Tuesday, December 10, 2019

छेत्राधिकार से बाहर होने पर जीरो FIR पंजीकरण अनिवार्य

 जब अपराध क्षेत्राधिकार के बाहर किया गया हो तो ज़ीरो FIR का पंजीकरण अनिवार्य : दिल्ली हाईकोर्ट 

 10 Dec 2019 1:57 PM 

           दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली के पुलिस आयुक्त को निर्देश दिया है कि वे कानून के अनुसार कार्यवाही न करने वाले उन पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करें, जिन्होंने 'जीरो एफआईआर' दर्ज करने से इनकार कर दिया था। साथ ही पुलिस आयुक्त को निर्देश दिया है कि वे शहर के सभी पुलिस स्टेशनों को एक सर्कुलर जारी करें, जिसमें कहा जाए कि जब उन्हें एक संज्ञेय अपराध की शिकायत प्राप्त हो, तब वह 'जीरो एफआईआर' दर्ज करें, भले ही अपराध उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर हुआ हो। 
        न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत की एकल पीठ ने निर्देश पारित करते हुए दिल्ली के पुलिस आयुक्त को यह भी निर्देश दिया है कि सर्कुलर जारी करके यह भी कहा जाए कि यदि किसी कारण से मामले को बंद किया जाना है तो उसे यथोचित आदेश के साथ बंद किया जाए और बिना किसी देरी के इस बारे में शिकायतकर्ता को लिखित में सूचित किया जाए। 
      यह है मामला बबीता शर्मा, इस मामले में प्रतिवादी नंबर 7 ने याचिकाकर्ता के खिलाफ 10 अप्रैल 2017 को नजफगढ़ पुलिस स्टेशन में शिकायत की थी और जालसाज़ी करने का आरोप लगाया था। उक्त थाने के एस.एच.ओ ने याचिकाकर्ता से गहन पूछताछ करने के बाद मामले को बंद कर दिया था और पहली शिकायत के निष्कर्ष को बबीता शर्मा ने किसी भी अदालत या किसी उच्च अधिकारी के समक्ष चुनौती नहीं दी।
         याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि बबीता शर्मा (प्रतिवादी नंबर 7) ने बाबा हरिदास नगर और नजफगढ़ पुलिस स्टेशनों के समक्ष समान तथ्यों के साथ आरोप लगाते हुए क्रमशः 04 अप्रैल 2018 और 03 जून 2019 को दूसरी और तीसरी बार शिकायत दर्ज की। 
       याचिकाकर्ता को संबंधित जांच अधिकारी (आई.ओ) ने दोनों बार जांच के लिए विधिवत रूप से बुलाया था, जिसमें याचिकाकर्ता ने अधिकारी को बताया था कि समान तथ्यों पर प्रतिवादी नंबर 7 की तरफ से दायर इसी तरह की शिकायतों को पहले ही बंद किया जा चुका है। जिसके बाद, याचिकाकर्ता को संबंधित जांच अधिकारी द्वारा किसी भी आगे की पूछताछ के लिए नहीं बुलाया गया था।
        जब 26 जुलाई 2019 को बबिता शर्मा (प्रतिवादी नंबर 7) द्वारा चैथी बार उन्हीं तथ्यों के आधार पर आरोप लगाते हुए सटीक शिकायत कापसहेड़ा पुलिस स्टेशन में दर्ज की गई थी, तो उक्त पुलिस स्टेशन के एस.आई ने याचिकाकर्ता को जांच में सहयोग करने के लिए बुलाया था। हालांकि, उसने एसआई को विधिवत रूप से बबीता शर्मा (प्रतिवादी नंबर 7) द्वारा समान तथ्यों के आधार पर दायर इसी तरह की शिकायतों के बारे में समझाया, परंतु अधिकारी ने उसके द्वारा दी गई जानकारी पर कोई ध्यान नहीं दिया। बदले में उसे अमानवीय तरीके से धमकाया कि अगर याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी नंबर 7 द्वारा रिश्वत के रूप में मांगे पैसे नहीं दिए तो उसे गंभीर परिणामों का सामना करना पड़ेगा। याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील ने दलील कि कापसहेड़ा के एस.आई व अन्य द्वारा याचिकाकर्ता का उत्पीड़न किया गया।
         जिसके बारे में विधिवत रूप से पुलिस आयुक्त को सूचित किया गया था लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई। राज्य की ओर से पेश हुए एपीपी ने माना कि शिकायतों की सामग्री के अनुसार, संज्ञेय अपराध बनता था और नजफगढ़ पुलिस थाने में प्राथमिकी दर्ज की जानी चाहिए थी। अदालत ने कहा, "सीआरपीसी की धारा 154 के अनुसार, यदि किसी भी पुलिस स्टेशन को संज्ञेय अपराध के किए जाने से संबंधित कोई भी सूचना मिलती है तो पुलिस स्टेशन उस मामले में एफआईआर दर्ज करने के लिए बाध्य है। अदालत ने आगे कहा, यदि अपराध उक्त पुलिस स्टेशन के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है, तो 'जीरो एफआईआर' दर्ज करने के बाद, उसे आगे की जांच के लिए संबंधित पुलिस स्टेशन में स्थानांतरित किया जाना चाहिए जहां अपराध किया गया है।" अदालत ने कहा, ''यह विवाद में नहीं है कि दिसंबर 2012 में हुए जघन्य 'निर्भया कांड' के बाद नए आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 में 'जीरो एफआईआर' का प्रावधान न्यायमूर्ति वर्मा समिति की रिपोर्ट में एक सिफारिश के रूप में सामने आया था। 
        प्रावधान में कहा गया है 'जीरो एफआईआर' पीड़ित के द्वारा किसी भी पुलिस थाने में दर्ज कराई जा सकती है, भले ही उसके आवास या अपराध की घटना का स्थान कोई भी हो।'' यह भी विवाद में नहीं है कि ''पिछले कई वर्षों से 'जीरो एफआईआर'भारत में प्रचलित है।
      '' इस प्रकार, उक्त प्रावधान या तथ्य के बारे में पता होने के बावजूद, किसी भी पुलिस स्टेशन ने प्रतिवादी नंबर 7 की शिकायत पर मामला दर्ज नहीं किया, जबकि संयुक्त रूप से माना गया है कि प्रतिवादी नंबर 7की शिकायत के अनुसार संज्ञेय अपराध किया गया है। इस प्रकार, शिकायतकर्ता/प्रतिवादी नंबर 7 को ऊपर बताए गए पुलिस स्टेशनों की निष्क्रियता के कारण दर-दर भटकने या एक थाने से दूसरे थाने पर जाने के लिए मजबूर किया गया था। याचिका का निपटारा करते हुए अदालत ने निर्देश दिया कि "इस प्रकार, मैं दिल्ली के पुलिस आयुक्त को निर्देश देता हूं कि वह एनसीटी दिल्ली के सभी पुलिस स्टेशनों और सभी संबंधितों को परिपत्र या स्थायी आदेश जारी करें कि यदि किसी पुलिस स्टेशन में संज्ञेय अपराध की शिकायत प्राप्त होती है, और अपराध अन्य पुलिस स्टेशन के क्षेत्राधिकार में हुआ है तो उस मामले में, वह पुलिस स्टेशन 'जीरो एफआईआर' दर्ज करें,जिसे इस तरह की शिकायत प्राप्त हुई है और उसके बाद मामले को संबंधित पुलिस स्टेशन को हस्तांतरित कर दिया जाए। 
       मैं आगे, इस मामले में दिल्ली के पुलिस आयुक्त को परिपत्र/ स्थायी आदेश जारी करने का निर्देश देता हूं कि कोई शिकायत सीआरएल.एम.सी यानि क्रिमनल शिकायत 5933/2019 के पेज नंबर 13 पर दिए गए 13 कारणों में से किसी भी कारण से बंद किया जाना है, तो उसे यथोचित आदेश के साथ बंद किया जाए और बिना किसी देरी के इस बारे में शिकायतकर्ता को लिखित में सूचित किया जाए।" आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहांं क्लिक करेंं 

फेमली कोर्ट विवाह के मामले भी देख सकता है

बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा, फैमिली कोर्ट वैवाहिक विवाद के साथ घरेलू हिंसा मामले की भी कर सकता है सुनवाई 

 10 Dec 2019 4:15 

बॉम्बे हाईकोर्ट ने पिछले महीने घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 की धारा 12 के तहत एक लंबित आपराधिक कार्यवाही को पुणे की फैमिली कोर्ट में ट्रांसफर करने की अनुमति दे दी, ताकि न्याय के हित में इस कार्यवाही को भी फैमिली कोर्ट में लंबित तलाक की याचिका के साथ-साथ चलाया जा सके। न्यायमूर्ति एस.सी गुप्ते ने संतोष मुलिक की तरफ से इस तरह के स्थानांतरण के लिए दायर आवेदन पर सुनवाई की थी। मुलिक ने अदालत के समक्ष दलील दी थी कि उसकी पत्नी मोहिनी चौधरी ने उसके द्वारा तलाक की याचिका दायर करने के बाद घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत उक्त कार्यवाही दायर की थी। आवेदक पति की ओर से अधिवक्ता अभिजीत सरवटे और अधिवक्ता अजिंक्य उदने उपस्थित हुए और प्रतिवादी पत्नी की तरफ से वकील सुहास रोहिले पेश हुए। आवेदक के वकील ने कहा कि न्याय के हित में विशेष रूप से घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 26 के संबंध में उक्त आवेदन को पुणे स्थित परिवार न्यायालय में स्थानांतरित किया जा सकता है, जहां दोनों मामलों की एक साथ सुनवाई की जा सकती है। जबकि, रोहिले ने तर्क दिया कि अधिनियम की धारा 12 के तहत दायर घरेलू हिंसा की कार्यवाही पर विचार करने के लिए फैमिली कोर्ट के पास कोई अधिकार या अधिकार क्षेत्र नहीं है। उन्होंने संदीप मृण्मय चक्रवर्ती बनाम रेशिता संदीप चक्रवर्ती और मिनोती सुभाष आनंद बनाम सुभाष मनोहरलाल आनंद मामलों में बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा दिए दो फैसलों का भी हवाला दिया। वकील सरवटे ने श्रीमती नीतू सिंह बनाम सुनील सिंह मामले में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट द्वारा दिए एक फैसले का हवाला दिया और दलील दी कि लंबित वैवाहिक कार्यवाही के मामले में अधिनियम की धारा 26 के तहत फैमिली कोर्ट के समक्ष आगे बढ़ने या कार्यवाही करने का विकल्प असंतुष्ट पक्षकार (जो वर्तमान मामले में प्रतिवादी है) के पास उपलब्ध है। कोर्ट ने कहा कि परिवार न्यायालय या फैमिली कोर्ट के पास उक्त अधिनियम की धारा 26 के अनुसार अधिकार क्षेत्र है- ''इस मिश्रित सिविल याचिका में किया गया सवाल, जो एक कार्यवाही का स्थानांतरण चाहता है, जो इस बारे में नहीं है कि किसके पास अधिनियम के तहत इस तरह की कार्यवाही दायर करने या फैमिली कोर्ट में स्थानांतरित करवाने का विकल्प है। सवाल यह है कि क्या यह न्याय के हित में होगा कि दो कार्यवाहियों को एक साथ सुना जाए ? और यदि पारिवारिक न्यायालय इन कार्यवाही को एक साथ सुनने के लिए उचित न्यायालय है, तो क्या उसके पास आपराधिक न्यायालय के समक्ष दायर घरेलू हिंसा कार्यवाही में की गई प्रार्थना पर विचार करने का क्षेत्राधिकार है? यदि दोनों मामलों को एक साथ सुना जाता है, तो यह निश्चित रूप से न्याय के हित में है कि उन्हें सुना जाए, क्योंकि पक्षकारों को केवल फैमिली कोर्ट के सामने आना पड़ेगा। जहां तक फैमिली कोर्ट के अधिकार क्षेत्र का संबंध है, अधिनियम की धारा 26 के संबंध में और हमारी अदालतों ने ऐसे क्षेत्राधिकार के पक्ष में निर्णय दिए हैं, तो संभवतः यह नहीं कहा जा सकता है कि फैमिली कोर्ट के पास ऐसे क्षेत्राधिकार का अभाव है।'' अदालत ने आगे कहा जो तर्क दिया गया था, उसके विपरीत, कार्यवाही का उक्त हस्तांतरण उसके अपील के अधिकार पर रोक नहीं लगाएगा- ''किसी भी तरह से , अगर घरेलू हिंसा कार्यवाही को फैमिली कोर्ट के समक्ष वैवाहिक कार्यवाही के साथ सुना जाता है तो भी इस अदालत में अपील दायर हो सकती है और इस अर्थ में, यह नहीं कहा जा सकता है कि किसी भी पक्ष ने अपना अपील दायर करने का अधिकार खो दिया है। जो खो गया है वह है सिर्फ पुनरीक्षण या संशोधन का एक अधिकार। हालांकि, उपरोक्त न्याय के सिद्धांत के आधार पर कार्यवाही के हस्तांतरण या स्थानांतरण से इनकार करने के लिए कोई आधार नहीं है।'' इस प्रकार, आवेदन की अपील को स्वीकार कर लिया गया था। आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें

बीमा कानून मुआवजा

 बीमा कानून, दुर्घटना मृत्यु और मुआवजा, जानिए अदालत के प्रमुख निर्णय

10 Dec 2019 

यद्यपि सुनने में भले ही अटपटा लगे, लेकिन 'दुर्घटना क्या है'यह हमेशा से दिलचस्प न्यायिक चर्चाओं के केंद्र में रहा है। सामान्य रूप से समझा जाता है कि दुर्घटना एक अप्रत्याशित घटना है, जो सामान्य रूप से घटित नहीं होती, बल्कि जिससे अप्रिय, दुखद या चौंकाने वाले परिणाम सामने आते हैं। 
       सुप्रीम कोर्ट ने 'श्रीमती अलका शुक्ला बनाम भारतीय जीवन बीमा निगम' मामले में अपना फैसला सुनाते हुए इस पहलू पर विस्तार से चर्चा की है। इन दिनों जीवन बीमा पॉलिसियों में 'दुर्घटना मृत्यु लाभ' की शर्त बहुत ही आम बात है। यदि किसी बीमित व्यक्ति की मौत दुर्घटना के कारण हो जाती है तो यह योजना सामान्य जीवन बीमा राशि के अलावा अतिरिक्त कवरेज भी प्रदान करती है। बेशक, इसका लाभ उठाने के लिए बीमित व्यक्ति को अतिरिक्त प्रीमियम का भुगतान करना होता है। उपरोक्त मामले में कोर्ट को यह तय करना था कि क्या कोई व्यक्ति मोटरसाइकिल चलाते वक्त दिल का दौरा पड़ने से मर जाता है तो उसे 'दुर्घटना में हुई मृत्यु' कहा जा सकता है? बीमा कंपनी ने इस आधार पर दावा नामंजूर कर दिया था कि मौत दुर्घटनावश नहीं हुई थी। इसे चुनौती देते हुए मृतक की पत्नी ने उपभोक्ता शिकायत की थी। यद्यपि राज्य आयोग ने याचिका को अनुमति दे दी थी, लेकिन बीमा कंपनी की अपील पर राष्ट्रीय आयोग ने राज्य आयोग के फैसले को पलट दिया था। उसके बाद उसने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। इस मामले में उपलब्ध चिकित्सकीय दस्तावेजों के अनुसार, मौत का कारण दिल का दौरा पड़ना था और स्कूटर से गिरने से इसका कोई लेना देना नहीं था। इस बात का कोई सबूत नहीं था कि मोटरसाइकिल से गिरने के कारण मृतक को शारीरिक चोट लगी थी या उसी के कारण उसे दिल का दौरा पड़ा था। न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ ने पाया कि इस मामले में मौत की वजह बाइक से गिरना नहीं थी। मौत हृदयाघात से हुई थी, जिसे हिंसक, दृष्टिगोचर और बाह्य तरीकों' से हुई दुर्घटना नहीं कहा जा सकता। 'एक्सिडेंटल' मीन्स' और 'एक्सिडेंटल रिजल्ट्स' अपने निष्कर्ष तक पहुंचने के दौरान, सुप्रीम कोर्ट ने 'दुर्घटना के कारकों' और 'दुर्घटना के परिणामों' की अवधारणाओं पर चर्चा की, जिनका इस्तेमाल ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए दुनिया भर के न्यायालयों द्वारा किया जाता है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने फैसले में कहा कि ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा और सिंगापुर सहित दुनिया भर की अदालतों के बीच इस बात को लेकर मतभिन्नता है कि क्या दुर्घटना बीमा दावों का निर्णय करते वक्त 'दुर्घटना के कारकों' और 'दुर्घटना के परिणामों' के बीच अंतर बनाये रखना चाहिए। 'दुर्घटना के कारकों' के दृष्टिकोण के अनुसार, मौत का केवल अप्रत्याशित होना ही उसे 'दुर्घटना में मौत' के रूप में वर्गीकृत करने के लिए पर्याप्त नहीं है। यह 'एक्सिडेंटल मीन्स'से होना चाहिए था। यह दृष्टिकोण 'हिंसक, दृष्टिगोचर एवं बाहरी तरीकों' के वाक्यांश में प्रयुक्त 'कारकों (मीन्स)' के इस्तेमाल से समर्थन हासिल करता है। 

     'लैंड्रेस बनाम फीनिक्स म्यूचुअल लाइफ इंश्योरेंस' मामले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का 1934 का फैसला गोल्फ खेलते वक्त एक व्यक्ति की लू लगने से हुई मौत से जुड़े बीमा दावों से संबंधित है। बहुमत के फैसले में यह कहते हुए बीमा दावे को नकार दिया गया कि 'बीमा आकस्मिक परिणाम के खिलाफ नहीं है' और यदि किसी बाहह्य और आकस्मिक कारणों से मौत हुई हो तभी बीमा का भुगतान किये जाने की जरूरत है। न्यायमूर्ति कॉर्दोजो ने हालांकि बहुमत से असहमति का फैसला सुनाया। उनके अनुसार, 'कारक' और 'परिणाम' के बीच अंतर कृत्रिम था। उन्होंने दलील दी थी कि यदि मौत कोई आकस्मिक परिणाम थी, तो यह निश्चित तौर पर 'एक्सिडेंटल मीन्स' से घटित हुई होगी। कनाडा के सुप्रीम कोर्ट ने लैंड्रेस मामले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के बहुमत के फैसले से अपना अलग मंतव्य दिया है। 

      'अमेरिकन इंटरनेशनल एश्योरेंस लाइफ कंपनी लिमिटेड और अमेरिकन लाइफ इंश्योरेंस कंपनी बनाम डोरोथी मार्टिन' मामले में बीमित व्यक्ति की मौत दवाओं की अधिक खुराक इंजेक्ट करने से हुई थी। बीमा कंपनी ने यह कहते हुए बीमा दावा खारिज कर दिया था कि मौत हिंसक एवं बाहरी 'एक्सिडेंटल मीन्स' के कारण नहीं हुई थी, बल्कि बीमित व्यक्ति द्वारा जानबूझकर किये गये कृत्य से हुई थी। कनाडा कोर्ट ने कहा कि यह तय करने के लिए कि क्या मौत का कारण 'एक्सिडेंटल' था, इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या इसके परिणाम वांछित थे? कोर्ट ने जस्टिस कोर्डोजो के तर्कों का इस्तेमाल करते हुए कहा, "हम (एक्सिडेंटल) 'मीन्स' को शेष कारक श्रृंखला से उपयोगी ढंग से अलग नहीं कर सकते और पूछ सकते हैं कि क्या वे जानबूझकर किये गये थे।" कोर्ट के अनुसार, 'एक्सिडेंटल डेथ'और 'डेथ बाय एक्सिडेंटल मीन्स'दोनों का एक ही अर्थ है और अनपेक्षित परिणामों को आकस्मिक माना चाहिए। कनाडाई अदालत के विचार का समर्थन करते हुए सिंगापुर सुप्रीम कोर्ट ने दवा के गैर-इरादतन ओवरडोज से संबंधित एक मामले में व्यवस्था दी कि 'आकस्मिक कारकों का परीक्षण उन मामलों में बीमा कवरेज से इन्कार करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए, जहां मौत का अनुमानित कारण मृतक का स्वैच्छिक कार्य था, जिसका अनपेक्षित परिणाम सामने आया था। जब मौत बाहरी हमले के कारण हुई 

       'कमलावती देवी बनाम बिहार सरकार' मामले में पटना हाईकोर्ट इस बात को लेकर जूझ रहा था कि क्या चुनाव ड्यूटी कर रहे एक अधिकारी की आपराधिक तत्वों के सशस्त्र हमले के कारण हुई मौत को पूरी तरह एवं प्रत्यक्ष तौर पर 'बाहरी हिंसा तथा किसी अन्य प्रत्यक्ष तरीके से हुई दुर्घटना का परिणाम' माना जा सकता है। 'एक्सिडेंटल मीन्स' और 'एक्सिडेंटल रिजल्ट्स' की अवधारणा पर विचार करने वाले न्यायमूर्ति आफताब आलम (जो बाद में सुप्रीम कोर्ट के जज भी बने) ने अपने फैसले में कहा कि वह लैंड्रेस मामले में जस्टिस कॉर्डोजो के विचार को मानने के पक्षधर हैं। यद्यपि न्यायमूर्ति आलम ने व्यवस्था दी कि यह मामला 'एक्सिडेंटल मीन्स' की कसौटी पर खरा है, साथ ही आपराधिक तत्वों द्वारा किया गया हमला 'बाह्य, हिंसक और दृष्टिगोचर' था। कोर्ट ने व्यवस्था दी कि दोनों ही पहलुओं से देखने पर यह मौत दुर्घटना बीमा लाभ के दायरे में आती है। 'अल्का शुक्ला' मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णायक रूप से यह निर्धारित करने के लिए जोखिम नहीं उठाया कि कौन सा दृष्टिकोण सही है। शीर्ष अदालत ने हालांकि इस तरह के मामलों को तय करने के लिए यह कहते हुए एक कसौटी तैयार की, "दुर्घटना लाभ कवर के तहत दावा कायम रखने के लिए यह स्थापित किया जाना चाहिए कि बीमित व्यक्ति को शारीरिक चोट लगी है जो मुकम्मल और प्रत्यक्ष तौर पर दुर्घटना का परिणाम है। दूसरे शब्दों में, दुर्घटना और शारीरिक चोट के बीच एक निकट संबंध मौजूद होना चाहिए। इसके अलावा, दुर्घटना बाहरी हिंसा और दृश्यमान साधनों का परिणाम हो।" 'हिंसक, दृष्टिगोचर एवं बाह्य' - इन शब्दों के अर्थ दुर्घटना लाभ उपबंध में 'एक्सिडेंटल मीन्स' के अभिप्राय की व्याख्या करने वाले इन शब्दों के निहितार्थों को समझना महत्वपूर्ण है। 'हिंसक साधनों' का अर्थ यह नहीं है कि इसमें खुला एवं पाश्विक बल का इस्तेमाल होना चाहिए। यहां तक कि हिंसा की सूक्ष्म घटना, यथा- जहरीली गैस के आकस्मिक सांस लेने, को भी 'हिंसा' माना जाएगा। कोई भी बाहरी कृत्य, जो मानव शरीर को कार्य करने में अक्षम बनाये, उसे 'हिंसक' माना जायेगा। 'हिंसक' शब्द का इस्तेमाल केवल 'किसी हिंसा के बिना' प्रतिशोध में किया जाता है। (इंग्लैंड का हैल्स्बरी कानून का चौथा संस्करण, 2013 (वॉल्यूम 25)) हैल्स्बरी नियम आगे बताता है कि 'बाहरी कारणों' का इस्तेमाल कुछ आंतरिक मामलों के प्रतिकूल के रूप में किया जाता है। कोई भी कारण, जो आंतरिक नहीं है वह बाह्य हो सकता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि चोट बाहरी होना चाहिए। हो सकता है, और अक्सर होता भी है कि आंतरिक चोट की मौजूदगी बाहर से नहीं प्रतीत होती है। इसलिए इस शब्द का प्रभाव इस बात को रेखांकित करने के लिए है कि पहचान योग्य किसी बाहरी चीजों के संदर्भ के बिना मानव शरीर के भीतर उत्पन्न होने वाले विकार दुर्घटना लाभ के तहत कवर नहीं होते हैं। इस धारणा के आधार पर, केरल उच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि किसी दुर्घटना को 'हिंसक' के रूप चिह्नित करने के लिए किसी तीसरे पक्ष या किसी बाहरी एजेंसी के कार्य की आवश्यकता नहीं थी 

        (वलसाला देवी बनाम मंडल प्रबंधक, कोट्टायम)। संबंधित मामले में उस बीमाधारक की मृत्यु को लेकर दुर्घटना लाभ का दावा किया गया था, जिसकी मौत एक ऊंची इमारत से गिरने के कारण हुई थी। इस बीमा दावे को यह कहते हुए ठुकरा दिया गया था कि यह 'हिंसक' घटना नहीं थी। बीमा कंपनी ने उस मेडिकल रिपोर्ट पर भरोसा किया था, जिसमें कहा गया था कि मृतक 'मधुमेह और उच्च रक्तचाप' से पीड़ित था। इसलिए बीमा कंपनी ने कहा कि इमारत से बीमित व्यक्ति के गिरने की वजह चिकित्सा की स्थिति थी, न कि कोई बाह्य कारण। बीमा कंपनी के इस रुख को नकारते हुए हाईकोर्ट ने कहा :- "यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि केवल तीसरे पक्ष के कारण हुई दुर्घटना ही इस उपबंध के तहत कवर होगा। चाहे यह किसी तीसरे पक्ष द्वारा अंजाम दिया गया हो, फिसल जाने के कारण या जैसा मौजूदा मामले में हुआ, इमारत से गिरने जैसी दुर्घटना इस बीमा कवरेज के दायरे में आयेगी, यदि यह घातक है। यहां तक कि इमारत से गिरने की घटना मधुमेह या उच्च रक्तचाप के कारण हुई, फिर भी यह दुर्घटना होगी, क्योंकि चिकित्सकीय कारणों से मौत नहीं हुई। इमारत से गिरना ही मौत की एक मात्र वजह थी, क्योंकि गिरने के कारण सिर में चोट लगी। इस मामले में 'बाहरी, हिंसक और दृष्टिगोचर' कारण सिर की चोट है और यही चोट मौत का कारण थी। इमारत से गिरना और सिर में चोट लगना, जिसके कारण मौत हुई, बाहरी कारण है, जबकि रक्तस्राव अथवा हाइपोग्लाइसीमिया आंतरिक कारण हैं। चोट दृष्टिगोचर भी है और इमारत से घातक तरीके से गिरना हिंसा का रूप।" 

      'अंबालाल लल्लूभाई पांचाल बनाम एलआईसी' मामले में गुजरात हाईकोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि कुत्ते के काटने से हुई मौत भी दुर्घटनावश हुई मौत है। कोर्ट ने कहा कि अप्रत्याशित रूप से होने वाले सभी हादसों, जो जानबूझकर या स्वैच्छिक नहीं हैं, को कवर करने के लिए 'दुर्घटना को एक व्यापक अर्थ दिया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा, "कुत्ते का काटना किसी इरादे से या अभिकल्पना के तहत नहीं किया जा सकता। यह अप्रत्याशित नुकसान है। कुत्ते का काटना निश्चित रूप से बाह्य, हिंसक और दृश्यमान' कारण होता है जिससे हुए नुकसान की वजह से मौत हुई। इसलिए हमारा मानना है कि कुत्ते के काटने से हुई मौत पॉलिसी उपबंध के तहत दुर्घटना लाभ के दायरे में 'बाह्य, हिंसक और दृश्यमान' कारण है।" नैसर्गिक रूप से हुई बीमारी दुर्घटना नहीं सुप्रीम कोर्ट ने 'शाखा प्रबंधक, नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम श्रीमती मौसमी भट्टाचार्जी और अन्य' के मामले में व्यवस्था दी थी कि मोजाम्बिक में मलेरिया के कारण होने वाली मृत्यु को 'दुर्घटनावश मृत्यु' नहीं कहा जा सकता। कोर्ट ने इस तथ्य के आधार पर यह व्यवस्था दी थी कि वह (मोजाम्बिया) इलाका मलेरिया की आशंका वाला क्षेत्र था और वहां मच्छर का काटना नैसर्गिक प्रक्रिया के बाहर नहीं था। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्टों में कहा गया है कि मोजाम्बिक में तीन में से एक व्यक्ति मलेरिया से पीड़ित है। कोर्ट ने कहा, "इसलिए यह मान लिया गया है कि जहां रोग नैसर्गिक रूप से हुआ हो, वह दुर्घटना की परिभाषा के दायरे में नहीं आयेगा। हालांकि, कोई रोग या शारीरिक स्थिति तब दुर्घटना के रूप में मानी जा सकती है जब इसका कारण या संचरण का तरीका अप्रत्याशित तथा अनपेक्षित हो।" हत्या एक दुर्घटना ? राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (एनसीडीआरसी) ने 'रॉयल सुन्दरम एलायंस इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम पवन बलराम मूलचंदानी' मामले में व्यवस्था दी थी कि हत्या को दुर्घटनावश हुई मृत्यु माना जा सकता है। आयोग ने 'निस्बेट बनाम रायने एंड बर्न' मामले में ब्रिटेन की अपीलीय अदालत के फैसले का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि मृतक व्यक्ति के दृष्टिकोण से हत्या एक दुर्घटना थी, क्योंकि उसकी वजह से वह व्यक्ति प्रभावित हुआ था। हेस्ल्बरी मामले से आयोग ने उद्धृत किया कि यदि चोट का तत्काल कारण बीमाधारक का जानबूझकर और अपनी इच्छा से किया गया कार्य नहीं है तो यह एक दुर्घटना होगी। आयोग ने कहा, "यह निष्कर्ष निकालना उचित और तर्कसंगत है कि व्यक्ति अनपेक्षित और गैर-इरादतन 'एक्सिडेंटल इंज्यूरी' के कारण होने वाली मौत के मद्देनजर व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा कराता है। इस मामले में, बीमाधारक द्वारा तत्काल जानबूझकर कोई ऐसा कार्य नहीं किया गया, जिसके कारण उसकी हत्या हुई। इस मामले में यह स्पष्ट नहीं है कि बीमित व्यक्ति ने तत्काल जानबूझकर किये गये किसी कार्य से या अपनी लापरवाही अथवा प्रवृत्ति के कारण या उकसावे में आकर घायल होने लायक स्थिति में खुद को डाला। उसकी मृत्यु अनपेक्षित और अप्रत्याशित घटना अर्थात् दुर्घटना के कारण हुई। पॉलिसी में वास्तव में 'हत्या'खासतौर पर अपेक्षित नहीं थी। इसलिए, मामले के तथ्यों के आईने में, मौत स्पष्ट रूप से आकस्मिक थी तथा बीमा पॉलिसी के तहत स्पष्टत: कवर थी।" 'रीता देवी बनाम न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड' मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने वाहन चोरी की कोशिश करने वाले व्यक्तियों के हाथों एक ऑटोरिक्शा चालक की हत्या को मोटर वाहन अधिनियम के तहत थर्ड पार्टी इंश्योरेंस वाले वाहन के इस्तेमाल से उत्पन्न दुर्घटना करार दिया था। जहां तक चालक की बात है तो यात्रियों द्वारा चोरी का प्रयास एक अप्रत्याशित घटना थी और अगर चालक इस तरह के प्रयास में मारा जाता है, तो यह नैसर्गिक कारण से इतर की घटना है। कोर्ट ने कहा था कि इस घटना को एक दुर्घटना के रूप में माना जाये क्योंकि यह ड्यूटी के दौरान घटित हुई। जब दुर्घटना के कारण बीमारी हो ऐसी परिस्थितियां भी हो सकती हैं जहां दुर्घटना तत्काल मृत्यु का कारण नहीं बनती हो, लेकिन अन्य स्वास्थ्य जटिलताओं को जन्म दे, जिससे मृत्यु हो सकती है। ऐसे मामले में, जहां एक व्यक्ति की दुर्घटना के तीन दिन बाद दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई, एनसीडीआरसी ने माना कि इसे दुर्घटना के कारण हुई मौत माना जाना चाहिए। आयोग ने 'कृष्णावती बनाम एलआईसी' मामले में निष्कर्ष दिया, "पहले दुर्घटना हुई, जिसके कारण व्यक्ति घायल हुआ और सीने में दर्द हुआ, और अंतत: उसकी मौत हो गयी। हो सकता है, चिकित्सा की भाषा में मौत का कारण 'दिल का दौरा पड़ना' बताया जा सकता है, लेकिन दिल का दौरा पड़ने का मुख्य कारण दुर्घटना की वजह से चोटिल होना था। सीने में दर्द की वजह दुर्घटना थी और उसके बाद दिल का दौरा पड़ा।" जब काम के तनाव के कारण मौत होती है ऐसे कई फैसले हैं जो कहते हैं कि अगर मौत काम से जुड़े तनाव के कारण होती है, तो इसे रोजगार के दौरान होने वाली दुर्घटना के रूप में माना जाना चाहिए, ताकि बीमा कवरेज की सुरक्षा मिल सके। ये निर्णय कामगार क्षतिपूर्ति अधिनियम के संदर्भ में दिए गए हैं।
        'यूनाइटेड इंडियन इंश्योरेंस कंपनी बनाम सी एस गोपालकृष्णन' के मामले में केरल हाईकोर्ट का निर्णय इस बिंदु पर एक अच्छा संदर्भ है, क्योंकि इसमें उच्च न्यायालय के कई अन्य फैसलों पर चर्चा की गई है, जिसमें कहा गया है कि कड़ी मेहनत की वजह से हुई बीमारी के कारण मृत्यु एक घातक दुर्घटना है।
        'लक्ष्मीबाई आत्माराम बनाम चेयरमैन और ट्रस्टी, बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट, चागला' मामले में खंडपीठ के लिए मुख्य न्यायाधीश ने कहा, "यदि नौकरी के कारण मृत्यु के कारक में योगदान हुआ या नौकरी की वजह से मौत हुई, या यों कहें कि मौत न केवल बीमारी से हुई बल्कि बीमारी और नौकरी दोनों के कारण, तब नियोक्ता जिम्मेदार होगा तथा यह कहा जा सकता है कि नौकर ी के कारण ही मौत हुई।" इस तरह के उपबंधों में पाया जाने वाला एक मानक वाक्यांश है- "हिंसक, दृश्यमान और बाहरी वजहों से हुई दुर्घटना के कारण मौत"।