Monday, April 24, 2017

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अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश का कार्य

                  अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश का कार्य अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश का कार्य न्यायालय व विभिन्न शाखाओं के बारे में 1. जब भी किसी न्यायाधीश को प्रशिक्षण के पश्चात् नियमित न्यायालय में पदस्थ किया जाता है तब न्यायालय में बैठते ही कुछ कर्मचारियों से उन्हें रोजाना कार्य लेना होता है और वे दैनिक संपर्क में रहते है
                      अतः प्रत्येक न्यायाधीश को यदि उन कर्मचारियों के वैधानिक कत्र्तव्यों और दायित्वों के बारे में जानकारी होती है तो उनसे कार्य लेने में अपेक्षाकृत आसानी होती है और किसी न्यायालय के कार्य पर न्यायाधीश का नियंत्रण भी इससे अच्छा रहता है यहां हम किसी भी न्यायालय के प्रमुख कर्मचारियों के कत्र्तव्यों के बारे में चर्चा करेंगे। किसी भी न्यायालय में मुख्य रूप से निम्न लिखित कर्मचारी पदस्थ होते है:- 

1. व्यवहार प्रस्तुतकार या सिविल रीडर
2. निष्पादन लिपिक या एक्सीक्यूशन क्र्लक/ क्रिमिनल रीडर
 3. साक्ष्य लेखक
 4. स्टेनो ग्राफर /क्र्लक स्टेनो
 5. आदेशिका लेखक या प्रोसेस राईटर
6. बोर्ड प्यून उक्त कर्मचारीगण के मध्यप्रदेश सिविल न्यायालय नियम, 1961 एवं नियम एवं आदेश अपराधिक के अनुसार कत्र्तव्य इस प्रकार होते है। परिशिष्ट - ए 2. न्यायालय के कार्य के अतिरिक्त कुछ शाखाए या सेक्शन भी होते है जिनकी कार्य प्रणाली समझना आवश्यक होता है क्योंकि उन शाखाओं का न्यायालय के कार्य पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है और कभी-कभी न्यायाधीश को उन शाखाओं का प्रभारी अधिकारी भी बनाया जाता है अतः इन शाखाओं के कर्मचारी और उनके कत्र्तव्य भी समझना आवश्यक होता है जो निम्न प्रकार से हैं:-
 1. प्रतिलिपि शाखा
 2. नजारत
3. अभिलेखागार या रिकार्ड रूम
 4. ग्रंथालय या लाईब्रेरी
5. लेखा शाखा
 6. सांख्यिकी या स्टेटीकल शाखा
 7. मालखाना
 8. कर्मचारीगण के सामान्य व्यवहार आचरण एवं मध्यप्रदेश सिविल सेवा आचरण नियम, 1965 उक्त शाखाओं के कर्मचारियों के कत्र्तव्य एवं दायित्व इस प्रकार है। परिशिष्ट - बी 3. व्यवहार न्यायालय का क्षेत्राधिकार, गठन, वर्ग के बारे में मध्यप्रदेश व्यवहार न्यायालय अधिनियम, 1958 के प्रकाश में:- इस अधिनियम की धारा 2 ए के अनुसार ’’उच्चतर न्यायिक सेवा का संवर्ग’’ अर्थात केडर आफ हायर ज्यूडिशियल सर्विस से तात्पर्य जिला न्यायाधीशों का संवर्ग और उसके अंतर्गत जिला न्यायाधीश तथा अपर जिला न्यायाधीश आते है। उक्त अधिनियम की धारा 2 बी के अनुसार ’’निम्नतर न्यायिक सेवा का संवर्ग’’ अर्थात केडर आफ लावर ज्यूडिशियल सर्विस से तात्पर्य सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग तथा सिविल न्यायाधीश द्वितीय वर्ग से गठित होने वाला सिविल न्यायाधीश का संवर्ग आता है। उक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है की एक केडर उच्चतर न्यायिक सेवा का है और दूसरा केडर निम्नतर न्यायिक सेवा का है प्रथम केडर में सभी जिला जज और अपर जिला जज आते है जबकि द्वितीय केडर में सभी व्यवहार न्यायाधीश या सिविल जज वर्ग 1 और 2 आते है। उक्त अधिनियम की धारा 2 डी के अनुसार किसी वाद या मूल कार्यवाही के संबंध में ’’मूल्य’’ से तात्पर्य ऐसे वाद या मूल कार्यवाही की विषय वस्तु की रकम या उसका मूल्य है। 4. सिविल न्यायालयों के वर्ग या क्लासेस आफ सिविल कोर्ट धारा 3 सिविल न्यायालयों के वर्ग (1) तत्समय प्रवर्त किसी अन्य विधि के अधीन स्थापित न्यायालयों के अतिरिक्त सिविल न्यायालयों के निम्न लिखित वर्ग होते है:-
 1. जिला न्यायाधीश का न्यायालय
 2. व्यवहार न्यायाधीश प्रथम वर्ग का न्यायालय
 3. व्यवहार न्यायाधीश द्वितीय वर्ग का न्यायालय -
            धारा3 (2) के अनुसार जिला न्यायाधीश के प्रत्येक न्यायालय का पीठासीन उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त जिला न्यायाधीश होता है और उच्च न्यायालय जिला न्यायाधीश के न्यायालय में अधिकारिता का प्रयोग करने के लिए उच्चतर न्यायिक सेवा के केडर में से अपर जिला न्यायाधीशों को भी नियुक्त कर सकता है।
           धारा 3 (3) के अनुसार सिविल न्यायाधीश के न्यायालय का अपर न्यायाधीश निम्नतर न्यायिक सेवा से नियुक्त किया जा सकता है।
           धारा 3 (4) के अनुसार जिला न्यायाधीश के न्यायालय के अंतर्गत अपर जिला न्यायाधीश का न्यायालय भी आता है तथा व्यवहार न्यायाधीश प्रथम वर्ग या व्यवहार न्यायाधीश द्वितीय वर्ग के न्यायालय के अंतर्गत उस न्यायालय के अपर व्यवहार न्यायाधीश का न्यायालय भी आयेगा।
          धारा 4 सिविल जिले (1) राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित किया गया कोई राजस्व जिला सिविल जिला भी होगा, परंतु राज्य सरकार उच्च न्यायालय की सिफारिश पर ऐसे सिविल जिलों की सीमाओं या संख्या में परिवर्तन कर सकेगी या नये सिविल जिले का सृजन या निर्माण कर सकेगी। धारा
          4 (2) के अनुसार उप धारा 1 के अधीन सिविल जिले की सीमाओं या उनकी संख्या में परिवर्तन किये जाने पर या नये सिविल जिले का निर्माण किये जाने पर उच्च न्यायालय वादों अपीलों तथा कार्यवाहियों को वर्तमान जिले के न्यायालयों में से ऐसे अन्य न्यायालय को, जिन्हें ऐसे परिवर्तन या निर्माण के परिणाम स्वरूप क्षेत्रीय अधिकारिता प्राप्त हो गई हो, अंतरित किये जाने के बारे में तथा उनसे संबंधित किसी अन्य विषय के संबंध में ऐसा आदेश कर सकेगा जैसा वह उचित समझे। वर्तमान में मध्यप्रदेश में 50 सिविल जिले है।
           धारा 5 सिविल न्यायालयों की स्थापना राज्य सरकार:- ए. प्रत्येक व्यवहार जिले के लिए जिला न्यायाधीश के न्यायालय और बी. प्रत्येक व्यवहार जिले के लिए अतिरिक्त जिला न्यायाधीश, व्यवहार न्यायाधीश प्रथम वर्ग और व्यवहार न्यायाधीश द्वितीय वर्ग के उतने न्यायालयों की स्थापना कर सकेगी जितने उसे उचित प्रतीत हो।
          धारा 6 सिविल न्यायालयों की प्रारंभिक अधिकारिता (1) तत्समय प्रवृत किसी अन्य विधि के प्रावधानों के अधीन रहते हुये:- ए. सिविल न्यायाधीश द्वितीय वर्ग के न्यायालय को दो लाख 50 हजार रूपये तक के किसी भी सिविल वाद या मूल कार्यवाही को सुनने और निराकृत करने की अधिकारिता होती हैं। बी. सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग को 10 लाख तक के मूल्य के किसी भी सिविल वाद या मूल कार्यवाही को सुनने और निराकृत करने की अधिकारिता होती हैं। सी. जिला न्यायाधीश के न्यायालयों को मूल्य के संबंध में बिना किसी सीमा के किसी सिविल वाद या मूल कार्यवाही को सुनने और निराकृत करने की अधिकारिता होती हैं। धारा
          6 (2) के अनुसार उप धारा 1 के खण्ड ए और बी में उल्लेखित न्यायालय के क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाए वह होगी जिन्हें राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा नियत करे।
          धारा 7 प्रारंभिक अधिकारिता का मुख्य सिविल न्यायालय (1) जिला न्यायाधीश का न्यायालय सिविल जिले की प्रारंभिक अधिकारिता का मुख्य सिविल न्यायालय होता हैं। धारा
         7 (2) के अनुसार कोई अपर जिला न्यायाधीश जिला न्यायालय के कृत्यों, जिनमें आरंभिक अधिकारिता वाले प्रधान सिविल न्यायालय के कृत्य भी सम्मिलित है, में से किन्ही भी ऐसे कृत्यों का निर्वाहन करेगा, जो की जिला न्यायाधीश साधारण या विशेष आदेश द्वारा उसे सौपे और ऐसे कृत्यों का निर्वाहन करने में वह उन शक्तियों का प्रयोग करेगा जिनका की प्रयोग जिला न्यायाधीश करते हैं। धारा 8 अपर न्यायाधीशों की नियुक्ति---    (1) जब कभी यह आवश्यक या उचित प्रतीत होता है जिला न्यायाधीश, अपर जिला न्यायाधीश, सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग, सिविल न्यायाधीश द्वितीय वर्ग के न्यायालय के लिए अपर न्यायाधीश या अपर न्यायाधीशों की नियुक्ति उक्त न्यायालयों में की जा सकेगी और ऐसे अपर न्यायाधीश उस न्यायालय की, जिसमें की उसे नियुक्त किया गया है, अधिकारिता का तथा उस न्यायालय के न्यायाधीशों की शक्तियों का प्रयोग उस प्राधिकारी के जिसके द्वारा उसकी नियुक्ति की गई है, किन्हीं ऐसे साधारण या विशेष आदेशों के अधीन रहते हुये करेगा, जो की वह प्राधिकारी उन वादों जिनका की विचारण, सुनवाई या अवधारण ऐसे अपर न्यायाधीश द्वारा कर सकेगा के वर्ग या मूल्य के संबंध में दे। धारा
         8 (2) के अनुसार किसी अधिकारी को एक या अधिक न्यायालयों का अपर न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकेगा और किसी अधिकारी को, जो किसी एक न्यायालय में है किसी अन्य न्यायालय का अथवा अन्य न्यायालयों का अपर न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकेगा।
        धारा 9 कुछ न्यायालयों को लघुवाद न्यायालयों के क्षेत्राधिकार से विनिहित करने की शक्ति (1) उच्च न्यायालय अधिसूचना द्वारा किसी सिविल न्यायालय में लघुवाद न्यायालय की शक्तिया उस विधि के अधीन निहित कर सकेगा, जो किसी क्षेत्र में लघुवाद न्यायालय के संबंध में उस समय प्रवर्त हो, ऐसी शक्ति का प्रयोग उन मामलों में किया जा सकेगा, जो उस न्यायालय की अधिकारिता की सीमाओं के भीतर या ऐसी सीमाओं के भीतर किसी विशिष्ट क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं। धारा
          9 (2) के अनुसार लघुवाद स्वरूप के व्यवहार वादों का मूल्य जिला न्यायाधीश के न्यायालय की दशा में 1 हजार रूपये, व्यवहार न्यायाधीश वर्ग 1 के न्यायालय की दशा में 5 सौ रूपये और व्यवहार न्यायाधीश वर्ग 2 की दशा में 2 सौ रूपये से अधिक नहीं होगा।
           धारा 10 कुछ कार्यवाहियों में सिविल न्यायाधीशों द्वारा जिला न्यायालय के क्षेत्राधिकार का प्रयोग (1) उच्च न्यायालय सामान्य या विशेष आदेश द्वारा किसी सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग को संज्ञान लेने और किसी जिला जज के पास लंबित मामले को सिविल जज प्रथम वर्ग को अंतरित करने का आदेश निम्न मामलों के बारे में दे सकता है:- ए. भाग 1 से 8 के अधीन भारतीय उत्तराधिकारी अधिनियम, 1925 बी. भारतीय उत्तराधिकारी अधिनियम 1925 के भाग 9 के अधीन किसी कार्यवाही जिसका निराकरण जिला प्रत्यायोजन द्वारा नहीं किया जा सकता। सी. गार्जियन एण्ड वार्ड एक्ट, 1890 या डी. प्रोविनसियल                          एनशोलवेंसी एक्ट, 1920 धारा 10 (2) के अनुसार भारतीय उत्तराधिकारी अधिनियम, 1925 की धारा 388 में किसी बात के होते हुये भी उच्च न्यायालय सामान्य या विशेष आदेश द्वारा जिला न्यायाधीश की श्रेणी से निम्न के किसी न्यायाधीश को उस अधिनियम के भाग 10 के अधीन जिला न्यायाधीश के अधिकारों का प्रयोग करने की शक्ति दे सकता है।
         धारा 10 (3) जिला न्यायाधीश उसके नियंत्रण के किसी सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग द्वारा संज्ञान ली गई या उसे अंतरित ऐसी कार्यवाही को वापस ले सकता है जिनका या तो वह स्वयं निपटारा कर सकता है या किसी सक्षम न्यायालय को अंतरित कर सकता हैं। धारा
        10 (4) के अनुसार इस धारा के अधीन सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग द्वारा संज्ञान ली गई अथवा उसे हस्तांतरित की गई कार्यवाहियों जिला न्यायाधीश के समक्ष कार्यवाहियों को लागू होने वाली विधि और नियमों के अनुसार उसके द्वारा निपटाई जायेगी।
        धारा 11 के अनुसार जिला न्यायालय के न्यायाधीश को भारतीय विवाह विच्छेद अधिनियम, 1869 के अधीन किसी मूल कार्यवाही की सुनवाई और निर्णय करने का क्षेत्राधिकार होगा और वह उस सिविल जिले का इस अधिनियम के तहत जिला न्यायालय समझा जायेगा।
         धारा 12 सिविल न्यायालयों के बैठने का स्थान (1) प्रत्येक व्यवहार न्यायालय उन स्थानों में बैठेगा, जहां उच्च न्यायालय अधिसूचना द्वारा निर्देशित करे अथवा ऐसे किसी निर्देश के अभाव में उस न्यायालय के अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर किसी भी स्थान में बैठेगा। धारा
       12 (2) के अनुसार इस अधिनियम के अंतर्गत स्थापित किये गये किसी न्यायालय के प्रत्येक अपर न्यायाधीश उस न्यायालय की जिसके की वे अपर न्यायाधीश है, अधिकारिता के स्थानीय सीमाओं के भीतर ऐसे स्थान या स्थानों पर बैठेगे जैसा उच्च न्यायालय निर्देशित करे। धारा
       12 (3) के अनुसार जिला न्यायाधीश और जिले के अन्य न्यायाधीश उच्च न्यायालय की पूर्व मंजूरी से और पक्षकारों को सम्यक सूचना देने के पश्चात अस्थायी रूप से किसी विशिष्ट वर्ग के मामलों के सुनवाई के लिए जिले किसी अन्य स्थान पर अस्थायी रूप से बैठ सकेंगे।
        धारा 13 अपीलीय क्षेत्राधिकार (1) तत्समय प्रवृत किसी विधि द्वारा अन्यथा उपबंधित स्थिति को छोड़कर मूल क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने वाले न्यायालयों की डिक्रीयों या आदेशों से अपीले निम्नांकित प्रारंभिक अधिकारिता वाले न्यायालय में होगी:- ए. व्यवहार न्यायाधीश प्रथम वर्ग या व्यवहार न्यायाधीश द्वितीय वर्ग की अज्ञाप्ति या आदेश से जिला न्यायाधीश के न्यायालय में अपील होगी। बी. जिला न्यायाधीश के न्यायालय की डिक्री या आदेश से उच्च न्यायालय में अपील होगी।
              स्पष्टीकरण:- सिविल न्यायाधीश के न्यायालय या जिला न्यायाधीश के न्यायायल के अंतर्गत इस न्यायालय का अपर न्यायाधीश भी आयेगा।
          धारा 14 जिले के सिविल न्यायालयों और न्यायाधीशों पर अधिक्षण तथा नियंत्रणः- उच्च न्यायालय के साधारण अधिक्षण तथा नियंत्रण के अधीन रहते हुये जिला न्यायाधीश अपनी अधिकारिता के भीतर के स्थानीय क्षेत्र में इस अधिनियम के अधीन स्थापित किये गये समस्त अन्य सिविल न्यायालयों का तथा ऐसे न्यायालयों में नियुक्त किये गये समस्त अपर न्यायाधीशों के बारे में उसका यह कत्र्तव्य होगा की वह:- ए. अपने नियंत्रण के अधीन न्यायालयों तथा कार्यालयों की कार्यवाहियों का निरीक्षण करे या निरीक्षण करवाये। बी. किन्ही मामालों के बारे में ऐसे प्रशासनिक निर्देश दे जैसे वह उचित समझे। सी. जिले में अधीनस्थ न्यायालयों तथा न्यायाधीशों से ऐसी रिपोर्ट तथा रिटर्न मगाये जो उच्च न्यायालय द्वारा विहित किये जावे या जिनकी प्रशासनिक प्रयोजनों के लिए उसे अपेक्षा हो।
          धारा 15 कार्य विभाजन की शक्ति (1) सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 में या किसी क्षेत्र में तत्समय प्रर्वत लघुवाद न्यायालयों से संबंधित विधि में या इस अधिनियम में अंतरविष्ट किन्ही अन्य उपबंधों में किसी बात के होते हुये भी जिला न्यायाधीश लिखित आदेश द्वारा यह निर्देश दे सकेगा की उसके न्यायालय द्वारा सिविल जिले में धारा 5 के अधीन स्थापित किये गये अन्य सिविल न्यायालयों के अपर न्यायाधीशों के बीच कार्य परस्पर ऐसी रीति में किया जाये, जैसा की वह उचित समझे, परंतु लघुवाद न्यायालय उसके धन संबंधी अधिकारिता से बाहर कार्य करने के लिए सशक्त नहीं की जा सकेगी।
         धारा 15 (2) के अनुसार सक्षम अधिकारिता वाले किसी न्यायालय में संस्थित किसी वाद अपील या कार्यवाही में का कोई भी न्यायिक कार्य केवल इस तथ्य के कारण अविधिमान्य नहीं होगा की ऐसा संस्थित किया जाना उप धारा 1 में निर्दिष्ट किये गये कार्य वितरण आदेश के अनुसार नहीं था।
          धारा 15 (3) के अनुसार जब कभी किसी ऐसे न्यायालय को जो कि उप धारा 2 में उल्लेखित है, यह प्रतीत हो की उसके समक्ष लंबित किसी वाद अपील या कार्यवाही का संस्थित किया जाना उप धारा 1 के अधीन किये गये कार्य वितरण आदेश के अनुरूप नहीं था, तो वह ऐसे वाद अपील या कार्यवाही का अभिलेख समूचित आदेश के लिए जिला न्यायालय को प्रस्तुत करेगा तथा उसके संबंध में जिला न्यायाधीश संबंधित अभिलेख का अंतरण या तो कार्य वितरण आदेश के अनुसार समूचित न्यायालय को करते हुये या उसका अंतरण सक्षम अधिकारिता वाले किसी अन्य न्यायालय को करते हुये आदेश पारित कर सकेगा।
          धारा 15 (4) के अनुसार उप धारा 1 के अधीन सिविल कार्य का वितरण करते समय जिला न्यायाधीश ऐसे सिद्धांतो द्वारा मार्गदर्शित होगा जो उच्च न्यायालय द्वारा विहित की जाये। धारा 15 की इस कार्यवाही को सामान्यतः कार्य विभाजन पत्रक या डिस्ट्रीब्यूशन मेमो कहते है अतः जब भी कोई वाद अपील या अन्य कार्यवाही किसी भी न्यायाधीश के समक्ष प्रथम बार प्रस्तुत हो तो उसे कार्य विभाजन पत्रक के प्रकाश में यह संतुष्टि कर लेना चाहिए की ऐसी कार्यवाही का उसे कार्य विभाजन पत्रक के अनुसार क्षेत्राधिकार प्राप्त है।
         धारा 16 व्यक्तिगत हित वाले प्रकरण का विचारण न करना (1) कोई भी न्यायाधीश किसी वाद अपील या अन्य कार्यवाही की सुनवाई या निर्णय नहीं करेगा जिसमें वह एक पक्षकार है या जिस कार्यवाही से वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित हैं। उप धारा (2) के अनुसार जब भी ऐसी वाद अपील या अन्य कार्यवाही किसी न्यायाधीश के समक्ष आती है तो वह उसकी एक रिपोर्ट मय अभिलेख जिला न्यायाधीश महोदय को भेजेंगे जो या तो उसे स्वयं निपटा सकते है या निपटारे के लिए किसी अन्य न्यायालय को अंतरित कर सकते हैं। उप धारा (3) के अनुसार यदि जिला न्यायाधीश के समक्ष ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो तो वह इसकी रिपोर्ट माननीय उच्च न्यायालय को करते हैं।
          धारा 18 जिला न्यायाधीश के पद पर अस्थायी रिक्ती जहा जिला न्यायाधीश मृत्यु या अवकाश पर होने के कारण या बीमारी या अन्य कारण से अनुपस्थित हो तब वरिष्ठतम जिले के अगले न्यायाधीश को उनके कत्र्तव्य अस्थायी रूप से पालन करने के लिए माननीय उच्च न्यायालय सशक्त कर सकता है।
         धारा 19 के अनुसार जिला न्यायाधीश भी जब वह जिले में ही मुख्यालय छोड़कर जा रहे हो तब ऐसी शक्तिया वरिष्ठतम अपर न्यायाधीश या उनके भी न होने पर सिविल न्यायाधीश को प्रत्यायोजित कर सकते हैं।
          धारा 21 अवकाश (1) राज्य शासन के अनुमोदन के अधीन रहते हुये उच्च न्यायालय उन दिनों की एक सूची तैयार करेगा जिसके अनुसार उसके अधीन सिविल न्यायालय में प्रति वर्ष अवकाश मनाये जायेंगे। (2) के अनुसार ऐसी सूची राजपत्र में प्रकाशित की जायेगी। (3) के अनुसार कोई न्यायिक कार्य केवल इस कारण अमान्य न होगा की वह अवकाश के दिन में कर लिया गया था। (4) के अनुसार जिला न्यायाधीश अवकाश के दौरान अत्यावश्यक सिविल मामले के निपटारे के लिए ऐसी व्यवस्था कर सकेगे जैसे वह ठीक समझे।
           धारा 22 मुद्रा या सील प्रत्येक व्यवहार न्यायालय ऐसे प्रकार और परिणाम की मुद्रा का जैसा राज्य सरकार विहित करे उसके द्वारा जारी की गई सभी आदेशिकाओं जारी आदेशों और पारित डिक्रीयों में उपयोग करेंगे।
ॉ         धारा 23 में नियम बनाने की शक्ति आदि दिये गये हैं। व्यवहार प्रक्रिया संहिता धारा 3 सी.पी.सी. के अनुसार जिला न्यायालय उच्च न्यायालय के अधीनस्थ है और जिला न्यायालय से अवर या निम्न श्रेणी का सिविल न्यायालय और लघुवाद न्यायालय उच्च न्यायालय और जिला न्यायालय के अधीनस्थ हैं।
             धारा 6 धन संबंधी अधिकारिता अभिव्यक्त रूप से जैसा उपबंधित है उसके सिवाय किसी बात का प्रभाव ऐसा नहीं होगा की वह किसी न्यायालय को उन वादों पर अधिकारिता दे दे जिनकी रकम या जिनकी विषय वस्तु का मूल्य उसकी मामूली अधिकारिता की धन संबंधी सीमाओं से अधिक है।
            धारा 9 के अनुसार न्यायालयों को उन वादों के सिवाये जिनका उनके द्वारा संज्ञान अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से वर्जित है सिविल प्रकृति के सभी वादों के विचारण की अधिकारिता होगी।
            धारा 12 एवं 15 से 21 ए तथा 26 भी क्षेत्राधिकार के बारे में ध्यान रखे जाने योग्य है। क्षेत्राधिकार के बारे में और उक्त प्रावधानों के बारे में वैधानिक स्थिति धारा 9 सी.पी.सी. पर 1. न्याय दृष्टांत कमलकांत गोयल विरूद्ध मेसर्स लूपिन लेबोलेटरीज लिमिटेड, आई.एल.आर. 2011
           एम.पी. 2191 में यह प्रतिपादित किया गया है कि:-
           1. धारा 84 (4) कंपनी अधिनियम के प्रावधानों के तहत रजिस्ट्रार आफ कंपनी का यह कत्र्तव्य है कि वह स्वयं एक जांच गठित करे इस संबंध में कंपनी - इश्यू आफ शेयर सर्टीफीकेटस - रूल्स, 1960 में भी प्रावधान हैं। मामला यह था की वादी यह वाद लेकर आया था की एक बैग जिसमें सभी शेयर सर्टीफीकेट रखे थे और ट्रांसफर डीट भी रखी थी वह गुम गया वादी इस घोषणा का वाद लेकर आया की प्रतिवादी शेयर सर्टीफीकेट किसी अन्य को अंतरित न करे और डूप्लीकेट शेयर सर्टीफीकेट जारी करे ऐसी घोषणा की जावे। न्याय दृष्टांत श्रीपाल जैन विरूद्ध टोरेंट फर्मा सूटीकल लिमिटेड,              1995 सप्लीमेंट (4) 590 पर भरोसा करते हुये यह प्रतिपादित किया गया की व्यवहार न्यायालय को ऐसा वाद सुनने का अधिकार नहीं हैं क्योंकि कंपनी अधिनियम की धारा 84 (4) और उक्त नियम, 1960 के अनुसार रजिस्ट्रार आफ कंपनी को स्वयं जांच गठित करना चाहिए और उचित आदेश करना चाहिए साथ ही धारा 41 (एच) विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के अधीन जहां समानतः प्रभावकारी अनुतोष उपलब्ध हो वहां निषेधाज्ञा नहीं देना चाहिए।
            2. न्याय दृष्टांत प्रताप सिंह विरूद्ध मंगल खान, 2011 (3) एम.पी.एल.जे. 306 में धारा 185 म.प्र. भू-राजस्व संहिता के प्रावधानों के प्रकाश में यह प्रतिपादित किया गया की वादी एक अधिपति कृषक के रूप में संपत्ति के आधिपत्य में था जिसे वापस पाने के लिए वह वाद लेकर आया था प्रतिवादी ने जमीन पर अतिक्रमण करने का अभिवचन किया था वादी का आधिपत्य नायब तहसीलदार के आदेशानुसार था ऐसे में यह माना गया की वादी का बहतर स्वत्व है और आधिपत्य की पुनः प्राप्ति का उसका वाद चलने योग्य हैं।
           3. वादी ने घोषणा का वाद पेश किया जो टेजर ट्रोव एक्ट, 1878 के प्रकाश में चलने योग्य नहीं पाया गया क्योंकि यह अधिनियम एक संपूर्ण संहिता है यदि कलेक्टर ऐसा निर्देश दे कि स्वत्व के निराकरण के लिए पक्षकार व्यवहार न्यायालय जावे तभी व्यवहार वाद प्रचलन योग्य होता है कलेक्टर ने ऐसा कोई निर्देश नहीं दिया था और जांच करके संपत्ति स्वामी रहित घोषित कर दी थी अतः न्याय दृष्टांत देव कुमार बेन साह विरूद्ध स्टेट आफ म.प्र., 2005 (4) एम.पी.एल.जे. 146 पर भरोसा करते हुये यह प्रतिपादित किया गया की व्यवहार न्यायालय को क्षेत्राधिकार नहीं हैं। अवलोकनीय न्याय दृष्टांत अजीज उद्दीन कुरेसी विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 978 ।
             4. न्याय दृष्टांत राजस्थान स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन विरूद्ध दीनदयाल शर्मा, 2010 (4) एम.पी.एल.जे. 274 (एस.सी.) में यह प्रतिपादित किया गया था कि सेवा से डिसमिस किये जाने के विवाद के बारे में व्यहार न्यायालय का क्षेत्राधिकार का प्रश्न - कर्मचारी ने यह अभिकथन किया था कि विभागीय जांच उसके डिसमिसल के आदेश के पूर्व किया जाना चाहिये था, ऐसा अधिकार औद्योगिक विवाद के रूप में उपलब्ध होता है और प्रवर्तित कराया जा सकता है ऐसे मामलों में व्यवहार न्यायालय का क्षेत्राधिकार नहीं होना पाया गया। न्याय दृष्टांत चीफ इंजीनियर हायडल प्रोजेक्टर विरूद्ध रविन्द्रनाथ, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 1513 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वादी वर्क चार्ज के आधार पर कर्मचारी था उसके सेवा से निकालने के बारे में विवाद था ऐसा विवाद औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 में आयेगा व्यवहार न्यायालय को क्षेत्राधिकार नहीं हैं। जहां क्षेत्राधिकार संबंधी आपत्ति अपील के स्तर पर उठायी गई हो वहां भी ’’कोरम नान जूडिश’’ का सिद्धांत लागू होगा और जहां मूल डिक्री ही क्षेत्राधिकार के बिना दी गई हो वहां यह तात्विक नहीं है की ऐसी आपत्ति प्रारंभिक स्तर पर क्यों नहीं उठाई गई ? न्याय दृष्टांत मंटू सरकार विरूद्ध आरियनटल इंश्योरेंश कंपनी (2009) 2 एस.सी.सी. 244 में भी इस स्थिति को भी स्पष्ट किया गया है कि जहां वाद की विषय वस्तु और आर्थिक क्षेत्राधिकार के बारे में प्रश्न हो वहां आर्थिक क्षेत्राधिकार न होने पर निर्णय शून्य नहीं होगा जब तब की न्याय की विफलता और विपक्षी के हितों पर प्रतिकूल असर गिरना प्रमाणित न हो जबकि विषय वस्तु का मामला हो तब बिना क्षेत्राधिकार के निर्णय शून्य होगा।
            5. न्याय दृष्टांत राघविन्दर सिंह विरूद्ध बेन्त कोर (2011) 1 एस.सी.सी. 106 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि वाद प्रीमेच्योर हो तब भी प्रत्येक मामले में उसका निरस्त किया जाना आवश्यक नहीं होता है क्योंकि यह क्षेत्राधिकार की जड़ तक नहीं जाता है न्यायालय को केवल यह देखना चाहिए की प्रतिवादी को क्या कोई अपूर्णणीय प्रीज्यूडीस हुआ है या उसके साथ अन्याय हुआ हैं।
              6. न्याय दृष्टांत राम कन्या बाई विरूद्ध जगदीश, (2011) 7 एस.सी.सी. 452 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि तहसीलदार ने धारा 131 म.प्र. भू-राजस्व संहिता के अंतर्गत किसी वाद का निराकरण किया है तो कोई भी पक्षकार उसके सुखाधिकार स्थापित करने के लिए व्यवहार न्यायालय में जा सकता है व्यवहार न्यायालय को व्यवहार प्रकृति के सभी वादों को सुनने का अधिकार होता है जब तब की उनका संज्ञान अभिव्यक्त या विवक्छित रूप से वर्जित न किया हो।
               7. क्या व्यवहार न्यायालय को खसरों के गलत इंद्राज को सुधारने संबंधी वाद के विचारण की अधिकारिता है ? नहीं, केवल तहसीलदार ऐसे विवाद को निराकृत कर सकता है यदि वाद चलने योग्य न हो या क्षेत्राधिकार न हो तब वाद को सक्षम न्यायालय में पेश करने के लिए लौटा देना चाहिए अपीलीय या रीविजन न्यायालय भी ऐसा कर सकती हैं। इस संबंध में अवलोकनीय न्याय दृष्टांत भगवान दास विरूद्ध श्रीराम, 2010 वाल्यूम 2 एम.पी.जे.आर. 26 ।
              8. क्या वक्फ ट्रीब्यूनल किसी किरायेदार के निष्कासन संबंधी वाद /विवाद के लिए सक्षम हो ? नहीं, ऐसे वाद केवल व्यवहार न्यायालय में ही पेश किये जा सकते हैं अवलोकनीय न्याय दृष्टांत रमेश गोर्वधन विरूद्ध सुगरा हुमायू मिर्जा वक्फ (2010) 8 एस.सी.सी. 726।
              9. न्याय दृष्टांत लालजी विरूद्ध सीताराम, 2009 (1) एम.पी.जे.आर. 149 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वादी का मामला यह है कि प्रतिवादीगण ने अवैध रूप से और अप्राधिकृत तरीके से प्रतिकर की राशि प्राप्त कर ली है जो की शासन द्वारा भूमि के अधिग्रहण के कारण दी गई थी इस मामले में धारा 18 एवं 29 भूमि अधिग्रहण अधिनियम पर विचार करते हुये यह निष्कर्ष दिया की ऐसा वाद चलने योग्य है क्योंकि इसमें अधिग्रहण को चुनौती नहीं दी गई है। लेकिन न्याय दृष्टांत देवकुमार बेन साह विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी, 2005 (3) जे.एल.जे. 286 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 6 भू-अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की अधिसूचना को चुनौती देने का वाद चलने योग्य नहीं होता है।
             10. जहां दो न्यायालयों को किसी विषय वस्तु पर समवर्ति क्षेत्राधिकार हो वहां पक्षकार अनुबंध द्वारा किसी एक न्यायालय को क्षेत्राधिकार रहेगा ऐसा तय कर सकते है और दूसरे न्यायालय को क्षेत्राधिकार नहीं होगा ऐसा तय कर सकते हैं यह लोक नीति के विरूद्ध नहीं है इस संबंध में न्याय दृष्टांत फिटजी लिमिटेड विरूद्ध संदीप गुप्ता, 2006 (4) एम.पी.एल.जे. 518 अवलोकनीय हैं। लेकिन न्याय दृष्टांत श्री शुभ लक्ष्मी फेब्रिक्स प्राईवेट लिमिटेड विरूद्ध चांदमल (2005) 10 एस.सी.सी. 704 में यह प्रतिपादित किया है कि जिस न्यायालय को क्षेत्राधिकार ही न हो पक्षकार अनुबंध करके उस न्यायालय को क्षेत्राधिकार नहीं दे सकते हैं।
                 11. न्याय दृष्टांत द्वारका प्रसाद अग्रवाल विरूद्ध रमेश चन्द्र, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 2696 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जो कोई क्षेत्राधिकार संबंधी आपत्ति उठाता है उसको प्रमाणित करने का भार उसी पर होता हैं।
                   12. न्याय दृष्टांत सोपान सुखदेव साबले विरूद्ध असिस्टेण्ट चरेटी कमीश्नर, (2004) 3 एस.सी.सी. 137 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि वादी ऐसे अनुतोष को जो न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाहर का हो उसे कम करना चाहता हो तो उसे इसकी अनुमति दी जा सकती हैं।
                  13. न्याय दृष्टांत स्वामी आत्मानंद विरूद्ध श्रीरामकृष्ण तपोवनम्, (2005) 10 एस.सी.सी. 51 में न्याय दृष्टांत धूलाबाई विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., (1968) 3 एस.सी.आर. 662 पर विचार किया गया है जो धारा 9 सी.पी.सी. में व्यवहार न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाधित होने के बारे में एक महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत है जिसमें सारी वैधानिक स्थिति स्पष्ट होती हैं साथ ही न्याय दृष्टांत राजस्थान स्टेट रोड ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन विरूद्ध बालमुकुंद (2009) 4 एस.सी.सी. 299 तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ भी अवलोकनीय हैं।
                     14. न्याय दृष्टांत देव श्याम विरूद्ध पी. सविता रम्मा (2005) 7 एस.सी.सी. 653 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि अंतरनिहित क्षेत्राधिकार के अभाव में कोई आदेश पारित किया गया है तो वह शून्य होता हैं।
                    14ए. किसी स्वामी के जीवन काल में उसके संभाव्य उत्तराधिकारियों को संपत्ति में कोई स्वत्व या अधिकार नहीं होते है संपत्ति के स्वामी ने संपत्ति विक्रय की और उस विक्रय व्यवहार को अपने जीवन काल में चुनौती नहीं दी अपीलार्थी को उस व्यवहार को चुनौती देना का अधिकारी नहीं माना गया अवलोकनीय न्याय दृष्टांत बिपता बाई विरूद्ध श्रीमती क्षिप्रा बाई, आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 1402 ।
                 14बी. सहकारी भूमि विकास बैंक अधिनियम, 1966 (म.प्र.) की धारा 27, 64 और 82 अपीलार्थी ने बैंक से एन.ओ.सी. प्राप्त करके भूमि खरीदी अपीलार्थी को सूचना पत्र दिये बिना उसी भूमि को किसी अन्य व्यक्तियों के बकाया के लिए कुर्क किया गया चाहे सिविल न्यायालय का क्षेत्राधिकार वर्जित किया गया हो फिर भी सिविल न्यायालय को यह अधिकार है कि वह अधिनियम के प्रावधानों की पालना की गई है या नहीं और न्यायिक प्रक्रिया की मूलभूत सिद्धांतों का पालन किया है या नहीं यह देखे वाद चलने योग्य पाया गया न्याय दृष्टांत सीताराम विरूद्ध कापरेटिव भूमि विकास बैंक, आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 1707 अवलोकनीय हैं।
                  14सी. न्याय दृष्टांत विमला बाई विरूद्ध बोर्ड आफ रेव्यनू, (1) एम.पी.जे.आर. 321 भी भूमि स्वामी के अधिकारों के बारे में सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार के संबंध में महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत हैं। 14डी. न्याय दृष्टांत अब्दुल गफूर विरूद्ध स्टेट आफ उत्तराखण्ड, 2008 (10) एस.सी.सी. 97 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां बहस के योग्य प्रश्न हो वहां न्यायालय को कारण लिखे बिना वाद को संक्षिप्त से निरस्त नहीं करना चाहिए। अन्य प्रावधानों पर
                   15. वादी और प्रतिवादी में संविदा हुई जिसमें अनुच्छेद 9 में यह शर्त थी कि ’’आल डिस्प्यूट शैल बी सबजेक्ट टू सतना कोर्ट’’ जबलपुर में कुछ वाद कारण उत्पन्न हुआ वादी ने जबलपुर में वाद पेश किया वादी ने केवल सतना न्यायालय को ही क्षेत्राधिकार रहेगा ऐसी सहमति नहीं दी थी अतः जबलपुर में प्रस्तुत वाद चलने योग्य पाया गया न्याय दृष्टांत रजिस्ट्रार महात्मा गाधी चित्रकूट विरूद्ध एम.सी. मोदी, आई.एल.आर. 2007 एम.पी. 1851 अवलोकनीय हैं। न्याय दृष्टांत लाइफ केयर इंटरनेशनल विरूद्ध महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा, आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 175 में भी आउसटर आफ ज्यूरिडिक्शन को स्पष्ट किया है जिसके तहत शब्द आनली, एलान, एक्सक्लूजिव जैसे कोई शब्द अनुबंध के आउसटर क्लाज में काम में नहीं लिये गये है केवल ’’एग्रीमेंट शैल बी सबजेक्ट टू ज्यूरीडिक्शन आफ कोर्ट एट बाम्बे’’ लिखा हुआ था न्यायालय के क्षेत्राधिकार को अपवर्जित करने का आशय स्पष्ट असंदिग्ध और विनिर्दिष्ट रूप से होना चाहिए और ऐसे कोई शब्द जैसे आनली, एलान, एक्सक्लूजिव काम में नहीं लिये गये हैं इंदौर न्यायालय को क्षेत्राधिकार माना गया। न्याय दृष्टांत राजस्थान स्टेट इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड विरूद्ध यूनीवरशल पेट्रोल केमीकल्स (2009) 3 एस.सी.सी. 107 में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रादेशिक क्षेत्राधिकार के मामले में अनुबंध द्वारा यदि किसी एक न्यायालय के बारे में क्षेत्राधिकार होना सीमित कर लिया जाता है तो वह वेध और बंधनकारी है और यह आरबीटेªशन के मामले में भी लागू होता हैं।
                   16. न्याय दृष्टांत लक्ष्मण प्रसाद विरूद्ध प्रोडिजी इलेक्ट्रोनिक्स (2008) 1 एस.सी.सी. 618 में यह प्रतिपादित किया गया है कि हागकोंग की कंपनी और उसके कर्मचारी के बीच हागकोंग में एक संविदा निष्पादित हुआ जिसके अनुसार संविदा को हागकोंग के कानून के अनुसार अर्थ लगाया जायेगा। ऐसी शर्त व्यवहार न्यायालय के क्षेत्राधिकार को वर्जित नहीं करती हैं वाद कारण जहां उत्पन्न हुआ वहां वाद चलने योग्य हैं।
                        17. जहां सेवा में कमी हुई हो या उपेक्षा हुई हो या सुविधा में कमी हुई हो तभी सेवा प्रदाता के विरूद्ध वाद कारण उत्पन्न होता है उपभोगता फोरम और स्थायी लोक अदालत केवल असुविधा या हार्डशिप या सिमपेथी के आधार पर प्रतिकर नहीं दिला सकते क्योंकि कारण ऐसा था जो सेवा प्रदाता के नियंत्रण के बाहर था और उसने सद्भावना पूर्वक कार्य किया था इस संबंध न्याय दृष्टांत इंटर ग्लोबल एवीएशन लिमिटेड विरूद्ध एन. सचिदानन्द (2011) 7 एस.सी.सी. 463 अवलोकनीय हैं।
                        18. न्याय दृष्टांत रूचि माजू विरूद्ध संजीव माजू, (2011) 6 एस.सी.सी. 479 में यह प्रतिपादित किया गया है कि गार्जियन एण्ड वार्ड एक्ट, 1890 धारा 9 (1) के तहत प्रादेशिक क्षेत्राधिकार उस स्थान पर होता है जहां अवयस्क सधारणतया रहता है रेसीडेंस का तात्पर्य किसी फ्लाईंग विजिट या केजूवल स्टे से अधिक होता है इस मामले में क्षेत्राधिकार के निर्धारण का परीक्षण बतलाया गया
                          19. न्याय दृष्टांत मेसर्स अर्जना साड़ी प्रोपराइटर जुगल किशोर विरूद्ध एम.पी. हेण्डीक्राफ्ट एण्ड हेण्डलूम डवलपमेंट कार्पोरेशन, 2010 (5) एम.पी.एच.टी. 443 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वाद कारण और प्रादेशिक क्षेत्राधिकार के लिए सभी आवश्यक, तात्विक, इंटीग्रल तथ्य निश्चित कर लेना चाहिए जब तब ये तत्व किसी स्थान पर न हो वाद कारण उत्पन्न होना इंफर नहीं किया जा सकता।
                        20. न्याय दृष्टांत ए.के. लक्ष्मीपति विरूद्ध राव साहब अन्ना लाल एच. लाहोटी चेरीटेबल ट्रस्ट (2010) 1 एस.सी.सी. 287 में यह प्रतिपादित किया गया है कि किसी चेरीटेबल या धार्मिक ट्रस्ट से संबंधित संपत्ति के अंतरण के मामले में प्रादेशिक क्षेत्राधिकार के बारे में लागू होने वाली विधि वह होगी जहां चेरीटेबल ट्रस्ट का मुख्यालय पंजीकृत हो।
                            21. न्याय दृष्टांत श्री जयराम एजूकेशनल ट्रस्ट विरूद्ध ए.जी. सैयद मोहिद्दीन, (2010) 2 एस.सी.सी. 513 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वाद जो धारा 92 सी.पी.सी. के तहत प्रस्तुत किया गया हो वहां मूल क्षेत्राधिकार की आरंभिक आधिकारिता वाली प्रधान सिविल न्यायालय वाली या राज्य सरकार द्वारा सशक्त किसी अन्य न्यायालय को क्षेत्राधिकार होगा जिसमें कोई आर्थिक लिमिट नहीं है धारा 92 सी.पी.सी. के मामलों में धारा 15 से 20 सी.पी.सी. के प्रावधान भी लागू नहीं होंगे।
                     
                         22. क्या धारा 34 माध्यस्थ एवं सुलह अधिनियम का आवेदन अपर जिला जज के न्यायालय में चलने योग्य है ? धारा 7 (2) म.प्र. सिविल कोर्ट एक्ट के तहत अपर जिला जज, जिला जज की समस्त शक्तिया प्रयोग कर सकता हैं अतः आवेदन चलने योग्य हैं न्याय दृष्टांत म.प्र. एस.ई.बी. विरूद्ध अनसालदू एनरजीया एस.पी.ए., ए.आई.आर. 2008 एम.पी. 328 अवलोकनीय हैं साथ ही न्याय दृष्टांत प्रताप सिंह हारडीया विरूद्ध संजीव चावरेकर, 2009 (1) एम.पी.एल.जे. 477 डी.बी. भी इसी संबंध में है। न्याय दृष्टांत एन.के. सक्सेना विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., 2008 (2) एम.पी.एच.टी. 365 डी.बी. में भी यह स्पष्ट किया गया है कि केवल धारा 24 सी.पी.सी. में अपर जिला जज को जिला जज के अधीनस्थ बतलाया गया है अन्यथा 1982 से अपर जिला जज वे शक्तिया प्रयोग कर रहे है जो जिला जज करते हैं।
                             23. न्याय दृष्टांत दुर्गश चैरसिया विरूद्ध प्रकाश कुशवाहा, 2010 (2) एम.पी.एच.टी. 369 डी.बी. में दोनों पक्षों ने उनकी साक्ष्य दे दी थी विचारण पूर्ण हो चुका था केवल अंतिम तर्क होना था और निर्णय होना था विचारण न्यायालय ने वाद आर्थिक क्षेत्राधिकार न होने से लौटाया ऐसे लौटाने का परिणाम पुनः विचारण होगा आदेश अपास्त किया गया और विचारण न्यायालय को यह निर्देशित किया गया कि वह मामले को धारा 15 (3) एम.पी. सिविल कोर्ट, 1958 के तहत जिला जज को उचित आदेश के लिए भेजे। धारा 15 (3) म.प्र. सिविल कोर्ट एक्ट के अनुसार ऐसे मामले में जिला जज उचित आदेश कर सकते है।
                         24. न्याय दृष्टांत हरसद चिमन लाल विरूद्ध डी.एफ.एल. (2005) 7 एस.सी.सी. 791 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 20 धारा 15 से 19 की शर्तो के अधीन है सहमति या अधित्याजन या मोन स्वीकृति यदि न हो तो वह क्षेत्राधिकार प्रदान नहीं कर सकती है।
                   25. न्याय दृष्टांत राम बोहारी विरूद्ध टाटा फायनेंश, 2005 (3) एम.पी.एल.जे. 106 में यह प्रतिपादित किया गया है की संपत्ति गलत तरीके से ली गई यह एक दुष्कृत्य है सिविल न्यायालय को ऐसे मामले में क्षेत्राधिकार है प्रतिवादी कंपनी ने ट्रक को अवैधानिक तरीके से जब्त किया क्योंकि मासिक किस्त में चूक हुर्ह थी व्यवहार वाद चलने योग्य पाया गया।
                    26. यदि वाद आदेश 9 नियम 1 और 2 सी.पी.सी. के तहत अनुपस्थिति में खारीज हो जाता है तब उसी वाद कारण पर नया वाद धारा 12 सी.पी.सी. के प्रकाश में चलने योग्य नहीं होता न्याय दृष्टांत गोविन्द दास विरूद्ध विक्रम सिंह, 2006 (3) एम.पी.जे.आर. 56 अवलोकनीय हैं।
                     27. न्याय दृष्टांत बिट्ठल भाई विरूद्ध यूनियन बैंक, (2005) 4 एस.सी.सी. 315 में अपरिपक्व शूट के बारे में स्थिति स्पष्ट की गई हैं।
                      28. न्याय दृष्टांत कुसुम इनगोटस् एण्ड अलायस विरूद्ध यूनियन आफ इंडिया, (2004) 6 एस.सी.सी. 254 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वाद कारण वाद लाने के अधिकार को दर्शाता है हर क्रिया कोर्स आफ एक्शन पर आधारित होती हैं मामले में वाद कारण को स्पष्ट किया गया।
                        29. न्याय दृष्टांत मोदी इंटरटेनमेंट नेटवर्क विरूद्ध डब्ल्यू.एस.जी. क्रिकेट प्राईवेट लिमिटेड (2003) 4 एस.सी.सी. 341 में भी व्यवहार न्यायालय के क्षेत्राधिकार और एण्टीसूट इंजेक्शन को स्पष्ट किया गया हैं। ज्योत्री

भा0द0सं की प्रमुख धाराएं तथा सजाएं

अपराध धाराएं और गिरफ्तारी/सजा

भारतीय दंड संहिता

भारतीय समाज को क़ानूनी रूप से व्यवस्थित रखने के लिए सन 1860 में लार्ड मेकाले की अध्यक्षता में भारतीय दंड संहिता (Indian Pinal Code) बनाई गई थी। इस संहिता में विभिन्न अपराधों को सूचीबद्ध कर उस में गिरफ्तारी और सजा का उल्लेख किया गया है। इस में कुल मिला कर 511 धाराएं हैं।  कुछ खास धाराएं निम्न हैं -

धारा (Section)   अपराध (Offence)         सजा (Punishment)               जमानत/गिरफ्तारी   (Bail provision)

13- जुआ खेलना/सट्टा लगाना                  1 वर्ष की सजा और 1000 रूपये जुर्माना
      -सांप्रदायिक दंगा भड़काने में लिप्त    5 वर्ष की सजा
99  से 106 -व्यक्तिगत प्रतिरक्षा के लिए बल प्रयोग का अधिकार -
147-बलवा करना (Rioting)                      2 वर्ष की सजा/जुर्माना या दोनों   गिरफ्तार/जमानत होगी
161-रिश्वत लेना/देना                              3 वर्ष की सजा/जुरमाना या दोनों  गिरफ्तार/जमानत नहीं
171-चुनाव में घूस लेना/देना                     1 वर्ष की सजा/500 रुपये जुर्माना  गिरफ्तार नहीं/जमानत होगी
177- सरकारी कर्मचारी/पुलिस को गलत सूचना देना  6 माह की सजा/1000 रूपये जुर्माना
186-सरकारी काम में बाधा पहुँचाना          3 माह की सजा/500 रूपये जुर्माना                          "
191 - झूठी गवाही देना
193-न्यायालयीन प्रकरणों में झूठी गवाही  3/ 7 वर्ष की सजा और जुरमाना                              "
216- लुटेरे/डाकुओं को आश्रय देने के लिए दंड
224/25 -विधिपूर्वक अभिरक्षा से छुड़ाना   2 वर्ष की सजा/जुरमाना/दोनों
231/32 - जाली सिक्के बनाना                  7 वर्ष की सजा और जुर्माना  गिरफ्तार/जमानत नहीं
255-सरकारी स्टाम्प का कूटकरण           10 वर्ष या आजीवन कारावास की सजा                      "
264-गलत तौल के बांटों का प्रयोग            1 वर्ष की सजा/जुर्माना या दोनों      गिरफ्तार/जमानत होगी
267- औषधि में मिलावट करना              
272- खाने/पीने की चीजों में मिलावट          6 महीने की सजा/1000 रूपये जुर्माना /दोनों गिरफ्तार नहीं/जमानत होगी
274 /75- मिलावट की हुई औषधियां बेचना
279- सड़क पर उतावलेपन/उपेक्षा से वाहन चलाना  6 माह की सजा या 1000 रूपये का जुरमाना
292-अश्लील पुस्तकों का बेचना                2 वर्ष की सजा और 2000 रूपये जुर्माना    गिरफ्तार/जमानत होगी   
294- किसी धर्म/धार्मिक स्थान का अपमान           2 वर्ष की सजा
302- हत्या/कत्ल (Murder)                      आजीवन कारावास /मौत की सजा   गिरफ्तार/जमानत नहीं
306- आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरण            10 वर्ष की सजा और जुरमाना
309- आत्महत्या करने की चेष्टा करना     1 वर्ष की सजा/जुरमाना/दोनों     गिरफ्तार/जमानत
311- ठगी करना                                   आजीवन कारावास और जुरमाना       गिरफ्तार/जमानत नहीं
323- जानबूझ कर चोट पहुँचाना          
354- किसी स्त्री का शील भंग करना        2 वर्ष का कारावास/जुरमाना/दोनों     गिरफ्तार/जमानत
363- किसी स्त्री को ले भागना(Kidnapping)   7 वर्ष का कारावास और जुरमाना  गिरफ्तार/जमानत
366- नाबालिग लड़की को ले भागना  
376- बलात्कार करना(Rape)               10 वर्ष/आजीवन कारावास   गिरफ्तार नहीं /जमानत होगी
377-अप्राकृतिक कृत्य अपराध(Un natural offence)  5 वर्ष की सजा और जुरमाना गिरफ्तार/जमानत नहीं
379-चोरी (सम्पत्ति) करना                 3 वर्ष का कारावास /जुरमाना/दोनों  गिरफ्तार/जमानत
392-लूट                                              10 वर्ष की सजा
395-डकैती (Decoity)                           10 वर्ष या आजीवन कारावास   गिरफ्तार नहीं/जमानत
417- छल/दगा करना (Cheating)           1 वर्ष की सजा/जुरमाना/दोनों   गिरफ्तार नहीं/जमानत होगी
420- छल/बेईमानी से सम्पत्ति अर्जित करना   7 वर्ष की सजा और जुरमाना
446-रात में नकबजनी करना              
426- किसी से शरारत करना (Mischief)  3 माह की सजा/जुरमाना/दोनों
463- कूट-रचना/जालसाजी                  
477(क)-झूठा हिसाब करना                  
489-जाली नोट  बनाना/चलाना               10 वर्ष की सजा/आजीवन कारावास  गिरफ्तार/जमानत नहीं
493- पर स्त्री से व्यभिचार करना            10 वर्षों की सजा
494-पति/पत्नी के जीवित रहते दूसरी शादी करना 7 वर्ष की सजा और जुरमाना गिरफ्तार नहीं/जमानत होगी
498/अ- अपनी स्त्री पर अत्याचार -          3 वर्ष तक की कठोर सजा
497- जार कर्म करना (Adultery)              5 वर्ष की सजा और जुरमाना
500- मान हानि                                       2 वर्ष  की सजा और जुरमाना
509- स्त्री को  अपशब्द कहना /अंगविक्षेप  करना   सादा  कारावास या जुरमाना

कोर्ट मैरिज क्या होती है और कैसेै

जानिए क्या होती है कोर्ट मैरिज और कैसे की जा सकती है 

 8 Feb 2020 9:34 PM


           भारत में विवाह के लिए अलग-अलग धार्मिक समुदायों को अलग-अलग अधिकार और दायित्व दिए गए हैं। पर्सनल लॉ सभी धर्म के लोगों को अलग अलग उपलब्ध कराया गया है, जैसे हिंदुओं के लिए हिंदू विवाह अधिनियम 1955 एवं हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम तथा मुसलमानों के लिए शरियत का कानून है। यह कानून मुसलमानों की पर्सनल विधि का काम करता है, जैसे विवाह, उत्तराधिकार, तलाक, भरण पोषण दत्तक ग्रहण इत्यादि विषयों पर यह विधि होती है। विवाह एक मानव अधिकार है कोई भी समुदाय या विधि विवाह करने से व्यक्ति को रोक नहीं सकती है।
       पर्सनल लॉ की विधियां बहुत सारे मामलों में व्यक्तियों में विभेद करती है तथा विवाह करने से रोकती है। जैसे मुसलमानों पर लागू शरीयत का कानून केवल दो मुसलमानों से विवाह संबंधित है, परंतु कोई एक मुसलमान है और कोई एक अन्य धर्म से है तो यह कानून विवाह को मान्यता नहीं देता है। 
       1954 में भारत की संसद में एक क्रांतिकारी कदम उठाया है। एक ऐसा कानून पारित किया गया है, जिसके माध्यम से कोई भी दो लोग जो भिन्न धर्मों से आते है, भिन्न जाति से आते है तथा जिनके बीच में उम्र बंधन भी हो सकते हैं। वह व्यक्ति बगैर किसी बंधन के विवाह कर सकते हैं। 
       भारत का विधान इन व्यक्तियों को इस अधिनियम के अंतर्गत एक कोर्ट मैरिज का विकल्प उपलब्ध कराता है। विशेष विवाह अधिनियम 1954 इस विवाह अधिनियम को बनाने का उद्देश्य अंतरजाती एवं अंतर धार्मिक विवाह को मान्यता देना है। कोई भी दो बालिग लोग यदि वह प्रतिषिद्ध नातेदारी के अंतर्गत नहीं आते है और वह किसी भी धर्म या पंथ यह जाति के हो यदि वापस में विवाह करना चाहते है तो भारत का यह उदार संविधान उन लोगों को विवाह करने की पूर्ण सहमति प्रदान करता है। यहां तक विवाह में किए जाने वाले किसी कर्मकांड को किए जाने की बाध्यता भी नहीं रखी गई है।
         विशेष विवाह अधिनियम 1954 के अंतर्गत विवाह करने के लिए शर्तें इस अधिनियम के अंतर्गत विवाह अनुष्ठान किये जाने के लिए कुछ शर्तें रखी गई है। कोई भी व्यक्ति जो भारत की सीमा के भीतर रह रहा है। यदि शर्तो को पूरा कर देता है तो विवाह कर सकता है। यह विवाह केवल एक स्त्री और पुरुष के बीच ही होगा, अभी इस अधिनियम के माध्यम से समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं मिली है वह स्त्री और पुरुष आपस में विवाह कर सकते हैं जो निम्न शर्तों को पूरा करते हैं। 
           अधिनियम की धारा 4 के अनुसार, किसी भी पक्षकार की पूर्व पति और पत्नी जीवित नहीं होना चाहिए। इस शर्त का अर्थ यह है कि किसी भी पक्षकार की कोई पूर्व पति पूर्व पत्नी इस विवाह को अनुस्थापित करते समय जीवित नहीं होना चाहिए। यह धारा पति या पत्नी के होते हुए दूसरे विवाह को करने को रोकती है। इस शर्त को अधिनियम में रखे जाने का अर्थ यही है की कोई भी पक्षकार पति या पत्नी के जीवित होते हुए कोई दूसरा विवाह नहीं कर पाए। किसी भी पक्षकार को बार-बार उन्मत्ता के दौरे नहीं आना चाहिए यदि कोई व्यक्ति मानसिक रूप से ठीक नहीं रहता है तथा उसको बार-बार मत्ता के दौरे आते हैं या ऐसे मानसिक रोग से पीड़ित है तो ऐसी स्थिति में वह पक्षकार इस अधिनियम के अंतर्गत विवाह नहीं कर पाएगा।
         कोई भी पक्षकार मानसिक रूप से विकृत चित्त नहीं होना चाहिए यदि पक्षकार मानसिक रूप से विकृत चित्त है कोई भी निर्णय ले पाने में असमर्थ है ऐसे पक्षकारों को इस अधिनियम के अंतर्गत विवाह करने की मान्यता नहीं दी गई है। पक्षकार प्रतिषिद्ध नातेदारी के अंतर्गत नहीं होना चाहिए अधिनियम की अनुसूची में कुछ प्रतिषिद्ध नातेदारी बताई गई है। यह नातेदारी सामाजिक नैतिकता को ध्यान में रखते हुए प्रतिषिद्ध की गई है।     
       कोई पक्षकार यदि आपस में ऐसे नातेदार है जो समाज में ऐसे रिश्ते होते हैं जिन्हें पवित्र समझा जाता है तथा उन रिश्तो के आपस में संभोग किए जाने को अत्यंत बुरा काम समझा जाता है।इस नातेदारी को आपस में विवाह करने से इस अधिनियम के अंतर्गत रोका गया है। 
       विवाह अधिकारी अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत विवाह अधिकारी जैसा पद निर्मित किया गया है। विवाह अधिकारी अपने पास आए विवाह के आवेदनों पर विचार करने के बाद पक्षकारों के विवाह अनुष्ठापित करवाने की जिम्मेदारी रखता है। यह अधिनियम की अत्यंत महत्वपूर्ण कड़ी है। ऐसे अधिकारी की नियुक्ति राज्य सरकार इस अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत राजपत्र में अधिसूचना के माध्यम से करती है।
        विवाह का पंजीकरण इस अधिनियम की विशेषता यह है कि इस अधिनियम के अंतर्गत दो पक्षकारों के बीच किए गए किसी वैध विवाह को राज्य सरकारों द्वारा रजिस्ट्रीकृत कर मान्यता प्रदान की जाती है,तथा एक प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया जाता है जो विवाह के अनुष्ठान के परिणामस्वरूप विवाह के पक्षकारों को दिया जाता है।          व्यक्ति इस अधिनियम में विवाह को करने के लिए किसी भी तरह से विवाह का अनुष्ठान कर सकता है। जैसे कोई दो पक्षकार केवल एक दूसरे को माला डाल कर विवाह अनुष्ठापित कर सकता है। विवाह के पंजीकरण की प्रक्रिया यदि कोई दो पक्षकार इस अधिनियम के अंतर्गत अपना कोई विशेष विवाह पंजीकरण करवाना चाहते हैं तो अधिनियम के अंतर्गत ऐसे विवाह के रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया दी गई है। 
      प्रक्रिया को अपनाकर कोई भी व्यक्ति अपने विवाह को रजिस्टर करवा सकते है। विवाह अधिकारी को लिखित सूचना देना अधिनियम की धारा 5 के अंतर्गत विवाह अधिकारी को एक लिखित सूचना देनी होती है। पक्षकार यदि एक माह तक किसी ऐसे जिले में रह रहे हैं जिसमें उन्हें विवाह अधिकारी को सूचना देनी है, तो उस जिले के विवाह अधिकारी को ऐसी लिखित सूचना किसी आवेदन के माध्यम से करेंगे तथा अधिकारी के समक्ष यह पक्षकार आपस में विवाह स्थापित करने की इच्छा रखेंगे तथा पक्षकार आवेदन में बताएंगे की हम यह विवाह आपसी सहमति एवं स्वतंत्र सहमति से कर रहे है। विवाह सूचना का प्रकाशन अधिनियम की धारा 6 बताती है कि यदि किसी जिले के विवाह अधिकारी को विवाह के इच्छुक पक्षकारों से कोई आवेदन प्राप्त होता है तो ऐसे आवेदन प्राप्त होने के बाद विवाह की सूचना का प्रकाशन करेगा। इस प्रकाशन में वह विवाह की नियत की गई दिनांक लिखेगा तथा जनसाधारण से आपत्तियां मांगेगा तथा या मालूम करेगा कि कोई पक्षकार किसी अन्य व्यक्ति के अधिकारों का अतिक्रमण तो नहीं कर रहा है,या फिर विवाह प्रतिषिद्ध नातेदारी के अंतर्गत तो नहीं है। विवाह पर आपत्ति या लेना इस अधिनियम के अंतर्गत अनुष्ठापित किए जाने वाले विवाह पर कोई व्यक्ति जिसके अधिकारों का अतिक्रमण हो रहा है वह आपत्ति लेता है तो जिस दिन से विवाह की सूचना का प्रकाशन किया गया है। उस दिन से 30 दिन के भीतर कोई भी व्यक्ति इस तरह के विवाह पर आपत्ति ले सकता है। यदि वह आपत्ति लेता है तो जांच हेतु विवाह को रोक दिया जाता है। यदि कोई आपत्ति नहीं आती है तो विवाह अधिकारी विवाह को अनुष्ठापित करने के लिए नियत तारीख पर रख देता है। विवाह का अनुष्ठान तथा गवाह अधिनियम की धारा 11 के अंतर्गत इस विवाह को अनुष्ठान करने के लिए तीन साक्षी की आवश्यकता होती है।यह साक्षी विवाह में गवाह बनेंगे तथा इस विवाह की घोषणा अधिनियम में दिए गए प्रारूप के अंतर्गत करेंगे।पक्षकार जो तारीख विवाह अधिकारी द्वारा नियुक्त नियत की गई है उस तारीख को विवाह अनुष्ठापन करेंगे तथा जिस तरह की इच्छा से विवाह करना चाहते है उस तरह से विवाह कर सकेंगे।    
          विवाह का प्रमाणपत्र इस अधिनियम के अंतर्गत यदि नियत तारीख को विवाह संपन्न कर दिया जाता है तो विवाह अधिकारी द्वारा एक प्रमाण पत्र विवाह के पक्षकारों को दे दिया जाता है तथा विवाह को विवाह अधिकारी अपने रजिस्टर में अंकित कर लेगा।
       इस रजिस्टर और इस प्रमाण पत्र पर तीन साक्षी होंगे उन तीन साक्षी की हस्ताक्षर होगी तथा यह विवाह इस प्रमाण पत्र के माध्यम से इस अधिनियम के अंतर्गत प्रमाणित हो जाएगा। अन्य रूपों से अनुष्ठापित विवाह भी इस अधिनियम के अंतर्गत रजिस्टर हो सकते है इस अधिनियम के अंतर्गत केवल विशेष विवाहों को ही रजिस्ट्रीकृत नहीं किया जाता है अपितु ऐसे विवाहों को भी रजिस्टर कर कर दिया जाता है जो किसी अन्य रीति से हो गए हैं। पक्षकार चाहे तो वह अपना विवाह इस अधिनियम के अंतर्गत रजिस्टर करवा सकते हैं। इसके लिए एक आवेदन जिले के विवाह अधिकारी को देना होगा और जो नियत फीस तय की गई है उस फीस को जमा करना होगा। 
       विवाह अधिकारी इस अधिनियम के अंतर्गत उन पक्षकारों को विवाह का प्रमाण पत्र प्रस्तुत कर देगा। यदि विवाह इस अधिनियम के अंतर्गत रजिस्टर हो गया तो उत्तराधिकार भी भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के अंतर्गत लागू होंगे, पर यदि हिंदू सिख बौद्ध जैन का विवाह हिंदू सिख बौद्ध जैन इत्यादि से होता है तो ऐसी परिस्थिति में उत्तराधिकार उनकी पर्सनल लॉ का ही लागू होगा पर तलाक और भरण पोषण की विधि विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत लागू होगी। 
       कोई दो पक्षकारों का विवाह मुस्लिम विवाह की पद्धति से हुआ है और अगर वह पक्षकार इस अधिनियम के अंतर्गत अपने विवाह को रजिस्टर करवाना चाहते हैं तो यह अधिनियम उन्हें ऐसे विवाह के रजिस्ट्रीकरण के लिए आज्ञा देता है। विवाह विच्छेद एवं विवाह शून्यकरण एवं शून्य विवाह इस अधिनियम के अंतर्गत यदि कोई विवाह प्रमाणित करवाया गया है तो ऐसे विवाह का शून्यकरण, ऐसे विवाह को शून्य घोषित किया जाना तथा इस विवाह के पक्षकारों को विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त किए जाने की अर्जी जिला न्यायालय में इस अधिनियम के अंतर्गत ही दी जाएगी। यदि विवाह इस अधिनियम के अंतर्गत हो रहा है तो तलाक भी इस अधिनियम के अंतर्गत ही होगा। इस अधिनियम के अंतर्गत तलाक लेने की प्रक्रिया अधिनियम की धारा 24 से लेकर 30 तक दी गई है। इन धाराओं में किन प्रक्रियाओं से तलाक लिया जाएगा और किन प्रक्रियाओं के अंतर्गत किसी विवाह को शून्य घोषित करवाया जा सकेगा। विवाह विच्छेद की डिक्री जिला न्यायालय द्वारा प्रदान की जाएगी या फिर विवाह को शून्य घोषित करना, जिला न्यायालय द्वारा किया जाएगा।शून्यकरण की डिक्री जिला न्यायालय द्वारा ही दी जाएगी।अब भले आपसी सहमति से तलाक की डिक्री क्यों नहीं हो। विवाह के प्रमाण पत्र से 1 वर्ष के भीतर तलाक नहीं लिया जा सकता कोई भी पक्षकार विवाह की दिनांक से 1 वर्ष के भीतर इस अधिनियम के अंतर्गत विवाह विच्छेद के लिए कोई ऐसी अर्जी जिला न्यायालय में नहीं दे सकेगा। एक वर्ष के बाद ही विवाह विच्छेद के लिए कोई अर्जी जिला न्यायालय में दी जा सकेगी, परंतु यदि संकट अधिक है और तलाक नितांत जरूरी है तो ऐसी परिस्थिति में यदि जिला न्यायाधीश को यह संतोष हो जाए की अर्ज़ी स्वीकार करना अत्यंत आवश्यक है तो ही अर्ज़ी को स्वीकार किया जाएगा।
        तलाक की अर्जी किस जिले में दी जाएगी पक्षकार तलाक की अर्जी निम्न चार जगहों पर प्रस्तुत कर सकते है। जिले में जहां विवाह अनुष्ठापित किया गया है, विवाह का प्रमाण पत्र जिस जिले के विवाह अधिकारी से प्राप्त किया गया है,उस जिले के जिला न्यायालय में तलाक की अर्जी लगाई जा सकती है। जिस जिले में पक्षकार अंतिम समय रहे थे उस जिले में भी तलाक की अर्जी लगाई जा सकती जिस जिले मैं प्रत्यार्थी रह रहा है उस जिले में भी तलाक की अर्जी लगाई जा सकती है। 
        यदि तलाक की अर्जी स्त्री द्वारा लगाई जा रही है तो वहां अर्जी लगाते समय जिस जिले में रह रही है उस जिले में अर्जी लगा सकती है। यदि कोई दो मुस्लिम आपस में विवाह करते हैं और विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत अपने विवाह को रजिस्टर करवाते हैं तो ऐसी परिस्थिति में उन दोनों पर मुस्लिम विवाह के बाद मुस्लिम उत्तराधिकार, तलाक, भरण पोषण के नियम नहीं बल्कि विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत बताया गया भरण-पोषण और तलाक की विधि लागू होगी। 
        यदि व्यक्ति पर्सनल लॉ के किन्हीं नियमों से संतुष्ट नहीं है तो वह विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत भी अपना विवाह रजिस्टर करवा सकता है। 

भारतीय दंड संहिता की धाराों का विवरण--धारा 1-15 तक

भारतीय दण्ड संहिता धारा १

भारतीय दण्ड संहिता की धारा १ इस धारा के बारे में और यह कहा कहा लागू होगी इस बारे में है। इसके तहत, इस संहिता को भारतीय दण्ड संहिता कहा जाएगा. यह संहिता जम्मू और कश्मीर राज्य को छोड़कर पूरे भारत देश में लागू होगी.

भारतीय दण्ड संहिता धारा २

भारतीय दण्ड संहिता की धारा २ इस बारे में है कि ऐसा कोई भी व्यक्ति जिंसने की कोई भी अपराध किया है व भारत में इसके लिए दोषी पाया जाता है उसे इस संहिता व इसकी धाराओं के अनुसार सजा दी जा सकेगी.

भारतीय दण्ड संहिता धारा ३

भारतीय दण्ड संहिता की धारा ३ ऐसे अपराधो की सजा के बारे में है जो की भारत से बहार किये गए है पर कानून के अनुसार उन्हें भारत में ही पेश किया जायेगा व यही उनकी सुनवाई होगी. इसके तहत कोई भी व्यक्ति जिसपे की यह दंड संहिता लागू होती है के द्वारा किये गए किसी भी अपराध के बारे में, भले ही वोह भारत से बहार किये गए हो की सुनवाई व सजा भारत में होगी.

भारतीय दण्ड संहिता धारा ४

भारतीय दण्ड संहिता की धारा ४ भारत से बहार किये गए अपराधो की धरा के विस्तार के रूप में है। इसके तहत यह इनमे से किसी भी अपराध पे लागू हो सकती है जो की किसी भारतीय द्वारा किया गए हो चाहे वोह जगह भारत में हो या न हो. साथ ही ऐसा कोई भी जाहज या हवाईजाहज जो की भारत में पंजीकृत हो. इस धारा में अपराध का मतलब ऐसे किसी भी कृत्य से है जो की कही भी किया गया हो पर जो की भारत में अपराध है।

भारतीय दण्ड संहिता धारा ५

भारतीय दण्ड संहिता की धारा ५ ऐसे कानूनों के बारे में है जो की इस संहिता से प्रभावित नहीं होंगे. इसके तहत इस संहिता से ऐसा कोई भी कानून प्रभावित नहीं होगा जो की किसी सरकारी कर्मचारी, सनिक, नाविक, एयरमेंन आदि के द्वारा किये गए विद्रोह और परित्याग सम्बन्धी सजा के लिए है।

भारतीय दण्ड संहिता धारा ६

भारतीय दण्ड संहिता की धारा ६ संहिता में उन परिभाषाओं के लिए है जिन्हें अपवाद समझाना चाहिए. इसके तहत इस संहिता में हर प्रकार के अपराध, दंड आदि को इस संहिता के सामान्य अपवाद अध्याय के अनुरूप परखना चाहिए.

उन अभिव्यक्तियो के बारे में है जिन्हें एक बार समझाया गया है। इसके तहत हर अभिव्यक्ति, जो इस संहिता के किसी भी भाग में समझायी गयी है विवरण के साथ इस संहिता के अनुरूप हर हिस्से में प्रयोग कि जाती है।

भारतीय दण्ड संहिता धारा ८

भारतीय दण्ड संहिता की धरा ८ लिंग सम्बन्धी वर्णन के लिए है। इसके तहत पुरुलिंग लिंग सभी व्यक्तियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है चाहे उससे मुतालिक व्यक्ति पुरुष हो या महिला.

भारतीय दण्ड संहिता धारा ९

भारतीय दण्ड संहिता की धारा ९ अंको के प्रयोग के बारे में है। इसके तहत जहा विशेष रूप से उलेख कर बताया नहीं गया हो वहा बहुवचन अंको में एकवचन और एकवचन में बहुवंचन अंक समिलित होते है।

भारतीय दण्ड संहिता धारा १०

भारतीय दण्ड संहिता की धारा १० आदमी और औरतो के बारे में है। इसके तहत आदमी शब्द से मतलब किसी भी नर लिंग के मानव से है व औरत शब्द का मतलब किसी भी मादा लिंग के मानव से है चाहे उसकी उम्र कुछ भी हो.

भारतीय दण्ड संहिता धारा ११

भारतीय दण्ड संहिता की धारा ११ व्यक्ति के बारे में. इसके तहत व्यक्ति शब्द से मतलब किसी व्यक्ति के आलावा किस भी संसथान, कम्पनी, आदि से भी हो सकता है चाहे वोह पंजीकृत हो या न हो.

भारतीय दण्ड संहिता धारा १२

भारतीय दण्ड संहिता की धारा १२ जनता के बारे में है। इसके तहत शब्द जनता से मतलब किसी भी जन समुदाय या किसी भी वर्ग की जनता से है।


भारतीय दण्ड संहिता धारा १३

भारतीय दण्ड संहिता की धारा १३ रानी के बारी में है। इस धारा को १९५० के संशोधन में खत्म कर दिया गया

भारतीय दण्ड संहिता धारा १४

भारतीय दण्ड संहिता की धारा १४ सरकारी नौकर के बारे में है। इसके तहत शब्द सरकारी नौकर से मतलब ऐसे किसी भी अधिकारी या नौकर से है जिसे की भारत में सरकार के द्वारा या के अधीन नौकरी पर रखा गया।

भारतीय दण्ड संहिता धारा १५

भारतीय दण्ड संहिता की धारा ब्रिटिश इंडिया के बारे में है। इसको सन १९३७ के संशोधन में हटा दिया गया।

भारतीय दंड संहिता की धारीएं

अध्यायनामधाराएं

अध्याय १उद्देशिका
  • धारा १ संहिता का नाम और उसके प्रर्वतन का विस्तार
  • धारा २ भारत के भीतर किए गये अपराधों का दण्ड
  • धारा ३ भारत से परे किए गये किन्तु उसके भीतर विधि के अनुसार विचारणीय अपराधों का दण्ड
  • धारा ४ राज्य-क्षेत्रातीत अपराधों पर संहिता का विस्तार
  • धारा ५ कुछ विधियों पर इस अधिनियम द्वारा प्रभाव न डाला जाना
अध्याय २साधारण स्पष्टीकरण
  • धारा ६ संहिता में की परिभाषाओं का अपवादों के अध्यधीन समझा जाना
  • धारा ७ एक बार स्पष्टीकृत पद का भाव
  • धारा ८ लिंग
  • धारा ९ वचन
  • धारा १० पुरूष, स्त्री
  • धारा ११ व्यक्ति
  • धारा १२ लोक
  • धारा १३ निरसित
  • धारा १४ सरकार का सेवक
  • धारा १५ निरसित
  • धारा १६ निरसित
  • धारा १७ सरकार
  • धारा १८ भारत
  • धारा १९ न्यायाधीश
  • धारा २० न्यायालय
  • धारा २१ लोक सेवक
  • धारा २२ जंगम सम्पत्ति
  • धारा २३ सदोष अभिलाभ
  • सदोष अभिलाभ
  • सदोष हानि
  • सदोष अभिलाभ प्राप्त करना/सदोष हानि उठाना
  • धारा २४ बेईमानी से
  • धारा २५ कपटपूर्वक
  • धारा २६ विश्वास करने का कारण
  • धारा २७ पत्नी, लिपिक या सेवक के कब्जे में सम्पत्ति
  • धारा २८ कूटकरण
  • धारा २९ दस्तावेज
  • धारा २९ क इलेक्ट्रानिक अभिलेख
  • धारा ३० मूल्यवान प्रतिभूति
  • धारा ३१ विल
  • धारा ३२ कार्यों का निर्देश करने वाले शब्दों के अन्तर्गत अवैध लोप आता है
  • धारा ३३ कार्य, लोप
  • धारा ३४ सामान्य आशय को अग्रसर करने में कई व्यक्तियों द्वारा किये गये कार्य
  • धारा ३५ जब कि ऐसा कार्य इस कारण अपराधित है कि वह अपराध्कि ज्ञान या आशय से किया गया है
  • धारा ३६ अंशत: कार्य द्वारा और अंशत: लोप द्वारा कारित परिणाम
  • धारा ३७ किसी अपराध को गठित करने वाले कई कार्यों में से किसी एक को करके सहयोग करना
  • धारा ३८ अपराधिक कार्य में संपृक्त व्यक्ति विभिन्न अपराधों के दोषी हो सकेंगे
  • धारा ३९ स्वेच्छया
  • धारा ४० अपराध
  • धारा ४१ विशेष विधि
  • धारा ४२ स्थानीय विधि
  • धारा ४३ अवैध, करने के लिये वैध रूप से आबद्ध
  • धारा ४४ क्षति
  • धारा ४५ जीवन
  • धारा ४६ मृत्यु
  • धारा ४७ जीव जन्तु
  • धारा ४८ जलयान
  • धारा ४९ वर्ष, मास
  • धारा ५० धारा
  • धारा ५१ शपथ
  • धारा ५२ सद्भावनापूर्वक
  • धारा ५२ क संश्रय
अध्याय ३दण्डों के विषय में
  • धारा ५३ दण्ड
  • धारा ५३ क निर्वसन के प्रति निर्देश का अर्थ लगाना
  • धारा ५४ लघु दण्डादेश का लघुकरण
  • धारा ५५ आजीवन कारावास के दण्डादेश का लघुकरण
  • धारा ५५ क समुचित सरकार की परिभाषा
  • धारा ५६ निरसित
  • धारा ५७ दण्डावधियों की भिन्ने
  • धारा ५८ निरसित
  • धारा ५९ निरसित
  • धारा ६० दण्डादिष्ट कारावास के कतिपय मामलों में संपूर्ण कारावास या उसका कोई भाग कठिन या सादा हो सकेगा
  • धारा ६१ निरसित
  • धारा ६२ निरसित
  • धारा ६३ जुर्माने की रकम
  • धारा ६४ जुर्माना न देने पर कारावास का दण्डादेश
  • धारा ६५ जबकि कारावास और जुर्माना दोनों आदिष्ट किये जा सकते हैं, तब जुर्माना न देने पर कारावास, जबकि अपराध केवल जुर्माने से दण्डनीय हो
  • धारा ६६ जुर्माना न देने पर किस भंति का कारावास दिया जाय
  • धारा ६७ जुर्माना न देने पर कारावास, जबकि अपराध केवल जुर्माने से दण्डनीय हो
  • धारा ६८ जुर्माना देने पर कारावास का पर्यवसान हो जाना
  • धारा ६९ जुर्माने के आनुपातिक भाग के दे दिये जाने की दशा में कारावास का पर्यवसान
  • धारा ७० जुर्माने का छ: वर्ष के भीतर या कारावास के दौरान में उदग्रहणीय होना
  • धारा ७१ कई अपराधों से मिलकर बने अपराध के लिये दण्ड की अवधि
  • धारा ७२ कई अपराधों में से एक के दोषी व्यक्ति के लिये दण्ड जबकि निर्णय में यह कथित है कि यह संदेह है कि वह किस अपराध का दोषी है
  • धारा ७३ एकांत परिरोध
  • धारा ७४ एकांत परिरोध की अवधि
  • धारा ७५ पूर्व दोषसिदि्ध के पश्च्यात अध्याय १२ या अध्याय १७ के अधीन कतिपय अपराधें के लिये वर्धित दण्ड
अध्याय ४साधारण अपवाद
  • धारा ७६ विधि द्वारा आबद्ध या तथ्य की भूल के कारण अपने आप को विधि द्वारा आबद्ध होने का विश्वास करने वाले व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य
  • धारा ७७ न्यायिकत: कार्य करने हेतु न्यायाधीश का कार्य
  • धारा ७८ न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में किया गया कार्य
  • धारा ७९ विधि द्वारा न्यायानुमत या तथ्य की भूल से अपने को विधि द्वारा न्यायानुमत होने का विश्वास करने वाले व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य
  • धारा ८० विधिपूर्ण कार्य करने में दुर्घटना
  • धारा ८१ कार्य जिससे अपहानि कारित होना संभाव्य है, किन्तु जो आपराधिक आशय के बिना और अन्य अपहानि के निवारण के लिये किया गया है
  • धारा ८२ सात वर्ष से कम आयु के शिशु का कार्य
  • धारा ८३ सात वर्ष से उपर किन्तु बारह वर्ष से कम आयु अपरिपक्व समझ के शिशु का कार्य
  • धारा ८४ विकृतिचित्त व्यक्ति का कार्य
  • धारा ८५ ऐसे व्यक्ति का कार्य जो अपनी इच्छा के विरूद्ध मत्तता में होने के कारण निर्णय पर पहुंचने में असमर्थ है
  • धारा ८६ किसी व्यक्ति द्वारा, जो मत्तता में है, किया गया अपराध जिसमें विशेष आशय या ज्ञान का होना अपेक्षित है
  • धारा ८७ सम्मति से किया गया कार्य जिसमें मृत्यु या घोर उपहति कारित करने का आशय हो और न उसकी सम्भव्यता का ज्ञान हो
  • धारा ८८ किसी व्यक्ति के फायदे के लिये सम्मति से सदभवनापूर्वक किया गया कार्य जिससे मृत्यु कारित करने का आशय नहीं है धारा ८९ संरक्षक द्वारा या उसकी सम्मति से शिशु या उन्मत्त व्यक्ति के फायदे के लिये सदभवनापूर्वक किया गया कार्य
  • धारा ९० सम्मति
    • उन्मत्त व्यक्ति की सम्मति
    • शिशु की सम्मति
  • धारा ९१ एसे कार्यों का अपवर्णन जो कारित अपहानि के बिना भी स्वत: अपराध है
  • धारा ९२ सम्मति के बिना किसी ब्यक्ति के फायदे के लिये सदभावना पूर्वक किया गया कार्य
  • धारा ९३ सदभावनापूर्वक दी गयी संसूचना
  • धारा ९४ वह कार्य जिसको करने के लिये कोई ब्यक्ति धमकियों द्धारा विवश किया गया है
  • धारा ९५ तुच्छ अपहानि कारित करने वाला कार्य
निजी प्रतिरक्षा के अधिकार के विषय में
  • धारा ९६ निजी प्रतिरक्षा में दी गयी बातें
  • धारा ९७ शरीर तथा सम्पत्ति पर निजी प्रतिरक्षा का अधिकार
  • धारा ९८ ऐसे ब्यक्ति का कार्य के विरूद्ध निजी प्रतिरक्षा का अधिकार जो विकृतख्त्ति आदि हो
  • धारा ९९ कार्य, जिनके विरूद्ध निजी प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं है इस अधिकार के प्रयोग का विस्तार
  • धारा १०० शरीर की निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मृत्यु कारित करने पर कब होता है
  • धारा १०१ कब ऐसे अधिकार का विस्तार मृत्यु से भिन्न कोई अपहानि कारित करने तक का होता है
  • धारा १०२ शरीर की निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रारंभ और बने रहना
  • धारा १०३ कब सम्पत्ति की निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मृत्यु कारित करने तक का होता है
  • धारा १०४ ऐसे अधिकार का विस्तार मृत्यु से भिन्न कोई अपहानि कारित करने तक का कब होता है
  • धारा १०५ सम्पत्ति की निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रारंभ और बने रहना
  • धारा १०६ घातक हमले के विरूद्ध निजी प्रतिरक्षा के अधिकार जबकि निर्दोश व्यक्ति को अपहानि होने की जोखिम है
अध्याय ५दुष्प्रेरण के विषय में
  • धारा १०७ किसी बात का दुष्प्रेरण
  • धारा १०८ दुष्प्रेरक
  • धारा १०८ क भारत से बाहर के अपराधों का भारत में दुष्प्रेरण
  • धारा १०९ दुष्प्रेरण का दण्ड, यदि दुष्प्रेरित कार्य उसके परिणामस्वरूप किया जाए और जहां तक कि उसके दण्ड के लिये कोई अभिव्यक्त उपबंध नही है
  • धारा ११० दुष्प्रेरण का दण्ड, यदि दुष्प्रेरित व्यक्ति दुष्प्रेरक के आशय से भिन्न आशय से कार्य करता है
  • धारा १११ दुष्प्रेरक का दायित्व जब एक कार्य का दुष्प्रेरण किया गया है और उससे भिन्न कार्य किया गया है
  • धारा ११२ दुष्प्रेरक कब दुष्प्रेरित कार्य के लिये और किये गये कार्य के लिए आकलित दण्ड से दण्डनीय है
  • धारा ११३ दुष्प्रेरित कार्य से कारित उस प्रभाव के लिए दुष्प्रेरक का दायित्व जो दुष्प्रेरक दवारा आशयित से भिन्न हो
  • धारा ११४ अपराध किए जाते समय दुष्प्रेरक की उपस्थिति
  • धारा ११५ मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराध का दुष्प्रेरण यदि अपराध नही किया जाता यदि अपहानि करने वाला कार्य परिणामस्वरूप किया जाता है
  • धारा ११६ कारावास से दण्डनीय अपराध का दुष्प्रेरण अदि अपराध न किया जाए यदि दुष्प्रेरक या दुष्प्रेरित व्यक्ति ऐसा लोक सेवक है, जिसका कर्तव्य अपराध निवारित करना हो
  • धारा ११७ लोक साधारण दवारा या दस से अधिक व्यक्तियों दवारा अपराध किये जाने का दुष्प्रेरण
  • धारा ११८ मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराध करने की परिकल्पना को छिपाना यदि अपराध कर दिया जाए - यदि अपराध नहीं किया जाए
  • धारा ११९ किसी ऐसे अपराध के किए जाने की परिकल्पना का लोक सेवक दवारा छिपाया जाना, जिसका निवारण करना उसका कर्तव्य है
    • यदि अपराध कर दिया जाय
    • यदि अपराध मृत्यु, आदि से दण्डनीय है
    • यदि अपराध नही किया जाय
  • धारा १२० कारावास से दण्डनीय अपराध करने की परिकल्पना को छिपाना
    • यदि अपराध कर दिया जाए - यदि अपराध नही किया जाए
अध्याय ५ कआपराधिक षडयंत्र
  • धारा १२० क आपराधिक षडयंत्र की परिभाषा
  • धारा १२० ख आपराधिक षडयंत्र का दण्ड
अध्याय ६राज्य के विरूद्ध अपराधें के विषय में
  • धारा १२१ भारत सरकार के विरूद्ध युद्ध करना या युद्ध करने का प्रयत्न करना या युद्ध करने का दुष्प्रेरण करना
  • धारा १२१ क धारा १२१ दवारा दण्डनीय अपराधों को करने का षडयंत्र
  • धारा १२२ भारत सरकार के विरूद्ध युद्ध करने के आशय से आयुध आदि संग्रह करना
  • धारा १२३ युद्ध करने की परिकल्पना को सुनकर बनाने के आशय से छुपाना
  • धारा १२४ किसी विधिपूर्ण शक्ति का प्रयोग करने के लिए विवश करने या उसका प्रयोग अवरोपित करने के आशय से राट्रपति, राज्यपाल आदि पर हमला करना
  • धारा १२४ क राजद्रोह
  • धारा १२५ भारत सरकार से मैत्री सम्बंध रखने वाली किसी एशियाई शक्ति के विरूद्ध युद्ध करना
  • धारा १२६ भारत सरकार के साथ शान्ति का संबंध रखने वाली शक्ति के राज्य क्षेत्र में लूटपाट करना
  • धारा १२७ धारा १२५ व १२६ में वर्णित युद्ध या लूटपाट दवारा ली गयी सम्पत्ति प्राप्त करना
  • धारा १२८ लोक सेवक का स्व ईच्छा राजकैदी या युद्धकैदी को निकल भागने देना
  • धारा १२९ उपेक्षा से लोक सेवक का ऐसे कैदी का निकल भागना सहन करना
  • धारा १३० ऐसे कैदी के निकल भागने में सहायता देना, उसे छुडाना या संश्रय देना
अध्याय ७सेना, नौसेना और वायुसेना से सम्बन्धित अपराधें के विषय में
  • धारा १३१ विद्रोह का दुष्प्रेरण का किसी सैनिक, नौसैनिक या वायुसैनिक को कर्तव्य से विचलित करने का प्रयत्न करना

♦ *लोक अशांति के अपराध* ♦
*धारा - 141 = विधि विरुद्ध जमाव (पाँच या ज्यादा )।*
*धारा - 142 = विधि विरुद्ध जमाव का सदस्य होना।*
*धारा - 143 = दण्ड।*
*धारा - 144 = घातक हत्यार लेकर जमाव में सम्मिलित होना।*
*धारा - 149 = विधि विरुद्ध जमाव का सदस्य होना (सामान उद्देश्य हो)।*
*धारा - 151 = पाँच या से अधिक लोगों को बिखर जाने का आदेश देने के बाद भी बना रहना।*
*धारा - 153 = किसी धर्म, वर्ग, भाषा, स्थान, या समूह के आधार पर सौहार्द बिगाड़ने का कार्य करना।*
*धारा - 159 = दंगा (दो या अधिक लोग लड़कर लोक शान्ति में विध्न डाले)।*
*धारा - 160 = दगें का दण्ड।*
♦ *लोक सेवकों के अपराध* ♦
*धारा - 166 = लोक सेवक सरकारी काम न करें किसी को नुकसान पहुंचाने के आशय से।*
*धारा - 166.क = कोई लोक जानते हुए सरकारी कार्य की अपेक्षा करना।*
*धारा - 166.ख = किसी प्राइवेट या सरकारी अस्पताल में पीड़ित का उपचार न करना (अपराधी केवल संस्थान का मुख्य होगा)।*
*धारा - 177 = जो कोई किसी लोक सेवक को ऐसे लोक सेवक को जो आबद्ध होते झूठी सूचना दे।*
♦ *लोक सेवक के प्राधिकार की अवमानना* ♦
*धारा - 182 = कोई व्यक्ति लोक सेवक को झूठी सूचना दे दूसरे को क्षति पहुंचाने के लिए।*
*धारा - 186 = लोक सेवक के सरकारी कार्य में बाधा डालना।*
*धारा - 187 = यदि कोई लोक सेवक के द्वारा सहायता मांगने पर न दे और वह आबद्ध हो।*
*धारा - 188 = कोई व्यक्ति लोक सेवक की आदेश का पालन न करें जब वह काम विधिपूर्वक हो।*
♦ *झूठे साक्ष्य का अपराध* ♦
*धारा - 201 = अपराध के साक्ष्य को छिपाना अपराधी को बचाने के आशय से।*
*धारा - 212 = अपराधी को अपराध करने के बाद बचाने के लिए संश्रय देना, जानते हुए। (पति-पत्नी पर लागू नहीं)।*
*धारा - 216 = अपराधी को संश्रय देना। जब पकड़ने का आदेश या दोष सिद्ध हो (पति-पत्नी पर लागू नहीं)।*
*धारा-216.क = लुटेरे या डाकुओं को संश्रय जानकर देना (पति-पत्नी पर लागू नहीं )।*
*धारा - 223 = लोक सेवक की लापरवाही से अभिरक्षा में से अपराधी का भाग जाना।*
*धारा - 224 = अपराधी स्वयं पकडे़ जाने का प्रतिरोध करना, बाधा डालना, निकल भागने का प्रयास करना।*
*धारा - 225 = अपराधी का कोई अन्य लोगों द्वारा पकडे़ जाने का प्रतिरोध करना, बाधा डालना, निकल भागने का प्रयास करना।*
♦ *लोक स्वास्थ्य, सुविधा, सदाचार पर अपराध* ♦
*धारा - 268 = लोक न्यून्सेस (कोई व्यक्ति ऐसा कार्य करें जिससे लोक सेवक, जनसाधारण को या सम्पति को संकट, क्षोभ, क्षति, बाधा करें)।*
*धारा - 269 = ऐसा विधि विरुद्ध या लापरवाही से संक्रमण फैलाना।*
*धारा - 268 = लोक न्यून्सेस (कोई व्यक्ति ऐसा कार्य करे जिससे लोक सेवक, जनसाधारण को या सम्पति को संकट, क्षोभ, क्षति, बाधा करें)।*
*धारा - 269 = ऐसा विधि विरुद्ध या लापरवाही से संक्रमण फैलाना।*
*धारा - 272 = खाद्य पदार्थों में विक्रय के लिए अपमिश्रण मिलाना जानते हुए।*
*धारा - 277 = किसी लोक (सार्वजनिक) जल स्त्रोत को गंदा जानते हुए करना।*
*धारा - 278 = वायु मण्डल को दूषित करना जानते हुए।*
*धारा - 292 = अश्लील सामग्री का विक्रय, आयात, निर्यात या किराए पर देना (लोकहित में, ऐतिहासिक, धार्मिक, स्मारक या पुरातत्व में लागू नहीं)।*
*धारा - 293 = तरूण व्यक्ति (-20 वर्ष ) तक अश्लील सामग्री किसी भी तरह पहुंचाना।*
♦ *धर्म से संबंधित अपराध* ♦
*धारा - 295 = किसी धर्म के लोगों का अपमान के आशय से पूजा के स्थान को क्षतिग्रस्त या अपवित्र करना।*
*धारा - 295.क = द्वेषपूर्ण कार्य जो किसी धर्म के धार्मिक विश्वासों का अपमान करके उसकी धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आशय किया हो (लेख से, चित्र से, सकेंत से आदि)।*
♦ *मानव शरीर पर प्रभाव डालने वाले अपराध* ♦
*धारा - 299 = आपराधिक मानव वध करना।*
*धारा - 300 = हत्या (murder)।*
*धारा - 301 = जिस व्यक्ति को मारने का इरादा था लेकिन दूसरे को मार दिया। यह हत्या होगी।*
*धारा - 302 = हत्या का दण्ड (मृत्यु दण्ड या कठोर या सादा अजीवन कारावास और जुर्माना)।*
*धारा - 303 = अजीवन कारावास सिद्ध दोष, पुनः हत्या करना। मृत्यु दण्ड।*
*धारा - 304 = हत्या की कोटि में न आने वाले अपराधिक मानव वध।*
*धारा - 304. क = लापरवाही (उपेक्षा) से मृत्यु कारित करना। (कठोर या सादा कारावास दो वर्ष या जुर्माना या दोनों)।*
*धारा - 304. ख = दहेज हत्या (विवाह के सात साल के पहले)।*
*धारा - 306 = कोई व्यक्ति आत्महत्या करें तो जो ऐसी आत्महत्या का दुष्प्रेरण करें, उकसाये।*
*धारा - 307 = मृत्यु कारित करने के आशय से मृत्यु कारित करने का असफल प्रयास करना (302 का असफल होना)।*
*धारा - 308 = 304 का असफल प्रयास करना।*
♦ *चोट पहुंचाने के अपराध* ♦
*धारा - 319 = किसी व्यक्ति को साधारण क्षति या चोट पहुंचाने।*
*धारा - 320 = किसी व्यक्ति को गम्भीर चोट पहुंचाना (1.पुंसत्वहर 2.दृष्टि का स्थायी विच्छेद करना 3.श्रवण शक्ति का स्थायी विच्छेद करना 4. किसी अंग या जोड़ का विच्छेद करना 5.जो चोट बीस दिन तक असहनीय हो 6.किसी अंग का स्थायी हासिल 7. सिर में गंभीर चोट) आदि।*
*धारा - 321 = स्वेच्छा से उपहति (चोट) पहुंचाना।*
*धारा - 322 = स्वेच्छा से घोर उपहति (गम्भीर चोट) पहुंचाना।*
*धारा - 323 = 321 का दण्ड (एक वर्ष या जुर्माना (-1000) या दोनों)।*
*धारा - 324 = खतरनाक हत्यार या आयुद्ध द्वारा स्वेच्छा से चोट पहुंचाना।*
*धारा - 325 = 322 का दण्ड (सात वर्ष और जुर्माना)।*
*धारा - 326 = खतरनाक हत्यार या आयुद्ध द्वारा स्वेच्छा से गम्भीर चोट पहुंचाना।*
*धारा - 326.क = अम्ल आदि का प्रयोग करके आशिंक या गम्भीर चोट स्वेच्छा से पहुंचाना।*
*धारा - 326.ख = अम्ल आदि का प्रयोग करके स्वेच्छा से चोट पहुंचाने का प्रयास करना।*
*धारा - 330 = किसी को किसी भी बात पर जबरदस्ती संस्वीकृति (कुबूल) कराना।*
*धारा - 332 = कोई लोक सेवक किसी को भी अपनी ड्यूटी पर चोट स्वेच्छा से चोट पहुंचाता है।*
*धारा - 333 = कोई लोक सेवक किसी को भी अपनी ड्यूटी पर गम्भीर चोट पहुंचाता है।*
*धारा - 339 = सदोष अवरोधे (किसी मार्ग में जाने से रोकना जहां अधिकार हो स्वेच्छा से)।*
*धारा - 340 = किसी व्यक्ति को बिना सहमति के बिना बल के या बल से रोक कर रखे।*
*धारा - 341 = धारा - 339 का दण्ड (एक महीने का सादा कारावास या 500 रु० तक का जुर्माना या दोनों)।*
*धारा - 342 = धारा - 340 का दण्ड (सादा या कठोर एक वर्ष का कारावास या 1000 रु० तक का जुर्माना या दोनों)।*
*धारा - 350 =  बिना सह मति के व अपनी स्वेच्छा से बल प्रयोग करना (.धक्का देना 2.थप्पड़ मारना 2.पत्थर मारना आदि
*धारा - 351 = हमला करन
*धारा 307 = हत्या की कोशिश*
*धारा 302 =हत्या का दंड*
*धारा 376 = बलात्कार*
*धारा 395 = डकैती*
*धारा 377= अप्राकृतिक कृत्य*
*धारा 396= डकैती के दौरान हत्या*
*धारा 120= षडयंत्र रचना*
*धारा 365= अपहरण*
*धारा 201= सबूत मिटाना*
*धारा 34= सामान आशय*
*धारा 412= छीनाझपटी*
*धारा 378= चोरी*
*धारा 141=विधिविरुद्ध जमाव*
*धारा 191= मिथ्यासाक्ष्य देना*
*धारा 300= हत्या करना*
*धारा 309= आत्महत्या की कोशिश*
*धारा 310= ठगी करना*
*धारा 312= गर्भपात करना*
*धारा 351= हमला करना*
*धारा 354= स्त्री लज्जाभंग*
*धारा 362= अपहरण*
*धारा 415= छल करना*
*धारा 445= गृहभेदंन*
*धारा 494= पति/पत्नी के जीवनकाल में पुनःविवाह*
*धारा 499= मानहानि*
*धारा 511= आजीवन कारावास से दंडनीय अपराधों को करने के प्रयत्न के लिए दंड।*

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क्रमांकसंशोधित कानून का लघु शीर्षकसंख्यावर्ष
1The Repealing Act, 1870141870
2The Indian Penal Code Amendment Act, 1870271870
3The Indian Penal Code Amendment Act, 1872191872
4The Indian Oaths Act, 1873101873
5The Indian Penal Code Amendment Act, 188281882
6The Code of Criminal Procedure, 1882101882
7The Indian Criminal Law Amendment Act, 1886101886
8The Indian Marine Act, 1887141887
9The Metal Tokens Act, 188911889
10The Indian Merchandise Marks Act, 188941889
11The Cantonments Act, 188913
12The Indian Railways Act, 18909
13The Indian Criminal Law Amendment Act, 189110
14The Amending Act, 189112
15The Indian Criminal Law Amendment Act, 18943
16The Indian Criminal Law Amendment Act, 18953
17The Indian Penal Code Amendment Act, 189661896
18The Indian Penal Code Amendment Act, 189841898
19The Currency-Notes Forgery Act, 1899121899
20The Indian Penal Code Amendment Act, 191031910
21The Indian Criminal Law Amendment Act, 191381913
22The Indian Elections Offences and Inquiries Act, 1920391920
23The Indian Penal Code (Amendment) Act, 192116
24The Indian Penal Code (Amendment) Act, 192320
25The Indian Penal Code (Amendment) Act, 19245
26The Indian Criminal Law Amendment Act, 192418
27The Workmen's Breach of Contract (Repealing) Act, 19253
29The Obscene Publications Act, 19258
29The Indian Penal Code (Amendment) Act, 192529
30The Repealing and Amending Act, 192710
31The Criminal Law Amendment Act, 192725
32The Repealing and Amending Act, 19308
33The Indian Air Force Act, 193214
34The Amending Act, 193435
35The Government of India (Adaptation of Indian Laws) Order, 1937लागू नहीं1937
36The Criminal Law Amendment Act, 193922
37The Offences on Ships and Aircraft Act, 19404
38The Indian Merchandise Marks (Amendment) Act, 19412
39The Indian Penal Code (Amendment) Act, 19428
40The Indian Penal Code (Amendment) Act, 19436
41The Indian Independence (Adaptation of Central Acts and Ordinances) Order, 1948लागू नहीं1948
42The Criminal Law (Removal of Racial Discriminations) Act, 194917
43The Indian Penal Code and the Code of Criminal Procedure (Amendment) Act, 1949421949
44The Adaptation of Laws Order, 1950लागू नहीं1950
45The Repealing and Amending Act, 195035
46The Part B States (Laws) Act, 19513
47The Criminal Law Amendment Act, 195246
48The Repealing and Amending Act, 195248
49The Repealing and Amending Act, 195342
50The Code of Criminal Procedure (Amendment) Act, 195526
51The Adaptation of Laws (No.2) Order, 1956लागू नहीं1956
52The Repealing and Amending Act, 195736
53The Criminal Law Amendment Act, 19582
54The Trade and Merchandise Marks Act, 195843
55The Indian Penal Code (Amendment) Act, 195952
56The Indian Penal Code (Amendment) Act, 196141
57The Anti-Corruption Laws (Amendment) Act, 196440
58The Criminal and Election Laws Amendment Act, 196935
59The Indian Penal Code (Amendment) Act, 196936
60The Criminal Law (Amendment) Act, 197231
61The Employees' Provident Funds and Family Pension Fund (Amendment) Act, 197340
62The Employees' State Insurance (Amendment) Act, 197538
63The Election Laws (Amendment) Act, 197540
64The Criminal Law (Amendment) Act, 198343
65The Criminal Law (Second Amendment) Act, 198346
66The Dowry Prohibition (Amendment) Act, 198643
67The Employees' Provident Funds and Miscellaneous Provisions (Amendment) Act, 198833
68The Prevention of Corruption Act, 198849
69The Criminal Law (Amendment) Act, 199342
70The Indian Penal Code (Amendment) Act, 199524
71The Information Technology Act, 2000212000
72The Election Laws (Amendment) Act, 2003242003
73The Code of Criminal Procedure (Amendment) Act, 2005252005
74The Criminal Law (Amendment) Act, 200522006
75The Information Technology (Amendment) Act, 2008102009
76The Criminal Law (Amendment) Act, 2013132013
भा0द0सं01860 नवम्-संस्करण--http://www.ebcwebstore.com/pdffiles/IPC_Hindi.pdf
गिरफ्दारी की विधि प्रक्रिया व उसके अधिकार--http://lrmjmeena.blogspot.in/2014/05/blog-post_3293.html

आईपीसी (इंडियन पैनल कोड) की धारा 354 में बदलाव--http://www.mahashakti.org.in/2014/10/354.html

कानून की इस धारा के तहत मिल सकती है सजा-ए-मौतhttp://aajtak.intoday.in/crime/story/crime-vs-law-here-is-what-section-302-of-ipc-1-841026.html

देश के कानीन की 5 महत्वपूर्रण बातें-http://www.samanyagyan.com/general-knowledge/indian-penal-code-sections-offences-and-their-punishments-list-in-hindi.php