल की सजा के साथ-साथ आर्थिक जुर्माना वाले मौजूदा मामले में दायर अपील को जुर्माना के खिलाफ अपील के तौर पर देखा जाना चाहिए था और हाईकोर्ट ने अपील की स्वीकार्यता के निर्धारण में कोई गलती नहीं की है। पीठ ने, हालांकि अपील को यह कहते हुए आंशिक रूप से मंजूर कर लिया कि हाईकोर्ट को आरोपी के कानूनी वारिस को जुर्माने के खिलाफ अपनी बात कहने का एक मौका अवश्य देना चाहिए था। यह जुर्माना आरोपी के कानूनी वारिसों की सम्पत्तियों से वसूला जा सकता था। मुकदमे का ब्योरा :- केस का नाम : रमेशन (मृत) कानूनी प्रतिनिधि गिरिजा के माध्यम से/ बनाम केरल सरकार केस नं. – क्रिमिनल अपील सं. 77/2020 कोरम : न्यायमूर्ति अशोक भूषण एवं न्यायमूर्ति एम आर शाह 

केरल हाईकोर्ट में एडवोकेट कमिश्नर को ह्वाट्सअप /ई मेल पर नोट्स देने की अनुमति दी

केरल हाईकोर्ट ने एडवोकेट कमिश्नर को व्हाट्सएप/ईमेल पर नोटिस देने की अनुमति दी 

 22 Jan 2020 3:50 

       एक उल्लेखनीय घटनाक्रम में केरल हाईकोर्ट ने एडवोकेट कमिश्नर को व्हाट्सएप / ई-मेल के माध्यम से संबंधित पक्षकारों को नोटिस देने की अनुमति दी है। यह आदेश मेडिकल कॉलेज के छात्रावास में कथित रूप से खराब रहने की स्थिति से संबंधित मामले की सुनवाई के दौरान दिया गया। राज्य के मामलों में एक स्टेटस रिपोर्ट के लिए न्यायमूर्ति एस वी भट्टी ने एक एडवोकेट कमिश्नर नियुक्त किया। एडवोकेट कमिश्नर को आदेश प्राप्त होने की तिथि से 12 घंटे के भीतर छात्रावास का निरीक्षण करने के लिए कहा गया था। कमिश्नर को फैक्स, ईमेल / व्हाट्सएप द्वारा मेडिकल कॉलेज को नोटिस भेजने के लिए भी कहा गया, जो निरीक्षण करने से पहले व्यावहारिक है। कोर्ट ने व्हाट्सएप / ईमेल को सम्मन की सेवा के वैध तरीकों के रूप में मान्यता देना शुरू कर दिया है। हाल के कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं। 

(i) क्रॉस टेलीविजन इंडिया प्रा. लिमिटेड और अन्य बनाम विक्रांत चित्र प्रोडक्शंस और अन्य जहां बॉम्बे हाईकोर्ट ने नोटिस की सेवा व्हाट्सएप के माध्यम से देने का निर्देश दिया।

 (ii) एसबीआई कार्ड्स एंड पेमेंट सर्विसेज प्रा. लिमिटेड जहां बॉम्बे हाईकोर्ट ने स्वीकार कियाकि पीडीएफ फॉर्मेट में नोटिस जो व्हाट्सएप के माध्यम से दिया गया है, वैध है। 

(iii) मीना प्रिंट्स प्रा. लिमिटेड बनाम वाहिनी एंटरप्राइजेज और अन्य। जहां बॉम्बे हाईकोर्ट ने व्हाट्सएप / ईमेल के माध्यम से आदेश की एक प्रति देने का निर्देश दिया। 

(iv) जोतिंद्र स्टील एंड ट्यूब्स लिमिटेड बनाम एम.वी. खलीजा और अन्य। यहां भी बॉम्बे हाईकोर्ट ने आदेश की एक प्रति ईमेल या व्हाट्सएप द्वारा देने का निर्देश दिया। 

(v) मोनिका रानी और अन्य बनाम हरियाणा और अन्य राज्य में पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने 'व्हाट्सएप संदेश' के माध्यम से एफडीआर की प्रति भेजने का निर्देश दिया। 

(vi) डॉक्टर माधव विश्वनाथ बनाम एम / एस। बेंडले ब्रदर्स में बॉम्बे हाईकोर्ट ने समन की प्रतिस्थापित सेवा के लिए ईमेल / व्हाट्सएप पर विचार करने के लिए कहा। 

क्या सांसद/विधायक वकालात कर सकते हैं क्या?

क्या सांसद/विधायक वकालत कर सकते हैं, जानिए अधिवक्ता अधिनियम और सुप्रीम कोर्ट का विचार 

 22 Jan 2020 9:27 
          वकालत पेशे से जुड़ा हर व्यक्ति यह मानता और महसूस करता है कि वकील, मुखर प्रकृति के होते हैं और वे अपनी तार्किक सोच के लिए दुनियाभर में जाने जाते हैं। कानून की शिक्षा ग्रहण करने के पश्च्यात, उन्हें कानून को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है। अंतत: देश को कानून के शासन के अनुसार ही चलना होता है। यही कारण है कि हमारे संसद में और विभिन्न राज्यों के विधायी सदनों में हमे तमाम कानून के जानकार एवं वकील, सदस्य के रूप में दिखाई पड़ते हैं। जैसा कि हम जानते हैं, कानून बनाना विधायिका का कार्य है और इसमें वकीलों का सीधे तौर पर तो कोई हस्तक्षेप नहीं होता है, लेकिन हाँ, यदि हम संसद/विधानसभाओं/विधानपरिषदों में मौजूद तमाम सदस्यों को देखें तो हम यह पाएंगे कि उनमे से कई सदस्यगण या तो वकालत कर चुके हुए होते हैं या उन्होंने कानून की शिक्षा ले रखी होती है।
          आजादी से लेकर अबतक, संसद और प्रत्येक राज्य के विधायी सदनों के सदस्यों के शैक्षिक एवं उनके पेशे को देखकर यह बात साबित भी की जा सकती है। हम यह भी जानते हैं कि जब भी कोई कानून, विधायिका द्वारा बनाया जाता है, तो उससे पहले जब उसकी ड्राफ्टिंग होती है या उसपर आंतरिक चर्चा होती है तो उसमे भी कानून के जानकर/वकीलों द्वारा (या सदन के सदस्यों के रूप में, कमिटी सदस्य के रूप में या अन्यथा) एक अहम् भूमिका निभाई जाती है एवं उनकी भी राय ली जाती है जिससे वह कानून बेहतर से बेहतर हो सके। यहाँ यह सवाल अवश्य उठता है कि जब कानून बनाने की प्रक्रिया एवं उसे पारित करने में वकालत पेशे से जुड़े व्यक्तियों की भी एक अहम् भूमिका होती है तो क्या हमारे संसद एवं विधानसभा/विधानपरिषद् सदस्यों को, किसी सदन का हिस्सा होते हुए वकालत करने की अनुमति दी जानी चाहिए? 
      यह सवाल इसलिए बेहद अहम् है क्योंकि जहाँ एक ओर जनप्रतिनिधि होने के नाते एक व्यक्ति को सरकारी फण्ड से वेतन/भत्ता प्राप्त होता है और उसका ज्यादातर समय जनप्रतिनिधि के तौर पर कार्य करते हुए बीतता है, वहीँ दूसरी ओर अधिवक्ता अधिनियम, 1961, एक वकील से यह अपेक्षा रखता है कि वह इस पेशे के प्रति पूर्णकालिक संलग्नता बनाये रखे और जब वो कहीं और से वेतन प्राप्त कर रहा हो तो वह वकील के तौर पर अदालत में प्रैक्टिस न करे। इस लेख में हम इसी विषय पर चर्चा करेंगे और जानेंगे कि क्या एक सांसद या विधायक को वकालत करने की अनुमति है। वकालत पेशा: एक पूर्णकालिक गतिविधि?
       जैसा कि हम अनुभव करते हैं, वकालत का पेशा एक पूर्णकालिक गतिविधि है। यह जगजाहिर है कि एक वकील को हर अगले दिन, अदालत में बहस के लिए अपने मामलों को तैयार करने के लिए हर रोज काफी मेहनत करनी पड़ती है। जब वकील अदालतों में अपने मुवक्किल के लिए पेश होते हैं तो यह प्रतिदिन किसी परीक्षा से गुजरने जैसा होता है। अदालत में घंटों की मेहनत के बाद वकीलों को अपने या अपने सीनियर के चैंबर में भी कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। वकील को अपने क्लाइंट की दिक्कतों/समस्याओं को सुनना और सुलझाना होता है, उसकी काउन्सलिंग करनी पड़ती है और नए मुवक्किलों की परामर्श के लिए भी स्वयं उपलब्ध होना पड़ता है। 
     एक वकील के रूप में अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन को जारी रखने एवं अपने क्लाइंट के हितों को सर्वोपरि रखने के लिए वकीलों को अपने पेशे पर पूरा ध्यान और समय देने की आवश्यकता होती है। अपने कानूनी पेशे के अलावा अन्य महवपूर्ण चीज़ों पर ध्यान देने से निश्चित रूप से एक वकील की पेशेवर क्षमता और विशेषज्ञता पर प्रभाव पड़ता है।
         बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया रूल्स क्या कहता है? यह निर्विवाद है कि बार काउंसिल ऑफ इंडिया को अधिवक्ताओं के नामांकन और अधिवक्ताओं के पेशेवर आचरण के सम्बन्ध में नियमों और शर्तों को विनियमित करने का कार्य और कर्तव्य दिया गया है। गौरतलब है कि वकीलों के लिए वकील के तौर पर बने रहने के लिए जिन शर्तों/प्रतिबंधों को लागू किया जाना है, वे उचित होने चाहिए। 
       जैसा कि हम जानते हैं, भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के अनुसार भी, किसी भी व्यक्ति को किसी भी पेशे को अपनाने के लिए दिया गया अधिकार, अपने आप में एक पूर्ण अधिकार नहीं होता है और इस अधिकार के उपयोग पर उचित प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। हालाँकि यह जरुरी है कि यह प्रतिबंध, स्पष्ट रूप से या तो अधिवक्ता अधिनियम, 1961 या उसके अंतर्गत बनाए गए नियमों के तहत होने चाहिए (एवं ये अनुचित नहीं होने चाहिए)। उक्त अधिनियम का अध्याय IV, एक व्यक्ति के एक वकील के रूप में प्रैक्टिस करने के अधिकार से संबंधित है। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 49, उप-धारा (1) (ए) से (जे) में निर्दिष्ट मामलों के तहत अपने कार्यों के निर्वहन के लिए नियम बनाने के लिए बार काउंसिल ऑफ इंडिया को अधिकार देती है। 
        बार काउंसिल, पहले ही उक्त अधिनियम की धारा 16 (3) और 49 (1) (जी) के तहत अपनी शक्तियों के प्रयोग में, वकीलों द्वारा अन्य व्यवसाय/पेशे को अपनाने पर प्रतिबंध के बारे में नियम तैयार कर चुकी है। उक्त नियमों के भाग VI में सेक्शन VII, हमारे आज के लेख के विषय से संबंधित है, जिसका नियम 49 यह कहता है कि, कोई एडवोकेट, अगर वह प्रैक्टिस कर रहा है, तो उसको उस दौरान किसी लाभ के पद (वेतन प्राप्त होने वाली नौकरी) पर आसीन नहीं होना चाहिए। रूल 49 - एक अधिवक्ता किसी भी व्यक्ति, सरकार, फर्म, निगम या कंसर्न का पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी नहीं होगा, इसलिए जब तक वह इस तरह के किसी भी रोजगार को जारी रखता है, और इस तरह के रोजगार लेने पर, वह व्यक्ति/अधिवक्ता उस बार काउंसिल को यह तथ्य बताएगा जिसके रोल के अंतर्गत उसका नाम मौजूद है और वह अधिवक्ता के रूप में अभ्यास करना तबतक बंद कर देगा, जब तक कि वह ऐसे रोजगार में रहना जारी रखता है। 
      दरअसल यह नियम, वकालत पेशे के प्रति वकीलों का सम्पूर्ण ध्यान एवं समर्पण सुनिश्चित करने और अपना सर्वश्रेष्ठ देने के लिए लागू किया गया है, ताकि वकील, अदालत के एक अधिकारी के रूप में अपनी भूमिका को असल मायनों में पूरा कर सकें और न्याय के प्रशासन में अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दे सकें। और इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता है कि यह नियम, किसी भी तरह से मनमाना है या यह वकीलों पर अनुचित प्रतिबंध लगाता है। 
        डॉक्टर हनिराज एल. चुलानी बनाम बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र और गोवा 1996 SCC (3) 342 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह माना था कि एक व्यक्ति, जो एक वकील होने के योग्य है, उसे वकील के रूप में प्रैक्टिस करने की इजाजत उन मामलों में नहीं दी जा सकती जहाँ वह पूर्णकालिक या अंशकालिक सेवा या रोजगार में है। 
       हालांकि, बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया रूल्स का नियम 49 वहां लागू होता है, जहां एक वकील, किसी भी व्यक्ति, सरकार, फर्म, निगम या कंसर्न का पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी होता है।
         स्पष्ट रूप से, विधायकों या सांसदों को पूर्ण वेतनभोगी कर्मचारियों की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। हम इस बात को लेख में आगे समझेंगे। सांसदों एवं विधायकों के कार्य की प्रकृति सांसदों और विधायकों का कार्य अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण होता है; वे संसद और विधानसभाओं/विधानपरिषदों के पूर्णकालिक होते सदस्य हैं। उन्हें सदन की कार्यवाही में भाग लेना होता है, अपने निर्वाचन क्षेत्रों के लोगों से मिलना होता है, और लोगों के मुद्दों से जूझना पड़ता है। उनके काम को सुविधाजनक बनाने के लिए, उन्हें एक बंगला और एक कार, एक कार्यालय और वेतन भी दिया जाता है जिससे वे अपना कार्य बेहद सुचारू ढंग से कर सकें। जैसा कि हमने जाना, बार काउंसिल ऑफ इंडिया के नियम 49 में यह कहा गया है कि कोई भी पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी, चाहे वह निगम का हो, निजी फर्म का हो या सरकार का हो, कानून की अदालत के समक्ष वकील के रूप में प्रैक्टिस नहीं कर सकता है। 
        कोई भी लोक सेवक, किसी अन्य पेशे/व्यवसाय में संलग्न नहीं हो सकता है और निश्चित रूप से वह लोक सेवा में रहते हुए वकील के रूप में अपनी सेवाएं नहीं दे सकता है। 
        एम. करुणानिधि बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1979) 3 SCC 431 के मामले में 5 न्यायाधीशों वाली बेंच ने यह स्पष्ट रूप से कहा था कि सांसद और विधायक, जनता के सेवक हैं (हालांकि नियोक्ता-कर्मचारी संबंध उनके लिए लागू नहीं होंगे)।.    
         दरअसल श्री करुणानिधि ने उनके ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोप से सम्बंधित इस मामले में यह तर्क दिया था कि वह एक लोक सेवक नहीं थे। सांसदों/विधायकों/एमएलसी की स्थिति, सदन (संसद/राज्य विधायी सदन) के सदस्य की होती है। सिर्फ यह तथ्य कि वे The Salary, Allowances and Pension of Members of Parliament Act, 1954 के तहत या उक्त अधिनियम के तहत बनाए गए संबंधित नियमों के तहत, अलग-अलग भत्तों के तहत वेतन प्राप्त करते हैं, यह नहीं कहा जा सकता कि सरकार और विधायकों/सांसदों के बीच नियोक्ता और कर्मचारी (Employer-Employee) के संबंध का निर्माण हो जाता है।
 भले ही उनके द्वारा प्राप्त भुगतान को वेतन का नाम दिया जाता हो। वास्तव में, विधायकों/सांसदों को लोक सेवक माना जाता है, लेकिन उनकी स्थिति सुई जेनेरिस है और निश्चित रूप से वे किसी भी व्यक्ति, सरकार, फर्म, निगम या इस तरह के कंसर्न के पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी में से एक नहीं बन जाते है (इसलिए बार काउंसिल रूल्स का रूल 49 उनपर लागू नहीं हो सकता है)। 
         इसके अलावा सदन के अध्यक्ष द्वारा विधायकों/सांसदों के खिलाफ अनुशासनात्मक या विशेषाधिकार कार्रवाई शुरू की जा सकती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारियों के रूप में माना जा सकता है। क्या विधायक एवं सांसद को वकालत करने की है अनुमति? हालाँकि, इस सवाल का जवाब शायद आपको अबतक मिल गया होगा, लेकिन फिर भी यदि एक वाक्य में कहना हो तो हम यह कह सकते हैं कि सांसदों एवं विधायकों को वकालत करने से रोकने के सम्बन्ध में कोई भी नियम मौजूद नहीं है। अर्थात, वे बिना रोक-टोक वकालत कर सकते हैं। इसके अलावा वर्ष 2018 में अश्विनी उपाध्याय बनाम भारत संघ [WRIT PETITION (CIVIL) NO।95 OF 2018] के मामले में अदालत ने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अंतर्गत ऐसा कोई सीधा प्रावधान/नियम नहीं है जो यह सुझाव दे सके कि चुने गए जनप्रतिनिधियों, सांसदों/विधायकों/ एमएलसी पर एक वकील बने रहने के सम्बन्ध में कोई प्रतिबंध लगाया गया है।
         अदालत ने यह भी कहा कि जब ऐसा कोई नियम/प्रावधान अधिनियम में मौजूद नहीं है तो न्यायालय द्वारा, जनप्रतिनिधियों को उस समय के दौरान जब वे सांसद/विधायक/एमएलसी हैं, अदालत में वकील के रूप में प्रैक्टिस करने से वंचित नहीं किया जा सकता है। जैसा कि डॉ. हनिराज एल चुलानी के मामले में अदालत द्वारा कहा गया है, यह बार काउंसिल ऑफ इंडिया का कर्त्तव्य है कि वे अपनी नियमावली के अंतर्गत उचित प्रतिबंधों को जगह दें। आज तक, चुने हुए जनप्रतिनिधियों पर वकालते प्रैक्टिस करने पर प्रतिबंधित लगाने के लिए कोई नियम नहीं बनाया गया है, इसलिए उनपर अदालत में वकील के रूप में प्रैक्टिस करने पर कोई रोक नहीं है। यह हम यह भी कह सकते हैं कि हमारी संसद एवं राज्यों के विधायी सदन, विभिन्न प्रतिभाओं, विभिन्न अनुभवों और विभिन्न व्यावसायिक कौशल द्वारा समृद्ध होने के हकदार हैं।