Thursday, December 5, 2019

वकील अपनी सेवाओं का विग्यापन नहीं दे सकते क्यों? जानिये

 जानिए वकीलों को अपनी सेवाओं का विज्ञापन देने की अनुमति क्यों नहीं है? समझिये प्रतिबंध से जुड़ी अन्य महत्वपूर्ण बातें

5Dec 2019 1:12 PM 

भारत में हर साल बड़ी संख्या में लोग, बार काउंसिल में वकील के तौर पर नामांकित होने के लिए आवेदन करते हैं। इसके पश्च्यात, इस पेशे में अपना नाम बनाने की आकांक्षा के साथ वे वकालत शुरू करते हैं। लेकिन न तो कानून पेशा अपनाने वाले लोगों को और न ही लॉ फर्मों को अपने पेशे का विज्ञापन करने का अधिकार प्राप्त है। दरअसल वकीलों को ऐसा कुछ भी करने से प्रतिबंधित किया जाता है, जो भावी मुवक्किलों को प्रभावित कर सकता है। भारत में अधिवक्ताओं को बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा तैयार किए गए नियमों के तहत उनकी सेवाओं या उनके पेशे को लेकर विज्ञापन देने से रोक दिया जाता है। जैसा कि आर. एन. शर्मा, एडवोकेट बनाम हरियाणा राज्य 2003 (3) RCR (Criminal) 166 (P&H), के मामले में यह माना गया था कि एक वकील, कोर्ट का एक अधिकारी होता है, और कानूनी पेशा, व्यापार या व्यवसाय नहीं है; यह एक महान पेशा है और अधिवक्ताओं को कानूनी रूप से तय सीमाओं के भीतर अपने भावी मुवक्किलों के लिए न्याय करने का प्रयास करना होता है और शायद इसी कारणवश वकीलों को अपनी सेवाओं का प्रचार करने से रोका जाता है। वकीलों द्वारा विज्ञापन दिए जाने पर क्यों है रोक? कानूनी पेशेवरों द्वारा विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाने की शुरुआत, ब्रिटिश शासन के दौरान विकसित विक्टोरियन धारणाओं से शुरू हुई। भारत में, यूके के समान, कानूनी पेशे को एक सम्मानजनक पेशा माना जाता है, यही कारण है कि कानूनी पेशेवरों द्वारा विज्ञापन दिया जाना उचित नहीं माना जाता है, और व्यापक रूप से इसे स्वीकार नहीं किया जाता है (हालाँकि अब यूके में वकील, अपनी सेवाओं का विज्ञापन दे सकते हैं)। वकीलों को विज्ञापन देने से रोका जाना इस विचार पर आधारित है कि यदि इस पेशे में व्यावसायिकता व्याप्त हो जाएगी, तो यह प्रवृति इस पेशे के सम्मान को कम करेगी और वकील अपने ज्ञान, कौशल, भावना और आत्मसम्मान पर ध्यान देने के बजाय, उनको मिलने वाले प्रतिफल (लाभ, फीस, उपहार इत्यादि) पर ध्यान केन्द्रित करने लग जायेंगे। जैसा कि आर. एन. शर्मा मामले में भी कहा गया कि एक वकील का मुख्य उद्देश्य, न्याय दिलाना होना चाहिए न कि अपनी व्यक्तिगत सफलता सुनिश्चित करना, क्यूंकि वह मुख्यतः कोर्ट का एक अधिकारी होता है। विज्ञापन देने पर रोक होने के अन्य कारणों में विज्ञापनों की भ्रामक प्रकृति और सेवाओं में गुणवत्ता का नुकसान भी शामिल है। बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र बनाम एम. वी. दधोलकर के मामले में जस्टिस कृष्णा अय्यर ने यह कहा था कि "कानून कोई व्यापार नहीं है, इसमें किसी माल को बेचा नहीं जाता है और इसलिए व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा को कानूनी पेशे को बदनाम नहीं करना चाहिए." गौरतलब है कि, बीसीआई द्वारा प्रदान किए गए विज्ञापन प्रतिबंध सम्बन्धी नियम (जिन्हें हम आगे समझेंगे), यकीनन भारत में मध्यस्थता संस्थानों पर लागू नहीं होते हैं, क्योंकि ऐसे संस्थान 'कानूनी सेवा' देने के बजाय 'विवाद समाधान सेवाओं' की पेशकश करते हैं। ऐसा इसलिए भी है कि बार काउंसिल के नियम, केवल अधिवक्ताओं (लॉ फर्मों सहित) पर लागू होते हैं। यह विचार अवश्य सामने रखा जाता है कि कानूनी सेवाओं के उपभोक्ता (मुवक्किल/पक्षकार) को, किसी भी अन्य सेवाओं के उपभोक्ता (जैसे एक डॉक्टर से चिकित्सा सेवा प्राप्त करना) जैसे, अपने पैसे के लिए सर्वोत्तम मूल्य प्राप्त करने का अधिकार है। हालाँकि, मौजूदा नियमों के अंतर्गत वकीलों पर विज्ञापन देने पर लगे प्रतिबन्ध के चलते, मुक़दमे का पक्षकार अपनी भुगतान क्षमता के भीतर एक वकील को खोजने में सक्षम नहीं है। हालाँकि सी. डी. सेक्किज्हर बनाम सेक्रेटरी, बार काउंसिल, मद्रास AIR 1967 Mad 35 के मामले में जस्टिस वीरास्वामी ने इस ओर गौर किया था कि कानून के पेशे के एक सदस्य द्वारा, किसी भी रूप में विज्ञापन दिया जाना, निंदनीय आचरण के रूप में देखा जाता है। यह इसलिए भी है कि इस पेशे से जुड़े सज्जनों ने इस पेशे की महानता को विकसित किया है और खुद के लिए बड़े मानक स्थापित किये हैं, इस पेशे को मिलने वाले सम्मान और गरिमा के चलते यह पेशा, ऐसा उच्च स्थान प्राप्त करने के लिए उपयुक्त भी है। बार काउंसिल ऑफ इंडिया नियम 36 क्या कहता है? बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स के नियम 36 में कहा गया है कि भारतीय लॉ फर्म और वकीलों को ऑफलाइन या ऑनलाइन दोनों तरह से अपना विज्ञापन करने/देने की अनुमति नहीं है। बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स के नियम 36 में यह कहा गया है कि भारत में वकील, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से परिपत्रों, विज्ञापनों, व्यक्तिगत संचार या साक्षात्कारों के माध्यम से या अखबारों में टिप्पणियों या तस्वीरों को प्रस्तुत करने या प्रेरित करने के माध्यम से काम मांग या अपना विज्ञापन नहीं कर सकते हैं। नियम यह भी कहता है कि एक वकील के नाम की साइनबोर्ड या नेम-प्लेट, एक उचित आकार की होनी चाहिए और इनके जरिये यह इंगित नहीं किया जाना चाहिए कि वह वकील, बार काउंसिल के अध्यक्ष या सदस्य हैं, या किसी एसोसिएशन के सदस्य हैं या वह किसी व्यक्ति या संगठन से जुड़े हैं या वह न्यायाधीश या महाधिवक्ता रहे हैं। हालाँकि, बीसीआई ने नियम 36 में संशोधन करने हेतु वर्ष 2008 में एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसके अंतर्गत वकीलों को अपनी वेबसाइट पर, अपना नाम, पता, टेलीफोन नंबर, ईमेल आईडी, व्यावसायिक और शैक्षणिक योग्यता, नामांकन और अपने प्रैक्टिस क्षेत्र से संबंधित जानकारी प्रस्तुत करने की अनुमति दे दी गयी है। यह जानकारी प्रदान करने वाले कानूनी पेशेवरों को यह घोषणा भी करनी होती है कि उन्होंने पूर्ण रूप से वास्तविक जानकारी प्रस्तुत की है। एक वकील, जो इन नियमों का उल्लंघन करता है, उसके खिलाफ अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है। इस धारा ('कदाचार के लिए अधिवक्ताओं की सजा') के तहत प्राप्त शिकायत को लेकर, एक राज्य बार काउंसिल के पास निम्नलिखित शक्तियां हैं: शिकायत को खारिज करें, अधिवक्ता को फटकारें, वकील को सीमित अवधि के लिए प्रैक्टिस करने से रोक दें, अधिवक्ता का नाम अधिवक्ताओं के राज्य रोल से हटा दें। In Re: (13) एडवोकेट्स बनाम अज्ञात AIR 1934 All 1067 के मामले में, यह अभिनिर्णित किया गया था कि अखबारों में लेख प्रकाशित करते हुए, जहां लेखक ने खुद को न्यायालयों में वकालत करने वाले एक वकील के रूप में वर्णित किया था, वह अपनी सेवाओं का प्रचार करने का एक सस्ता तरीका है। एस. के. नाइकर बनाम प्राधिकृत अधिकारी (1967) 80 Mad. LW 153 के मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने यह माना था कि एक वकील का साइन बोर्ड या नेम प्लेट, मध्यम आकार का होना चाहिए और यह भी कहा गया कि एक वकील के हस्ताक्षर के तहत, अखबार में प्रकाशन के लिए लेख लिखना, पेशेवर शिष्टाचार का उल्लंघन है। अन्य देशों में क्या हैं नियम? अमेरिका में, वकीलों द्वारा विज्ञापन दिए जाने पर प्रतिबंधों की संवैधानिक वैधता को बेट्स बनाम स्टेट बार ऑफ एरिज़ोना (1977) के मामले में चुनौती दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रथम संशोधन (जो अन्य बातों के अलावा, वाक्‌-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य सुनिश्चित करता है) के संरक्षण में ऐसे प्रचार को उचित बताया क्योंकि इस तरह के संचार/प्रचार से जनता को अपने हित में निर्णय लेने की शक्ति मिलती है और इससे उचित मूल्य की जानकारी प्राप्त हो सकती है। यूके में स्थिति थोड़ी अलग है, हालांकि शुरुआत में, पारंपरिक विक्टोरियन धारणाओं के कारण, यूके में कानूनी विज्ञापन निषिद्ध था, परन्तु वर्ष 1970 में एकाधिकार और विलय आयोग और वर्ष 1986 में फेयर ट्रेडिंगस कार्यालय की समीक्षा के बाद (जिन्होंने कानूनी लाभ और पेशेवरों द्वारा विज्ञापन देने के फायदे पर प्रकाश डाला), ब्रिटेन में यह प्रतिबंध हटा दिया गया। यूके में, सॉलिसिटर पब्लिसिटी कोड, 1990 वकील द्वारा विज्ञापन दिए जाने को नियंत्रित करता है, लेकिन कानूनी सेवाओं के विज्ञापन की अनुमति देता है। हालाँकि वकील द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त होनी चाहिए कि भावी मुवक्किल और अन्य व्यक्ति, उचित जानकारी के साथ विकल्प चुनने में समर्थ हो सकें। इसके अलावा, सिंगापुर कानूनी पेशे (व्यावसायिक आचरण) नियम 2015 कानूनी पेशेवरों द्वारा ऐसे नियमों के अनुसार, 'प्रचार' की अनुमति देता है। नियम में बदलाव: समय की मांग? भारत में न्यायिक प्रणाली के दायरे में आने वाले पक्षकारों के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं है जिसके जरिये वे इस क्षेत्र में बेहतर वकीलों का चुनाव करने के लिए जानकारी प्राप्त कर सकें। अर्थात ऐसी कोई एकल एजेंसी नहीं है, जो संभवतः 'अच्छे" वकीलों की एक विश्वसनीय सूची प्रदान कर सके। कानूनी पेशा निस्संदेह एक महान पेशा है। लेकिन इसके साथ ही, यह बड़े पैमाने पर लोगों की जरूरतों को पूरा कर रहा है। इस बात को भी ध्यान में रखते हुए, विज्ञापन सम्बन्धी नियमों को और बेहतर किया जा सकता है। हालाँकि, भारत जैसे देश में, आबादी का एक बड़ा वर्ग निरक्षर है, और इसके चलते एक ऐसी स्थिति भी उत्पन्न होती है, जहाँ असंगत वकील, जनता का शोषण कर सकते हैं, जबकि कानून परंपरागत रूप से सार्वजनिक सेवा के लक्ष्य के साथ जुड़ा हुआ पेशा है, इसलिए वकीलों पर लगाये गए विज्ञापन सम्बन्धी प्रतिबन्ध की वकालत करने वाले लोग भी कम नहीं हैं। 

घरेलू हिंसा के प्रमुख फैसले -2006-2019

 घरेलू हिंसा कानून पर सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख फैसले [2006-2019] 


28 Nov 2019 7:22 PM 

 महिलाओं की सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005, 26 अक्टूबर 2006 को लागू किया गया था। अधिनियम का उद्देश्य "परिवार के भीतर किसी भी तरह की हिंसा की शिकार महिलाओं को संविधान के तहत प्रत्याभूत अधिकारों को अधिक प्रभावी संरक्षण प्रदान करना" है। अशोक कीनी महिलाओं की सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005, 26 अक्टूबर 2006 को लागू किया गया था। अधिनियम का उद्देश्य "परिवार के भीतर किसी भी तरह की हिंसा की शिकार महिलाओं को संविधान के तहत प्रत्याभूत अधिकारों को अधिक प्रभावी संरक्षण प्रदान करना" है। सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून के क्रियान्वयन में कुछ महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किए हैं और व्याख्याएं दी हैं। इस आलेख में इस अधिनियम के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के लगभग सभी फैसलों को शामिल किया गया है। साझा घरेलू और वैकल्पिक आवास [एसआर बत्रा बनाम तरुणा बत्रा (2006)] घरेलू हिंसा अधिनियम के लागू होने के लगभग दो महीने बाद, सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में अधिनियम के कुछ प्रावधानों की व्याख्या की थी। इस मामले में, अदालत ने पत्नी की ओर से से दिए निवेदन का निस्तारण किया था कि साझा घर की परिभाषा में एक ऐसा घर शामिल है, जहां पीड़ित व्यक्ति रहता हो अथवा जीवन की किसी अवस्था में घरेलू रिश्तों में रह चुका हो। अदालत ने धारा 17 (1), धारा 2 (एस) का हवाला देते हुए कहा कि पत्नी केवल साझा घर में निवास के अधिकार का दावा करने की हकदार है और एक `साझा घर 'का मतलब केवल उस घर से है या लिया जाता है जो पति द्वारा किराए पर लिया गया हो या उसी का हो, या वह घर जो संयुक्त परिवार से संबंधित हों, जिसमें पति भी एक सदस्य हो। इसके अलावा, धारा 19 (1) (एफ) की व्याख्या करते हुए, जस्टिस एसबी सिन्हा और जस्‍टिस मार्कंडेय काटजू की बेंच ने कहा कि वैकल्पिक आवास के लिए केवल पति के खिलाफ ही दावा सकता है, न कि पति के ससुराल वालों या अन्य रिश्तेदारों के खिलाफ। इस मामले के तथ्यों में माना गया है कि पत्नी अपनी सास की संप‌त्त‌ि में आवास के अधिकार का दावा नहीं कर सकती है। ' जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें 'विवाह की प्रकृति के संबंध' की आवश्यकताएं [डीवेलुसामी बनाम डी पच्चीमाला (2010)] इस मामले में अदालत ने कहा कि अधिनियम की धारा 2 (एफ) में 'घरेलू संबंध' की परिभाषा में न केवल विवाह के संबंध, बल्कि 'विवाह की प्रकृति' के संबंध भी शामिल हैं। 'विवाह की प्रकृति के संबंध' को घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत परिभाषित नहीं किया गया है, बेंच ने इसका अर्थ समझाया है। जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस टीएस ठाकुर की पीठ ने कहा कि सभी लिव-इन रिश्‍ते 'विवाह की प्रकृति के संबंध' नहीं होंगे, उन्हें नीचे दी गई आवश्यकताओं (सामान्य कानून विवाह की आवश्यकताओं) को पूरा करना होगा और इसके अलावा दोनों पक्षों को एक साथ 'साझा घर' में रहना चाहिए। -जोड़े को खुद को समाज में जीवनसाथी के रूप में पेश करना चा‌हिए। -उन्हें शादी करने की कानूनी उम्र का होना चाहिए -उन्हें अविवाहित होने सहित अन्य प्रकार से कानूनी विवाह में प्रवेश करने योग्य होना चाहिए। -उन्होंने स्वेच्छा से सहवास किया और पर्याप्त अवधि के लिए जीवनसाथी के रूप में खुद को दुनिया के समक्ष पेश किया हो। आगे कहा गया था कि केवल वीकेंड एक साथ बिताना या वन नाइट स्टैंट 'घरेलू संबंध' की श्रेणी में नहीं आ पाएगा। अगर किसी व्यक्ति के पास एक 'रखैल' होती है, जिसे वह वित्तीय रूप से भरण-पोषण देता है और मुख्य रूप से यौन उद्देश्य के लिए प्रयोग करना है और/या एक नौकर के रूप में उपयोग करता है, तो ये संबंध शादी की प्रकृति में संबंध नहीं गिने जाएंगे।' जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें पति की महिला रिश्तेदारों के खिलाफ शिकायत दर्ज की जा सकती है [संध्या मनोज वानखड़े बनाम मनोज भीमराव वानखड़े (2011)] अधिनियम की धारा 2 (q) में वाक्यांश "प्रतिवादी" की व्याख्या करते हुए अदालत ने कहा कि पति या पुरुष साथी की महिला रिश्तेदारों को शिकायत के दायरे से बाहर नहीं रखा गया है। यह माना गया था कि विवाह की प्रकृति के रिश्ते में रहने वाली एक पीड़ित पत्नी या महिला, पति या पुरुष साथी के किसी रिश्तेदार के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकती है। जस्टिस अल्तमस कबीर और स‌ीरियाक जोसेफ की पीठ ने कहा था: "उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट है कि यद्यपि धारा 2 (q) प्रतिवादी को किसी भी वयस्क पुरुष के रूप में परिभाषित करती है, जो कि पीड़ित व्यक्ति के साथ घरेलू संबंध में है या रह चुका है, ये शर्त पति या पुरुष साथी के रिश्तेदार को श‌िकायत के दायरे में शामिल कर, जो विवाह की प्रकृति के रिश्ते में रहने वाली पीड़‌ित पत्नी या महिला ने दर्ज कराई है, उक्त परिभाषा के दायरे को बड़ा करती है। "यह सच है कि शब्द " महिला " धारा 2 (q) की शर्त में इस्तेमाल भी नहीं किया गया है, लेकिन दूसरी ओर, यदि विधानमंडल का इरादा महिलाओं को शिकायत के दायरे से बाहर करने का है, जो एक पीड़ित पत्नी द्वारा दायर किया जा सकता है, तो महिलाओं को विशेष रूप से बाहर रखा जाएगा, इसके बजाय शर्त में यह दिया जा रहा है कि पति या पुरुष साथी के किसी रिश्तेदार के खिलाफ भी शिकायत दर्ज की जा सकती है। "रिश्तेदार" शब्द के लिए कोई प्रतिबंधात्मक अर्थ नहीं दिया गया है, न ही उक्त शब्द को घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 में केवल पुरुषों तक सीमित करने के लिए परिभाषित किया गया है...ऐसी परिस्थितियों में, यह स्पष्ट है कि घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के प्रावधानों के तहत की जा सकने वाली शिकायत के दायरे से पति या पुरुष साथी की महिला रिश्तेदारों को बाहर करने का विधायिका का इरादा कभी नहीं था।" जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें घरेलू हिंसा अधिनियम लागू होने से पहले पार्टियों का संचालन [वीडी भनोट बनाम सविता भनोट (2012)] इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा कि घरेलू हिंसा अधिनियम के लागू होने से पहले से भी पक्षों के आचरण को धारा 18, 19 और 20 के तहत आदेश पारित करते समय ध्यान में रखा जा सकता है। यहां तक कि अगर एक पत्नी, जो अतीत में एक ही घर में रह चुकी है, अब साथ नहीं रहती, जब अधिनियम लागू हुआ, तब वह अधिनियम के संरक्षण की हकदार होगी। मामले में फैसला देने वाली बेंच में जस्टिस अल्तमस कबीर और जस्टिस जे चेलमेश्वर शामिल थे। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें कैसे जानें कि लिव इन रिलेशनशिप विवाह की प्रकृति का है [इंद्र सरमा बनाम वीकेवी सरमा (2013)] क्या "लिव-इन रिलेशनशिप" डीवी अधिनियम की धारा 2 (एफ) के तहत "घरेलू संबंध" की परिभाषा के तहत "विवाह की प्रकृति के संबंध" जैसा होगा और ऐसे संबंध में शामिल महिला के रखरखाव में विफल रहने पर संबध विच्छेद हाने को डीवी अधिनियम की धारा 3 के अर्थ में "घरेलू हिंसा" की श्रेणी में रखा जाएगा? सुप्रीम कोर्ट ने उक्त मामले में इसी मुद्दे पर विचार किया था। जस्टिस केएस राधाकृष्णन और ज‌स्ट‌िस प‌िनाकी चन्द्र घोष की बेंच ने इस मसले पर विस्तृत चर्चा के बाद, किन परिस्थितियों में लिव-इन रिलेशनशिप "विवाह की प्रकृति में संबंध" के अंतर्गत आएगा, के परीक्षण के लिए दिशानिर्देश तय किए। -संबंध की अवधि- डीवी अधिनियम की धारा 2 (एफ) ने "किसी भी समय" वाक्यांश का उपयोग किया है, जिसका अर्थ है एक संबंध को बनाए रखने और जारी रखने के लिए समय की उचित अवधि जो अलग-अलग मामले में भिन्न हो सकती है, जो हालात पर निर्भर है -साझा घर- इसे डीवी एक्ट की धारा 2 (एस) के तहत परिभाषित किया गया है और इसलिए, आगे विस्तार की आवश्यकता नहीं है। -संसाधनों और वित्तीय व्यवस्थाओं की पूलिंग- एक दूसरे का सहयोग करना, या उनमें से किसी एक का, वित्तीय रूप से, बैंक खातों को साझा करना, दोनों के नाम या महिला के नाम पर अचल संपत्तियों को अर्जित करना, व्यापार में दीर्घकालिक निवेश, अलग और संयुक्त नामों में शेयर ताकि लंबे समय तक संबंध बना रहे, ये सभी कारक हो सकते हैं। -घरेलू व्यवस्था- जिम्मेदारी सौंपना, विशेष रूप से लिए महिला को घर चालाने की, घर की सफाई, खाना बनाना, घर की देखरेख या रख-रखाव जैसी गतिविधियां करना आदि, विवाह की प्रकृति के संबंध का संकेत हैं। -यौन संबंध- विवाह जैसे संबंध यौन संबंध को संद‌र्भित करते हैं, नकि केवल आनंद के लिए, बल्‍कि भावनात्मक और अंतरंग संबंध के लिए, बच्चों के जन्म के लिए, ताकि भावनात्मक सहयोग, सहवास, भौतिक स्नेह, देखभाल आदि हो सके। -बच्चे- बच्चे पैदा करना शादी की प्रकृति के रिश्ते का एक मजबूत संकेत है। इसलिए, पक्ष ‌दीर्घजीवी संबंध बनाने का इरादा रखते हैं। बच्‍चों के पालनपोषण के लिए की जिम्‍मेदारी साझा करना और उनका सहयोग करना भी एक मजबूत संकेत है। सार्वजनिक स्तर पर सामाजीकरण- सार्वजनिक स्तर पति-पत्नी के रूप में पेश आना, दोस्तों, संबंध‌ियों और अन्य लोगों के साथ ऐसे उठना-बैठना, जैसे कि वे पति-पत्नी हैं, ऐसे विवाह की प्रकृति के संबंध रखना एक मजबूत परि‌‌स्थिति है। पक्षों का इरादा और आचरण- पार्टियों का सामान्य इरादा कि उनका रिश्ता क्या है और इसमें शामिल होना है, और उनकी संबंधित भूमिकाएं और जिम्मेदारियों के रूप, मुख्य रूप से उस रिश्ते की प्रकृति को निर्धारित करते हैं। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें शिकायत में सभी को प्रतिवादी बनाने की पदावनत प्रवृत्ति [आशीष दीक्षित बनाम यूपी राज्य (2013)] इस मामले में, पीड़ित पत्नी ने अपने पति और उसके सास-ससुर सहित पर‌िवार के सभी सदस्यों को डीवी एक्ट के तहत दायर शिकायत में प्रतिवादी बनाया था। जस्टिस एचएल दत्तू और चंद्रमौली कुमार प्रसाद ने पति और माता-पिता को छोड़कर सभी प्रतिवादियों के खिलाफ शिकायत को खारिज कर दिया। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें कोर्ट को डीवी एक्ट के तहत पार‌ित रखरखाव आदेश में हस्तक्षेप करने वाले अंतरिम आदेशों को पारित करने में धीमा होना चाहिए [शालू ओझा बनाम प्रशांत ओझा (2014)] इस मामले में, मजिस्ट्रेट ने पति को प्रति माह दो लाख के रुपए रखरखाव का भुगतान करने का आदेश दिया। पति ने सत्र न्यायालय के समक्ष आदेश का प्रतिवाद किया, जिसने अंततः अपील को खारिज कर दिया क्योंकि उसने सशर्त आदेश का पालन नहीं किया था। मामले में रखरखाव देने के आदेश में उच्च न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप किया गया, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उस पर प्रतिवाद किया गया। ज‌‌स्टिस चेलमेश्वर और ज‌‌स्टिस एके सीकरी की सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए बने कानून के तहत उत्पन्न मामले में, उच्च न्यायालय को ऐसे आदेश, जिसके द्वारा अपीलकर्ता को रखरखाव प्रदान किया जाता है, में हस्तक्षेप करने के लिए, अंतरिम आदेश देने में धीमी गति से दखल देना चाहिए, जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें न्यायिक विच्छेद के बाद भी पत्नी ' पीड़ित व्यक्ति' हो सकती है [कृष्णा भट्टाचार्जी बनाम सारथी चौधरी (2015)] यह कहा गया कि केवल इसलिए कि न्यायिक विच्छेद का आदेश पारित किया चुका है, पत्नी का घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत 'पीड़ित व्यक्ति' का दर्जा खत्म नहीं हो जाता है। जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस प्रफुल्ल सी पंत की पीठ ने कहा कि एक बार तलाक का आदेश पारित हो जाने के बाद, पार्टियों की स्थिति अलग हो जाती है, लेकिन न्यायिक विच्छेद के आदेश में ऐसा नहीं है। अदालत कहा कि निचली अदालत में के आदेश में कहा गया है‌ कि चूंकि दोंनों पक्षों को न्यायिक विच्छेद हो चुका है, इसलिए पत्नी को "पीड़ित व्यक्ति" का दर्जा नहीं दिया जा सकता,, स्वीकार किए जा ने योग्य नहीं है। जजमेंट को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें न्यायालय घरेलू हिंसा की शिकायतों के संशोधन की अनुमति देने में असमर्थ नहीं है [कुनापारेड्डी @ नुक्कला शंका बालाजी बनाम कुनपारेड्डी स्वर्ण कुमारी (2016)] इस मामले में, न्यायालय ने माना कि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के तहत दायर शिकायतों या याचिकाओं के संशोधन की अनुमति दी जा सकती है। यदि शिकायत/आवेदन आदि को संशोधित करने की शक्ति पूर्वोक्त प्रावधान में नहीं पढ़ी जाती है, तो वो उद्देश्य अधिनियम स्वयं जिसकी सेवा का प्रयास करता है, वो कई मामलों में पराजित हो सकता है। जस्टिस एके सीकरी और जस्टिस आरके अग्रवाल की बेंच ने ये फैसला दिया। जजमेंट को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें असफल तलाक की कार्यवाही डीवी एक्ट के तहत दायर आवेदन की रखरखाव को प्रतिकूल तरीके से प्रभावित नहीं कर सकती है [राकेश नागरदास दुबल शाहा बनाम मीना प्रकाश दुबल शाहा (2016)] सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में कहा कि, असफल तलाक की कार्यवाही, अधिनियम के तहत प्रतियोगी प्रतिवादियों द्वारा दायर आवेदन की स्थिरता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित नहीं कर सकती है। सत्र न्यायालय ने मामले में इस आधार पर आवेदन को बरकरार नहीं रखा था कि चूंकि पति पत्नी ने पहले से ही तलाक की कार्यवाही शुरू की थी, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम बाद में लागू हुआ। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति शिवा कीर्ति सिंह की पीठ ने उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा, जिसने सत्र न्यायालय के आदेश को अलग रखा था। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें डीवी एक्ट के तहत नाबालिगों, महिलाओं के लिए राहत नहीं मांगी जा सकती है [हीरालाल पी हरसोरा बनाम कुसुम नरोत्तमदास हरसोरा (2016)] सुप्रीम कोर्ट ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 2 (क्यू) में "व्यक्ति" शब्द से पहले "वयस्क पुरुष" शब्द को समाप्त कर दिय, जिसमें कहा गया था कि ये शब्द समान रूप से स्थित व्यक्तियों के बीच भेदभाव करते हैं, और अधिनियम द्वारा अपेक्षित उद्देश्यों के विपरीत हैं। जस्टिस कुरियन जोसेफ और जस्टिस आरएफ नरीमन की बेंच ने कहा कि अगर "प्रतिवादी" को केवल एक वयस्क पुरुष व्यक्ति के रूप में पढ़ा जाना है तो यह स्पष्ट है कि जो महिलाएं पीड़ित व्यक्ति को अलग करती हैं या घर से बाहर निकालती हैं, वे इसके दायरे में नहीं आती हैं, और यदि है तो अधिनियम के उद्देश्‍य को एक वयस्क पुरुष व्यक्ति द्वारा खुद सामने ने आकर किसी महिला को समाने करके प‌ीड़‌ित व्यक्ति को घर से बाहर किया जा सकता है या अलग किया जा सकता है और इस प्रकार अधिनियम के उद्देश्यों का आसानी से हराया जा सकता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि यह भी संभव है कि एक गैर-वयस्क 16 या 17 वर्ष की आयु का सदस्य, घरेलू हिंसा के कृत्यों सहायता या पालन कर सकता है या जो पीड़ित को साझा घर से बाहर निकालने या बेदखल करने मदद कर सकता है या कर सकता है। जजमेंट को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें एक पक्ष को 'साझे घर' का कब्जा देने के लिए 'घरेलू आवश्यक है [मनमोहन अटावर बनाम नीलम मनमोहन अटावर (2017)] इस मामले में, यह देखा गया कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत एक पार्टी को एक घर पर कब्जा करने की अनुमति देने के ‌लिए एक आदेश जारी करने के लिए, यह आवश्यक है कि दोनों पक्षों में घरेलू संबंध में रहते हों। जस्टिस आरएफ नरीमन और जस्टिस संजय किशन कौल की खंडपीठ ने कहा कि डीवी एक्ट की धारा 2 (एफ) के तहत परिभाषित "घरेलू संबंध" दो व्यक्तियों को संदर्भित करता है जो एक "साझा घर" में एक साथ रहते हैं, जो डीवी एक्ट की धारा 2S के तहत परिभाषित है। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें लाइव-इन पार्टनर घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों के तहत रखरखाव की मांग कर सकते हैं [ललिता टोप्पो बनाम झारखंड राज्य (2018)] इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक लिव-इन पार्टनर घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 से महिलाओं की सुरक्षा के प्रावधानों के तहत रखरखाव की मांग कर सकता है। तीन न्यायाधीशों की पीठ ने एक दो न्यायाधीश की पीठ के संदर्भ पर विचार करते हुए, जिसमें सीआरपीसी की धारा पर 125 के दायरे और लिव इन रिश्तों पर बात की गई थी। दो न्यायाधीशों की पीठ ने झारखंड उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ एक अपील पर विचार करते हुए इस मामले को रिफर किया था, उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 उस महिला को रखरखाव का अनुदान प्रदान नहीं करता है, जिसने कानूनी रूप से उस व्यक्ति के साथ शादी नहीं की, ‌जिससे रखरखाव की मांग की गई है। घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों का उल्लेख करते हुए, पीठ ने कहा कि अधिनियम याचिकाकर्ता द्वारा इस मामले में रखरखाव की मांग करने के लिए एक प्रभावशाली उपाय होगा, तब भी जबकि कि वह कानूनी रूप से पत्नी नहीं है और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत रखरखाव की हकदार नहीं हैं। यह भी कहा गया कि अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार आर्थिक दुरुपयोग भी घरेलू हिंसा में शामिल है। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें देवर को डीवी एक्ट के तहत विधवा को रखरखाव का भुगतान करने का आदेश [अजय कुमार बनाम लता@ शारुती (2019)] इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने DV एक्‍ट के तहत पारित एक आदेश को, जिसमें एक विधवा को रखरखाव का भुगतान करने के लिए एक देवर को निर्देश दिया गया था, बरकरार रखा। महिला और उसका मृतक पति एक ऐसे घर में रहते थे, जो पैतृक हिंदू संयुक्त परिवार की संपत्ति की श्रेणी में आता था। मृतक पति और भाई संयुक्त रूप से एक किरयाना दुकान का व्यवसाय करते थे। महिला ने घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत एक शिकायत दर्ज की, जिसमें आरोप लगाया गया कि पति की मृत्यु के बाद उसे और उसके बच्चे को अपने वैवाहिक घर में नहीं रहने दिया गया। ट्रायल कोर्ट ने एक अंतरिम आदेश पारित किया जिसमें महिला को 4,000 रुपए और बच्चे को 2,000 रुपए मासिक की सहायता प्रदान की गई। देवर को उक्त राशि का भुगतान करने के लिए निर्देशित किया गया था। देवर की इस दलील को खारिज कर दिया गया कि उसके खिलाफ भरण-पोषण का आदेश पारित करने का कोई प्रावधान नहीं है। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस हेमंत गुप्ता की खंडपीठ ने कहा कि धारा 2 (क्यू) का मूल भाग यह दर्शाता है कि ''प्रतिवादी" का अर्थ किसी भी वयस्क पुरुष व्यक्ति से है, जो पीड़ित व्यक्ति के साथ घरेलू संबंध में है या रहा है और जिसके खिलाफ मदद मांगी गई है।"