Sunday, April 23, 2017

जमानत

             भारत में आपराधिक अभियोजन प्रक्रिया सीआरपीसी या अपराध प्रक्रिया संहिता के अनुसार चलती है। यह संहिता अदालतों, वकील, पुलिस, आरोपीयों और शिकायतकरताओं की शक्तियों और कर्तव्यों को निर्दिष्ट करती है। इस संहिता में (अन्य बातों के बीच) किस को गिरफ्तार किया जा सकता है, कैसे गिरफ्तार किया जा सकता है, कब गिरफ्तार किया जा सकता है, किन परिस्थितियों के तहत गिरफ्तारियां की जा सकती हैं, गिरफ्तारी के समय किस प्रक्रिया का पालन किया जाना ज़रूरी है, और किन अधिकारियों को गिरफ्तार करने की शक्ति है इत्यादि का विवरण और तरीका पाया जा सकता है।
            गिरफ्तारी के बाद बंदी / अभियुक्त को कहाँ भेजा जाता है इसका भी विवरण मिलता है। गिरफ्तार व्यक्ति को पुलिस हिरासत (किसी पुलिस थाने में हवालात) में, या न्यायिक हिरासत (जेल) में भेजा जा सकता है। धरा ४९८अ (498a)/४०६/३४ के अंतर्गत आरोपित किसी व्यक्ति को यदि गिरफ्तार होने का डर है, तो हमें कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए। जमानत सीआरपीसी द्वारा वर्णित एक और विषय है। जमानत किसी विशेष आपराधिक मामले के अंतिम निपटारा होने से पहले आरोपी व्यक्ति को अस्थायी स्वतंत्रता प्रदान करने का तरीका है।
            मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि आरोपों की गंभीरता को मद्दे नज़र रखते हुए, आरोपित व्यक्ति मामले के पूर्णतः निपटारे तक पूरी तरह से गिरफ्तारी से बच सकता है, केवल पुलिस हिरासत में या केवल न्यायिक हिरासत में समय बिताने के लिए मजबूर हो सकता है, या पूर्णतः जमानत पाने में अक्षम हो सकता। अपराध प्रक्रिया संहिता या सीआरपीसी किस व्यक्ति को जमानत दी जा सकती है और जमानत के विभिन्न प्रकारों का विवरण देती है।
          अग्रिम ज़मानत दहेज सम्बंधित मामलों सहित सभी आपराधिक मामलों के लिए सब से उत्तम प्रकार की ज़मानत है। यदि आप को अग्रिम ज़मानत मिल जाती है तो आप को अपने आपराधिक मामले के अंतिम निपटारे तक हिरासत में एक भी दिन नहीं बिताना पड़ेगा। ४९८अ (498a) सम्बंधित मामलों में अग्रिम जमानत के महत्व को समझने के लिए इस लेख को पढ़ें। इस प्रकार की ज़मानत की याचिका गिरफ्तारी की सम्भावना की अपेक्षा / प्रत्याशा में डाली जाती है।
          यदि आप को इस बात का अंदेशा या शुबहा है कि आप को किसी ऐसे अपराध के लिए गिरफ्तार किया जा सकता है जो आपने किया नहीं है तो आप को अग्रिम ज़मानत की अर्ज़ी डालने का अधिकार है। आप के मानस में इस प्रकार का अंदेशा उत्पन्न होने के कुछ मुख्या कारण निम्नानुसार हो सकते हैं। पत्नी द्वारा थांने में दर्ज़ करी गयी कोई आपराधिक शिकायत, या पत्नी या उस के परिवार द्वारा दी गयी कोई धमकी (मैं तुम्हे नानी याद दिला दूँगी, या हम तुम्हारी ईंट से ईंट बजा देंगे।) धमकियों को हमेशा ज़यादा भाव देना ज़रूरी नहीं है, लेकिन यदि आपकी पत्नी ने आप को दहेज़ उत्पीड़न या किसी और मामले में अभियुक्त बनाने का आवेदन डाला है तो आप को अग्रिम ज़मानत के बारे में गम्भीरता से सोचनाचाहिए। जैसे ही आप को अपने विरूद्ध धारा ४९८अ (498a)/४०६/३४ के अंतर्गत पुलिस को दी गयी शिकायत / उपालम्भ के बारे में पता लगता है, आप को चाहिए कि आप किसी अच्छे वकील से मिलें और गिरफ्तारी पूर्व सूचना या नोटिस ज़मानत, और अग्रिम ज़मानत के लिए आवेदन डालने का निर्देश दें अथवा इन चीज़ों के बारे में उस के साथ बैठ कर बात करें। ये दो अलग अलग तरह की ज़मानतें हैं लेकिन ये एक ही तरह की ज़मानतें हैं।
          मैं अपनी बात को कुछ खुल कर समझाने की कोशिश करता हूँ। आप का वकील आप के पक्ष में अग्रिम ज़मानत का आवेदन बनाएगा (जिस में वो आप के हिसाब से मामले के जो तथ्य हैं, उन का वर्णन करेगा) और उपयुक्त क्षेत्रीय ज़िला एवं सत्र न्यायालय में अर्ज़ी डालेगा। मामले की सुनवाई की तारीख लगेगी . इस दिन आप को चाहिए की आप किसी व्यक्ति को अदालत भेजें ताकि वो जा कर देख सके कि आपका वकील कितनी चुस्ती से आप का पक्ष जज के सामने प्रस्तुत कर रहा है / कर पाता है। अदालत ने महिला अपराध प्रकोष्ठ या महिला थाना या महिला सैल को नोटिस जारी कर दिया होगा, और इस तारिख पर वहाँ इस थाने या विभाग का कोई अधिकारी आएगा . अधिकारी अकेला नहीं आएगा। एक सरकारी वकील / लोक अभियोजक भी वहाँ आएगा, जिस का काम पुलिस का पक्ष अदालत के सामने रखना है। सरकारी अभियोजक पुलिस अधिकारी के साथ बात करेगा और न्यायाधीश को बोलेगा कि अभी तक कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गयी है, अतः ज़मानत देने की कोई ज़रुरत और कोई आधार नहीं है। जज ऐसा दिखायेगा जैसे की वो सरकारी अभियोजक की बात को मान गया है, और आप के वकील से इस दलील के बारे में उस की राय पूछेगा। आप का वकील मौखिक तौर से आप कि अग्रिम ज़मानत अर्जी वापस ले लेगा और जज से दरख्वास्त करेगा कि यदि पुलिस भविष्य में आप को इस मामले में गिरफ्तार करने की राय स्थापित करती है तो आप को गिरफ्तारी से पहले ७ दिनों की मोहलत सूचना द्वारा दी जाए। जज आप के वकील की दरख्वास्त को मंज़ूर कर लेगा और पुलिस को यह निर्देश देगा कि वे आप को, या आप के माता पिता को, या आप को और आप के माता पिता को एक साथ, गिरफ्तार करने की यदि राय बनाते हैं, तो उन्हें ऐसी सूरत में ७ दिन कि मोहलत, एक लिखित सूचना के रूप में देनी पड़ेगी। इस प्रकार की ज़मानत को सूचना ज़मानत या नोटिस ज़मानतकहतेहैं। यदि इस जमानत याचिका को खारिज कर दिया जाता है, तो आप उच्च न्यायालय में आवेदन कर सकते हैं. हाई कोर्ट में भी खारिज कर दिया जाता है, तो आप सुप्रीम कोर्ट में आवेदन कर सकते हैं.
          आमतौर पर उच्च न्यायालय स्तर पर या उस से पहले इस याचिका पर राहत मिल जाती है। आप ने सुना होगा कि "ज़मानत नियम है और कारावास अपवाद है।" इस का यह अर्थ है कि जजों का झुकाव उन सब लोगों को ज़मानत पर आज़ादी देने की तरफ़ होता है जो गवाहों को डराने धमकाने वाले नहीं दीखते। यदि (और जब) शिकायत प्राथमिकी में बदल जाती है, तो विवेचना / तहकीकात अधिकारी आप को गिरफ्तारी की सूचना भेजेगा। जैसे ही आप को यह सूचना मिलती है (जिसे नोटिस भी कहा जाता है), वैसे ही आप को चाहिए कि आप अग्रिम ज़मानत की अर्ज़ी उपयुक्त अदालत में डालें। ये अर्ज़ी डालने के लिए वही प्रक्रिया प्रयोग करें जो आपने सूचना ज़मानत लेने के लिए प्रयोग करी थी।
          यदि आप का वकील आप को आपके ४९८अ (498a) मामले में कामयाबी से अग्रिम ज़मानत दिलवाना चाहता है, तो उसे कुछ मापदंडों पर खरा उतरना पड़ेगा। There are some criteria which need to be satisfied by your lawyer in your 498a case for grant of anticipatory bail. यदि आप का अग्रिम ज़मानत आवेदन कामयाब हो जाता है तो आप को तकनीकी रूप से ज़मानत पर बरी होने से पहले कुछ औपचारिकताएं पूरी करनी पड़ेंगी। If your AB application is successful, then you have to carry out a few formalities, before you are technically out on bail. अदालत अपने ज़मानत आदेश में आप पर कुछ रोक-टोक लगा सकती है। The court may decide to impose some restrictions on you in its AB or Bail Order. अग्रिम जमानत और नोटिस जमानत के लिए वकील को दिया जाने वाला शुल्क एक मुश्त राशि हो सकता है, या यह दो अलग अलग किस्तों में हो सकता है। पहले विकल्प के पक्ष में तर्क है कि सूचना ज़मानत और अग्रिम ज़मानत वास्तव में एक ही प्रक्रिया के दो कदम हैं।
          जो लोग दुसरे विकल्प को तरजीह देते हैं उन का कहना है कि जितना काम उतने दाम, और भयभीत हो कर किसी ऐसी कारर्वाई के पैसे खर्च नहीं करने चाहियें, जिसको करने की शायद कभी ज़रुरत ही न उठे। आम तौर पर वकील मुवक्किल द्वारा दोनों क़दमों का एक ही बार में भुगतान करने पर छूट के रूप में प्रोत्साहन देते हैं। प्राथमिकी दर्ज होने के बाद जो वास्तविक आपराधिक मामला आता है, उस का शुल्क अलग से तय किया जाता है। गिरफ्तारी पर न्यायिक रोक या गिरफ्तारी का स्थगन एक ऐसी अवधारणा है, जो असल में अग्रिम ज़मानत वाला ही काम करती है। इस तरह की रोक उत्तर प्रदेश जैसे कुछ उन राज्यों में उपलब्ध है, जहां अग्रिम ज़मानत का प्रावधान नहीं है।
         न्यायिक रोक या न्यायिक स्थगन किसी जज द्वारा दिया गया एक ऐसा आदेश होता है, जो किसी निचली अदालत या किसी सरकारी अधिकारी या सरकार या आम आदमी के किसी आदेश या कानूनी कदम को किसी पूर्व निर्धारित समय तक कानूनी तौर से रोक देता है; या ऐसे वक्त तक रोक देता है जब तक किसी कानूनी बिंदु का किसी स्तर विशेष पर फैसला नहीं हो जाता है। गिरफ्तारी पर रोक एक ऐसा आदेश है जो पुलिस को मजबूर कर देता है कि वो आप को या आप के माता पिता को न्यायालय की रज़ामंदी के बगैर गिरफ्तार न कर सके। इस आदेश को प्राप्त करने का तरीका अग्रिम ज़मानत प्राप्त करने के तरीके से मिलता-जुलता होता है।
         उत्तर प्रदेश में प्रार्थी जनों को गिरफ्तारी पूर्व रोक रुपी राहत के लिए प्रथम उपलब्ध मंच उच्च न्यायालय है, क्यूंकि यू पी में विधायिका ने देश व्यापी आपराधिक प्रणाली संहिता में विचित्र बदलाव कर के उत्तर प्रदेश तक सीमित एक आपराधिक प्रक्रिया संहिता रचित करी है। इस बदलाव के फलस्वरूप पुलिस के वांछनीयता की सीमा से अधिक बलवान बनना का सीधा सीधा प्रकट रूप से हानिकारक असर देश (या यूं कहें कि प्रदेश) के जनतंत्र पर हुआ है।
          ट्रांजिट या पारगमन ज़मानत उस ज़मानत को कहा जाता है जिसकी ज़रुरत आप को ऐसी स्थिति में होती है जब आप विदेश से अपने मूल निवास स्थान पर आते हैं और आप को उस स्थान तक जाना होता है जहाँ पर आपके विरुद्ध आपराधिक मामला पंजीकृत किया गया हो, और आप को अपने मूल निवास स्थान से उस स्थान तक अग्रिम ज़मानत आवेदन डालने हेतु जाना पड़े। इस प्रकार की ज़मानत की ज़रुरत सिर्फ उस स्थिति में पड़ती है जब आप के खिलाफ तलाश नोटिस जारी हो चूका हो, और आप (तार्किक है) अग्रिम ज़मानत नहीं ले पाएं हों। इस की ज़रुरत कुछ और स्थितियों में भी पड़ती है, जिन स्थितियों में आरोपी व्यक्ति ट्रांजिट रिमांड से बचना चाहता है।
           नियमित जमानत आप को गिरफ्तार किये जाने के बाद या आरोप पत्र दाखिल करने के बाद जो मिलती है वो जमानत है। यह वाक्यांश / शब्द अक्सर उपसर्ग 'नियमित' के बिना लिखा जाता है, जो कि उचित है। ये ज़मानत आप को वो वकील दिलवाएगा, जिसे आपने अपने पंजीकृत आपराधिक मामले को लड़ने का काम दिया है, वो चाहे दहेज़ सम्बंधित हो या कोई और हो।
          यदि आप को अग्रिम ज़मानत मिल जाता है तो नियमित ज़मानत लेने की कोई ज़रुरत नहीं। यह सोचना गलत होगा कि अग्रिम ज़मानत के बाद नियमित ज़मानत भी लेनी पड़ती है। ऐसी ग़लतफ़हमी सामान्य ज़मानत में "सामान्य" के बजाय "नियमित" शब्द के प्रयोग से पैदा होती है। जैसा कि अधिकतर पाठकों को मालूम है, हमारे देश में दैनिक वेतन सेवक या अस्थायी कर्मचारी या परखाधीन कर्मचारी उस प्रकार के कर्मचारियों को कहा जाता है जो अभी तक नियमित कर्मचारी की श्रेणी में सम्मिलित न हो पाये हों। यह सब को ज्ञात है कि अस्थायी रोज़गार और नियमित हैसियत किसी भी पूर्णकालिक नौकरी के दो अलग अलग चरण होते हैं।
           इस ज्ञान को अंतर्मन में रख कर लोग अग्रिम ज़मानत और नियमित ज़मानत की धारणा को एक समानांतर द्वंद्व के रूप में प्रतिग्रहीत करते हैं, और ये मान लेते हैं कि ये दोनों प्रकार की जमानतें एक के बाद एक उस आरोपी के लिए अनिवार्य है जो स्वतन्त्र रहना चाहता है। यह धारणा सच्चाई से कोसों दूर है।
          यदि आप को अग्रिम ज़मानत मिल जाती है, तो नियमित जमानत लेने की कोई जरूरत नहीं है। अग्रिम अपने आप में पर्याप्त और अंतिम होती है, सिर्फ उस स्थिति को छोड़ कर जहां किसी को निचली अदालत में मुकद्दमे के अंत में सज़ा सुनाई जाये, या फिर आरोपी पक्ष याचिका दायर कर के अभियुक्त की ज़मानत को रद्द करवा दे।अग्रिम ज़मानत और नियमित ज़मानत को लेकर भ्रमात्मक स्थिति बना के रखने में वकीलों के किसी गुट या वर्ग का हाथ है? लेखक को ऐसे किसी षड्यंत्र का ज्ञान नहीं है। इस देश में हर तरह के कार्यकलाप होते हैं। एक बात का ध्यान रहे।
             प्रत्येक अग्रिम ज़मानत आदेश अपने आप में एक अंतिम आदेश होता है। इस का अर्थ यह है कि अग्रिम ज़मानत आवेदक अपने किसी भी आवेदन के खारिज होने पर (फिर वो चाहे किसी भी स्तर की अदालत में प्रेषित क्यों न किया गया हो) गिरफ्तार होने लायक लोगों की श्रेणी में आ जाता है। क्या हम इस से यह निष्कर्ष निकालें कि आप अपने पहले अग्रिम ज़मानत आवेदन के ख़ारिज होते ही गिरफ्तार होने की तैयारी शुरू कर दें। इस अदना लेखक का यह मानना है की अग्रिम ज़मानत आवेदन के रद्द होने को गिरफ्तार होने का संकेत नहीं मानना चाहिए, भले ही वह आवेदन उच्चतम न्यायालय में ही ख़ारिज हुआ हो)। इस बिंदु को समझने के लिए थोड़े विस्तार की ज़रुरत है। ऐसा खुलासा पढ़ने से पहले यह जान लें कि संभवतः गिरफ्तार होने और गिरफ्तार होने की स्थितियां दो अलग अलग स्थितियां होती हैं।
          याद रहे कि किसी को भी गिरफ्तार करने की स्थिति में गिरफ्तार करने वाले अधिकारी को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा ४१अ (जिस के अंतर्गत अफसर को किसी भी आरोपी को गिरफ्तार करने या न करने की वजह का ब्यौरा देना पड़ता है) को संतुष्ट करना पड़ता है। आरोपी के अग्रिम ज़मानत आवेदन के खारिज होने मात्र से गिरफ्तारी अफसर इस ज़िम्मेदारी से छूट नहीं जाता। इस बात पर भी ध्यान देवें कि यदि अग्रिम ज़मानत आवेदन के ख़ारिज होने का सीधा सीधा फल गिरफ्तारी बन जाये तो फिर आरोपित वर्ग के लोग अग्रिम ज़मानत आवेदन प्रेषित करना ही छोड़ देंगे।
            क्या समाज में ऐसे कानूनों के लिए कोई स्थान है जो क़ानून पीड़ितों को अदालत की ओर मुँह करने से निरूत्साहित कर सकते हैं? हरगिज़ है, लेकिन ऐसी परिस्थितियों में नहीं हैं जहाँ किसी के जीवन या उस की स्वतंत्रता पर बन आई हो। तीसरी बात पर गौर करें कि गिरफ्तारी की आवश्यकता की तीव्रता अपराध की गंभीरता के साथ साथ बढ़ती है। यह सत्य है कि पुलिस द्वारा हत्या, बलात्कार, मादक पदार्थों से सम्बंधित विधान, अथवा संगठित अपराध से सम्बंधित विधान को तोड़ने वालों को आये दिन उन के पहले अग्रिम ज़मानत आवेदन के ख़ारिज होते ही गिरफ्तार कर लेती है।
            कभी कभी तो ऐसा भी होता है कि पुलिस ऐसे लोगों को अपना पहला अग्रिम ज़मानत आवेदन डालने हेतु अदालत की ओर जाते हुए ही गिरफ्तार कर लेती है। इस का यह मतलब कतई नहीं निकालना चाहिए कि वे दहेज़ प्रताड़ना आरोपितों और अमानत में खयानत आरोपितों की धार पकड़ शुरू कर देंगे।
           वास्तविकता इस के ठीक विपरीत है। ऐसी धरा के आरोपियों को आम तौर से उच्चतम न्यायालय स्तर तक अग्रिम ज़मानत आवेदन डालने दिए जाते है। हाँ यह ज़रूर कहा जा सकता है कि कानूनी तौर पे अनपढ़ पुलिसियों के कारनामों का पूर्वकथन इस परिकलन में नहीं किया जा सकता।

 विभिन्न प्रकार की ज़मानत (वर्गीकरण)
अनिश्चितकालीन / "स्थायी" --
१) अग्रिम ज़मानत / पेशगी ज़मानत            
२) नियमित ज़मानत
३) गिरफ्तारी पर अनिश्चितकालीन रोक

अस्थायी / अंतरिम --
१) गिरफ्तारी पूर्व अंतरिम ज़मानत
२) पारगमन ज़मानत
३) गिरफ्तारी पर अस्थायी रोक
४) सूचना ज़मानत / गिरफ्तारी पूर्व अनिवार्य सूचना
५) बीमारी के चलते अंतरिम ज़मानत
६) पारिवारिक कारणों के चलते अंतरिम ज़मानत
७) विधान सभा सत्र के चलते अंतरिम ज़मानत, इत्यादि, घृणापर्यंत इतिश्री।।
         एक ही अदालत में दूसरी बार अग्रिम ज़मानत आवेदन डालना आम तौर से प्रतिबंधित होता है, लेकिन इस का अपवाद ऐसी स्थिति है जहां मामले की मूलभूत परिवेश में पिछले आवेदम के बाद कोई बुनियादी परिवर्तन हो गया होता है [1] [2]। गिरफ़्तारी के बाद के ज़मानत आवेदनों की बात अलग है, और कभी कभी उन की संख्या काबू से बाहर हो जाती है।इस में हमेशा आरोपी व्यक्ति ज़िम्मेदार नहीं होता, जैसा कि तीस्ता सेतलवाड़ के प्रकरण में देखा गया था। उन की विशेष याचिका को सर्वोच्च न्यायालय की तीन पीठों ने सुनवाई दी थी, जबकि मामला शायद एक पीठ में निपट जाना चाहिए था।
          न्यायाधीशों ने इस की वजह को शायद गोल-मोल भाषा में समझाया था [3]। जमानत के बारे में एक घटना--- आपराधिक न्याय प्रक्रिया भी जीवन के अन्य आयामों की तरह अनंत काल से द्वैत अर्थात द्वंद्व से ग्रस्त है। हमें भारतीय होने के नाते भारतीय संस्कृति एवं शास्त्रों का थोड़ा बहुत ज्ञान है। अतः हम इस सिद्धांत से भली भांति परिचित हैं। वैधानिक दर्शन में अनादि काल से एक तरफ़ आरोपी के दोषी घोषित होने तक निर्दोष माने जाने के अधिकार और दूसरी तरफ़ शिकायतकर्ता के दबंग आरोपियों से बचे रहने के अधिकार और उस अधिकार से जुड़े हुए निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार के बीच असीम द्वंद्वात्मक रहा है। ज़मानत एक ऐसा कानूनी प्रावधान है जिस के आपराधिक और शैतान तत्वों द्वारा आपराधिक सुनवाई को प्रभावित करने के नज़रिये से गलत इस्तेमाल की सम्भावना बहुत अधिक है।
          अक्सर देखा गया है कि आरोपियों को ज़मानत मिल जाती है और फिर ज़मानतयाफ़्ता अपने बरी होने का गलत प्रकार से लाभ उठाते हैं। ज़मानत रदद्गी इस तरह के दुष्प्रयोग को रोकने का सबसे स्पष्ट प्रकट तरीका है। पीड़ितों और आरोपितों के अधिकारों के बारे में चिंता करने या न करने को लेकर ऐतिहासिक रूप से विभिन्न न्यायाधीशों और पीठों ने अलग अलग विचारों और विचारधाराओं का अनुगमन किया है।
          हम सभी प्रेक्षक यह भी जानते हैं कि न्यायिक निर्णयों को वैधानिक अथवा अवैधानिक प्रणालियों से प्रभावित करने वाली अनेक शक्तियां हमारे देश में विद्यमान हैं और सफ़लता अथवा असफ़लता से कार्यरत हैं। यह विवाद योग्य है कि इस क्षेत्र में व्यापक प्रवृत्तियाँ प्रत्यक्ष रूप से दृश्य हैं या फिर नहीं हैं। प्रधानता का घंटा कभी पीड़ित वर्ग तो कभी आरोपित वर्ग की ओर झूलता रहा है।
         पूर्व काल में इस का झुकाव (या उठाव) आरोपियों की ओर था, जिस की वजह विधि प्रवर्तन में किसी भी विश्वस्य रोक टोक का घोर अभाव था। अब ऐसी स्थिति है कि आरोपियों को शक्तिशाली मीडिया और जनमत से दो चार होना पड़ता है। ये सब वे कैसे करते है, इसके बारे में इस वेबसाइट पर अलग अलग जगहों पर इस लेखक के विचार पाठकों के मूल्यांकन के लिए प्रेषित किये गए हैं। ज़मानत घोषित होने के बाद ज़मानतयाफ़्ता से छीनी जा सकती है।
         ज़मानत रदद्गी का प्रावधान आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा ४३७(५) और धारा ४३९(२) में सम्मिलित है। साधारणतयः ऐसा निरस्तीकरण ऐसी परिस्थिति में किया जाता है जहां आरोपी ने ज़मानत घोषित करने वाले जज के आदेश की कोई शर्त / शर्तें भंग करी हो / हों। तथापि, ऐसा करने की ज़रुरत पैदा करने वाली अन्य परिस्थितियां भी होती हैं, और ऐसी परिस्थितियों की गिनती को अनगिनत आंकना सच्चाई से परे नहीं होगा। ऐसी परिस्थितियों की कोई लिखित सूची जगत में कहीं भी प्राप्य नहीं है। ज़मानत निरस्तीकरण के फ़ैसले जजों द्वारा किसी भी अपराध और उस के बाद की घटनाओं के तथ्यों और                             परिस्थितियों को दृष्टि में रख कर किया जाता है। तथ्यों और परिस्थितयों की समग्रता को दृष्टिगत रख के भारत के न्यायालयों में न सिर्फ ज़मानत रदद्गी, बल्कि और भी अनेकानेक प्रकार के मुद्दों के फ़ैसले किये जाते हैं। यह बड़ा ही सामान्य वैधानिक सिद्धांत है और इसे सहज अंतर्बुद्धि की सहायता से सोच निकालना किसी भी साधारण चिंतक के लिए सुगमहै। किसी आरोपी के ज़मानत आदेश की शर्तों का उल्लंघन करने मात्र से ज़मानत स्वतः रद्द नहीं हो जाती।
          अभियोजन पक्ष को पहले उपयुक्त वैधानिक मंच तक जा कर ज़मानत रदद्गी हेतु आवेदन करना पड़ता है। उच्चतम न्यायालय ने बहुत पहले यह राय बनाई थी की ज़मानत आवेदन को ख़ारिज करना और पहले से मिली हुई ज़मानत को रद्द करना दो बिलकुल अलग अलग वस्तुएं हैं। उच्चतम न्यायालय की खंड पीठ (आदर्श सेन आनंद एवं मनोज कुमार मुख़र्जी) ने दोलत राम बनाम हरियाणा राज्य, JT १९९५ (१) (SC) १२७: (१९९५) १ SCC ३४९: (१९९४) Supp ६ SCR ६९: (१९९४) ४ SCALE १११९ प्रकरण में आदेश देते हुए निर्णायक टिप्पणी करी थी कि, "किसी गैर ज़मानती प्रकरण में ज़मानत देने से इंकार करने, और इस रास्ते पर पहले से मिली हुई किसी ज़मानत को रद्द करना, इन दोनों परिकल्पनाओं को दो अलग अलग आधारों पर विचाराधीन लेना चाहिए, और दो अलग अलग आधारों पर फ़ारिग करना / निपटाना चाहिए। पहले से दी गयी ज़मानत को रद्द करने के लिए बड़ी ही ज़ोरदार, और बेपनाह गैर मामूली परिस्थितियों की ज़रुरत है। हमें ऐसा प्रतीत होता है कि उच्च न्यायालय ने एक तरफ़ गैर ज़मानती प्रकरण में ज़मानत आवेदन को नामंज़ूर करने के प्रासंगिक कारकों और दूसरी तरफ़ पहले से मिली हुई ज़मानत को रद्द करने के कारकों के बीच के फ़र्क को नज़रअंदाज़ किया है कालांतर में इन जजों की राय का आंशिक खंडन मार्कण्डेय काटजू एवं ज्ञान सुधा मिश्रा की खंडपीठ द्वारा घोषित २०११ के एक निर्णय में हुआ।
             पीठ की ओर से काटजू ने फ़र्ज़ी मुठभेड़ के प्रकरण में शेक्सपियर और वेद व्यास की रचनाओं से लिए गए उद्धरणों से ओत-प्रोत निर्णय लिखा। वर्तमान सन्दर्भ में निर्णय का क्रियाशील अंश निम्नलिखित था, "बहरहाल, हमारी यह राय है कि यह नियम अखण्डनीय नहीं है, और यह मुआमले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर रहेगा। ज़मानत को निरस्त करने या न करने का निर्णय लेते समय न्यायालय को जुर्म की गंभीरता और स्वरूप, आरोपी के विरुद्ध प्रथमदृष्टा प्रकरण, आरोपी की हैसियत और सामाजिक प्रतिष्ठा, इत्यादि को ध्यान में लेना पड़ता है। अगर मुल्ज़िम के ख़िलाफ़ बहुत संजीदा इल्ज़ामात हैं तो उस के हाथों (पहले से मिली हुई) ज़मानत का दुष्प्रयोग न होने के बावजूद भी ज़मानत निरस्त की जा सकती है।
            यही नहीं, उपरोक्त सिद्धांत सिर्फ़ उस स्थिति में लागू होता है जब उसी अदालत में ज़मानत निरस्तीकरण आवेदन डाला जाता है जिस अदालत ने ज़मानत आदेश पारित किया हो। जब किसी ऊँची अदालत में पुनर्विचार याचिका विचाराधीन हो तब यह सिद्धांत प्रयोज्य नहीं है।" (प्रकाश कदम एवं अन्य बनाम रामप्रसाद विश्वनाथ गुप्ता एवं अन्य, AIR २०११ SC १९४५)। यदि अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है तो अनुरोध प्रकट किया जाता है कि इस निर्णय की पृष्ठभूमि और इस का सन्दर्भ आनंद और मुख़र्जी का उपरोक्त निर्णय ही है। वर्तमान में दोनों निर्णयों को वकीलों द्वारा पूर्वोदाहरणों के रूप में प्रयोग किया जाता है। ऐसा इसलिए है कि दोनों फ़ैसले दो दो जजों की खण्डपीठों ने दिए हैं, और इसलिए दूसरा फैसला पहले फैसले को काट नहीं पाया। अभियोग पक्ष या फिर शिकायतकर्ता के लिए ज़मानत निरस्त कराना अक्सर बहुत मुश्किल हो जाता है। जनरल तेजिंदर सिंह जनरल वी के सिंह की ज़मानत निरस्त कराने में नाकामयाब रहे। मान लेते हैं कि वे ऐसा नहीं कर पाये क्यूंकि अभियोग को वे निजी स्तर पर संचालित कर रहे थे और आरोपों को प्रथमदृष्टा सत्य नहीं पाया गया था।
             संजीव नंदा प्रकरण में उनके वकील आर के दीवान के गलत आचरण के बावजूद नंदा की ज़मानत निरस्त नहीं हुई थी। जेसिका लाल हत्या प्रकरण में अभियोग पक्ष के एक गवाह के गायब हो जाने के बाद मनु शर्मा की अंतरिम ज़मानत रद्द तो हुई थी लेकिन बाद में उसे नियमित ज़मानत मिल गयी थी। आई पी एल स्पॉट फिक्सिंग प्रकरण में दिल्ली पुलिस के भरसक प्रयासों के बावजूद श्रीसंथ की ज़मानत रद्द नहीं हुई। शकील नूरानी ने संजय दत्त के विरुद्ध मुंबई धमाके प्रकरण में निजी याचिका सिर्फ इसलिए प्रेषित की थी के वे दत्त की ज़मानत निरस्त करवाना चाहते थे, लेकिन हा विफ़लता। गौर तलब है कि उपरोक्त संजय दत्त प्रकरण में एक तृतीय पक्ष ने अभियोजन का हिस्सा या फिर शिकायतकर्ता न होते हुए भी ज़मानत निरस्तीकरण याचिका प्रेषित की थी। यह नुक्ता आपराधिक अभियोग प्रक्रिया के उन दुर्लभ नुक्तों में से है जिन में तृतीय पक्षों के हस्तक्षेप अनुज्ञप्त हैं / मंज़ूर हैं। यहाँ यह बताना उचित रहेगा के इस नुक्ते से सम्बंधित उच्चतम न्यायालय के आदेशों में परस्पर विरोध प्रतीत होता है।
           जस्टिस पी सथाशिवम और बी एस चौहान ने उपरोक्त सुनवाई में नूरानी को सलाह दी थी कि यदि वे संजय दत्त और अपने बीच के वित्तीय मतभेदों का न्यायिक फैसला करवाना चाहते थे तो उन्हें अपनी ओर से निजी प्राथमिकी दर्ज़ करवानी चाहिए थी, न कि ज़मानत रदद्गी याचिका डालने का रास्ता अख्तियार करना चाहिए था। पीठ की यह टिप्पणी "हिन्दू" अख़बार में भी प्रकाशित हुई थी, "(फिल्म) निर्माता इस (मुंबई धमाके) आपराधिक प्रकरण में कैसे घुसा हुआ है? आप प्राथमिकी दर्ज़ कीजिये। हम आप की याचिका को ख़ारिज कर रहे हैं।" यह आदेश सीधा सीधा राजपाल बनाम जगवीर सिंह, १९७९ All Cr Rep ५१४. (Jai, J.R., Bail Law and Procedure, Universal Law Publishing Company, २०१२, Delhi) के निर्णय में जो कहा गया था उस से ठीक विपरीत है। जे आर जय ने अपनी पुस्तक में इस आदेश की विस्तृत जानकारी नहीं प्रदान करी है। नूरानी की याचिका के सन्दर्भ में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि कभी कभी प्रार्थियों की मंशाएं साफ़ नहीं होती हैं। ऐसा हर प्रकार के प्रकरणों में होता है, यहाँ तक कि जनहित याचिकाओं में भी। आर रतिनम बनाम राज्य पुलिस उपाधीक्षक द्वारा, District Crime, [(२०००) २ SCC ३९१] में उच्चतम न्यायालय की खंडपीठ ने ऐसे मत की अभिव्यक्ति की थी कि तृतीय पक्ष द्वारा दायर ज़मानत निरस्तीकरण याचिकाएं राज्य को स्वतः कार्रवाई शुरू करने की उस की अपनी ज़िम्मेदारी समझाने के रूप में स्वीकार की जा सकती हैं। इस निर्णय में जज के थॉमस और डी मोहपात्रा थे। तथापि अब यह कानून स्थापित हो गया है कि तृतीय पक्ष ऐसी याचिकाएं प्रेषित कर सकते हैं। कभी कभी ज़मानत निरस्त हो जाती है या फिर बहुत मज़बूत केस बन जाता है।
           २ जी प्रकरण में संजय चन्द्रा ने जन अभियोजक ए से अपने अभियजन की बात की थी और यह बात सीबीआई को मालूम हो गयी थी। इस के बाद सीबीआई ने उस की ज़मानत निरस्त करने के लिए उच्चतम न्यायालय में याचिका दाखिल की थी। यह अलग बाद है की चंद्रा की ज़मानत निरस्त नहीं हो पायी (एच एल दत्तू द्वारा संचालित पीठ ने मन कर दिया), लेकिन सीबीआई का अभियोग मज़बूत हो गया। उपहार सिनेमा अग्निकांड प्रकरण में मुकदमे के कागज़ों को चोरी करने के इलज़ाम के फलस्वरूप अंसल बंधुओं की ज़मानत रद्द हो गयी थी। इतना ही नहीं, उन पर तत्पश्चात यह इलज़ाम भी लगाया गया था की वे अपनी सहूलियत के जजों की पीठ तलाश रहे हैं। विजय साईं रेड्डी को जगनमोहन रेड्डी के आय से अधिक संपत्ति प्रकरण में एकबारगी ज़मानत मिल तो गयी थी, पर बाद में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने सीबीआई विशेष अदालत द्वारा दी गयी ज़मानत रद्द भी कर दी थी।
             आर के अग्रवाल को झारखण्ड नोट के बदले वोट घोटाले में ज़मानत मिलने के बाद निरस्त हो गयी थी। सत्यम घोटाले में एस गोपालकृष्णन और वी एस प्रभाकर गुप्ता की ज़मानत भी रद्द कर दी गयी थी। यदि आप को अपने ४९८अ (498a) मुकदमे (धारा ४९८अ (498a)/४०६/३४ या किन्ही अन्य धाराओं के अंतर्गत) में ज़मानत मिल जाती है तो जज द्वारा निर्धारित सभी शर्तों का पलायन करने का भरसक प्रयास करें। सबसे ज़रूरी यह है कि अपने दोषरोपक से सीधे या घुमावदार रस्ते से संपर्क स्थापित करने की कोशिश न करें। यहां तक कि उस का नाम भी न लें, सिवाए तब के जब कागज़ों में ऐसा करना पड़े। ठीक इसी तरह जान अभियोजक से मुकद्दमे से पहले, मुकद्दमे के दौरान, या उस के बाद संपर्क स्थापित करने की कोशिश बिलकुल ना करें। जहां तक तहकीकात अफसर का सवाल है, वह आप को अपने आप फ़ोन करेगा या लिख के नोटिस वगैरह देगा। उसे सिर्फ असाधारण परिस्थितियों में संपर्क करें। इस बात का पूरा ख्याल रखें कि तहकीकात अफसर आप से सभी साधारण समयों पर संपर्क स्थापित कर सके। सबसे ज़रूरी याद रखने लायक बात यह है कि आरोपी को अपने आप को बेक़सूर ठहराने के लिए सिर्फ और सिर्फ अपने कानूनी बचाव का सहारा लेना होता है, और इस रास्ते के अलावा मुकद्दमे को किसी और रास्ते से प्रभावित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। काबिल ए ज़मानत मामलों में ज़मानत अधिकारस्वरूप दी जाती है। लेकिन ऐसी ज़मानत को भी आरोपी के अभियोग प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने पर रद्द किया जा सकता है।
           ध्यान रहे कि अपने द्वारा दी गयी ज़मानत को रद्द करने का अधिकार मजिस्ट्रेट को सिर्फ गैर ज़मानती मामलों में प्राप्त है। काबिल ए ज़मानत मामलों में ऐसा सिर्फ सत्र न्यायालय या उस से ऊंचा कोई न्यायालय कर सकता है। एक और ध्यान देने योग्य बात यह है कि ज़मानत निरस्त करने का अधिकार केवल ज़मानत देने वाली अदालत या उस से ऊंची अदालत को है। यह नियम पिछले अनुच्छेद में दी गयी शर्त को छोड़ कर ज़मानती और गैर ज़मानती, दोनों प्रकार के मामलों में लागू होता है। सत्र न्यायालय उच्च न्यायालय द्वारा पारित ज़मानत आदेश को निरस्त नहीं कर सकता, और उच्च न्यायालय उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित ज़मानत आदेश को। उच्च न्यायालय का अकेला जज उच्च न्यायालय की खंडपीठ (२ जजों की पीठ) के ज़मानत आदेश को निरस्त नहीं कर सकता। आखरी नियम उच्चतम न्यायालय पर भी लागू है। बेल मतलब जमानत। जमानती अपराध- कानूनी के जानकारों के अनुसार, अपराध दो तरह के होते हैं, जमानती और गैर जमानती। जमानती अपराध में मारपीट, धमकी, लापरवाही से गाड़ी चलाना, लापरवाही से मौत जैसे मामले आते हैं। इस तरह के मामले में थाने से ही जमानत दिए जाने का प्रावधान है। आरोपी थाने में बेल बॉन्ड भरता है और फिर उसे जमानत दी जाती है। गैर जमानती अपराध- गैर जमानती अपराधों में लूट, डकैती, हत्या, हत्या की कोशिश, गैर इरादतन हत्या, रेप, अपहरण, फिरौती के लिए अपहरण आदि अपराध हैं। इस तरह के मामले में कोर्ट के सामने तमाम तथ्य पेश किए जाते हैं और फिर कोर्ट जमानत का फैसला लेता है। कानून विशेषज्ञों के अनुसार, अगर पुलिस समय पर चार्जशीट दाखिल नहीं करे, तब भी आरोपी को जमानत दी जा सकती है, चाहे मामला बेहद गंभीर ही क्यों न हो। ऐसे अपराध जिसमें 10 साल या उससे ज्यादा सजा का प्रावधान है, उसमें गिरफ्तारी के 90 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल करना जरूरी है।
            अगर इस दौरान चार्जशीट दाखिल नहीं की जाती है तो आरोपी को सीआरपीसी की धारा-167 (2) के तहत जमानत दिए जाने का प्रावधान है। वहीं 10 साल कैद की सजा से कम वाले मामले में 60 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल करनी होती है और नहीं करने पर जमानत का प्रावधान है। गिरफ्तारी से बचने के लिए कई बार आरोपी कोर्ट के सामने अग्रिम जमानत की अर्जी दाखिल करता है, कई बार अंतरिम जमानत की मांग करता है या फिर रेग्युलर बेल के लिए अर्जी दाखिल करता है। जब किसी आरोपी के खिलाफ ट्रायल कोर्ट में केस पेंडिंग होता है, तो उस दौरान आरोपी सीआरपीसी की धारा-439 के तहत अदालत से जमानत की मांग करता है। ट्रायल कोर्ट या हाई कोर्ट केस की मेरिट आदि के आधार पर अर्जी पर कोर्ट फैसला लेता है। इस धारा के तहत आरोपी को अंतरिम जमानत या फिर रेगुलर बेल दी जाती है। इसके लिए आरोपी को मुचलका भरना होता है और निर्देशों का पालन करना होता है। अगर आरोपी को अंदेशा हो कि अमुक मामले में वह गिरफ्तार हो सकता है, तो वह गिरफ्तारी से बचने के लिए धारा-438 के तहत अग्रिम जमानत की मांग कर सकता है। कोर्ट जब किसी आरोपी को जमानत देता है, तो वह उसे पर्सनल बॉन्ड के अलावा जमानती पेश करने के लिए कह सकता है। अगर 10 हजार रुपये की राशि का जमानती पेश करने के लिए कहा जाए तो आरोपी को इतनी राशि की जमानती पेश करना होता है। पैरोल पैरोलः पैरोल भी कैदियों से जुड़ा एक टर्म है। इसमें कैदी को जेल से बाहर जाने के लिए एक संतोषजनक/आधार कारण बताना होता है। प्रशासन, कैदी की अर्जी को मानने के लिए बाध्य नहीं होता। प्रशासन कैदी को एक समय विशेष के लिए जेल से रिहा करने से पहले समाज पर इसके असर को भी ध्यान में रखता है।
                     पैरोल एक तरह की अनुमति लेने जैसा है। इसे खारिज भी किया जा सकता है। पैरोल दो तरह के होते हैं। पहला कस्टडी पैरोल और दूसरा रेग्युलर पैरोल। कस्टडी पैरोलः जब कैदी के परिवार में किसी की मौत हो गई हो या फिर परिवार में किसी की शादी हो या फिर परिवार में कोई सख्त बीमार हो, उस वक्त उसे कस्टडी पैरोल दिया जाता है। इस दौरान आरोपी को जब जेल से बाहर लाया जाता है तो उसके साथ पुलिसकर्मी होते हैं और इसकी अधिकतम अवधि 6 घंटे के लिए ही होती है। रेग्युलर पैरोलः रेग्युलर पैरोल दोषी को ही दिया जा सकता है, अंडर ट्रायल को नहीं। अगर दोषी ने एक साल की सजा काट ली हो तो उसे रेग्युलर पैरोल दिया जा सकता है। क्या होता है फरलो? फरलोः फरलो एक डच शब्द है। इसके तहत कैदी को अपनी सामाजिक या व्यक्तिगत जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए कुछ समय के लिए रिहा किया जाता है। इसे कैदी के सुधार से जोड़कर भी देखा जाता है। दरअसल, तकनीकी तौर पर फरलो कैदी का मूलभूत अधिकार माना जाता है।
                 पैरोल मिलने के कानूनी नियम --
1. पूर्ण और असाध्य अंधापन।
2. कोई कैदी जेल में गंभीर रूप से बीमार है और वो जेल के बाहर उसकी सेहत में सुधार होता है।
3. फेफड़े के गंभीर क्षयरोग से पीड़ित रोगी को भी पैरोल प्रदान की जाती है। यह रोग कैदी को उसके द्वारा किए अपराध को आगे कर पाने के लिए अक्षम बना देता है। या इस रोग से पीड़ित वह कैदी उस तरह का अपराध दोबारा नहीं कर सकता, जिसके लिए उसे सजा मिली है।
4. यदि कैदी मानसिक रूप से अस्थिर है और उसे अस्पताल में इलाज की जरूरत है।
   
        साथ ही भारत के अंदर कई असाधारण मामलों में भी कैदी को पैरोल दी जा सकती है। 1. अंतिम संस्कार के लिए। 2. कैदी के परिवार का कोई सदस्य बीमार हो या मर जाए। 3. किसी कैदी को बेटे, बेटी, भाई और बहन की शादी के लिए। 4. घर का निर्माण करने या फिर क्षतिग्रस्त घर की मरम्मत के लिए।

No comments: