Wednesday, February 5, 2020

IPC की धारा 397 के तहत सजा देने के लिए पेपर कटर घातक हथियार है

 आईपीसी की धारा 397 के तहत सज़ा देने के लिए पेपर कटर घातक हथियार : दिल्ली हाईकोर्ट 

5 Feb 2020 


        दिल्ली हाईकोर्ट ने माना है कि हत्या के प्रयास के साथ लूट की घटना को अंजाम देने के मामले में सज़ा देने के उद्देश्य से एक पेपर-कटर को 'घातक हथियार' माना जाएगा। एक मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने पेपर कटर को घातक हथियार होने में सक्षम माना। न्यायमूर्ति विभु बाखरू की एकल पीठ ने कहा है कि शरीर के एक महत्वपूर्ण हिस्से पर पेपर-कटर से गहरा कट वास्तव में घातक साबित हो सकता है। - पीठ ने कहा कि 'हालांकि यह कागज काटने के एक विशिष्ट उद्देश्य के लिए है, लेकिन इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि इसका ब्लेड बहुत तेज़ है और घातक चोट पहुंचाने में सक्षम है।' वर्तमान अपील में, अपीलकर्ता ने धारा 397 के तहत दोषी दिए जाने के साथ-साथ 7 साल के सश्रम कारावास की सजा के आदेश को भी चुनौती दी थी। अभियोजन पक्ष द्वारा स्थापित तथ्यों के अनुसार, अपीलकर्ता ने पीड़ित का मोबाइल फोन लूटने के लिए पेपर-कटर का इस्तेमाल किया था। अपीलकर्ता के वकील ने तर्क दिया था कि एक पेपर कटर एक घातक हथियार नहीं है और इसलिए, भले ही यह स्वीकार कर लिया जाए कि अपीलकर्ता ने शिकायतकर्ता को लूटने के उद्देश्यों से इसे अपने पास रखा था, फिर भी आईपीसी की धारा 397 के तहत अपराध स्थापित नहीं होता है। उन्होंने आगे कहा कि पेपर कटर की चाकू से बराबरी नहीं की जा सकती है, क्योंकि यह एक स्टेशनरी आइटम है। उन्होंने प्रस्तुत किया कि पेपर कटर का ब्लेड मजबूत नहीं होता है और आमतौर पर किसी भी प्रतिरोध के कारण टूट जाता है। उन्होंने 'बिशन बनाम राज्य (1984)' मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें यह कहा गया था कि सब्जी वाले चाकू को घातक हथियार नहीं माना जा सकता है। शुरुआत में, अदालत ने कहा था कि जिस प्रश्न पर निर्णय लेने की आवश्यकता है, वह यह है कि क्या चाकू आईपीसी की धारा 397 के सजा देने के लिए एक घातक हथियार के रूप में योग्य है? अदालत ने कहा कि ऐसे बहुत सारे मामले है जो इस दृष्टिकोण का अनुसरण करते हैं कि क्या चाकू एक घातक हथियार है। इस सवाल का जवाब विभिन्न कारकों द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए, जिसमें चाकू का डिजाइन और जिस तरह से इसका उपयोग किया गया है, वो भी शामिल होना चाहिए। हालांकि ऐसे मामलों की एक और पंक्ति थी जहां न्यायालय ने यह देखा था कि किसी भी विवरण का एक चाकू अभी भी, एक चाकू है और एक घातक हथियार है। इस विषय के संबंध में दिए गए दिल्ली हाईकोर्ट के विभिन्न निर्णयों को देखने के बाद, अदालत ने कहा कि- 'एक पेपर कटर भी चाकू की एक प्रजाति है, जैसे कि इसमें एक हैंडल और एक ब्लेड है। हालांकि यह कागज काटने के एक विशिष्ट उद्देश्य के लिए है, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जाता है कि इसका ब्लेड बहुत तेज है और एक घातक चोट पहुंचाने में सक्षम है।' चूंकि, वर्तमान मामले में, पेपर कटर को शिकायतकर्ता की गर्दन पर रखा गया था, इसलिए अदालत ने आईपीसी की धारा 397 के दायरे में 'घातक हथियार' होने के दावे को स्वीकार कर लिया गया। पीठ ने कहा कि- 'निर्विवाद रूप से, इस तरह के एक उपकरण को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया है और एक पीड़ित की गर्दन पर रखा जाता है, जो चोट के डर से पीड़ित को आतंकित करने के लिए पर्याप्त होता है।' 

Sunday, February 2, 2020

सेक्सन 482का प्रयोग उन मामलों में नहीं होता जहां आरोप को कोर्ट में सावित करने की आवश्यकता नहीं होती


सेक्‍शन 482 का प्रयोग उन मामलों में नहीं, जहां आरोप को कोर्ट में साबित करने की आवश्यकताः सुप्रीम कोर्ट

2 Feb 2020 

सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया है कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के तहत प्रदत्त शक्ति का प्रयोग उन मामलों में नहीं किया जा सकता, जहां आरोपों को कोर्ट में साबित करने की आवश्यकता होती है।

इस मामले में आरोप था कि एक सहकारी बैंक के कर्मचारियों के साथ मिलीभगत कर आरोपी के मृतक पिता ने अपने पद का दुरुपयोग किया। उन्होंने रिश्तेदारों को जाली दस्तावेजों के आधार पर फर्जी ऋण प्रदान किया और वित्तीय अनियमितताएं की। आरोपी पर आपीसी की धारा 420, 406, 409, 120 बी आईपीसी के तहत आरोप दायर किया गया था।

रिवीजन पिटीशन में हाईकोर्ट ने पाया था कि प्रतिवादियों के खिलाफ धारा 420 और 120 बी आईपीसी के तहत अपराधियों स्‍थापित नहीं हो सकता है। यह माना गया कि इस बात का कोई दावा नहीं किया गया है कि ऋण इस जानकारी के सा‌थ दिया गया कि वे ऋण का भुगतान नहीं करेंगे।

जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस हेमंत गुप्ता की पीठ ने राज्य द्वारा दायर अपील को अनुमति देते हुए कहा कि हाईकोर्ट ने प्री-ट्रायल स्टेज पर पूरे मामले की जांच की है कि क्या अपराध सेक्शन 420 और 120-बी के तहत किया गया है या नहीं ।

पीठ ने कहा-

"प्रतिवादियों के पिता जब बैंक के प्रेसिडेंट थे, उन्हें कैश क्रेडिट लिमिट अनुदान लाभ दिया गया। आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के तहत प्रदत्त शक्ति का प्रयोग उन मामलों में नहीं किया जा सकता है, जहां आरोपों को अदालत में साबित करने की आवश्यकता होती है।

जिस तरह से बिना उचित दस्तावेजों के ऋण दिया गया और यह तथ्य कि प्रतिवादी अपने पिता की उदारता के लाभार्थी रहे हैं, प्रथम दृष्टया आईपीसी की धारा 420 और 120-बी के तहत किया गया अपराध है। यह कहा जा सकता है कि बैंक के अन्य अधिकारियों को अधिनियम की धारा 13 (1) (डी) और 13 (2) के तहत आरोपित किया गया है।"

केस टाइटल: स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश बनाम योगेंद्र सिंह जादौन व अन्य

केस नं: CRIMINAL APPEAL NO 175 OF 2020

कोरम: जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस हेमंत गुप्ता

वकील द्वारा दिये गये असमान बयान उनके मुवक्किल के लिए वाध्यकारी

वकील द्वारा दिए गए असमान बयान उनके मुव्वकिल के लिए बाध्यकारी : सुप्रीम कोर्ट  

 2 Feb 2020 9:06 AM 

         सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वकील द्वारा दिए गए असमान बयान उनके मुव्वकिल के लिए बाध्यकारी होंगे। इस मामले में मकान मालिक के वकील ने उच्च न्यायालय के सामने बयान दिया था कि किरायेदार को एक महीने के भीतर नवनिर्मित भवन में बराबर क्षेत्र में फिर से रखा जाएगा। शीर्ष अदालत के सामने मुद्दा यह था कि क्या मकान मालिक पर वकील द्वारा दिए गए ये बयान बाध्यकारी हैं। जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस दिनेश माहेश्वरी की पीठ ने उल्लेख किया कि उच्च न्यायालय के समक्ष मालिक के वकील ने उसके केस की वकालत करते हुए एक असहमतिपूर्ण बयान दिया। यह भी उल्लेख किया गया कि ऐसा कोई मामला नहीं है कि मालिक ने स्पष्ट रूप से अपने वकील को इस तरह का बयान नहीं देने का निर्देश दिया था। पीठ ने यह कहा, केस बेदखली की कार्यवाही के संबंध में था और यह कथन अपीलार्थी की प्रतिबद्धता के विषय में था और एक असमान कथन होने के कारण यह अपीलार्थी के लिए बाध्यकारी होगा। कोर्ट ने कहा कि हिमालयन कॉपरेटिव ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी बनाम बलवान सिंह में यह देखा गया कि प्राधिकरण-एजेंसी का दर्जा वकील को मुव्वकिल के लिए कार्य करने के लिए वकीलों को नियुक्त करता है। इसने निर्णय में निम्नलिखित टिप्पणियों को नोट किया गया : आम तौर पर, एक वकील द्वारा किए गए तथ्यों पर बयान उनके मुव्वकिल पर बाध्यकारी होते हैं जब तक वे असमान नहीं होते हैं; हालांकि, जहां संदेह एक कथित बयान के रूप में मौजूद है, अदालत को इस तरह के कथन को स्वीकार करने के लिए सावधान रहना चाहिए जब तक कि वकील या अधिवक्ता इस तरह के कथन के लिए अपने प्रमुख द्वारा अधिकृत न हों। एक वकील के पास आम तौर पर कथन या बयान देने के लिए कोई निहित या स्पष्ट अधिकार नहीं होता है जो मुव्वकिल के सीधे कानूनी अधिकारों को आत्मसमर्पण या समाप्त कर दे जब तक कि ऐसा कथन या बयान स्पष्ट रूप से उस उद्देश्य को पूरा करने के लिए एक उचित कदम नहीं है जिसके लिए वकील कार्यरत था। हम जोड़ सकते हैं कि कुछ मामलों में, वकील मुव्वकिल की सलाह के बिना निर्णय ले सकते हैं। जबकि अन्य में, निर्णय मुव्वकिल के लिए आरक्षित होता है। यह अक्सर कहा जाता है कि वकील मुव्वकिल की सलाह के बिना रणनीति के रूप में निर्णय ले सकता है, जबकि मुव्वकिल को वो निर्णय लेने का अधिकार है जो उसके अधिकारों को प्रभावित कर सकता है। आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें 

Saturday, February 1, 2020

अकारण किसी बच्चे को उसके बाप के प्यार से वंचित नहीं किया जा सकता -बॉम्बे हाई कोर्ट

 अकारण किसी बच्चे को उसके बाप के प्यार से वंचित नहीं किया जा सकता; बॉम्बे हाईकोर्ट ने मिस्र के नागरिक की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका मंजूर की |

      बॉम्बे हाईकोर्ट ने गुरुवार को मिस्र के नागरिक ख़ालिद क़ासिम की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका स्वीकार कर ली जो उसने अपनी पत्नी की बहन और मां के ख़िलाफ़ दायर की थी। उसने आरोप लगाया है कि इन दोनों ने उनके 11 महीने के बेटे कियान को छिपा रखा है। न्यायमूर्ति एसएस शिंदे और न्यायमूर्ति एनबी सूर्यवंशी की पीठ ने इस याचिका की सुनवाई की। याचिका में कहा गया था कि याचिकाकर्ता की पत्नी सौमी की मौत के बाद उसकी पत्नी की बहन पौलमि ने कोशिश की कि वह कियान को उसके साथ भारत में ही छोड़ दे और उसे अल्जीरिया की अपनी नौकरी भी छोड़ दे। यह भी आरोप लगाया अगया कि पौलमि ने याचिकाकर्ता के खिलाफ यौन उत्पीड़न का फ़र्ज़ी आरोप लगाते हुए मामला भी दायर किया था ताकि वह कियान का संरक्षण प्राप्त कर सके। पृष्ठभूमि याचिकाकर्ता ने सौमी घोष से अगस्त 2014 में शादी की। यह विवाह म्यांमार के मिस्र दूतावास में आयोजित हुआ। उनके बेटे कियान का जन्म 3 फ़रवरी 2019 पुणे में हुआ। 17 अप्रैल 2019 को सौमी की अचानक मौत हो गई। याचिकाकर्ता ने कहा कि उसकी पत्नी की मौत के तुरंत बाद पौलमि उस पर उसके बेटे को पुणे में उसके पास छोड़ देने का दबाव बनाने लगी। यहां तक कि पौलमि ने उसे अल्जीरिया की अपनी नौकरी भी छोड़ देने और पुणे में बस जाने को कहा। इसके बाद याचिकाकर्ता बच्चे और पौलमि के साथ जून 2019 में मिस्र गए जहां वे एक ही अपार्टमेंट में रहे। इस दौरान कियान को पौलमि ने अपने पास ही कमरे में बंद करके रखा। बाद में पौलमि ने उसके साथ शादी करके साथ रहने की इच्छा ज़ाहिर की। तीनों दुबई आ गए जहां याचिककर्ता को नौकरी मिल गई। पर याचिकाकर्ता ने पौलमि को स्पष्ट कहा था कि वह उससे शादी नहीं कर सकता। इसके बाद सितम्बर 2019 में पौलमि ने भारत आने की ज़िद की। 29 सितम्बर को याचिकाकर्ता को पता चला कि पौलमि ने उसके ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न का मुक़दमा भी दायर किया है। फ़ैसला नवरोज़ सीरवाई ने याचिकाकर्ता की पैरवी की जबकि सोनल गुप्ता और रोहित गुप्ता ने पौलमि और उसकी मां चंदा की पैरवी की। सीरवाई ने अपनी दलील में कहा कि यह मामला बच्चे का संरक्षण किसको मिलेगा इसका नहीं है बल्कि बच्चे को ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से बंद रखने का है। प्रतिवादी के वक़ील ने कहा कि याचिकाकर्ता पिता बनने लायक़ नहीं है क्योंकि वह गुस्सेवाला और धौंस जमाने वाला है और उसने पौलमि का यौन उत्पीड़न किया था और उसमें बच्चों के यौन शोषण की भी धारणा है। अदालत ने कहा, "…कियान मात्र 11 महीने का है और उसे किसी धर्म का बताना उसके ख़िलाफ़ ज़्यादती होगी…अभी वह अपनी राय क़ायम करने की स्थिति में नहीं है।" "निर्विवाद रूप से याचिकाकर्ता बच्चे का एकमात्र स्वाभाविक अभिभावक है। 11 महीने के बच्चे को निश्चित रूप से उसके प्यार और देखभाल की ज़रूरत है। यह भी लगता है कि याचिकाकर्ता की आर्थिक स्थिति स्थायी है। याचिकाकर्ता की योग्यता को देखते हुए और यह कि उसकी नौकरी भी अच्छी है और वह प्रतिष्ठित पद पर काम करता है, कियान को उसके संरक्षण से वंचित करने का कोई कारण नहीं है…। बालक कीयन की मां की मौत उस समय हो गई थी जब वह मात्र दो महीने का था और बिना किसी उचित कारण के उसे उसके पिता के प्यार से वंचित नहीं किया जा सकता।" इस बारे में अदालत ने याशिता साहू बनाम राजस्थान राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का हवाला भी दिया। और अंत में याचिकाकर्ता ने यह लिखित आश्वासन दिया कि अगर अदालत बच्चे को उसके संरक्षण में देती है तो वह पौलमि और उसकी माँ दोनों को पूरे वर्ष भर कीयन से मिलने देंगे और नोटिस देने के बाद वे यूएई में कियान से मिल सकते हैं। इस तरह अदालत ने कियान को याचिकाकर्ता के संरक्षण में दे दिया।

Friday, January 31, 2020

जानिये साक्छय अधिनियम में स्वीकृति का अर्थ

जानिए साक्ष्य अधिनियम में स्वीकृति का क्या अर्थ है 

 31 Jan 2020 6:46



           भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत स्वीकृति (Admission) को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य को मान लेता है या अपराध को स्वीकार कर लेता है तो उसे आम भाषा में इसे स्वीकृति कहा जाता है।    
         साक्ष्य अधिनियम में इसे विस्तार से समझाया गया है। अधिनियम की धारा 17 के अनुसार- स्वीकृति वह (मौखिक या दस्तावेजी या इलेक्ट्रॉनिक रूप में अंतर्विष्ट) कथन है,जो किसी विवाधक तथ्य या सुसंगत तथ्य के बारे में कोई अनुमान इंगित करता है और जो ऐसे व्यक्तियों में से किसी के द्वारा ऐसी परिस्थितियों में किया गया है जो एतस्मिन पश्चात वर्णित है।
        अधिनियम की यह परिभाषा अत्यधिक गूढ़ और गहन है, इसे समझने में थोड़ी सी कठिनाई हो सकती है। इस धारा में तीन बातों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है। प्रथम- यह धारा स्वीकृति की परिभाषा देती है। दूसरा- धारा कहती है कि स्वीकृति तभी सुसंगत होगी जब अधिनियम में बताए गए व्यक्तियों द्वारा की गई हो। तीसरा- स्वीकृति केवल उन्हीं परिस्थितियों में सुसंगत होगी जो अधिनियम में बताई गई हैं। ऐसी परिस्थितियां धारा 18 से लेकर 30 तक वर्णित हैं तथा कौन से व्यक्तियों द्वारा स्वीकृति की जाएगी, यह भी अधिनियम में बताया गया है।
.          स्वीकृति के कथनों के माध्यम से किसी विवाधक तथ्यों या सुसंगत तथ्यों के अस्तित्व का अनुमान लगाया जाता है, इसलिए साक्ष्य विधि में स्वीकृति को महत्व दिया गया है। 
           स्वीकृति एक अत्यंत मजबूत साक्ष्य है तथा अन्य साक्ष्यों के मुकाबले स्वीकृति का साक्ष्य अधिक शक्तिशाली होता है। आवश्यक नहीं की कोई स्वीकृति तभी सुसंगत होगी जब वह पूर्ण रूप से दायित्व को स्वीकार करे, केवल इतना ही पर्याप्त होगा की किसी ऐसे तथ्य को स्वीकार किया गया है जिससे दायित्व का अनुमान लगता है। अर्थात यदि व्यक्ति ने किसी ऐसे तथ्य को स्वीकार कर लिया है जो उसके दायित्व का साक्ष्य देती है तो यह सुसंगत होगी। 
       चीखम बनाम सुब्बाराव (ए आई आर 1981 एस सी 1542) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि किसी व्यक्ति का कोई अधिकार उसी के द्वारा की गई स्वीकृति के आधार पर छीनने के लिए यह आवश्यक है कि स्वीकृति स्पष्ट तथा अंतिम हो उसमें कोई शक या अनिश्चितता वाली बात नहीं होना चाहिए। 
        इस मामले के माध्यम सुप्रीम कोर्ट यह बताना चाहता है कि यदि किसी व्यक्ति को उसके द्वारा की गई स्वीकृति के माध्यम से किसी अधिकार से वंचित करना है तो ऐसी स्वीकृति स्पष्ट एवं साफ साफ होनी चाहिए।
         स्वीकृति अंशों में होती है तथा इसी स्वीकृति के माध्यम से किसी एक ही संव्यवहार के अलग-अलग तथ्यों को साबित किया जा सकता है। जैसे कि किसी स्थान पर लाश मिलने के परिणाम स्वरूप किसी व्यक्ति को हत्या के अभियोजन में आरोपी बनाया गया है और आरोपी व्यक्ति यह स्वीकार करता है कि जिस समय व्यक्ति की हत्या हुई थी उस समय वह उस ही स्थान पर था तो भले ही यह स्वीकृति यह साबित नहीं कर रही है की हत्या आरोपी द्वारा ही की गई है, परंतु यह अवश्य साबित कर रही है की आरोपी व्यक्ति हत्या के समय जिस स्थान से लाश मिली है उस स्थान पर उपस्थित था। बृजमोहन बना अमरनाथ (एआईआर 1980 एस सी 54) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि न्यायालय को स्वीकृति के कथन के अंदर बाहर दोनों ओर से जांच कर लेनी चाहिए और किसी व्यक्ति को उसके कथनों से बाध्य करने से पहले यह देख लेना चाहिए कि वह व्यापक तथा स्पष्ट है। समय-समय पर न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय के आधार पर स्वीकृति के कुछ तत्वों निकल कर सामने आते हैं जो निम्न हो सकते हैं- सबूत की आवश्यकता नहीं होना स्वीकृति के कारण किसी तथ्य के सुसंगत होने पर सबूत आवश्यक नहीं रह जाती है। यदि कुछ तथ्यों को स्वीकृति मिल गई है तो ऐसे तथ्यों का सबूत देने की आवश्यकता नहीं रहती, जिस व्यक्ति द्वारा स्वीकृति की जाती है उसे अपनी बात को साबित करने के लिए कोई सबूत देने की आवश्यकता नहीं होती है।
          जैसे यदि कोई भरण पोषण के लिए मुकदमा लाया जाता है यह मुकदमा अगर पत्नी द्वारा लाया जाता है, पत्नी किसी व्यक्ति को अपना पति बता रही है यदि वाद पत्र का जवाब देते हुए व्यक्ति जिस पर वाद लाया गया है वह वाद लाने वाली स्त्री को अपनी पत्नी मान लेता है तो या स्वीकृति है तथा इस स्वीकृति का साक्ष्य देने की आवश्यकता नहीं होगी।
           स्वीकृति उसे करने वाले व्यक्ति के हित के विपरीत होती है स्वीकृति के संदर्भ में यह माना गया है कि कोई भी स्वीकृति उसे करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध होती है। स्वीकृति उसे करने वाले व्यक्ति के हित के विरुद्ध ही जाती है,जो व्यक्ति ऐसी स्वीकृति कर रहा है। परंतु यह आवश्यक नहीं है कि कोई भी स्वीकृति सदैव उसे करने वाले व्यक्ति के हित के विरुद्ध ही जाए। 
         कभी-कभी स्वीकृति केवल किसी विवाधक या सुसंगत तथ्य के अनुमान के लिए ही होती है। यह इस स्वीकृति को करने वाले व्यक्ति के हित के विपरित नहीं जाती है। 
        भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत स्वीकृति को ऐसा ही माना गया है। अधिनियम के अंतर्गत स्वीकृति को केवल इतना माना गया है कि यह स्वीकृति केवल विवाधक एवं सुसंगत तथ्यों के अनुमान बताती है उनके अस्तित्व का निर्धारण करती है। स्वीकृति के लिए सत्य की अवधारणा की जा सकती है यदि कोई पक्षकार अपने हित के विरुद्ध कोई कथन कर रहा है तो यह उपधारणा की जा सकती है कि वह कथन सत्य ही होगा, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने बारे में किए गए ऐसे कथन को झूठ नहीं कहेगा, जो उसके हित के विरुद्ध हो इसलिए यह स्वीकृति का तत्व माना जा सकता है।
         स्वीकृति में सत्य की अवधारणा की जा सकती है। स्वीकृति के प्रकार न्याय निर्णय के माध्यम से स्वीकृति के प्रकारों को समझा जा सकता है। स्वीकृति कितने प्रकार की हो सकती है यह अलग-अलग न्याय निर्णय में समझा गया है। 
         न्यायिक स्वीकृति जो स्वीकृति न्यायालय में की गई कार्यवाही के साथ की जाती है उसे प्रारूपिक स्वीकृति या न्यायिक स्वीकृति कहते है, जो स्वीकृति स्पष्ट रूप से कार्यवाही के आरंभ में की जाती है उन्हें प्रारूपिक या प्रत्यक्ष स्वीकृति कहते हैं, ताकि उन्हें ऐसी इस स्वीकृति से भिन्न रखा जा सके जो औपचारिक तथा आकस्मिक रूप से हो जाती है, जिन्हें गवाहों की सहायता से साबित करना पड़ता है। नगीनदास रामदास बनाम दलपतराम इच्छाराम के वाद में उच्चतम न्यायालय ने प्रारूपिक स्वीकृति के महत्व को समझा है तथा प्रारूपिक स्वीकृति के संदर्भ में कहा है कि यह एक मजबूत साक्ष्य होती है तथा ऐसे किसी साक्ष्य को साबित किए जाने की आवश्यकता नहीं होती है। यह न्यायालय के समक्ष की जाती है। ऐसी स्वीकृति यदि सही और स्पष्ट हो तो तथ्यों का सबसे अच्छा सबूत होती है। 
           ऐसी स्वीकृति जो पक्षकारों ने अपने वाद में की है उसने न्यायिक स्वीकृति कहते है,जो धारा 58 के अंतर्गत है तथा जिसे पक्षकारों तथा उनके अभिकर्ताओं ने सुनवाई में किया है। ऐसी स्वीकृति दूसरा स्थान रखती है जो न्यायालय के बाहर होती है और गवाहों द्वारा साबित होती है। प्रथम श्रेणी की स्वीकृति करने वाले पक्षकार पर स्वीकृति पूर्ण रूप से बाध्य होती है, उनके सबूत का अभित्याजन हो जाता है, पक्षकारों के अधिकारों की बुनियाद बन सकती है।
            अनौपचारिक स्वीकृति अनौपचारिक स्वीकृति जीवन या कारोबार के साधारण वार्तालाप के क्रम में हो सकती है। ऐसी स्वीकृति लिखित हो सकती है या मौखिक।लिखित स्वीकृति पत्र व्यवहार के दौरान कारोबार की पुस्तकों में पासबुक आदि में हो सकती है। स्लेटलेरी बनाम पूले का मामला जिसे करण सिंह बनाम स्टेट ऑफ जम्मू एंड कश्मीर के मामले में मान्यता दी गई है, इसमें यह कहा गया है कि पति या पत्नी का प्रत्येक ऐसा कथन चाहे लिखित हो या मौखिक जो किसी पक्षकार ने वाद के तथ्यों के बारे में किया है, स्वीकृति बन जाती है। यदि वह किसी दस्तावेज द्वारा बाध्य है और दस्तावेज की विषय वस्तु के बारे में कोई बात कहता है वह उसके के विरुद्ध साक्ष्य होगा चाहे दस्तावेज स्टांप पर ना होने के कारण न्यायालय में प्रस्तुत ना किया जा सके। मामले प्रतिवादी ने मौखिक कथन के द्वारा यह मान लिया था कि उसने उतना ऋण लिया था जितना की दस्तावेज में लिखा हुआ था या उसके विरुद्ध साक्ष्य में कबूल हुआ। हेमचंद्र गुप्ता बनाम ओम प्रकाश गुप्ता एआईआर 1987 कोलकाता 69 के मामले में जिस व्यक्ति ने पारिवारिक बंटवारे के विलय पर हस्ताक्षर किए थे।
         उसके विरुद्ध यह स्वीकृति मान ली गई, क्योंकि सभी व्यक्तियों द्वारा ऐसे किसी भी लेख पर हस्ताक्षर नहीं किए गए थे। औपचारिक स्वीकृति का कथन हम किसी भी व्यक्ति के समक्ष कर सकते हैं, यह कथन किसी पति और पत्नी के बीच हुए संवाद के आधार पर भी हो सकता है।
        एक मामले में उच्चतम न्यायालय के शब्दों में यद्यपि किसी भूतपूर्व कथन मैं अपने ही पक्ष में की गई कोई बात कोई साक्ष्य नहीं होती है, परंतु कोई ऐसा भूतपूर्व कथन जो कथन करता है के हित के विरुद्ध हो वह स्वीकृति होगा और साक्ष्य के रूप में सुसंगत होगा। आचरण द्वारा स्वीकृति कोई स्वीकृति किसी परिस्थिति में आचरण के द्वारा भी हो सकती है। 
          इस संदर्भ में इंग्लिश विधि का एक महत्वपूर्ण मामला है। इस मामले को मोएबिलिटी बनाम लंदन बाथम ओवर रेलवे का मामला कहा जाता है। इस मामले में व्यक्तिगत क्षति प्राप्त करने हेतु एक वाद रेलवे पर लगाया गया था। 
         इस वाद में वाद लाने वाला व्यक्ति कुछ ऐसे व्यक्तियों को तलाश रहा था जो दुर्घटना के समय वहां उपस्थित नहीं थे। तलाश कर मुकदमे में साक्षी बनाना चाहता था, जबकि व्यक्ति स्थान पर उपस्थित नहीं थे, वाद लाने वाले व्यक्ति का यह आचरण न्यायालय में साबित कर दिया गया तथा आचरण के द्वारा स्वीकृति माना गया तथा वाद को सत्यता के परे माना गया। किसी भी विवाद में व्यक्ति के आचरण कुछ ऐसे होते है जिससे बहुत सी बातों का साक्ष्य मिलता है तथा जिसकी स्वीकृति मानी जा सकती है। एक दिलचस्प उदाहरण के माध्यम से आचरण द्वारा स्वीकृति को समझा जा सकता है।
           यदि जारकर्म लेकर कोई प्रश्न है। जारकर्म से स्त्री को कोई संतान उत्पत्ति होती है। स्त्री ऐसी संतान का जब नगर पालिका या किसी अन्य निकाय में रजिस्टर कराती है तो वह रजिस्टर करते समय संतान के पिता कौन है इस संदर्भ में कोई जानकारी नहीं देती है तो पिता की जानकारी नहीं देना सीधे-सीधे आचरण द्वारा जारकर्म की स्वीकृति मानी जा सकती है। हालांकि यह पूर्ण स्वीकृति नहीं है परंतु जारकर्म के मुकदमे में आंशिक स्वीकृति तो मानी ही जाएगी। 

Wednesday, January 29, 2020

NDPS आरोपी को बरी होने की उचित संभावना के आधार पर जमानत दी -सुप्रीमकोर्ट


 सुप्रीम कोर्ट ने NDPS आरोपी को बरी होने की उचित संभावना के आधार पर जमानत दी 

         सुप्रीम कोर्ट ने नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट ( NDPS), 1985 के तहत आरोपी को इस आधार पर ज़मानत दे दी कि इस बात की उचित संभावना है कि वह बरी हो सकता है।
         दरअसल सुजीत तिवारी के खिलाफ अभियोजन का मामला था कि वह इस बात से अवगत था कि NDPS मामले में आरोपी उसका भाई क्या कर रहा था और सक्रिय रूप से वो अपने भाई की मदद कर रहा था।
         कोर्ट ने कहा कि कुछ व्हाट्सएप संदेशों और उनके स्वयं के बयान के अलावा, जिनसे उसने खुद को अलग कर लिया है, कोई अन्य सबूत नहीं है।
        जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस दीपक गुप्ता की पीठ ने कहा कि अपीलकर्ता का मामला अन्य आरोपियों से बिल्कुल अलग है।
         न्यायालय ने उल्लेख किया कि NDPS अधिनियम की धारा 37 के प्रावधान दो सीमाएं निर्धारित करते हैं; एक, यह कि अदालत प्रमुखता से इस विचार हो कि अपीलकर्ता अपराध का दोषी नहीं है और दूसरी बात, कि वह जमानत पर रहते हुए किसी अपराध की संभावना नहीं रखता है। 
       आरोपी को जमानत देते हुए कोर्ट ने कहा, "उचित संभावना यह है कि वह बरी हो सकता है। वह 4 अगस्त 2107 यानी 2 साल से अधिक समय से गिरफ्तारी के बाद से सलाखों के पीछे है तथा 25 साल की उम्र का युवक है। वह बीटेक ग्रेजुएट है। इसलिए, इस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में हमें लगता है कि यह एक फिट मामला है जहां अपीलकर्ता जमानत का हकदार है क्योंकि इस बात की संभावना है कि वह अपने भाई और अन्य चालक दल के सदस्यों की अवैध गतिविधियों से अनजान था।
        अपीलकर्ता का मामला अन्य सभी अभियुक्तों से अलग है, चाहे वह जहाज का मास्टर हो, चालक दल के सदस्य या वे व्यक्ति जो संभावित खरीदारों और संभावित खरीदार को मास्टर के सामने पेश करते हैं। 
         कोर्ट ने जमानत देते समय कठोर शर्तें भी लगाई हैं। "

Monday, January 27, 2020

राजस्व अधिकारियों को अचल सम्पत्तियों का स्वामित्व विवाद तय करने का अधिकार नहीं है

राजस्व अधिकारियों को अचल संपत्तियों का 'स्वामित्व विवाद' तय करने का अधिकार नहीं हैः कर्नाटक हाईकोर्ट 

27 Jan 2020 4:25 PM 1

       कर्नाटक हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला दिया है, जिससे एक ही मामले में कई मुकदमे दर्ज करने की मुश्किल खत्म हो जाएगी। "राजस्व अधिकारियों अर्थात, तहसीलदार, सहायक आयुक्त और उपायुक्त के पास अचल संपत्ति/संपत्तियों के संबंध में पक्षकारों के बीच 'स्वामित्व विवाद' पर फैसला करने का अधिकार क्षेत्र नहीं है। यह फैसला करना सक्षम सिविल कोर्ट का अनन्य अधिकार है, यदि कोर्ट द्वारा कोई आदेश पास किया जाता है तो वह पक्षों और राजस्व अधिकार‌ियों दोनों पर बाध्यकारी होगा।" जस्टिस एसएन सत्यनारायण, जस्टिस बी वीरप्पा और ज‌स्टिस के नटराजन की पूर्ण पीठ ने सिंगल जज बेंच द्वारा 2 अप्रैल, 2019 को दिए एक आदेश में दिए गए एक संदर्भ पर फैसला करते हुए कहा, "जब कई पक्ष अदालत का दरवाज़ा खटखटाकर अपील और पुनरीक्षण दायर करने की कठोर प्रक्रिया की ओर ध्यान दिलाते हैं, तब अदालत या प्राधिकरण 'बैठे रहो-इंतजार करो' जैसा रवैया अ‌‌ख्‍त‌ियार नहीं कर सकते और नागरिकों से ये अपेक्षा नहीं कर सकते कि वो राजस्व अधिकारियों के चक्‍कर लगाते रहें। मामले में सिविल कोर्ट को, जो कि सक्षम प्राधिकारी है, पार्ट‌ियों बीच में स्वामित्व तय करना है। अधिकारियों को प्र‌क्रिया का अनुपालन करने के उद्देश्य मात्र से नागरिकों को कमोडिटी या ग़ुलाम के रूप में उपयोग करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। पीठ ने निम्नलिखित घोषणाएं कीं: * कर्नाटक भू-राजस्व अधिनियम की धारा 129 के प्रावधानों के तहत संबंधित क्षेत्र के तहसीलदार द्वारा पारित कोई भी आदेश अचल संपत्तियों के संबंध में स्वामित्व को हाथ लगाता है तो पीड़ित पक्ष को सहायक आयुक्त/उप आयुक्त के समक्ष अपील या पुनरीक्षण दायर करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह निरर्थक कवायद है। इसलिए, पीड़ित पक्ष स्वामित्व की घोषणा के लिए सीधे सक्षम सिविल कोर्ट में पहुंच सकती है, और परिणामस्वरूप प्राप्त राहत, पारित निर्णय और आदेश सभी पक्षों समेत राजस्व अधिकारियों के लिए भी बाध्यकारी होगा। ## संबं‌धित क्षेत्र के तहसीलदार द्वारा कर्नाटक लैंड रेवेन्यू एक्ट के सेक्‍शन 129 के प्रावधानों के तहत स्वामित्व की प्रविष्टियों के संबंध में पार‌ित आदेश से पीड़ित कोई भी व्यक्ति, यदि स्वामित्व के संबंध में कोई विवाद न हो तो, कर्नाटक लैंड रेवेन्यू एक्ट के सेक्‍शन 136(2) और 136(3) के प्रावधानों के तहत सहायक आयुक्त/उपायुक्त के समक्ष मात्र एक अपील/पुनरीक्षण दायर किया जा सकता है। बेंच ने कहा- "समय और परिस्थिति अब यह कहती हैं कि अदालत को धर्म की रक्षा के लिए एक अभिभावक के रूप में कार्य करना है। भागवदगीता के अध्याय 4 के श्लोक 7-8 में कहा गया है, 'जब-जब धर्म का क्षरण होता है, अधर्म का विस्तार होता, हे भरत, तब सत्य की रक्षा और दुष्टों के विनाश के लिए मैं स्वयं अवतार लेता हूं, धर्म की स्‍थापना के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूं।" बेंच ने स्वामित्व से जुड़े मामलों का समयबद्घ निपटारा करने के लिए राज्य को उचित नियम बनाने के निर्देश दिए और स‌िफारिशें कीं- i)यदि किसी विवाद के बिना, स्वामित्व के स्रोत के आधार पर म्यूटेशन या खाता या आरटीसी के हस्तांतरण के लिए आवेदन दायर किया जाता है तो उक्त आवेदन को दूसरे पक्ष द्वारा नोटिस प्राप्त होने की तारीख से तीन माह की अवधि के भीतर म्यूटेशन या खाता या आरटीसी के हस्तांतरण के लिए विचार किया जाएगा। ii)जैसे ही खाता या म्यूटेशन में प्रविष्टियों के परिवर्तन के लिए आवेदन किया जाता है, तहसीलदार को यह सत्यापित करना होगा कि क्या उक्त संपत्ति के स्वामित्व के संबंध में कोई विवाद है और फिर शामिल पक्षों को सक्षम सिविल कोर्ट से संपर्क करने के लिए निर्देशित कर सकता है। iii)तहसीलदार द्वारा पारित आदेशों से पीड़ित यदि सहायक आयुक्त या उपायुक्त के समक्ष अपील/ संशोधन दायर करता है, तो सहायक आयुक्त/उपायुक्त को दूसरे पक्ष को नोटिस सर्व करने के बाद और अपील/संशोधन दायर करने की तारीख से छह महीने के भीतर अपील/ संशोधन के निपटारे के लिए आवश्यक कदम उठाने होंगे। iv)यदि अधिकारी तय समय सीमा का पालन करने में सक्षम न हो तो और यदि खाता और प्रविष्टियों के हस्तांतरण में तीन महीने से अधिक विलंब हो रहा हो तो संबंधित अधिकारी द्वारा विलंब का ठोस कारण बता दिया जाना चाहिए। तहसीलदार विलंब के कारणों को रिकॉर्ड करेगा और उच्च अधिकारियों को प्रस्तुत करेगा। v)कर्नाटक लैंड रेवन्यू एक्ट के तहत खाता में बदलाव या म्‍यूटेशन/एंट्रीज़ और अपील / संशोधन से संबंधित आवेदनों को कर्नाटक गारंटी ऑफ सर्विसेज़ टू सीटिजंस एक्ट 2011 की अनुसूची में शामिल किया जाएगा; वह मामला, जिसका संदर्भ सिंगल जज बेंच ने दिया: याचिकाकर्ता, जयम्मा और अन्य ने अदालत से 18 अप्रैल 2012 और 2 मई 2012 को तीसरे प्रतिवादी/ विशेष तहसीलदार द्वारा पारित आदेश को रद्द करने की अपील की थी, और तहसीलदार को अनुलग्नक-जे के आधार पर की गई सभी प्रविष्टियों को रद्द करने को आदेश देने को कहा था; आरटीसी में प्रविष्टियों को 12 दिसंबर 2008 से पहले की स्थिति में बहाल करने के लिए कहा था। पूर्ण पीठ के समक्ष संदर्भ बिंदु थे: (1) क्या कर्नाटक राज्य, जो सूची IIमें प्रविष्टियों के तहत कानून बनाने के लिए अधिकृत है, अनुच्छेद 246 (3) में संवैधानिक जनादेश की पृष्ठभूमि में, संविधान की एंट्री 45 और एंट्री 65 में निर्धारित कानून के अधिकृत क्षेत्र से आगे निकल सकता है? (2) केएलआर एक्ट की धारा 135 की शर्त, दो समानांतर कार्यवाहियों के कारण, जिनमें एक राजस्व अधिकार क्षेत्र के तहत और दूसरी नागरिक संहिता की धारा 9 के तहत केएलआर एक्‍ट की धारा 135 की शर्त के कारण, सीमा अवधि बढ़ाएगा? (3) क्या एक पीड़‌ित व्यक्ति को उपलब्‍ध कार्रवाई के कारणों को विभाजित करने, पहले उसे केएलआर एक्ट के चैप्टर इलेवन के तहत उपचारों को समाप्त करने और फिर ‌डि नोवो सिविल प्रोसिडिंग्स शुरु करने की, जैसे सेक्‍शन 135 में विचार किया गया है, की अनुमति है? मामले में एमिकस क्यूरी, वरिष्ठ अधिवक्ता एसपी शंकर ने दलील दी, "यदि अचल संपत्ति के लिए एक पार्टी द्वारा निर्धारित स्वामित्व या अधिकार दूसरी पार्टी द्वारा विवादित करार दिया गया है, तो ऐसे स्वामित्व या संपत्ति को लेकर राजस्व न्यायालयों द्वारा पूछताछ नहीं की जा सकती है। अधिनियम के तहत गठित राजस्व अदालत केवल मूल्यांकन, भू राजस्व की वसूली और भूमि राजस्व प्रशासन की जिम्‍मेदार हो सकती है, किसी अचल संपत्त‌ि के स्वामित्व पर फैसला करना उसका अधिकार क्षेत्र नहीं है, जो कि विशेष रूप से सिविल कोर्ट में निहित है। बार की ओर से पेश वकील एमआर राजगोपाल ने दलील दी कि "राजस्व अधिकारी कृषि भूमि सहित संपत्तियों के अधिकारों के अधिग्रहण या विलोपन को विनियमित नहीं करते। राजस्व अधिकारियों को मुख्य रूप से व्यक्तियों के नामों का रिकॉर्ड रखना होता है।" याचिकाकर्ताओं के लिए वकील- सुनील एस राव, एमिकस क्यूरी: वरिष्ठ वकील, एसपी शंकर, के सुमन बार की ओर से कोर्ट की सहायता करने वाले वकील: वरिष्ठ वकील वी लक्ष्मीनारायण, एडवोकेट एमआर राजगोपाल, एडवोकेट बसवराज

Sunday, January 26, 2020

साक्छय अधिनियम भाग -3



साक्ष्य अधिनियम भाग 3 : जानिए क्या होते हैं तथ्य, विवाधक तथ्य एवं सुसंगत तथ्

      साक्ष्य अधिनियम के तहत पिछले दो आलेख में हमने देखा कि साक्ष्य में सबूत का भार किस पर होता है? इसके अलावा हमने यह भी देखा कि किस तरह एक ही संव्यवहार के भाग होने वाले तथ्यों की सुसंगति क्या होती है और किस प्रकार इसमें रेस जेस्टे का सिद्धांत किस प्रकार लागू होता है। 

साक्ष्य विधि : क्या होती है एक ही संव्यवहार के भाग होने वाले तथ्यों की सुसंगति, जानिए रेस जेस्टे का सिद्धांत साक्ष्य अधिनियम की इस सीरीज़ में हम अब समझेंगे कि तथ्य ,विवाधक तथ्य एवं सुसंगत तथ्य क्या होते हैं और साक्ष्य के संदर्भ में इन्हें कैसे देखा जाता है। साक्ष्य विधि का कार्य उन नियमों का प्रतिपादन करना है, जिनके द्वारा न्यायालय के समक्ष तथ्य साबित और खारिज किए जाते हैं। किसी तथ्य को साबित करने के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जा सकती है, उसके नियम साक्ष्य विधि द्वारा तय किये जाते हैं। 
       साक्ष्य विधि अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण विधि है। समस्त भारत की न्याय प्रक्रिया भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की बुनियाद पर टिकी हुई है। 
        साक्ष्य अधिनियम आपराधिक तथा सिविल दोनों प्रकार की विधियों में निर्णायक भूमिका निभाता है। इस साक्ष्य अधिनियम के माध्यम से ही यह तय किया जाता है कि सबूत को स्वीकार किया जाएगा या नहीं किया जाएगा। अधिनियम को बनाने का उद्देश्य साक्ष्यों के संबंध में सहिंताबद्ध विधि का निर्माण करना है, जिसके माध्यम से मूल विधि के सिद्धांतों तक पहुंचा जा सके। इस साक्ष्य अधिनियम के माध्यम से ही जो इतने सारे अधिनियम बनाए गए हैं, उनके लक्ष्य तक पहुंचा जाता है। 
        कोई भी कार्यवाही या अभियोजन चलाया जाता है, अभियोजन पूर्ण रूप से इस अधिनियम पर ही आधारित होता है। बिना साक्ष्य अधिनियम के अभियोजन चलाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है तथा किसी भी सिविल राइट को बरकरार नहीं रखा जा सकता है। 
        साक्ष्य अधिनियम 1872 अपने निर्माण से आज तक सबसे कम संशोधित किया गया है। 

तथ्य ,विवाधक तथ्य एवं सुसंगत तथ्य : साक्ष्य अधिनियम में तथ्य, विवाधक तथ्य एवं सुसंगत तथ्य जैसे शब्द बारंबार आते हैं। अधिनियम को समझने के लिए सर्वप्रथम हमें इन तीनों शब्दों को गहनता से समझना होगा। यदि ये तीनों शब्द गहनता से समझ लिए जाते हैं तो साक्ष्य अधिनियम को समझना सरल होगा। 
       समस्त साक्ष्य अधिनियम की धाराएं इन तीन शब्दों के ईर्द गिर्द ही घूमती हैं। इन तीनों शब्दों को साक्ष्य अधिनियम की परिधि माना जा सकता है। समस्त साक्ष्य अधिनियम इन तीनों शब्दों के अंतर्गत ही रहता है। इस लेख के माध्यम से हम तीनों शब्दों का अर्थ समझने का प्रयास करेंगे। 

      1- तथ्य : साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत तथ्य की परिभाषा दी गई है। इस परिभाषा के अंतर्गत कुछ दृष्टांत के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है। तथ्य होता क्या है, उसकी प्रकृति क्या होती है, तथा उसका अर्थ क्या है। साक्ष्य अधिनियम में तथ्य को कौन से अर्थों में लिया जाए। साक्ष्य अधिनियम में साक्ष्य की परिभाषा से प्रतीत होता है कि साक्ष्य तथ्यों से संबंधित है, इसलिए साक्ष्य को मामले के तथ्यों तक ही सीमित रखना पड़ता है। इस प्रयोजन हेतु तथ्य शब्द की परिभाषा आवश्यक हो गई थी जो अधिनियम में निम्नलिखित तरीके से दी गई है------ 
       तथ्य से अभिप्रेत है और उसके अंतर्गत आती है, ऐसी कोई वस्तु ,वस्तुओं की अवस्था या वस्तुओं का संबंध जो इंद्रियों द्वारा बोधगम्य हो' 'कोई मानसिक दशा जिसका भान किसी व्यक्ति को हो' तथ्य उसे कहा जाता है जिसे मनुष्य भौतिक और मानसिक रूप से प्रतीत कर सके, आभास कर सके उसे महसूस कर सके। विधि के अंतर्गत कार्य और लोप दोनों को तथ्य माना गया है। कार्य भी तथ्य और लोप भी तथ्य है। हम इस बात को इस उदाहरण के माध्यम से सकते हैं। कार्य जैसे विधि द्वारा किसी व्यक्ति को यह कार्य बताया गया है वह किसी व्यक्ति की हत्या नहीं करेगा। किसी भी व्यक्ति की हत्या करने के लिए तथा इस हत्या के लिए हमें शास्ति दी जाएगी, दंड दिया जाएगा। कार्य यही है, जिसे करने से निवारित किया गया है। लोप जैसे विधि के अंतर्गत हमें यह बताया गया है की हमें आयकर हमारी सालाना आय पर प्रत्येक वर्ष भरना होगा, परंतु हम आयकर नहीं भरते हैं ,तो यह लोप है तथा आपराधिक लोप है, और इस लोप के लिए हमें दंडित किया जाएगा। कोई भी तथ्य कार्य या लोप दोनों हो सकते हैं। तथ्य इंद्रियों को मानसिक व शारीरिक रूप से आभास होता है, तथ्य को पहचाना जा सकता है, तथ्य को महसूस किया जा सकता है, तथ्य को समझा जा सकता है, तथ्य को देखा जा सकता है, तथ्य किसी भी भांति का हो सकता है। 
       दलवीर सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब एआईआर 1987 एस सी 1328 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि साक्ष्य का मूल्यांकन एक तथ्य का प्रश्न है, जिसका विनिश्चय प्रत्येक मामले की पारिस्थितियों पर निर्भर करता है। विवाधक तथ्य ( Fact in issue) विवाधक तथ्य का अर्थ होता है जिन तथ्यों पर विवाद है। किसी वाद या कार्यवाही के पक्षकार उन तथ्यों पर सहमत नहीं है उन्हें विवाधक तथ्य कहा जाता है। 
      साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत जहां निर्वाचन खंड दिया गया है, विवाधक तथ्य की परिभाषा भी दी गई है।
 2-विवाधक तथ्य"
                        से अभिप्रेत है और उसके अंतर्गत आता है, ऐसा कोई भी तथ्य जिस अकेले ही से या अन्य तथ्यों के संसर्ग, में किसी ऐसे अधिकार, दायित्व या निर्योग्यता के, जिसका किसी वाद या कार्यवाही में प्रख्यान या प्रत्याख्यान किया गया है, अस्तित्व, अनस्तित्व, प्रकृति या विस्तार की उत्पत्ति अवश्यमेव होती हैं। विवाधक तथ्य का आशय विवादित तथ्य से ही है, अर्थात जिन तथ्यों पर विवाद है। किसी भी विवाद में केवल एक पक्षकार नहीं होता है। किसी विवाद में एक से अधिक ही पक्षकार होते है, तथा इस विवाद का कोई तथ्य होता है,कोई कारण होता है जिसे समझा जा सकता है देखा जा सकता है आभास किया जाता है। ऐसे में कुछ पक्षकार किन्ही तथ्यों पर सहमत होते हैं किन्ही तथ्यों पर असहमत होते हैं। पक्षकारों के भीतर जिन तथ्यों को लेकर विवाद होता है, उन तथ्यों को विवाधक तथ्य कहा जाता है। इन तथ्यों के माध्यम से वाद की प्रकृति को समझा जाता है। विवाधक तथ्य क्या होता है, इसे आप इस उदाहरण के माध्यम से समझ सकते हैं। जिसे राज्य द्वारा किसी व्यक्ति के ऊपर कोई मुकदमा चलाया जाता है, कोई अभियोजन लाया जाता है। ऐसे में आरोपी व्यक्ति पर जब आरोप तय किए जाते हैं उस समय वह उन आरोपों में से किन आरोपों को स्वीकार कर लेता है तथा किन्ही आरोपों को अस्वीकार भी कर सकता है, वह जिन आरोपों को स्वीकार करता है यह उसका अभिवचन हो जाते हैं तथा जिन आरोपों को स्वीकार नहीं करता है यह विवाधक तथ्य हो जाते हैं। कोई सिविल कार्यवाही चल रही है। किसी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य व्यक्ति पर इस तथ्य के अंतर्गत वाद लाया गया है। कोई भूमि किसी व्यक्ति के कब्जे में है परन्तु भूमि का मालिकाना हक कोई अन्य व्यक्ति दावा कर है। ऐसी सिविल कार्यवाही लाई जाती है, जिसके पास कब्ज़ा है वह व्यक्ति इस बात का खंडन यह कहते हुए करता है कि यह भूमि मेरे पुरखों की है तथा इस पर मेरा कब्जा भी है और मालिकाना हक भी है तो इससे विधायक तथ्य निम्न होंगे- क्या भूमि पर कब्ज़ा रखने वाले व्यक्ति का मालिकाना हक़ है? क्या भूमि पर मालिकाना हक बताने वाले व्यक्ति का दावा सही है? विवाधक तथ्य भिन्न-भिन्न भी हो सकते हैं तथा किसी एक वाद में बहुत सारे विवाधक तथ्य हो सकते हैं। वह सभी तथ्यों को समझना अत्यंत आवश्यक होता है। कोई भी वाद या कार्यवाही इन विवाधक तथ्यों के आधार पर ही चलती है। सारे साक्ष्य इन विवाधक तथ्यों को साबित और नासाबित करने हेतु ही दिए जाते हैं, अर्थात साक्ष्यों को पेश किया जाना इन तथ्यों को साबित और नासाबित करना ही लक्ष्य होता है। किसी व्यक्ति ने किसी व्यक्ति की हत्या की है। हत्या का आरोप लगाया गया है। अभियोजन यह कह रहा है कि किसी व्यक्ति ने हत्या की है और आरोपी कहता है मैंने हत्या नहीं कि तो ऐसी परिस्थिति में हत्या वह आमुक व्यक्ति ने की है या नहीं की है, यह विवाधक तथ्य है। अभियोजन इस तथ्य को साबित करने के लिए साक्ष्य प्रस्तुत करेगा तथा वह आरोपी व्यक्ति जिस पर अभियोजन चलाया जा रहा है, वह इस बात को नासाबित करने के लिए साक्ष्य प्रस्तुत करेगा कि हत्या उसके द्वारा नहीं की गई है। विवाधक तथ्य यह हो सकता है कि हत्या के आरोपी व्यक्ति द्वारा हत्या की गई है या नहीं की गयी है। किसी तथ्य को विवाधक तथ्य तब ही माना जा सकता है जब वह यह शर्ते पूरी करता है- 
1-प्रथम यह कि उस तथ्य के बारे में पक्षकारों में मतभेद हो।
 2-दूसरा यह कि वह इतना महत्व रखता हो कि उसी पर पक्षकारों के दायित्व तथा अधिकार निर्भर करते हैं। जिस सीमा तक पक्षकारों के दायित्व तथा अधिकार किसी विशेष विधि के उपबंधों पर निर्भर करते हैं,उस विशेष विधि के संबंध में ही जाना जा सकता है कि विवादित तथ्य क्या है! उदाहरणार्थ यदि असावधानी से की गई क्षति के लिए बाद लाया गया है तो दुष्कृत्य विधि के असावधानी से संबंधित नियम और पक्षकारों की दुष्कृति के बारे में मतभेद यह तय करेंगे कि विवाधक तत्व कौन से है। अगर वादी का कहना है कि प्रतिवादी उसके प्रति सावधानी का कर्तव्य रखता है, प्रतिवादी या कहे कि उसका कोई ऐसा कर्तव्य नहीं था तो यह तथ्य ऐसा कर्तव्य था या नहीं विवादित तथ्य बन जाएगा।
         निष्कर्ष यह है कि विवादित तथ्य विवाद की विषय वस्तु से संबंध रखने वाली विधि की आवश्यकता है,तथा पक्षकारों के अभिभाषण पर निर्भर करते हैं। 

       सुसंगत तथ्य यह इस अधिनियम का सबसे महत्वपूर्ण शब्द है जिसे सुसंगत तथ्य कहा जाता है। इसकी परिभाषा अधिनियम की धारा 3 में ही दी गई है। "एक तथ्य दूसरे तथ्य से सुसंगत कहा जाता है,जबकि तथ्यों की सुसंगती से संबंधित इस अधिनियम के उपबंधों में निर्दिष्ट प्रकारों में से किसी भी एक प्रकार से वह तथ्य उस दूसरे तथ्य से संसक्त हो" कौन सा तथ्य सुसंगत है यह बताने के लिए साक्ष्य अधिनियम 1872 में एक पूरा अध्याय दिया गया है, जिसके माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है कि कौन से तथ्य सुसंगत होंगे। यह अध्याय अधिनियम की धारा 5 से लेकर धारा 55 तक है। इन सभी धाराओं में कौन से तत्व सुसंगत होंगे इस पर वर्णन किया गया है। सुसंगत तथ्य अधिनियम का अति महत्वपूर्ण शब्द है किसी भी विधि के विद्यार्थी को सर्वप्रथम इस बात को समझना चाहिए की कौन से तथ्य सुसंगत होंगे। यह बहुत महत्वपूर्ण बात है, सुसंगत तथ्यों से मिलकर विवाधक तथ्य तक पहुंचा जाता है। 
      यदि किसी वाद में या कार्यवाही में सुसंगत तथ्यों को साबित कर दिया जाता है, नासाबित कर दिया जाता है तो विवाधक तथ्य भी साबित या नासाबित हो जाते हैं। इस अधिनियम के अनुसार किसी विवाद या कार्यवाही में अनेक सुसंगत तथ्य होते हैं। 

Saturday, January 25, 2020

दिवाला प्रस्ताव की मंजूरी धारा 138के तहत दायर मुकदमा समाप्त करने का आधार नहीं


कॉरपोरेट दिवाला प्रस्ताव की मंजूरी एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत दायर मुकदमा समाप्त करने का आधार नहीं : मद्रास हाईकोर्ट

25 Jan 2020 9:15 

         कॉरपोरेट दिवाला प्रस्ताव की मंजूरी एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत दायर मुकदमा समाप्त करने का आधार नहीं : मद्रास हाईकोर्ट

         मद्रास हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में व्यवस्था दी है कि दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता, 2016 (आईबीसी) की धारा 31 के तहत किसी कंपनी को दिवालिया घोषित करने की प्रकिया की मंजूरी ऋणी कंपनी और उसके अधिकारियों के खिलाफ नेगोशिएबल इंस्ट्रमेंट (एनआई) एक्ट, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत शुरू किये गये मुकदमे को समाप्त करने का आधार नहीं हो सकती।

न्यायमूर्ति जी आर स्वामीनाथन की एकल पीठ ने कहा,

           "दिवाला प्रक्रिया का निर्णय करने वाले अधिकारी/अपीलीय न्यायाधिकरण द्वारा भले ही कंपनी को दिवालिया घोषित करने की योजना मंजूर कर ली गयी हो, लेकिन कोई भी उपबंध आपराधिक मामलों के निर्धारण करने वाली अदालत का दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के प्रावधानों के तहत मुकदमा चलाने और निपटाने का अधिकार नहीं छीन सकता।"

          यह टिप्पणी सीआरपीसी की धारा 482 के अंतर्गत दायर अर्जी पर की गयी है, जिसमें कानून की नजर में एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत मुकदमे को गैर-कानूनी ठहराने और आईबीसी के तहत उनके उपायों को आगे बढ़ाने के लिए शिकायतकर्ता-प्रतिवादी को निर्देश देने का अनुरोध किया गया था।

         याचिकाकर्ता-कंपनी आईबीसी की धारा 31 के तहत कॉरपोरेट दिवाला समाधान प्रक्रिया के अंतर्गत चली गयी थी तथा चेक बाउंस करने की शिकायत लंबित होने के दौरान संहिता की धारा 14 के तहत पाबंदी लग गयी थी।

दलीलें

         याचिकाकर्ता ने कोर्ट में दलील दी थी कि चूंकि दिवाला प्रक्रिया से जुड़े विशेषज्ञों ने परिसम्पत्तियों और देनदारी सहित कंपनी का सम्पूर्ण प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया था। इस वजह से उसकी पहुंच अब किसी भी दस्तावेज तक नहीं है, इसलिए वह मामले को जारी नहीं रख सकता था।

         उन्होंने दलील दी कि आईबीसी अन्य कानूनों से अधिक प्रभावी स्वयं में पूर्ण अधिनियम है। इसलिए चेक बाउंस संबंधी मुकदमे को जारी रखना कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा। उन्होंने आगे कहा कि दिवाला समाधान योजना स्पष्ट तौर पर निर्धारित करता है कि दिवाला समाधान प्रक्रिया शुरू होने की तारीख से पहले कंपनी की ओर से जारी सभी बकाया नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट (चेक) समाप्त हो जायेंगे तथा कंपनी और इसके मौजूदा कर्मचारियों की देनदारी समाप्त हो जायेगी। साथ ही सभी कानूनी कार्यवाही स्थायी तौर पर एवं बिना शर्त समाप्त हो जायेंगी।

निष्कर्ष

          कोर्ट ने कहा कि एनआई अधिनियम की धारा 138 का मुख्य उद्देश्य वाणिज्यिक लेनदेन की विश्वसनीयता को सुरक्षित रखना है और सार्वजनिक हित में चेक जारी करने वाले के खिलाफ एक व्यक्तिगत आपराधिक उत्तरदायित्व सुनिश्चित करके चेक बाउंस होने से रोकना है। इसलिए भले ही दिवाला समाधान योजना को मंजूरी दे दी गयी थी एवं आईबीसी की धारा 31 के तहत यह कॉरपोरेट ऋणदाता, उसके कर्मचारियों, सदस्यों, लेनदारों, गारंटरों और अन्य हितधारकों के लिए बाध्यकारी बना दिया गया, लेकिन एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत आपराधिक मुकदमा समाप्त नहीं होगा।

          इस मामले में जेआईके इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम अमरलाल वी जुमानी (2012) 3 एससीसी 255 के फैसले पर भरोसा जताया गया था।

          हालांकि कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि देनदार कंपनी दिवाला समाधान प्रक्रिया के दायरे में आती है तो इसके पूर्व प्रबंध निदेशक या निदेशक कंपनी का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। "इसलिए, केवल दिवाला समाधान से जुड़े विशेषज्ञ ही दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता के तहत मुकदमा लंबित होने के दौरान आरोपित कंपनी का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं।"

         यह भी कहा गया कि आईबीसी के तहत समाधान प्रक्रिया समाप्त हो जाती है और यदि देनदार कंपनी भंग नहीं होती तथा पूर्व निदेशक एवं अधिकारी आपराधिक मुकदमों में कंपनी का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते, तो ऐसी स्थिति में नया प्रबंधन ऐसे मुकदमों में कंपनी की ओर से प्रतिनिधित्व करने के लिए उचित इंतजाम करेगा।

          कोर्ट ने कहा, "दिवाला समाधान योजना समाप्त होने के बाद, या तो कंपनी को भंग किया जा सकता है या कंपनी का अस्तित्व बनाये रखने के लिए इसे नये प्रबंधन को सौंपा जा सकता है। जब कोई नया प्रबंधन कार्यभार संभालेगा, तो उसे कंपनी के प्रतिनिधित्व के लिए इंतजाम करना होगा।"

        कोर्ट ने आगे कहा कि जहां कंपनी भंग हो जाती है, वहां एनआई अधिनियम के तहत मुकदमे समाप्त हो जायेंगे। हालांकि, पूर्व निदेशकों और पदाधिकारियों को इसकी आड़ में छुपने की अनुमति नहीं मिलेगी।

          कोर्ट ने 'अनीता हाडा बनाम गॉडफादर ट्रेवल्स एंड टुअर्स (प्रा) लिमिटेड, (2012)5 एससीसी 661' के मामले में दिये गये फैसले पर भरोसा जताते हुए कहा,

           "यदि दिवाला समाधान प्रक्रिया के तहत कंपनी भंग हो जाती है, तो निश्चित तौर पर इसके खिलाफ मुकदमे समाप्त हो जाएंगे, लेकिन फिर भी उसके पूर्व निदेशक इस स्थिति का फायदा नहीं उठा सकते।

           जहां एनआई अधिनियम की धारा 138 के तहत मुकदमे पहले से ही शुरू हो चुके थे और इसके लंबित होने के दौरान ही कंपनी भंग हो गयी तो इसके निदेशक और अन्य अभियुक्त कंपनी भंग होने का हवाला देकर बच नहीं सकते। जो भंग हुई है वह कंपनी है, न कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट, 1881 की धारा 141 के तहत अभियुक्त का व्यक्तिगत सजा संबंधी उत्तरदायित्व।"

मुकदमे का ब्योरा :

मुकदमे का नाम : अजय कुमार बिश्नोई बनाम मेसर्स टैप इंजीनियरिंग

केस नं. क्रिमिनल ओपी (एमडी) सं. 34996/2019

कोरम : जस्टिस जी आर स्वामीनाथन

वकील : नित्येश एवं वैभव (याचिकाकर्ता के लिए)

Friday, January 24, 2020

भारत के संविधान की प्रस्तावना की खास बातें

भारत के संविधान की प्रस्तावना (Preamble) के बारे में ख़ास बातें

 23 Jan 2020 

        भारत के संविधान की मसौदा समिति (Drafting Committee) ने यह देखा था कि प्रस्तावना/उद्देशिका (Preamble) को नए राष्ट्र की महत्वपूर्ण विशेषताओं को परिभाषित करने तक ही सीमित होना चाहिए और उसके सामाजिक-राजनीतिक उद्देश्यों एवं अन्य महत्वपूर्ण मामलों को संविधान में और विस्तार से समझाया जाना चाहिए। 
          संविधान के निर्माताओं का अंतिम उद्देश्य एक कल्याणकारी राज्य और समतामूलक समाज का निर्माण करना था, जिसमें भारत के उन लोगों के उद्देश्य और आकांक्षाएं शामिल हों जिन्होंने देश की आजादी की प्राप्ति के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया था।  
          भारत के संविधान की प्रस्तावना (Preamble), 13 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा में जवाहरलाल नेहरू द्वारा पेश किये गए उद्देश्य प्रस्ताव (Objective Resolution) पर आधारित है। यह संकल्प/प्रस्ताव 22 जनवरी, 1947 को अपनाया गया था। 
        मौजूदा लेख में हम संविधान की प्रस्तावना को समझने और उसके मुख्य पहलुओं को रेखांकित करने का प्रयास करेंगे। 
         तो चलिए शुरू करते हैं। प्रस्तावना या उद्देशिका को भारत के संविधान की आत्मा इसलिए भी कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें संविधान के बारे में सब कुछ बहुत संक्षेप में मौजूद है। हमे यह ध्यम में रखना चाहिए कि इसे 26 नवंबर, 1949 को अपनाया गया था और इसे 26 जनवरी, 1950 से लागू किया गया था, जिसे आज हम गणतंत्र दिवस के रूप में भी जानते हैं।
         गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य AIR 1967 SC 1643 के मामले में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, सुब्बा राव ने यह कहा था कि "एक अधिनियम की प्रस्तावना, उसके उन मुख्य उद्देश्यों को निर्धारित करती है, जिसे प्राप्त करने का इरादा कानून रखता है।" 
         हम यह कह सकते हैं कि, भारत के संविधान की प्रस्तावना, एक संक्षिप्त परिचयात्मक वक्तव्य है जो संविधान के मार्गदर्शक उद्देश्य, सिद्धांतों और दर्शन को निर्धारित करती है। 
       प्रस्तावना, निम्नलिखित के बारे में एक विचार देती है:
 (1) संविधान का स्रोत, 
(2) भारतीय राज्य की प्रकृति (3) इसके उद्देश्यों का विवरण और 
(4) इसके अपनाने की तिथि।. 
          आइये अब उद्देशिका/प्रस्तावना को एक बार पढ़ लेते हैं 

हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। 

        वर्ष 1949 में संविधान सभा द्वारा अपनाई गई मूल प्रस्तावना ने भारत को "प्रभुत्व-संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य" घोषित किया था। 
       आपातकाल के दौरान लागू वर्ष 1976 के 42वें संविधान संशोधन द्वारा, "समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष" शब्द भी प्रस्तावना में जोड़े गए; प्रस्तावना अब "संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य" पढ़ी जाती है। 
       गौरतलब है कि भारतीय जीवन बीमा निगम एवं अन्य बनाम कंज्यूमर एजुकेशन और रिसर्च एवं अन्य 1995 SCC (5) 482 के मामले के अनुसार, 'प्रस्तावना' भारत के संविधान की अभिन्न अंग है।
        उद्देशिका/प्रस्तावना की उपयोगिता एक बिल की प्रस्तावना, उस दस्तावेज़ का एक परिचयात्मक हिस्सा होती है जो दस्तावेज़ के उद्देश्य, नियम, और उसके दर्शन को समझाती है। 
        एक प्रस्तावना, दस्तावेजों के सिद्धांतों और मूलभूत मूल्यों को उजागर करके दस्तावेजों का एक संक्षिप्त परिचय देती है। 
        यह दस्तावेज़ के अधिकार के स्रोत को दर्शाती है। भारत के संविधान की प्रस्तावना संविधान का एक प्रस्ताव है जिसमें देश के लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए नियमों और विनियमों के सेट शामिल हैं। इसमें नागरिकों के आदर्श को समझाया गया है।
          प्रस्तावना/उद्देशिका को संविधान की शुरुआत माना जा सकता है जो संविधान के आधार पर प्रकाश डालती है। 
         बेरुबरी यूनियन केस AIR 1960 SC 845 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि प्रस्तावना, संविधान का हिस्सा नहीं है, बल्कि इसे संविधान के प्रावधानों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत माना जाना चाहिए।
       हालाँकि, केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य AIR 1973 SC 1461 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने अपने पिछले फैसले (बेरुबरी) को बदल दिया और यह कहा कि प्रस्तावना, संविधान का हिस्सा है, जिसका अर्थ यह है कि इसे संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संशोधित किया जा सकता है। हालाँकि ऐसे संशोधन से संविधान का मूलभूत ढांचा बदला नहीं जा सकता है।
         उद्देशिका में मौजूद विभिन्न शब्द एवं उनके अर्थ भारत के संविधान की उद्देशिका में कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनके अर्थ को समझना हमारे लिए महत्वपूर्ण है। 
      यह शब्द न केवल भारत के संविधान के स्वाभाव को दर्शाते हैं बल्कि यह भी बताते हैं कि भारत, किस प्रकार के राष्ट्र के रूप में कार्य करेगा। लेख के इस भाग में हम उन कुछ शब्दों के बारे में बात करेंगे। 'हम, भारत के लोग' एवं 'प्रभुत्व-संपन्न': वाक्यांश "हम, भारत के लोग" इस बात पर जोर देता है कि यह संविधान, भारतीय लोगों द्वारा एवं उनके लिए निर्मित है और किसी भी बाहरी शक्ति द्वारा यह संविधान हमे नहीं सौंपा गया है। 
      हमारा संविधान, 'संप्रभुता' की अवधारणा पर भी जोर देता है जिसके बारे में महान पॉलिटिकल दार्शनिक एवं विचारक, रूसो द्वारा भी बात की गयी थी।
        'प्रभुत्व-संपन्न' होने का अर्थ, सभी शक्ति लोगों से निकलती है और भारत की राजनीतिक प्रणाली, लोगों के प्रति जवाबदेह और जिम्मेदार होगी। 
           सिंथेटिक एंड केमिकल्स लिमिटेड बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1989 SCR Supl. (1) 623 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह अभिनिर्णित किया था कि शब्द 'प्रभुत्व-संपन्न' का मतलब है कि राज्य के पास संविधान द्वारा दिए गए प्रतिबंधों के भीतर सब कुछ करने की स्वतंत्रता है। 
        यह मामला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें कहा गया कि कोई भी राष्ट्र का अपना संविधान तब तक नहीं हो सकता है जब तक कि वह संप्रभु न हो। 'समाजवादी': वर्ष 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा यह शब्द जोड़ा गया। "समाजवाद", एक ऐसे आर्थिक दर्शन के रूप में समझा जा सकता है जहां उत्पादन और वितरण के साधन राज्य के स्वामित्व में होते हैं। हालाँकि, भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया है, जहां राज्य के अलावा, निजी क्षेत्र के लोगों द्वारा उत्पादन का कार्य किया जा सकता है। 
      यह एक राजनीतिक-आर्थिक प्रणाली है जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान करती है। सामाजिक दर्शन (Socialist Philosophy) के रूप में समाजवाद, सामाजिक समानता (democratic Ssocialism) पर अधिक बल देता है। मिनर्वा मिल्स लिमिटेड एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य AIR 1980 SC 1789 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने "समाजवाद" को इस प्रकार समझा था कि राष्ट्र, संविधान में मौजूद मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निदेशक तत्त्व के सिद्धांतों के आपसी समन्वय के द्वारा अपने लोगों को सामाजिक-आर्थिक न्याय दिलाने का प्रयास करता है।
        वहीँ एयर इंडिया वैधानिक निगम बनाम यूनाइटेड लेबर यूनियन एवं अन्य 1997(1) LLJ 1113 (SC) के मामले में यह कहा गया था कि, संपत्ति संबंधों, कराधान, सार्वजनिक व्यय, शिक्षा और सामाजिक सेवाओं में परिवर्तन किया जाना, संविधान के तहत एक समाजवादी राज्य की अवधारणा को वास्तविकता में बदलने के लिए आवश्यक हैं। 
       'पंथनिरपेक्ष': उद्देशिका में पंथनिरपेक्षता की परिकल्पना जिस प्रकार से की गयी है उसका अर्थ है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा और सभी व्यक्ति समान रूप से अपने विवेक की स्वतंत्रता के हकदार होंगे और वे अपनी पसंद के धर्म को अपनाने, उसका अभ्यास करने और उसका प्रचार करने के लिए स्वतंत्र रूप से अधिकार प्राप्त करेंगे। एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ 1994 SCC (3) 1 के मामले में शीर्ष अदालत की 9-न्यायाधीश की पीठ ने पंथनिरपेक्षता की अवधारणा को संविधान की मूल विशेषता के रूप में अभिनिर्णित किया था। 
         लोकतांत्रिक (लोकतंत्रात्मक): यह इंगित करता है कि संविधान ने सरकार का एक ऐसा रूप स्थापित किया है जो लोगों की इच्छा से अपना अधिकार प्राप्त करती है। 
       सत्ता चलाने वाले शासक, लोगों द्वारा चुने जाते हैं और उनके प्रति जिम्मेदार होते हैं। गौरतलब है कि 'लोकतंत्रात्मक' एवं 'गणराज्य' शब्दों को अलग-अलग समझने के बजाये एक साथ समझा जाना चाहिए। जैसा कि आर. सी. पौड्याल एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य 1993 SCR (1) 891 के मामले में कहा गया है, हमारे संविधान में, लोकतंत्रात्मक-गणराज्य का अर्थ है, 'लोगों की शक्तियाँ।' इसका संबंध, लोगों द्वारा शक्ति के वास्तविक, सक्रिय और प्रभावी अभ्यास से है। 
       दरअसल लोकतंत्र, एक बहु-पक्षीय प्रणाली है, यह सरकार के प्रशासन को चलाने में लोगों की राजनीतिक भागीदारी को संदर्भित करता है। यह उन मामलों की स्थिति को बताता है जिसमें प्रत्येक नागरिक को राजव्यवस्था में समान भागीदारी के अधिकार का आश्वासन दिया गया है। 
        मोहन लाल त्रिपाठी बनाम डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट 1992 SCR (3) 338 के मामले में भीं यही कहा गया है। गणराज्य: एक राजतंत्र के विपरीत, जिसमें राज्य के प्रमुख को वंशानुगत आधार पर अपने जीवन भर के लिए सत्ता चलाने हेतु नियुक्त किया जाता है, एक लोकतंत्रात्मक गणराज्य एक ऐसी इकाई है, जिसमें राज्य का प्रमुख, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक निश्चित कार्यकाल के लिए निर्वाचित किया जाता है।
        भारत के राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक मंडल द्वारा 5 वर्षों के लिए किया जाता है। भारत के राष्ट्रपति का पद वंशानुगत नहीं है। भारत का प्रत्येक नागरिक देश का राष्ट्रपति बनने के योग्य है। भारत के संविधान की प्रस्तावना: कितनी ख़ास? अंत में, यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत के संविधान की उद्देशिका, अपने आप में मनोहर है क्योंकि यह कुछ हद तक अन्य देशों के संविधान की उद्देशिका से अलग है क्योंकि इसमें इश्वर, इतिहास या पहचान का कोई बोझ नहीं डाला गया है। इसके द्वारा भारत के लोगों से स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय का वादा किया गया है। ऐसा नहीं है कि इश्वर और इतिहास महत्वपूर्ण नहीं हैं, लेकिन हमारी उद्देशिका हमें यह स्वतंत्रता देती है कि हम अपने कृत्यों, अपनी आस्था, अपने विचारों इत्यादि के सम्बन्ध में उचित चुनाव कर सकते हैं। संविधान की उद्देशिका हमे यह भी बताती है कि एक राष्ट्र की एकता, केवल समूहों की एकजुटता भर नहीं है। यह बताती है कि एक वास्तविक एकता तभी संभव है जब प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा का आश्वासन दिया जाए। 
       उद्देशिका यह बताती है कि यदि व्यक्तिगत गरिमा का सम्मान किया जायेगा तो राष्ट्र को डरने की कोई जरुरत नहीं है। इसलिए संविधान की उद्देशिका, लिबर्टी का एक चार्टर है। इसकी मूलभूत संरचना प्रगतिशील है जो इसे सबसे अलग बनाती है।

Wednesday, January 22, 2020

CRPC की धारा394 जेल एवं आर्थिक जुर्माना अभियुक्त की मौत के बाद समाप्त नहीं हो जाती

 सीआरपीसी की धारा 394 : जेल एवं आर्थिक जुर्माने की एक साथ सजा के खिलाफ दायर अपील अभियुक्त की मौत के बाद समाप्त नहीं हो जाती : सुप्रीम कोर्ट 

22 Jan 2020 12:23 PM

        सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जेल और आर्थिक जुर्माने की मिश्रित सजा के खिलाफ अपील लंबित होने के दौरान यदि अभियुक्त-अपीलकर्ता की मौत हो जाती है तो अपील समाप्त नहीं हो जाती। इस मामले में आरोपी को अबकारी अधिनियम की धारा 55(ए)(जी) के तहत दोषी ठहराया गया था और उसे दो साल जेल की सजा सुनायी गयी थी तथा एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया था। अपील लंबित होने के दौरान हाईकोर्ट ने अपीलकर्ता की मौत के तथ्य पर गौर किया, हालांकि इसने दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 394 के सिद्धांत का हवाला देते हुए अपील की स्वीकार्यता के निर्धारण का फैसला लिया था। हाईकोर्ट ने रिकॉर्ड में लाये गये साक्ष्यों पर विचार करते हुए अपीलकर्ता की दोषसिद्धि बरकरार रखी थी। हाईकोर्ट ने कहा कि चूंकि अपील लंबित होने के दौरान ही अपीलकर्ता की मौत हो गयी, इसलिए जेल की सजा अव्यावहारिक हो गयी है, लेकिन जहां तक जुर्माना की बात है तो निचली अदालत के फैसले को गलत ठहराने का उसे कोई कारण नजर नहीं आता। इसके साथ ही अपील खारिज कर दी गयी। अभियुक्त के कानूनी वारिस ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। अपील में यह दलील दी गयी थी कि यदि जेल और आर्थिक जुर्माने की सजा एक साथ थी तो अभियुक्त की मौत के बाद दोनों को समाप्त किया जाना चाहिए था। न्यायमूर्ति अशोक भूषण एवं न्यायमूर्ति एम आर शाह की पीठ ने 1898 की संहिता की धारा 431 के परिप्रेक्ष्य में सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व के फैसले का हवाला देते हुए कहा : उपरोक्त फैसले में स्पष्ट किया गया है कि भले ही धारा 431 के तहत जेल की सजा के साथ आर्थिक जुर्माना लगाया गया हो, लेकिन यह अपील निरस्त नहीं होगी। धारा 431 में वर्णित 'जुर्माने की सजा से संबंधित अपील के अलावा' जैसी अभिव्यक्ति का इस्तेमाल सीआरपीसी की धारा 394 में भी किया गया है। इस प्रकार, जेल की सजा के साथ-साथ आर्थिक जुर्माना वाले मौजूदा मामले में दायर अपील को जुर्माना के खिलाफ अपील के तौर पर देखा जाना चाहिए था और हाईकोर्ट ने अपील की स्वीकार्यता के निर्धारण में कोई गलती नहीं की है। पीठ ने, हालांकि अपील को यह कहते हुए आंशिक रूप से मंजूर कर लिया कि हाईकोर्ट को आरोपी के कानूनी वारिस को जुर्माने के खिलाफ अपनी बात कहने का एक मौका अवश्य देना चाहिए था। यह जुर्माना आरोपी के कानूनी वारिसों की सम्पत्तियों से वसूला जा सकता था। मुकदमे का ब्योरा :- केस का नाम : रमेशन (मृत) कानूनी प्रतिनिधि गिरिजा के माध्यम से/ बनाम केरल सरकार केस नं. – क्रिमिनल अपील सं. 77/2020 कोरम : न्यायमूर्ति अशोक भूषण एवं न्यायमूर्ति एम आर शाह 

केरल हाईकोर्ट में एडवोकेट कमिश्नर को ह्वाट्सअप /ई मेल पर नोट्स देने की अनुमति दी

केरल हाईकोर्ट ने एडवोकेट कमिश्नर को व्हाट्सएप/ईमेल पर नोटिस देने की अनुमति दी 

 22 Jan 2020 3:50 

       एक उल्लेखनीय घटनाक्रम में केरल हाईकोर्ट ने एडवोकेट कमिश्नर को व्हाट्सएप / ई-मेल के माध्यम से संबंधित पक्षकारों को नोटिस देने की अनुमति दी है। यह आदेश मेडिकल कॉलेज के छात्रावास में कथित रूप से खराब रहने की स्थिति से संबंधित मामले की सुनवाई के दौरान दिया गया। राज्य के मामलों में एक स्टेटस रिपोर्ट के लिए न्यायमूर्ति एस वी भट्टी ने एक एडवोकेट कमिश्नर नियुक्त किया। एडवोकेट कमिश्नर को आदेश प्राप्त होने की तिथि से 12 घंटे के भीतर छात्रावास का निरीक्षण करने के लिए कहा गया था। कमिश्नर को फैक्स, ईमेल / व्हाट्सएप द्वारा मेडिकल कॉलेज को नोटिस भेजने के लिए भी कहा गया, जो निरीक्षण करने से पहले व्यावहारिक है। कोर्ट ने व्हाट्सएप / ईमेल को सम्मन की सेवा के वैध तरीकों के रूप में मान्यता देना शुरू कर दिया है। हाल के कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं। 

(i) क्रॉस टेलीविजन इंडिया प्रा. लिमिटेड और अन्य बनाम विक्रांत चित्र प्रोडक्शंस और अन्य जहां बॉम्बे हाईकोर्ट ने नोटिस की सेवा व्हाट्सएप के माध्यम से देने का निर्देश दिया।

 (ii) एसबीआई कार्ड्स एंड पेमेंट सर्विसेज प्रा. लिमिटेड जहां बॉम्बे हाईकोर्ट ने स्वीकार कियाकि पीडीएफ फॉर्मेट में नोटिस जो व्हाट्सएप के माध्यम से दिया गया है, वैध है। 

(iii) मीना प्रिंट्स प्रा. लिमिटेड बनाम वाहिनी एंटरप्राइजेज और अन्य। जहां बॉम्बे हाईकोर्ट ने व्हाट्सएप / ईमेल के माध्यम से आदेश की एक प्रति देने का निर्देश दिया। 

(iv) जोतिंद्र स्टील एंड ट्यूब्स लिमिटेड बनाम एम.वी. खलीजा और अन्य। यहां भी बॉम्बे हाईकोर्ट ने आदेश की एक प्रति ईमेल या व्हाट्सएप द्वारा देने का निर्देश दिया। 

(v) मोनिका रानी और अन्य बनाम हरियाणा और अन्य राज्य में पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने 'व्हाट्सएप संदेश' के माध्यम से एफडीआर की प्रति भेजने का निर्देश दिया। 

(vi) डॉक्टर माधव विश्वनाथ बनाम एम / एस। बेंडले ब्रदर्स में बॉम्बे हाईकोर्ट ने समन की प्रतिस्थापित सेवा के लिए ईमेल / व्हाट्सएप पर विचार करने के लिए कहा। 

क्या सांसद/विधायक वकालात कर सकते हैं क्या?

क्या सांसद/विधायक वकालत कर सकते हैं, जानिए अधिवक्ता अधिनियम और सुप्रीम कोर्ट का विचार 

 22 Jan 2020 9:27 
          वकालत पेशे से जुड़ा हर व्यक्ति यह मानता और महसूस करता है कि वकील, मुखर प्रकृति के होते हैं और वे अपनी तार्किक सोच के लिए दुनियाभर में जाने जाते हैं। कानून की शिक्षा ग्रहण करने के पश्च्यात, उन्हें कानून को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है। अंतत: देश को कानून के शासन के अनुसार ही चलना होता है। यही कारण है कि हमारे संसद में और विभिन्न राज्यों के विधायी सदनों में हमे तमाम कानून के जानकार एवं वकील, सदस्य के रूप में दिखाई पड़ते हैं। जैसा कि हम जानते हैं, कानून बनाना विधायिका का कार्य है और इसमें वकीलों का सीधे तौर पर तो कोई हस्तक्षेप नहीं होता है, लेकिन हाँ, यदि हम संसद/विधानसभाओं/विधानपरिषदों में मौजूद तमाम सदस्यों को देखें तो हम यह पाएंगे कि उनमे से कई सदस्यगण या तो वकालत कर चुके हुए होते हैं या उन्होंने कानून की शिक्षा ले रखी होती है।
          आजादी से लेकर अबतक, संसद और प्रत्येक राज्य के विधायी सदनों के सदस्यों के शैक्षिक एवं उनके पेशे को देखकर यह बात साबित भी की जा सकती है। हम यह भी जानते हैं कि जब भी कोई कानून, विधायिका द्वारा बनाया जाता है, तो उससे पहले जब उसकी ड्राफ्टिंग होती है या उसपर आंतरिक चर्चा होती है तो उसमे भी कानून के जानकर/वकीलों द्वारा (या सदन के सदस्यों के रूप में, कमिटी सदस्य के रूप में या अन्यथा) एक अहम् भूमिका निभाई जाती है एवं उनकी भी राय ली जाती है जिससे वह कानून बेहतर से बेहतर हो सके। यहाँ यह सवाल अवश्य उठता है कि जब कानून बनाने की प्रक्रिया एवं उसे पारित करने में वकालत पेशे से जुड़े व्यक्तियों की भी एक अहम् भूमिका होती है तो क्या हमारे संसद एवं विधानसभा/विधानपरिषद् सदस्यों को, किसी सदन का हिस्सा होते हुए वकालत करने की अनुमति दी जानी चाहिए? 
      यह सवाल इसलिए बेहद अहम् है क्योंकि जहाँ एक ओर जनप्रतिनिधि होने के नाते एक व्यक्ति को सरकारी फण्ड से वेतन/भत्ता प्राप्त होता है और उसका ज्यादातर समय जनप्रतिनिधि के तौर पर कार्य करते हुए बीतता है, वहीँ दूसरी ओर अधिवक्ता अधिनियम, 1961, एक वकील से यह अपेक्षा रखता है कि वह इस पेशे के प्रति पूर्णकालिक संलग्नता बनाये रखे और जब वो कहीं और से वेतन प्राप्त कर रहा हो तो वह वकील के तौर पर अदालत में प्रैक्टिस न करे। इस लेख में हम इसी विषय पर चर्चा करेंगे और जानेंगे कि क्या एक सांसद या विधायक को वकालत करने की अनुमति है। वकालत पेशा: एक पूर्णकालिक गतिविधि?
       जैसा कि हम अनुभव करते हैं, वकालत का पेशा एक पूर्णकालिक गतिविधि है। यह जगजाहिर है कि एक वकील को हर अगले दिन, अदालत में बहस के लिए अपने मामलों को तैयार करने के लिए हर रोज काफी मेहनत करनी पड़ती है। जब वकील अदालतों में अपने मुवक्किल के लिए पेश होते हैं तो यह प्रतिदिन किसी परीक्षा से गुजरने जैसा होता है। अदालत में घंटों की मेहनत के बाद वकीलों को अपने या अपने सीनियर के चैंबर में भी कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। वकील को अपने क्लाइंट की दिक्कतों/समस्याओं को सुनना और सुलझाना होता है, उसकी काउन्सलिंग करनी पड़ती है और नए मुवक्किलों की परामर्श के लिए भी स्वयं उपलब्ध होना पड़ता है। 
     एक वकील के रूप में अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन को जारी रखने एवं अपने क्लाइंट के हितों को सर्वोपरि रखने के लिए वकीलों को अपने पेशे पर पूरा ध्यान और समय देने की आवश्यकता होती है। अपने कानूनी पेशे के अलावा अन्य महवपूर्ण चीज़ों पर ध्यान देने से निश्चित रूप से एक वकील की पेशेवर क्षमता और विशेषज्ञता पर प्रभाव पड़ता है।
         बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया रूल्स क्या कहता है? यह निर्विवाद है कि बार काउंसिल ऑफ इंडिया को अधिवक्ताओं के नामांकन और अधिवक्ताओं के पेशेवर आचरण के सम्बन्ध में नियमों और शर्तों को विनियमित करने का कार्य और कर्तव्य दिया गया है। गौरतलब है कि वकीलों के लिए वकील के तौर पर बने रहने के लिए जिन शर्तों/प्रतिबंधों को लागू किया जाना है, वे उचित होने चाहिए। 
       जैसा कि हम जानते हैं, भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के अनुसार भी, किसी भी व्यक्ति को किसी भी पेशे को अपनाने के लिए दिया गया अधिकार, अपने आप में एक पूर्ण अधिकार नहीं होता है और इस अधिकार के उपयोग पर उचित प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। हालाँकि यह जरुरी है कि यह प्रतिबंध, स्पष्ट रूप से या तो अधिवक्ता अधिनियम, 1961 या उसके अंतर्गत बनाए गए नियमों के तहत होने चाहिए (एवं ये अनुचित नहीं होने चाहिए)। उक्त अधिनियम का अध्याय IV, एक व्यक्ति के एक वकील के रूप में प्रैक्टिस करने के अधिकार से संबंधित है। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 49, उप-धारा (1) (ए) से (जे) में निर्दिष्ट मामलों के तहत अपने कार्यों के निर्वहन के लिए नियम बनाने के लिए बार काउंसिल ऑफ इंडिया को अधिकार देती है। 
        बार काउंसिल, पहले ही उक्त अधिनियम की धारा 16 (3) और 49 (1) (जी) के तहत अपनी शक्तियों के प्रयोग में, वकीलों द्वारा अन्य व्यवसाय/पेशे को अपनाने पर प्रतिबंध के बारे में नियम तैयार कर चुकी है। उक्त नियमों के भाग VI में सेक्शन VII, हमारे आज के लेख के विषय से संबंधित है, जिसका नियम 49 यह कहता है कि, कोई एडवोकेट, अगर वह प्रैक्टिस कर रहा है, तो उसको उस दौरान किसी लाभ के पद (वेतन प्राप्त होने वाली नौकरी) पर आसीन नहीं होना चाहिए। रूल 49 - एक अधिवक्ता किसी भी व्यक्ति, सरकार, फर्म, निगम या कंसर्न का पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी नहीं होगा, इसलिए जब तक वह इस तरह के किसी भी रोजगार को जारी रखता है, और इस तरह के रोजगार लेने पर, वह व्यक्ति/अधिवक्ता उस बार काउंसिल को यह तथ्य बताएगा जिसके रोल के अंतर्गत उसका नाम मौजूद है और वह अधिवक्ता के रूप में अभ्यास करना तबतक बंद कर देगा, जब तक कि वह ऐसे रोजगार में रहना जारी रखता है। 
      दरअसल यह नियम, वकालत पेशे के प्रति वकीलों का सम्पूर्ण ध्यान एवं समर्पण सुनिश्चित करने और अपना सर्वश्रेष्ठ देने के लिए लागू किया गया है, ताकि वकील, अदालत के एक अधिकारी के रूप में अपनी भूमिका को असल मायनों में पूरा कर सकें और न्याय के प्रशासन में अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दे सकें। और इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता है कि यह नियम, किसी भी तरह से मनमाना है या यह वकीलों पर अनुचित प्रतिबंध लगाता है। 
        डॉक्टर हनिराज एल. चुलानी बनाम बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र और गोवा 1996 SCC (3) 342 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह माना था कि एक व्यक्ति, जो एक वकील होने के योग्य है, उसे वकील के रूप में प्रैक्टिस करने की इजाजत उन मामलों में नहीं दी जा सकती जहाँ वह पूर्णकालिक या अंशकालिक सेवा या रोजगार में है। 
       हालांकि, बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया रूल्स का नियम 49 वहां लागू होता है, जहां एक वकील, किसी भी व्यक्ति, सरकार, फर्म, निगम या कंसर्न का पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी होता है।
         स्पष्ट रूप से, विधायकों या सांसदों को पूर्ण वेतनभोगी कर्मचारियों की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। हम इस बात को लेख में आगे समझेंगे। सांसदों एवं विधायकों के कार्य की प्रकृति सांसदों और विधायकों का कार्य अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण होता है; वे संसद और विधानसभाओं/विधानपरिषदों के पूर्णकालिक होते सदस्य हैं। उन्हें सदन की कार्यवाही में भाग लेना होता है, अपने निर्वाचन क्षेत्रों के लोगों से मिलना होता है, और लोगों के मुद्दों से जूझना पड़ता है। उनके काम को सुविधाजनक बनाने के लिए, उन्हें एक बंगला और एक कार, एक कार्यालय और वेतन भी दिया जाता है जिससे वे अपना कार्य बेहद सुचारू ढंग से कर सकें। जैसा कि हमने जाना, बार काउंसिल ऑफ इंडिया के नियम 49 में यह कहा गया है कि कोई भी पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी, चाहे वह निगम का हो, निजी फर्म का हो या सरकार का हो, कानून की अदालत के समक्ष वकील के रूप में प्रैक्टिस नहीं कर सकता है। 
        कोई भी लोक सेवक, किसी अन्य पेशे/व्यवसाय में संलग्न नहीं हो सकता है और निश्चित रूप से वह लोक सेवा में रहते हुए वकील के रूप में अपनी सेवाएं नहीं दे सकता है। 
        एम. करुणानिधि बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1979) 3 SCC 431 के मामले में 5 न्यायाधीशों वाली बेंच ने यह स्पष्ट रूप से कहा था कि सांसद और विधायक, जनता के सेवक हैं (हालांकि नियोक्ता-कर्मचारी संबंध उनके लिए लागू नहीं होंगे)।.    
         दरअसल श्री करुणानिधि ने उनके ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोप से सम्बंधित इस मामले में यह तर्क दिया था कि वह एक लोक सेवक नहीं थे। सांसदों/विधायकों/एमएलसी की स्थिति, सदन (संसद/राज्य विधायी सदन) के सदस्य की होती है। सिर्फ यह तथ्य कि वे The Salary, Allowances and Pension of Members of Parliament Act, 1954 के तहत या उक्त अधिनियम के तहत बनाए गए संबंधित नियमों के तहत, अलग-अलग भत्तों के तहत वेतन प्राप्त करते हैं, यह नहीं कहा जा सकता कि सरकार और विधायकों/सांसदों के बीच नियोक्ता और कर्मचारी (Employer-Employee) के संबंध का निर्माण हो जाता है।
 भले ही उनके द्वारा प्राप्त भुगतान को वेतन का नाम दिया जाता हो। वास्तव में, विधायकों/सांसदों को लोक सेवक माना जाता है, लेकिन उनकी स्थिति सुई जेनेरिस है और निश्चित रूप से वे किसी भी व्यक्ति, सरकार, फर्म, निगम या इस तरह के कंसर्न के पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी में से एक नहीं बन जाते है (इसलिए बार काउंसिल रूल्स का रूल 49 उनपर लागू नहीं हो सकता है)। 
         इसके अलावा सदन के अध्यक्ष द्वारा विधायकों/सांसदों के खिलाफ अनुशासनात्मक या विशेषाधिकार कार्रवाई शुरू की जा सकती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारियों के रूप में माना जा सकता है। क्या विधायक एवं सांसद को वकालत करने की है अनुमति? हालाँकि, इस सवाल का जवाब शायद आपको अबतक मिल गया होगा, लेकिन फिर भी यदि एक वाक्य में कहना हो तो हम यह कह सकते हैं कि सांसदों एवं विधायकों को वकालत करने से रोकने के सम्बन्ध में कोई भी नियम मौजूद नहीं है। अर्थात, वे बिना रोक-टोक वकालत कर सकते हैं। इसके अलावा वर्ष 2018 में अश्विनी उपाध्याय बनाम भारत संघ [WRIT PETITION (CIVIL) NO।95 OF 2018] के मामले में अदालत ने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अंतर्गत ऐसा कोई सीधा प्रावधान/नियम नहीं है जो यह सुझाव दे सके कि चुने गए जनप्रतिनिधियों, सांसदों/विधायकों/ एमएलसी पर एक वकील बने रहने के सम्बन्ध में कोई प्रतिबंध लगाया गया है।
         अदालत ने यह भी कहा कि जब ऐसा कोई नियम/प्रावधान अधिनियम में मौजूद नहीं है तो न्यायालय द्वारा, जनप्रतिनिधियों को उस समय के दौरान जब वे सांसद/विधायक/एमएलसी हैं, अदालत में वकील के रूप में प्रैक्टिस करने से वंचित नहीं किया जा सकता है। जैसा कि डॉ. हनिराज एल चुलानी के मामले में अदालत द्वारा कहा गया है, यह बार काउंसिल ऑफ इंडिया का कर्त्तव्य है कि वे अपनी नियमावली के अंतर्गत उचित प्रतिबंधों को जगह दें। आज तक, चुने हुए जनप्रतिनिधियों पर वकालते प्रैक्टिस करने पर प्रतिबंधित लगाने के लिए कोई नियम नहीं बनाया गया है, इसलिए उनपर अदालत में वकील के रूप में प्रैक्टिस करने पर कोई रोक नहीं है। यह हम यह भी कह सकते हैं कि हमारी संसद एवं राज्यों के विधायी सदन, विभिन्न प्रतिभाओं, विभिन्न अनुभवों और विभिन्न व्यावसायिक कौशल द्वारा समृद्ध होने के हकदार हैं।

Tuesday, January 21, 2020

कोई भी धर्म पूजा के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देता


कोई भी धर्म पूजा के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देताः इलाहाबाद हाईकोर्ट ने म‌स्जिदों में लाउस्पीकर्स लगाने की इजाजत देने से किया इनकार

21 Jan 2020 4:30 AM


     कोई भी धर्म पूजा के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देताः इलाहाबाद हाईकोर्ट ने म‌स्जिदों में लाउस्पीकर्स लगाने की इजाजत देने से किया इनकार
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कोई भी धर्म पूजा के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देता। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह कहते हुए दो मस्जिदों की अजान के लिए लाउडस्पीकर लगाने की अनुमति की मांग को खार‌िज कर दिया है।

जस्ट‌िस पंकज मिठल और जस्टिस विपिन चंद्र दीक्षित ने अपने आदेश में कहा, "कोई भी धर्म ये आदेश या उपदेश नहीं देता है कि ध्वनि विस्तारक यंत्रों के जर‌िए प्रार्थना की जाए या प्रार्थना के लिए ड्रम बजाए जाएं और यदि ऐसी कोई परंपरा है, तो उससे दूसरों के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए, न किसी को परेशान किया जाना चा‌हिए।"

मामले में चर्च ऑफ गॉड (फुल गोस्पेल) इन इंडिया बनाम केकेआर मैजेस्टिक कॉलोनी वेलफेयर एसोसिएशन एंड ऑर्म्स, 2000 (7) एससीसी 282 के फैसले पर भरोसा किया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत प्रदत्त अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन हैं।

ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) नियम, 2000 के नियम 5 के तहत संबंधित प्राध‌िकरण की अनुमति के बिना सार्वजनिक स्‍थलों पर लाउडस्पीकर / पब्लिक एड्रेस सिस्टम/ ध्वनि उत्पादक यंत्र/ उपकरण या एम्पलीफायर का उपयोग नहीं किया जा सकता है। मामले में याचिकाकर्ताओं ने धार्मिक स्थलों पर एम्पलीफायरों और लाउडस्पीकरों के लाइसेंस का नवीनीकरण और इस्तेमाल की अनुमति मांगी थी।

याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि यह उनकी धार्मिक परंपरा का एक अनिवार्य हिस्सा है और बढ़ती आबादी के मद्देनजर एम्पलीफायरों और लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल कर लोगों को प्रार्थना के लिए बुलाना आवश्यक हो गया है।

हाईकोर्ट ने उक्त दलील को खारिज करते हुए कहा कि-

"यह सच है कि जैसा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 (1)के तहत गारंटीकृत है कि कोई भी व्यक्ति अपने धर्म का पालन, प्रचार और प्रसार कर सकता है, हालांकि उक्त अधिकार निरपेक्ष अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 25 के तहत प्रदत्त अधिकार व्यापक स्तर पर अनुच्छेद 19 1) (ए) के अधीन है और इस तरह दोनों को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए और सामंजस्यपूर्ण ढंग से लागू किया जाना चाहिए।"

मामले में आचार्य महाराजश्री नरंद्रप्रसादजी आनंदप्रसादजी महाराज बनाम गुजरात राज्य, 1975 (1) एससीसी 11 के फैसले पर भरोसा किया गया।

कोर्ट ने कहा कि मामले में शामिल मस्जिदें, जिस क्षेत्र में हैं, वो हिंदू और मुसलमानों की मिश्रित आबादी का इलाका है, और अतीत में इस मसले पर हुए विवादों ने गंभीर रूप ले चुके हैं। इसलिए अगर किसी भी पक्ष को साउंड एम्पलीफायरों का उपयोग करने की अनुमति दी जाती है तो दो समूहों के बीच तनाव बढ़ने की आशंका होगी।

कोर्ट ने कहा कि अधिकारियों ने लाउडस्पीकरों के उपयोग की अनुमति न देकर ठीक ही किया, विशेष रूप से उस इलाके में जहां दो धार्मिक समूहों के बीच दुश्मनी पैदा होने की संभावना थी, जिससे कानून और व्यवस्था की स्थिति पैदा हो सकती थी।

कोर्ट ने कहा कि "किसी भी क्षेत्र में कानून और व्यवस्था की स्थिति बनाए रखने की जिम्मेदारी के साथ प्रशासनिक अधिकारियों की होती है और वो अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए बाध्य होते हैं और उन्हें ये सुनिश्चित करना होता है कि क्षेत्र की शांति और व्यवस्‍था भंग न हो और अगर किसी घटना के संबंध में कोई तनाव या विवाद हो तो उस पर सुलह और समझौता किया जा सकता है। इस प्रकार, उन पर तनाव कम करने और यह सुनिश्चित करने के जिम्‍मेदारी होती है कि क्षेत्र में शांति बनी रहे।"

अदालत ने ध्वनि प्रदूषण और इससे सार्वजनिक स्वास्थ्य और शांति होने वाले नुकसान पर कहा-

"... भारत में लोगों को इस बात का एहसास नहीं है कि शोर अपने आप में एक प्रकार का प्रदूषण है। वे स्वास्थ्य पर इसके बुरे प्रभावों को लेकर पूरी तरह से सचेत भी नहीं हैं। हालांकि हाल के दिनों में इसके बारे में कुछ चिंता दिखाई दी है। "

कोर्ट ने कहा कि, दूसरी ओर, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, विशेष रूप से अमेरिका, इंग्लैंड और ऐसे अन्य देशों में, लोग ध्वनि प्रदूषण को लेकर काफी सचेत हैं और वे अपनी कारों के हॉर्न भी नहीं बजाते हैं और हॉन्‍किंग को बुरा व्यवहार माना जाता है, क्योंकि इससे न केवल दूसरों को असुविधा होती है बल्कि पर्यावरण को भी नुकसान होता है।

ध्‍वनि प्रदूषण (V), IN RE, 2005 (8) SCC 796 के नियमों में कहा गया है और जहां सुप्रीम कोर्ट ने राय दी है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत अभिव्यक्ति की आजादी आजादी किसी भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, हालांकि ये निरपेक्ष नहीं है। कोई भी व्यक्ति अपनी आवाज़ को बढ़ाने के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल को अपना मौलिक अधिकार बताने का दावा नहीं कर सकता क्योंकि प्रत्येक नागरिक को अपने घर में आराम और शांति से रहने का मौलिक अधिकार है।

"सार्वभौमिक रूप से स्वीकार्य हो चुका है कि शोर मनुष्य के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभावित डालता है। शोर बहरेपन, उच्च रक्तचाप, अवसाद, थकान और झुंझलाहट का कारण हो सकता है। अत्यधिक शोर से हृदय संबंधी बीमारियों, न्यूरोसिस और नर्वस ब्रेकडाउन जैसी ब‌ीमारियां हो सकती हैं।

हाईकोर्ट ने कहा, हमारा स्पष्ट मत है कि कोर्ट को अपने असाधारण क्षेत्राधिकार को प्रयोग करते हुए इस मामले में किसी तरह के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है, ऐसा करने से सामाजिक असंतुलन पैदा हो सकता है, ।

उल्‍लेखनीय है कि पिछले साल इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्य में डीजे के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था |

Monday, January 20, 2020

सबूत का भार जानिये


क्या होता है सबूत का भार? जानिए साक्ष्य अधिनियम की खास बातें

19 Jan 2020 

      साक्ष्य विधि का कार्य उन नियमों का प्रतिपादन करना है, जिनके द्वारा न्यायालय के समक्ष तथ्य साबित और खारिज किए जाते हैं। किसी तथ्य को साबित करने के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जा सकती है, उसके नियम साक्ष्य विधि द्वारा तय किये जाते हैं। साक्ष्य विधि अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण विधि है।

         समस्त भारत की न्याय प्रक्रिया भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की बुनियाद पर टिकी हुई है। साक्ष्य अधिनियम आपराधिक तथा सिविल दोनों प्रकार की विधियों में निर्णायक भूमिका निभाता है। इस साक्ष्य अधिनियम के माध्यम से ही यह तय किया जाता है कि सबूत को स्वीकार किया जाएगा या नहीं किया जाएगा।

         अधिनियम को बनाने का उद्देश्य साक्ष्यों के संबंध में सहिंताबद्ध विधि का निर्माण करना है, जिसके माध्यम से मूल विधि के सिद्धांतों तक पहुंचा जा सके। इस साक्ष्य अधिनियम के माध्यम से ही जो इतने सारे अधिनियम बनाए गए हैं, उनके लक्ष्य तक पहुंचा जाता है।

         कोई भी कार्यवाही या अभियोजन चलाया जाता है, अभियोजन पूर्ण रूप से इस अधिनियम पर ही आधारित होता है। बिना साक्ष्य अधिनियम के अभियोजन चलाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है तथा किसी भी सिविल राइट को बरकरार नहीं रखा जा सकता है। साक्ष्य अधिनियम 1872 अपने निर्माण से आज तक सबसे कम संशोधित किया गया है।

          साक्ष्य अधिनियम 1872 की प्रस्तावना से यह स्पष्ट है कि यह अधिनियम विशाल है, क्योंकि यह साक्ष्य विधि की कल्पना की परिभाषा देता है, समेकित करता है तथा संशोधन करता है।

साक्ष्य विधि में 'सबूत का भार' सिद्धांत

        साक्ष्य विधि में 'सबूत का भार' सिद्धांत का अत्यंत महत्व है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम में भी सबूत के भार का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। यह कहा जा सकता है कि सबूत का भार सिद्धांत साक्ष्य अधिनियम के मूल सिद्धांतों में से एक है तथा यह सिद्धांत साक्ष्य विधियों का मूलभूत सिद्धांत है।

        सबूत का भार सिद्धांत की परिभाषा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 101 में दी गई है। इस परिभाषा के अंतर्गत यह बताया गया है कि सबूत का भार किस व्यक्ति पर होगा। इस परिभाषा के अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य को साबित करने के लिए आबद्ध है, तब यह कहा जाता है कि उस व्यक्ति पर सबूत का भार है।

       जब किसी तथ्य को साबित करने के लिए सबूतों को लाने की आवश्यकता होती है। सबूतों को लाने का दायित्व भी किसी व्यक्ति पर बनता है। किसी वाद या कार्यवाही के भीतर सबूतों का भार किस व्यक्ति पर होगा। तथ्य को कौन व्यक्ति साबित करेगा तथा कौन सबूत पेश करेगा यह तय करना सबूत का भार सिद्धांत के अंतर्गत किया जाता है। प्रत्येक पक्षकार को ऐसे तथ्य स्थापित करने होते हैं जो उसके पक्ष में हो तो दूसरे पक्षकारों के विपक्ष में हो

साक्ष्य अधिनियम की धारा 101 के अंतर्गत

       "जो कोई न्यायालय से यह चाहता है कि वह ऐसे किसी विधिक अधिकार या दायित्व के बारे में निर्णय दे, जो तथ्यों के अस्तित्व पर निर्भर है, जिन्हें वह प्राख्यान करता है,उसे साबित करना होगा कि उन तथ्यों का अस्तित्व है। जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य का अस्तित्व साबित करने के लिए आबद्ध है तब यह कहा जाता है कि उस व्यक्ति पर सबूत का भार है।"

       धारा का यह सिद्धांत यह है कि जो पक्षकार किसी तथ्य के अस्तित्व के बारे में न्यायालय का समाधान करवाना चाहता है और उसके के आधार पर निर्णय चाहता है, ऐसे तथ्य को साबित करने का भार उसी पर होगा।

        अगर कोई व्यक्ति कोई संपत्ति इस आधार पर काबिज से प्राप्त करना चाहता है कि वह संपत्ति का मालिक है तो उसे ही अस्तित्व साबित करना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति न्यायालय में किसी व्यक्ति को किसी अपराध में सजा दिलवाना चाहे तो अभियोजन चलाने वालों को सिद्ध करना होगा कि वह व्यक्ति अपराध का दोषी है।

        एक प्रकार से सिद्धांत को इस प्रकार समझा जा सकता है कि जो व्यक्ति आरोप लगाता है, उसी व्यक्ति के ऊपर सबूत का भार आता है, अर्थात सबूत की जिम्मेदारी आरोप लगाने वाले व्यक्ति पर ही आती है।

सबूत के भार और साबित करने का भार

        सबूत के भार तथा साबित करने के भार की तुलना करते हुए गुजरात उच्च न्यायालय ने कहा है कि इनमें एक आवश्यक भेद है। सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जिसे कोई तथ्य साबित करना होता है और यह कभी बदलता नहीं है, परंतु साबित करने का भार का स्थान बदलता रहता है।साक्ष्य के मूल्यांकन में इस का भार लगातार बदलता रहता है।

        किसी भी वाद तथा कार्यवाही में साबित करने का भार निरंतर बदलता रहता है। यह भार कभी किस पक्षकार पर कभी किस पक्षकार निरंतर अपना स्थान बदलता है।

सबूत का भार किस पक्षकार पर होता है

        यह धारा यह ध्यान आकर्षित करती है कि-अगर किसी भी ओर से साक्ष्य ना दिया जाए तो जिस पक्षकार की बात विफल हो जाएगी उसी पर साबित करने का भार होता है। अगर क ने ख पर उधार धन वसूली और मध्यवर्ती लाभ के लिए कोई वाद दायर किया है तो अगर कोई भी पक्षकार साक्ष्य ना दे पाए तो क का दवा विफल हो जाए, इसलिए क पर साबित करने का भार है।

        साक्ष्य अधिनियम की धारा 102 के अंतर्गत सबूत का भार किस पर होगा यह प्रावधान किया गया है। यह धारा कहती है कि

         "किसी वाद या कार्यवाही में सबूत का भार उस व्यक्ति पर होगा जो असफल हो जाएगा यदि दोनों में से किसी भी ओर से कोई भी साक्ष्य न दिया जाएं।"
         इस सिद्धान्त से संबंधित महत्वपूर्ण वाद हुआ है, जिसे के ऐम नानावती बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्रए का मामला कहा जाता है। इस मामले में बीवी के प्रेमी की गोली मारकर उसके पति द्वारा हत्या की गई थी। महिला का पति नेवल ऑफिसर था। उसकी बीवी ने जारकर्म की संस्वीकृति की थी उसने बताया था कि उसका प्रेमी उसके घर आया तथा वह दोनों पति द्वारा रंगे हाथों पकड़े गए थे।

         पति ने अपनी रिवाल्वर निकाली तथा गोली अचानक चल गई। गोली चलने से प्रेमी आहूजा की मौके पर मृत्यु हो गई। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह दर्शाने का भार अभियुक्त पर था कि उनका संघर्ष हुआ, कि गोली या तो अचानक चल गई या आत्मरक्षा में चलाई गई। उसे दोषी पाया गया क्योंकि ऐसी कोई बात साबित नहीं कर पाया था।

        मेवा देवी बनाम रामप्रकाश के मामले में एक मोटर द्वारा दो व्यक्तियों को कुचल दिया गया था। मोटर के मालिक का यह कहना था कि स्ट्रिंग तथा ब्रेक के फेल हो जाने के कारण दुर्घटना हुई थी। न्यायालय ने कहा कि उसे ही यह साबित करना होगा और यह भी कि उसने गाड़ी सड़क के योग्य बचाए रखने के लिए उचित सावधानी बरती थी।  यहां पर इस प्रकरण के द्वारा न्यायलय ने स्पष्ट बताया है की यदि व्यक्ति अपवाद के सहारे बचना चाहता है तो उसको अपवाद को सिद्ध करने का भार उसी व्यक्ति पर होगा जो अपवाद के माध्यम से लाभ लेना चाहता है। यदि मोटर ब्रेक फेल होने का कारण लोगों पर चढ़ी थी और इसी के कारण लोगों की जान गई तो साबित करने का भार मोटर मालिक पर होगा उस व्यक्ति पर होगा जिस पर अभियोजन चलाया जा रहा है या जिस पर प्रतिकर के लिए मुकदमा लाया गया है।

        प्रबोध कुमार दास बनाम प्रफुल्ल कुमार दास के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है वसीयत के मामले में शुरू में साबित करने का भार उसी व्यक्ति पर होता है जो इसका लाभ लेना चाहता है। यह और भी भारी हो जाता है जब संदेह पैदा करने वाली परिस्थितियां भी रही हो।एक वसीयत का सही होने के बारे में कोलकाता उच्च न्यायालय इस कारण यकीन हो गया कि वसीयतकर्ता नि संतान था अपने अंतिम दिनों में भाई के लड़के के साथ रह रहा था।उसने उसे उसकी संपत्ति भी दी थी।

           एक अनपढ़ घूंघट में रहने वाली स्त्री ने अपने लड़के के पक्ष में अपनी कुल संपत्ति का दान पत्र हस्ताक्षरित किया। यह भार लड़के पर था। यह तथ्य साबित करे कि वह वैध दस्तावेज था, पूर्ण स्वतंत्रता से हस्ताक्षरित हुआ था। न्यायालय ने उस सबूत को मंजूर नहीं किया क्योंकि वसीयत नामे में तात्विक कमियां थी। यह निर्णय रनका निधि साहू बनाम नंद किशोरी साहू के मामले में दिया गया है।


Saturday, January 11, 2020

सी. आर. पी. सी. की धारा144 का प्रयोग विचारों की वैद्ध अभिव्यक्ति को रोकने के टूल के रूप में नहीं किया जा सकता


सीआरपीसी की धारा 144 का इस्तेमाल विचारों की वैध अभिव्यक्ति को रोकने के टूल के रूप में नहीं किया जा सकता : सुप्रीम कोर्ट

11 Jan 2020 


           सीआरपीसी की धारा 144, के तहत मिली शक्ति, उपचारात्मक के साथ-साथ निवारक होने के कारण, न केवल वहां प्रयोग की जाती है जहां खतरा मौजूद है, बल्कि तब भी प्रयोग की जाती है जब खतरे की आशंका हो।
          कश्मीर लॉकडाउन मामले में दिए गए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 144 के तहत मिले अधिकारों को विचारों की वैध अभिव्यक्ति या लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग करने से रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

कोर्ट ने कहा कि

         "सीआरपीसी की धारा 144 के प्रावधान केवल आपातकाल की स्थिति में और कानूनन नियोजित किसी व्यक्ति को बाधा पहुंचाने से रोकने और परेशान करने या चोट से रोकने के उद्देश्य से लागू होगें। सीआरपीसी की धारा 144 के तहत दोहराए गए आदेश, अधिकारों का दुरुपयोग माना जाएगा।''

           पीठ ने सीआरपीसी की धारा 144 के तहत प्रतिबंधों के बारे में अपनी बात शुरू करते हुए कहा कि,

          ''जैसा कि आपात स्थिति सरकार के कार्यों का पूरी तरह से बचाव नहीं करती, असहमति अस्थिरता को उचित नहीं ठहराती, कानून का शासन हमेशा चमकता है।''

          न्यायमूर्ति एनवी रमना, न्यायमूर्ति आर. सुभाष रेड्डी और न्यायमूर्ति बी.आर गवई की पीठ ने सीआरपीसी की धारा 144 के तहत शक्ति के प्रयोग के सिद्धांतों को संक्षेप में प्रस्तुत किया-

         सीआरपीसी की धारा 144, के तहत मिली शक्ति, उपचारात्मक के साथ-साथ निवारक होने के कारण, न केवल वहां प्रयोग की जाती है जहां खतरा मौजूद है, बल्कि वहां भी प्रयोग की जाती है जब खतरे की आशंका हो। हालांकि, खतरे का चिंतन ''आपातकाल'' की प्रकृति का होना चाहिए और कानूनी रूप से नियोजित किसी व्यक्ति को बाधा पहुंचाने और परेशान करने या चोट से रोकने के उद्देश्य से होना चाहिए।

         सीआरपीसी की धारा 144, के तहत मिली शक्ति का उपयोग विचारों या शिकायत की वैध अभिव्यक्ति या लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग करने से रोकने के लिए नहीं किया जा सकता है।

         सीआरपीसी की धारा 144 के तहत पारित एक आदेश, में आवश्यक और भौतिक तथ्यों को बताया जाना चाहिए ताकि उसकी न्यायिक समीक्षा की जा सके। शक्ति का प्रयोग वास्तवकि और उचित तरीके से किया जाना चाहिए, और यह आदेश भौतिक तथ्यों पर भरोसा करके दिया जाना चाहिए, जो समझदारी से लिये गए निर्णय का सूचक भी हो। यह पूर्वोक्त आदेश की न्यायिक जांच को सक्षम बनाएगा।

         सीआरपीसी की धारा 144 के तहत शक्ति का प्रयोग करते समय, मजिस्ट्रेट का कर्तव्य है कि वह आनुपातिकता के सिद्धांतों के आधार पर अधिकारों और प्रतिबंधों को संतुलित करे और उसके बाद कम से कम हस्तक्षेप करने वाले उपाय लागू करे।

          सीआरपीसी की धारा 144 के तहत बार-बार दिए गए आदेश, शक्ति का दुरुपयोग होगा।

        सीआरपीसी की धारा 144 के तहत मिले अधिकारों का प्रयोग उस समय भी किया जा सकता है,जब खतरे की आशंका हो।

          याचिकाकर्ताओं की ओर से दी गई दलीलों में से एक यह थी कि सीआरपीसी की धारा 144 के तहत दिए गए ऐसे आदेश महज आशंका के चलते पारित किए गए जो कानून की नजर में बरकरार नहीं रह सकते।

          इस को खारिज करते हुए, पीठ ने बाबूलाल परते नामक मामले का हवाला दिया ,जिसमें यह माना गया था कि इस धारा के तहत दी गई शक्ति न केवल वहां प्रयोग की जा सकती है, जहां वर्तमान में खतरा मौजूद है, बल्कि खतरे की आशंका होने पर भी प्रयोग करने योग्य है। लेकिन न्यायालय ने यह कहकर उसे सीमित बना दिया कि खतरे की प्रकृति ''आपातकाल''की होनी चाहिए और कानूनी रूप से नियोजित किसी व्यक्ति को बाधा पहुंचाने और परेशान करने या चोट से रोकने के उद्देश्य से होनी चाहिए।

          किसी भी विचार या शिकायत की वैध अभिव्यक्ति और लोकतांत्रिक अधिकारों के उपयोग को रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल नहीं की जा सकती।

          वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल द्वारा व्यक्त की गई चिंता कि भविष्य में कोई भी राज्य इस प्रकार के पूर्ण प्रतिबंध पारित कर सकता है, उदाहरण के लिए, विपक्षी दलों को चुनाव लड़ने या भाग लेने से रोकने के लिए,

इस पर पीठ ने कहा कि-

          ''इस संदर्भ में, यह नोट करना पर्याप्त है कि सीआरपीसी की धारा 144, के तहत मिली शक्ति को विचारों या शिकायत की वैध अभिव्यक्ति और लोकतांत्रिक अधिकारों के उपयोग को रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।

         हमारा संविधान भिन्न विचारों की अभिव्यक्ति, वैध अभिव्यक्तियों और अस्वीकृति की रक्षा करता है और यह सब सीआरपीसी की धारा 144, के आह्वान का आधार नहीं हो सकते हैं। जब तक यह दिखाने के लिए पर्याप्त सामग्री नहीं न हो कि हिंसा होने या सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा को खतरा या भय पैदा होने की आशंका है।

         यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि (''बाबूलाल परते मामला (सुप्रा)'') सीआरपीसी की धारा 144 के प्रावधान केवल आपातकाल की स्थिति और कानूनन नियुक्त किसी भी व्यक्ति को बाधा और परेशान करने या चोट पहुंचाने से रोकने के उद्देश्य से लागू होंगे।

        यह ध्यान देने के लिए पर्याप्त है कि याचिकाकर्ता की आशंकाओं को दूर करने के लिए सीआरपीसी की धारा 144 के तहत पर्याप्त सुरक्षा के उपाय मौजूद हैं, जिनमें इस धारा के तहत शक्ति के दुरुपयोग को चुनौती देने वाली न्यायिक समीक्षा भी शामिल है।''

         एक और विवाद यह था कि 'कानून और व्यवस्था' 'सार्वजनिक व्यवस्था' की तुलना में एक संकीर्ण दायरे में है और 'कानून और व्यवस्था' का आह्वान सीआरपीसी की धारा 144 के तहत प्रतिबंधों के एक संकीर्ण सेट को ही उचित ठहराएगा। इस पर पीठ ने विभिन्न मिसालों का जिक्र करते हुए कहा-

          '' कानून और व्यवस्था', 'सार्वजनिक व्यवस्था' और 'राज्य की सुरक्षा' के अलग-अलग कानूनी मानक हैं और मजिस्ट्रेट को स्थिति की प्रकृति के आधार पर प्रतिबंधों का पालन करना चाहिए। यदि दो परिवार सिंचाई के पानी को लेकर झगड़ा करते हैं, तो यह कानून और व्यवस्था को भंग कर सकता है , लेकिन ऐसी स्थिति में जब दो समुदाय एक दूसरे से लड़ाई करते हैं, तो स्थिति सार्वजनिक व्यवस्था की स्थिति में परिवर्तित हो सकती है।

        हालांकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि उपरोक्त दो अलग स्थितियों का निर्धारण करने के लिए एक समान दृष्टिकोण नहीं अपनाया जा सकता। मजिस्ट्रेट मौजूदा परिस्थितियों के गंभीरता का आकलन किए बिना पूर्ण प्रतिबंध वाला सूत्र लागू नहीं कर सकता प्रतिबंध संबंधित स्थिति के लिए आनुपातिक होना चाहिए।''

शक्ति का उपयोग जिम्मेदारी से किया जाना चाहिए

             पीठ ने यह भी देखा कि इस तरह के आदेश को किसी व्यक्ति विशेष या आम जनता के खिलाफ पारित किया जा सकता है। लेकिन इसमें यह भी कहा गया कि सीआरपीसी की धारा 144 के तहत पारित आदेश, सामान्य रूप से जनता के मौलिक अधिकारों पर प्रत्यक्ष प्रभाव ड़ालता हैं। पीठ ने कहा-

            ''इस तरह की शक्ति, अगर एक आकस्मिक और लापरवाह तरीके से उपयोग की जाती है, तो इसका परिणाम गंभीर अवैधता होगा। इस शक्ति का उपयोग जिम्मेदारी से केवल कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के उपाय के रूप में किया जाना चाहिए।''

न्यायिक समीक्षा की शक्ति का अस्तित्व निर्विवाद है

        इस सवाल पर कि क्या इस तरह के आदेशों की न्यायिक समीक्षा हो सकती है, पीठ ने कहा कि-

          "यह सच है कि हम अपील में नहीं बैठते हैं, हालांकि, न्यायिक समीक्षा की शक्ति का अस्तित्व निर्विवाद है। हमारा विचार है कि यह मजिस्ट्रेट और राज्य पर है कि सार्वजनिक शांति और कानून के लिए संभावित खतरे और 113 आदेश के बारे में एक उपयुक्त या सूचना देने वाला निर्णय लें।

           सार्वजनिक शांति और प्रशांति या कानून और व्यवस्था के लिए खतरे का आकलन करने के लिए राज्य को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया है। हालांकि, कानून के तहत उनको इस बात की आवश्यकता है कि इस शक्ति को लागू करने के लिए भौतिक तथ्यों को बताएं।

           इससे न्यायिक जांच सक्षम होगी और इस बात की जांच हो पाएगी कि क्या पाॅवर के आह्वान या लागू करने को सही ठहराने के लिए पर्याप्त तथ्य मौजूद हैं।

          ऐसी स्थिति में जहां नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगाया जा रहा है, उसे दी गई शक्ति से मनमानी के माध्यम से लागू नहीं किया जा सकता है, बल्कि यह वस्तुनिष्ठ तथ्यों पर आधारित होना चाहिए। सीआरपीसी की धारा 144 के तहत निवारक/ उपचारात्मक उपाय, परिश्रम के प्रकार, प्रादेशिकता की सीमा, प्रतिबंध की प्रकृति और उसी की अवधि के आधार पर होना चाहिए।

           तात्कालिकता की स्थिति में, प्रतिबंध या उपायों को तत्काल लगाने के लिए प्राधिकारी को अपनी राय बनाने के लिए ऐसी सामग्री के बारे में संतुष्ट होने की आवश्यकता होती है जो निवारक / उपचारात्मक हैं। हालांकि, यदि प्राधिकरण एक बड़े प्रादेशिक क्षेत्र पर या लंबी अवधि के लिए प्रतिबंध लगाने पर विचार करता है, तो सीमा रेखा या दहलीज की आवश्यकता अपेक्षाकृत अधिक है।

            सीआरपीसी की धारा 144 के तहत पारित एक आदेश, दिमाग के उचित अनुप्रयोग का संकेत होना चाहिए, जो 114 भौतिक तथ्यों और निर्देशित उपाय पर आधारित होना चाहिए। उचित तर्क, मामले में शामिल विवाद और उसके निष्कर्ष से संबंधित अधिकारी के दिमाग के प्र्योग को जोड़ता है। बुद्धिरहित या एक गुप्त तरीके से पारित आदेशों को कानून के अनुसार पारित आदेश नहीं कहा जा सकता है।"

केस का नाम- अनुराधा भसीन बनाम भारत संघ और गुलाम नबी आजाद बनाम भारत संघ

केस नंबर- डब्ल्यूपी(सी) 1031/19, 1164/19

बेंच- जस्टिस एन.वी रमना,जस्टिस आर. सुभाष रेड्डी और जस्टिस बी. आर गवई

        याचिकाकर्ता के वकील/इंटरव्यूअर्स-एडवोकेट वृंदा ग्रोवर, सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल, हुजैफा अहमदी,दुष्यंत दवे

प्रतिवादी के वकील- अटॉर्नी जनरल के. के वेणुगोपाल और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता

Friday, January 10, 2020

महिलाओं से सम्बन्धित कानून

जानिए महिलाओं से संबंधित भारतीय कानून

 6 Jan 2020 

       विश्व भर में समय-समय पर महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज उठती रही है। भारत में महिलाएं सामाजिक रीति-रिवाजों द्वारा शोषित और दमित होती रही हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व भी महिलाओं पर अत्याचारों की संख्याओं में कोई कमी नहीं थी तथा स्वतंत्रता के बाद भी महिलाओं के संबंध में अत्याचार और अपराध निरंतर घटित हो रहे थे। इन अपराधों के निवारण में कमी एवं इन पर रोक हेतु सशक्त विधान की आवश्यकता थी तथा भारतीय संसद में महिलाओं के संबंध में ऐसे विधान को बनाने से तनिक भी संकोच नहीं किया है। समय-समय पर भारतीय पार्लियामेंट ने महिलाओं से संबंधित विधि का निर्माण किया है। भारतीय संविधान में भी महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित करने के पूर्ण प्रयास किए गए हैं। 


भारतीय संविधान और महिलाएं उद्देशिका प्रस्तावना में महिलाओं का स्थान:  -

        उद्देशिका में वर्णित न्याय स्वतंत्रता समानता और बंधुत्व की स्थापना भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा कल्याणकारी राज्य की स्थापना में अंतर्निहित उद्देश्य को प्रकट करता है। यह उद्देश्य बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के आदर्श वाक्य पर चलकर ही प्राप्त किया जा सकता है। उद्देशिका में प्रकट विचार सभी नागरिकों के संदर्भ में समान रूप से लागू माने जाते हैं। स्त्रियों और पुरुषों के संदर्भ में विभेद कारी नहीं है। 

मूलभूत अधिकारों में महिलाओं का स्थान :   -

          भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में पदावली- विधि के समक्ष समता तथा विधियों का समान संरक्षण का प्रयोग किया गया है। दोनों वाक्यों का उद्देश्य समान न्याय प्रदान करना है। उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पतंजलि शास्त्री के मतानुसार विधि का समान संरक्षण विधि के समक्ष समता का ही उप सिद्धांत है तथा व्यापारिक रूप में दोनों एक ही है। 

अनुच्छेद 15 (3) :  -

           अनुच्छेद 15 3 में स्पष्ट रूप से इंगित किया गया है कि अनुच्छेद 15 में वर्णित प्रावधानों से प्रभावित रहते हुए राज्य महिलाओं के लिए विशेष उपबंध कर सकेगा जो कि उनके लाभ के लिए होगा। अर्थात ऐसी विधि बनाई जा सकती है जो महिलाओं के संबंध में लाभ है। 

वाद जहां महिलाओं के लिए विशेष उपबंध को संवैधानिक स्वीकार किया गया है :  -

        केवल स्त्रियों के लिए शिक्षण संस्थाओं की स्थापना तथा अन्य शिक्षण संस्थाओं में उनके लिए स्थान के आरक्षण को मुंबई उच्च न्यायालय द्वारा दत्तात्रेय बनाम स्टेट के बाद में संवैधानिक घोषित करते हुए कहा गया है कि अनुच्छेद 15 (3) यह संरक्षित है।
          भारत में दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धाराएं 125 और धारा 128 पत्नी स्त्रियों को पुरुष से भरण पोषण प्राप्त करने के अधिकार को मान्यता देते हैं। यह अधिकार केवल पत्नी चाहे वह तलाकशुदा हो या पृथक निवास कर रही हो और विवाह वैध हो तो उसको प्राप्त है। नूर सबा खातून के मामले में सुप्रीम कोर्ट का मत था कि इन प्रावधानों का उद्देश्य आवेदक को तत्कालीन अनुतोष राहत प्रदान करना है, ताकि उसे जीवन की कठिनाइयों से बचाया जा सके तथा उसे जीवन यापन हेतु न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित की जा सके या प्रावधान धर्म समाज समुदाय से निश्चित रहते हुए सभी को उपलब्ध है तथा परित्यक्त पृथक निवास कर रही विवाहित महिलाओं को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए है महिला हित रक्षार्थ विशेष उपबंध होने के कारण इसे संविधान सम्मत माना जाता है। 
        मुसमा चौकी बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान के मामले में दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 437 की वैधानिकता को चुनौती दी गई थी कि यह अनुच्छेद 15 (1) के प्रावधानों का उल्लंघन करता है। परंतु राजस्थान उच्च न्यायालय ने निर्धारित किया कि यह वैध है, क्योंकि यह महिलाओं के लिए विशेष उपबंध करता है तथा संविधान के अनुच्छेद 15 (3) द्वारा संरक्षित है। इसी प्रकार सुरेश कुमारी बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा के मामले में हरियाणा उच्च न्यायालय का अभिमत था की धारा 437 के अंतर्गत महिलाओं के पक्ष में भेदभाव विधि सम्मत है।

 महिलाओं के विरुद्ध अपराध एवं भारतीय दंड संहिता:  -

         भारतीय दंड संहिता1860 में अश्लीलता को परिभाषित नहीं किया गया है। अश्लीलता से संबंधित धाराएं 292, 293, साल 1969 में संशोधित की गई थी। इस संशोधन के माध्यम से विज्ञान साहित्य कला के उद्देश्य हेतु इन धाराओं को उदार बनाया गया है। इस धारा को बनाने का मकसद समाज में महिलाओं के प्रति उस विचार को दूर करना है जो महिलाओं के साथ लिंग आधारित भेदभाव को जन्म देता है। महिलाओं को सेक्स ऑब्जेक्ट की तरह पेश करने वाले विचार को इस धारा के अंतर्गत पूर्णता प्रतिबंधित किया गया है। 

अश्लील कार्य गाने :-

        भारतीय दंड संहिता में महिलाओं के प्रति अश्लील गाने कार्य करना दोनों को दंडनीय अपराध बनाया गया है धारा 294 के अनुसार कोई व्यक्ति किसी लोक स्थान में कोई अश्लील कार्य करेगा इस लोग स्थान में उसके समीप कोई ऐसे अश्लील गाने अथवा गीत पखवाड़े या शब्द गाएगा सुनाएगा उपचारित करेगा, जिससे दूसरों को परेशानी हो वह साधारण या सश्रम दोनों में से किसी भी प्रकार की कारावास से जिसकी अवधि 3 मास तक की हो सकेगी से दोनों से दंडित किया जाएगा।

 स्त्री की लज्जा हेतु भारतीय दंड संहिता के अन्य प्रावधान : -

         धारा 354 में स्त्री की लज्जा भंग करने के आशय से उस पर हमला आपराधिक बल का प्रयोग के विषय में वर्णित है कि जो कोई किसी स्त्री की लज्जा भंग करने के आशय से यह संभव जानते हुए कि ऐसा कार्य करते हुए वह उसकी लज्जा भंग करेगा। उस स्त्री पर हमला करेगा वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से जिसकी अवधि 2 वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जाएगा। इस धारा का लक्ष्य स्त्री के अस्तित्व की रक्षा करना है तथा उसके आत्मसम्मान और उसकी अस्मिता की रक्षा करना है। 

आईएपीसी धारा 376, बलात्कार:  -

       इस अपराध को भारतीय दंड संहिता में बलात्संग भी कहा गया है। यह अत्यंत जघन्य अपराध है। यह अपराध भारत की प्रमुख समस्या बनकर उभरा है। भारतीय दंड संहिता में इस अपराध मे मृत्युदंड तक दंडनीय रखा गया है। 

प्रकृति के विरुद्ध अपराध धारा 377 :-

      इस धारा के अंतर्गत हाल ही के अंदर संशोधन किए गए हैं, परंतु वह संशोधन समलैंगिकों के अधिकारों को सुरक्षित करने हेतु किए गए है। यदि कोई व्यक्ति किसी स्त्री जीव जंतुओं के साथ प्राकृतिक व्यवस्था के विरुद्ध चलते हुए अपनी इच्छा से इंद्रिय भोग करेगा वह आजीवन कारावास से दोनों में से किसी भी भांति के कारावास से जिसकी अवधि 10 वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडित होगा। प्रकृति की अवस्था के विरुद्ध संभोग मुखमैथुन एवं गुदामैथुन को माना गया है। यदि कोई स्त्री को इस प्रकार के संभोग हेतु विवश करता है तो वहां इस अपराध का अपराधी माना जाएगा। 

दहेज संबंधी अपराध आईपीसी 304 बी :  -

         दहेज की मांग न पूरी होने पर वधू की हत्या की घटनाएं निरंतर बढ़ती जा रही हैं। ऐसा विधायिका के संज्ञान में आया। खाना बनाते समय चूल्हे की आग वधु को काल कवलित करती है, ऐसा अधिकतर देखा जाता है। वर पक्ष का कोई भी शायद ही कभी जलकर मरता हो। इस समस्या से प्रभावी ढंग से निपटने हेतु भारतीय दंड संहिता में दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1986 बनने के बाद धारा 304 बी 'दहेज मृत्यु' के नवीन अपराध को जोड़ा गया है। वास्तव में इस संशोधन से पूर्व दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 को दहेज की कुरीति पर नियंत्रण बनाने हेतु अधिनियमित किया गया था, परंतु दहेज की मांग मृत्यु का कारण बनने लगी इसी कुरीति पर प्रभावी अंकुश लगाने के उद्देश्य से भारतीय दंड संहिता की धारा 304 बी तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113 बी जोड़ी गई। यह आजीवन कारावास तक से दंडनीय अपराध है। 

आईपीसी धारा 498 ए :  -

        इस धारा के अंतर्गत पति और उसके नातेदार द्वारा स्त्री के प्रति क्रूरता को रखा गया है। इस क्रूरता में मानसिक एवं शारीरिक दोनों तरह की क्रूरता को स्थान दिया गया है। यदि पति उसके नातेदार स्त्री के विरुद्ध मानसिक एवं शारीरिक क्रूरता करते हैं तो इस धारा के अंतर्गत दंडनीय अपराध है। यह एक संज्ञेय अपराध है और गैर जमानती भी है। 

दूसरा विवाह -

     आईपीसी धारा 494 के अनुसार जो कोई पति या पत्नी के जीवित होते हुए किसी ऐसी दशा में विवाह करेगा, जिसमें ऐसा विवाह इस कारण शून्य है कि वह ऐसे पति या पत्नी के जीवन काल में होता है। इस प्रकार पहले जीवन साथी के जीवित रहने पर दूसरा विवाह करना दंडनीय अपराध है। इसके लिए 7 वर्ष तक की सज़ा का प्रावधान है और दोषी जुर्माने से भी दंडनीय होगा। परंतु यह धारा उन लोगों पर लागू नहीं होती है, जिन लोगों को व्यक्तिगत विधि के अंतर्गत दूसरा विवाह करने का अधिकार अपनी रूढ़ि और प्रथाओं द्वारा दिए गए हैं। जैसे मुस्लिम और आदिवासियों पर यह धारा लागू नहीं होती, क्योंकि मुस्लिम धर्म और आदिवासी रूढ़ियों प्रथाओं के अनुसार कोई पुरुष दूसरा विवाह कर सकता है परंतु स्त्री दूसरा विवाह नहीं कर सकती। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अंतर्गत दूसरे विवाह को प्रतिबंधित किया गया है। 

घरेलू हिंसा अधिनियम :-

          महिलाएं घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण हेतु 2005 में भारतीय संसद द्वारा घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 बनाया गया। इस अधिनियम का उद्देश्य महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा को समाप्त करना था। इस अधिनियम के अंतर्गत पति द्वारा घर से निकाली गई महिला को घर में प्रवेश दिलाने का अधिकार भी दिया गया है या तलाकशुदा महिला को भरण पोषण उसकी संतान को भरण पोषण दिए जाने का अधिकार भी दिया गया है। यह महिलाओं के लिए बनाया गया अत्यंत सार्थक एवं सशक्त कानून है जिसके माध्यम से महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा को रोका जा सकता है। यह कानून हिंसा को रोकने हेतु सार्थक सिद्ध हो रहा है।

 कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न___

        जब महिलाएं घरों से निकलकर वित्तीय मजबूती के लिए कार्य स्थलों पर नौकरियां करने आई तो पुरुषों द्वारा महिलाओं को कार्यस्थल पर भी लैंगिक रूप से उत्पीड़न या यौन उत्पीड़न दिया गया। विशाखा बनाम राजस्थान राज्य नामक मामले में लैंगिक समानता के लिए कार्यरत एक गैर सरकारी संगठन द्वारा जनहित याचिका के माध्यम से संविधान के अनुच्छेद 14, 19 तथा 21 के अंतर्गत प्रदत्त अधिकारों को प्रभावी रूप से लागू कराने के उद्देश्य से एक प्रयास किया गया इस बात को निर्णीत करते समय उच्चतम न्यायालय द्वारा लैंगिक समानता को सुनिश्चित करने वाले अंतरराष्ट्रीय अभिसमयों की विषय वस्तु पर विश्वास किया गया और स्पष्ट किया गया कि मूलभूत रूप से लैंगिक समानता की उपलब्धता निर्वाचित एवं सुनिश्चित करते समय मनो विचित गरिमा सहित कार्य करने का अधिकार तथा लैंगिक उत्पीड़न के विरुद्ध सुरक्षा सुनिश्चित करना अंतर्निहित दायित्व होता है। इस निर्णय के माध्यम से उच्चतम न्यायालय ने कामकाजी महिलाओं के साथ हो रही यौन उत्पीड़न की घटनाओं की रोकथाम के लिए दिशानिर्देश जारी किए है। 

महिला आरोपी की दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अंतर्गत सुरक्षा----

        महिला आरोपियों को दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत विशेष सुरक्षा दी गई है धारा 46 में गिरफ्तारी के नियम बताए गए हैं, जिसमें महिला आरोपी की गिरफ्तारी महिला अधिकारी द्वारा ही की जाएगी। महिला चिकित्सक द्वारा ही महिला आरोपी का परीक्षण किया जाएगा। 

गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम 1971-

             इस अधिनियम के माध्यम से अबॉर्शन के नियम दिए गए हैं। कोई भी अबॉर्शन किस डॉक्टर द्वारा किया जाएगा या व्यवस्थित रूप से इस अधिनियम में बताया गया है। यह एक आपराधिक अधिनियम है, जिसमें गैर पंजीकृत चिकित्सक द्वारा गर्भ समापन हेतु दंड रखा गया है।

 भ्रूण लिंग चयन निषेध अधिनियम 1994 

          इस अधिनियम के अंतर्गत लिंग के चयन को निषेध किया गया है एवं लिंग के परीक्षण को पूर्णतः अवैध बनाया गया है।

 अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम 1956- 

        इस अधिनियम का मूल उद्देश्य महिलाओं को वेश्यावृत्ति से बचाना है एवं जो महिलाएं पूर्व से वेश्यावृत्ति इत्यादि कामों में लगी हुई है। उनका उत्थान करना है अधिनियम के अंतर्गत सुधार गृह एवं संरक्षण गृह बनाए गए तथा नए वेश्यालय को खुलने से रोकने का पूर्ण इंतजाम किया गया है। इस अधिनियम के बनने के बाद से भारत भर में वेश्यावृत्ति एवं मुजरा घरों के निर्माण में कमी आई है। भारत की सीमाओं के भीतर किसी भी प्रकार से मानव शरीर का संभोग हेतु खरीदा बेचा जाना जाना पूर्णतः प्रतिबंधित है वेश्यावृत्ति की रोक हेतु अधिनियम सार्थक सिद्ध हुआ है।