Thursday, May 7, 2020

सुप्रीम कोर्ट ने धारा 138 के तहत सीमा अवधि 15मार्च से अगले आदेशों तक बढाया

6 May 2020 4:38 PM 

           सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 और मध्यस्थता और सुलह अधिनियम के तहत वैधानिक प्रावधानों के लिए सीमा अवधि को 15 मार्च से अगले आदेशों तक बढ़ा दिया। 
           इस तथ्य पर ध्यान देते हुए कि सुप्रीम कोर्ट ने COVID-19 स्थिति के मद्देनजर न्यायालयों / न्यायाधिकरणों में याचिका दाखिल की सीमा अवधि बढ़ाने के लिए 23 मार्च को एक आदेश पारित किया था। पीठ ने आदेश दिया: "इसके द्वारा यह आदेश दिया जाता है कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 और निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 की धारा 138 के तहत निर्धारित सभी सीमा अवधियों को 15.03.2020 से प्रभावी किया जाएगा, जब तक कि इस न्यायालय द्वारा वर्तमान कार्यवाही में पारित किए जाने वाले अन्य आदेश नहीं हो जाते।
         " मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे, जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस हृषिकेश रॉय की बेंच ने जोड़ा कि "यदि सीमा अवधि 15.03.2020 के बाद समाप्त हो गई है, तो 15.03.2020 से उस तिथि तक की अवधि जिस पर लॉकडाउन को अधिकार क्षेत्र में उठाया गया है जहां विवाद निहित है या जहां कार्रवाई का कारण उत्पन्न होता है, उसे लॉकडाउन उठाने के 15 दिनों की अवधि के लिए बढ़ाया जाएगा।
         " आदेश एक आवेदन में पारित किया गया जिसमें मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 29 ए और निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत सीमा अवधि का विस्तार करने की मांग की गई है। 
           वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे (नियुक्त एमिकस क्यूरी) ने प्रस्तुत किया कि 23 मार्च के आदेश को सभी "वैधानिक कार्यवाही" तक बढ़ाया जाना चाहिए। वरिष्ठ वकील मीनाक्षी अरोड़ा ने उस अर्जी का उल्लेख किया, जिसमें मध्यस्थता अधिनियम की धारा 29 ए के तहत वैधानिक आवश्यकताओं के संदर्भ में सीमा अवधि का विस्तार करने के उद्देश्य से दाखिल किया गया, अर्थात् वैधानिक अवधि जिसके भीतर एक मध्यस्थ अवार्ड पारित किया जाना है। 
           आवेदक- वकील साहिल मोंगिया के लिए वकील मयंक क्षीरसागर उपस्थित हुए और नेगोशिएबल एक्ट की धारा 138 (बी) के संदर्भ में लीगल / डिमांड नोटिस की सेवा के लिए 30 दिनों की सीमा अवधि बढ़ाने की मांग की। 
            मध्यस्थता अधिनियम के तहत निर्धारित सीमा अवधि और निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 का विस्तार करते हुए, पीठ ने अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल को निर्देश दिया कि वे कानून के दायरे से संबंधित उन सभी आवेदनों पर प्रतिक्रिया दर्ज करें, जिनमें समय सीमा का विस्तार निर्धारित करना आवश्यक है। 
         इससे पहले, 23 मार्च को, जब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पहली बार लॉकडाउन की घोषणा की गई थी, मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाली पीठ ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत विशेष शक्तियों को लागू करते हुए, सीमा अवधि को 15 मार्च से प्रभावी करने का एक सामान्य आदेश पारित किया था।.  
          23 मार्च के आदेश को COVID-19 महामारी के दौरान देश भर की अदालतों और न्यायाधिकरणों में शारीरिक रुप से पेश होने को कम करने के उद्देश्य से पारित किया गया था। 
          सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था, "इस तरह की कठिनाइयों को कम करने के लिए और यह सुनिश्चित करने के लिए कि इस न्यायालय सहित देश भर के संबंधित न्यायालयों / न्यायाधिकरणों में ऐसी कार्यवाही दायर करने के लिए वकीलों / वादियों को शारीरिक रूप से नहीं आना पड़े।.    
            इसके लिए यह आदेश दिया जाता है कि ऐसी सभी कार्यवाही में सीमा अवधि की परवाह किए बिना चाहे सामान्य कानून या विशेष कानूनों के तहत निर्धारित सीमा अवधि, चाहे वह माफ करने लायक हो या न हो, 15 मार्च 20 20 से तब तक विस्तारित की जाती है जब तक कि इस न्यायालय द्वारा आगे के आदेश / वर्तमान कार्यवाही में ये पारित किया जाए। 
       " पीठ ने आगे कहा था कि अनुच्छेद 141 के अनुसार सभी अदालतों / न्यायाधिकरणों के लिए ये बाध्यकारी होगा, "हम भारत के संविधान के अनुच्छेद 141 के साथ पढ़े गए अनुच्छेद 142 के तहत इस शक्ति का प्रयोग कर रहे हैं और घोषणा करते हैं कि यह आदेश सभी न्यायालयों / न्यायाधिकरणों और प्राधिकरण पर अनुच्छेद 141 के अर्थ के भीतर एक बाध्यकारी आदेश है।" 

Monday, April 20, 2020

रेप पीढिता की गवाही, रासुका कानून

जानिए हमारा कानून/साक्ष्य अधिनियम: जानिए ... जानिए हमारा कानून साक्ष्य अधिनियम: जानिए रेप पीड़िता की गवाही पर अदालत द्वारा कब भरोसा किया जा सकता है? 

20 April 2020 1:27 PM

 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 का अध्याय 9, 'साक्षियों के विषय में' प्रावधान करता है। इसके अंतर्गत धारा 118 यह बताती है कि कौन व्यक्ति टेस्टिफाई करने/गवाही देने या साक्ष्य देने में सक्षम है, हालाँकि, इस धारा के अंतर्गत किसी ख़ास वर्ग के व्यक्तियों की सूची नहीं दी गयी है जिन्हें साक्ष्य देने में सक्षम कहा गया हो। गौरतलब है कि इस धारा के अंतर्गत, ऐसी कोई आयु या व्यक्तियों के वर्ग का उल्लेख नहीं किया गया है, जो गवाह के गावही/बयान/साक्ष्य देने की योग्यता के प्रश्न को निर्धारित करते हों। मसलन, यह धारा सिर्फ और सिर्फ यह कहती है कि वे सभी व्यक्ति अदालत के समक्ष, गवाही/बयान दे सकते हैं जो उनसे किए गए प्रश्नों (अदालत द्वारा) को समझने एवं उन प्रश्नों के युक्तिसंगत उत्तर देने में सक्षम हैं| दूसरे शब्दों में, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 118 हमें यह बताती है कि आखिर कौन व्यक्ति मौखिक साक्ष्य दे सकते हैं। इस धारा के तहत ऐसा कोई भी व्यक्ति गवाही दे सकता है, जब तक कोर्ट की राय यह हो कि वह व्यक्ति कोमल वयस (tender years), अतिवार्धक्य शरीर (extreme old age) के या रोग मानसिक या शरीरिक या इसी प्रकार के किसी अन्य कारण के चलते पूछे गए सवालों को समझने में अक्षम हैं या फिर वह उन सवालों का युक्तिसंगत उत्तर देने में सक्षम नहीं हैं| इसी धारा के अंतर्गत, बाल गवाह (Child Witness) पर अदालत द्वारा कब भरोसा किया जा सकता है इसे हम एक पिछले लेख में समझ चुके हैं। मौजूदा लेख में हम यह समझेंगे कि आखिर एक रेप पीड़िता की गवाही का साक्ष्य के अंतर्गत मूल्य या महत्व क्या होता है? हम यह भी जानेंगे कि आखिर रेप पीड़िता द्वारा धारा 118 के अंतर्गत दिये गए साक्ष्य पर अदालत द्वारा कब भरोसा किया जा सकता है? रेप पीड़िता नहीं है सह-अपराधी (Accomplice) उच्चतम न्यायालय द्वारा अपने तमाम निर्णयों द्वारा इस बात को रेखांकित किया गया है कि न्यायालय को एक रेप पीड़िता की भावनात्मक उथल-पुथल और मनोवैज्ञानिक चोट से अनजान नहीं होना चाहिए जो उसे छेड़छाड़ या बलात्कार होने पर झेलनी पड़ती है। वह रेप के पश्च्यात, अपने पति सहित समाज और अपने निकट संबंधियों द्वारा शर्मिंदा होने के डर और शर्म की भावना का लगातार सामना करती है। अक्सर ही ऐसा भी होता है कि ऐसी महिला के साथ, जो एक अपराध की पीड़िता है, दया और समझदारी के साथ व्यवहार करने के बजाय, समाज उसे पाप की भागी के रूप में मानता है, जोकि हैरान करने वाला है। इसलिए, न्यायालय द्वारा अपने तमाम निर्णयों में यह महसूस किया गया है कि एक महिला, जो यौन-हिंसा की शिकार हुई है, वह हमेशा अपनी दुर्दशा का खुलासा करने के बारे में झिझकती होगी। अदालत को, इसी पृष्ठभूमि में उसके साक्ष्य का मूल्यांकन करना चाहिए। उच्चतम न्यायालय द्वारा महाराष्ट्र बनाम चंद्रप्रकाश केवलचंद जैन AIR 1990 SC 658 के मामले में यह देखा गया था कि यौन अपराध की पीड़ित महिला को एक सह-अपराधी (Accomplice) की तरह नहीं देखा जा सकता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 118 के अनुसार, वह निश्चित रूप से एक सक्षम गवाह है, और उसके बयान को शारीरिक हिंसा के पीड़ित एक घायल गवाह के बराबर माना जाना चाहिए। उसके बयान को भी उसी सावधानी और एहतियात से देखा जाना चाहिए, जिस सावधानी और एहतियात से एक घायल गवाह के बयान को देखा जाता है, उसे इससे अधिक सावधानी की आवश्यकता नहीं है। क्या साक्ष्य की संपुष्टि (Corroboration) है आवश्यक? सुप्रीम कोर्ट ने रामेश्वर बनाम राजस्थान राज्य 1952 SCR 377 के मामले में यह कहा था कि संपुष्टि (corroboration), बलात्कार के मामलों में एक अपरिहार्य आवश्यकता नहीं है। हालाँकि, अदालतों द्वारा इस नियम को मान्यता दी जा चुकी है कि रेप के मामलों में सजा होने से पहले, विवेक की आवश्यकता के रूप में, संपुष्टि की आवश्यकता हो सकती है - हिमाचल प्रदेश बनाम आशा राम 2006 SCC (Cri) 296। हालांकि यह नियम उस मामले में लागू नहीं होगा, जहां न्यायाधीश के मुताबिक, परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि संपुष्टि की आवश्यकता न हो। कानूनी नियम यह है कि दोषसिद्धि पर निर्णय लेते समय जज को सावधानी आधारित इस नियम के प्रति सजग होना चाहिए, यह नियम नहीं है कि दोष-सिद्धि के लिए हर मामले में संपुष्टि की ही जाये। गौरतलब है कि, भरवाड़ा भोगिनभाई हीरजीभाई बनाम गुजरात राज्य (1983 (3) SCC 217) के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह साफ़ तौर पर कहा गया था कि भारतीय परिस्थितियों में सम्पुष्टि के बिना पीड़ित महिला की गवाही पर एक्शन लेने से मना करना, पीड़िता के जख्मों को और अपमानित करने जैसा है। अदालत ने इस मामले में कहा था कि एक महिला या लड़की जो यौन अपराध की शिकायत करती है उसे क्यों शक, अविश्वास और संशय की नज़रों से देखा जाये? ऐसा करना एक पितृसत्तात्मक व्यवस्था के दुराग्रहों को उचित ठहरना होगा। आगे, उच्चतम न्यायालय द्वारा महाराष्ट्र बनाम चंद्रप्रकाश केवलचंद जैन AIR 1990 SC 658 के मामले में भी यह देखा गया था साक्ष्य विधि यह कहीं भी नहीं कहती है कि एक रेप पीड़िता के बयान को बिना संपुष्टि (Corroboration) के स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार से, कर्नेल सिंह बनाम मध्य प्रदेश, AIR (1995) SC 2472 में, उच्चतम न्यायालय द्वारा यह देखा गया कि एक महिला जो यौन हिंसा की शिकार है, वह स्वयं अपराध करने वाली एक अपराधी नहीं है, बल्कि वह किसी अन्य व्यक्ति की हवस का शिकार है, और इसलिए, उसके साक्ष्य को उस मात्रा के संदेह के साथ नहीं जांचा जाना चाहिए, जितना संदेह एक अपराधी के साक्ष्य पर किया जाता है। इसलिए ज्यादा से ज्यादा, विवेक के एक नियम के रूप में, अदालत द्वारा रेप पीड़िता के बयान के अलावा कुछ अन्य सबूतों की तलाश की जा सकती है जो उसकी गवाही को भरोसेमंद बनाते हैं। इसके अलावा, श्री नारायण साहा एवं अन्य बनाम त्रिपुरा राज्य (2004) 7 SCC 775 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा था कि यह आवश्यक है कि न्यायालय को इस तथ्य के प्रति सचेत होना चाहिए कि वह उस व्यक्ति (रेप पीड़िता) के साक्ष्य से निपट रहा है जो अपने द्वारा लगाए गए आरोप के परिणाम में रुचि रखती है। यदि न्यायालय इस बात को ध्यान में रखता है और स्वयं को संतुष्ट महसूस करता है कि वह अभियोजन पक्ष के साक्ष्य पर कार्रवाई कर सकता है, तो कानून के तहत ऐसा कोई नियम या प्रथा शामिल नहीं है संपुष्टि की मांग करे। इसलिए यहाँ हमे इस बात को लेकर अपना संदेह कर लेना चाहिए कि एक रेप पीड़िता के साक्ष्य की संपुष्टि के बिना किसी आरोप की दोष-सिद्धि नहीं हो सकती। पीड़िता का साक्ष्य भरोसे लायक होना है आवश्यक सुप्रीम कोर्ट ने राजू बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2008 (15) SCC 133) में यह कहा था कि सामान्यत: पीड़ित महिला की गवाही को संदेहास्पद न मान कर, उस पर भरोसा किया जाना चाहिए। उसके बयान को एक पीड़ित गवाह के बराबर मानना चाहिए, अगर उसका बयान भरोसे के लायक है तो उसके बयान की सम्पुष्टि करवाना जरुरी नहीं है। परन्तु, यदि किसी कारण से न्यायालय, अभियोजन पक्ष की गवाही पर निर्भरता रखने से हिचकिचाता है तो वह ऐसे साक्ष्य की तलाश कर सकता है जो किसी सह-अपराधी (Accomplice) के मामले में आवश्यक गवाही जितना गंभीर तो नहीं, पर अदालत की संतुष्टि के लिए आवश्यक आश्वासन दे सके। अभियोजन पक्ष की गवाही के प्रति आश्वासन देने के लिए आवश्यक सबूतों की प्रकृति को प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर आधारित होना चाहिए। गौरतलब है कि तमाम मामलों में अदालत द्वारा यह अच्छी तरह से तय किया गया है कि यदि पीड़िता एक वयस्क महिला है और पूरी समझ रखती है, तो अदालत उसकी गवाही पर दोष सिद्ध करने की हकदार होती है, जब तक कि उसके साक्ष्य के सम्बन्ध में यह नहीं दिखाया जाता है कि वह भरोसेमंद नहीं है। यदि रिकॉर्ड पर मौजूद परिस्थितियों की समग्रता यह बताती है कि अभियोजन पक्ष के पास आरोपित व्यक्ति को गलत तरीके से फंसाने का मजबूत मकसद नहीं है, तो अदालत को सामान्य तौर पर उसके सबूतों को स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। गौरतलब है कि रंजीत हजारिका बनाम असम राज्य (1998) 8 SCC 635 और पंजाब राज्य बनाम वी. गुरमीत सिंह और अन्य (1996) 2 SCC 384 के मामले में भी यह माना है कि रेप पीड़िता के साक्ष्य पर विश्वास किया जाना चाहिए, क्योंकि कोई भी स्वाभिमानी महिला अदालत में सिर्फ अपने सम्मान के खिलाफ ऐसा बयान देने के लिए आगे नहीं आएगी कि उसके साथ बलात्कार का अपराध हुआ है। राय संदीप उर्फ दीपू बनाम राज्य (एनसीटी ऑफ़ डेल्ही) 2012 8 SCC 21 के मामले में भी यह आयोजित किया गया था कि वास्तविक (स्टर्लिंग) गवाह बहुत उच्च गुणवत्ता का होना चाहिए, जिसका बयान अखंडनीय होना चाहिए। ऐसे गवाह के बयान पर विचार करने वाली अदालत इस स्थिति में होनी चाहिए कि वह बिना किसी संदेह के इसके बयान स्वीकार कर ले। एफआईआर में देरी के परिणाम भारत में, यदि अभियोजन पक्ष एक विवाहिता है, तो वह अपने पति को सूचित करने से अक्सर हिचकिचाती है। यदि वह दूरदराज इलाके में रहती है और विवाहिता नहीं भी है तो भी वह अपने घरवालों को कुछ भी कहने से बचती है, क्योंकि वह डरती है कि उसे घृणा की दृष्टि से देखा जायेगा या उसे ही ग़लत समझा जायेगा। इसलिए तमाम प्रकार की वजहों के चलते, एक रेप पीड़िता की ओर से रेप के सम्बन्ध में एफआईआर दर्ज करने में देरी की जा सकती है। कर्नेल सिंह बनाम मध्य प्रदेश, AIR (1995) SC 2472 के मामले में यह देखा गया था कि केवल इसलिए कि रेप की शिकायत को दर्ज करने में देरी की गयी थी, यह सवाल नहीं उठाता कि शिकायत झूठी थी। पुलिस के पास जाने की अनिच्छा का कारण, ऐसी महिलाओं के प्रति समाज का दुर्भाग्यपूर्ण रवैया होता है। हमारा समाज अक्सर ही उनपर संदेह करता है और उनके साथ सहानुभूति रखने के बजाय उनके साथ बुरा बर्ताव करता है। इसलिए, ऐसे मामलों में शिकायत दर्ज करने में देरी होना यह नहीं दर्शाता कि महिला का आरोप झूठा है। निष्कर्ष अंत में, यह साफ़ है कि एक रेप पीड़िता के साक्ष्य पर दोषसिद्धि की जा सकती है। बस उसका साक्ष्य भरोसे लायक होना चाहिए और यदि अदालत को जरुरत लगे तो विवेक के एक नियम के रूप में उसकी संपुष्टि के लिए आवश्यक सबूत तलाशे जा सकते हैं। हाल ही में संतोष प्रसाद बनाम बिहार राज्य CRIMINAL APPEAL NO. 264 OF 2020 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना है कि बलात्कर केस के किसी आरोपी की सजा पीड़िता की एकमात्र गवाही के आधार पर नहीं हो सकती है, जब तक कि वह वास्तविक गवाह का टेस्ट पास न कर ले और यदि वह अदालत को वास्तविक लगती है तो दोष-सिद्धि में कोई समस्या नहीं है। न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एमआर शाह की खंडपीठ ने इस मामले में फैसला सुनाते हुए यह साफ़ किया था कि पीड़िता के एकमात्र साक्ष्य के आधार पर किसी अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए सबूत बिल्कुल भरोसेमंद, बेदाग और वास्तविक गुणवत्ता वाले होने चाहिए। 











जानिए हमारा कानून जानिए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) के संदर्भ में विशेष बातें Shadab Salim19 April 2020 8:21 PM The National Security Act of 1980 is an act of the Indian Parliament promulgated on 23 September, 1980. मानव अधिकारों के अधीन किसी भी व्यक्ति को उसके द्वारा किए गए किसी अपराध के अधीन ही बंदी बनाया जा सकता है, परंतु भारत में कुछ निवारक विधियां ऐसी हैं, जिनके अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को अपराध करने के पूर्व ही या अपराध करने से रोकने के उद्देश्य से बंदी बनाया जा सकता है और एक निश्चित अवधि तक निरुद्ध रखा जा सकता है। राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम 1980 भी ऐसी ही एक निवारक विधि है, जो केंद्रीय और राज्य सरकार को तथा उसके अधीन रहने वाले अधिकारियों को असीमित शक्तियां प्रदान करती है। राज्य एवं केंद्र सरकार किसी भी व्यक्ति को राज्य और देश की सुरक्षा बनाए रखने के लिए निरुद्ध कर सकती है। अनेक बार इस अधिनियम की आलोचना की गई है, क्योंकि यह अधिनियम एक प्रकार से नागरिकों के विरुद्ध तथा नागरिकों से हटकर समस्त धरती के मनुष्य के विरुद्ध किसी भी राज्य के सरकार को असीमित शक्तियां प्रदान करता है। ए के राय बनाम भारत संघ ए आर आई 1982 उच्चतम न्यायालय 710 के मामले में इस अधिनियम को संविधान के संगत बताया गया है और यह निर्देश दिए गए हैं कि सरकारें इस अधिनियम को सावधानी से उपयोग में लाएं और बड़े ऐतिहासिक अपराधियों के लिए ही इस कानून का उपयोग करें। इस प्रकार का कानून शोषणकारी हो सकता है, यदि उस कानून को उसके गलत अर्थों में उपयोग किया जाए। इस लेख के माध्यम से राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के कुछ विशेष प्रावधानों पर चर्चा की जा रही है। केंद्रीय और राज्य दोनों को शक्तियां इस अधिनियम के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को निरुद्ध करने के लिए केंद्र और राज्य सरकार दोनों को शक्तियां दी गई हैं। केंद्रीय एवं राज्य सरकारों के अधीन रहने वाले पदाधिकारी इस अधिनियम के अंतर्गत उचित आधार पाए जाने पर व्यक्तियों को निरुद्ध कर सकते हैं। निरुद्ध करने के आधार निरूद्ध करने के आदेश अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत दिए गए हैं। केंद्र एवं राज्य सरकार किसी भी नागरिक को एवं विदेशी व्यक्ति को इस अधिनियम के अंतर्गत विरुद्ध कर सकती हैं। कोई भी ऐसा कार्य जिससे देश की सुरक्षा को ख़तरा हो, ऐसा कोई कार्य कोई विदेशी कर रहा हो या भारत में निरंतर रहने वाला कोई विदेशी किसी घटना को अंजाम देने के बाद भारत से भागने का निरंतर प्रयास कर रहा है। केंद्र सरकार या राज्य सरकार को यदि किसी व्यक्ति के संदर्भ में जब संतुष्टि हो जाती हैं कि वह व्यक्ति लोक व्यवस्था को बनाए रखने वाले कार्यों में बाधा डाल रहा है तथा वह व्यक्ति समाज के भीतर आवश्यक सेवा एवं वस्तुओं की पूर्ति में बाधा डाल रहा है, ऐसी आवश्यक सेवा और वस्तुओं को समाज में दिया जाना नितांत आवश्यक है और वह व्यक्ति इसकी पूर्ति में बाधा डालता है तो भी उसे निरुद्ध करने का आदेश दिया जा सकता है। राज्य सरकार किसी ऐसे स्थान पर किसी जिला दंडाधिकारी एवं पुलिस कमिश्नर को इस प्रकार से आदेश जारी करने के लिए निर्देश दे सकती है। सरकार यदि संतुष्ट है कि ऐसा आदेश दिया जाना चाहिए तो ऐसा आदेश दिए जाने के लिए निर्देश देती है, परंतु इस धारा के अंतर्गत यदि निर्देश दिया जाता है तो ऐसा निर्देश प्रथम बार 3 माह की अवधि से ज्यादा का नहीं होगा अर्थात जिस व्यक्ति को निरुद्ध करने का निर्देश जिला दंडाधिकारी एवं पुलिस कमिश्नर को राज्य सरकार ने दिया है तथा यह कहा है कि ऐसा आदेश तो ऐसे आदेश में किसी भी व्यक्ति को प्रथम बार तीन माह के लिए निरुद्ध किया जाएगा। अधिनियम की धारा 3 की उपधारा 3 के अंतर्गत यदि आदेश जारी किया जाता है तो पुलिस अधिकारी,जिला दंडाधिकारी को सरकार को रिपोर्ट भेजनी होगी एवं 12 दिन के भीतर ऐसी रिपोर्ट भेजनी ही होगी। यदि 12 दिन के भीतर ऐसी रिपोर्ट नहीं भेजी जाती है तो सरकार द्वारा दिया गया निर्देश प्रभावहीन हो जाएगा। निरूद्ध किए गए व्यक्ति को निरूद्ध किये जाने के आधार बताना निरूद्ध किए गए व्यक्ति को जिस दिनांक को निरूद्ध किया जाता है उस दिन से 5 दिन के भीतर निरूद्ध के आधार बताया जाए। यदि कोई युक्तियुक्त कारण है ऐसी परिस्थिति में 15 दिन के भीतर निरूद्ध किए गए व्यक्ति को निरुद्ध करने के आधार बताए जाएंगे तथा उसको उचित कार्यवाही करने के परामर्श दिए जाए। सलाहकार बोर्ड अधिनियम की धारा 9 के अनुसार केंद्र और राज्य सरकार सलाहकार बोर्ड का गठन करती है। सलाहकार बोर्ड में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश या फिर ऐसे न्यायाधीश होने की पात्रता रखने वाले व्यक्ति सदस्य होते हैं। अलग-अलग राज्यों के लिए अलग-अलग सलाहकार बोर्ड होते हैं। कोई राज्य एक से अधिक सलाहकार बोर्ड भी बना सकता है। इस अधिनियम के अंतर्गत सलाहकार बोर्ड की महत्वपूर्ण भूमिका है। राज्य सरकार सलाहकार बोर्ड को नियुक्त किए गए व्यक्तियों की रिपोर्ट प्रेषित करता है। सलाहकार बोर्ड के समक्ष ऐसी रिपोर्ट 3 सप्ताह के भीतर सरकारों को पेश करनी होती है। सलाहकार बोर्ड ऐसी रिपोर्ट के ऊपर अपनी जांच बैठाता है तथा उस पर अपना निर्णय भी देता है। इस अधिनियम के अंतर्गत सलाहकार बोर्ड धारा 12 के अनुसार किसी निरुद्ध किए गए व्यक्ति पर अपना निर्णय देते हुए एक निश्चित अवधि के लिए उस व्यक्ति को विरुद्ध किए जाने का आदेश देता है या फिर अधिनियम की धारा 12 की उपधारा (2) के अनुसार यदि लाए गए व्यक्ति के संदर्भ में सलाहकार बोर्ड यह पाता है कि लाए गए व्यक्ति को निरूद्ध किया जाना उचित नहीं है तो वह ऐसे व्यक्ति को छोड़ देता है। सलाहकार बोर्ड के समक्ष किसी निरूद्ध व्यक्ति की ओर से अधिवक्ता द्वारा पैरवी किए जाने का का प्रावधान इस अधिनियम में नहीं रखा गया है। निरुद्ध के जाने की अधिकतम अवधि अधिनियम की धारा 13 के अनुसार किसी भी निरूद्ध किए गए व्यक्ति को निरूद्ध किए जाने के आदेश देने से 12 महीने तक के लिए निरूद्ध रखे जाने का आदेश दिया जा सकता है। समुचित सरकार किसी भी समय अपने द्वारा दिए गए किसी भी आदेश को वापस भी ले सकती है या पुनः नवीन कोई आदेश दे सकती है। समुचित सरकार द्वारा दिए गए कोई आदेश को चुनौती इस अधिनियम के अंतर्गत यदि किसी व्यक्ति के विरुद्ध समुचित सरकार धारा 3 के अंतर्गत कोई आदेश जारी करती है तो वह व्यक्ति जिसके विरुद्ध आदेश जारी किया गया है वह सलाहकार बोर्ड के दिए निर्णय को उच्च न्यायालय में चुनौती दे सकता है। रिट याचिका के माध्यम से धारा 3 के अंतर्गत जारी किए गए आदेश को भी चुनौती दे सकता है या फिर दंड प्रक्रिया सहिंता की धारा 482 के अंतर्गत उच्च न्यायालय में आदेश को चुनौती दे सकता है।

Friday, April 10, 2020

कोरोना वाइरस और घरेलू हिंसा

स्तंभ/मास्क N-19, कोरोना... स्तंभ मास्क N-19, कोरोना वायरस और घरेलू हिंसा 

8 April 2020 5:38 PM 
         प्रज्ञा पारिजात सिंह फ्रांस के एक खामोश शहर - नैंसी में स्थित फार्मेसी की दुकान में पिछले रविवार को एक महिला आती है और केमिस्ट से दवाई के बहाने मदद मांगती है। वो दुकानदार को बताती है कि कोरोना वायरस की वजह से जबसे पूरा शहर लॉकडाउन है, उसका पति उसे रोज़ पीटता है और गाली-गलोच करता है । अपनी अक्षमता बताते हुए वो कहती है कि पति फ़ोन भी नहीं इस्तेमाल करने देता इसलिए मुश्किल से वो दवाई के बहाने बच्चों को लेकर आयी है। इस बात से अलार्म होकर दुकानदार, स्थानीय पुलिस को इत्तेला करता है और कुछ ही घंटों के अंदर पुलिस , रेस्क्यू टीम के साथ पहुंच जाती है और इस महिला और उनके बच्चों को बचा लेती है। करोना वायरस वैश्विक महामारी ने जहाँ पूरी दुनिया को हिला के रखा हुआ है, वही एक नया उभरता हुआ मुद्दा मुँह -बाये खड़ा है- घरेलु हिंसा। 
        घरेलु हिंसा की बात करें तो NCRB के 2018 के आंकड़ों के हिसाब से महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा की श्रेणी में घरेलु हिंसा सबसे ऊपर है। क्राइम रेट दर प्रति लाख महिला जनसँख्या के हिसाब से 58.8 % है। भारत का जहाँ विश्व में " जेंडर असमानता सूची " में 125-वांं नंबर है जो की पायदान में बहुत बाद में है, वहीँ ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में हमारा 87-वां स्थान है। फ्रांस ने उधारणतः ये नुस्खा स्पेन से सीखा । एक कोड वर्ड बनाया गया है" मास्क N - 19"। यदि कोई महिला सबसे सामने कुछ बोल नहीं सकती और अपने ऊपर हो रहे अत्याचार से मदद मांगना चाहती है वो मास्क N - 19 मांगेगी जिसका अर्थ है उसे हिंसा से बचने के लिए मदद की आवश्यकता है। ज्ञांत हो को कोरोना वायरस से बचने के लिए साधारण तौर पर मास्क N - 95 का इस्तेमाल होता है। भले ही यह एक सांकेतिक कोड हो लेकिन इसने कई महिलाओं के ऊपर हो रहे घरेलू हिंसा से हाल फिलहाल बचने में मदद की है। 
        अभी हाल ही में राष्ट्रीय महिला आयोग ने लॉकडाउन के बाद ईमेल के द्वारा आयी महिलाओं की शिकायतों का डाटा निकाला है । गौरतलब हो की इस साल के आंकड़ों पर जाएं तो होश -फाख्ता हो जायेंगे जनवरी में कंप्लेंट की संख्या 302 थी, फ़रवरी में 270 और मार्च में सिर्फ लॉकडाउन के बाद से ( 23 मार्च- से 31 मार्च तक यानि कुल एक हफ्ते का डाटा ) 291 कम्प्लेंट्स अभी तक भेजी जा चुकी हैं । ज़्यादातर कंप्लैंट्स पंजाब से हैं। कारण स्पष्ट हैं, घर के बाहर न निकल पाना, काम पे न जा पाना फ़्रस्ट्रेशन , आपसी संबंधों में खलल इत्यादि । रेसेअर्चेर्स की रिपोर्ट्स के अनुसार माने तो ये पता चलता है कि तनावपूर्ण माहौल अक्सर घरेलू हिंसा को बढ़ावा देता है। 2008 के इकॉनोमी क्राइसिस के दौरान पूरे विश्व में घरेलू हिंसाओं की संख्या बढ़ गयी थी। भारत में ही नहीं पूरे विश्व में फिलहाल इस वैश्विक महामारी के आने से घरेलू हिंसाओं की तादाद बढ़ गयी है जो की एक बेहद ही चिंताजनक और गंभीर मुद्दा है। भारत में क्या कानून है? घरेलू हिंसा से निबटने के लिए भारत ने 2005 में घरेलू हिंसा कानून लाया था । 
          वर्ष 2005 से पूर्व घरेलू हिंसा के खिलाफ महिलाओं के पास आपराधिक मामला दर्ज़ करने का अधिकार था| ऐसे मामलों में भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498A के अंतर्गत कार्यवाही होती थी| 2005 में 'घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं का संरक्षण अधिनियम' पारित हुआ जिसमें कई नए तरीके के अधिकार महिलाओं को दिए गए| धारा 498A का उद्देश्य अपराधी को दण्डित करना है जबकि घरेलू हिंसा अधिनियम का उद्देश्य पीड़ित महिला को रहने की जगह, गुजारा भत्ता, इत्यादि दिलाना है| घरेलू हिंसा अधिनियम पूर्णतया गैर अपराधिक ढंग का कानून है| घरेलू हिंसा अधिनियम का सबसे बड़ा फायदा ये हुआ है की जो महिलाएं पारिवारिक या सामजिक दवाब एवं पुलिस थाने के चक्करों से बचने के कारण अपराधिक कार्यवाही नहीं चाहती हैं वे अब अपने लिए प्रभावी संरक्षण का उपाय कर सकती हैं। 
       घरेलू हिंसा कई प्रकार की हो सकती हैं : आर्थिक , मानसिक, शारीरिक , दहेज़ की मांग , मौखिक, लैंगिक उत्पीड़न इत्यादि । घरेलू हिंसा अधिनियम केवल शादीशुदा महिलाओं के लिए नहीं बल्कि किसी भी महिला पर लागू होता है। बहनें, माता, भाभी, इत्यादि रिश्तों से जुडी महिलाएं भी इस अधिनियम के तहत पीड़ित महिला की परिभाषा में आती हैं| कोई भी महिला जो किसी भी पुरुष के साथ घरेलू सम्बन्ध में रहती हो या रह चुकी हो और घरेलू हिंसा का शिकार हो वो इस अधिनियम के तहत किसी भी समाधान या राहत की मांग कर सकती है।
          लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिला भी घरेलू हिंसा के खिलाफ इस अधिनियम के अंतर्गत अपने अधिकारों की मांग कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में डी. वेलुसामी बनाम डी. पत्चैअम्मल मामले में इस बात की पुष्टि की है। शिकायतकर्ता कौन हो सकता है ? घरेलू हिंसा की शिकायत का अधिकार केवल पीड़ित महिला को ही नहीं है। पीड़ित महिला की ओर से कोई भी व्यक्ति इसके खिलाफ शिकायत दर्ज करवा सकता है। पीड़ित महिला के अलावा उसका कोई भी रिश्तेदार, सामजिक कार्यकर्ता, NGO, पडोसी, इत्यादि भी महिला की ओर से शिकायत दर्ज करवा सकते हैं। शिकायत दर्ज करने के लिए यह ज़रूरी नहीं है की घरेलू हिंसा की घटना हो चुकी हो| अगर किसी को यह अंदेशा है की किसी महिला के ऊपर घरेलू हिंसा की जा सकती है तो इसकी भी शिकायत दर्ज करवाई जा सकती है। ये 2005 का महिला संरक्षण अधिनियम काफी कारगर रहा और काफी महिलाओं को सशक्त करने में सफल सिद्ध हुआ। कोरोना वायरस की वजह से अदालतें बंद हैं : परेशानी का सबब ये है की कोरोना की वजह से कोर्ट-अदालतें इत्यादि बंद हैं। दिन- प्रतिदिन सिर्फ ज़रुरत और अति-आवश्यक केसों की ही सुनवाई हो रही है। ऐसे में पीड़ित महिलाओं के ऊपर सबसे बड़ी मार पड़ी है इस महामारी से। चूंकि कानून रातों रात नहीं बन सकते और विधिक प्रक्रिया को समय लगता है ऐसे में क्या उपाय है ? कुछ तरीकें है जिनसे महिलाएं अपनी शिकायत दर्ज करा सकती हैं घर पर बैठकर ही : 1 - हेल्पलाइन / वुमन -इन- डिस्ट्रेस नंबर पर कॉल करके - 1091 /1090 2- वुमन हेल्पलाइन डोमेस्टिक एब्यूज / महिला हेल्पलाइन घरेलु हिंसा नंबर - 181 3- पुलिस को संपर्क करें - 100 4 - NCW / राष्ट्रीय महिला आयोग हेल्पलाइन नंबर- 011-26942369 ,26944754 इसके अलावा राष्ट्रीय महिला आयोग की वेबसाइट http://ncwapps.nic.in/onlinecomplaintsv2 / पर भी शिकायत दर्ज करवाई जा सकती है। इस वेबसाइट पर शिकायत पंजीकरण करने के साथ ही शिकायत की स्तिथि भी जांच सकते हैं| ईमेल है - complaintcell-ncw@nic.in स्पेन और फ्रांस ने जैसे नए कोड का इस्तेमाल किया कई ज़रूरतमंद महिलाओं को मदद मिली । ऐसे में चाहिए की सरकार इस बात को सुनिश्चित करें के जल्द से जल्द आर्डिनेंस पारित करके कोई बिल लाएं जिससे महिलाओं को मदद और सुरक्षा मिले। एक आल -इंडिया हॉटलाइन नंबर हो जिसमे महिलाएं अपनी कंप्लेंट फ़ोन के माध्यम से दर्ज़ करा सकें और उनकी लोकेशन के हिसाब से पुलिस और रेस्क्यू- टीम मदद करे । न्याय प्रक्रिया से जुड़े वकीलों को चाहिए की वह खुल कर लोगों की मदद करें - कंप्लेंट ड्राफ्ट करके कोर्ट तक पहुचाएं । कोर्ट इस बात की सुओ मोटो कॉग्नीज़न्स लेकर गाइडलाइन्स निर्धारित करे सिविल सोसाइटी , NGO इत्यादि सेन्सिटिज़ेशन , अवेयरनेस कैंपेन चलाएं ऑनलाइन माध्यम से। सबसे बड़ी बात है की आस-पड़ोस के लोग आँख-कान-प्रत्यक्ष -प्रमाण बनें और संदेह होने पर तुरंत अपने निकटतम थाने में इतल्ला करें। महिलाएं हिचकें ना और जिससे भी मदद ले पाएं, लें। जो भी महिलाएं फेसबुक , ट्विटर और सोशल मीडिया का इस्तेमाल करती हैं और मेल इत्यादि करना जानती हैं वो तुरंत अपने भरोसे के लोगों से या निकटतम अथॉरिटीज से संपर्क करें । 
         महिलाएं महिलाओं का साथ दें। चुप ना बैठें। संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य अंटोनिओ गुत्तरेस ने हाल ही में ट्वीट करके कहा की मुश्किल की ऐसी घडी में घर के अंदर जूझ रही महिलाओं की सुरक्षा करना सबसे आवश्यक है। उन्होंने अपील की है सारी सरकारों से की वे तुरंत प्रबंध करे ऐसी स्थितिओं से निबटने के लिए और महिलाओं की सुरक्षा हेतु उचित प्रबंध करने के लिए। अंत में माया एंग्लो का एक प्रसिद्ध उद्धहरण है जो उन्होंने अपनी किताब में लिखा था , यहाँ एकदम सटीक बैठता है : " वो हर एक बार जब एक औरत खुद के लिए खड़ी होती है जाने अनजाने , वो ना जाने कितनी और महिलाओं के लिए खड़ी होती है और सम्बल देती है " लेखक प्रज्ञा पारिजात सिंह सुप्रीम कोर्ट की वकील हैं और फ़िलहाल कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से LLM कर रही हैं।

Friday, March 27, 2020

लोन जमा करने में 3माह की छूट


27 March 2020 11:30 

        अर्थव्यवस्था पर COVID-19 के प्रभाव को कम करने के लिए गए निर्णयों के रूप में, भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर ने शुक्रवार को घोषणा की कि सभी वाणिज्यिक बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को 1 मार्च, 2020 तक की अवधि से बकाया लोन की किश्तों के भुगतान पर अगले 3 महीने की मोहलत देने की अनुमति है। इसके अलावा, सभी लोन देने वाली संस्थाओं को वर्किंग कैपिटल लोन पर ब्याज के भुगतान पर 3 महीने के मोहलत देने की अनुमति है। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने स्पष्ट किया कि टर्म लोन पर स्थगन और वर्किंग कैपिटल पर ब्याज भुगतान को रोकने से परिसंपत्ति वर्गीकरण में गिरावट नहीं आएगी। गवर्नर ने कहा कि ये (टर्म लोन पर 3 महीने की मोहलत और वर्किंग कैपिटल पर ब्याज के 3 महीने की छूट) से लाभार्थियों की क्रेडिट हिस्ट्री पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। 
       RBI गवर्नर ने नकदी प्रवाह बढ़ाने और सिस्टम में नगद को इंजेक्ट करने के फैसलों की भी घोषणा की। ये घोषणा इस तरह हैं : RBI रेपो रेट 75 बेसिस प्वाइंट घटकर 4.4% हो गया। रिवर्स रेपो रेट 90 बेसिस प्वाइंट घटकर 4% हो गया। * RBI कुल एक लाख करोड़ रुपये की तीन साल की अवधि के लक्षित दीर्घकालिक रेपो परिचालन की नीलामी आयोजित करेगा। * 25,000 करोड़ रुपये की पहली नीलामी आयोजित की जाएगी। सभी बैंकों के कैश रिजर्व रेशियो (CRR) में 100 आधार अंकों की कमी करके 3 प्रतिशत कर दिया गया। इससे 1.37 लाख करोड़ रुपये का कैश जारी होने की उम्मीद है। * सीमांत स्थायी सुविधा का विस्तार तत्काल प्रभाव से 2% एसएलआर से बढ़ाकर 3% किया गया। वृद्धिशील पूंजी संरक्षण बफर का कार्यान्वयन 30 मार्च, 2020 से 30 सितंबर, 2020 तक के लिए टाल दिया गया है।
        इन उपायों से प्रणाली में कुल 3.74 लाख करोड़ रुपये की तरलता के बढ़ने की उम्मीद है। आरबीआई गवर्नर ने कहा, "आरबीआई के पास वित्तीय स्थिरता को बनाए रखने के लिए अपने शस्त्रागार से कई उपकरणों को लाने का समय आ गया है।" उन्होंने आश्वासन दिया कि भारतीय बैंकिंग प्रणाली "सुरक्षित और मजबूत" है और जनता घबराहट धन निकासी न करें। COVID-19 के प्रकोप के कारण, वित्तीय वर्ष के लिए सकल घरेलू उत्पाद का 5% का अनुमान जोखिम में है।
       ये निर्णय RBI की मौद्रिक नीति समिति (MPC) की बैठक के बाद लिया गया। केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने गुरुवार को लॉक डाउन के मद्देनजर गरीबों के लाभ के लिए 1.70 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा की थी।

Wednesday, March 25, 2020

भा. द. संहिता

अध्याय -1-प्रस्तावना

धारा -1-संहिता का नाम प्रवर्तन का विस्तार 
2-भारत के भीतर किये गये अपराधों का दण्ड 
3-भारत से परे किये गये किन्तु उसके भीतर विधि के अनुसार विचारणीय अपराधों का दण्ड |
4-ऱाज्य छेत्रीय अपराधों पर संहिता का विस्तार |
5-कुछ विधियों पर इस अधिनियम द्वारा प्रभाव न डाला जाना |

अध्यााय -2साधारण स्पष्टीकरण 

6-संहिता में की पकिभाषाओं काअपवादों के अध्यधीन समझा जाना |
7-एक बार स्पष्टीकृत पद का भाव |
8-लिंग
9-वचन
10-पुरुष,स्त्री
11-व्यक्ति
12-लोक
13-क्वीन की परिभाषा 
14-सरकार का सेवक 
15-ब्रिटिश इण्डिया की परिभाषा 
16-गवर्नमेंट आफ इण्डिया (भारत सरकार) की परिभाषा 
17-सरकार
18-भारत
19-न्यायाधीश
20-न्यायालय
21-लोक सेवक 
22-जंगम सम्पत्ति 





Monday, March 16, 2020

धारा 138 NIAct. चैक देने वाले ने हस्ताक्षर को स्वीकार कर लिया है तो इससे कोई फर्क नहीं पडता भले ही ऐटरी किसी अन्य व्यक्ति ने की है

धारा 138 एनआई एक्ट : यदि चेक देने वाले ने हस्ताक्षर को स्वीकार कर लिया है तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि चेक पर एंट्री किसी अन्य व्यक्ति ने की है : केरल हाईकोर्ट

 17 March 2020 10:15 AM

           केरल हाईकोर्ट ने कहा है कि यदि ड्रॉअर (चेक काटने वाला) ने चेक पर अपने हस्ताक्षर को स्वीकार कर लिया है, तो यह महत्वहीन तथ्य है कि किसी अन्य व्यक्ति ने चेक में प्रविष्टियां की थी। न्यायमूर्ति नारायण पिशराडी की एकल पीठ ने कहा, ''भले ही किसी अन्य व्यक्ति ने चेक भरा था, यह किसी भी तरह से चेक की वैधता को प्रभावित नहीं करता है।
        '' सीआरपीसी की धारा 482 के तहत याचिका दायर करते हुए ट्रायल कोर्ट के आदेश को चुनौती दी गई थी। ट्रायल कोर्ट ने याचिकाकर्ता की उस मांग को स्वीकार करने से इंकार कर दिया था जिसमें लिखावट की जाँच के लिए चेक को भेजने की मांग की गई थी। 
       प्रतिवादी, मैसर्स एक्सओटो सेरामिक्स प्राइवेट लिमिटेड ने याचिकाकर्ता/आरोपी व सुश्री संध्या रानी के खिलाफ निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 138 के तहत दंडनीय अपराध की शिकायत की थी और यह याचिका उसी के संबंध में दायर की गई थी।
        बचाव के साक्ष्य के चरण में, याचिकाकर्ता/ अभियुक्त ने ट्रायल कोर्ट में एक अर्जी दाखिल कर चेक की प्रविष्टियों की लिखावट के बारे में एक राय प्राप्त करने के लिए चेक को फॉरेंसिक साइंस लैबोरेटरी भेजने की मांग की थी। जब दूसरे प्रतिवादी / शिकायतकर्ता ने आपत्ति की कि याचिकाकर्ता /अभियुक्त का इरादा केवल मामले को लंबा खींचने का है, तो ट्रायल कोर्ट ने याचिकाकर्ता के उस आवेदन को खारिज कर दिया जिसमें विशेषज्ञ की राय के लिए चेक भेजने की मांग की थी। 
       इसके बाद याचिकाकर्ता/अभियुक्त ने सीआरपीसी की धारा 482 के तहत वर्तमान याचिका दायर कर दी। विवाद चेक में अन्य प्रविष्टियों के संबंध में था और हस्ताक्षर के संबंध में नहीं था क्योंकि इस पर याचिकाकर्ता के हस्ताक्षर ही थे, इसलिए उसके संबंध में कोई विवाद नहीं था। अदालत ने इस मामले में बीर सिंह बनाम मुकेश कुमार के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले पर भरोसा किया।
        इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि- ''अगर चेक पर ड्रॉअर या चेककर्ता द्वारा विधिवत रूप से हस्ताक्षर किए गए हैं तो यह महत्वहीन बात है कि हो सकता है कि चेककर्ता के अलावा किसी अन्य व्यक्ति ने भरा हो।
      '' इस प्रकार, वर्तमान मामले में अदालत ने कहा, ''जब अभियुक्त चेक के हस्ताक्षर को स्वीकार करता है, तो यह महत्वहीन है कि क्या किसी अन्य व्यक्ति ने चेक में प्रविष्टियां की थी /चेक भरा था। भले ही किसी अन्य व्यक्ति ने चेक भरा हो। यह किसी भी तरह से चेक की वैधता को प्रभावित नहीं करता है।'' इसके अलावा, अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता/ अभियुक्त का उद्देश्य केवल मामले में कार्यवाही को लंबा खींचना था ,इसलिए ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित आदेश में कोई खामी नहीं है। इस प्रकार इस याचिका को खारिज किया जाता है।

Thursday, March 12, 2020

1अप्रेल से ए4साइज के पेपर के दोनों ओर मुद्रण को मंजूरी

ताजा खबरें
सुप्रीम कोर्ट फाइलिंग... ताजा खबरें सुप्रीम कोर्ट फाइलिंग में 1 अप्रैल से A4 साइज़ के पेपर के दोनों तरफ मुद्रण को मंज़ूरी 

     सुप्रीम कोर्ट ने सर्कुलर जारी करते हुए कहा है कि 1 अप्रैल 2020 से न्यायिक पक्ष की फाइलिंग में A4 साइज़ के पेपर के दोनों तरफ मुद्रण होना चाहिए। यह "कागज और मुद्रण के उपयोग के बारे में एकरूपता लाने और कागज की खपत को कम करने और पर्यावरण को बचाने के लिए" के उद्देश्य से किया गया है। 5 मार्च को जारी परिपत्र में कहा गया है, "कागज और मुद्रण के उपयोग के बारे में एकरूपता लाने और कागज की खपत को कम करने और पर्यावरण को बचाने के लिए, बेहतर गुणवत्ता वाले A4 साइज़ के कागज (29.7 सेमी x 21 सेमी) जो 75 जीएसएम से कम न हो, दोनों तरफ मुद्रण के साथ, टाइम्स न्यू रोमन, फॉन्ट साइज़ 14, डेढ़ लाइन के स्पेस के साथ (कोटेशन और इंडेंट के लिए - फॉन्ट साइज़ 12 सिंगल लाइन स्पेस में), जिसमें लेफ्ट और राइट साइड में 4 सेंटीमीटर का मार्जिन हो और 2 सेमी ऊपर और नीचे मार्जिन हो, इस न्यायालय में दायर की जाने वाली याचिकाओं, हलफनामों या अन्य दस्तावेजों में उपयोग किया जाएगा।
        " यह भी कहा गया है कि कोर्ट रजिस्ट्री से एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड को सभी संचार ई-मेल द्वारा भेजे जाएंगे, इसके बाद एसएमएस अलर्ट आएगा। "हार्ड कॉपी के माध्यम से संचार भेजने की प्रथा रजिस्ट्री द्वारा बंद कर दी जाएगी। मिसलेनियस आवेदन, पुनर्विचार याचिका, क्यूरेटिव याचिका और मामलों के निपटारे में अवमानना ​​याचिकाओं को कोर्ट रजिस्ट्री द्वारा 1 + 1 प्रारूप - अर्थात मूल कागजात के 1 सेट + 1 पेपरबैक में स्वीकार किया जा सकता है।
        दोष ठीक होने के बाद, शेष पेपरबैक दायर किए जाएंगे। पिछले महीने, सुप्रीम कोर्ट ने ए 4 साइज के पेपर को फाइलिंग में डबल साइड प्रिंटिंग के इस्तेमाल की अनुमति देने के फैसले को मंजूरी दी थी। 14 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय में कागज के उपयोग के युक्तिकरण के लिए समिति की एक बैठक जिसमें सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन (SCAORA) भी शामिल रहे, उसमें यह फैसला लिया गया।
       सुप्रीम कोर्ट समिति ने बार सदस्यों को पिछले महीने इसकी खपत को कम करने के उद्देश्य से कागज और अन्य मापदंडों से संबंधित नियमों पर चर्चा के लिए आमंत्रित किया था।

Monday, March 9, 2020

BI Act की धारा 138 :सुप्रीम कोर्ट ने RBI से नयाँ प्रोफार्मा चेक बनाने पर विचार करने को कहा

NI एक्ट की धारा 138 :... ताजा खबरें NI एक्ट की धारा 138 : सुप्रीम कोर्ट ने RBI से नया प्रोफार्मा चेक बनाने पर विचार करने को कहा, जिसमें भुगतान का उद्देश्य शामिल हो 

9 March 2020 

      सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) को चेक के एक नए प्रोफार्मा को विकसित करने पर विचार करने के लिए कहा है, ताकि भुगतान के उद्देश्य को शामिल करने के साथ-साथ अन्य मामलों में चेक बाउंस मामलों में वास्तविक मुद्दों को स्थगित करने की सुविधा मिल सके। 
        "चेक की विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के साथ, यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि चेक को अनावश्यक मुकदमेबाजी में दुरुपयोग करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। 
           भारतीय रिजर्व बैंक चेक के एक नए प्रोफार्मा को विकसित करने पर विचार कर सकता है ताकि भुगतान के उद्देश्य को शामिल किया जा सके, साथ ही अन्य मुद्दों के साथ-साथ वास्तविक मुद्दों को स्थगित करने की सुविधा प्रदान की जा सके।" मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे और न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव की पीठ ने इस प्रकार अपने आदेश में चेक बाउंस मामलों के शीघ्र निर्णय के लिए एक मैकेनिज़्म विकसित करने के लिए स्वत: संज्ञान लेते हुए याचिका दर्ज की।
            बेंच ने कहा कि इस प्रकृति के मामलों में एक महत्वपूर्ण हितधारक होने के नाते यह बैंक की जिम्मेदारी है कि वे आवश्यक विवरण प्रदान करें और कानून द्वारा अनिवार्य परीक्षण की सुविधा प्रदान करें। सूचना साझा करने के लिए तंत्र विकसित किया जा सकता है जहां बैंक प्रक्रिया के निष्पादन के उद्देश्य के लिए शिकायतकर्ता और पुलिस के साथ आरोपी, जो खाताधारक है, के पास उपलब्ध सभी आवश्यक विवरण साझा करते हैं। 
        इसमें संबंधित जानकारी को दर्ज करने की आवश्यकता शामिल हो सकती है, जैसे ईमेल आईडी, पंजीकृत मोबाइल नंबर और खाता धारक का स्थायी पता ,चेक या अनादर ज्ञापन पर धारक को अनादर के बारे में सूचित करना। बेंच कहा कि भारतीय रिज़र्व बैंक, नियामक निकाय होने के नाते, इन मामलों के परीक्षण के लिए अपेक्षित जानकारी और अन्य आवश्यक मामलों की सुविधा के लिए बैंकों के लिए दिशानिर्देश भी विकसित कर सकता है। 
          NI एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध से संबंधित मामलों में अभियुक्तों पर नज़र रखने और इस प्रक्रिया को सुनिश्चित करने के लिए एक अलग --सॉफ्टवेयर-आधारित तंत्र विकसित किया जा सकता है। 
        ई-मेल से समन न्यायालय ने उल्लेख किया कि इंडियन बैंक एसोसिएशन और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (2014) 5 SCC 590 में यह आयोजित किया गया था कि मजिस्ट्रेट को अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए प्रक्रिया जारी करते समय व्यावहारिक और यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
       इस संबंध में पीठ ने कहा "दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 62, 66 और 67 और अधिनियम की धारा 144 और इस न्यायालय के निर्देशों से प्रभावी होते हुए मजिस्ट्रेट समन भेजने के लिए एक या कई तरीकों में से विकल्प चुन सकता है, जिसमें स्पीड पोस्ट या कूरियर के माध्यम से समन भेजना शामिल हैं। 
        समन पुलिस अधिकारी या किसी अन्य व्यक्ति, ई-मेल या क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र वाले न्यायालय के माध्यम से भी भेजा जा सकता है। 
           इंडियन बैंक एसोसिएशन मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के तहत मामलों के तेजी से निपटान के लिए निम्नलिखित दिशानिर्देश जारी किए हैं। 
            अधिनियम की धारा 138 के तहत मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट / न्यायिक मजिस्ट्रेट (एमएम / जेएम) को जिस दिन शिकायत प्रस्तुत की जाती है, वह शिकायत की जांच करेगा और यदि शिकायत शपथ पत्र और शपथ पत्र और दस्तावेजों के साथ होती है, यदि कोई हो ,वे क्रम में पाए जाते हैं तो संज्ञान लेंगे हैं और सीधे सम्मन जारी करेंगे।  एमएम / जेएम को सम्मन जारी करते समय व्यावहारिक और यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। सम्मन को ठीक से संबोधित किया जाना चाहिए और डाक द्वारा भेजा जाना चाहिए और साथ ही शिकायतकर्ता से ई-मेल पता भी प्राप्त करना चाहिए।
          अदालत, उचित मामलों में, आरोपियों को नोटिस देने के लिए पुलिस या नजदीकी अदालत की सहायता ले सकती है। उपस्थिति की सूचना के लिए, एक छोटी तारीख तय की जाती है। 
         यदि सम्मन बिना तामील के वापस लौट आता है, तो तत्काल अनुवर्ती कार्रवाई की जाएगी। 
         न्यायालय समन में यह संकेत दे सकता है कि यदि अभियुक्त मामले की पहली सुनवाई में अपराधों को कम करने के लिए आवेदन करता है और यदि ऐसा कोई आवेदन किया जाता है, तो न्यायालय जल्द से जल्द उचित आदेश पारित कर सकता है। 
         अदालत को अभियुक्त को निर्देश देना चाहिए, जब वह जमानत बांड प्रस्तुत करता है, परीक्षण के दौरान उसकी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए और उसे धारा Cr.P.C की धारा 251 के तहत नोटिस लेने के लिए कहे। जब तक आरोपी द्वारा जिरह के लिए गवाह को फिर से बुलाने के लिए धारा 145 (2) के तहत कोई आवेदन नहीं किया जाता है, तब तक वह बचाव की अपनी दलील दर्ज करने और बचाव पक्ष के सबूत के लिए मामला तय करने में सक्षम है। 
          संबंधित न्यायालय को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मामले को सौंपने के तीन महीने के भीतर मुख्य परीक्षण, क्रॉस एक्ज़ामिनेशन औरशिकायतकर्ता का पुन: परीक्षण हो जाए। कोर्ट के पास बजाय कोर्ट में उनकी जांच करने के, गवाहों के हलफनामों को स्वीकार करने का विकल्प है।
         शिकायतकर्ता के गवाह और अभियुक्तों को अदालत द्वारा इस आशय के दिशानिर्देश दिए जाएं कि जब भी आवश्यकता हो क्रॉस-एक्ज़ामिनेशन के लिए वे उपलब्ध रहें। 
         संपत्ति की कुर्की यदि आवश्यक हो तो Cr.P.C की धारा 83 से प्रभावी करते हुए बलपूर्वक उपाय के द्वारा भी अभियुक्तों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए एक तंत्र विकसित किया जा सकता है। जो चल संपत्ति सहित संपत्ति की कुर्की की अनुमति देता है।
          एनआई एक्ट की धारा 143 ए के तहत अंतरिम मुआवजे की वसूली के लिए एक समान समन्वित प्रयास किया जा सकता है। सीआरपीसी की धारा 421 के अनुसार जुर्माना या मुआवजा भी वसूला जाएगा। बैंक अभियुक्तों के बैंक खाते से अपेक्षित धनराशि हस्तांतरित करने के लिए नियत समय में धारक के खाते में सिस्टम की सुविधा प्रदान कर सकता है, जैसा कि न्यायालय द्वारा निर्देशित किया जा सकता है। 
         प्री-लिटिगेशन सेटलमेंट बढ़ते एनआई मामलों के साथ इन मामलों में प्री-लिटिगेशन सेटलमेंट के लिए एक तंत्र विकसित करने की आवश्यकता है।
          विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 अधिनियम की धारा 19 और 20 के तहत प्री-लिटिगेशन स्टेज पर लोक अदालत द्वारा मामले के निपटान के लिए एक वैधानिक तंत्र प्रदान करता है। 
          इसके अलावा, अधिनियम की धारा 21, लोक अदालतों द्वारा पारित अवॉर्ड को एक सिविल कोर्ट के निर्णय के रूप में मान्यता देती है और इसे अंतिम रूप देती है।
          मुकदमेबाजी से पहले के चरण या पूर्व-संज्ञान चरण में पारित एक अवॉर्ड का सिविल कोर्ट डिक्री की तरह प्रभाव होगा।
           राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण, इस संबंध में जिम्मेदार प्राधिकरण होने के नाते, निजी मुकदमे दर्ज करने से पहले पूर्व-मुकदमेबाजी में चेक बाउंस से संबंधित विवाद के निपटारे के लिए एक योजना तैयार कर सकता है। 
           प्री लिटिगेशन एडीआर प्रक्रिया का यह उपाय कोर्ट में आने से पहले मामलों को निपटाने में एक लंबा रास्ता तय कर सकता है, जिससे डॉकेट का बोझ कम होगा।
         स्पेशल कोर्ट "उच्च न्यायालय उपरोक्त के अलावा, धारा 138 से संबंधित मामलों से निपटने  लिए विशेष अदालतों की स्थापना पर भी विचार कर सकते हैं। विशेष रूप से वहां जहां ऐसे 8 मामले पेंडेंसी के एक मानक आंकड़े से ऊपर लंबित हों।
           अदालतों को कानूनी आवश्यकता के अनुसार समय-सीमा के भीतर मामले के निपटान के लिए अतिरिक्त वेटेज देने का भी प्रारूप तैयार किया जा सकता है।" स्वत: संज्ञान रिट याचिका दायर करते हुए कोर्ट ने वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ लूथरा को एमिकस क्यूरिया और एडवोकेट के परमेस्वर को एमिकस की सहायता के लिए नियुक्त किया। 
          कोर्ट ने कहा, संबंधित ड्यूटी-होल्डर्स को सुनने के बाद बोर्ड पर आने वाले कुछ संकेतात्मक पहलू हैं। 
         चेक के अनादर के मामलों में कानून के जनादेश को पूरा करने और ऐसे मामलों की उच्च पेंडेंसी को कम करने और मामलों से निपटने के लिए शीघ्र और न्यायपूर्ण तरीके से कार्य करने के लिए बैंकों, पुलिस और कानूनी सेवाओं के अधिकारियों जैसे विभिन्न ड्यूटी धारकों को योजनाएं तैयार करने की आवश्यकता हो सकती है। इस प्रकार, हम उन्हें कानूनी जनादेश के अनुसार इन मामलों के शीघ्र निर्णय के लिए एक ठोस, समन्वित तंत्र विकसित करने के लिए सुनना आवश्यक समझते 

Sunday, February 23, 2020

दीवालिया घोषित कम्पनी केखिलाफ NI Act की धारा 138के तहत कार्रवाही पर रोक लगाई जा सकती है

दिवालिया घोषित करने... ताजा खबरें दिवालिया घोषित करने वाली कंपनी के ख़िलाफ़ NI एक्ट की धारा 138 के तहत कार्रवाई पर रोक लगाई जा सकती है? 

             सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ ने अटर्नी जनरल को उस याचिका पर नोटिस भेजा है जिसमें नेगोशिएबल इंस्ट्रुमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत ख़ुद को दिवालिया घोषित करने वाली कंपनी के ख़िलाफ़ कार्रवाई पर रोक लगाने की मांग की गई है। बीएसआई लिमिटेड एवं अन्य बनाम गिफ़्ट होल्डिंग्स प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य के मामले पर भरोसा करते हुए याचिकाकर्ता कंपनी के वक़ील ने कहा कि चूंकि, राष्ट्रीय कंपनी क़ानून अधिकरण (एनसीएलटी) की चेन्नई की एक खंडपीठ ने 10 जुलाई 2017 को एक आदेश के द्वारा रोक लगा दी थी इसलिए धारा 138 के तहत जारी वैधानिक नोटिस पर रोक लग जाती है।          याचिकाकर्ता के वक़ील ने एनसीएलटी के आदेश को उद्धृत करते हुए कहा कि जब तक भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता कोड (Insolvency and Bankruptcy Code) की धारा 14 के तहत कोर्पोरेट इंसोलवेंसी रेज़लूशन प्रक्रिया पूरी नहीं कर ली जाती है, इन बातों पर रोक लगा दी जानी चाहिए। "
          (a) मामले की सुनवाई या लंबित मामले की सुनवाई या निगमित ऋण प्राप्तकर्ता के ख़िलाफ़ किसी क़ानूनी अदालत, अधिकरण, मध्यस्थता पैनल या अन्य अथॉरिटी में कोई कार्रवाई।
       (b) किसी निगमित क़र्ज़दार का अपनी किसी संपत्ति या क़ानूनी अधिकारों या उसमें लाभकारी हितों के स्थानांतरण, रोक, अलग करना या उसको निपटाना।
         (c) SARFAESI Act, 2002 सहित किसी निगमित क़र्ज़दार द्वारा अपनी परिसंपत्ति को लेकर किसी भी तरह की सेक्योरिटी इंट्रेस्ट पर रोक लगाने, उसकी रिकवरी को लेकर किसी तरह की कार्रवाई।
       (d) अगर कोई संपत्ति किसी कोर्पोरेट क़र्ज़दार के क़ब्ज़े में है तो उस संपत्ति की उसके मालिक या उसे किराए पर लगानेवाले द्वारा रिकवरी। उपरोक्त को देखते हुए याचिकाकर्ता कंपनी के वक़ील ने कहा कि चूँकि नेगोशिएबल इंस्ट्रुमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत शिकायत भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता कोड (Insolvency and Bankruptcy Code)की धारा 14 के तहत रोक लगाए जाने की सूचना के जारी होने के बाद दर्ज की गई थी, कंपनी चेक से उस राशि को नहीं चुका सकती थी। पीठ ने इस मामले पर ग़ौर करना उचित समझा कि क्या वाक़ई इस प्रक्रिया पर रोक लगाई जा सकती है कि नहीं और इसीलिए भारत के अटर्नी जनरल को इस बारे में नोटिस जारी किया। "जिस तरह की स्थिति बनी है, हमें अटर्नी जनरल को नोटिस जारी करना उचित लगा ताक वह अगले मौक़े पर कोई क़ानून अधिकारी अदालत की मदद कर सके।"
         याचिकाकर्ता कंपनी ने मद्रास हाईकोर्ट से भी इसी तरह की अपील की थी जहां न्यायमूर्ति जीके इलाथीरैयन ने याचिका ठुकरा दी थी। यह कहा गया कि Negotiable Instruments Act की धारा 138 एक पीनल प्रावधान है जो अदालत को यह अधिकार देता है कि वह जेल में डालने या जुर्माना लागाने का आदेश पास करे। अदालत ने कहा कि उपरोक्त प्रावधान से लगता है कि रोक के तहत आपराधिक प्रक्रिया नहीं आती है और इसलिए याचिकाकर्ता को Insolvency and Bankruptcy Code की धारा 14 के तहत संरक्षण नहीं मिल सकता। 

Friday, February 21, 2020

00000000

 घ

कोर्ट मैरिज क्या है यह कैसे होती है जानिये

जानिए हमारा कानून/जानिए क्या होती है... जानिए हमारा कानून जानिए क्या होती है कोर्ट मैरिज और कैसे की जा सकती है 

       भारत में विवाह के लिए अलग-अलग धार्मिक समुदायों को अलग-अलग अधिकार और दायित्व दिए गए हैं। पर्सनल लॉ सभी धर्म के लोगों को अलग अलग उपलब्ध कराया गया है, जैसे हिंदुओं के लिए हिंदू विवाह अधिनियम 1955 एवं हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम तथा मुसलमानों के लिए शरियत का कानून है। यह कानून मुसलमानों की पर्सनल विधि का काम करता है, जैसे विवाह, उत्तराधिकार, तलाक, भरण पोषण दत्तक ग्रहण इत्यादि विषयों पर यह विधि होती है। 
       विवाह एक मानव अधिकार है कोई भी समुदाय या विधि विवाह करने से व्यक्ति को रोक नहीं सकती है। पर्सनल लॉ की विधियां बहुत सारे मामलों में व्यक्तियों में विभेद करती है तथा विवाह करने से रोकती है। 
      जैसे मुसलमानों पर लागू शरीयत का कानून केवल दो मुसलमानों से विवाह संबंधित है, परंतु कोई एक मुसलमान है और कोई एक अन्य धर्म से है तो यह कानून विवाह को मान्यता नहीं देता है। 
        1954 में भारत की संसद में एक क्रांतिकारी कदम उठाया है। एक ऐसा कानून पारित किया गया है, जिसके माध्यम से कोई भी दो लोग जो भिन्न धर्मों से आते है, भिन्न जाति से आते है तथा जिनके बीच में उम्र बंधन भी हो सकते हैं। वह व्यक्ति बगैर किसी बंधन के विवाह कर सकते हैं। 
       भारत का विधान इन व्यक्तियों को इस अधिनियम के अंतर्गत एक कोर्ट मैरिज का विकल्प उपलब्ध कराता है। विशेष विवाह अधिनियम 1954 इस विवाह अधिनियम को बनाने का उद्देश्य अंतरजाती एवं अंतर धार्मिक विवाह को मान्यता देना है। 
        कोई भी दो बालिग लोग यदि वह प्रतिषिद्ध नातेदारी के अंतर्गत नहीं आते है और वह किसी भी धर्म या पंथ यह जाति के हो यदि वापस में विवाह करना चाहते है तो भारत का यह उदार संविधान उन लोगों को विवाह करने की पूर्ण सहमति प्रदान करता है। यहां तक विवाह में किए जाने वाले किसी कर्मकांड को किए जाने की बाध्यता भी नहीं रखी गई है।
        विशेष विवाह अधिनियम 1954 के अंतर्गत विवाह करने के लिए शर्तें इस अधिनियम के अंतर्गत विवाह अनुष्ठान किये जाने के लिए कुछ शर्तें रखी गई है। कोई भी व्यक्ति जो भारत की सीमा के भीतर रह रहा है। यदि शर्तो को पूरा कर देता है तो विवाह कर सकता है। यह विवाह केवल एक स्त्री और पुरुष के बीच ही होगा, अभी इस अधिनियम के माध्यम से समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं मिली है वह स्त्री और पुरुष आपस में विवाह कर सकते हैं जो निम्न शर्तों को पूरा करते हैं--
          अधिनियम की धारा 4 के अनुसार, किसी भी पक्षकार की पूर्व पति और पत्नी जीवित नहीं होना चाहिए। इस शर्त का अर्थ यह है कि किसी भी पक्षकार की कोई पूर्व पति पूर्व पत्नी इस विवाह को अनुस्थापित करते समय जीवित नहीं होना चाहिए। यह धारा पति या पत्नी के होते हुए दूसरे विवाह को करने को रोकती है। इस शर्त को अधिनियम में रखे जाने का अर्थ यही है की कोई भी पक्षकार पति या पत्नी के जीवित होते हुए कोई दूसरा विवाह नहीं कर पाए। 
         किसी भी पक्षकार को बार-बार उन्मत्ता के दौरे नहीं आना चाहिए यदि कोई व्यक्ति मानसिक रूप से ठीक नहीं रहता है तथा उसको बार-बार मत्ता के दौरे आते हैं या ऐसे मानसिक रोग से पीड़ित है तो ऐसी स्थिति में वह पक्षकार इस अधिनियम के अंतर्गत विवाह नहीं कर पाएगा। 
        कोई भी पक्षकार मानसिक रूप से विकृत चित्त नहीं होना चाहिए यदि पक्षकार मानसिक रूप से विकृत चित्त है कोई भी निर्णय ले पाने में असमर्थ है ऐसे पक्षकारों को इस अधिनियम के अंतर्गत विवाह करने की मान्यता नहीं दी गई है।
        पक्षकार प्रतिषिद्ध नातेदारी के अंतर्गत नहीं होना चाहिए अधिनियम की अनुसूची में कुछ प्रतिषिद्ध नातेदारी बताई गई है। यह नातेदारी सामाजिक नैतिकता को ध्यान में रखते हुए प्रतिषिद्ध की गई है। 
        कोई पक्षकार यदि आपस में ऐसे नातेदार है जो समाज में ऐसे रिश्ते होते हैं जिन्हें पवित्र समझा जाता है तथा उन रिश्तो के आपस में संभोग किए जाने को अत्यंत बुरा काम समझा जाता है।इस नातेदारी को आपस में विवाह करने से इस अधिनियम के अंतर्गत रोका गया है। 
        विवाह अधिकारी अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत विवाह अधिकारी जैसा पद निर्मित किया गया है। 
      विवाह अधिकारी अपने पास आए विवाह के आवेदनों पर विचार करने के बाद पक्षकारों के विवाह अनुष्ठापित करवाने की जिम्मेदारी रखता है। यह अधिनियम की अत्यंत महत्वपूर्ण कड़ी है। ऐसे अधिकारी की नियुक्ति राज्य सरकार इस अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत राजपत्र में अधिसूचना के माध्यम से करती है। विवाह का पंजीकरण इस अधिनियम की विशेषता यह है कि इस अधिनियम के अंतर्गत दो पक्षकारों के बीच किए गए किसी वैध विवाह को राज्य सरकारों द्वारा रजिस्ट्रीकृत कर मान्यता प्रदान की जाती है,तथा एक प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया जाता है जो विवाह के अनुष्ठान के परिणामस्वरूप विवाह के पक्षकारों को दिया जाता है। व्यक्ति इस अधिनियम में विवाह को करने के लिए किसी भी तरह से विवाह का अनुष्ठान कर सकता है। जैसे कोई दो पक्षकार केवल एक दूसरे को माला डाल कर विवाह अनुष्ठापित कर सकता है। विवाह के पंजीकरण की प्रक्रिया यदि कोई दो पक्षकार इस अधिनियम के अंतर्गत अपना कोई विशेष विवाह पंजीकरण करवाना चाहते हैं तो अधिनियम के अंतर्गत ऐसे विवाह के रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया दी गई है। प्रक्रिया को अपनाकर कोई भी व्यक्ति अपने विवाह को रजिस्टर करवा सकते है। विवाह अधिकारी को लिखित सूचना देना अधिनियम की धारा 5 के अंतर्गत विवाह अधिकारी को एक लिखित सूचना देनी होती है। पक्षकार यदि एक माह तक किसी ऐसे जिले में रह रहे हैं जिसमें उन्हें विवाह अधिकारी को सूचना देनी है, तो उस जिले के विवाह अधिकारी को ऐसी लिखित सूचना किसी आवेदन के माध्यम से करेंगे तथा अधिकारी के समक्ष यह पक्षकार आपस में विवाह स्थापित करने की इच्छा रखेंगे तथा पक्षकार आवेदन में बताएंगे की हम यह विवाह आपसी सहमति एवं स्वतंत्र सहमति से कर रहे है।              विवाह सूचना का प्रकाशन अधिनियम की धारा 6 बताती है कि यदि किसी जिले के विवाह अधिकारी को विवाह के इच्छुक पक्षकारों से कोई आवेदन प्राप्त होता है तो ऐसे आवेदन प्राप्त होने के बाद विवाह की सूचना का प्रकाशन करेगा। इस प्रकाशन में वह विवाह की नियत की गई दिनांक लिखेगा तथा जनसाधारण से आपत्तियां मांगेगा तथा या मालूम करेगा कि कोई पक्षकार किसी अन्य व्यक्ति के अधिकारों का अतिक्रमण तो नहीं कर रहा है,या फिर विवाह प्रतिषिद्ध नातेदारी के अंतर्गत तो नहीं है।
             विवाह पर आपत्ति या लेना इस अधिनियम के अंतर्गत अनुष्ठापित किए जाने वाले विवाह पर कोई व्यक्ति जिसके अधिकारों का अतिक्रमण हो रहा है वह आपत्ति लेता है तो जिस दिन से विवाह की सूचना का प्रकाशन किया गया है। उस दिन से 30 दिन के भीतर कोई भी व्यक्ति इस तरह के विवाह पर आपत्ति ले सकता है। यदि वह आपत्ति लेता है तो जांच हेतु विवाह को रोक दिया जाता है। यदि कोई आपत्ति नहीं आती है तो विवाह अधिकारी विवाह को अनुष्ठापित करने के लिए नियत तारीख पर रख देता है। विवाह का अनुष्ठान तथा गवाह अधिनियम की धारा 11 के अंतर्गत इस विवाह को अनुष्ठान करने के लिए तीन साक्षी की आवश्यकता होती है।यह साक्षी विवाह में गवाह बनेंगे तथा इस विवाह की घोषणा अधिनियम में दिए गए प्रारूप के अंतर्गत करेंगे।पक्षकार जो तारीख विवाह अधिकारी द्वारा नियुक्त नियत की गई है उस तारीख को विवाह अनुष्ठापन करेंगे तथा जिस तरह की इच्छा से विवाह करना चाहते है उस तरह से विवाह कर सकेंगे। विवाह का प्रमाणपत्र इस अधिनियम के अंतर्गत यदि नियत तारीख को विवाह संपन्न कर दिया जाता है तो विवाह अधिकारी द्वारा एक प्रमाण पत्र विवाह के पक्षकारों को दे दिया जाता है तथा विवाह को विवाह अधिकारी अपने रजिस्टर में अंकित कर लेगा।इस रजिस्टर और इस प्रमाण पत्र पर तीन साक्षी होंगे उन तीन साक्षी की हस्ताक्षर होगी तथा यह विवाह इस प्रमाण पत्र के माध्यम से इस अधिनियम के अंतर्गत प्रमाणित हो जाएगा। 
             अन्य रूपों से अनुष्ठापित विवाह भी इस अधिनियम के अंतर्गत रजिस्टर हो सकते है इस अधिनियम के अंतर्गत केवल विशेष विवाहों को ही रजिस्ट्रीकृत नहीं किया जाता है अपितु ऐसे विवाहों को भी रजिस्टर कर कर दिया जाता है जो किसी अन्य रीति से हो गए हैं। पक्षकार चाहे तो वह अपना विवाह इस अधिनियम के अंतर्गत रजिस्टर करवा सकते हैं। इसके लिए एक आवेदन जिले के विवाह अधिकारी को देना होगा और जो नियत फीस तय की गई है उस फीस को जमा करना होगा।
            विवाह अधिकारी इस अधिनियम के अंतर्गत उन पक्षकारों को विवाह का प्रमाण पत्र प्रस्तुत कर देगा। यदि विवाह इस अधिनियम के अंतर्गत रजिस्टर हो गया तो उत्तराधिकार भी भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के अंतर्गत लागू होंगे, पर यदि हिंदू सिख बौद्ध जैन का विवाह हिंदू सिख बौद्ध जैन इत्यादि से होता है तो ऐसी परिस्थिति में उत्तराधिकार उनकी पर्सनल लॉ का ही लागू होगा पर तलाक और भरण पोषण की विधि विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत लागू होगी।
           कोई दो पक्षकारों का विवाह मुस्लिम विवाह की पद्धति से हुआ है और अगर वह पक्षकार इस अधिनियम के अंतर्गत अपने विवाह को रजिस्टर करवाना चाहते हैं तो यह अधिनियम उन्हें ऐसे विवाह के रजिस्ट्रीकरण के लिए आज्ञा देता है। विवाह विच्छेद एवं विवाह शून्यकरण एवं शून्य विवाह इस अधिनियम के अंतर्गत यदि कोई विवाह प्रमाणित करवाया गया है तो ऐसे विवाह का शून्यकरण, ऐसे विवाह को शून्य घोषित किया जाना तथा इस विवाह के पक्षकारों को विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त किए जाने की अर्जी जिला न्यायालय में इस अधिनियम के अंतर्गत ही दी जाएगी। 
          यदि विवाह इस अधिनियम के अंतर्गत हो रहा है तो तलाक भी इस अधिनियम के अंतर्गत ही होगा। इस अधिनियम के अंतर्गत तलाक लेने की प्रक्रिया अधिनियम की धारा 24 से लेकर 30 तक दी गई है। इन धाराओं में किन प्रक्रियाओं से तलाक लिया जाएगा और किन प्रक्रियाओं के अंतर्गत किसी विवाह को शून्य घोषित करवाया जा सकेगा। 
          विवाह विच्छेद की डिक्री जिला न्यायालय द्वारा प्रदान की जाएगी या फिर विवाह को शून्य घोषित करना, जिला न्यायालय द्वारा किया जाएगा।शून्यकरण की डिक्री जिला न्यायालय द्वारा ही दी जाएगी।अब भले आपसी सहमति से तलाक की डिक्री क्यों नहीं हो। विवाह के प्रमाण पत्र से 1 वर्ष के भीतर तलाक नहीं लिया जा सकता कोई भी पक्षकार विवाह की दिनांक से 1 वर्ष के भीतर इस अधिनियम के अंतर्गत विवाह विच्छेद के लिए कोई ऐसी अर्जी जिला न्यायालय में नहीं दे सकेगा। एक वर्ष के बाद ही विवाह विच्छेद के लिए कोई अर्जी जिला न्यायालय में दी जा सकेगी, परंतु यदि संकट अधिक है और तलाक नितांत जरूरी है तो ऐसी परिस्थिति में यदि जिला न्यायाधीश को यह संतोष हो जाए की अर्ज़ी स्वीकार करना अत्यंत आवश्यक है तो ही अर्ज़ी को स्वीकार किया जाएगा। तलाक की अर्जी किस जिले में दी जाएगी पक्षकार तलाक की अर्जी निम्न चार जगहों पर प्रस्तुत कर सकते है।
          जिले में जहां विवाह अनुष्ठापित किया गया है, विवाह का प्रमाण पत्र जिस जिले के विवाह अधिकारी से प्राप्त किया गया है,उस जिले के जिला न्यायालय में तलाक की अर्जी लगाई जा सकती है। जिस जिले में पक्षकार अंतिम समय रहे थे उस जिले में भी तलाक की अर्जी लगाई जा सकती जिस जिले मैं प्रत्यार्थी रह रहा है उस जिले में भी तलाक की अर्जी लगाई जा सकती है। 
         यदि तलाक की अर्जी स्त्री द्वारा लगाई जा रही है तो वहां अर्जी लगाते समय जिस जिले में रह रही है उस जिले में अर्जी लगा सकती है। यदि कोई दो मुस्लिम आपस में विवाह करते हैं और विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत अपने विवाह को रजिस्टर करवाते हैं तो ऐसी परिस्थिति में उन दोनों पर मुस्लिम विवाह के बाद मुस्लिम उत्तराधिकार, तलाक, भरण पोषण के नियम नहीं बल्कि विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत बताया गया भरण-पोषण और तलाक की विधि लागू होगी। 
       यदि व्यक्ति पर्सनल लॉ के किन्हीं नियमों से संतुष्ट नहीं है तो वह विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत भी अपना विवाह रजिस्टर करवा सकता है।

Wednesday, February 19, 2020

घरेलू हिंसा कानून पर सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख फैसले

 घरेलू हिंसा कानून पर सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख फैसले 

 28 Nov 2019 7:22 PM


           महिलाओं की सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005, 26 अक्टूबर 2006 को लागू किया गया था। अधिनियम का उद्देश्य "परिवार के भीतर किसी भी तरह की हिंसा की शिकार महिलाओं को संविधान के तहत प्रत्याभूत अधिकारों को अधिक प्रभावी संरक्षण प्रदान करना" है। 
        अशोक कीनी महिलाओं की सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005, 26 अक्टूबर 2006 को लागू किया गया था। अधिनियम का उद्देश्य "परिवार के भीतर किसी भी तरह की हिंसा की शिकार महिलाओं को संविधान के तहत प्रत्याभूत अधिकारों को अधिक प्रभावी संरक्षण प्रदान करना" है।           
       सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून के क्रियान्वयन में कुछ महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किए हैं और व्याख्याएं दी हैं। इस आलेख में इस अधिनियम के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के लगभग सभी फैसलों को शामिल किया गया है। साझा घरेलू और वैकल्पिक आवास [एसआर बत्रा बनाम तरुणा बत्रा (2006)] घरेलू हिंसा अधिनियम के लागू होने के लगभग दो महीने बाद, सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में अधिनियम के कुछ प्रावधानों की व्याख्या की थी। इस मामले में, अदालत ने पत्नी की ओर से से दिए निवेदन का निस्तारण किया था कि साझा घर की परिभाषा में एक ऐसा घर शामिल है, जहां पीड़ित व्यक्ति रहता हो अथवा जीवन की किसी अवस्था में घरेलू रिश्तों में रह चुका हो। अदालत ने धारा 17 (1), धारा 2 (एस) का हवाला देते हुए कहा कि पत्नी केवल साझा घर में निवास के अधिकार का दावा करने की हकदार है और एक `साझा घर 'का मतलब केवल उस घर से है या लिया जाता है जो पति द्वारा किराए पर लिया गया हो या उसी का हो, या वह घर जो संयुक्त परिवार से संबंधित हों, जिसमें पति भी एक सदस्य हो। इसके अलावा, धारा 19 (1) (एफ) की व्याख्या करते हुए, जस्टिस एसबी सिन्हा और जस्‍टिस मार्कंडेय काटजू की बेंच ने कहा कि           वैकल्पिक आवास के लिए केवल पति के खिलाफ ही दावा सकता है, न कि पति के ससुराल वालों या अन्य रिश्तेदारों के खिलाफ। इस मामले के तथ्यों में माना गया है कि        पत्नी अपनी सास की संप‌त्त‌ि में आवास के अधिकार का दावा नहीं कर सकती है। 
           'विवाह की प्रकृति के संबंध' की आवश्यकताएं [डीवेलुसामी बनाम डी पच्चीमाला (2010)] इस मामले में अदालत ने कहा कि अधिनियम की धारा 2 (एफ) में 'घरेलू संबंध' की परिभाषा में न केवल विवाह के संबंध, बल्कि 'विवाह की प्रकृति' के संबंध भी शामिल हैं।'विवाह की प्रकृति के संबंध' को घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत परिभाषित नहीं किया गया है, बेंच ने इसका अर्थ समझाया है। जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस टीएस ठाकुर की पीठ ने कहा कि सभी लिव-इन रिश्‍ते 'विवाह की प्रकृति के संबंध' नहीं होंगे, उन्हें नीचे दी गई आवश्यकताओं (सामान्य कानून विवाह की आवश्यकताओं) को पूरा करना होगा और इसके अलावा दोनों पक्षों को एक साथ 'साझा घर' में रहना चाहिए। 
   1-जोड़े को खुद को समाज में जीवनसाथी के रूप में पेश करना चा‌हिए।   
   2-उन्हें शादी करने की कानूनी उम्र का होना चाहिए 
   3-उन्हें अविवाहित होने सहित अन्य प्रकार से कानूनी विवाह में प्रवेश करने योग्य होना चाहिए।
   4 -उन्होंने स्वेच्छा से सहवास किया और पर्याप्त अवधि के लिए जीवनसाथी के रूप में खुद को दुनिया के         
       समक्ष  पेश किया हो।
  5-आगे कहा गया था कि केवल वीकेंड एक साथ बिताना या वन नाइट स्टैंट 'घरेलू संबंध' की श्रेणी में नहीं आ पाएगा। 
         अगर किसी व्यक्ति के पास एक 'रखैल' होती है, जिसे वह वित्तीय रूप से भरण-पोषण देता है और मुख्य रूप से यौन उद्देश्य के लिए प्रयोग करना है और/या एक नौकर के रूप में उपयोग करता है, तो ये संबंध शादी की प्रकृति में संबंध नहीं गिने जाएंगे।'
      महिला रिश्तेदारों के खिलाफ शिकायत दर्ज की जा सकती है [संध्या मनोज वानखड़े बनाम मनोज भीमराव वानखड़े (2011)] अधिनियम की धारा 2 (q) में वाक्यांश "प्रतिवादी" की व्याख्या करते हुए अदालत ने कहा कि पति या पुरुष साथी की महिला रिश्तेदारों को शिकायत के दायरे से बाहर नहीं रखा गया है। यह माना गया था कि विवाह की प्रकृति के रिश्ते में रहने वाली एक पीड़ित पत्नी या महिला, पति या पुरुष साथी के किसी रिश्तेदार के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकती है। जस्टिस अल्तमस कबीर और स‌ीरियाक जोसेफ की पीठ ने कहा था: "उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट है कि यद्यपि धारा 2 (q) प्रतिवादी को किसी भी वयस्क पुरुष के रूप में परिभाषित करती है, जो कि पीड़ित व्यक्ति के साथ घरेलू संबंध में है या रह चुका है, ये शर्त पति या पुरुष साथी के रिश्तेदार को श‌िकायत के दायरे में शामिल कर, जो विवाह की प्रकृति के रिश्ते में रहने वाली पीड़‌ित पत्नी या महिला ने दर्ज कराई है, उक्त परिभाषा के दायरे को बड़ा करती है। 
        "यह सच है कि शब्द " महिला " धारा 2 (q) की शर्त में इस्तेमाल भी नहीं किया गया है, लेकिन दूसरी ओर, यदि विधानमंडल का इरादा महिलाओं को शिकायत के दायरे से बाहर करने का है, जो एक पीड़ित पत्नी द्वारा दायर किया जा सकता है, तो महिलाओं को विशेष रूप से बाहर रखा जाएगा, इसके बजाय शर्त में यह दिया जा रहा है कि पति या पुरुष साथी के किसी रिश्तेदार के खिलाफ भी शिकायत दर्ज की जा सकती है। "रिश्तेदार" शब्द के लिए कोई प्रतिबंधात्मक अर्थ नहीं दिया गया है, न ही उक्त शब्द को घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 में केवल पुरुषों तक सीमित करने के लिए परिभाषित किया गया है...ऐसी परिस्थितियों में, यह स्पष्ट है कि घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के प्रावधानों के तहत की जा सकने वाली शिकायत के दायरे से पति या पुरुष साथी की महिला रिश्तेदारों को बाहर करने का विधायिका का इरादा कभी नहीं था।"
          हिंसा अधिनियम लागू होने से पहले पार्टियों का संचालन [वीडी भनोट बनाम सविता भनोट (2012)] इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा कि घरेलू हिंसा अधिनियम के लागू होने से पहले से भी पक्षों के आचरण को धारा 18, 19 और 20 के तहत आदेश पारित करते समय ध्यान में रखा जा सकता है। यहां तक कि अगर एक पत्नी, जो अतीत में एक ही घर में रह चुकी है, अब साथ नहीं रहती, जब अधिनियम लागू हुआ, तब वह अधिनियम के संरक्षण की हकदार होगी। मामले में फैसला देने वाली बेंच में जस्टिस अल्तमस कबीर और जस्टिस जे चेलमेश्वर शामिल थे।
            जानें कि लिव इन रिलेशनशिप विवाह की प्रकृति का है [इंद्र सरमा बनाम वीकेवी सरमा (2013)] क्या "लिव-इन रिलेशनशिप" डीवी अधिनियम की धारा 2 (एफ) के तहत "घरेलू संबंध" की परिभाषा के तहत "विवाह की प्रकृति के संबंध" जैसा होगा और ऐसे संबंध में शामिल महिला के रखरखाव में विफल रहने पर संबध विच्छेद हाने को डीवी अधिनियम की धारा 3 के अर्थ में "घरेलू हिंसा" की श्रेणी में रखा जाएगा? सुप्रीम कोर्ट ने उक्त मामले में इसी मुद्दे पर विचार किया था। जस्टिस केएस राधाकृष्णन और ज‌स्ट‌िस प‌िनाकी चन्द्र घोष की बेंच ने इस मसले पर विस्तृत चर्चा के बाद, किन परिस्थितियों में लिव-इन रिलेशनशिप "विवाह की प्रकृति में संबंध" के अंतर्गत आएगा, के परीक्षण के लिए दिशानिर्देश तय किए। -संबंध की अवधि- डीवी अधिनियम की धारा 2 (एफ) ने "किसी भी समय" वाक्यांश का उपयोग किया है, जिसका अर्थ है एक संबंध को बनाए रखने और जारी रखने के लिए समय की उचित अवधि जो अलग-अलग मामले में भिन्न हो सकती है, जो हालात पर निर्भर है -साझा घर- इसे डीवी एक्ट की धारा 2 (एस) के तहत परिभाषित किया गया है और इसलिए, आगे विस्तार की आवश्यकता नहीं है। -संसाधनों और वित्तीय व्यवस्थाओं की पूलिंग- एक दूसरे का सहयोग करना, या उनमें से किसी एक का, वित्तीय रूप से, बैंक खातों को साझा करना, दोनों के नाम या महिला के नाम पर अचल संपत्तियों को अर्जित करना, व्यापार में दीर्घकालिक निवेश, अलग और संयुक्त नामों में शेयर ताकि लंबे समय तक संबंध बना रहे, ये सभी कारक हो सकते हैं। -घरेलू व्यवस्था- जिम्मेदारी सौंपना, विशेष रूप से लिए महिला को घर चालाने की, घर की सफाई, खाना बनाना, घर की देखरेख या रख-रखाव जैसी गतिविधियां करना आदि, विवाह की प्रकृति के संबंध का संकेत हैं। -यौन संबंध- विवाह जैसे संबंध यौन संबंध को संद‌र्भित करते हैं, नकि केवल आनंद के लिए, बल्‍कि भावनात्मक और अंतरंग संबंध के लिए, बच्चों के जन्म के लिए, ताकि भावनात्मक सहयोग, सहवास, भौतिक स्नेह, देखभाल आदि हो सके। -बच्चे- बच्चे पैदा करना शादी की प्रकृति के रिश्ते का एक मजबूत संकेत है। इसलिए, पक्ष ‌दीर्घजीवी संबंध बनाने का इरादा रखते हैं। बच्‍चों के पालनपोषण के लिए की जिम्‍मेदारी साझा करना और उनका सहयोग करना भी एक मजबूत संकेत है। सार्वजनिक स्तर पर सामाजीकरण- सार्वजनिक स्तर पति-पत्नी के रूप में पेश आना, दोस्तों, संबंध‌ियों और अन्य लोगों के साथ ऐसे उठना-बैठना, जैसे कि वे पति-पत्नी हैं, ऐसे विवाह की प्रकृति के संबंध रखना एक मजबूत परि‌‌स्थिति है। पक्षों का इरादा और आचरण- पार्टियों का सामान्य इरादा कि उनका रिश्ता क्या है और इसमें शामिल होना है, और उनकी संबंधित भूमिकाएं और जिम्मेदारियों के रूप, मुख्य रूप से उस रिश्ते की प्रकृति को निर्धारित करते हैं। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें शिकायत में सभी को प्रतिवादी बनाने की पदावनत प्रवृत्ति [आशीष दीक्षित बनाम यूपी राज्य (2013)] इस मामले में, पीड़ित पत्नी ने अपने पति और उसके सास-ससुर सहित पर‌िवार के सभी सदस्यों को डीवी एक्ट के तहत दायर शिकायत में प्रतिवादी बनाया था। जस्टिस एचएल दत्तू और चंद्रमौली कुमार प्रसाद ने पति और माता-पिता को छोड़कर सभी प्रतिवादियों के खिलाफ शिकायत को खारिज कर दिया। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें
             कोर्ट को डीवी एक्ट के तहत पार‌ित रखरखाव आदेश में हस्तक्षेप करने वाले अंतरिम आदेशों को पारित करने में धीमा होना चाहिए [शालू ओझा बनाम प्रशांत ओझा (2014)] इस मामले में, मजिस्ट्रेट ने पति को प्रति माह दो लाख के रुपए रखरखाव का भुगतान करने का आदेश दिया। पति ने सत्र न्यायालय के समक्ष आदेश का प्रतिवाद किया, जिसने अंततः अपील को खारिज कर दिया क्योंकि उसने सशर्त आदेश का पालन नहीं किया था। मामले में रखरखाव देने के आदेश में उच्च न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप किया गया, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उस पर प्रतिवाद किया गया। ज‌‌स्टिस चेलमेश्वर और ज‌‌स्टिस एके सीकरी की सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए बने कानून के तहत उत्पन्न मामले में, उच्च न्यायालय को ऐसे आदेश, जिसके द्वारा अपीलकर्ता को रखरखाव प्रदान किया जाता है, में हस्तक्षेप करने के लिए, अंतरिम आदेश देने में धीमी गति से दखल देना चाहिए, जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें 
            न्यायिक विच्छेद के बाद भी पत्नी ' पीड़ित व्यक्ति' हो सकती है [कृष्णा भट्टाचार्जी बनाम सारथी चौधरी (2015)] यह कहा गया कि केवल इसलिए कि न्यायिक विच्छेद का आदेश पारित किया चुका है, पत्नी का घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत 'पीड़ित व्यक्ति' का दर्जा खत्म नहीं हो जाता है। जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस प्रफुल्ल सी पंत की पीठ ने कहा कि एक बार तलाक का आदेश पारित हो जाने के बाद, पार्टियों की स्थिति अलग हो जाती है, लेकिन न्यायिक विच्छेद के आदेश में ऐसा नहीं है। अदालत कहा कि निचली अदालत में के आदेश में कहा गया है‌ कि चूंकि दोंनों पक्षों को न्यायिक विच्छेद हो चुका है, इसलिए पत्नी को "पीड़ित व्यक्ति" का दर्जा नहीं दिया जा सकता,, स्वीकार किए जा ने योग्य नहीं है। जजमेंट को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें
             न्यायालय घरेलू हिंसा की शिकायतों के संशोधन की अनुमति देने में असमर्थ नहीं है [कुनापारेड्डी @ नुक्कला शंका बालाजी बनाम कुनपारेड्डी स्वर्ण कुमारी (2016)] इस मामले में, न्यायालय ने माना कि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के तहत दायर शिकायतों या याचिकाओं के संशोधन की अनुमति दी जा सकती है। यदि शिकायत/आवेदन आदि को संशोधित करने की शक्ति पूर्वोक्त प्रावधान में नहीं पढ़ी जाती है, तो वो उद्देश्य अधिनियम स्वयं जिसकी सेवा का प्रयास करता है, वो कई मामलों में पराजित हो सकता है। जस्टिस एके सीकरी और जस्टिस आरके अग्रवाल की बेंच ने ये फैसला दिया। जजमेंट को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें
         असफल तलाक की कार्यवाही डीवी एक्ट के तहत दायर आवेदन की रखरखाव को प्रतिकूल तरीके से प्रभावित नहीं कर सकती है [राकेश नागरदास दुबल शाहा बनाम मीना प्रकाश दुबल शाहा (2016)] सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में कहा कि, असफल तलाक की कार्यवाही, अधिनियम के तहत प्रतियोगी प्रतिवादियों द्वारा दायर आवेदन की स्थिरता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित नहीं कर सकती है। सत्र न्यायालय ने मामले में इस आधार पर आवेदन को बरकरार नहीं रखा था कि चूंकि पति पत्नी ने पहले से ही तलाक की कार्यवाही शुरू की थी, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम बाद में लागू हुआ। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति शिवा कीर्ति सिंह की पीठ ने उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा, जिसने सत्र न्यायालय के आदेश को अलग रखा था। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें 
           डीवी एक्ट के तहत नाबालिगों, महिलाओं के लिए राहत नहीं मांगी जा सकती है [हीरालाल पी हरसोरा बनाम कुसुम नरोत्तमदास हरसोरा (2016)] सुप्रीम कोर्ट ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 2 (क्यू) में "व्यक्ति" शब्द से पहले "वयस्क पुरुष" शब्द को समाप्त कर दिय, जिसमें कहा गया था कि ये शब्द समान रूप से स्थित व्यक्तियों के बीच भेदभाव करते हैं, और अधिनियम द्वारा अपेक्षित उद्देश्यों के विपरीत हैं। जस्टिस कुरियन जोसेफ और जस्टिस आरएफ नरीमन की बेंच ने कहा कि अगर "प्रतिवादी" को केवल एक वयस्क पुरुष व्यक्ति के रूप में पढ़ा जाना है तो यह स्पष्ट है कि जो महिलाएं पीड़ित व्यक्ति को अलग करती हैं या घर से बाहर निकालती हैं, वे इसके दायरे में नहीं आती हैं, और यदि है तो अधिनियम के उद्देश्‍य को एक वयस्क पुरुष व्यक्ति द्वारा खुद सामने ने आकर किसी महिला को समाने करके प‌ीड़‌ित व्यक्ति को घर से बाहर किया जा सकता है या अलग किया जा सकता है और इस प्रकार अधिनियम के उद्देश्यों का आसानी से हराया जा सकता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि यह भी संभव है कि एक गैर-वयस्क 16 या 17 वर्ष की आयु का सदस्य, घरेलू हिंसा के कृत्यों सहायता या पालन कर सकता है या जो पीड़ित को साझा घर से बाहर निकालने या बेदखल करने मदद कर सकता है या कर सकता है। जजमेंट को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें 
           एक पक्ष को 'साझे घर' का कब्जा देने के लिए 'घरेलू आवश्यक है [मनमोहन अटावर बनाम नीलम मनमोहन अटावर (2017)] इस मामले में, यह देखा गया कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत एक पार्टी को एक घर पर कब्जा करने की अनुमति देने के ‌लिए एक आदेश जारी करने के लिए, यह आवश्यक है कि दोनों पक्षों में घरेलू संबंध में रहते हों। जस्टिस आरएफ नरीमन और जस्टिस संजय किशन कौल की खंडपीठ ने कहा कि डीवी एक्ट की धारा 2 (एफ) के तहत परिभाषित "घरेलू संबंध" दो व्यक्तियों को संदर्भित करता है जो एक "साझा घर" में एक साथ रहते हैं, जो डीवी एक्ट की धारा 2S के तहत परिभाषित है। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें 
           लाइव-इन पार्टनर घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों के तहत रखरखाव की मांग कर सकते हैं [ललिता टोप्पो बनाम झारखंड राज्य (2018)] इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक लिव-इन पार्टनर घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 से महिलाओं की सुरक्षा के प्रावधानों के तहत रखरखाव की मांग कर सकता है। तीन न्यायाधीशों की पीठ ने एक दो न्यायाधीश की पीठ के संदर्भ पर विचार करते हुए, जिसमें सीआरपीसी की धारा पर 125 के दायरे और लिव इन रिश्तों पर बात की गई थी। दो न्यायाधीशों की पीठ ने झारखंड उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ एक अपील पर विचार करते हुए इस मामले को रिफर किया था, उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 उस महिला को रखरखाव का अनुदान प्रदान नहीं करता है, जिसने कानूनी रूप से उस व्यक्ति के साथ शादी नहीं की, ‌जिससे रखरखाव की मांग की गई है। घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों का उल्लेख करते हुए, पीठ ने कहा कि अधिनियम याचिकाकर्ता द्वारा इस मामले में रखरखाव की मांग करने के लिए एक प्रभावशाली उपाय होगा, तब भी जबकि कि वह कानूनी रूप से पत्नी नहीं है और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत रखरखाव की हकदार नहीं हैं। यह भी कहा गया कि अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार आर्थिक दुरुपयोग भी घरेलू हिंसा में शामिल है। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें 
        देवर को डीवी एक्ट के तहत विधवा को रखरखाव का भुगतान करने का आदेश [अजय कुमार बनाम लता@ शारुती (2019)] इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने DV एक्‍ट के तहत पारित एक आदेश को, जिसमें एक विधवा को रखरखाव का भुगतान करने के लिए एक देवर को निर्देश दिया गया था, बरकरार रखा। महिला और उसका मृतक पति एक ऐसे घर में रहते थे, जो पैतृक हिंदू संयुक्त परिवार की संपत्ति की श्रेणी में आता था। मृतक पति और भाई संयुक्त रूप से एक किरयाना दुकान का व्यवसाय करते थे। महिला ने घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत एक शिकायत दर्ज की, जिसमें आरोप लगाया गया कि पति की मृत्यु के बाद उसे और उसके बच्चे को अपने वैवाहिक घर में नहीं रहने दिया गया। ट्रायल कोर्ट ने एक अंतरिम आदेश पारित किया जिसमें महिला को 4,000 रुपए और बच्चे को 2,000 रुपए मासिक की सहायता प्रदान की गई। देवर को उक्त राशि का भुगतान करने के लिए निर्देशित किया गया था। देवर की इस दलील को खारिज कर दिया गया कि उसके खिलाफ भरण-पोषण का आदेश पारित करने का कोई प्रावधान नहीं है। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस हेमंत गुप्ता की खंडपीठ ने कहा कि धारा 2 (क्यू) का मूल भाग यह दर्शाता है कि ''प्रतिवादी" का अर्थ किसी भी वयस्क पुरुष व्यक्ति से है, जो पीड़ित व्यक्ति के साथ घरेलू संबंध में है या रहा है और जिसके खिलाफ मदद मांगी गई है।" जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें 

Sunday, February 16, 2020

जानिये दंड न्यायालय के दंड देने की शक्तियां और पद


 जानिए दंड न्यायालय के दंड देने की शक्तियां और पद 

17Feb 2020 9:30

     किसी समय राजा ही विधि का निर्माण करता था तथा राजा ही व्यक्तियों को अभियोजित करता था। राजा ही न्यायाधीश का काम करता था। 
      लोकतांत्रिक व्यवस्था के आने के बाद न्याय के कार्य न्यायपालिका को प्राप्त हो गए तथा राज्य ने विधि के माध्यम से न्यायपालिका को दोषियों को दंड देने हेतु सशक्त किया। न्यायपालिका के भीतर अलग अलग दंड न्यायालय होते हैं तथा इन दंड न्यायालयों को शक्तियां दी गई हैं। यह लोगों के अपराध में विचारण कर सकते हैं तथा इन व्यक्तियों को उस विचारण के परिणामस्वरूप दंड भी दे सकते हैं। 
      दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 5 के अंतर्गत यह बताने का प्रयास किया गया है कि दंड देने की शक्ति किसी मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश को प्राप्त नहीं होती है अपितु शक्तियां न्यायालय को प्राप्त होती हैं तथा न्यायालय किसी व्यक्ति का विचारण करता है और उसे दंडादेश सुनाता है। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अंतर्गत न्यायालयों को शक्तियां दी गई हैं एवं अध्याय 3 में इसका उल्लेख किया गया है। इस लेख के माध्यम से हम न्यायालयों की कुछ शक्तियों को समझने का प्रयास करेंगे कौन से न्यायालय किसी अपराध का विचारण कर सकते हैं 
    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 26 के अंतर्गत न्यायालय का उल्लेख किया गया है जो किसी अपराध का विचारण करते हैं तथा भारत में किसी अपराध के संबंध में विचारण करने की शक्ति इन्हें प्राप्त है। यह अधिनियम की इस धारा के माध्यम से बताने का प्रयास किया गया है। इस धारा के अंतर्गत निम्न न्यायालयों को किसी भी अपराध में विचारण करने की शक्ति प्राप्त होंगी 
                    उच्च न्यायालय (हाईकोर्ट)          सत्र न्यायालय (सेशन कोर्ट)          वह न्यायालय जिसका उल्लेख      प्रथम अनुसूची में किया गया है 'बलात्कार के मामले में केवल स्त्री पीठासीन अधिकारी ही मामले का विचारण कर सकती है' यदि कोई विशेष विधि है और उस विशेष विधि के अंतर्गत किसी मामले का विचारण करने के लिए किसी न्यायालय को शक्तियां दी गई है तो उस विशेष न्यायालय द्वारा मामले का विचारण कर लिया जाएगा यदि उस विशेष विधि में यह उल्लेखित नहीं किया गया है कि किस न्यायालय द्वारा मामले का विचारण किया जाएगा तो ऐसी परिस्थिति में- उच्च न्यायालय ऐसा न्यायालय जिसका उल्लेख प्रथम अनुसूची में किया गया है। 

     दंड प्रक्रिया संहिता में प्रथम अनुसूची में भारतीय दंड संहिता के अपराधों का उल्लेख है तथा इस अनुसूची में कौन से अपराध     संज्ञेय      हैं और कौन से अपराध     असंज्ञेय    हैं, अपराध जमानती होंगे या अजमानतीय होंगे तथा कौन से न्यायालय द्वारा विचारण होगा, इसका उल्लेख किया गया है। 
      सुधीर बनाम मध्यप्रदेश राज्य एआईआर 2001 उच्चतम न्यायालय 825 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां एक ही घटना से संबंधित दो मामले हो जिनमें एक की सुनवाई की अधिकारिता सेशन कोर्ट को हो तथा दूसरे की मजिस्ट्रेट को तो ऐसी दशा में उन दोनों ही मामलों की सुनवाई सेशन कोर्ट द्वारा की जा सकती है तथा मजिस्ट्रेट द्वारा विचारण योग्य मामलों को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को अंतरित किया जाना आवश्यक नहीं है। इस धारा में कहीं भी विचारण के संबंध में उच्चतम न्यायालय का नाम नहीं आता है।
      किसी भी विचारण को उच्च न्यायालय नहीं करता। अपराधों का विचारण दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत केवल इन्हीं न्यायालय द्वारा किया जाता है। 
       किशोरों के मामले को सुनने की अधिकारिता किस न्यायालय की होगी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 27 के अंतर्गत यह उल्लेख किया गया है कि किशोरों के मामले में कौन से न्यायालयों को विचारण करने की अधिकारिता होगी। 
     जिस व्यक्ति को न्यायालय में हाजिर किया गया है, यदि उसकी आयु न्यायालय में हाजिर करते समय 16 वर्ष से कम है तो मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा या फिर किसी ऐसे न्यायालय द्वारा जिसे बाल अधिनियम 1960 और किशोर अपराधियों के उपचार प्रशिक्षण में पुनर्वास के लिए उपबंध करने वाली तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन विशेष रूप से सशक्त किया गया हो, वह मामले की सुनवाई करेगा। बालकों के मामले में पृथक से बाल न्यायालय होते हैं। अगर बाल न्यायालय नहीं हैं तो ऐसी परिस्थिति में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा बालकों का विचारण किया जाता है। इस धारा का उपयोग केवल तब किया जा सकता है जब न्यायालय में उपस्थित किए गए व्यक्ति की उम्र 16 वर्ष से कम होगी परंतु उनके द्वारा किया गया अपराध मृत्युदंड या आजीवन कारावास से दंडनीय नहीं होना चाहिए। ----रघुवीर बनाम हरियाणा राज्य एआईआर 1981 एस सी 2037 के मामले में सत्र न्यायालय द्वारा एक बाल अभियुक्त को तीन अन्य व्यक्तियों के साथ भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अधीन अभियोजित कर उसे उक्त अपराध के लिए सिद्धदोष किया गया। किंतु सुप्रीम कोर्ट ने संहिता की धारा 27 के अनुसरण में कथित अपराध के विचारण को रद्द करते हुए उक्त विचारण को हरियाणा बाल अधिनियम 1974 के अधीन किए जाने के निर्देश दिए। प्रताप सिंह बनाम झारखंड राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय निर्णय दिया कि जहां मजिस्ट्रेट को यह पता है कि अभियुक्त किशोर आयु का है अर्थात 18 साल से कम आयु का है, लड़का लड़की कुछ भी हो तो सबसे पहले अपराध की तारीख को अभियुक्त की निश्चित आयु क्या थी, इसका निर्धारण करना चाहिए। जन्म- मृत रजिस्टर में दर्ज तारीख,स्कूल रजिस्टर में लिखी तारीख विश्वसनीय आधार माना जाएगा। अभियुक्त को स्वयं को किशोर आयु का सिद्ध करने की भार नहीं होता है। अपितु मजिस्ट्रेट ही अभिनिर्धारित करता है कि अभियुक्त किशोर आयु का है या नहीं। 

          उच्च न्यायालय और सत्र न्यायालय क्या दंड दे सकते हैं यह सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि उच्च न्यायालय एवं सत्र न्यायालय क्या दंड दे सकेंगे और कितनी कितनी अवधि के दंड दिए जाने की शक्ति इन दोनों न्यायालयों को प्राप्त है। इस प्रश्न का उत्तर हमें दंड प्रक्रिया संहिता की-- धारा 28 में प्राप्त होता है, जहां यह बताया गया है कि उच्च न्यायालय एवं सत्र न्यायालय क्या दंड दे सकेंगे एवं दंड देने में इन दोनों न्यायालय को क्या शक्तियां प्राप्त है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 28 के अंतर्गत मुख्य तीन न्यायालयों का उल्लेख किया गया है जिनके द्वारा दंड दिया जाता है। उच्च न्यायालय उच्च न्यायालय विधि द्वारा प्राधिकृत कोई भी दंड दे सकता है जिस दंड को भारतीय दंड विधि में भारतीय संसद द्वारा पारित अधिनियम के माध्यम से अधिनियमित किया गया है। वह दंड उच्च न्यायालय द्वारा दिया जा सकता है।ऐसा दंड किसी भी प्रकार का हो सकता है। 
        दंड दिए जाने के संबंध में उच्च न्यायालय भारतीय दंड व्यवस्था की सर्वाधिक शक्तिशाली संस्था है, जो किसी भी भांति का दंड दे सकती है। प्रवृत विधि में जो भी दंडो का उल्लेख किया गया है वह दंड उच्च न्यायालय द्वारा दिए जा सकेंगे। सत्र न्यायाधीश द्वारा दिया जाने वाला दंड दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 28 के अंतर्गत सत्र न्यायालय का उल्लेख किया गया है। सत्र न्यायालय को कितने भागों में बांटा जा सकता है एवं कौन-कौन से न्यायालय सेशन न्यायालय कहलाएंगे एवं जिन के पीठासीन अधिकारी न्यायाधीश कहलाएंगे। 
      न्यायाधीशों को दंड देने की शक्ति कहां तक होगी। सत्र न्यायाधीश कोई भी सत्र न्यायाधीश का न्यायालय विधि द्वारा प्राधिकृत कोई भी दंडादेश दे सकता है,परन्तु सत्र न्यायालय द्वारा दिया जाने वाला मृत्युदंड उच्च न्यायालय द्वारा पुष्ट किए जाने की आवश्यकता होगी। 
     किसी भी सत्र न्यायाधीश द्वारा दिया गया मृत्युदंड उच्च न्यायालय द्वारा पुष्ट किया जाता है। जब उच्च न्यायालय किसी भी सिद्धदोष को दिए मृत्युदंड को पुष्ट कर देता है तो ही वह मृत्युदंड मान्यता रखता है। 
       अपर सत्र न्यायाधीश कोई भी अपर सत्र न्यायाधीश वह सभी दंड दे सकता है जो सत्र न्यायाधीश दे सकता है। सहायक सत्र न्यायधीश सहायक सत्र न्यायधीश मृत्यु दंड, आजीवन कारावास या 10 वर्ष से अधिक की कारावास की अवधि के सिवाय कोई भी दंडादेश दे सकता है। अर्थात सहायक सत्र न्यायाधीश मृत्युदंड आजीवन कारावास और 10 वर्ष के ऊपर का कारावास नहीं दे सकता है। उसे केवल किसी भी सिद्धदोष को 10 वर्ष तक कारावास दिए जाने की शक्ति प्राप्त है। 
       किसी भी मामले में न्यायाधीश कितना दंड देंगे, दंड की अवधि न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर होगी। उच्चतम न्यायालय ने मध्यप्रदेश राज्य बनाम घनश्याम सिंह के वाद में यह स्पष्ट किया है कि उस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए जिसके लिए किसी अभियुक्त को दंडित किया जाता है। 
       यह सर्वसाधारण नियम नहीं बनाया जा सकता कि विचारण में अत्यधिक विलंब के सभी मामलों में अभियुक्तों को न्यूनतम दंड से दंडित किया जाना उचित होगा। दूसरे शब्दों में या कहा जा सकता है कि विचारण का लंबे समय तक लंबित रहना स्वयमेव अभियुक्त को कम दंड दिए जाने का उचित कारण नहीं माना जाना चाहिए। 
      किसी भी न्यायालय द्वारा दंड की अवधि न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर करती है, परंतु ऐसा विवेक भी युक्तियुक्त होना चाहिए। 
      कोई भी अपराध में दंड अपराध की गंभीरता को देख कर दिया जाना चाहिए। कर्नाटक राज्य बनाम राजू के बाद में कुछ ऐसा ही मामला सामने आया था, जिसमें 10 वर्ष की बच्ची का बलात्कार करने वाले अभियुक्त को 7 वर्ष के कारावास से दंडित किया गया था, परंतु कर्नाटक उच्च न्यायालय की एकल पीठ में दंड को कम करके साढ़े 3 वर्ष का कर दिया था। उच्चतम न्यायालय ने इस निर्णय की भर्त्सना की थी तथा कम से कम 10 वर्ष तक का दंड इस अपराध में दिए जाने के संदर्भ में उल्लेख किया था। हालांकि बाद में बलात्कार जैसे अपराध में भारतीय दंड संहिता में संशोधन कर दिए गए तथा बलात्कार में मृत्युदंड तक का प्रावधान रख दिया गया है। 
     इस कड़ी में केवल उच्च न्यायालय एवं न्यायाधीशों की दंड देने की शक्ति का उल्लेख किया गया है। अगली कड़ी में मजिस्ट्रेट द्वारा दंड दिए जाने की शक्ति का उल्लेख किया जाएगा तथा दंड न्यायालय की अन्य शक्तियों के संबंध में भी चर्चा की जाएगी। T

पैन कार्ड,बैंक दस्तावे,भूमि राजस्व की रसीद से किसी व्यक्ति की नागरिकता साबित नहीं होती -गुवाहाटी हाई कोर्ट

पैन कार्ड, बैंक दस्तावेज़, भूमि राजस्व की रसीद से किसी व्यक्ति की नागरिकता साबित नहीं होती : गुवाहाटी हाईकोर्ट

17 Feb 2020 4:18 

गुवाहाटी हाईकोर्ट ने कहा है कि भूमि राजस्व (Land Revenue) के भुगतान की रसीद के आधार पर किसी व्यक्ति की नागरिकता साबित नहीं होती है। साथ ही, अपने पिछले फैसले के बाद, न्यायालय ने माना कि पैन कार्ड और बैंक दस्तावेज़ भी नागरिकता साबित नहीं करते हैं।

       न्यायमूर्ति मनोजीत भुयान और न्यायमूर्ति पार्थिवज्योति सैकिया की पीठ ने विदेशी ट्रिब्यूनल, बक्सा के आदेश के खिलाफ ज़ुबैदा बेगम द्वारा दायर रिट याचिका को खारिज करते हुए ये टिप्पणियां कीं। इस आदेश में ज़ुबैदा बेगम को 1971 के घटनाक्रम के परिपेक्ष्य में विदेशी घोषित किया गया था।

      पुलिस अधीक्षक (बी) के एक संदर्भ के आधार पर विदेशी ट्रिब्यूनल, बक्सा, तामुलपुर, असम ने याचिकाकर्ता को नोटिस जारी कर उसे भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए कहा था।

      ट्रिब्यूनल से पहले, उसने कहा कि उसके माता-पिता के नाम 1966 की वोटर लिस्ट में थे। उसने दावा किया कि उसके दादा-दादी के नाम भी 1966 की वोटर लिस्ट में दिखाई दिए थे। याचिकाकर्ता ने आगे कहा कि सन 1970 और सन 1997 की मतदाता सूची भी में भी उसके पिता का नाम था।

       ट्रिब्यूनल ने पाया कि याचिकाकर्ता अपने अनुमानित माता-पिता के साथ संबंध दिखाने वाला कोई भी दस्तावेज पेश नहीं कर सकी। हाईकोर्ट ने ट्रिब्यूनल के इन निष्कर्षों से सहमति व्यक्त की।

पैन कार्ड और बैंक दस्तावेजों पर याचिकाकर्ता की निर्भरता को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया और कहा,

      "भारत में यह मामला बाबुल इस्लाम बनाम भारत संघ [WP(C)/3547/2016] में पहले ही आयोजित किया जा चुका है कि पैन कार्ड और बैंक दस्तावेज़ नागरिकता का प्रमाण नहीं हैं।"इस फैसले में कहा गया था कि समर्थित साक्ष्य के अभाव में केवल एक मतदान फोटो पहचान पत्र प्रस्तुत करना नागरिकता का प्रमाण नहीं होगा।

मतदान फोटो पहचान पत्र नागरिकता का निर्णायक प्रमाण नहीं : गुवाहाटी हाईकोर्ट

       यह भी पाया गया कि याचिकाकर्ता अपने अनुमानित भाई के साथ संबंध दिखाते हुए दस्तावेज पेश नहीं कर सकी, जिसका नाम 2015 की मतदाता सूची में दिखाई दिया था। कोर्ट ने कहा कि गांव बूरा द्वारा जारी प्रमाण पत्र किसी व्यक्ति की नागरिकता का प्रमाण नहीं हो सकता।

पीठ ने कहा कि भूमि राजस्व के भुगतान प्राप्तियां (रसीद) किसी व्यक्ति की नागरिकता साबित नहीं करती हैं।

इन निष्कर्षों पर हाईकोर्ट ने रिट याचिका को खारिज कर दिया और कहा,

       "हम पाते हैं कि ट्रिब्यूनल ने इससे पहले रखे गए साक्ष्यों की सही ढंग से सराहना की है और हम ट्रिब्यूनल के निर्णय में व्यापकता देख सकते हैं। यही स्थिति होने के नाते, हम इस बात को दोहराएंगे कि याचिकाकर्ता अपने अनुमानित माता-पिता और उसके अनुमानित भाई के साथ संबंध को साबित करने में विफल रही, इसलिए, हम पाते हैं कि यह रिट याचिका योग्यता रहित है और उसी के अनुसार, हम इसे खारिज करते हैं।"

सीपीसी जानिये एक पक्षीय डिक्री और उसे अपास्त किये जाने के आधार

 सीपीसी : जानिए एकपक्षीय डिक्री और उसे अपास्त किए जाने के आधार 

 16 Feb 2020 

         सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के अंतर्गत जब पक्षकारों को समन किया जाता है तो आदेश 9 के अंतर्गत पक्षकारों की उपस्थिति या अनुपस्थिति के परिणाम दिए गए है। इन परिणामों में से एक परिणाम एकपक्षीय आदेश या डिक्री होता है। एकपक्षीय आज्ञप्ति का अर्थ बुलाए गए पक्षकारों द्वारा अदालत में उपस्थित नहीं होने के कारण किसी एक पक्षकार को सुना जाना तथा जो पक्षकार अदालत में उपस्थित न होकर अपने लिखित अभिकथन नहीं करता है उस पक्षकार को वाद से एकपक्षीय कर दिया जाता है। 
       जो पक्षकार न्यायालय में वाद लेकर आता है केवल उसी के तर्क को सुनकर केवल उसी के साक्षियों को सुनकर न्यायालय द्वारा एक पक्षीय आदेश या आज्ञप्ति पारित कर दी जाती है। हालांकि एकपक्षीय आज्ञप्ति नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध है, क्योंकि इस एकपक्षीय आज्ञप्ति या निर्णय में केवल एक ही पक्षकार को सुना जाता है, जिस प्रकार के विरुद्ध आदेश हैं, निर्णय पारित किया जाता है उस पक्षकार को सुना नहीं जाता है। उसकी अनुपस्थिति में एकपक्षीय आज्ञप्ति पारित कर दी जाती है। एकपक्षीय आज्ञप्ति उसी स्थिति में पारित की जाती है जिस स्थिति में पक्षकार समन द्वारा सूचना प्राप्त होने पर भी न्यायालय में उपस्थित होकर लिखित अभिकथन नहीं करता है। बाद में आगे की कार्यवाही में भाग नहीं लेता है तथा विचारण का भागीदार नहीं बनता है। इस परिस्थिति में पक्षकार वाद से बचने का प्रयास करता है।
          दीवानी प्रकरण में एकपक्षीय आज्ञप्ति दिया जाना भी एक आवश्यक कार्य है, क्योंकि पक्षकार मुकदमों से बचते है तथा जिन पक्षकारों के अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है एवं पक्षकारों को व्यथित किया गया है वह पक्षकार जो किसी व्यक्ति विशेष के कार्यों द्वारा आहत हैं। ये लोग ऐसी अनुपस्थित रहने वाले पक्षकार के कारण न्यायालय में उपस्थित होकर न्याय प्राप्त नहीं कर पाते हैं। 
         न्याय के सिद्धांतों को गतिशील बनाने हेतु एक एकपक्षीय आज्ञप्ति दी जाती है तथा यह न्यायालय की विशेष शक्ति है। जहां समन सम्यक रूप से तामील किया गया हो और प्रतिवादी उपस्थित नहीं हों, वहां न्यायालय एकपक्षीय अग्रसर हो सकेगा। एकपक्षीय आज्ञप्ति पारित कर सकेगा, इसी प्रकार यदि प्रतिवादी समन प्राप्ति के हस्ताक्षर करने से इंकार कर दे तथा रजिस्ट्रीकरण पत्र को भी लेने से मना कर दे तब ऐसे प्रतिवादी के विरुद्ध एकपक्षीय कार्रवाई की जा सकेगी। 
       एकपक्षीय आज्ञप्ति अपास्त किया जाना सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 9 नियम 7 व 13 में एकपक्षीय आज्ञप्ति आदेशों को अपास्त किए जाने के बारे में प्रावधान किया गया है। यदि सुनवाई एकपक्षीय स्थगित कर दी गई हो तो प्रतिवादी उपसंजात हो सकेगा और उपसंजाति के लिए हेतु संरक्षित कर सकेगा। न्यायालय खर्च दिलवाकर या अन्यथा सुने जाने और लिखित कथन संस्थित किए जाने का आदेश दे सकेगा। अगर सुनवाई पूरी गई हो और वाद को निर्णय के लिए रखा गया हो तो ऐसी परिस्थिति में आदेश 9 के नियम 7 के अंतर्गत एकपक्षीय आदेश को अपास्त नहीं किया जाना चाहिए। 
        यह सुनील कुमार बनाम प्रवीणचंद्र के मामले में 2008 राजस्थान 179 में कहा गया है। जहां ऐसा प्रतिवादी जिसके विरुद्ध एकपक्षीय आज्ञप्ति पारित की गई है। न्यायालय का समाधान कर देता है कि- समन सम्यक रूप से तामील नहीं हुआ था। उसके उपस्थित नहीं होने का कोई पर्याप्त कारण है, वह ऐसे एकपक्षीय एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त किए जाने के लिए आवेदन कर सकेगा और न्यायालय ऐसे आवेदन पर खर्च देखकर या अन्यथा शर्त पर एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त करने का आदेश दे सकेगा। 
       वीके इंडस्ट्रीज बनाम मध्य प्रदेश इलेक्ट्रॉनिक बोर्ड के मामले में यह उल्लेख किया गया है कि एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त किए जाने के लिए जो शर्तें निर्धारित की जाएगी। उन शर्तों को युक्तियुक्त होना चाहिए। कोई भी ऐसी शर्त जो युक्तियुक्त नहीं है उसे आज्ञप्ति अपास्त किए जाने के लिए न्यायालय द्वारा शर्तों में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। कोई भी एकपक्षीय आज्ञप्ति केवल इस आधार पर की समन की तामील में अनियमितता की गई थी अपास्त नहीं की जा सकेगी। समन की तामील में अनियमितता के साथ पक्षकार के पास कोई पर्याप्त युक्तियुक्त हेतु भी होना चाहिए,जिसके कारण वह न्यायालय में उपस्थित नहीं हो सका।
         किशोर कुमार अग्रवाल बनाम वासुदेव प्रसाद गुटगुटिया एआईआर 1977 पटना 131 के मामले में यह कहा गया है कि यहां कोई मामला एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय को अंतरित कर दिया गया हो, लेकिन उसकी सूचना पक्षकारों को नहीं दी गई हो वहां किसी पक्षकार के विरुद्ध पारित एकपक्षीय आज्ञप्ति अपास्त किए जाने योग्य होगी।
        एवी चार्ज बनाम एस एम आर ट्रेडर्स और अन्य ए आई आर 1980 केरल 100 के प्रकरण में यह कहा गया है कि जहां कोई तिथि प्रतिवादी के साक्ष्य के लिए नियत हो वह प्रतिवादी नियत तिथि को बीमारी के कारण उपस्थित नहीं हुआ हो एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त कराने वाद की पुनर्स्थापना के लिए प्रस्तुत आवेदन संधारण योग्य होगा।
       एक अन्य मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा बीमारी को भी युक्तियुक्त बीमारी माना गया है। पक्षकार किसी ऐसी बीमारी से पीड़ित हो जिस बीमारी के कारण वह न्यायालय तक आ पाने में असमर्थ हो तो ही इस कारण से डिक्री को अपास्त किए जाने हेतु आवेदन किया जा सकता है। 
      मैसर्स प्रेस्टिज लाइट्स लिमिटेड स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि किसी एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त कराने हेतु प्रस्तुत आवेदन पत्र को इस आधार पर खारिज नहीं किया जाना चाहिए कि निर्णीत ऋणी द्वारा विषय से संबंधित कोई पूर्व निर्णय पेश नहीं किया गया। न्यायालय के लिए भी विधि की अज्ञानता क्षम्य (माफी योग्य) नहीं है। 
      समय-समय पर भारत के उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय में एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त किए जाने हेतु आने वाले वादों में कुछ पर्याप्त और अपर्याप्त कारणों का वर्गीकरण किया गया है। सुनवाई की तिथि के संबंध में सद्भावनापूर्ण भूल। गाड़ी का विलंब से पहुंचना। अधिवक्ता का बीमार हो जाना। विरोधी पक्षकार का कपाट। डायरी में सुनवाई की तारीख गलत अंकित कर दी जाना। वाद मित्र अथवा संरक्षक की लापरवाही। पक्षकार के संबंधी की मृत्यु हो जाना। पक्षकार का कारवासित हो जाना। विरोधी पक्षकार द्वारा निदेश नहीं मिलना।
         सिविल प्रक्रिया संहिता अंतर्गत कोई भी डिक्री किसी भी आवेदन पर तब तक अपास्त नहीं की जाएगी जब तक वाद के विरोधी पक्षकार को उसकी सूचना नहीं दी जाती। वाद के विरोधी पक्षकार को सूचना देने के उपरांत ही एकपक्षीय डिक्री को अपास्त किया जा सकेगा। अनुपस्थिति के कारणों की पर्याप्तता का प्रश्न है या प्रत्येक मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। 
       चक्रधर चौधरी बना पदमालवदास के मामले में हाई ब्लड प्रेशर को अनुपस्थिति का पर्याप्त कारण माना है। यदि कोई पक्षकार हाई ब्लड प्रेशर से पीड़ित है तो इस आधार पर एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त किया जा सकता है । 
       दिल्ली विकास प्राधिकरण बनाम शांति देवी एआरआई 1982 दिल्ली 159 का मामला है। इस मामले में अधिवक्ता न्यायालय में दिए गए समय से लेट पहुंचे। उन्होंने इसके लिए न्यायालय में एक शपथ पत्र भी पेश किया था। जब न्यायालय में पहुंचे तो उन्हें मालूम हुआ कि न्यायालय द्वारा मामले में एकपक्षीय कार्यवाही करने का आदेश दिया जा चुका है। 
       जब अधिवक्ता द्वारा मामले में एकपक्षीय आदेश को अपास्त किए जाने का आवेदन दिया गया तो इसे पर्याप्त कारण माना गया तथा एकपक्षीय आदेश को अपास्त कर दिया गया। मधुबाला बनाम श्रीमती पुष्पा देवी के मामले में ऐसी एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त करने के आवेदन को ग्राह्य माना गया है जो- विवाह को शून्य एवं अकृत घोषित कराने से संबंधित थी। पति द्वारा कपट के अधीन प्राप्त की गई थी। पत्नी द्वारा एकपक्षीय आज्ञप्ति की जानकारी होने की तारीख से 1 माह के भीतर अपास्त करने हेतु आवेदन कर दिया गया था। 
       विश्वनाथ सिंह बनाम गोपाल कृष्ण सिंघल का मामला है। इस मामले में प्रतिवादी की बीमारी को अपास्त का एक अच्छा आधार माना गया।खासतौर से वहां जहां वादी ने इसका खंडन नहीं किया हो। आलोक साबू बनाम स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया गया है कि एकपक्षीय आदेश को अपास्त करने के लिए ऋण वसूली अधिकरण द्वारा एक पूर्वोक्त शर्त के तौर पर खर्चा अधिकृत किया जा सकता है लेकिन एक करोड़ रुपए जमा कराने जैसी कठोर शर्त नहीं लगा सकता। 
      सैयद हसनल्लाह अन्य बनाम अहमद बेग अन्य का मामला एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त करने के लिए निम्नांकित पर्याप्त आधार माना गया है- समन का अंग्रेजी में जारी किया जाना जबकि प्रतिवादी अंग्रेजी नहीं जानता हो। निर्णय का आर्डर शीट पर ही लिखा जाना।अर्थात निर्णय पृथक से विस्तृत नहीं लिखा गया था। 
      एकपक्षीय आज्ञप्ति के आदेश के विरुद्ध उपचार- प्रतिवादी द्वारा अपील धारा 96(2) के अंतर्गत पुनर्विलोकन धारा 114 आदेश 47 के अंतर्गत आवेदन आदेश 9 के नियम 13 के अंतर्गत एकपक्षीय आज्ञप्ति पारित करने वाले न्यायालय में आज्ञप्ति पारित होने की तिथि से या समन शामिल होने की अवस्था में उस दिनांक से जबकि आवेदक को आज्ञप्ति का ज्ञान हुआ 30 दिन के अंदर प्रतिवादी द्वारा आवेदन किया जाना चाहिए।