Wednesday, February 12, 2020

तथ्य सम्बन्धी सवाल खडे होने एन आई एक्ट की धारा 138 के तहत दर्ज शिकायत निरस्त नहीं की जा सकती -सुप्रीम कोर्ट


तथ्य-संबंधी सवाल खड़े होने पर एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत दर्ज शिकायत निरस्त नहीं की जा सकती 

12 Feb 2020 7:15 


        तथ्य-संबंधी सवाल खड़े होने पर एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत दर्ज शिकायत निरस्त नहीं की जा सकती : सुप्रीम कोर्ट   
         सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट (एनआई) एक्ट की धारा 138 के तहत चेक बाउंस की शिकायत निरस्त नहीं की जा सकती, जब तथ्य संबंधी विवादित सवाल उसमें निहित हों।

     इस मामले में हाईकोर्ट ने आरोपी की ओर से दायर याचिका में कहा था कि चूंकि कथित फर्जी रसीद के आधार पर एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत आपराधिक मामला दर्ज किया गया था, इसलिए शिकायत निरस्त की जाती है।

             सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह दलील दी गयी थी कि हाईकोर्ट ने इस बात पर गौर नहीं किया कि आरोपी ने स्वीकार किया है कि उसके अपने एनआरई खाते से चेक जारी किया गया है।

             इस दलील पर सहमति जताते हुए न्यायमूर्ति आर भानुमति और न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना की पीठ ने कहा कि एकबारगी चेक जारी करने की बात स्वीकार लेने/स्थापित हो जाने के बाद एनआई एक्ट की धारा 139 के तहत उपधारणा चेक होल्डर के पक्ष में जाएगी।

अपील स्वीकार करते हुए बेंच ने कहा :

                " एक बार चेक जारी करने की बात स्वीकार लेने/स्थापित हो जाने के बाद एनआई एक्ट की धारा 139 के तहत उपधारणा चेक होल्डर के पक्ष में जाएगी और यह शिकायतकर्ता-अपीलकर्ता संख्या 3 हैं।

एनआई एक्ट की धारा 139 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 118(ए) के तहत तर्कों की प्रकृति खंडन योग्य है। योगेशभाई ने निश्चित तौर पर अपने बचाव में कहा था कि कोई गैरकानूनी प्रवर्तनीय ऋण नहीं है और उसने अपीलकर्ता संख्या-3 हसमुखभाई को जमीन खरीदने में मदद के लिए चेक दिया था।



          साक्ष्य मुहैया कराकर दलील के खंडन का दायित्व आरोपी पर है। हाईकोर्ट ने इस बात को ध्यान में नहीं रखा कि जब तक आरोपी अपने बोझ का निर्वहन नहीं करता तब तक एनआई एक्ट की धारा 139 के तहत मामला बना रहेगा।

             साक्ष्य पेश करके इस उपधारणा के खंडन की जिम्मेदारी योगेशभाई पर है। जब तथ्यों से संबंधित विवादित वैसे सवाल शामिल हों, जिनके निर्धारण के लिए दोनों पक्षों द्वारा साक्ष्य मुहैया कराना जरूरी हो, तो हाईकोर्ट को एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत शिकायत को दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 का इस्तेमाल करके निरस्त नहीं करना चाहिए था।"

          सीआरपीसी की धारा 482 के तहत प्राप्त शक्तियों के संदर्भ में बेंच ने कहा :

               "यद्यपि, कोर्ट के पास एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत दर्ज आपराधिक शिकायत को समय-सीमा आदि जैसे कानूनी मुद्दों पर खारिज करने का अधिकार है, लेकिन एनआई एक्ट की धारा 139 के तहत योगेशभाई के खिलाफ दर्ज आपराधिक शिकायत को केवल इस आधार पर खारिज नहीं किया जाना चाहिए था कि अपीलकर्ता संख्या-3 और प्रतिवादी संख्या-2 के बीच परस्पर विवाद है।

                हमारा मानना है कि हाईकोर्ट ने एनआई एक्ट की धारा 139 के तहत कानूनी उपधारणा को ध्यान में रखे बिना एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत दर्ज आपराधिक शिकायत (सीसी संख्या 367/2016) को निरस्त करके गंभीर त्रुटि की है।"

केस का नाम : राजेशभाई मुलजीभाई पटेल बनाम गुजरात सरकार

केस नं. – क्रिमिनल अपील नं.- 251-252/2020

कोरम : न्यायमूर्ति आर भानुमति और न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना

वकील : एडवोकेट डी एन पारिख और सीनियर एडवोकेट ऐश्वर्या भाटी

Sunday, February 9, 2020

सिविल मामलों विचारण (Trial )प्रक्रिया जानिये नयें अधिवक्ताओं के लिए

जानिए सिविल मामलों में विचारण (Trial) की प्रक्रिया 

9 Feb 2020 11:59 AM 

      नए अधिवक्ता एवं छात्रों द्वारा सिविल विधि को कठिन समझा जाता है। सिविल विधि आपराधिक विधि के मुकाबले थोड़ी कठिन होती है।

          सिविल विधि को यदि उसके व्यवस्थित क्रम में पढ़ा जाए तो यह विधि कठिन नहीं होती। इस लेख के माध्यम से हम सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के प्रावधानों से विचारण (Trial) की प्रक्रिया को सरलतापूर्वक समझने का प्रयास करेंगे। सिविल प्रक्रिया संहिता विचारण की प्रक्रिया बताती है। सहिंता के अनुसार व्यवस्थित प्रक्रिया दी गई है तथा कोई भी मुकदमा किस प्रकार प्रारंभ से समाप्त होता है। 

        वाद पत्र एवं वाद के पक्षकार (आदेश 1) सिविल प्रक्रिया संहिता में वादों का प्रारंभ वाद पत्र से किया जाता है। एक वाद, वाद के पक्षकार से प्रारंभ होता है। किसी भी वाद में दो से अधिक पक्षकार हो सकते हैं। कोई भी वाद एक पक्षीय नहीं होता है। ऐसा ना हो कि कोई पक्ष न्याय से वंचित रह जाए अथवा निर्दोष व्यक्ति अनावश्यक ही अन्याय का सामना करे। 

         वाद संस्थित करते समय इस बात का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए कि वाद में वादी प्रतिवादी के रूप में उन सभी व्यक्तियों को सम्मानित कर दिया जाए जो न्याय के लिए आवश्यक है। यह दूसरी तरफ उन व्यक्तियों को वाद में सम्मिलित कर आवश्यक रूप से परेशान नहीं किया जाए जिनको सम्मिलित किया जाना आवश्यक नहीं है। वाद पत्र में सबसे पहले वादियों का उल्लेख किया जाता है। 

         वाद में मुख्यतः दो पक्षकार होते हैं वादी एवं प्रतिवादी। वादी वह होता है जो वादपत्र प्रस्तुत कर न्यायालय से अनुतोष की मांग करता है। प्रतिवादी वह है जो वादपत्र का अपने लिखित कथन द्वारा उत्तर देकर प्रतिरक्षा प्रस्तुत करता है। पक्षकारों का चयन सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए तथा जो आवश्यक पक्षकार हैं उन्हें वाद पत्र में नहीं जोड़ा जाना चाहिए। वाद की रचना (आदेश 2) सिविल प्रकरणों में वाद की रचना महत्वपूर्ण होती है। इसका उल्लेख आदेश 2 में मिलता है। जहां वाद का संयोजन एवं कु-संयोजन बताया गया है। यह कहा गया है कि किसी भी हेतु के लिए एक समय में वाद लगा लेना चाहिए तथा बार-बार वाद लगाने से बचना चाहिए।

         यह आदेश यह स्पष्ट करना चाहता है कि किसी वाद में वाद का संयोजन करना चाहिए। सभी हेतु उस एक ही वाद में आ जाए तथा अलग-अलग हेतु के लिए अलग-अलग वाद लगाने की समस्या से बचा जा सके। वाद की बहुलता से बचा जा सके। न्यायालय वाद की बाहुल्यता से बच सके। राज्य के ऊपर अधिक मुकदमे होंगे,अधिक समय मुकदमे में देना होगा। जनता को सरल न्याय नहीं मिल पाएगा इसलिए इस आदेश के अंतर्गत बताए गए नियमों में वाद की बाहुल्यता को रोकने के प्रयास किए गए हैं। वाद का संयोजन इस प्रकार करने को कहा गया है कि वाद के सारे प्रमुख कारण इस एक ही वाद में आ जाए। अभिवचन (आदेश 6) जब वादी द्वारा कोई वाद पत्र प्रस्तुत किया जाता है तथा अनुतोष मांगा जाता है तो प्रतिवादी द्वारा अपना लिखित अभिवचन पेश किया जाता है,जिसे अभिवचन कहते है।

         यह प्रावधान सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के आदेश 6 में डाला गया है। अभिवचन ऐसे कथन होते हैं जो किसी मामले में पक्षकार द्वारा लिखे हो तैयार किए जाते है, इसमें उन सब बातों का उल्लेख देता है जिनके आधार पर वाद निर्मित किया जाएगा तथा प्रतिवादी अपना लिखित कथन प्रस्तुत करेगा। अभिवचन शब्द वादपत्र एवं प्रतिवादी के लिखित कथन दोनों को शामिल किया गया है। लिखित कथन प्रतिवादी का अभिवचन होता है जिसमें वह वादी के कथनों का उत्तर देता है।


         सामान्यता वह अपने लिखित कथन में तो वादों के तथ्यों को अस्वीकार करता है या फिर स्वीकार करता है, यह कभी-कभी विशेष कथन प्रस्तुत कर अपनी प्रतिरक्षा करता है।जिन तथ्यों को अस्वीकार करता है वह विवाधक तथ्य बन जाते है। वादपत्र (आदेश 7) वाद पत्र वादी द्वारा न्यायालय में पेश किया गया एक पत्र होता है, जिसमें वह उन तथ्यों का अभिकथन करता है जिसके आधार पर कि वह न्यायालय से अनुतोष की मांग करता है। न्यायालय की प्रत्येक न्यायिक प्रक्रिया का आरंभ वादपत्र के दायर किए जाने से होता है। इस वादपत्र में वादी अपना अभिकथन करता है तथा न्यायालय से इन्हीं बिंदुओं पर अनुतोष मांगता है। वाद का पेश किया जाना वाद को किस अदालत में पेश करना है,किसी भी न्यायिक कार्यवाही का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है। जब वाद रचना हो जाती है, वाद पत्र तैयार कर लिया जाता है तो वाद कौन से न्यायालय में पेश किया जाएगा यह तय करना सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत धारा 15 से लेकर 20 तक बताया गया है। वाद को पेश करने के लिए सर्वप्रथम तो यह नियम है कि कोई भी वाद सबसे निम्न स्तर की अदालत में विचारण के लिए पेश किया जाएगा।

        विचारण की प्रक्रिया से ऊपरी अदालतों के भार को कम करने हेतु इस प्रकार का नियम रखा गया है। वाद को पेश करने के लिए इन धाराओं के अंतर्गत मूल्य के आधार पर, क्षेत्र के आधार पर, कुछ अन्य आधार भी संहिता के अंतर्गत बताए गए हैं। 

        वाद का संस्थित होना सिविल प्रकिया संहिता की धारा 26 आदेश 4 के अंतर्गत वाद के संस्थित होने के संदर्भ में बताया गया है। जब क्षेत्राधिकार रखने वाले न्यायालय में पेश किया जाता है तो वह या तो वाद को खारिज कर देता है या वाद को संस्थित कर लेता है और वाद का नम्बर अपने रजिस्टर में अंकित कर वाद क्रमांक पेश कर दिया जाता है। वाद संस्थित हो गया इसका अर्थ है न्यायालय वाद में आगे की कार्यवाही करेगा। सम्मन धारा 27 आदेश 5 के अंतर्गत प्रतिवादी को सम्मन किए जाते हैं। सम्मन न्यायिक प्रक्रिया की महत्वपूर्ण कड़ी है, जब न्यायालय किसी मामले को सुनने के लिए आश्वस्त हो जाता है तो वह मामले में बनाए गए प्रतिवादियो को सम्मन जारी करता है। धारा 27 में सम्मन का उल्लेख किया गया है। आदेश 5 में इस सम्मन की तामील के संबंध में उल्लेख किया गया है। 

          मामले के संस्थित होने के बाद सबसे पहली कार्यवाही सम्मन की होती है, जिस न्यायालय में मामला संस्थित किया जाता है। उस न्यायालय द्वारा सर्वप्रथम सम्मन निकाला जाता है।यह सम्मन सब प्रतिभागियों को होता है। उपस्थिति व अनुपस्थिति के प्रभाव (आदेश 19) इस आदेश के माध्यम से यह जाना जाता है कि यदि सम्मन हो जाने के बाद सम्मन पर बुलाया गया प्रतिवादी उपस्थित नहीं होता है तो क्या कार्यवाही होगी,प्रतिवादी उपस्थित होता है तू क्या कार्यवाही होगी। उपस्थित होने पर कार्यवाही आगे बढ़ायी जाती है और अनुपस्थिति में सम्मन की तामील की प्रक्रिया में परिवर्तन इत्यादि किया जाता है अंत में एकपक्षीय भी किया जा सकता है। डिस्कवरी ऑफ फैक्ट्स आदेश 11 में तथ्य को जाना जाता है तथा विवाधक तथ्यों को पहचान कर उन्हें इंगित किया जाता है।जब डिस्कवरी ऑफ फैक्ट होता है तब किसी विवाद में न्यायिक कार्यवाही ठीक अर्थों में आरंभ होता है।यहाँ से विवाधक तथ्यों को साबित नासाबित किये जाने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है।विचारण भी यहीं से आरंभ होता है। डिस्कवरी ऑफ फैक्ट्स के अंतर्गत सभी तथ्यों को प्रकट करना होता है जिनसे मामले का गठन होता है। एडमिशन (स्वीकारोक्ति) विवाद के निपटारे में एडमिशन का एक महत्वपूर्ण स्थान है। 

          सिविल प्रकिया के अंतर्गत एक पक्षकार दूसरे पक्षकार के मामले को स्वीकार करता है और ऐसे स्वीकार किए गए मामले के संबंध में पक्षकारों के बीच कोई विवाद नहीं रह जाता है। परिणामस्वरूप ऐसे मामलों को साक्षी द्वारा सिद्ध करने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है और न्यायालय एडमिशन के आधार पर अपना निर्णय सुनाने के लिए अग्रसर हो सकता है। इस प्रकार एडमिशन वाद के निपटारे को सुलभ कर देता है। संहिता के आदेश 12 में ऐसे एडमिशन के बारे में प्रावधान किया गया है। दस्तावेजों का प्रस्तुतीकरण आदेश 13 के अंतर्गत दस्तावेजों की मूल प्रतियां प्रस्तुत की जाती है तथा इन दस्तावेजों को प्रकरण का साक्ष्य कहा जाता है। साक्ष्य को प्रकरण इस चरण पर आने के बाद ही प्रस्तुत किया जाता है। वाद पत्र के साथ दस्तावेजों की छायाप्रति लगा सकते है, परंतु एडमिशन होने या नहीं होने के उपरांत जिन मूल दस्तावेज पर विचारण चलेगा तथा विवाधक तथ्यों के संबंध में दस्तावेजों का प्रकटीकरण किया जाता है। वाद पदों का निश्चय किया जाना सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 14 के अंतर्गत फ्रेमिंग ऑफ इश्यू अर्थात वाद पदों का निश्चय किया जाता है। किन तथ्यों पर विवाद है यह तय किया जाता है, जिससे आगे मामले का विचार किया जा सके। साक्षियों सूची सहिंता के आदेश 16 के अंतर्गत साक्षियों की सूची प्रस्तुत की जाती है तथा इस सूची में साक्षियों की संख्या होती है, तथा उनके नाम होते हैं जो किसी विवादित तथ्य को साबित ना साबित करने के लिए पेश किए जाते है। साक्ष्य लेखन सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 18 के अंतर्गत साक्ष्यों को लिखा जाता है,साक्ष्य का लेखबद्ध किया जाना अत्यंत आवश्यक होता है। 

सिविल प्रक्रिया संशोधन 
     
         अधिनियम 2002 द्वारा साक्ष्य को लेखबद्ध किए जाने की प्रक्रिया में संशोधन भी किए गए है तथा प्रत्येक साक्षी शपथ पत्र पर माना गया है।न्यायालय साक्ष्य को लेखबद्ध कराने की प्रक्रिया पूरी करता है। निर्णय व डिक्री.     
            अधिनियम के आदेश 20 व धारा 35 के अंतर्गत मामले में अंतिम निर्णय लिया जाता है या डिक्री दी जाती है। डिक्री एवं निर्णय में कुछ अंतर होते है परंतु इस लेख में सागर में गागर भर पाना संभव नहीं होगा। इस अंतर को समझा जाना थोड़ा कठिन है। डिक्री एवं निर्णय के अंतर को किसी अन्य के लेख के माध्यम से समझा जाएगा। न्यायाधीश सबसे अंत में किसी भी मामले में निर्णय सुना देता है, आज्ञप्ति जारी कर देता है। 

प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुचाने के मामले में क्या कहता है कानून

 प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंंचाने के मामलों पर क्या कहता है कानून? 

 22 Dec 2019 1:28 

       कई बार देश में विरोध प्रदर्शन, हिंसक हो जाते हैं और जिसके परिणामस्वरूप लोक संपत्ति को काफी नुकसान पहुचंता है। हाल के समय में उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पश्चिम बंगाल और असम के कुछ हिस्सों में इसी प्रकार की हिंसा देखने को मिली, जहाँ लोक संपत्ति को नुकसान पहुंंचाया गया। हम एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते यह समझते हैं कि इस तरह की हिंसा में न केवल लोक संपत्ति को नुकसान पहुंंचता है, बल्कि टैक्स अदा करने वाले नागरिकों के धन का नुकसान होता है, सरकार के खर्चों पर बोझ बढ़ता है, अशांति फैलती है और आमजन का जीवन प्रभावित होता है। ऐसे में यह जरुरी हो जाता है कि हम लोक संपत्ति को होने वाले नुकसान से सम्बंधित कानूनी बातों को विस्तार से समझें। हाल ही में जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में छात्रों पर कथित पुलिस ज्यादती की याचिकाओं पर सुनवाई के लिए सहमत होते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एस. ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की बेंच ने दंगों और सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करने पर नाराजगी व्यक्त की थी। उन्होंने कहा था, "हम जानते हैं कि दंगे कैसे होते हैं। इसे पहले बंद कर दें। हमारे लिए सिर्फ यह तय नहीं कर सकते क्योंकि पथराव किया जा रहा है। हमने काफी दंगे देखे हैं। यह तब तय करना होगा जब चीजें शांत हों। हम कुछ भी तय कर सकते हैं। दंगे रुकने दो। सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट किया जा रहा है। कोर्ट अभी कुछ नहीं कर सकता है, दंगों को रोकें।" अगर विरोध प्रदर्शन ऐसे ही चले और सार्वजनिक संपत्तियों को नष्ट किया गया तो हम कुछ नहीं करेंगे।" इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों के खिलाफ पुलिस हिंसा की कोर्ट की निगरानी में जांच की मांग करने वाली याचिकाओं के एक समूह पर कार्रवाई करने से इनकार कर दिया था। वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह, संजय हेगड़े और कॉलिन गोंजाल्विस की दलीलें सुनने के बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने आदेश दिया, "मामले और विवाद की प्रकृति के संबंध में, और जिस विशाल क्षेत्र में मामला फैला हुआ है, हमें नहीं लगता कि इसके लिए एक समिति नियुक्त करना संभवतः है। उच्च न्यायालयों से संपर्क किया जा सकता है जहां घटनाएं हुई हैं।" लोक संपत्ति को हुए नुकसान को लेकर क्या है कानून? लोक संपत्ति को होने वाले नुकसान के लिए संसद द्वारा वर्ष 1984 में एक कानून बनाया गया था जिसे लोक संपत्ति नुकसान निवारक अधिनियम, 1984 के रूप में जाना जाता है, इसके अंतर्गत कुल 7 धाराएँ हैं, हालाँकि हाल ही में इसमें बदलाव की मांग उठी है जिसे हम आगे समझेंगे। यह कानून यह कहता है कि जो कोई व्यक्ति किसी लोक संपत्ति की बाबत कोई कार्य करके रिष्टि (Mischief) करेगा, उसे 5 वर्ष तक के कारावास और जुर्माने के साथ दण्डित किया जायेगा [धारा 3(1)]। गौरतलब है कि इस अधिनियम के अंतर्गत 'रिष्टि' का वही अर्थ है, जो धारा 425, भारतीय दंड संहिता, 1860 में है [धारा 2 (क)]। इसके अलावा यदि कुछ विशिष्ट प्रकार की संपत्तियों के बाबत कोई व्यक्ति कोई कार्य करके रिष्टि करेगा, उसे कम से कम 6 महीने की कठोर कारावास (अधिकतम 5 वर्ष तक का कठोर कारावास) एवं जुर्माने के साथ दण्डित किया जायेगा [धारा 3 (2)]। धारा 3 (2) के मामलों में, इन विशिष्ट संपत्तियों में निम्नलिखित संपत्तियां शामिल हैं:- (क) कोई ऐसा भवन, प्रतिष्ठान या अन्य संपत्ति, जिसका उपयोग जल, प्रकाश, शक्ति या उर्जा के उत्पादन, वितरण या प्रदाय के सम्बन्ध में किया जाता है, (ख) कोई तेल प्रतिष्ठान, (ग) कोई मॉल संकर्म, (घ) कोई कारखाना, लोक परिवहन या दूर संचार का कोई साधन या उसके सम्बन्ध में उपयोग किया जाने वाला कोई भवन, प्रतिष्ठान या अन्य संपत्ति. इसके अलावा यदि अग्नि या विस्फोटक पदार्थ द्वारा लोक संपत्ति को नुकसान कारित करने वाली रिष्टि की जाती है तो ऐसे व्यक्ति को कम से कम 1 वर्ष के कारावास (अधिकतम 10 वर्ष तक के कठोर कारावास) और जुर्माने से दण्डित किया जाएगा [धारा 4]। गौरतलब है कि इस धारा के अंतर्गत धारा 3 की उपधारा (1) एवं (2) के विषय में बात की गयी है। लोक संपत्ति क्या है? इस कानून में "लोक संपत्ति" का मतलब भी समझाया गया है। अधिनियम की धारा 2 (ख) के अनुसार, "लोक संपत्ति" से अभिप्रेत है, ऐसी कोई संपत्ति, चाहे वह स्थावर हो या जंगम (जिसके अंतर्गत कोई मशीनरी है), जो निम्नलिखित के स्वामित्व या कब्जे में या नियंत्रण के अधीन है :- (i) केन्द्रीय सरकार; या (ii) राज्य सरकार; या (iii) स्थानीय प्राधिकारी; या (iv) किसी केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन स्थापित निगम; या (v) कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 617 में परिभाषित कंपनी; या (vi) ऐसी संस्था, समुत्थान या उपक्रम, जिसे केन्द्रीय सरकार, सरकारी राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे: क्या मौजूदा कानून है पर्याप्त? सुप्रीम कोर्ट ने कई मौकों पर इस मौजूदा कानून, अर्थात लोक संपत्ति नुकसान निवारक अधिनियम, 1984 को अपर्याप्त पाया है, और इसके लिए दिशानिर्देशों के माध्यम से कानून में मौजूद कमी को दूर करने का प्रयास किया है। वर्ष 2007 में, अदालत ने "विभिन्न ऐसे उदाहरणों के बारे में संज्ञान लिया, जहां आंदोलन, बंद, हड़ताल इत्यादि, के नाम पर सार्वजनिक और निजी संपत्तियों को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुँचाया गया था"। दरअसल गुर्जर नेताओं द्वारा अपने समुदाय को एसटी का दर्जा देने की मांग करने के बाद, कई राज्यों में हिंसा भड़क गयी थी जिसके बाद इस कानून में बदलाव का सुझाव देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश के. टी. थॉमस और वरिष्ठ वकील फली नरीमन के नेतृत्व में 2 समितियों का गठन भी किया था। गौरतलब है कि सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के. टी. थॉमस की अध्यक्षता वाली समिति ने जहाँ लोक संपत्ति नुकसान निवारक अधिनियम 1984 के प्रावधानों को कड़ा करने के लिए और विरोध प्रदर्शन के दौरान बर्बरता के कृत्यों के लिए नेताओं को जवाबदेह बनाने पर विचार किया, वहीँ वरिष्ठ अधिवक्ता फली एस नरीमन को ऐसे बंद इत्यादि के मीडिया कवरेज को लेकर उपायों की सिफारिश करने का काम सौंपा गया था। सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के. टी. थॉमस की अध्यक्षता वाली समिति ने यह पाया कि राज्य सरकारों द्वारा 1984 के इस अधिनियम का कम ही इस्तेमाल किया जाता है, जबकि उनके द्वारा ज्यादातर भारतीय दंड संहिता, 1860 के प्रावधानों का इस्तेमाल किया जाता है। इसके बाद वर्ष 2009 में, In Re: Destruction of Public & Private Properties v State of AP and Ors (2009) 5 SCC 212. के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने 2 विशेषज्ञ समितियों की सिफारिशों के आधार पर दिशा-निर्देश जारी किए थे। वर्ष 2009 में आये इस मामले के बाद से, सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश (संपत्ति के विनाश के खिलाफ) यह हैं कि उस नेता/प्रमुख/आयोजक पर इस विनाश के दायित्व को स्वीकार किया जाएगा, जिसने विरोध करने का आह्वान किया था। समिति के सुझाव को स्वीकार करते हुए, अदालत ने वर्ष 2009 के इस मामले में यह कहा था कि अभियोजन को यह साबित करने की आवश्यकता होनी चाहिए कि किसी संगठन द्वारा बुलाये गए डायरेक्ट एक्शन में सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचा है, और आरोपी ने भी ऐसी प्रत्यक्ष कार्रवाई में भाग लिया है। अदालत ने यह भी कहा कि दंगाइयों को नुकसान के लिए सख्ती से उत्तरदायी बनाया जाएगा, और हुए नुकसान की "क्षतिपूर्ति" करने के लिए, कंपनसेशन वसूला जाएगा। अदालत ने यह साफ़ शब्दों में कहा था कि, "जहां व्यक्ति या लोग, चाहे संयुक्त रूप से या अन्यथा, एक विरोध का हिस्सा हैं, जो हिंसक हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप निजी या सार्वजनिक/लोक संपत्ति को नुकसान होता है, तो जिन व्यक्तियों ने यह नुकसान किया है, या वे उस विरोध का हिस्सा थे या जिन्होंने इसे आयोजित किया है, उन्हें इस नुकसान के लिए कड़ाई से उत्तरदायी माना जायेगा, और इस नुकसान का आकलन सामान्य अदालतों द्वारा किया जा सकता है या अधिकार को लागू करने के लिए बनाई गई किसी विशेष प्रक्रिया द्वारा किया जा सकता है।" दिशानिर्देशों के अनुसार, "यदि विरोध या उसके कारण, संपत्ति का एक बड़ा विनाश होता है, तो उच्च न्यायालय स्वयं से, मुकदमा चलाने की कार्रवाई शुरू कर सकता है और नुकसान की जांच करने और मुआवजा देने के लिए एक मशीनरी स्थापित कर सकता है। जहां एक से अधिक राज्यों में हिंसा हुई है, वहां सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ऐसी कार्रवाई की जा सकती है। इस नुकसान का दायित्व, अपराध करने वाले अपराधियों पर होगा और इस तरह के विरोध के आयोजक भी उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित दायित्व के अनुसार उत्तरदायी होंगे।" इसके अलावा इस मामले में यह भी दिशानिर्देश जारी किये गए कि, प्रत्येक मामले में, उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय, जैसा भी मामला हो, हर्जाने का अनुमान लगाने और दायित्व की जांच करने के लिए एक आयुक्त या सेवानिवृत्त जिला जज को क्लेम कमिश्नर (दावा आयुक्त) के रूप में नियुक्त कर सकता है। क्लेम कमिश्नर की सहायता के लिए एक असेसर नियुक्त किया जा सकता है। नुकसान को इंगित करने और अपराधियों के साथ सांठगांठ स्थापित करने के लिए, दावा आयुक्त और अस्सिटेंट, हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट से, जैसा भी मामला हो, मौजूदा वीडियो या अन्य रिकॉर्डिंग को निजी और सार्वजनिक स्रोतों से तलब करने के लिए निर्देश ले सकते हैं। इसके अलावा अनुकरणीय हर्जाना (Exemplary damages) एक सीमा तक प्रदान किया जा सकता है जो देय होने वाली क्षति की राशि के दोगुने से अधिक नहीं हो सकता है। वर्ष 2018 में कोडूनगल्लुर फिल्म सोसाइटी बनाम भारत संघ (2018) 10 SCC 713 के मामले में अदालत ने वर्ष 2009 के मामले में जारी दिशा-निर्देशों के अतिरिक्त कुछ दिशा-निर्देश जारी किये. पुलिस को जिम्मेदारी को दिशा-निर्देशों में संकलित करते हुए अदालत ने कहा:- A) जब हिंसा की कोई भी घटना, संपत्ति को नुकसान पहुंचाती है, तो संबंधित पुलिस अधिकारियों को प्राथमिकी दर्ज करनी चाहिए और वैधानिक अवधि के भीतर यथासंभव अन्वेषण पूरा करना चाहिए और उस संबंध में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करनी चाहिए। एफआईआर दर्ज करने और पर्याप्त कारण के बिना वैधानिक अवधि के भीतर जांच करने में किसी भी विफलता को संबंधित अधिकारी की ओर से कर्तव्य के खिलाफ माना जाना चाहिए और ऐसे मामलों को सही तरीके से विभागीय कार्रवाई के माध्यम से आगे बढ़ाया जा सकता है। B) चूंकि नोडल अधिकारी, सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों और अन्य संपत्तियों के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए प्रत्येक जिले में समग्र जिम्मेदारी रखता है, इसीलिए उसे एफआईआर दर्ज करने और / या उस संबंध में अन्वेषण कराने में किसी भी अस्पष्ट और / या असंबद्ध देरी को, उक्त नोडल अधिकारी की ओर से निष्क्रियता का मामला माना जाएगा। C) वीडियोग्राफी के संदर्भ में अधिकारी-प्रभारी को सर्वप्रथम, संबंधित पुलिस स्टेशन द्वारा घटनाओं को वीडियो-रिकॉर्ड करने के लिए बनाये गए स्थानीय वीडियो ऑपरेटरों के पैनल में से सदस्यों को कॉल करना चाहिए। यदि उक्त वीडियो ऑपरेटर, किसी भी कारण से घटनाओं को रिकॉर्ड करने में असमर्थ हैं या यदि प्रभारी अधिकारी की यह राय है कि पूरक जानकारी की आवश्यकता है, तो वह निजी वीडियो ऑपरेटरों से भी ऐसा करने को कह सकते हैं कि वे घटनाओं को रिकॉर्ड करें और यदि आवश्यक हो तो उक्त घटना के बारे में जानकारी के लिए मीडिया से अनुरोध करें। D) इस तरह के अपराधों के संबंध में अन्वेषण / परीक्षण की स्थिति रिपोर्ट, इस तरह के परीक्षण (ओं) के परिणामों सहित, संबंधित राज्य पुलिस की आधिकारिक वेबसाइट पर नियमित रूप से अपलोड की जाएगी। E) किसी भी व्यक्ति (यों) को इस तरह के अपराधों के आरोपों से बरी करने की स्थिति में, नोडल अधिकारी को ऐसे अभियुक्त के खिलाफ अपील दायर करने के लिए लोक अभियोजक के साथ समन्वय करना चाहिए। क्या है मौजूदा समस्या? हालाँकि, चूँकि ऐसा विनाश सामूहिक भीड़ द्वारा किया जाता है, और ऐसे ज्यादातर मामलों में, कोई पहचानने योग्य नेता/आयोजक नहीं होता है। यहां तक कि उन मामलों में, जहां बड़े पैमाने पर बुलाये गए आंदोलनों में पोस्टर पर कई बड़े नाम मौजूद होते हैं, परन्तु अदालत में यह तर्क दिया जा सकता है कि ऐसे लोगों ने कभी भी स्पष्ट रूप से ऐसे आन्दोलन/बंद/हड़ताल को नहीं बुलाया है। जैसा कि हमने जाना इस अधिनियम की धारा 4 के तहत, लोक संपत्ति को आग से नुकसान पहुंचाने की सजा, अधिकतम 10 साल तक की कारावास एवं जुर्माना है। लेकिन हाल के दौर में यह देखा गया है कि इस अधिनियम का इस्तेमाल न होने के कारण, यह क़ानून अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल रहा है। बंदों की संख्या में वृद्धि, उत्पीड़न, आंदोलन और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के बावजूद, अदालत में कम ही लोग दोषी करार दिए जा पाते हैं। इस तरह की घटनाओं से जुड़े सबूतों की उचित समझ न होना और अन्वेषण प्रक्रिया को उचित रूप में समझ पाने में असमर्थ अधिकारियों के कारण ऐसे मामलों में अपराधियों को दंडित करने में असमर्थता देखि गयी है। राज्य सरकारों ने नियमित रूप से अपराधियों को बुक करने के लिए विशिष्ट कानून के बजाय भारतीय दंड संहिता के कम सख्त प्रावधानों का सहारा लिया है जोकि उचित नहीं है। जैसा कि हमने देखा कि बंद, हड़ताल या आंदोलन के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले व्यक्तियों या राजनीतिक संगठनों द्वारा जिस तरह से क्षति पहुंचाई जाती है, उसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बात पर जोर दिया है कि इस तरह के कृत्यों से संबंधित पार्टी से क्षतिपूर्ति की जाए, हालाँकि वो भी करने में सरकारें अभी तक समग्र रूप से असमर्थ रही हैं। कोशी जैकब बनाम भारत संघ WRIT PETITION (CIVIL) NO.55 OF 2017 के मामले में, अदालत ने यह दोहराया था कि 1984 के इस कानून में बदलाव लाने की आवश्यकता है, और वास्तव में सरकार को इस कानून में बदलाव की दिशा में कदम उठाने चाहिए। एक ताज़ा मामले में, जब उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ और राज्य के अन्य हिस्सों में हाल ही में संशोधित नागरिकता अधिनियम के खिलाफ हिंसक विरोध प्रदर्शन हुआ तो उसमे भी हिंसा के चलते सार्वजनिक एवं निजी संपत्ति को बहुत नुकसान पहुंचा, जिसपर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यह इंगित किया कि संपत्ति को हुए नुकसान की भरपाई के लिए तोड़-फोड़ एवं हिंसा करने वाले व्यक्तियों की संपत्ति की नीलामी की जाएगी। उम्मीद यह है कि राज्य सरकार की यह कार्यवाही, सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के अंतर्गत, उचित रूप से अंजाम दी जाएगी, जिससे इन दिशा-निर्देशों का पालन करने की देश में एक बेहतर शुरुआत हो सके। 

Saturday, February 8, 2020

NDPS एक्ट 1985 का नियम जानिए -प्रमुख बातें


भारत के कड़े अधिनियमों में से एक अधिनियम है एनडीपीएस एक्ट 1985, जानिए प्रमुख बातें 

31 Dec 2019 12:56 PM

             भारतीय संसद में 1985 में एनडीपीएस एक्ट पारित किया गया, जिसका पूरा नाम नारकोटिक्स ड्रग्स साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट  1985 है। नारकोटिक्स का अर्थ नींद से है और साइकोट्रोपिक का अर्थ उन पदार्थों से है जो मस्तिष्क के कार्यक्रम को परिवर्तित कर देता है। कुछ ड्रग और पदार्थ ऐसे है जिनका उत्पादन और विक्रय ज़रूरी है, लेकिन उनका अनियमित उत्पादन तथा विक्रय नहीं किया जा सकता। उन पर सरकार का कड़ा प्रतिबंध होता है और रेगुलेशन है, क्योंकि ये पदार्थ अत्यधिक मात्रा में उपयोग में लाने से नशे में प्रयोग होने लगते हैं, जो मानव समाज के लिए बहुत बड़ी त्रासदी सिद्ध हो सकती है। ऐसी त्रासदी से बचने के लिए विश्व के लगभग सभी देशों द्वारा इस तरह के अधिनियम बनाए गए हैं। एनडीपीएस अधिनियम के बनने से पहले भी समस्त भारत के लिए कुछ अधिनियम थे जो इन पदार्थों का नियमन करते थे। जैसे डेंजरस ड्रग्स अधिनियम 1930 था। सभी अधिनियम को समाप्त कर एक अधिनियम बनाया गया, जिसका नाम एनडीपीएस एक्ट 1985 रखा गया। 
     यह अधिनियम इन पदार्थ और ड्रग्स के संबंध में पूरी व्यवस्थित प्रकिया और दंड का उल्लेख करता है। यूएन सम्मेलन के बाद एनडीपीएस एक्ट कई यूनाइटेड नेशन और यूनाइडेट स्टेट के सम्मेलनों में एनडीपीएस एक्ट बनाये जाने पर यूएन द्वारा ज़ोर दिया गया है तथा कठोरतापूर्वक इस अधिनियम को अधिनियमित किये जाने पर बल दिया है, उसके परिणामस्वरूप भारत समेत कई राष्ट्रों के ऐसे कानून तैयार किये हैं। एनडीपीएस एक्ट में प्रतिबंधित ड्रग्स अधिनियम के द्वारा एक अनुसूची दी गयी है। उस अनुसूची में केंद्रीय सरकार उन ड्रग्स को सम्मलित करती है जो नशे में प्रयोग होकर मानव जीवन के लिए संकट हो सकते है। 
       इन ड्रग्स का उपयोग जीवन बचाने हेतु दवाई और अन्य स्थानों पर होता है, परन्तु इनका अत्यधिक सेवन नशे में प्रयुक्त होता है, इसलिए इन्हें पूर्ण रूप से प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता परन्तु इनका नियमन अवश्य किया जा सकता है। कोका प्लांट्स, कैनाबिस, ओपियम पॉपी जैसे पौधे इसमे शामिल किए गए हैं। 
       मात्रा का महत्व इस अधिनियम में मात्रा के द्वारा ही दंड का प्रावधान किया गया है। मात्रा को तीन भागों में बांटा गया है, जिसमे,अल्पमात्रा और वाणिज्यिक और इन दोनों के बीच की मात्रा है। दंड भी इन तीन स्तरों पर ही होगा-----
1. अल्पमात्रा के लिए एक वर्ष तक का कारावास और जुर्माना जो दस हजार तक का हो सकेगा। 
2. अल्पमात्रा और वाणिजियक मात्रा के बीच की मात्रा के लिए दस वर्ष तक का कारावास और जुर्माना जो एक लाख तक का हो सकेगा। 
3. वाणिज्यिक मात्रा में बीस वर्ष तक का कारावास और कम से कम एक लाख तक का जुर्माना जो दो लाख तक का हो सकता है। 
    मात्रा का निर्धारण समय समय पर केंद्र द्वारा किया जाता रहता है। यहां अगर भारत के सीमा क्षेत्र के भीतर व्यक्ति के पास यदि एक ग्राम भी अफीम इस अधिनियम के अधीन बनाये नियम या दिए आदेश के अंतर्गत अनुज्ञप्ति के बगैर पायी जाती है तो भी वह दोषी होगा। ऐसे मामले में वह अल्पमात्रा का दोषी माना जाएगा। 
         इन पदार्थों और ड्रग्स का लगभग हर रूप प्रतिबंधित किया गया है और शास्ति रखी गयी है- अधिनियम के अंतर्गत अनुसूची में डाले गए पदार्थो का निर्माण, मैन्यूफेक्चरिंग, कृषि, प्रकिया, क्रय, विक्रय, संग्रह, आयात, निर्यात, परिवाहन और यहां तक उपभोग भी प्रतिबंधित किया गया है। इस ही के साथ उपभोग पर भी दंड रखा गया है।
     इस अधिनियम में है मृत्युदंड तक का प्रावधान इस अधिनियम में मृत्युदंड का भी प्रावधान रखा गया है। अधिनियम की धारा 31 A के अंतर्गत एक बार सिद्धदोष ठहराए जाने के बाद पुनः उस तरह का अपराध किया जाता है तो मृत्युदंड भी दिया जा सकता है। 
     अधिनियम के अंतर्गत अपराधों का प्रयास, तैयारी,उत्प्रेरणा,षड़यंत्र, उपभोग और फाइनेंस को भी अपराध बनाया गया है।
     और इन सभी के लिए वही दंड है जो इन अपराधों के लिए दंड रखा गया है। तीन प्रमुख पौधे अधिनियम के अंतर्गत तीन प्रमुख पौधे हैं, जिनकी खेती, परिवहन, आयात, निर्यात, संग्रह, क्रय, विक्रय, उत्पादन, कब्ज़ा और उपभोग अनुज्ञप्ति और इस अधिनियम के अंतर्गत किसी आदेश के बगैर दंडनीय है। 
 1-कोका का पौधा- इस पौधे से मुख्यता कोकेन प्राप्त की जाती है। कोकेन अत्यधिक नशीली होती है।
2- कैनाबिस का पौधा- इसे सामान्यता भांग का पौधा भी कहा जाता है। इस ही पौधे की फूल,पत्तियों और तने को सुखाकर गांजा बनाया जाता है। 
3-भांग केवल पत्तियों से तैयार हो जाती है। इस पौधे की मादा प्रजाति से एक गोंद जैसा द्रव निकलता है जिससे चरस बनती है। 
4-पोस्त का पौधा- इसे अफीम के पौधे के नाम से जाना जाता है। इस पौधे की पत्तियां नशीली नहीं होती है। इसका एक फल होता है जिसे डोडा कहा जाता है। डोडा पर चाकू मारने से दूध जैसा द्रव निकलता है जो सूखने पर अफीम बनता है। डोडा के भीतर दाने होते है जिन्हें खस खस के दाने कहा जाता है वह नशीले नहीं होते हैं, उन्हें मेवों में इस्तेमाल किया जाता है, जो सूखा हुआ ऊपर खोल बचता है उसे डोडा चूरा कहा जाता है जो नशीला होता है लेकिन अफीम से कम। इस ही पौधे से अत्यधिक आवश्यक औषधि मॉर्फिन प्राप्त की जाती है जो दर्द निवारक और नींद के लिए प्रयुक्त होती है।
        विशेष न्यायालय इस अधिनियम की धारा 36 के अंतर्गत विशेष न्यायालय से गठन किया गया है। उन ही न्यायालय द्वारा यह मामले विचारित किये जाते हैं। इस अधिनियम का उद्देश्य नशे के कारोबार पर सख्ती से अंकुश लगाना है और इसीलिए विशेष न्यायालय बनाए गए हैंं। अपराधी परिवीक्षा का लाभ नहीं मिलना अधिनियम के अंतर्गत सिद्धदोष व्यक्ति को अपराधी परिवीक्षा एवं दंड प्रकिया सहिंता 1973 की धारा 360 का लाभ नहीं मिलेगा। तलाशी के लिए शर्तें अधिनियम की धारा 50 के अंतर्गत तलाशी के लिए कुछ शर्तें रखी गयी हैं। इस धारा के निर्माण का उद्देश्य फ़र्ज़ी मुकदमे से जनसाधारण को सुरक्षित करना है। जब पुलिस या जांच अधिकारी किसी व्यक्ति से प्रतिबंधित स्वापक औषधि या मनः प्रभावी पदार्थ पाए जाने की शंका करता है तो उस निरुद्ध कर निकटवर्ती राजपत्रित अधिकारी या मजिस्ट्रेट के समक्ष लेकर जाएगा तथा उसके सामने तलाशी लेगा।       हालांकि पंजाब राज्य बनाम बलजिंदर सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निजी तलाशी के दौरान एनडीपीएस अधिनियम की धारा 50 का पालन नहीं करने से वाहन से हुई बरामदगी अमान्य नहीं हो जाती। 
     इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरोपी की निजी तलाशी के दौरान नशीला पदार्थ अधिनियम ‌(एनडीपीएस ) की धारा 50 का पालन नहीं करने के कारण वाहन से हुई बरामदगी अमान्य नहीं हो जाती है। 
      न्यायमूर्ति यूयू ललित, इंदु मल्होत्रा और कृष्ण मुरारी की पीठ ने कहा कि एनडीपीएस अधिनियम की धारा 50 सिर्फ निजी तलाशी तक सीमित है न कि वाहन या किसी कंटेनर परिसर की। आरिफ खान बनाम उत्तरांचल सरकार (एससी) के मामले में धारा 50 की भाषा की सम्पूर्णता को नजरंदाज किया गया है। धारा 50 स्पष्ट शब्दों में लिखा गया है। 
     जहां तक आरोपी को मजिस्ट्रेट या एक राजपत्रित अधिकारी के समक्ष तलाशी के विकल्प दिये जाने का प्रश्न है तो इस धारा में कोई भ्रम की स्थिति नहीं है। धारा 50(एक) और (दो) में इस्तेमाल भाषा ऐसे दृष्टांत बताती है, जहां संदिग्ध व्यक्ति मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी की मौजूदगी में तलाशी न कराने की इच्छा व्यक्त करता है।            धारा 50(एक) 'यदि ऐसा व्यक्ति आवश्यक समझता है' मुहावरे का इस्तेमाल करती है जबकि 50(दो) में कहा गया है, 'यदि ऐसा अनुरोध किया जाता है।' इसी तरह, धारा 50(पांच) और (छह) वैसे दृष्टांत देती है, जहां मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी की अनुपस्थिति में एक अधिकारी द्वारा कारणों को दर्ज करके तथा वरीय अधिकारी को सूचित करके तलाशी ली जाती है। 
      स्पष्ट रूप से, विधायिका ने मादक पदार्थों के संदिग्ध आरोपियों की तलाशी के दौरान किसी मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी की उपस्थिति अनिवार्य करने पर विचार नहीं किया। 
     आरिफ खान मामले में, आरोपी ने मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी की मौजूदगी में तलाशी लिये जाने का अपना अधिकार छोड़ दिया था। 
       हालांकि, उच्चतम न्यायालय ने पैरा संख्या 244 में बगैर कोई उचित कारण दिये खुद ही निष्कर्ष निकाल लिया कि चूंकि तलाशी संदिग्ध के शरीर की करनी थी, इसलिए, अभियोजन पक्ष के लिए यह साबित करना अनिवार्य है कि अपीलकर्ता की तलाशी और रिकवरी मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी की उपस्थिति में हुई थी। 

Friday, February 7, 2020

पुनर्विचार याचिका में पारित किसी आदेश की समीक्षा नहीं की जा सकती -सुप्रीम कोर्ट

 पुनर्विचार याचिका में पारित किसी आदेश की समीक्षा नहीं हो सकती : सुप्रीम कोर्ट 

7 Feb 2020 9:31


          पुनर्विचार याचिका में पारित किसी आदेश की समीक्षा नहीं हो सकती है, सुप्रीम कोर्ट ने एनजीओ लोक प्रहरी द्वारा पुनर्विचार याचिका में पारित आदेश को वापस लेने के लिए दायर एक आवेदन को खारिज करते हुए ये टिप्पणी की। 
         दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2018 में एनजीओ लोक प्रहरी द्वारा एक जनहित याचिका को खारिज कर दिया था जिसमें मांग की गई थी कि चूंकि कानून दोषसिद्धि पर रोक प्रदान नहीं करता है, यहां तक ​​कि इस मामले में अपीलीय अदालत द्वारा एक अपराध के लिए इस पर रोक लगाई गई हो तो भी जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 के तहत अयोग्यता पर ऐसे किसी भी स्थगन आदेश का प्रभाव नहीं होता है। अदालत ने दोहराया था कि एक बार सांसद या विधायक की दोषसिद्धि को अपीलीय अदालत ने सीआरपीसी की धारा 389 के तहत रोक दिया है तो जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 की उपधारा 1, 2 और 3 के तहत अयोग्यता संचालित नहीं होगी। इसके बाद, एनजीओ ने पुनर्विचार याचिका दायर की जिस पर चेंबर में विचार किया गया और खारिज कर दिया गया। बाद में एनजीओ द्वारा आदेश को वापस लेने का आवेदन दायर किया गया जिसे रजिस्ट्रार ने पंजीकृत करने से मना कर दिया। जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस दिनेश माहेश्वरी की पीठ के समक्ष यह मामला रखा गया था। यह तर्क दिया गया था कि रजिस्ट्रार के पास सर्वोच्च न्यायालय के नियमों, 2013 में उल्लिखित तीन आधारों को छोड़कर, आदेश वापस लेने के आवेदन के पंजीकरण से इनकार करने की कोई शक्ति नहीं है। इस संबंध में, पीठ ने देखा: उक्त आवेदन में दावा की गई राहत, हमारी राय में, अस्थिर है।                    पुनर्विचार याचिका में पारित आदेश की कोई समीक्षा नहीं हो सकती है। ये तथ्य कि पुनर्विचार याचिका में आदेश पारित किए जाने से पहले आवेदक-याचिकाकर्ता को नहीं सुना गया था, ' आदेश वापस के लिए आवेदन' दायर करने का आधार नहीं हो सकता है। इसके लिए, इस न्यायालय के व्यवहार और नियमों के अनुसार चेंबर में विचार करने की परंपरा के आधार पर पुनर्विचार याचिका का निर्णय लिया गया है। इस प्रकार, पीठ ने आवेदन को खारिज कर दिया। 
    लोक प्रहरी बनाम भारत निर्वाचन आयोग लोक प्रहरी द्वारा दायर जनहित याचिका में पारित फैसले में, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एएम खानविलकर की पीठ ने इस प्रकार कहा था: ".... यह अच्छी तरह से तय किया गया है कि अपीलीय अदालत के पास शक्ति है कि वो एक उपयुक्त मामले में, सजा को निलंबित करने के अलावा धारा 389 के तहत दोषसिद्धि पर भी रोक लगा सकता है लेकिन ये शक्ति एक अपवाद के रूप में है।इसका प्रयोग करने से पहले अपीलीय अदालत को इसके परिणाम के बारे में पता होना चाहिए कि अगर दोषसिद्धि पर रोक नहीं लगाई जाती तो यह सुनिश्चित हो कि इसके परिणाम अलग होंगे। एक बार अपील अदालत द्वारा दोषसिद्धि पर रोक लगाने के बाद, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 की उपधारा 1, 2 और 3 के तहत अयोग्यता संचालित नहीं होगी। अनुच्छेद 102 (1) (ई) और अनुच्छेद 191 (1) (ई) के तहत अयोग्यता संसद द्वारा या उसके तहत बनाए गए किसी भी नियम के तहत संचालित होती है। धारा 8 के उपर्युक्त प्रावधानों के तहत अयोग्यता सूचीबद्ध अपराधों में से किसी एक पर हो सकती है। 
        एक बार दोषसिद्धि पर अपील के लंबित रहने के दौरान रोक लगा दी गई तो अयोग्यता जो सजा के परिणाम के रूप में संचालित होती है, प्रभाव में नहीं ले सकती या बनी नहीं रह सकती है।" यह भी स्पष्ट किया था कि ये प्रस्तुत करने में कोई योग्यता नहीं है कि धारा 389 के तहत अपीलीय अदालत द्वारा प्रदत्त शक्ति में, एक उपयुक्त मामले में, दोषसिद्धि पर रोक लगाने की कोई शक्ति शामिल नहीं है- यह इस प्रकार कहा गया था: "स्पष्ट रूप से, अपीलीय अदालत इस तरह की शक्ति होती है। राम नारंग मामले में कानूनी स्थिति और उसके बाद के फैसलों के तहत ये प्रस्तुत करने में कोई योग्यता नहीं है कि धारा 389 के तहत अपीलीय अदालत में दी गई शक्ति में एक उचित मामले में दोषसिद्धि पर रोक लगाने की शक्ति शामिल नहीं है। 
        स्पष्ट रूप से, अपीलीय अदालत के पास ऐसी शक्ति होती है। इसके अलावा, निश्चित रूप से ऐसा नहीं है कि कि अपीलीय अदालत द्वारा दोषसिद्धि पर रोक लगाने के बावजूद अयोग्यता बनी रहेगी। 
       अपीलीय अदालत में ये प्राधिकृत शक्ति ये सुनिश्चित करने के लिए है कि अस्थिर या तुच्छ आधार पर एक सजा गंभीर पूर्वाग्रह पैदा करने के लिए काम ना करे। जैसा कि लिली थॉमस के फैसले में स्पष्ट किया गया है कि दोषसिद्धि पर रोक के कारण धारा 8 1, 2 और 3 के उपबंधों से संबंधित अयोग्यता के परिणाम भुगतने से व्यक्ति को राहत मिलेगी।" 

सर्विस रिकार्ड में जन्मतिथि बदलने का अनुरोध नौकरी के अन्तिम समय में नहीं माना जा सकता -सुप्रीम कोर्ट

सर्विस रिकॉर्ड में जन्मतिथि बदलने का कर्मचारी का अनुरोध नौकरी के अंतिम समय में नहीं माना जा सकता : सुप्रीम कोर्ट 

      सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर कहा है कि किसी कर्मचारी के सर्विस रजिस्टर में जो जन्मतिथि दर्ज हो जाती है उसमें नौकरी के अंतिम समय में बदलाव की मांग नहीं मानी जा सकती। न्यायमूर्ति आर भानुमति और न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना की पीठ ने कहा कि भले ही यह साबित करने के लिए अच्छे सबूत हों कि रिकॉर्ड में दर्ज जन्मतिथि गलत है तो भी सुधार का दावा अधिकार के तौर पर नहीं किया जा सकता। इस मामले में, कर्मचारी ने नौकरी शुरू करने की तारीख से 30 साल से अधिक समय के बाद, अपने सेवा रिकॉर्ड में जन्मतिथि सही करने का अनुरोध किया था। उच्च न्यायालय ने कर्मचारी को राहत दी थी और इसलिए, नियोक्ता कंपनी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। अपने दावे के समर्थन में कर्मचारी ने 'भारत कोकिंग कोल लिमिटेड एवं अन्य बनाम छोटा बिरसा उरांव (2014) 12 एससीसी 570' मामले में दिये गये फैसले का हवाला दिया था। उक्त निर्णय को स्पष्ट करते हुए बेंच ने कहा : उस मामले में इस बात का संज्ञान लिया गया था कि 1987 में कर्मचारियों के सर्विस रिकॉर्ड दुरुस्त करने के लिए नेशनल कोल वेज एग्रीमेंट (iii) के पेज 13 पर अमल शुरू किया गया था और इसके लिए सभी कर्मचारियों को उनके मौजूदा सेवा रिकॉर्ड से युक्त नॉमिनेशन फॉर्म देकर रिकॉर्ड में जारी अनियमितताओं की पहचान करने और उन्हें सुधारने का मौका दिया गया था। उद्धृत मामले में प्रतिवादी (कर्मचारी) को अपनी जन्मतिथि, नियुक्ति की तारीख, पिता के नाम और स्थायी पता में विसंगतियां नजर आयी थी और उसने भी विसंगतियों को दूर करने के लिए उपलब्ध कराये गये मौके का लाभ उठाया था। कर्मचारी ने गड़बड़ियों को सुधारने की मांग की थी और उसके अनुरूप उसकी अन्य विसंगतियां तो दूर कर दी गयी थी, लेकिन उसकी जन्मतिथि और नियुक्ति की तारीख की विसंगतियां दूर नहीं हो पायी थी और इसके मद्देनजर कर्मचारी ने इस बारे में वाद दायर किया था और राहत की मांग की थी। जिसके बाद उसे राहत प्रदान की गयी थी। हाईकोर्ट के फैसले को दरकिनार करते हुए बेंच ने 'महाराष्ट्र सरकार एवं अन्य बनाम गोरखनाथ सीताराम काम्बले एवं अन्य (2010) 14 एससीसी 423' का उल्लेख किया और कहा कि नौकरी के अंतिम समय में सर्विस रिकॉर्ड में जन्मतिथि में बदलाव का अनुरोध स्वीकार करने योग्य नहीं है। केस नाम : भारत कोकिंग कोल लिमिटेड बनाम श्याम किशोर सिंह केस नं. : सिविल अपील संख्या 1009/2020 कोरम : न्यायमूर्ति आर भानुमति और न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना वकील : एएसजी के. एम. नटराज (अपीलकर्ता के लिए), एडवोकेट एम शोएब आलम (प्रतिवादियों के लिए)

Thursday, February 6, 2020

जूनियर वकील को धमकाने की अनुमति नहीं : दिल्ली हाईकोर्ट

 जूनियर वकील को धमकाने की अनुम‌ति नहीं", द‌िल्‍ली हाईकोर्ट ने मुकदमे की लागत के एक लाख रुपए वकील को देने का आदेश दिया 

6 Feb 2020 4:18 PM 

           हाईकोर्ट के आदेशों का कथित रूप से पालन न करने के आरोप में एक जूनियर वकील के खिलाफ दायर अवमानना ​​याचिका को खारिज करते हुए, दिल्ली हाईकोर्ट ने जूनियर वकीलों को दी गई धमकियों पर नाराज़गी व्यक्ति की है। अटॉर्नी की कुछ शक्तियों की वैधता का निर्धारण करने के एक मामले के संबंध में सितंबर और दिसंबर 2019 में हाईकोर्ट द्वारा पारित आदेशों के अनुपालन की मांग करते हुए याच‌िकाकर्ता ने एक जूनियर वकील पर आवमानना का आरोप लगाया था। याचिकाकर्ता ने कहा है क‌ि हाईकोर्ट के आदेश का अनुपालन सुनिश्‍चित करने का दारोमदार उन्हीं पर था। ज‌स्टिस प्रतिभा एम सिंह की एकल पीठ ने नोट किया कि याचिकाकर्ता ने अनुपालन के लिए वकील को कई ई-मेल भी भेजे थे। इस पर उन्होंने कहा- "आदेशों के कथित गैर-अनुपालन का यदि कोई ईलाज है तो तो वो इस कोर्ट से संपर्क करना है, न कि विरोधी पक्ष के वकील को ई-मेल भेजना और उन पर आरोप लगाना है।" अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता ने अवमानना ​​के आवेदन में जैसी भाषा का इस्तेमाल किया है, वह अपमानजनक है। याचिकाकर्ता के अनुसार, जूनियर वकील ने "इन 5 ई-मेल में से किसी का भी जवाब देने की जहमत नहीं उठाई" और एक अवसर पर "आवेदक के लिए पेश होने वाले वकील को सूचित करने की धृष्टता की" कि मूल पॉवर ऑफ अटॉर्नी दाखिल करने का कोई इरादा नहीं है, क्योंकि अदालत से इस आशय का कोई आदेश नहीं है।" याचिकाकर्ता की भाषा पर कड़ा रुख अपनाते हुए जस्टिस सिंह ने कहा, "इस तरह के आरोप लगाना और ऐसी भाषा का उपयोग करना जैसे" वकील ने धृष्टता की" इस कोर्ट में पसंद नहीं की जाएगी। ऐसी भाषा कानूनी दलील की सीमाओं को पार करती है और विशेष रूप से उन वकीलों के खिलाफ है, जो अपनी पेशेवर क्षमता के साथ कार्य करते हैं।" मूल मामले के रिकॉर्डों के अध्ययन के बाद अदालत ने पाया कि अटॉर्नी की शक्तियों की वैधता और मान्यता का निर्णय मुख्य मामले में किया जाना था। अदालत ने कहा कि एक जूनियर वकील के खिलाफ आरोप लगाना, वह भी बिना ठोस मामले के, "पूरी तरह से अस्वीकार्य और ग़लत है।" कोर्ट ने कहा- "ऐसा करना जूनियर वकील को धमकी देने जैसा है, जो बिलकुल स्वीकार्य नहीं है। जूनियर वकील पर आरोप लगाना और उन्हें बार-बार ई-मेल भेजना, एक तरीके से, जूनियर वकील को धमकी देना है, जिसकी अनुमति नहीं दी जा सकती है।" कोर्ट ने मामले में जूनियर वकील को 1,00,000/- रुपए का भुगतान करने का आदेश दिया है। मामले का विवरण: केस का शीर्षक: M/S CNA एक्सपोर्ट्स (P) लिमिटेड बनाम मानसी शर्मा व अन्य। केस नं: Cont CAS(C) 66/2020 कोरम: जस्टिस प्रतिभा एम सिंह पेशी: एडवोकेट नीलिमा त्रिपाठी (याचिकाकर्ता के लिए); एडवोकेट दीपक खोसला (प्रतिवादी के लिए) 

CRPC की धारा 391के तहत अतिरिक्त साक्ष्य प्रस्तुत करने की अर्जी पर तुरन्त विचार किया जाना चाहिए- सुप्रीमकोर्ट

 सीआरपीसी की धारा 391 के तहत अतिरिक्त साक्ष्य प्रस्तुत करने की अर्जी पर तुरंत विचार किया जाना चाहिए : सुप्रीम कोर्ट 

6 Feb 2020 


 सीआरपीसी की धारा 391 अतिरिक्त सबूत प्रस्तुत करने की अर्जी पर हाईकोर्ट द्वारा विचार किये जाने से प्रतिबंधित नहीं करती है।" सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अतिरिक्त साक्ष्य प्रस्तुत करने की मांग को लेकर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 391 के तहत दाखिल अर्जी पर तुरंत विचार किया जाना चाहिए। ऐसी अर्जी पर विचार के लिए अंतिम तौर पर सुने जाने वाली अपील का इंतजार नहीं किया जाना चाहिए। इस मामले में हाईकोर्ट ने हत्या के एक आरोपी की अपील के तहत सीआरपीसी की धारा 391 के अंतर्गत दाखिल अर्जी का यह कहते हुए निबटारा कर दिया था कि अपीलकर्ता को अपीलों की अंतिम तौर पर सुनवाई के वक्त उपयुक्त अर्जी दाखिल करने की अनुमति दी जाती है। हाईकोर्ट ने 'भारत सरकार बनाम इब्राहिम उद्दीन 2012 (8) एससीसी 148' के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया था कि अतिरिक्त सबूत को रिकॉर्ड पर लेने की अर्जी पर अपील की अंतिम सुनवाई के वक्त विचार किया जाना चाहिए। संबंधित फैसला अतिरिक्त साक्ष्य प्रस्तुत करने को लेकर नागरिक प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) के आदेश XLI नियम 27 के तहत दर्ज होने वाली अर्जी से जुड़ा है। न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव एवं न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की खंडपीठ ने कहा कि इस मामले में सीआरपीसी की धारा 391 के तहत अर्जी दाखिल की गयी थी, जो अपीलीय कोर्ट को खुद सबूत लेने या मजिस्ट्रेट के जरिये अथवा सत्र अदालत द्वारा सबूत लेने के लिए अधिकृत करता है, यदि कारणों को रिकॉर्ड में लेने के बाद वह इस बात से संतुष्ट है कि अतिरिक्त सबूत जरूरी है। कोर्ट ने कहा : "सीआरपीसी की धारा 391 अतिरिक्त सबूत प्रस्तुत करने की अर्जी पर हाईकोर्ट द्वारा विचार किये जाने से प्रतिबंधित नहीं करती है। दरअसल, हमारा मानना है कि अतिरिक्त साक्ष्य प्रस्तुत करने की मांग को लेकर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 391 के तहत दाखिल अर्जी पर तुरंत विचार किया जाना वांछनीय है। ऐसी अर्जी पर विचार के लिए अंतिम तौर पर सुने जाने वाली अपील का इंतजार नहीं किया जाना चाहिए।" बेंच ने हाईकोर्ट के आदेश को निरस्त करते हुए उसे सीआरपीसी की धारा 391 के तहत इस अर्जी पर त्वरित सुनवाई करने का आदेश दिया। केस का नाम : असीम उर्फ मुनमुन उर्फ आसिफ अब्दुलकरीम सोलंकी बनाम गुजरात सरकार केस नं.: - क्रिमिनल अपील नं. 184/2020 कोरम : न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता अपीलकर्ता का वकील : वरिष्ट अधिवक्ता विभा दत्ता मखीजा प्रतिवादी का वकील : अधिवक्ता आस्था मेहता 

Wednesday, February 5, 2020

IPC की धारा 397 के तहत सजा देने के लिए पेपर कटर घातक हथियार है

 आईपीसी की धारा 397 के तहत सज़ा देने के लिए पेपर कटर घातक हथियार : दिल्ली हाईकोर्ट 

5 Feb 2020 


        दिल्ली हाईकोर्ट ने माना है कि हत्या के प्रयास के साथ लूट की घटना को अंजाम देने के मामले में सज़ा देने के उद्देश्य से एक पेपर-कटर को 'घातक हथियार' माना जाएगा। एक मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने पेपर कटर को घातक हथियार होने में सक्षम माना। न्यायमूर्ति विभु बाखरू की एकल पीठ ने कहा है कि शरीर के एक महत्वपूर्ण हिस्से पर पेपर-कटर से गहरा कट वास्तव में घातक साबित हो सकता है। - पीठ ने कहा कि 'हालांकि यह कागज काटने के एक विशिष्ट उद्देश्य के लिए है, लेकिन इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि इसका ब्लेड बहुत तेज़ है और घातक चोट पहुंचाने में सक्षम है।' वर्तमान अपील में, अपीलकर्ता ने धारा 397 के तहत दोषी दिए जाने के साथ-साथ 7 साल के सश्रम कारावास की सजा के आदेश को भी चुनौती दी थी। अभियोजन पक्ष द्वारा स्थापित तथ्यों के अनुसार, अपीलकर्ता ने पीड़ित का मोबाइल फोन लूटने के लिए पेपर-कटर का इस्तेमाल किया था। अपीलकर्ता के वकील ने तर्क दिया था कि एक पेपर कटर एक घातक हथियार नहीं है और इसलिए, भले ही यह स्वीकार कर लिया जाए कि अपीलकर्ता ने शिकायतकर्ता को लूटने के उद्देश्यों से इसे अपने पास रखा था, फिर भी आईपीसी की धारा 397 के तहत अपराध स्थापित नहीं होता है। उन्होंने आगे कहा कि पेपर कटर की चाकू से बराबरी नहीं की जा सकती है, क्योंकि यह एक स्टेशनरी आइटम है। उन्होंने प्रस्तुत किया कि पेपर कटर का ब्लेड मजबूत नहीं होता है और आमतौर पर किसी भी प्रतिरोध के कारण टूट जाता है। उन्होंने 'बिशन बनाम राज्य (1984)' मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें यह कहा गया था कि सब्जी वाले चाकू को घातक हथियार नहीं माना जा सकता है। शुरुआत में, अदालत ने कहा था कि जिस प्रश्न पर निर्णय लेने की आवश्यकता है, वह यह है कि क्या चाकू आईपीसी की धारा 397 के सजा देने के लिए एक घातक हथियार के रूप में योग्य है? अदालत ने कहा कि ऐसे बहुत सारे मामले है जो इस दृष्टिकोण का अनुसरण करते हैं कि क्या चाकू एक घातक हथियार है। इस सवाल का जवाब विभिन्न कारकों द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए, जिसमें चाकू का डिजाइन और जिस तरह से इसका उपयोग किया गया है, वो भी शामिल होना चाहिए। हालांकि ऐसे मामलों की एक और पंक्ति थी जहां न्यायालय ने यह देखा था कि किसी भी विवरण का एक चाकू अभी भी, एक चाकू है और एक घातक हथियार है। इस विषय के संबंध में दिए गए दिल्ली हाईकोर्ट के विभिन्न निर्णयों को देखने के बाद, अदालत ने कहा कि- 'एक पेपर कटर भी चाकू की एक प्रजाति है, जैसे कि इसमें एक हैंडल और एक ब्लेड है। हालांकि यह कागज काटने के एक विशिष्ट उद्देश्य के लिए है, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जाता है कि इसका ब्लेड बहुत तेज है और एक घातक चोट पहुंचाने में सक्षम है।' चूंकि, वर्तमान मामले में, पेपर कटर को शिकायतकर्ता की गर्दन पर रखा गया था, इसलिए अदालत ने आईपीसी की धारा 397 के दायरे में 'घातक हथियार' होने के दावे को स्वीकार कर लिया गया। पीठ ने कहा कि- 'निर्विवाद रूप से, इस तरह के एक उपकरण को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया है और एक पीड़ित की गर्दन पर रखा जाता है, जो चोट के डर से पीड़ित को आतंकित करने के लिए पर्याप्त होता है।' 

Sunday, February 2, 2020

सेक्सन 482का प्रयोग उन मामलों में नहीं होता जहां आरोप को कोर्ट में सावित करने की आवश्यकता नहीं होती


सेक्‍शन 482 का प्रयोग उन मामलों में नहीं, जहां आरोप को कोर्ट में साबित करने की आवश्यकताः सुप्रीम कोर्ट

2 Feb 2020 

सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया है कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के तहत प्रदत्त शक्ति का प्रयोग उन मामलों में नहीं किया जा सकता, जहां आरोपों को कोर्ट में साबित करने की आवश्यकता होती है।

इस मामले में आरोप था कि एक सहकारी बैंक के कर्मचारियों के साथ मिलीभगत कर आरोपी के मृतक पिता ने अपने पद का दुरुपयोग किया। उन्होंने रिश्तेदारों को जाली दस्तावेजों के आधार पर फर्जी ऋण प्रदान किया और वित्तीय अनियमितताएं की। आरोपी पर आपीसी की धारा 420, 406, 409, 120 बी आईपीसी के तहत आरोप दायर किया गया था।

रिवीजन पिटीशन में हाईकोर्ट ने पाया था कि प्रतिवादियों के खिलाफ धारा 420 और 120 बी आईपीसी के तहत अपराधियों स्‍थापित नहीं हो सकता है। यह माना गया कि इस बात का कोई दावा नहीं किया गया है कि ऋण इस जानकारी के सा‌थ दिया गया कि वे ऋण का भुगतान नहीं करेंगे।

जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस हेमंत गुप्ता की पीठ ने राज्य द्वारा दायर अपील को अनुमति देते हुए कहा कि हाईकोर्ट ने प्री-ट्रायल स्टेज पर पूरे मामले की जांच की है कि क्या अपराध सेक्शन 420 और 120-बी के तहत किया गया है या नहीं ।

पीठ ने कहा-

"प्रतिवादियों के पिता जब बैंक के प्रेसिडेंट थे, उन्हें कैश क्रेडिट लिमिट अनुदान लाभ दिया गया। आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के तहत प्रदत्त शक्ति का प्रयोग उन मामलों में नहीं किया जा सकता है, जहां आरोपों को अदालत में साबित करने की आवश्यकता होती है।

जिस तरह से बिना उचित दस्तावेजों के ऋण दिया गया और यह तथ्य कि प्रतिवादी अपने पिता की उदारता के लाभार्थी रहे हैं, प्रथम दृष्टया आईपीसी की धारा 420 और 120-बी के तहत किया गया अपराध है। यह कहा जा सकता है कि बैंक के अन्य अधिकारियों को अधिनियम की धारा 13 (1) (डी) और 13 (2) के तहत आरोपित किया गया है।"

केस टाइटल: स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश बनाम योगेंद्र सिंह जादौन व अन्य

केस नं: CRIMINAL APPEAL NO 175 OF 2020

कोरम: जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस हेमंत गुप्ता

वकील द्वारा दिये गये असमान बयान उनके मुवक्किल के लिए वाध्यकारी

वकील द्वारा दिए गए असमान बयान उनके मुव्वकिल के लिए बाध्यकारी : सुप्रीम कोर्ट  

 2 Feb 2020 9:06 AM 

         सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वकील द्वारा दिए गए असमान बयान उनके मुव्वकिल के लिए बाध्यकारी होंगे। इस मामले में मकान मालिक के वकील ने उच्च न्यायालय के सामने बयान दिया था कि किरायेदार को एक महीने के भीतर नवनिर्मित भवन में बराबर क्षेत्र में फिर से रखा जाएगा। शीर्ष अदालत के सामने मुद्दा यह था कि क्या मकान मालिक पर वकील द्वारा दिए गए ये बयान बाध्यकारी हैं। जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस दिनेश माहेश्वरी की पीठ ने उल्लेख किया कि उच्च न्यायालय के समक्ष मालिक के वकील ने उसके केस की वकालत करते हुए एक असहमतिपूर्ण बयान दिया। यह भी उल्लेख किया गया कि ऐसा कोई मामला नहीं है कि मालिक ने स्पष्ट रूप से अपने वकील को इस तरह का बयान नहीं देने का निर्देश दिया था। पीठ ने यह कहा, केस बेदखली की कार्यवाही के संबंध में था और यह कथन अपीलार्थी की प्रतिबद्धता के विषय में था और एक असमान कथन होने के कारण यह अपीलार्थी के लिए बाध्यकारी होगा। कोर्ट ने कहा कि हिमालयन कॉपरेटिव ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी बनाम बलवान सिंह में यह देखा गया कि प्राधिकरण-एजेंसी का दर्जा वकील को मुव्वकिल के लिए कार्य करने के लिए वकीलों को नियुक्त करता है। इसने निर्णय में निम्नलिखित टिप्पणियों को नोट किया गया : आम तौर पर, एक वकील द्वारा किए गए तथ्यों पर बयान उनके मुव्वकिल पर बाध्यकारी होते हैं जब तक वे असमान नहीं होते हैं; हालांकि, जहां संदेह एक कथित बयान के रूप में मौजूद है, अदालत को इस तरह के कथन को स्वीकार करने के लिए सावधान रहना चाहिए जब तक कि वकील या अधिवक्ता इस तरह के कथन के लिए अपने प्रमुख द्वारा अधिकृत न हों। एक वकील के पास आम तौर पर कथन या बयान देने के लिए कोई निहित या स्पष्ट अधिकार नहीं होता है जो मुव्वकिल के सीधे कानूनी अधिकारों को आत्मसमर्पण या समाप्त कर दे जब तक कि ऐसा कथन या बयान स्पष्ट रूप से उस उद्देश्य को पूरा करने के लिए एक उचित कदम नहीं है जिसके लिए वकील कार्यरत था। हम जोड़ सकते हैं कि कुछ मामलों में, वकील मुव्वकिल की सलाह के बिना निर्णय ले सकते हैं। जबकि अन्य में, निर्णय मुव्वकिल के लिए आरक्षित होता है। यह अक्सर कहा जाता है कि वकील मुव्वकिल की सलाह के बिना रणनीति के रूप में निर्णय ले सकता है, जबकि मुव्वकिल को वो निर्णय लेने का अधिकार है जो उसके अधिकारों को प्रभावित कर सकता है। आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें 

Saturday, February 1, 2020

अकारण किसी बच्चे को उसके बाप के प्यार से वंचित नहीं किया जा सकता -बॉम्बे हाई कोर्ट

 अकारण किसी बच्चे को उसके बाप के प्यार से वंचित नहीं किया जा सकता; बॉम्बे हाईकोर्ट ने मिस्र के नागरिक की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका मंजूर की |

      बॉम्बे हाईकोर्ट ने गुरुवार को मिस्र के नागरिक ख़ालिद क़ासिम की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका स्वीकार कर ली जो उसने अपनी पत्नी की बहन और मां के ख़िलाफ़ दायर की थी। उसने आरोप लगाया है कि इन दोनों ने उनके 11 महीने के बेटे कियान को छिपा रखा है। न्यायमूर्ति एसएस शिंदे और न्यायमूर्ति एनबी सूर्यवंशी की पीठ ने इस याचिका की सुनवाई की। याचिका में कहा गया था कि याचिकाकर्ता की पत्नी सौमी की मौत के बाद उसकी पत्नी की बहन पौलमि ने कोशिश की कि वह कियान को उसके साथ भारत में ही छोड़ दे और उसे अल्जीरिया की अपनी नौकरी भी छोड़ दे। यह भी आरोप लगाया अगया कि पौलमि ने याचिकाकर्ता के खिलाफ यौन उत्पीड़न का फ़र्ज़ी आरोप लगाते हुए मामला भी दायर किया था ताकि वह कियान का संरक्षण प्राप्त कर सके। पृष्ठभूमि याचिकाकर्ता ने सौमी घोष से अगस्त 2014 में शादी की। यह विवाह म्यांमार के मिस्र दूतावास में आयोजित हुआ। उनके बेटे कियान का जन्म 3 फ़रवरी 2019 पुणे में हुआ। 17 अप्रैल 2019 को सौमी की अचानक मौत हो गई। याचिकाकर्ता ने कहा कि उसकी पत्नी की मौत के तुरंत बाद पौलमि उस पर उसके बेटे को पुणे में उसके पास छोड़ देने का दबाव बनाने लगी। यहां तक कि पौलमि ने उसे अल्जीरिया की अपनी नौकरी भी छोड़ देने और पुणे में बस जाने को कहा। इसके बाद याचिकाकर्ता बच्चे और पौलमि के साथ जून 2019 में मिस्र गए जहां वे एक ही अपार्टमेंट में रहे। इस दौरान कियान को पौलमि ने अपने पास ही कमरे में बंद करके रखा। बाद में पौलमि ने उसके साथ शादी करके साथ रहने की इच्छा ज़ाहिर की। तीनों दुबई आ गए जहां याचिककर्ता को नौकरी मिल गई। पर याचिकाकर्ता ने पौलमि को स्पष्ट कहा था कि वह उससे शादी नहीं कर सकता। इसके बाद सितम्बर 2019 में पौलमि ने भारत आने की ज़िद की। 29 सितम्बर को याचिकाकर्ता को पता चला कि पौलमि ने उसके ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न का मुक़दमा भी दायर किया है। फ़ैसला नवरोज़ सीरवाई ने याचिकाकर्ता की पैरवी की जबकि सोनल गुप्ता और रोहित गुप्ता ने पौलमि और उसकी मां चंदा की पैरवी की। सीरवाई ने अपनी दलील में कहा कि यह मामला बच्चे का संरक्षण किसको मिलेगा इसका नहीं है बल्कि बच्चे को ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से बंद रखने का है। प्रतिवादी के वक़ील ने कहा कि याचिकाकर्ता पिता बनने लायक़ नहीं है क्योंकि वह गुस्सेवाला और धौंस जमाने वाला है और उसने पौलमि का यौन उत्पीड़न किया था और उसमें बच्चों के यौन शोषण की भी धारणा है। अदालत ने कहा, "…कियान मात्र 11 महीने का है और उसे किसी धर्म का बताना उसके ख़िलाफ़ ज़्यादती होगी…अभी वह अपनी राय क़ायम करने की स्थिति में नहीं है।" "निर्विवाद रूप से याचिकाकर्ता बच्चे का एकमात्र स्वाभाविक अभिभावक है। 11 महीने के बच्चे को निश्चित रूप से उसके प्यार और देखभाल की ज़रूरत है। यह भी लगता है कि याचिकाकर्ता की आर्थिक स्थिति स्थायी है। याचिकाकर्ता की योग्यता को देखते हुए और यह कि उसकी नौकरी भी अच्छी है और वह प्रतिष्ठित पद पर काम करता है, कियान को उसके संरक्षण से वंचित करने का कोई कारण नहीं है…। बालक कीयन की मां की मौत उस समय हो गई थी जब वह मात्र दो महीने का था और बिना किसी उचित कारण के उसे उसके पिता के प्यार से वंचित नहीं किया जा सकता।" इस बारे में अदालत ने याशिता साहू बनाम राजस्थान राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का हवाला भी दिया। और अंत में याचिकाकर्ता ने यह लिखित आश्वासन दिया कि अगर अदालत बच्चे को उसके संरक्षण में देती है तो वह पौलमि और उसकी माँ दोनों को पूरे वर्ष भर कीयन से मिलने देंगे और नोटिस देने के बाद वे यूएई में कियान से मिल सकते हैं। इस तरह अदालत ने कियान को याचिकाकर्ता के संरक्षण में दे दिया।

Friday, January 31, 2020

जानिये साक्छय अधिनियम में स्वीकृति का अर्थ

जानिए साक्ष्य अधिनियम में स्वीकृति का क्या अर्थ है 

 31 Jan 2020 6:46



           भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत स्वीकृति (Admission) को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य को मान लेता है या अपराध को स्वीकार कर लेता है तो उसे आम भाषा में इसे स्वीकृति कहा जाता है।    
         साक्ष्य अधिनियम में इसे विस्तार से समझाया गया है। अधिनियम की धारा 17 के अनुसार- स्वीकृति वह (मौखिक या दस्तावेजी या इलेक्ट्रॉनिक रूप में अंतर्विष्ट) कथन है,जो किसी विवाधक तथ्य या सुसंगत तथ्य के बारे में कोई अनुमान इंगित करता है और जो ऐसे व्यक्तियों में से किसी के द्वारा ऐसी परिस्थितियों में किया गया है जो एतस्मिन पश्चात वर्णित है।
        अधिनियम की यह परिभाषा अत्यधिक गूढ़ और गहन है, इसे समझने में थोड़ी सी कठिनाई हो सकती है। इस धारा में तीन बातों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है। प्रथम- यह धारा स्वीकृति की परिभाषा देती है। दूसरा- धारा कहती है कि स्वीकृति तभी सुसंगत होगी जब अधिनियम में बताए गए व्यक्तियों द्वारा की गई हो। तीसरा- स्वीकृति केवल उन्हीं परिस्थितियों में सुसंगत होगी जो अधिनियम में बताई गई हैं। ऐसी परिस्थितियां धारा 18 से लेकर 30 तक वर्णित हैं तथा कौन से व्यक्तियों द्वारा स्वीकृति की जाएगी, यह भी अधिनियम में बताया गया है।
.          स्वीकृति के कथनों के माध्यम से किसी विवाधक तथ्यों या सुसंगत तथ्यों के अस्तित्व का अनुमान लगाया जाता है, इसलिए साक्ष्य विधि में स्वीकृति को महत्व दिया गया है। 
           स्वीकृति एक अत्यंत मजबूत साक्ष्य है तथा अन्य साक्ष्यों के मुकाबले स्वीकृति का साक्ष्य अधिक शक्तिशाली होता है। आवश्यक नहीं की कोई स्वीकृति तभी सुसंगत होगी जब वह पूर्ण रूप से दायित्व को स्वीकार करे, केवल इतना ही पर्याप्त होगा की किसी ऐसे तथ्य को स्वीकार किया गया है जिससे दायित्व का अनुमान लगता है। अर्थात यदि व्यक्ति ने किसी ऐसे तथ्य को स्वीकार कर लिया है जो उसके दायित्व का साक्ष्य देती है तो यह सुसंगत होगी। 
       चीखम बनाम सुब्बाराव (ए आई आर 1981 एस सी 1542) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि किसी व्यक्ति का कोई अधिकार उसी के द्वारा की गई स्वीकृति के आधार पर छीनने के लिए यह आवश्यक है कि स्वीकृति स्पष्ट तथा अंतिम हो उसमें कोई शक या अनिश्चितता वाली बात नहीं होना चाहिए। 
        इस मामले के माध्यम सुप्रीम कोर्ट यह बताना चाहता है कि यदि किसी व्यक्ति को उसके द्वारा की गई स्वीकृति के माध्यम से किसी अधिकार से वंचित करना है तो ऐसी स्वीकृति स्पष्ट एवं साफ साफ होनी चाहिए।
         स्वीकृति अंशों में होती है तथा इसी स्वीकृति के माध्यम से किसी एक ही संव्यवहार के अलग-अलग तथ्यों को साबित किया जा सकता है। जैसे कि किसी स्थान पर लाश मिलने के परिणाम स्वरूप किसी व्यक्ति को हत्या के अभियोजन में आरोपी बनाया गया है और आरोपी व्यक्ति यह स्वीकार करता है कि जिस समय व्यक्ति की हत्या हुई थी उस समय वह उस ही स्थान पर था तो भले ही यह स्वीकृति यह साबित नहीं कर रही है की हत्या आरोपी द्वारा ही की गई है, परंतु यह अवश्य साबित कर रही है की आरोपी व्यक्ति हत्या के समय जिस स्थान से लाश मिली है उस स्थान पर उपस्थित था। बृजमोहन बना अमरनाथ (एआईआर 1980 एस सी 54) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि न्यायालय को स्वीकृति के कथन के अंदर बाहर दोनों ओर से जांच कर लेनी चाहिए और किसी व्यक्ति को उसके कथनों से बाध्य करने से पहले यह देख लेना चाहिए कि वह व्यापक तथा स्पष्ट है। समय-समय पर न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय के आधार पर स्वीकृति के कुछ तत्वों निकल कर सामने आते हैं जो निम्न हो सकते हैं- सबूत की आवश्यकता नहीं होना स्वीकृति के कारण किसी तथ्य के सुसंगत होने पर सबूत आवश्यक नहीं रह जाती है। यदि कुछ तथ्यों को स्वीकृति मिल गई है तो ऐसे तथ्यों का सबूत देने की आवश्यकता नहीं रहती, जिस व्यक्ति द्वारा स्वीकृति की जाती है उसे अपनी बात को साबित करने के लिए कोई सबूत देने की आवश्यकता नहीं होती है।
          जैसे यदि कोई भरण पोषण के लिए मुकदमा लाया जाता है यह मुकदमा अगर पत्नी द्वारा लाया जाता है, पत्नी किसी व्यक्ति को अपना पति बता रही है यदि वाद पत्र का जवाब देते हुए व्यक्ति जिस पर वाद लाया गया है वह वाद लाने वाली स्त्री को अपनी पत्नी मान लेता है तो या स्वीकृति है तथा इस स्वीकृति का साक्ष्य देने की आवश्यकता नहीं होगी।
           स्वीकृति उसे करने वाले व्यक्ति के हित के विपरीत होती है स्वीकृति के संदर्भ में यह माना गया है कि कोई भी स्वीकृति उसे करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध होती है। स्वीकृति उसे करने वाले व्यक्ति के हित के विरुद्ध ही जाती है,जो व्यक्ति ऐसी स्वीकृति कर रहा है। परंतु यह आवश्यक नहीं है कि कोई भी स्वीकृति सदैव उसे करने वाले व्यक्ति के हित के विरुद्ध ही जाए। 
         कभी-कभी स्वीकृति केवल किसी विवाधक या सुसंगत तथ्य के अनुमान के लिए ही होती है। यह इस स्वीकृति को करने वाले व्यक्ति के हित के विपरित नहीं जाती है। 
        भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत स्वीकृति को ऐसा ही माना गया है। अधिनियम के अंतर्गत स्वीकृति को केवल इतना माना गया है कि यह स्वीकृति केवल विवाधक एवं सुसंगत तथ्यों के अनुमान बताती है उनके अस्तित्व का निर्धारण करती है। स्वीकृति के लिए सत्य की अवधारणा की जा सकती है यदि कोई पक्षकार अपने हित के विरुद्ध कोई कथन कर रहा है तो यह उपधारणा की जा सकती है कि वह कथन सत्य ही होगा, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने बारे में किए गए ऐसे कथन को झूठ नहीं कहेगा, जो उसके हित के विरुद्ध हो इसलिए यह स्वीकृति का तत्व माना जा सकता है।
         स्वीकृति में सत्य की अवधारणा की जा सकती है। स्वीकृति के प्रकार न्याय निर्णय के माध्यम से स्वीकृति के प्रकारों को समझा जा सकता है। स्वीकृति कितने प्रकार की हो सकती है यह अलग-अलग न्याय निर्णय में समझा गया है। 
         न्यायिक स्वीकृति जो स्वीकृति न्यायालय में की गई कार्यवाही के साथ की जाती है उसे प्रारूपिक स्वीकृति या न्यायिक स्वीकृति कहते है, जो स्वीकृति स्पष्ट रूप से कार्यवाही के आरंभ में की जाती है उन्हें प्रारूपिक या प्रत्यक्ष स्वीकृति कहते हैं, ताकि उन्हें ऐसी इस स्वीकृति से भिन्न रखा जा सके जो औपचारिक तथा आकस्मिक रूप से हो जाती है, जिन्हें गवाहों की सहायता से साबित करना पड़ता है। नगीनदास रामदास बनाम दलपतराम इच्छाराम के वाद में उच्चतम न्यायालय ने प्रारूपिक स्वीकृति के महत्व को समझा है तथा प्रारूपिक स्वीकृति के संदर्भ में कहा है कि यह एक मजबूत साक्ष्य होती है तथा ऐसे किसी साक्ष्य को साबित किए जाने की आवश्यकता नहीं होती है। यह न्यायालय के समक्ष की जाती है। ऐसी स्वीकृति यदि सही और स्पष्ट हो तो तथ्यों का सबसे अच्छा सबूत होती है। 
           ऐसी स्वीकृति जो पक्षकारों ने अपने वाद में की है उसने न्यायिक स्वीकृति कहते है,जो धारा 58 के अंतर्गत है तथा जिसे पक्षकारों तथा उनके अभिकर्ताओं ने सुनवाई में किया है। ऐसी स्वीकृति दूसरा स्थान रखती है जो न्यायालय के बाहर होती है और गवाहों द्वारा साबित होती है। प्रथम श्रेणी की स्वीकृति करने वाले पक्षकार पर स्वीकृति पूर्ण रूप से बाध्य होती है, उनके सबूत का अभित्याजन हो जाता है, पक्षकारों के अधिकारों की बुनियाद बन सकती है।
            अनौपचारिक स्वीकृति अनौपचारिक स्वीकृति जीवन या कारोबार के साधारण वार्तालाप के क्रम में हो सकती है। ऐसी स्वीकृति लिखित हो सकती है या मौखिक।लिखित स्वीकृति पत्र व्यवहार के दौरान कारोबार की पुस्तकों में पासबुक आदि में हो सकती है। स्लेटलेरी बनाम पूले का मामला जिसे करण सिंह बनाम स्टेट ऑफ जम्मू एंड कश्मीर के मामले में मान्यता दी गई है, इसमें यह कहा गया है कि पति या पत्नी का प्रत्येक ऐसा कथन चाहे लिखित हो या मौखिक जो किसी पक्षकार ने वाद के तथ्यों के बारे में किया है, स्वीकृति बन जाती है। यदि वह किसी दस्तावेज द्वारा बाध्य है और दस्तावेज की विषय वस्तु के बारे में कोई बात कहता है वह उसके के विरुद्ध साक्ष्य होगा चाहे दस्तावेज स्टांप पर ना होने के कारण न्यायालय में प्रस्तुत ना किया जा सके। मामले प्रतिवादी ने मौखिक कथन के द्वारा यह मान लिया था कि उसने उतना ऋण लिया था जितना की दस्तावेज में लिखा हुआ था या उसके विरुद्ध साक्ष्य में कबूल हुआ। हेमचंद्र गुप्ता बनाम ओम प्रकाश गुप्ता एआईआर 1987 कोलकाता 69 के मामले में जिस व्यक्ति ने पारिवारिक बंटवारे के विलय पर हस्ताक्षर किए थे।
         उसके विरुद्ध यह स्वीकृति मान ली गई, क्योंकि सभी व्यक्तियों द्वारा ऐसे किसी भी लेख पर हस्ताक्षर नहीं किए गए थे। औपचारिक स्वीकृति का कथन हम किसी भी व्यक्ति के समक्ष कर सकते हैं, यह कथन किसी पति और पत्नी के बीच हुए संवाद के आधार पर भी हो सकता है।
        एक मामले में उच्चतम न्यायालय के शब्दों में यद्यपि किसी भूतपूर्व कथन मैं अपने ही पक्ष में की गई कोई बात कोई साक्ष्य नहीं होती है, परंतु कोई ऐसा भूतपूर्व कथन जो कथन करता है के हित के विरुद्ध हो वह स्वीकृति होगा और साक्ष्य के रूप में सुसंगत होगा। आचरण द्वारा स्वीकृति कोई स्वीकृति किसी परिस्थिति में आचरण के द्वारा भी हो सकती है। 
          इस संदर्भ में इंग्लिश विधि का एक महत्वपूर्ण मामला है। इस मामले को मोएबिलिटी बनाम लंदन बाथम ओवर रेलवे का मामला कहा जाता है। इस मामले में व्यक्तिगत क्षति प्राप्त करने हेतु एक वाद रेलवे पर लगाया गया था। 
         इस वाद में वाद लाने वाला व्यक्ति कुछ ऐसे व्यक्तियों को तलाश रहा था जो दुर्घटना के समय वहां उपस्थित नहीं थे। तलाश कर मुकदमे में साक्षी बनाना चाहता था, जबकि व्यक्ति स्थान पर उपस्थित नहीं थे, वाद लाने वाले व्यक्ति का यह आचरण न्यायालय में साबित कर दिया गया तथा आचरण के द्वारा स्वीकृति माना गया तथा वाद को सत्यता के परे माना गया। किसी भी विवाद में व्यक्ति के आचरण कुछ ऐसे होते है जिससे बहुत सी बातों का साक्ष्य मिलता है तथा जिसकी स्वीकृति मानी जा सकती है। एक दिलचस्प उदाहरण के माध्यम से आचरण द्वारा स्वीकृति को समझा जा सकता है।
           यदि जारकर्म लेकर कोई प्रश्न है। जारकर्म से स्त्री को कोई संतान उत्पत्ति होती है। स्त्री ऐसी संतान का जब नगर पालिका या किसी अन्य निकाय में रजिस्टर कराती है तो वह रजिस्टर करते समय संतान के पिता कौन है इस संदर्भ में कोई जानकारी नहीं देती है तो पिता की जानकारी नहीं देना सीधे-सीधे आचरण द्वारा जारकर्म की स्वीकृति मानी जा सकती है। हालांकि यह पूर्ण स्वीकृति नहीं है परंतु जारकर्म के मुकदमे में आंशिक स्वीकृति तो मानी ही जाएगी। 

Wednesday, January 29, 2020

NDPS आरोपी को बरी होने की उचित संभावना के आधार पर जमानत दी -सुप्रीमकोर्ट


 सुप्रीम कोर्ट ने NDPS आरोपी को बरी होने की उचित संभावना के आधार पर जमानत दी 

         सुप्रीम कोर्ट ने नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट ( NDPS), 1985 के तहत आरोपी को इस आधार पर ज़मानत दे दी कि इस बात की उचित संभावना है कि वह बरी हो सकता है।
         दरअसल सुजीत तिवारी के खिलाफ अभियोजन का मामला था कि वह इस बात से अवगत था कि NDPS मामले में आरोपी उसका भाई क्या कर रहा था और सक्रिय रूप से वो अपने भाई की मदद कर रहा था।
         कोर्ट ने कहा कि कुछ व्हाट्सएप संदेशों और उनके स्वयं के बयान के अलावा, जिनसे उसने खुद को अलग कर लिया है, कोई अन्य सबूत नहीं है।
        जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस दीपक गुप्ता की पीठ ने कहा कि अपीलकर्ता का मामला अन्य आरोपियों से बिल्कुल अलग है।
         न्यायालय ने उल्लेख किया कि NDPS अधिनियम की धारा 37 के प्रावधान दो सीमाएं निर्धारित करते हैं; एक, यह कि अदालत प्रमुखता से इस विचार हो कि अपीलकर्ता अपराध का दोषी नहीं है और दूसरी बात, कि वह जमानत पर रहते हुए किसी अपराध की संभावना नहीं रखता है। 
       आरोपी को जमानत देते हुए कोर्ट ने कहा, "उचित संभावना यह है कि वह बरी हो सकता है। वह 4 अगस्त 2107 यानी 2 साल से अधिक समय से गिरफ्तारी के बाद से सलाखों के पीछे है तथा 25 साल की उम्र का युवक है। वह बीटेक ग्रेजुएट है। इसलिए, इस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में हमें लगता है कि यह एक फिट मामला है जहां अपीलकर्ता जमानत का हकदार है क्योंकि इस बात की संभावना है कि वह अपने भाई और अन्य चालक दल के सदस्यों की अवैध गतिविधियों से अनजान था।
        अपीलकर्ता का मामला अन्य सभी अभियुक्तों से अलग है, चाहे वह जहाज का मास्टर हो, चालक दल के सदस्य या वे व्यक्ति जो संभावित खरीदारों और संभावित खरीदार को मास्टर के सामने पेश करते हैं। 
         कोर्ट ने जमानत देते समय कठोर शर्तें भी लगाई हैं। "

Monday, January 27, 2020

राजस्व अधिकारियों को अचल सम्पत्तियों का स्वामित्व विवाद तय करने का अधिकार नहीं है

राजस्व अधिकारियों को अचल संपत्तियों का 'स्वामित्व विवाद' तय करने का अधिकार नहीं हैः कर्नाटक हाईकोर्ट 

27 Jan 2020 4:25 PM 1

       कर्नाटक हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला दिया है, जिससे एक ही मामले में कई मुकदमे दर्ज करने की मुश्किल खत्म हो जाएगी। "राजस्व अधिकारियों अर्थात, तहसीलदार, सहायक आयुक्त और उपायुक्त के पास अचल संपत्ति/संपत्तियों के संबंध में पक्षकारों के बीच 'स्वामित्व विवाद' पर फैसला करने का अधिकार क्षेत्र नहीं है। यह फैसला करना सक्षम सिविल कोर्ट का अनन्य अधिकार है, यदि कोर्ट द्वारा कोई आदेश पास किया जाता है तो वह पक्षों और राजस्व अधिकार‌ियों दोनों पर बाध्यकारी होगा।" जस्टिस एसएन सत्यनारायण, जस्टिस बी वीरप्पा और ज‌स्टिस के नटराजन की पूर्ण पीठ ने सिंगल जज बेंच द्वारा 2 अप्रैल, 2019 को दिए एक आदेश में दिए गए एक संदर्भ पर फैसला करते हुए कहा, "जब कई पक्ष अदालत का दरवाज़ा खटखटाकर अपील और पुनरीक्षण दायर करने की कठोर प्रक्रिया की ओर ध्यान दिलाते हैं, तब अदालत या प्राधिकरण 'बैठे रहो-इंतजार करो' जैसा रवैया अ‌‌ख्‍त‌ियार नहीं कर सकते और नागरिकों से ये अपेक्षा नहीं कर सकते कि वो राजस्व अधिकारियों के चक्‍कर लगाते रहें। मामले में सिविल कोर्ट को, जो कि सक्षम प्राधिकारी है, पार्ट‌ियों बीच में स्वामित्व तय करना है। अधिकारियों को प्र‌क्रिया का अनुपालन करने के उद्देश्य मात्र से नागरिकों को कमोडिटी या ग़ुलाम के रूप में उपयोग करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। पीठ ने निम्नलिखित घोषणाएं कीं: * कर्नाटक भू-राजस्व अधिनियम की धारा 129 के प्रावधानों के तहत संबंधित क्षेत्र के तहसीलदार द्वारा पारित कोई भी आदेश अचल संपत्तियों के संबंध में स्वामित्व को हाथ लगाता है तो पीड़ित पक्ष को सहायक आयुक्त/उप आयुक्त के समक्ष अपील या पुनरीक्षण दायर करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह निरर्थक कवायद है। इसलिए, पीड़ित पक्ष स्वामित्व की घोषणा के लिए सीधे सक्षम सिविल कोर्ट में पहुंच सकती है, और परिणामस्वरूप प्राप्त राहत, पारित निर्णय और आदेश सभी पक्षों समेत राजस्व अधिकारियों के लिए भी बाध्यकारी होगा। ## संबं‌धित क्षेत्र के तहसीलदार द्वारा कर्नाटक लैंड रेवेन्यू एक्ट के सेक्‍शन 129 के प्रावधानों के तहत स्वामित्व की प्रविष्टियों के संबंध में पार‌ित आदेश से पीड़ित कोई भी व्यक्ति, यदि स्वामित्व के संबंध में कोई विवाद न हो तो, कर्नाटक लैंड रेवेन्यू एक्ट के सेक्‍शन 136(2) और 136(3) के प्रावधानों के तहत सहायक आयुक्त/उपायुक्त के समक्ष मात्र एक अपील/पुनरीक्षण दायर किया जा सकता है। बेंच ने कहा- "समय और परिस्थिति अब यह कहती हैं कि अदालत को धर्म की रक्षा के लिए एक अभिभावक के रूप में कार्य करना है। भागवदगीता के अध्याय 4 के श्लोक 7-8 में कहा गया है, 'जब-जब धर्म का क्षरण होता है, अधर्म का विस्तार होता, हे भरत, तब सत्य की रक्षा और दुष्टों के विनाश के लिए मैं स्वयं अवतार लेता हूं, धर्म की स्‍थापना के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूं।" बेंच ने स्वामित्व से जुड़े मामलों का समयबद्घ निपटारा करने के लिए राज्य को उचित नियम बनाने के निर्देश दिए और स‌िफारिशें कीं- i)यदि किसी विवाद के बिना, स्वामित्व के स्रोत के आधार पर म्यूटेशन या खाता या आरटीसी के हस्तांतरण के लिए आवेदन दायर किया जाता है तो उक्त आवेदन को दूसरे पक्ष द्वारा नोटिस प्राप्त होने की तारीख से तीन माह की अवधि के भीतर म्यूटेशन या खाता या आरटीसी के हस्तांतरण के लिए विचार किया जाएगा। ii)जैसे ही खाता या म्यूटेशन में प्रविष्टियों के परिवर्तन के लिए आवेदन किया जाता है, तहसीलदार को यह सत्यापित करना होगा कि क्या उक्त संपत्ति के स्वामित्व के संबंध में कोई विवाद है और फिर शामिल पक्षों को सक्षम सिविल कोर्ट से संपर्क करने के लिए निर्देशित कर सकता है। iii)तहसीलदार द्वारा पारित आदेशों से पीड़ित यदि सहायक आयुक्त या उपायुक्त के समक्ष अपील/ संशोधन दायर करता है, तो सहायक आयुक्त/उपायुक्त को दूसरे पक्ष को नोटिस सर्व करने के बाद और अपील/संशोधन दायर करने की तारीख से छह महीने के भीतर अपील/ संशोधन के निपटारे के लिए आवश्यक कदम उठाने होंगे। iv)यदि अधिकारी तय समय सीमा का पालन करने में सक्षम न हो तो और यदि खाता और प्रविष्टियों के हस्तांतरण में तीन महीने से अधिक विलंब हो रहा हो तो संबंधित अधिकारी द्वारा विलंब का ठोस कारण बता दिया जाना चाहिए। तहसीलदार विलंब के कारणों को रिकॉर्ड करेगा और उच्च अधिकारियों को प्रस्तुत करेगा। v)कर्नाटक लैंड रेवन्यू एक्ट के तहत खाता में बदलाव या म्‍यूटेशन/एंट्रीज़ और अपील / संशोधन से संबंधित आवेदनों को कर्नाटक गारंटी ऑफ सर्विसेज़ टू सीटिजंस एक्ट 2011 की अनुसूची में शामिल किया जाएगा; वह मामला, जिसका संदर्भ सिंगल जज बेंच ने दिया: याचिकाकर्ता, जयम्मा और अन्य ने अदालत से 18 अप्रैल 2012 और 2 मई 2012 को तीसरे प्रतिवादी/ विशेष तहसीलदार द्वारा पारित आदेश को रद्द करने की अपील की थी, और तहसीलदार को अनुलग्नक-जे के आधार पर की गई सभी प्रविष्टियों को रद्द करने को आदेश देने को कहा था; आरटीसी में प्रविष्टियों को 12 दिसंबर 2008 से पहले की स्थिति में बहाल करने के लिए कहा था। पूर्ण पीठ के समक्ष संदर्भ बिंदु थे: (1) क्या कर्नाटक राज्य, जो सूची IIमें प्रविष्टियों के तहत कानून बनाने के लिए अधिकृत है, अनुच्छेद 246 (3) में संवैधानिक जनादेश की पृष्ठभूमि में, संविधान की एंट्री 45 और एंट्री 65 में निर्धारित कानून के अधिकृत क्षेत्र से आगे निकल सकता है? (2) केएलआर एक्ट की धारा 135 की शर्त, दो समानांतर कार्यवाहियों के कारण, जिनमें एक राजस्व अधिकार क्षेत्र के तहत और दूसरी नागरिक संहिता की धारा 9 के तहत केएलआर एक्‍ट की धारा 135 की शर्त के कारण, सीमा अवधि बढ़ाएगा? (3) क्या एक पीड़‌ित व्यक्ति को उपलब्‍ध कार्रवाई के कारणों को विभाजित करने, पहले उसे केएलआर एक्ट के चैप्टर इलेवन के तहत उपचारों को समाप्त करने और फिर ‌डि नोवो सिविल प्रोसिडिंग्स शुरु करने की, जैसे सेक्‍शन 135 में विचार किया गया है, की अनुमति है? मामले में एमिकस क्यूरी, वरिष्ठ अधिवक्ता एसपी शंकर ने दलील दी, "यदि अचल संपत्ति के लिए एक पार्टी द्वारा निर्धारित स्वामित्व या अधिकार दूसरी पार्टी द्वारा विवादित करार दिया गया है, तो ऐसे स्वामित्व या संपत्ति को लेकर राजस्व न्यायालयों द्वारा पूछताछ नहीं की जा सकती है। अधिनियम के तहत गठित राजस्व अदालत केवल मूल्यांकन, भू राजस्व की वसूली और भूमि राजस्व प्रशासन की जिम्‍मेदार हो सकती है, किसी अचल संपत्त‌ि के स्वामित्व पर फैसला करना उसका अधिकार क्षेत्र नहीं है, जो कि विशेष रूप से सिविल कोर्ट में निहित है। बार की ओर से पेश वकील एमआर राजगोपाल ने दलील दी कि "राजस्व अधिकारी कृषि भूमि सहित संपत्तियों के अधिकारों के अधिग्रहण या विलोपन को विनियमित नहीं करते। राजस्व अधिकारियों को मुख्य रूप से व्यक्तियों के नामों का रिकॉर्ड रखना होता है।" याचिकाकर्ताओं के लिए वकील- सुनील एस राव, एमिकस क्यूरी: वरिष्ठ वकील, एसपी शंकर, के सुमन बार की ओर से कोर्ट की सहायता करने वाले वकील: वरिष्ठ वकील वी लक्ष्मीनारायण, एडवोकेट एमआर राजगोपाल, एडवोकेट बसवराज

Sunday, January 26, 2020

साक्छय अधिनियम भाग -3



साक्ष्य अधिनियम भाग 3 : जानिए क्या होते हैं तथ्य, विवाधक तथ्य एवं सुसंगत तथ्

      साक्ष्य अधिनियम के तहत पिछले दो आलेख में हमने देखा कि साक्ष्य में सबूत का भार किस पर होता है? इसके अलावा हमने यह भी देखा कि किस तरह एक ही संव्यवहार के भाग होने वाले तथ्यों की सुसंगति क्या होती है और किस प्रकार इसमें रेस जेस्टे का सिद्धांत किस प्रकार लागू होता है। 

साक्ष्य विधि : क्या होती है एक ही संव्यवहार के भाग होने वाले तथ्यों की सुसंगति, जानिए रेस जेस्टे का सिद्धांत साक्ष्य अधिनियम की इस सीरीज़ में हम अब समझेंगे कि तथ्य ,विवाधक तथ्य एवं सुसंगत तथ्य क्या होते हैं और साक्ष्य के संदर्भ में इन्हें कैसे देखा जाता है। साक्ष्य विधि का कार्य उन नियमों का प्रतिपादन करना है, जिनके द्वारा न्यायालय के समक्ष तथ्य साबित और खारिज किए जाते हैं। किसी तथ्य को साबित करने के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जा सकती है, उसके नियम साक्ष्य विधि द्वारा तय किये जाते हैं। 
       साक्ष्य विधि अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण विधि है। समस्त भारत की न्याय प्रक्रिया भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की बुनियाद पर टिकी हुई है। 
        साक्ष्य अधिनियम आपराधिक तथा सिविल दोनों प्रकार की विधियों में निर्णायक भूमिका निभाता है। इस साक्ष्य अधिनियम के माध्यम से ही यह तय किया जाता है कि सबूत को स्वीकार किया जाएगा या नहीं किया जाएगा। अधिनियम को बनाने का उद्देश्य साक्ष्यों के संबंध में सहिंताबद्ध विधि का निर्माण करना है, जिसके माध्यम से मूल विधि के सिद्धांतों तक पहुंचा जा सके। इस साक्ष्य अधिनियम के माध्यम से ही जो इतने सारे अधिनियम बनाए गए हैं, उनके लक्ष्य तक पहुंचा जाता है। 
        कोई भी कार्यवाही या अभियोजन चलाया जाता है, अभियोजन पूर्ण रूप से इस अधिनियम पर ही आधारित होता है। बिना साक्ष्य अधिनियम के अभियोजन चलाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है तथा किसी भी सिविल राइट को बरकरार नहीं रखा जा सकता है। 
        साक्ष्य अधिनियम 1872 अपने निर्माण से आज तक सबसे कम संशोधित किया गया है। 

तथ्य ,विवाधक तथ्य एवं सुसंगत तथ्य : साक्ष्य अधिनियम में तथ्य, विवाधक तथ्य एवं सुसंगत तथ्य जैसे शब्द बारंबार आते हैं। अधिनियम को समझने के लिए सर्वप्रथम हमें इन तीनों शब्दों को गहनता से समझना होगा। यदि ये तीनों शब्द गहनता से समझ लिए जाते हैं तो साक्ष्य अधिनियम को समझना सरल होगा। 
       समस्त साक्ष्य अधिनियम की धाराएं इन तीन शब्दों के ईर्द गिर्द ही घूमती हैं। इन तीनों शब्दों को साक्ष्य अधिनियम की परिधि माना जा सकता है। समस्त साक्ष्य अधिनियम इन तीनों शब्दों के अंतर्गत ही रहता है। इस लेख के माध्यम से हम तीनों शब्दों का अर्थ समझने का प्रयास करेंगे। 

      1- तथ्य : साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत तथ्य की परिभाषा दी गई है। इस परिभाषा के अंतर्गत कुछ दृष्टांत के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है। तथ्य होता क्या है, उसकी प्रकृति क्या होती है, तथा उसका अर्थ क्या है। साक्ष्य अधिनियम में तथ्य को कौन से अर्थों में लिया जाए। साक्ष्य अधिनियम में साक्ष्य की परिभाषा से प्रतीत होता है कि साक्ष्य तथ्यों से संबंधित है, इसलिए साक्ष्य को मामले के तथ्यों तक ही सीमित रखना पड़ता है। इस प्रयोजन हेतु तथ्य शब्द की परिभाषा आवश्यक हो गई थी जो अधिनियम में निम्नलिखित तरीके से दी गई है------ 
       तथ्य से अभिप्रेत है और उसके अंतर्गत आती है, ऐसी कोई वस्तु ,वस्तुओं की अवस्था या वस्तुओं का संबंध जो इंद्रियों द्वारा बोधगम्य हो' 'कोई मानसिक दशा जिसका भान किसी व्यक्ति को हो' तथ्य उसे कहा जाता है जिसे मनुष्य भौतिक और मानसिक रूप से प्रतीत कर सके, आभास कर सके उसे महसूस कर सके। विधि के अंतर्गत कार्य और लोप दोनों को तथ्य माना गया है। कार्य भी तथ्य और लोप भी तथ्य है। हम इस बात को इस उदाहरण के माध्यम से सकते हैं। कार्य जैसे विधि द्वारा किसी व्यक्ति को यह कार्य बताया गया है वह किसी व्यक्ति की हत्या नहीं करेगा। किसी भी व्यक्ति की हत्या करने के लिए तथा इस हत्या के लिए हमें शास्ति दी जाएगी, दंड दिया जाएगा। कार्य यही है, जिसे करने से निवारित किया गया है। लोप जैसे विधि के अंतर्गत हमें यह बताया गया है की हमें आयकर हमारी सालाना आय पर प्रत्येक वर्ष भरना होगा, परंतु हम आयकर नहीं भरते हैं ,तो यह लोप है तथा आपराधिक लोप है, और इस लोप के लिए हमें दंडित किया जाएगा। कोई भी तथ्य कार्य या लोप दोनों हो सकते हैं। तथ्य इंद्रियों को मानसिक व शारीरिक रूप से आभास होता है, तथ्य को पहचाना जा सकता है, तथ्य को महसूस किया जा सकता है, तथ्य को समझा जा सकता है, तथ्य को देखा जा सकता है, तथ्य किसी भी भांति का हो सकता है। 
       दलवीर सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब एआईआर 1987 एस सी 1328 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि साक्ष्य का मूल्यांकन एक तथ्य का प्रश्न है, जिसका विनिश्चय प्रत्येक मामले की पारिस्थितियों पर निर्भर करता है। विवाधक तथ्य ( Fact in issue) विवाधक तथ्य का अर्थ होता है जिन तथ्यों पर विवाद है। किसी वाद या कार्यवाही के पक्षकार उन तथ्यों पर सहमत नहीं है उन्हें विवाधक तथ्य कहा जाता है। 
      साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत जहां निर्वाचन खंड दिया गया है, विवाधक तथ्य की परिभाषा भी दी गई है।
 2-विवाधक तथ्य"
                        से अभिप्रेत है और उसके अंतर्गत आता है, ऐसा कोई भी तथ्य जिस अकेले ही से या अन्य तथ्यों के संसर्ग, में किसी ऐसे अधिकार, दायित्व या निर्योग्यता के, जिसका किसी वाद या कार्यवाही में प्रख्यान या प्रत्याख्यान किया गया है, अस्तित्व, अनस्तित्व, प्रकृति या विस्तार की उत्पत्ति अवश्यमेव होती हैं। विवाधक तथ्य का आशय विवादित तथ्य से ही है, अर्थात जिन तथ्यों पर विवाद है। किसी भी विवाद में केवल एक पक्षकार नहीं होता है। किसी विवाद में एक से अधिक ही पक्षकार होते है, तथा इस विवाद का कोई तथ्य होता है,कोई कारण होता है जिसे समझा जा सकता है देखा जा सकता है आभास किया जाता है। ऐसे में कुछ पक्षकार किन्ही तथ्यों पर सहमत होते हैं किन्ही तथ्यों पर असहमत होते हैं। पक्षकारों के भीतर जिन तथ्यों को लेकर विवाद होता है, उन तथ्यों को विवाधक तथ्य कहा जाता है। इन तथ्यों के माध्यम से वाद की प्रकृति को समझा जाता है। विवाधक तथ्य क्या होता है, इसे आप इस उदाहरण के माध्यम से समझ सकते हैं। जिसे राज्य द्वारा किसी व्यक्ति के ऊपर कोई मुकदमा चलाया जाता है, कोई अभियोजन लाया जाता है। ऐसे में आरोपी व्यक्ति पर जब आरोप तय किए जाते हैं उस समय वह उन आरोपों में से किन आरोपों को स्वीकार कर लेता है तथा किन्ही आरोपों को अस्वीकार भी कर सकता है, वह जिन आरोपों को स्वीकार करता है यह उसका अभिवचन हो जाते हैं तथा जिन आरोपों को स्वीकार नहीं करता है यह विवाधक तथ्य हो जाते हैं। कोई सिविल कार्यवाही चल रही है। किसी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य व्यक्ति पर इस तथ्य के अंतर्गत वाद लाया गया है। कोई भूमि किसी व्यक्ति के कब्जे में है परन्तु भूमि का मालिकाना हक कोई अन्य व्यक्ति दावा कर है। ऐसी सिविल कार्यवाही लाई जाती है, जिसके पास कब्ज़ा है वह व्यक्ति इस बात का खंडन यह कहते हुए करता है कि यह भूमि मेरे पुरखों की है तथा इस पर मेरा कब्जा भी है और मालिकाना हक भी है तो इससे विधायक तथ्य निम्न होंगे- क्या भूमि पर कब्ज़ा रखने वाले व्यक्ति का मालिकाना हक़ है? क्या भूमि पर मालिकाना हक बताने वाले व्यक्ति का दावा सही है? विवाधक तथ्य भिन्न-भिन्न भी हो सकते हैं तथा किसी एक वाद में बहुत सारे विवाधक तथ्य हो सकते हैं। वह सभी तथ्यों को समझना अत्यंत आवश्यक होता है। कोई भी वाद या कार्यवाही इन विवाधक तथ्यों के आधार पर ही चलती है। सारे साक्ष्य इन विवाधक तथ्यों को साबित और नासाबित करने हेतु ही दिए जाते हैं, अर्थात साक्ष्यों को पेश किया जाना इन तथ्यों को साबित और नासाबित करना ही लक्ष्य होता है। किसी व्यक्ति ने किसी व्यक्ति की हत्या की है। हत्या का आरोप लगाया गया है। अभियोजन यह कह रहा है कि किसी व्यक्ति ने हत्या की है और आरोपी कहता है मैंने हत्या नहीं कि तो ऐसी परिस्थिति में हत्या वह आमुक व्यक्ति ने की है या नहीं की है, यह विवाधक तथ्य है। अभियोजन इस तथ्य को साबित करने के लिए साक्ष्य प्रस्तुत करेगा तथा वह आरोपी व्यक्ति जिस पर अभियोजन चलाया जा रहा है, वह इस बात को नासाबित करने के लिए साक्ष्य प्रस्तुत करेगा कि हत्या उसके द्वारा नहीं की गई है। विवाधक तथ्य यह हो सकता है कि हत्या के आरोपी व्यक्ति द्वारा हत्या की गई है या नहीं की गयी है। किसी तथ्य को विवाधक तथ्य तब ही माना जा सकता है जब वह यह शर्ते पूरी करता है- 
1-प्रथम यह कि उस तथ्य के बारे में पक्षकारों में मतभेद हो।
 2-दूसरा यह कि वह इतना महत्व रखता हो कि उसी पर पक्षकारों के दायित्व तथा अधिकार निर्भर करते हैं। जिस सीमा तक पक्षकारों के दायित्व तथा अधिकार किसी विशेष विधि के उपबंधों पर निर्भर करते हैं,उस विशेष विधि के संबंध में ही जाना जा सकता है कि विवादित तथ्य क्या है! उदाहरणार्थ यदि असावधानी से की गई क्षति के लिए बाद लाया गया है तो दुष्कृत्य विधि के असावधानी से संबंधित नियम और पक्षकारों की दुष्कृति के बारे में मतभेद यह तय करेंगे कि विवाधक तत्व कौन से है। अगर वादी का कहना है कि प्रतिवादी उसके प्रति सावधानी का कर्तव्य रखता है, प्रतिवादी या कहे कि उसका कोई ऐसा कर्तव्य नहीं था तो यह तथ्य ऐसा कर्तव्य था या नहीं विवादित तथ्य बन जाएगा।
         निष्कर्ष यह है कि विवादित तथ्य विवाद की विषय वस्तु से संबंध रखने वाली विधि की आवश्यकता है,तथा पक्षकारों के अभिभाषण पर निर्भर करते हैं। 

       सुसंगत तथ्य यह इस अधिनियम का सबसे महत्वपूर्ण शब्द है जिसे सुसंगत तथ्य कहा जाता है। इसकी परिभाषा अधिनियम की धारा 3 में ही दी गई है। "एक तथ्य दूसरे तथ्य से सुसंगत कहा जाता है,जबकि तथ्यों की सुसंगती से संबंधित इस अधिनियम के उपबंधों में निर्दिष्ट प्रकारों में से किसी भी एक प्रकार से वह तथ्य उस दूसरे तथ्य से संसक्त हो" कौन सा तथ्य सुसंगत है यह बताने के लिए साक्ष्य अधिनियम 1872 में एक पूरा अध्याय दिया गया है, जिसके माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है कि कौन से तथ्य सुसंगत होंगे। यह अध्याय अधिनियम की धारा 5 से लेकर धारा 55 तक है। इन सभी धाराओं में कौन से तत्व सुसंगत होंगे इस पर वर्णन किया गया है। सुसंगत तथ्य अधिनियम का अति महत्वपूर्ण शब्द है किसी भी विधि के विद्यार्थी को सर्वप्रथम इस बात को समझना चाहिए की कौन से तथ्य सुसंगत होंगे। यह बहुत महत्वपूर्ण बात है, सुसंगत तथ्यों से मिलकर विवाधक तथ्य तक पहुंचा जाता है। 
      यदि किसी वाद में या कार्यवाही में सुसंगत तथ्यों को साबित कर दिया जाता है, नासाबित कर दिया जाता है तो विवाधक तथ्य भी साबित या नासाबित हो जाते हैं। इस अधिनियम के अनुसार किसी विवाद या कार्यवाही में अनेक सुसंगत तथ्य होते हैं। 

Saturday, January 25, 2020

दिवाला प्रस्ताव की मंजूरी धारा 138के तहत दायर मुकदमा समाप्त करने का आधार नहीं


कॉरपोरेट दिवाला प्रस्ताव की मंजूरी एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत दायर मुकदमा समाप्त करने का आधार नहीं : मद्रास हाईकोर्ट

25 Jan 2020 9:15 

         कॉरपोरेट दिवाला प्रस्ताव की मंजूरी एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत दायर मुकदमा समाप्त करने का आधार नहीं : मद्रास हाईकोर्ट

         मद्रास हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में व्यवस्था दी है कि दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता, 2016 (आईबीसी) की धारा 31 के तहत किसी कंपनी को दिवालिया घोषित करने की प्रकिया की मंजूरी ऋणी कंपनी और उसके अधिकारियों के खिलाफ नेगोशिएबल इंस्ट्रमेंट (एनआई) एक्ट, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत शुरू किये गये मुकदमे को समाप्त करने का आधार नहीं हो सकती।

न्यायमूर्ति जी आर स्वामीनाथन की एकल पीठ ने कहा,

           "दिवाला प्रक्रिया का निर्णय करने वाले अधिकारी/अपीलीय न्यायाधिकरण द्वारा भले ही कंपनी को दिवालिया घोषित करने की योजना मंजूर कर ली गयी हो, लेकिन कोई भी उपबंध आपराधिक मामलों के निर्धारण करने वाली अदालत का दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के प्रावधानों के तहत मुकदमा चलाने और निपटाने का अधिकार नहीं छीन सकता।"

          यह टिप्पणी सीआरपीसी की धारा 482 के अंतर्गत दायर अर्जी पर की गयी है, जिसमें कानून की नजर में एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत मुकदमे को गैर-कानूनी ठहराने और आईबीसी के तहत उनके उपायों को आगे बढ़ाने के लिए शिकायतकर्ता-प्रतिवादी को निर्देश देने का अनुरोध किया गया था।

         याचिकाकर्ता-कंपनी आईबीसी की धारा 31 के तहत कॉरपोरेट दिवाला समाधान प्रक्रिया के अंतर्गत चली गयी थी तथा चेक बाउंस करने की शिकायत लंबित होने के दौरान संहिता की धारा 14 के तहत पाबंदी लग गयी थी।

दलीलें

         याचिकाकर्ता ने कोर्ट में दलील दी थी कि चूंकि दिवाला प्रक्रिया से जुड़े विशेषज्ञों ने परिसम्पत्तियों और देनदारी सहित कंपनी का सम्पूर्ण प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया था। इस वजह से उसकी पहुंच अब किसी भी दस्तावेज तक नहीं है, इसलिए वह मामले को जारी नहीं रख सकता था।

         उन्होंने दलील दी कि आईबीसी अन्य कानूनों से अधिक प्रभावी स्वयं में पूर्ण अधिनियम है। इसलिए चेक बाउंस संबंधी मुकदमे को जारी रखना कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा। उन्होंने आगे कहा कि दिवाला समाधान योजना स्पष्ट तौर पर निर्धारित करता है कि दिवाला समाधान प्रक्रिया शुरू होने की तारीख से पहले कंपनी की ओर से जारी सभी बकाया नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट (चेक) समाप्त हो जायेंगे तथा कंपनी और इसके मौजूदा कर्मचारियों की देनदारी समाप्त हो जायेगी। साथ ही सभी कानूनी कार्यवाही स्थायी तौर पर एवं बिना शर्त समाप्त हो जायेंगी।

निष्कर्ष

          कोर्ट ने कहा कि एनआई अधिनियम की धारा 138 का मुख्य उद्देश्य वाणिज्यिक लेनदेन की विश्वसनीयता को सुरक्षित रखना है और सार्वजनिक हित में चेक जारी करने वाले के खिलाफ एक व्यक्तिगत आपराधिक उत्तरदायित्व सुनिश्चित करके चेक बाउंस होने से रोकना है। इसलिए भले ही दिवाला समाधान योजना को मंजूरी दे दी गयी थी एवं आईबीसी की धारा 31 के तहत यह कॉरपोरेट ऋणदाता, उसके कर्मचारियों, सदस्यों, लेनदारों, गारंटरों और अन्य हितधारकों के लिए बाध्यकारी बना दिया गया, लेकिन एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत आपराधिक मुकदमा समाप्त नहीं होगा।

          इस मामले में जेआईके इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम अमरलाल वी जुमानी (2012) 3 एससीसी 255 के फैसले पर भरोसा जताया गया था।

          हालांकि कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि देनदार कंपनी दिवाला समाधान प्रक्रिया के दायरे में आती है तो इसके पूर्व प्रबंध निदेशक या निदेशक कंपनी का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। "इसलिए, केवल दिवाला समाधान से जुड़े विशेषज्ञ ही दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता के तहत मुकदमा लंबित होने के दौरान आरोपित कंपनी का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं।"

         यह भी कहा गया कि आईबीसी के तहत समाधान प्रक्रिया समाप्त हो जाती है और यदि देनदार कंपनी भंग नहीं होती तथा पूर्व निदेशक एवं अधिकारी आपराधिक मुकदमों में कंपनी का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते, तो ऐसी स्थिति में नया प्रबंधन ऐसे मुकदमों में कंपनी की ओर से प्रतिनिधित्व करने के लिए उचित इंतजाम करेगा।

          कोर्ट ने कहा, "दिवाला समाधान योजना समाप्त होने के बाद, या तो कंपनी को भंग किया जा सकता है या कंपनी का अस्तित्व बनाये रखने के लिए इसे नये प्रबंधन को सौंपा जा सकता है। जब कोई नया प्रबंधन कार्यभार संभालेगा, तो उसे कंपनी के प्रतिनिधित्व के लिए इंतजाम करना होगा।"

        कोर्ट ने आगे कहा कि जहां कंपनी भंग हो जाती है, वहां एनआई अधिनियम के तहत मुकदमे समाप्त हो जायेंगे। हालांकि, पूर्व निदेशकों और पदाधिकारियों को इसकी आड़ में छुपने की अनुमति नहीं मिलेगी।

          कोर्ट ने 'अनीता हाडा बनाम गॉडफादर ट्रेवल्स एंड टुअर्स (प्रा) लिमिटेड, (2012)5 एससीसी 661' के मामले में दिये गये फैसले पर भरोसा जताते हुए कहा,

           "यदि दिवाला समाधान प्रक्रिया के तहत कंपनी भंग हो जाती है, तो निश्चित तौर पर इसके खिलाफ मुकदमे समाप्त हो जाएंगे, लेकिन फिर भी उसके पूर्व निदेशक इस स्थिति का फायदा नहीं उठा सकते।

           जहां एनआई अधिनियम की धारा 138 के तहत मुकदमे पहले से ही शुरू हो चुके थे और इसके लंबित होने के दौरान ही कंपनी भंग हो गयी तो इसके निदेशक और अन्य अभियुक्त कंपनी भंग होने का हवाला देकर बच नहीं सकते। जो भंग हुई है वह कंपनी है, न कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट, 1881 की धारा 141 के तहत अभियुक्त का व्यक्तिगत सजा संबंधी उत्तरदायित्व।"

मुकदमे का ब्योरा :

मुकदमे का नाम : अजय कुमार बिश्नोई बनाम मेसर्स टैप इंजीनियरिंग

केस नं. क्रिमिनल ओपी (एमडी) सं. 34996/2019

कोरम : जस्टिस जी आर स्वामीनाथन

वकील : नित्येश एवं वैभव (याचिकाकर्ता के लिए)

Friday, January 24, 2020

भारत के संविधान की प्रस्तावना की खास बातें

भारत के संविधान की प्रस्तावना (Preamble) के बारे में ख़ास बातें

 23 Jan 2020 

        भारत के संविधान की मसौदा समिति (Drafting Committee) ने यह देखा था कि प्रस्तावना/उद्देशिका (Preamble) को नए राष्ट्र की महत्वपूर्ण विशेषताओं को परिभाषित करने तक ही सीमित होना चाहिए और उसके सामाजिक-राजनीतिक उद्देश्यों एवं अन्य महत्वपूर्ण मामलों को संविधान में और विस्तार से समझाया जाना चाहिए। 
          संविधान के निर्माताओं का अंतिम उद्देश्य एक कल्याणकारी राज्य और समतामूलक समाज का निर्माण करना था, जिसमें भारत के उन लोगों के उद्देश्य और आकांक्षाएं शामिल हों जिन्होंने देश की आजादी की प्राप्ति के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया था।  
          भारत के संविधान की प्रस्तावना (Preamble), 13 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा में जवाहरलाल नेहरू द्वारा पेश किये गए उद्देश्य प्रस्ताव (Objective Resolution) पर आधारित है। यह संकल्प/प्रस्ताव 22 जनवरी, 1947 को अपनाया गया था। 
        मौजूदा लेख में हम संविधान की प्रस्तावना को समझने और उसके मुख्य पहलुओं को रेखांकित करने का प्रयास करेंगे। 
         तो चलिए शुरू करते हैं। प्रस्तावना या उद्देशिका को भारत के संविधान की आत्मा इसलिए भी कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें संविधान के बारे में सब कुछ बहुत संक्षेप में मौजूद है। हमे यह ध्यम में रखना चाहिए कि इसे 26 नवंबर, 1949 को अपनाया गया था और इसे 26 जनवरी, 1950 से लागू किया गया था, जिसे आज हम गणतंत्र दिवस के रूप में भी जानते हैं।
         गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य AIR 1967 SC 1643 के मामले में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, सुब्बा राव ने यह कहा था कि "एक अधिनियम की प्रस्तावना, उसके उन मुख्य उद्देश्यों को निर्धारित करती है, जिसे प्राप्त करने का इरादा कानून रखता है।" 
         हम यह कह सकते हैं कि, भारत के संविधान की प्रस्तावना, एक संक्षिप्त परिचयात्मक वक्तव्य है जो संविधान के मार्गदर्शक उद्देश्य, सिद्धांतों और दर्शन को निर्धारित करती है। 
       प्रस्तावना, निम्नलिखित के बारे में एक विचार देती है:
 (1) संविधान का स्रोत, 
(2) भारतीय राज्य की प्रकृति (3) इसके उद्देश्यों का विवरण और 
(4) इसके अपनाने की तिथि।. 
          आइये अब उद्देशिका/प्रस्तावना को एक बार पढ़ लेते हैं 

हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। 

        वर्ष 1949 में संविधान सभा द्वारा अपनाई गई मूल प्रस्तावना ने भारत को "प्रभुत्व-संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य" घोषित किया था। 
       आपातकाल के दौरान लागू वर्ष 1976 के 42वें संविधान संशोधन द्वारा, "समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष" शब्द भी प्रस्तावना में जोड़े गए; प्रस्तावना अब "संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य" पढ़ी जाती है। 
       गौरतलब है कि भारतीय जीवन बीमा निगम एवं अन्य बनाम कंज्यूमर एजुकेशन और रिसर्च एवं अन्य 1995 SCC (5) 482 के मामले के अनुसार, 'प्रस्तावना' भारत के संविधान की अभिन्न अंग है।
        उद्देशिका/प्रस्तावना की उपयोगिता एक बिल की प्रस्तावना, उस दस्तावेज़ का एक परिचयात्मक हिस्सा होती है जो दस्तावेज़ के उद्देश्य, नियम, और उसके दर्शन को समझाती है। 
        एक प्रस्तावना, दस्तावेजों के सिद्धांतों और मूलभूत मूल्यों को उजागर करके दस्तावेजों का एक संक्षिप्त परिचय देती है। 
        यह दस्तावेज़ के अधिकार के स्रोत को दर्शाती है। भारत के संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक प्रस्ताव है जिसमें देश के लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए नियमों और विनियमों के सेट शामिल हैं। इसमें नागरिकों के आदर्श को समझाया गया है।
          प्रस्तावना/उद्देशिका को संविधान की शुरुआत माना जा सकता है जो संविधान के आधार पर प्रकाश डालती है। 
         बेरुबरी यूनियन केस AIR 1960 SC 845 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि प्रस्तावना, संविधान का हिस्सा नहीं है, बल्कि इसे संविधान के प्रावधानों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत माना जाना चाहिए।
       हालाँकि, केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य AIR 1973 SC 1461 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने अपने पिछले फैसले (बेरुबरी) को बदल दिया और यह कहा कि प्रस्तावना, संविधान का हिस्सा है, जिसका अर्थ यह है कि इसे संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संशोधित किया जा सकता है। हालाँकि ऐसे संशोधन से संविधान का मूलभूत ढांचा बदला नहीं जा सकता है।
         उद्देशिका में मौजूद विभिन्न शब्द एवं उनके अर्थ भारत के संविधान की उद्देशिका में कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनके अर्थ को समझना हमारे लिए महत्वपूर्ण है। 
      यह शब्द न केवल भारत के संविधान के स्वाभाव को दर्शाते हैं बल्कि यह भी बताते हैं कि भारत, किस प्रकार के राष्ट्र के रूप में कार्य करेगा। लेख के इस भाग में हम उन कुछ शब्दों के बारे में बात करेंगे। 'हम, भारत के लोग' एवं 'प्रभुत्व-संपन्न': वाक्यांश "हम, भारत के लोग" इस बात पर जोर देता है कि यह संविधान, भारतीय लोगों द्वारा एवं उनके लिए निर्मित है और किसी भी बाहरी शक्ति द्वारा यह संविधान हमे नहीं सौंपा गया है। 
      हमारा संविधान, 'संप्रभुता' की अवधारणा पर भी जोर देता है जिसके बारे में महान पॉलिटिकल दार्शनिक एवं विचारक, रूसो द्वारा भी बात की गयी थी।
        'प्रभुत्व-संपन्न' होने का अर्थ, सभी शक्ति लोगों से निकलती है और भारत की राजनीतिक प्रणाली, लोगों के प्रति जवाबदेह और जिम्मेदार होगी। 
           सिंथेटिक एंड केमिकल्स लिमिटेड बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1989 SCR Supl. (1) 623 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह अभिनिर्णित किया था कि शब्द 'प्रभुत्व-संपन्न' का मतलब है कि राज्य के पास संविधान द्वारा दिए गए प्रतिबंधों के भीतर सब कुछ करने की स्वतंत्रता है। 
        यह मामला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें कहा गया कि कोई भी राष्ट्र का अपना संविधान तब तक नहीं हो सकता है जब तक कि वह संप्रभु न हो। 'समाजवादी': वर्ष 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा यह शब्द जोड़ा गया। "समाजवाद", एक ऐसे आर्थिक दर्शन के रूप में समझा जा सकता है जहां उत्पादन और वितरण के साधन राज्य के स्वामित्व में होते हैं। हालाँकि, भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया है, जहां राज्य के अलावा, निजी क्षेत्र के लोगों द्वारा उत्पादन का कार्य किया जा सकता है। 
      यह एक राजनीतिक-आर्थिक प्रणाली है जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान करती है। सामाजिक दर्शन (Socialist Philosophy) के रूप में समाजवाद, सामाजिक समानता (democratic Ssocialism) पर अधिक बल देता है। मिनर्वा मिल्स लिमिटेड एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य AIR 1980 SC 1789 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने "समाजवाद" को इस प्रकार समझा था कि राष्ट्र, संविधान में मौजूद मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निदेशक तत्त्व के सिद्धांतों के आपसी समन्वय के द्वारा अपने लोगों को सामाजिक-आर्थिक न्याय दिलाने का प्रयास करता है।
        वहीँ एयर इंडिया वैधानिक निगम बनाम यूनाइटेड लेबर यूनियन एवं अन्य 1997(1) LLJ 1113 (SC) के मामले में यह कहा गया था कि, संपत्ति संबंधों, कराधान, सार्वजनिक व्यय, शिक्षा और सामाजिक सेवाओं में परिवर्तन किया जाना, संविधान के तहत एक समाजवादी राज्य की अवधारणा को वास्तविकता में बदलने के लिए आवश्यक हैं। 
       'पंथनिरपेक्ष': उद्देशिका में पंथनिरपेक्षता की परिकल्पना जिस प्रकार से की गयी है उसका अर्थ है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा और सभी व्यक्ति समान रूप से अपने विवेक की स्वतंत्रता के हकदार होंगे और वे अपनी पसंद के धर्म को अपनाने, उसका अभ्यास करने और उसका प्रचार करने के लिए स्वतंत्र रूप से अधिकार प्राप्त करेंगे। एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ 1994 SCC (3) 1 के मामले में शीर्ष अदालत की 9-न्यायाधीश की पीठ ने पंथनिरपेक्षता की अवधारणा को संविधान की मूल विशेषता के रूप में अभिनिर्णित किया था। 
         लोकतांत्रिक (लोकतंत्रात्मक): यह इंगित करता है कि संविधान ने सरकार का एक ऐसा रूप स्थापित किया है जो लोगों की इच्छा से अपना अधिकार प्राप्त करती है। 
       सत्ता चलाने वाले शासक, लोगों द्वारा चुने जाते हैं और उनके प्रति जिम्मेदार होते हैं। गौरतलब है कि 'लोकतंत्रात्मक' एवं 'गणराज्य' शब्दों को अलग-अलग समझने के बजाये एक साथ समझा जाना चाहिए। जैसा कि आर. सी. पौड्याल एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य 1993 SCR (1) 891 के मामले में कहा गया है, हमारे संविधान में, लोकतंत्रात्मक-गणराज्य का अर्थ है, 'लोगों की शक्तियाँ।' इसका संबंध, लोगों द्वारा शक्ति के वास्तविक, सक्रिय और प्रभावी अभ्यास से है। 
       दरअसल लोकतंत्र, एक बहु-पक्षीय प्रणाली है, यह सरकार के प्रशासन को चलाने में लोगों की राजनीतिक भागीदारी को संदर्भित करता है। यह उन मामलों की स्थिति को बताता है जिसमें प्रत्येक नागरिक को राजव्यवस्था में समान भागीदारी के अधिकार का आश्वासन दिया गया है। 
        मोहन लाल त्रिपाठी बनाम डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट 1992 SCR (3) 338 के मामले में भीं यही कहा गया है। गणराज्य: एक राजतंत्र के विपरीत, जिसमें राज्य के प्रमुख को वंशानुगत आधार पर अपने जीवन भर के लिए सत्ता चलाने हेतु नियुक्त किया जाता है, एक लोकतंत्रात्मक गणराज्य एक ऐसी इकाई है, जिसमें राज्य का प्रमुख, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक निश्चित कार्यकाल के लिए निर्वाचित किया जाता है।
        भारत के राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक मंडल द्वारा 5 वर्षों के लिए किया जाता है। भारत के राष्ट्रपति का पद वंशानुगत नहीं है। भारत का प्रत्येक नागरिक देश का राष्ट्रपति बनने के योग्य है। भारत के संविधान की प्रस्तावना: कितनी ख़ास? अंत में, यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत के संविधान की उद्देशिका, अपने आप में मनोहर है क्योंकि यह कुछ हद तक अन्य देशों के संविधान की उद्देशिका से अलग है क्योंकि इसमें इश्वर, इतिहास या पहचान का कोई बोझ नहीं डाला गया है। इसके द्वारा भारत के लोगों से स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय का वादा किया गया है। ऐसा नहीं है कि इश्वर और इतिहास महत्वपूर्ण नहीं हैं, लेकिन हमारी उद्देशिका हमें यह स्वतंत्रता देती है कि हम अपने कृत्यों, अपनी आस्था, अपने विचारों इत्यादि के सम्बन्ध में उचित चुनाव कर सकते हैं। संविधान की उद्देशिका हमे यह भी बताती है कि एक राष्ट्र की एकता, केवल समूहों की एकजुटता भर नहीं है। यह बताती है कि एक वास्तविक एकता तभी संभव है जब प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा का आश्वासन दिया जाए। 
       उद्देशिका यह बताती है कि यदि व्यक्तिगत गरिमा का सम्मान किया जायेगा तो राष्ट्र को डरने की कोई जरुरत नहीं है। इसलिए संविधान की उद्देशिका, लिबर्टी का एक चार्टर है। इसकी मूलभूत संरचना प्रगतिशील है जो इसे सबसे अलग बनाती है।