Sunday, February 16, 2020

जानिये दंड न्यायालय के दंड देने की शक्तियां और पद


 जानिए दंड न्यायालय के दंड देने की शक्तियां और पद 

17Feb 2020 9:30

     किसी समय राजा ही विधि का निर्माण करता था तथा राजा ही व्यक्तियों को अभियोजित करता था। राजा ही न्यायाधीश का काम करता था। 
      लोकतांत्रिक व्यवस्था के आने के बाद न्याय के कार्य न्यायपालिका को प्राप्त हो गए तथा राज्य ने विधि के माध्यम से न्यायपालिका को दोषियों को दंड देने हेतु सशक्त किया। न्यायपालिका के भीतर अलग अलग दंड न्यायालय होते हैं तथा इन दंड न्यायालयों को शक्तियां दी गई हैं। यह लोगों के अपराध में विचारण कर सकते हैं तथा इन व्यक्तियों को उस विचारण के परिणामस्वरूप दंड भी दे सकते हैं। 
      दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 5 के अंतर्गत यह बताने का प्रयास किया गया है कि दंड देने की शक्ति किसी मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश को प्राप्त नहीं होती है अपितु शक्तियां न्यायालय को प्राप्त होती हैं तथा न्यायालय किसी व्यक्ति का विचारण करता है और उसे दंडादेश सुनाता है। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अंतर्गत न्यायालयों को शक्तियां दी गई हैं एवं अध्याय 3 में इसका उल्लेख किया गया है। इस लेख के माध्यम से हम न्यायालयों की कुछ शक्तियों को समझने का प्रयास करेंगे कौन से न्यायालय किसी अपराध का विचारण कर सकते हैं 
    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 26 के अंतर्गत न्यायालय का उल्लेख किया गया है जो किसी अपराध का विचारण करते हैं तथा भारत में किसी अपराध के संबंध में विचारण करने की शक्ति इन्हें प्राप्त है। यह अधिनियम की इस धारा के माध्यम से बताने का प्रयास किया गया है। इस धारा के अंतर्गत निम्न न्यायालयों को किसी भी अपराध में विचारण करने की शक्ति प्राप्त होंगी 
                    उच्च न्यायालय (हाईकोर्ट)          सत्र न्यायालय (सेशन कोर्ट)          वह न्यायालय जिसका उल्लेख      प्रथम अनुसूची में किया गया है 'बलात्कार के मामले में केवल स्त्री पीठासीन अधिकारी ही मामले का विचारण कर सकती है' यदि कोई विशेष विधि है और उस विशेष विधि के अंतर्गत किसी मामले का विचारण करने के लिए किसी न्यायालय को शक्तियां दी गई है तो उस विशेष न्यायालय द्वारा मामले का विचारण कर लिया जाएगा यदि उस विशेष विधि में यह उल्लेखित नहीं किया गया है कि किस न्यायालय द्वारा मामले का विचारण किया जाएगा तो ऐसी परिस्थिति में- उच्च न्यायालय ऐसा न्यायालय जिसका उल्लेख प्रथम अनुसूची में किया गया है। 

     दंड प्रक्रिया संहिता में प्रथम अनुसूची में भारतीय दंड संहिता के अपराधों का उल्लेख है तथा इस अनुसूची में कौन से अपराध     संज्ञेय      हैं और कौन से अपराध     असंज्ञेय    हैं, अपराध जमानती होंगे या अजमानतीय होंगे तथा कौन से न्यायालय द्वारा विचारण होगा, इसका उल्लेख किया गया है। 
      सुधीर बनाम मध्यप्रदेश राज्य एआईआर 2001 उच्चतम न्यायालय 825 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां एक ही घटना से संबंधित दो मामले हो जिनमें एक की सुनवाई की अधिकारिता सेशन कोर्ट को हो तथा दूसरे की मजिस्ट्रेट को तो ऐसी दशा में उन दोनों ही मामलों की सुनवाई सेशन कोर्ट द्वारा की जा सकती है तथा मजिस्ट्रेट द्वारा विचारण योग्य मामलों को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को अंतरित किया जाना आवश्यक नहीं है। इस धारा में कहीं भी विचारण के संबंध में उच्चतम न्यायालय का नाम नहीं आता है।
      किसी भी विचारण को उच्च न्यायालय नहीं करता। अपराधों का विचारण दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत केवल इन्हीं न्यायालय द्वारा किया जाता है। 
       किशोरों के मामले को सुनने की अधिकारिता किस न्यायालय की होगी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 27 के अंतर्गत यह उल्लेख किया गया है कि किशोरों के मामले में कौन से न्यायालयों को विचारण करने की अधिकारिता होगी। 
     जिस व्यक्ति को न्यायालय में हाजिर किया गया है, यदि उसकी आयु न्यायालय में हाजिर करते समय 16 वर्ष से कम है तो मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा या फिर किसी ऐसे न्यायालय द्वारा जिसे बाल अधिनियम 1960 और किशोर अपराधियों के उपचार प्रशिक्षण में पुनर्वास के लिए उपबंध करने वाली तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन विशेष रूप से सशक्त किया गया हो, वह मामले की सुनवाई करेगा। बालकों के मामले में पृथक से बाल न्यायालय होते हैं। अगर बाल न्यायालय नहीं हैं तो ऐसी परिस्थिति में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा बालकों का विचारण किया जाता है। इस धारा का उपयोग केवल तब किया जा सकता है जब न्यायालय में उपस्थित किए गए व्यक्ति की उम्र 16 वर्ष से कम होगी परंतु उनके द्वारा किया गया अपराध मृत्युदंड या आजीवन कारावास से दंडनीय नहीं होना चाहिए। ----रघुवीर बनाम हरियाणा राज्य एआईआर 1981 एस सी 2037 के मामले में सत्र न्यायालय द्वारा एक बाल अभियुक्त को तीन अन्य व्यक्तियों के साथ भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अधीन अभियोजित कर उसे उक्त अपराध के लिए सिद्धदोष किया गया। किंतु सुप्रीम कोर्ट ने संहिता की धारा 27 के अनुसरण में कथित अपराध के विचारण को रद्द करते हुए उक्त विचारण को हरियाणा बाल अधिनियम 1974 के अधीन किए जाने के निर्देश दिए। प्रताप सिंह बनाम झारखंड राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय निर्णय दिया कि जहां मजिस्ट्रेट को यह पता है कि अभियुक्त किशोर आयु का है अर्थात 18 साल से कम आयु का है, लड़का लड़की कुछ भी हो तो सबसे पहले अपराध की तारीख को अभियुक्त की निश्चित आयु क्या थी, इसका निर्धारण करना चाहिए। जन्म- मृत रजिस्टर में दर्ज तारीख,स्कूल रजिस्टर में लिखी तारीख विश्वसनीय आधार माना जाएगा। अभियुक्त को स्वयं को किशोर आयु का सिद्ध करने की भार नहीं होता है। अपितु मजिस्ट्रेट ही अभिनिर्धारित करता है कि अभियुक्त किशोर आयु का है या नहीं। 

          उच्च न्यायालय और सत्र न्यायालय क्या दंड दे सकते हैं यह सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि उच्च न्यायालय एवं सत्र न्यायालय क्या दंड दे सकेंगे और कितनी कितनी अवधि के दंड दिए जाने की शक्ति इन दोनों न्यायालयों को प्राप्त है। इस प्रश्न का उत्तर हमें दंड प्रक्रिया संहिता की-- धारा 28 में प्राप्त होता है, जहां यह बताया गया है कि उच्च न्यायालय एवं सत्र न्यायालय क्या दंड दे सकेंगे एवं दंड देने में इन दोनों न्यायालय को क्या शक्तियां प्राप्त है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 28 के अंतर्गत मुख्य तीन न्यायालयों का उल्लेख किया गया है जिनके द्वारा दंड दिया जाता है। उच्च न्यायालय उच्च न्यायालय विधि द्वारा प्राधिकृत कोई भी दंड दे सकता है जिस दंड को भारतीय दंड विधि में भारतीय संसद द्वारा पारित अधिनियम के माध्यम से अधिनियमित किया गया है। वह दंड उच्च न्यायालय द्वारा दिया जा सकता है।ऐसा दंड किसी भी प्रकार का हो सकता है। 
        दंड दिए जाने के संबंध में उच्च न्यायालय भारतीय दंड व्यवस्था की सर्वाधिक शक्तिशाली संस्था है, जो किसी भी भांति का दंड दे सकती है। प्रवृत विधि में जो भी दंडो का उल्लेख किया गया है वह दंड उच्च न्यायालय द्वारा दिए जा सकेंगे। सत्र न्यायाधीश द्वारा दिया जाने वाला दंड दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 28 के अंतर्गत सत्र न्यायालय का उल्लेख किया गया है। सत्र न्यायालय को कितने भागों में बांटा जा सकता है एवं कौन-कौन से न्यायालय सेशन न्यायालय कहलाएंगे एवं जिन के पीठासीन अधिकारी न्यायाधीश कहलाएंगे। 
      न्यायाधीशों को दंड देने की शक्ति कहां तक होगी। सत्र न्यायाधीश कोई भी सत्र न्यायाधीश का न्यायालय विधि द्वारा प्राधिकृत कोई भी दंडादेश दे सकता है,परन्तु सत्र न्यायालय द्वारा दिया जाने वाला मृत्युदंड उच्च न्यायालय द्वारा पुष्ट किए जाने की आवश्यकता होगी। 
     किसी भी सत्र न्यायाधीश द्वारा दिया गया मृत्युदंड उच्च न्यायालय द्वारा पुष्ट किया जाता है। जब उच्च न्यायालय किसी भी सिद्धदोष को दिए मृत्युदंड को पुष्ट कर देता है तो ही वह मृत्युदंड मान्यता रखता है। 
       अपर सत्र न्यायाधीश कोई भी अपर सत्र न्यायाधीश वह सभी दंड दे सकता है जो सत्र न्यायाधीश दे सकता है। सहायक सत्र न्यायधीश सहायक सत्र न्यायधीश मृत्यु दंड, आजीवन कारावास या 10 वर्ष से अधिक की कारावास की अवधि के सिवाय कोई भी दंडादेश दे सकता है। अर्थात सहायक सत्र न्यायाधीश मृत्युदंड आजीवन कारावास और 10 वर्ष के ऊपर का कारावास नहीं दे सकता है। उसे केवल किसी भी सिद्धदोष को 10 वर्ष तक कारावास दिए जाने की शक्ति प्राप्त है। 
       किसी भी मामले में न्यायाधीश कितना दंड देंगे, दंड की अवधि न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर होगी। उच्चतम न्यायालय ने मध्यप्रदेश राज्य बनाम घनश्याम सिंह के वाद में यह स्पष्ट किया है कि उस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए जिसके लिए किसी अभियुक्त को दंडित किया जाता है। 
       यह सर्वसाधारण नियम नहीं बनाया जा सकता कि विचारण में अत्यधिक विलंब के सभी मामलों में अभियुक्तों को न्यूनतम दंड से दंडित किया जाना उचित होगा। दूसरे शब्दों में या कहा जा सकता है कि विचारण का लंबे समय तक लंबित रहना स्वयमेव अभियुक्त को कम दंड दिए जाने का उचित कारण नहीं माना जाना चाहिए। 
      किसी भी न्यायालय द्वारा दंड की अवधि न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर करती है, परंतु ऐसा विवेक भी युक्तियुक्त होना चाहिए। 
      कोई भी अपराध में दंड अपराध की गंभीरता को देख कर दिया जाना चाहिए। कर्नाटक राज्य बनाम राजू के बाद में कुछ ऐसा ही मामला सामने आया था, जिसमें 10 वर्ष की बच्ची का बलात्कार करने वाले अभियुक्त को 7 वर्ष के कारावास से दंडित किया गया था, परंतु कर्नाटक उच्च न्यायालय की एकल पीठ में दंड को कम करके साढ़े 3 वर्ष का कर दिया था। उच्चतम न्यायालय ने इस निर्णय की भर्त्सना की थी तथा कम से कम 10 वर्ष तक का दंड इस अपराध में दिए जाने के संदर्भ में उल्लेख किया था। हालांकि बाद में बलात्कार जैसे अपराध में भारतीय दंड संहिता में संशोधन कर दिए गए तथा बलात्कार में मृत्युदंड तक का प्रावधान रख दिया गया है। 
     इस कड़ी में केवल उच्च न्यायालय एवं न्यायाधीशों की दंड देने की शक्ति का उल्लेख किया गया है। अगली कड़ी में मजिस्ट्रेट द्वारा दंड दिए जाने की शक्ति का उल्लेख किया जाएगा तथा दंड न्यायालय की अन्य शक्तियों के संबंध में भी चर्चा की जाएगी। T

पैन कार्ड,बैंक दस्तावे,भूमि राजस्व की रसीद से किसी व्यक्ति की नागरिकता साबित नहीं होती -गुवाहाटी हाई कोर्ट

पैन कार्ड, बैंक दस्तावेज़, भूमि राजस्व की रसीद से किसी व्यक्ति की नागरिकता साबित नहीं होती : गुवाहाटी हाईकोर्ट

17 Feb 2020 4:18 

गुवाहाटी हाईकोर्ट ने कहा है कि भूमि राजस्व (Land Revenue) के भुगतान की रसीद के आधार पर किसी व्यक्ति की नागरिकता साबित नहीं होती है। साथ ही, अपने पिछले फैसले के बाद, न्यायालय ने माना कि पैन कार्ड और बैंक दस्तावेज़ भी नागरिकता साबित नहीं करते हैं।

       न्यायमूर्ति मनोजीत भुयान और न्यायमूर्ति पार्थिवज्योति सैकिया की पीठ ने विदेशी ट्रिब्यूनल, बक्सा के आदेश के खिलाफ ज़ुबैदा बेगम द्वारा दायर रिट याचिका को खारिज करते हुए ये टिप्पणियां कीं। इस आदेश में ज़ुबैदा बेगम को 1971 के घटनाक्रम के परिपेक्ष्य में विदेशी घोषित किया गया था।

      पुलिस अधीक्षक (बी) के एक संदर्भ के आधार पर विदेशी ट्रिब्यूनल, बक्सा, तामुलपुर, असम ने याचिकाकर्ता को नोटिस जारी कर उसे भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए कहा था।

      ट्रिब्यूनल से पहले, उसने कहा कि उसके माता-पिता के नाम 1966 की वोटर लिस्ट में थे। उसने दावा किया कि उसके दादा-दादी के नाम भी 1966 की वोटर लिस्ट में दिखाई दिए थे। याचिकाकर्ता ने आगे कहा कि सन 1970 और सन 1997 की मतदाता सूची भी में भी उसके पिता का नाम था।

       ट्रिब्यूनल ने पाया कि याचिकाकर्ता अपने अनुमानित माता-पिता के साथ संबंध दिखाने वाला कोई भी दस्तावेज पेश नहीं कर सकी। हाईकोर्ट ने ट्रिब्यूनल के इन निष्कर्षों से सहमति व्यक्त की।

पैन कार्ड और बैंक दस्तावेजों पर याचिकाकर्ता की निर्भरता को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया और कहा,

      "भारत में यह मामला बाबुल इस्लाम बनाम भारत संघ [WP(C)/3547/2016] में पहले ही आयोजित किया जा चुका है कि पैन कार्ड और बैंक दस्तावेज़ नागरिकता का प्रमाण नहीं हैं।"इस फैसले में कहा गया था कि समर्थित साक्ष्य के अभाव में केवल एक मतदान फोटो पहचान पत्र प्रस्तुत करना नागरिकता का प्रमाण नहीं होगा।

मतदान फोटो पहचान पत्र नागरिकता का निर्णायक प्रमाण नहीं : गुवाहाटी हाईकोर्ट

       यह भी पाया गया कि याचिकाकर्ता अपने अनुमानित भाई के साथ संबंध दिखाते हुए दस्तावेज पेश नहीं कर सकी, जिसका नाम 2015 की मतदाता सूची में दिखाई दिया था। कोर्ट ने कहा कि गांव बूरा द्वारा जारी प्रमाण पत्र किसी व्यक्ति की नागरिकता का प्रमाण नहीं हो सकता।

पीठ ने कहा कि भूमि राजस्व के भुगतान प्राप्तियां (रसीद) किसी व्यक्ति की नागरिकता साबित नहीं करती हैं।

इन निष्कर्षों पर हाईकोर्ट ने रिट याचिका को खारिज कर दिया और कहा,

       "हम पाते हैं कि ट्रिब्यूनल ने इससे पहले रखे गए साक्ष्यों की सही ढंग से सराहना की है और हम ट्रिब्यूनल के निर्णय में व्यापकता देख सकते हैं। यही स्थिति होने के नाते, हम इस बात को दोहराएंगे कि याचिकाकर्ता अपने अनुमानित माता-पिता और उसके अनुमानित भाई के साथ संबंध को साबित करने में विफल रही, इसलिए, हम पाते हैं कि यह रिट याचिका योग्यता रहित है और उसी के अनुसार, हम इसे खारिज करते हैं।"

सीपीसी जानिये एक पक्षीय डिक्री और उसे अपास्त किये जाने के आधार

 सीपीसी : जानिए एकपक्षीय डिक्री और उसे अपास्त किए जाने के आधार 

 16 Feb 2020 

         सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के अंतर्गत जब पक्षकारों को समन किया जाता है तो आदेश 9 के अंतर्गत पक्षकारों की उपस्थिति या अनुपस्थिति के परिणाम दिए गए है। इन परिणामों में से एक परिणाम एकपक्षीय आदेश या डिक्री होता है। एकपक्षीय आज्ञप्ति का अर्थ बुलाए गए पक्षकारों द्वारा अदालत में उपस्थित नहीं होने के कारण किसी एक पक्षकार को सुना जाना तथा जो पक्षकार अदालत में उपस्थित न होकर अपने लिखित अभिकथन नहीं करता है उस पक्षकार को वाद से एकपक्षीय कर दिया जाता है। 
       जो पक्षकार न्यायालय में वाद लेकर आता है केवल उसी के तर्क को सुनकर केवल उसी के साक्षियों को सुनकर न्यायालय द्वारा एक पक्षीय आदेश या आज्ञप्ति पारित कर दी जाती है। हालांकि एकपक्षीय आज्ञप्ति नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध है, क्योंकि इस एकपक्षीय आज्ञप्ति या निर्णय में केवल एक ही पक्षकार को सुना जाता है, जिस प्रकार के विरुद्ध आदेश हैं, निर्णय पारित किया जाता है उस पक्षकार को सुना नहीं जाता है। उसकी अनुपस्थिति में एकपक्षीय आज्ञप्ति पारित कर दी जाती है। एकपक्षीय आज्ञप्ति उसी स्थिति में पारित की जाती है जिस स्थिति में पक्षकार समन द्वारा सूचना प्राप्त होने पर भी न्यायालय में उपस्थित होकर लिखित अभिकथन नहीं करता है। बाद में आगे की कार्यवाही में भाग नहीं लेता है तथा विचारण का भागीदार नहीं बनता है। इस परिस्थिति में पक्षकार वाद से बचने का प्रयास करता है।
          दीवानी प्रकरण में एकपक्षीय आज्ञप्ति दिया जाना भी एक आवश्यक कार्य है, क्योंकि पक्षकार मुकदमों से बचते है तथा जिन पक्षकारों के अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है एवं पक्षकारों को व्यथित किया गया है वह पक्षकार जो किसी व्यक्ति विशेष के कार्यों द्वारा आहत हैं। ये लोग ऐसी अनुपस्थित रहने वाले पक्षकार के कारण न्यायालय में उपस्थित होकर न्याय प्राप्त नहीं कर पाते हैं। 
         न्याय के सिद्धांतों को गतिशील बनाने हेतु एक एकपक्षीय आज्ञप्ति दी जाती है तथा यह न्यायालय की विशेष शक्ति है। जहां समन सम्यक रूप से तामील किया गया हो और प्रतिवादी उपस्थित नहीं हों, वहां न्यायालय एकपक्षीय अग्रसर हो सकेगा। एकपक्षीय आज्ञप्ति पारित कर सकेगा, इसी प्रकार यदि प्रतिवादी समन प्राप्ति के हस्ताक्षर करने से इंकार कर दे तथा रजिस्ट्रीकरण पत्र को भी लेने से मना कर दे तब ऐसे प्रतिवादी के विरुद्ध एकपक्षीय कार्रवाई की जा सकेगी। 
       एकपक्षीय आज्ञप्ति अपास्त किया जाना सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 9 नियम 7 व 13 में एकपक्षीय आज्ञप्ति आदेशों को अपास्त किए जाने के बारे में प्रावधान किया गया है। यदि सुनवाई एकपक्षीय स्थगित कर दी गई हो तो प्रतिवादी उपसंजात हो सकेगा और उपसंजाति के लिए हेतु संरक्षित कर सकेगा। न्यायालय खर्च दिलवाकर या अन्यथा सुने जाने और लिखित कथन संस्थित किए जाने का आदेश दे सकेगा। अगर सुनवाई पूरी गई हो और वाद को निर्णय के लिए रखा गया हो तो ऐसी परिस्थिति में आदेश 9 के नियम 7 के अंतर्गत एकपक्षीय आदेश को अपास्त नहीं किया जाना चाहिए। 
        यह सुनील कुमार बनाम प्रवीणचंद्र के मामले में 2008 राजस्थान 179 में कहा गया है। जहां ऐसा प्रतिवादी जिसके विरुद्ध एकपक्षीय आज्ञप्ति पारित की गई है। न्यायालय का समाधान कर देता है कि- समन सम्यक रूप से तामील नहीं हुआ था। उसके उपस्थित नहीं होने का कोई पर्याप्त कारण है, वह ऐसे एकपक्षीय एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त किए जाने के लिए आवेदन कर सकेगा और न्यायालय ऐसे आवेदन पर खर्च देखकर या अन्यथा शर्त पर एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त करने का आदेश दे सकेगा। 
       वीके इंडस्ट्रीज बनाम मध्य प्रदेश इलेक्ट्रॉनिक बोर्ड के मामले में यह उल्लेख किया गया है कि एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त किए जाने के लिए जो शर्तें निर्धारित की जाएगी। उन शर्तों को युक्तियुक्त होना चाहिए। कोई भी ऐसी शर्त जो युक्तियुक्त नहीं है उसे आज्ञप्ति अपास्त किए जाने के लिए न्यायालय द्वारा शर्तों में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। कोई भी एकपक्षीय आज्ञप्ति केवल इस आधार पर की समन की तामील में अनियमितता की गई थी अपास्त नहीं की जा सकेगी। समन की तामील में अनियमितता के साथ पक्षकार के पास कोई पर्याप्त युक्तियुक्त हेतु भी होना चाहिए,जिसके कारण वह न्यायालय में उपस्थित नहीं हो सका।
         किशोर कुमार अग्रवाल बनाम वासुदेव प्रसाद गुटगुटिया एआईआर 1977 पटना 131 के मामले में यह कहा गया है कि यहां कोई मामला एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय को अंतरित कर दिया गया हो, लेकिन उसकी सूचना पक्षकारों को नहीं दी गई हो वहां किसी पक्षकार के विरुद्ध पारित एकपक्षीय आज्ञप्ति अपास्त किए जाने योग्य होगी।
        एवी चार्ज बनाम एस एम आर ट्रेडर्स और अन्य ए आई आर 1980 केरल 100 के प्रकरण में यह कहा गया है कि जहां कोई तिथि प्रतिवादी के साक्ष्य के लिए नियत हो वह प्रतिवादी नियत तिथि को बीमारी के कारण उपस्थित नहीं हुआ हो एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त कराने वाद की पुनर्स्थापना के लिए प्रस्तुत आवेदन संधारण योग्य होगा।
       एक अन्य मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा बीमारी को भी युक्तियुक्त बीमारी माना गया है। पक्षकार किसी ऐसी बीमारी से पीड़ित हो जिस बीमारी के कारण वह न्यायालय तक आ पाने में असमर्थ हो तो ही इस कारण से डिक्री को अपास्त किए जाने हेतु आवेदन किया जा सकता है। 
      मैसर्स प्रेस्टिज लाइट्स लिमिटेड स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि किसी एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त कराने हेतु प्रस्तुत आवेदन पत्र को इस आधार पर खारिज नहीं किया जाना चाहिए कि निर्णीत ऋणी द्वारा विषय से संबंधित कोई पूर्व निर्णय पेश नहीं किया गया। न्यायालय के लिए भी विधि की अज्ञानता क्षम्य (माफी योग्य) नहीं है। 
      समय-समय पर भारत के उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय में एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त किए जाने हेतु आने वाले वादों में कुछ पर्याप्त और अपर्याप्त कारणों का वर्गीकरण किया गया है। सुनवाई की तिथि के संबंध में सद्भावनापूर्ण भूल। गाड़ी का विलंब से पहुंचना। अधिवक्ता का बीमार हो जाना। विरोधी पक्षकार का कपाट। डायरी में सुनवाई की तारीख गलत अंकित कर दी जाना। वाद मित्र अथवा संरक्षक की लापरवाही। पक्षकार के संबंधी की मृत्यु हो जाना। पक्षकार का कारवासित हो जाना। विरोधी पक्षकार द्वारा निदेश नहीं मिलना।
         सिविल प्रक्रिया संहिता अंतर्गत कोई भी डिक्री किसी भी आवेदन पर तब तक अपास्त नहीं की जाएगी जब तक वाद के विरोधी पक्षकार को उसकी सूचना नहीं दी जाती। वाद के विरोधी पक्षकार को सूचना देने के उपरांत ही एकपक्षीय डिक्री को अपास्त किया जा सकेगा। अनुपस्थिति के कारणों की पर्याप्तता का प्रश्न है या प्रत्येक मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। 
       चक्रधर चौधरी बना पदमालवदास के मामले में हाई ब्लड प्रेशर को अनुपस्थिति का पर्याप्त कारण माना है। यदि कोई पक्षकार हाई ब्लड प्रेशर से पीड़ित है तो इस आधार पर एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त किया जा सकता है । 
       दिल्ली विकास प्राधिकरण बनाम शांति देवी एआरआई 1982 दिल्ली 159 का मामला है। इस मामले में अधिवक्ता न्यायालय में दिए गए समय से लेट पहुंचे। उन्होंने इसके लिए न्यायालय में एक शपथ पत्र भी पेश किया था। जब न्यायालय में पहुंचे तो उन्हें मालूम हुआ कि न्यायालय द्वारा मामले में एकपक्षीय कार्यवाही करने का आदेश दिया जा चुका है। 
       जब अधिवक्ता द्वारा मामले में एकपक्षीय आदेश को अपास्त किए जाने का आवेदन दिया गया तो इसे पर्याप्त कारण माना गया तथा एकपक्षीय आदेश को अपास्त कर दिया गया। मधुबाला बनाम श्रीमती पुष्पा देवी के मामले में ऐसी एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त करने के आवेदन को ग्राह्य माना गया है जो- विवाह को शून्य एवं अकृत घोषित कराने से संबंधित थी। पति द्वारा कपट के अधीन प्राप्त की गई थी। पत्नी द्वारा एकपक्षीय आज्ञप्ति की जानकारी होने की तारीख से 1 माह के भीतर अपास्त करने हेतु आवेदन कर दिया गया था। 
       विश्वनाथ सिंह बनाम गोपाल कृष्ण सिंघल का मामला है। इस मामले में प्रतिवादी की बीमारी को अपास्त का एक अच्छा आधार माना गया।खासतौर से वहां जहां वादी ने इसका खंडन नहीं किया हो। आलोक साबू बनाम स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया गया है कि एकपक्षीय आदेश को अपास्त करने के लिए ऋण वसूली अधिकरण द्वारा एक पूर्वोक्त शर्त के तौर पर खर्चा अधिकृत किया जा सकता है लेकिन एक करोड़ रुपए जमा कराने जैसी कठोर शर्त नहीं लगा सकता। 
      सैयद हसनल्लाह अन्य बनाम अहमद बेग अन्य का मामला एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त करने के लिए निम्नांकित पर्याप्त आधार माना गया है- समन का अंग्रेजी में जारी किया जाना जबकि प्रतिवादी अंग्रेजी नहीं जानता हो। निर्णय का आर्डर शीट पर ही लिखा जाना।अर्थात निर्णय पृथक से विस्तृत नहीं लिखा गया था। 
      एकपक्षीय आज्ञप्ति के आदेश के विरुद्ध उपचार- प्रतिवादी द्वारा अपील धारा 96(2) के अंतर्गत पुनर्विलोकन धारा 114 आदेश 47 के अंतर्गत आवेदन आदेश 9 के नियम 13 के अंतर्गत एकपक्षीय आज्ञप्ति पारित करने वाले न्यायालय में आज्ञप्ति पारित होने की तिथि से या समन शामिल होने की अवस्था में उस दिनांक से जबकि आवेदक को आज्ञप्ति का ज्ञान हुआ 30 दिन के अंदर प्रतिवादी द्वारा आवेदन किया जाना चाहिए। 

बलात्कार के मामले में अभियुक्त को केवल पीढिता की गवाही के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता है -सुप्रीम कोर्ट

 बलात्कार के मामले में अभियुक्त को केवल पीड़िता की गवाही के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जब तक कि उसकी गवाही वास्तविक गुणवत्ता की न हो : सुप्रीम कोर्ट 

16 Feb 2020 

        सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि बलात्कर केस के किसी आरोपी की सजा पीड़िता की एकमात्र गवाही के आधार पर नहीं हो सकती है, जब तक कि वह वास्तविक गवाह का टेस्ट पास न कर ले। न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एमआर शाह की खंडपीठ ने फैसला दिया कि पीड़िता के एकमात्र साक्ष्य के आधार पर किसी अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए सबूत बिल्कुल भरोसेमंद, बेदाग और वास्तविक गुणवत्ता वाले होने चाहिए। 
       राय संदीप उर्फ दीपू बनाम राज्य के मामले पर भरोसा करते हुए खंडपीठ ने दोहराया है कि वास्तविक (स्टर्लिंग) गवाह बहुत उच्च गुणवत्ता का होना चाहिए, जिसका बयान अखंडनीय होना चाहिए। ऐसे गवाह के बयान पर विचार करने वाली अदालत इस स्थिति में होनी चाहिए कि वह बिना किसी संदेह के इसके बयान स्वीकार कर ले। इस तरह के एक गवाह की गुणवत्ता का परीक्षण करने के लिए गवाह की स्थिति सारहीन होगी। वह इस तरह के गवाह द्वारा दिए गए बयान की सत्यता है। मामले के तथ्य पीड़िता ने अपने बहनोई, अपीलकर्ता (अभियुक्त) के खिलाफ 16.09.2011 को शिकायत दर्ज कराई, जिसमें आरोप लगाया गया कि उसने पूर्व रात उसके साथ बलात्कार किया था। अपीलकर्ता के खिलाफ मखदुमपुर पुलिस स्टेशन, पटना में प्राथमिकी दर्ज की गई और फिर मामले की जांच की गई। जांच के निष्कर्ष पर आईओ ने अपीलकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 376 (1) और 450 के तहत आरोप पत्र दायर किया। 
        जहानाबाद में अतिरिक्त सत्र न्यायालय ने मामले की सुनवाई की। अपीलकर्ता ने सभी तरह से निर्दोष होने की बात कही। अभियोजन पक्ष ने पीड़िता और चिकित्सा अधिकारी सहित आठ गवाहों की गवाही करवाई। 8 गवाहों में से तीन गवाहों ने अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन नहीं किया और अपने बयान से मुकर गए। ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को आईपीसी की धारा 376 के तहत अपराध के लिए 10 साल के कारवास और आईपीसी की धारा 450 के तहत 7 साल के कारावास की सजा दी। इसके बाद अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट के समक्ष अपील दायर की जिसे हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था। इसके बाद अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की।
         पार्टियों द्वारा दी गई दलीलें अपीलार्थी की ओर से पेश वकील ने तर्क दिया कि अपीलकर्ता को दोषी ठहराते हुए न्यायालयों ने तथ्यात्मक गलती की है। उन्होंने तर्क दिया कि अविश्वसनीय चिकित्सा साक्ष्य, पीड़िता के बयान में विरोधाभास और एफआईआर दर्ज करने में देरी से पीड़िता की विश्वसनीयता पर गंभीर संदेह पैदा हुआ है।
        मामले के मुख्य आरोपी की तरफ से पेश वकील संतोष कुमार द्वारा प्रस्तुत किया गया कि पीड़िता के बयानों/ सबूतों को छोड़कर,जिसकी चिकित्सा साक्ष्य द्वारा पुष्टि नहीं की गई है, अभियुक्त को इस अपराध से जोड़ने के लिए कोई अन्य स्वतंत्र और ठोस साक्ष्य नहीं है। अपीलकर्ता के वकील ने आगे तर्क दिया कि जब आईपीसी की धारा 376 के तहत अभियुक्त की सजा केवल पीड़िता की एकमात्र गवाही पर हुई है और चूंकि मेडिकल साक्ष्य की सामग्री में विरोधाभास मौजूद है तो उस आधार पर अभियुक्त को दोषी ठहराना असुरक्षित है।
        प्रतिवादी राज्य की तरफ से पेश वकील ने कहा कि सबूतों का मूल्यांकन करते हुए न्यायालयों द्वारा उचित लाभ दिया जाना चाहिए। चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने रंजीत हजारिका बनाम असम राज्य और पंजाब राज्य बनाम वी.गुरमीत सिंह और अन्य लोगों के खिलाफ मामलों में लगातार माना था कि, पीड़िता के साक्ष्य पर विश्वास किया जाना चाहिए क्योंकि कोई भी स्वाभिमानी महिला अदालत में सिर्फ अपने सम्मान के खिलाफ ऐसा बयान देने के लिए आगे नहीं आएगी कि उसके साथ बलात्कार का अपराध हुआ है। इसके अलावा उन्होंने तर्क दिया कि केवल इसलिए क्योंकि मेडिकल रिपोर्ट अनिर्णायक थी, आरोपी की बेगुनाही का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता था। बेंच ने कहा, "आपराधिक अपील की अनुमति देते हुए और अपीलार्थी के खिलाफ लगाए गए सभी आरोपों से बरी करते हुए अदालत ने माना कि किसी भी अन्य सहायक सबूत की अनुपस्थिति में पीड़िता के बयान को पूरे सच के रूप में नहीं लिया जा सकता, इसलिए दोषसिद्धि को बनाए रखने की कोई गुंजाइश नहीं थी।" न्यायालय ने आगे कहा कि पीड़िता के साक्ष्य में भौतिक या तथ्यात्मक विरोधाभास थे और अपीलकर्ता-अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए यह विश्वसनीय और भरोसेमंद नहीं थे। 
      अदालत ने कहा, " हालांकि आमतौर पर पीड़िता की एकमात्र गवाही बलात्कार के एक आरोपी को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त होती है, परंतु अदालत झूठे आरोप के खिलाफ आरोपी को सुरक्षा देने के दृष्टिकोण को नहीं खो सकती। इस बात को नहीं नकारा जा सकता है कि बलात्कार, पीड़िता के लिए सबसे बड़ी पीड़ा और अपमान का कारण बनता है, लेकिन साथ ही बलात्कार का झूठा आरोप भी अभियुक्त के लिए समान रूप से संकट, अपमान और क्षति का कारण बन सकता है। अभियुक्त को भी उसके खिलाफ लगाए गए झूठे आरोप की संभावना से सुरक्षा दी जानी चाहिए, विशेष रूप से जहां बड़ी संख्या में आरोपी शामिल हों।
      " अपीलार्थी के लिए अधिवक्ता संतोष कुमार ने तर्क दिया। अधिवक्ता केशव मोहन ने प्रतिवादी राज्य की ओर से बहस का नेतृत्व किया। 

दो से अधिक बच्चों वाली महिला को मात्रित्व अवकाश देने के उत्तराखण्ड हाई कोर्ट के फैसले पर दखल देने से इन्कार- सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड हाईकोर्ट के दो बच्चों वाली महिला को मातृत्व अवकाश देने से इनकार के फैसले में दखल से इनकार किया 

16 Feb 2020 

      सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड सरकार के उस नियम में दखल देने से इंकार कर दिया है जिसमें दो या दो से अधिक बच्चों वाली महिला को इस आधार पर मातृत्व अवकाश देने से इनकार किया गया है कि उसके पहले ही दो या दो से अधिक बच्चे हैं। पीठ ने कहा कि यह राज्य सरकार का नीतिगत निर्णय है। जस्टिस आर बानुमति और जस्टिस ए एस बोपन्ना की पीठ ने उर्मिला मसीह की उच्च न्यायालय के 17 सितंबर, 2019 के आदेश के खिलाफ दायर याचिका खारिज कर दी। पीठ ने कहा कि हमें उस आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं दिखाई देता है, जिसमें उच्च न्यायालय ने उचित रूप से विचार किया है कि बनाया गया नियम एक नीतिगत मामला है और इस तरह कोई हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। याचिकाकर्ता ने एक घोषणा की मांग की थी कि दो या अधिक जीवित बच्चों वाली महिलाओं को मातृत्व अवकाश नहीं देने का प्रतिबंध असंवैधानिक है। उन्होंने कहा था कि राज्य महिला कर्मचारियों को दो जीवित बच्चों के साथ मातृत्व अवकाश पर प्रतिबंध लगाने का मौलिक नियम 153 संविधान के न्यायोचित कार्य और मातृत्व राहत की उचित और मानवीय स्थिति से निपटने के लिए मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 और अनुच्छेद 42 का उल्लंघन करता है। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता को इस आधार पर कोई राहत देने से इनकार कर दिया था कि मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 राज्य सरकार के कर्मचारियों पर लागू नहीं है और अनुच्छेद 42 निर्देश सिद्धांतों का एक हिस्सा होने के नाते अदालत द्वारा लागू करने योग्य नहीं है।