Friday, February 7, 2020

पुनर्विचार याचिका में पारित किसी आदेश की समीक्षा नहीं की जा सकती -सुप्रीम कोर्ट

 पुनर्विचार याचिका में पारित किसी आदेश की समीक्षा नहीं हो सकती : सुप्रीम कोर्ट 

7 Feb 2020 9:31


          पुनर्विचार याचिका में पारित किसी आदेश की समीक्षा नहीं हो सकती है, सुप्रीम कोर्ट ने एनजीओ लोक प्रहरी द्वारा पुनर्विचार याचिका में पारित आदेश को वापस लेने के लिए दायर एक आवेदन को खारिज करते हुए ये टिप्पणी की। 
         दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2018 में एनजीओ लोक प्रहरी द्वारा एक जनहित याचिका को खारिज कर दिया था जिसमें मांग की गई थी कि चूंकि कानून दोषसिद्धि पर रोक प्रदान नहीं करता है, यहां तक ​​कि इस मामले में अपीलीय अदालत द्वारा एक अपराध के लिए इस पर रोक लगाई गई हो तो भी जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 के तहत अयोग्यता पर ऐसे किसी भी स्थगन आदेश का प्रभाव नहीं होता है। अदालत ने दोहराया था कि एक बार सांसद या विधायक की दोषसिद्धि को अपीलीय अदालत ने सीआरपीसी की धारा 389 के तहत रोक दिया है तो जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 की उपधारा 1, 2 और 3 के तहत अयोग्यता संचालित नहीं होगी। इसके बाद, एनजीओ ने पुनर्विचार याचिका दायर की जिस पर चेंबर में विचार किया गया और खारिज कर दिया गया। बाद में एनजीओ द्वारा आदेश को वापस लेने का आवेदन दायर किया गया जिसे रजिस्ट्रार ने पंजीकृत करने से मना कर दिया। जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस दिनेश माहेश्वरी की पीठ के समक्ष यह मामला रखा गया था। यह तर्क दिया गया था कि रजिस्ट्रार के पास सर्वोच्च न्यायालय के नियमों, 2013 में उल्लिखित तीन आधारों को छोड़कर, आदेश वापस लेने के आवेदन के पंजीकरण से इनकार करने की कोई शक्ति नहीं है। इस संबंध में, पीठ ने देखा: उक्त आवेदन में दावा की गई राहत, हमारी राय में, अस्थिर है।                    पुनर्विचार याचिका में पारित आदेश की कोई समीक्षा नहीं हो सकती है। ये तथ्य कि पुनर्विचार याचिका में आदेश पारित किए जाने से पहले आवेदक-याचिकाकर्ता को नहीं सुना गया था, ' आदेश वापस के लिए आवेदन' दायर करने का आधार नहीं हो सकता है। इसके लिए, इस न्यायालय के व्यवहार और नियमों के अनुसार चेंबर में विचार करने की परंपरा के आधार पर पुनर्विचार याचिका का निर्णय लिया गया है। इस प्रकार, पीठ ने आवेदन को खारिज कर दिया। 
    लोक प्रहरी बनाम भारत निर्वाचन आयोग लोक प्रहरी द्वारा दायर जनहित याचिका में पारित फैसले में, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एएम खानविलकर की पीठ ने इस प्रकार कहा था: ".... यह अच्छी तरह से तय किया गया है कि अपीलीय अदालत के पास शक्ति है कि वो एक उपयुक्त मामले में, सजा को निलंबित करने के अलावा धारा 389 के तहत दोषसिद्धि पर भी रोक लगा सकता है लेकिन ये शक्ति एक अपवाद के रूप में है।इसका प्रयोग करने से पहले अपीलीय अदालत को इसके परिणाम के बारे में पता होना चाहिए कि अगर दोषसिद्धि पर रोक नहीं लगाई जाती तो यह सुनिश्चित हो कि इसके परिणाम अलग होंगे। एक बार अपील अदालत द्वारा दोषसिद्धि पर रोक लगाने के बाद, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 की उपधारा 1, 2 और 3 के तहत अयोग्यता संचालित नहीं होगी। अनुच्छेद 102 (1) (ई) और अनुच्छेद 191 (1) (ई) के तहत अयोग्यता संसद द्वारा या उसके तहत बनाए गए किसी भी नियम के तहत संचालित होती है। धारा 8 के उपर्युक्त प्रावधानों के तहत अयोग्यता सूचीबद्ध अपराधों में से किसी एक पर हो सकती है। 
        एक बार दोषसिद्धि पर अपील के लंबित रहने के दौरान रोक लगा दी गई तो अयोग्यता जो सजा के परिणाम के रूप में संचालित होती है, प्रभाव में नहीं ले सकती या बनी नहीं रह सकती है।" यह भी स्पष्ट किया था कि ये प्रस्तुत करने में कोई योग्यता नहीं है कि धारा 389 के तहत अपीलीय अदालत द्वारा प्रदत्त शक्ति में, एक उपयुक्त मामले में, दोषसिद्धि पर रोक लगाने की कोई शक्ति शामिल नहीं है- यह इस प्रकार कहा गया था: "स्पष्ट रूप से, अपीलीय अदालत इस तरह की शक्ति होती है। राम नारंग मामले में कानूनी स्थिति और उसके बाद के फैसलों के तहत ये प्रस्तुत करने में कोई योग्यता नहीं है कि धारा 389 के तहत अपीलीय अदालत में दी गई शक्ति में एक उचित मामले में दोषसिद्धि पर रोक लगाने की शक्ति शामिल नहीं है। 
        स्पष्ट रूप से, अपीलीय अदालत के पास ऐसी शक्ति होती है। इसके अलावा, निश्चित रूप से ऐसा नहीं है कि कि अपीलीय अदालत द्वारा दोषसिद्धि पर रोक लगाने के बावजूद अयोग्यता बनी रहेगी। 
       अपीलीय अदालत में ये प्राधिकृत शक्ति ये सुनिश्चित करने के लिए है कि अस्थिर या तुच्छ आधार पर एक सजा गंभीर पूर्वाग्रह पैदा करने के लिए काम ना करे। जैसा कि लिली थॉमस के फैसले में स्पष्ट किया गया है कि दोषसिद्धि पर रोक के कारण धारा 8 1, 2 और 3 के उपबंधों से संबंधित अयोग्यता के परिणाम भुगतने से व्यक्ति को राहत मिलेगी।" 

सर्विस रिकार्ड में जन्मतिथि बदलने का अनुरोध नौकरी के अन्तिम समय में नहीं माना जा सकता -सुप्रीम कोर्ट

सर्विस रिकॉर्ड में जन्मतिथि बदलने का कर्मचारी का अनुरोध नौकरी के अंतिम समय में नहीं माना जा सकता : सुप्रीम कोर्ट 

      सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर कहा है कि किसी कर्मचारी के सर्विस रजिस्टर में जो जन्मतिथि दर्ज हो जाती है उसमें नौकरी के अंतिम समय में बदलाव की मांग नहीं मानी जा सकती। न्यायमूर्ति आर भानुमति और न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना की पीठ ने कहा कि भले ही यह साबित करने के लिए अच्छे सबूत हों कि रिकॉर्ड में दर्ज जन्मतिथि गलत है तो भी सुधार का दावा अधिकार के तौर पर नहीं किया जा सकता। इस मामले में, कर्मचारी ने नौकरी शुरू करने की तारीख से 30 साल से अधिक समय के बाद, अपने सेवा रिकॉर्ड में जन्मतिथि सही करने का अनुरोध किया था। उच्च न्यायालय ने कर्मचारी को राहत दी थी और इसलिए, नियोक्ता कंपनी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। अपने दावे के समर्थन में कर्मचारी ने 'भारत कोकिंग कोल लिमिटेड एवं अन्य बनाम छोटा बिरसा उरांव (2014) 12 एससीसी 570' मामले में दिये गये फैसले का हवाला दिया था। उक्त निर्णय को स्पष्ट करते हुए बेंच ने कहा : उस मामले में इस बात का संज्ञान लिया गया था कि 1987 में कर्मचारियों के सर्विस रिकॉर्ड दुरुस्त करने के लिए नेशनल कोल वेज एग्रीमेंट (iii) के पेज 13 पर अमल शुरू किया गया था और इसके लिए सभी कर्मचारियों को उनके मौजूदा सेवा रिकॉर्ड से युक्त नॉमिनेशन फॉर्म देकर रिकॉर्ड में जारी अनियमितताओं की पहचान करने और उन्हें सुधारने का मौका दिया गया था। उद्धृत मामले में प्रतिवादी (कर्मचारी) को अपनी जन्मतिथि, नियुक्ति की तारीख, पिता के नाम और स्थायी पता में विसंगतियां नजर आयी थी और उसने भी विसंगतियों को दूर करने के लिए उपलब्ध कराये गये मौके का लाभ उठाया था। कर्मचारी ने गड़बड़ियों को सुधारने की मांग की थी और उसके अनुरूप उसकी अन्य विसंगतियां तो दूर कर दी गयी थी, लेकिन उसकी जन्मतिथि और नियुक्ति की तारीख की विसंगतियां दूर नहीं हो पायी थी और इसके मद्देनजर कर्मचारी ने इस बारे में वाद दायर किया था और राहत की मांग की थी। जिसके बाद उसे राहत प्रदान की गयी थी। हाईकोर्ट के फैसले को दरकिनार करते हुए बेंच ने 'महाराष्ट्र सरकार एवं अन्य बनाम गोरखनाथ सीताराम काम्बले एवं अन्य (2010) 14 एससीसी 423' का उल्लेख किया और कहा कि नौकरी के अंतिम समय में सर्विस रिकॉर्ड में जन्मतिथि में बदलाव का अनुरोध स्वीकार करने योग्य नहीं है। केस नाम : भारत कोकिंग कोल लिमिटेड बनाम श्याम किशोर सिंह केस नं. : सिविल अपील संख्या 1009/2020 कोरम : न्यायमूर्ति आर भानुमति और न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना वकील : एएसजी के. एम. नटराज (अपीलकर्ता के लिए), एडवोकेट एम शोएब आलम (प्रतिवादियों के लिए)