Wednesday, January 22, 2020

CRPC की धारा394 जेल एवं आर्थिक जुर्माना अभियुक्त की मौत के बाद समाप्त नहीं हो जाती

 सीआरपीसी की धारा 394 : जेल एवं आर्थिक जुर्माने की एक साथ सजा के खिलाफ दायर अपील अभियुक्त की मौत के बाद समाप्त नहीं हो जाती : सुप्रीम कोर्ट 

22 Jan 2020 12:23 PM

        सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जेल और आर्थिक जुर्माने की मिश्रित सजा के खिलाफ अपील लंबित होने के दौरान यदि अभियुक्त-अपीलकर्ता की मौत हो जाती है तो अपील समाप्त नहीं हो जाती। इस मामले में आरोपी को अबकारी अधिनियम की धारा 55(ए)(जी) के तहत दोषी ठहराया गया था और उसे दो साल जेल की सजा सुनायी गयी थी तथा एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया था। अपील लंबित होने के दौरान हाईकोर्ट ने अपीलकर्ता की मौत के तथ्य पर गौर किया, हालांकि इसने दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 394 के सिद्धांत का हवाला देते हुए अपील की स्वीकार्यता के निर्धारण का फैसला लिया था। हाईकोर्ट ने रिकॉर्ड में लाये गये साक्ष्यों पर विचार करते हुए अपीलकर्ता की दोषसिद्धि बरकरार रखी थी। हाईकोर्ट ने कहा कि चूंकि अपील लंबित होने के दौरान ही अपीलकर्ता की मौत हो गयी, इसलिए जेल की सजा अव्यावहारिक हो गयी है, लेकिन जहां तक जुर्माना की बात है तो निचली अदालत के फैसले को गलत ठहराने का उसे कोई कारण नजर नहीं आता। इसके साथ ही अपील खारिज कर दी गयी। अभियुक्त के कानूनी वारिस ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। अपील में यह दलील दी गयी थी कि यदि जेल और आर्थिक जुर्माने की सजा एक साथ थी तो अभियुक्त की मौत के बाद दोनों को समाप्त किया जाना चाहिए था। न्यायमूर्ति अशोक भूषण एवं न्यायमूर्ति एम आर शाह की पीठ ने 1898 की संहिता की धारा 431 के परिप्रेक्ष्य में सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व के फैसले का हवाला देते हुए कहा : उपरोक्त फैसले में स्पष्ट किया गया है कि भले ही धारा 431 के तहत जेल की सजा के साथ आर्थिक जुर्माना लगाया गया हो, लेकिन यह अपील निरस्त नहीं होगी। धारा 431 में वर्णित 'जुर्माने की सजा से संबंधित अपील के अलावा' जैसी अभिव्यक्ति का इस्तेमाल सीआरपीसी की धारा 394 में भी किया गया है। इस प्रकार, जेल की सजा के साथ-साथ आर्थिक जुर्माना वाले मौजूदा मामले में दायर अपील को जुर्माना के खिलाफ अपील के तौर पर देखा जाना चाहिए था और हाईकोर्ट ने अपील की स्वीकार्यता के निर्धारण में कोई गलती नहीं की है। पीठ ने, हालांकि अपील को यह कहते हुए आंशिक रूप से मंजूर कर लिया कि हाईकोर्ट को आरोपी के कानूनी वारिस को जुर्माने के खिलाफ अपनी बात कहने का एक मौका अवश्य देना चाहिए था। यह जुर्माना आरोपी के कानूनी वारिसों की सम्पत्तियों से वसूला जा सकता था। मुकदमे का ब्योरा :- केस का नाम : रमेशन (मृत) कानूनी प्रतिनिधि गिरिजा के माध्यम से/ बनाम केरल सरकार केस नं. – क्रिमिनल अपील सं. 77/2020 कोरम : न्यायमूर्ति अशोक भूषण एवं न्यायमूर्ति एम आर शाह 

केरल हाईकोर्ट में एडवोकेट कमिश्नर को ह्वाट्सअप /ई मेल पर नोट्स देने की अनुमति दी

केरल हाईकोर्ट ने एडवोकेट कमिश्नर को व्हाट्सएप/ईमेल पर नोटिस देने की अनुमति दी 

 22 Jan 2020 3:50 

       एक उल्लेखनीय घटनाक्रम में केरल हाईकोर्ट ने एडवोकेट कमिश्नर को व्हाट्सएप / ई-मेल के माध्यम से संबंधित पक्षकारों को नोटिस देने की अनुमति दी है। यह आदेश मेडिकल कॉलेज के छात्रावास में कथित रूप से खराब रहने की स्थिति से संबंधित मामले की सुनवाई के दौरान दिया गया। राज्य के मामलों में एक स्टेटस रिपोर्ट के लिए न्यायमूर्ति एस वी भट्टी ने एक एडवोकेट कमिश्नर नियुक्त किया। एडवोकेट कमिश्नर को आदेश प्राप्त होने की तिथि से 12 घंटे के भीतर छात्रावास का निरीक्षण करने के लिए कहा गया था। कमिश्नर को फैक्स, ईमेल / व्हाट्सएप द्वारा मेडिकल कॉलेज को नोटिस भेजने के लिए भी कहा गया, जो निरीक्षण करने से पहले व्यावहारिक है। कोर्ट ने व्हाट्सएप / ईमेल को सम्मन की सेवा के वैध तरीकों के रूप में मान्यता देना शुरू कर दिया है। हाल के कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं। 

(i) क्रॉस टेलीविजन इंडिया प्रा. लिमिटेड और अन्य बनाम विक्रांत चित्र प्रोडक्शंस और अन्य जहां बॉम्बे हाईकोर्ट ने नोटिस की सेवा व्हाट्सएप के माध्यम से देने का निर्देश दिया।

 (ii) एसबीआई कार्ड्स एंड पेमेंट सर्विसेज प्रा. लिमिटेड जहां बॉम्बे हाईकोर्ट ने स्वीकार कियाकि पीडीएफ फॉर्मेट में नोटिस जो व्हाट्सएप के माध्यम से दिया गया है, वैध है। 

(iii) मीना प्रिंट्स प्रा. लिमिटेड बनाम वाहिनी एंटरप्राइजेज और अन्य। जहां बॉम्बे हाईकोर्ट ने व्हाट्सएप / ईमेल के माध्यम से आदेश की एक प्रति देने का निर्देश दिया। 

(iv) जोतिंद्र स्टील एंड ट्यूब्स लिमिटेड बनाम एम.वी. खलीजा और अन्य। यहां भी बॉम्बे हाईकोर्ट ने आदेश की एक प्रति ईमेल या व्हाट्सएप द्वारा देने का निर्देश दिया। 

(v) मोनिका रानी और अन्य बनाम हरियाणा और अन्य राज्य में पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने 'व्हाट्सएप संदेश' के माध्यम से एफडीआर की प्रति भेजने का निर्देश दिया। 

(vi) डॉक्टर माधव विश्वनाथ बनाम एम / एस। बेंडले ब्रदर्स में बॉम्बे हाईकोर्ट ने समन की प्रतिस्थापित सेवा के लिए ईमेल / व्हाट्सएप पर विचार करने के लिए कहा। 

क्या सांसद/विधायक वकालात कर सकते हैं क्या?

क्या सांसद/विधायक वकालत कर सकते हैं, जानिए अधिवक्ता अधिनियम और सुप्रीम कोर्ट का विचार 

 22 Jan 2020 9:27 
          वकालत पेशे से जुड़ा हर व्यक्ति यह मानता और महसूस करता है कि वकील, मुखर प्रकृति के होते हैं और वे अपनी तार्किक सोच के लिए दुनियाभर में जाने जाते हैं। कानून की शिक्षा ग्रहण करने के पश्च्यात, उन्हें कानून को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है। अंतत: देश को कानून के शासन के अनुसार ही चलना होता है। यही कारण है कि हमारे संसद में और विभिन्न राज्यों के विधायी सदनों में हमे तमाम कानून के जानकार एवं वकील, सदस्य के रूप में दिखाई पड़ते हैं। जैसा कि हम जानते हैं, कानून बनाना विधायिका का कार्य है और इसमें वकीलों का सीधे तौर पर तो कोई हस्तक्षेप नहीं होता है, लेकिन हाँ, यदि हम संसद/विधानसभाओं/विधानपरिषदों में मौजूद तमाम सदस्यों को देखें तो हम यह पाएंगे कि उनमे से कई सदस्यगण या तो वकालत कर चुके हुए होते हैं या उन्होंने कानून की शिक्षा ले रखी होती है।
          आजादी से लेकर अबतक, संसद और प्रत्येक राज्य के विधायी सदनों के सदस्यों के शैक्षिक एवं उनके पेशे को देखकर यह बात साबित भी की जा सकती है। हम यह भी जानते हैं कि जब भी कोई कानून, विधायिका द्वारा बनाया जाता है, तो उससे पहले जब उसकी ड्राफ्टिंग होती है या उसपर आंतरिक चर्चा होती है तो उसमे भी कानून के जानकर/वकीलों द्वारा (या सदन के सदस्यों के रूप में, कमिटी सदस्य के रूप में या अन्यथा) एक अहम् भूमिका निभाई जाती है एवं उनकी भी राय ली जाती है जिससे वह कानून बेहतर से बेहतर हो सके। यहाँ यह सवाल अवश्य उठता है कि जब कानून बनाने की प्रक्रिया एवं उसे पारित करने में वकालत पेशे से जुड़े व्यक्तियों की भी एक अहम् भूमिका होती है तो क्या हमारे संसद एवं विधानसभा/विधानपरिषद् सदस्यों को, किसी सदन का हिस्सा होते हुए वकालत करने की अनुमति दी जानी चाहिए? 
      यह सवाल इसलिए बेहद अहम् है क्योंकि जहाँ एक ओर जनप्रतिनिधि होने के नाते एक व्यक्ति को सरकारी फण्ड से वेतन/भत्ता प्राप्त होता है और उसका ज्यादातर समय जनप्रतिनिधि के तौर पर कार्य करते हुए बीतता है, वहीँ दूसरी ओर अधिवक्ता अधिनियम, 1961, एक वकील से यह अपेक्षा रखता है कि वह इस पेशे के प्रति पूर्णकालिक संलग्नता बनाये रखे और जब वो कहीं और से वेतन प्राप्त कर रहा हो तो वह वकील के तौर पर अदालत में प्रैक्टिस न करे। इस लेख में हम इसी विषय पर चर्चा करेंगे और जानेंगे कि क्या एक सांसद या विधायक को वकालत करने की अनुमति है। वकालत पेशा: एक पूर्णकालिक गतिविधि?
       जैसा कि हम अनुभव करते हैं, वकालत का पेशा एक पूर्णकालिक गतिविधि है। यह जगजाहिर है कि एक वकील को हर अगले दिन, अदालत में बहस के लिए अपने मामलों को तैयार करने के लिए हर रोज काफी मेहनत करनी पड़ती है। जब वकील अदालतों में अपने मुवक्किल के लिए पेश होते हैं तो यह प्रतिदिन किसी परीक्षा से गुजरने जैसा होता है। अदालत में घंटों की मेहनत के बाद वकीलों को अपने या अपने सीनियर के चैंबर में भी कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। वकील को अपने क्लाइंट की दिक्कतों/समस्याओं को सुनना और सुलझाना होता है, उसकी काउन्सलिंग करनी पड़ती है और नए मुवक्किलों की परामर्श के लिए भी स्वयं उपलब्ध होना पड़ता है। 
     एक वकील के रूप में अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन को जारी रखने एवं अपने क्लाइंट के हितों को सर्वोपरि रखने के लिए वकीलों को अपने पेशे पर पूरा ध्यान और समय देने की आवश्यकता होती है। अपने कानूनी पेशे के अलावा अन्य महवपूर्ण चीज़ों पर ध्यान देने से निश्चित रूप से एक वकील की पेशेवर क्षमता और विशेषज्ञता पर प्रभाव पड़ता है।
         बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया रूल्स क्या कहता है? यह निर्विवाद है कि बार काउंसिल ऑफ इंडिया को अधिवक्ताओं के नामांकन और अधिवक्ताओं के पेशेवर आचरण के सम्बन्ध में नियमों और शर्तों को विनियमित करने का कार्य और कर्तव्य दिया गया है। गौरतलब है कि वकीलों के लिए वकील के तौर पर बने रहने के लिए जिन शर्तों/प्रतिबंधों को लागू किया जाना है, वे उचित होने चाहिए। 
       जैसा कि हम जानते हैं, भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के अनुसार भी, किसी भी व्यक्ति को किसी भी पेशे को अपनाने के लिए दिया गया अधिकार, अपने आप में एक पूर्ण अधिकार नहीं होता है और इस अधिकार के उपयोग पर उचित प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। हालाँकि यह जरुरी है कि यह प्रतिबंध, स्पष्ट रूप से या तो अधिवक्ता अधिनियम, 1961 या उसके अंतर्गत बनाए गए नियमों के तहत होने चाहिए (एवं ये अनुचित नहीं होने चाहिए)। उक्त अधिनियम का अध्याय IV, एक व्यक्ति के एक वकील के रूप में प्रैक्टिस करने के अधिकार से संबंधित है। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 49, उप-धारा (1) (ए) से (जे) में निर्दिष्ट मामलों के तहत अपने कार्यों के निर्वहन के लिए नियम बनाने के लिए बार काउंसिल ऑफ इंडिया को अधिकार देती है। 
        बार काउंसिल, पहले ही उक्त अधिनियम की धारा 16 (3) और 49 (1) (जी) के तहत अपनी शक्तियों के प्रयोग में, वकीलों द्वारा अन्य व्यवसाय/पेशे को अपनाने पर प्रतिबंध के बारे में नियम तैयार कर चुकी है। उक्त नियमों के भाग VI में सेक्शन VII, हमारे आज के लेख के विषय से संबंधित है, जिसका नियम 49 यह कहता है कि, कोई एडवोकेट, अगर वह प्रैक्टिस कर रहा है, तो उसको उस दौरान किसी लाभ के पद (वेतन प्राप्त होने वाली नौकरी) पर आसीन नहीं होना चाहिए। रूल 49 - एक अधिवक्ता किसी भी व्यक्ति, सरकार, फर्म, निगम या कंसर्न का पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी नहीं होगा, इसलिए जब तक वह इस तरह के किसी भी रोजगार को जारी रखता है, और इस तरह के रोजगार लेने पर, वह व्यक्ति/अधिवक्ता उस बार काउंसिल को यह तथ्य बताएगा जिसके रोल के अंतर्गत उसका नाम मौजूद है और वह अधिवक्ता के रूप में अभ्यास करना तबतक बंद कर देगा, जब तक कि वह ऐसे रोजगार में रहना जारी रखता है। 
      दरअसल यह नियम, वकालत पेशे के प्रति वकीलों का सम्पूर्ण ध्यान एवं समर्पण सुनिश्चित करने और अपना सर्वश्रेष्ठ देने के लिए लागू किया गया है, ताकि वकील, अदालत के एक अधिकारी के रूप में अपनी भूमिका को असल मायनों में पूरा कर सकें और न्याय के प्रशासन में अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दे सकें। और इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता है कि यह नियम, किसी भी तरह से मनमाना है या यह वकीलों पर अनुचित प्रतिबंध लगाता है। 
        डॉक्टर हनिराज एल. चुलानी बनाम बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र और गोवा 1996 SCC (3) 342 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह माना था कि एक व्यक्ति, जो एक वकील होने के योग्य है, उसे वकील के रूप में प्रैक्टिस करने की इजाजत उन मामलों में नहीं दी जा सकती जहाँ वह पूर्णकालिक या अंशकालिक सेवा या रोजगार में है। 
       हालांकि, बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया रूल्स का नियम 49 वहां लागू होता है, जहां एक वकील, किसी भी व्यक्ति, सरकार, फर्म, निगम या कंसर्न का पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी होता है।
         स्पष्ट रूप से, विधायकों या सांसदों को पूर्ण वेतनभोगी कर्मचारियों की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। हम इस बात को लेख में आगे समझेंगे। सांसदों एवं विधायकों के कार्य की प्रकृति सांसदों और विधायकों का कार्य अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण होता है; वे संसद और विधानसभाओं/विधानपरिषदों के पूर्णकालिक होते सदस्य हैं। उन्हें सदन की कार्यवाही में भाग लेना होता है, अपने निर्वाचन क्षेत्रों के लोगों से मिलना होता है, और लोगों के मुद्दों से जूझना पड़ता है। उनके काम को सुविधाजनक बनाने के लिए, उन्हें एक बंगला और एक कार, एक कार्यालय और वेतन भी दिया जाता है जिससे वे अपना कार्य बेहद सुचारू ढंग से कर सकें। जैसा कि हमने जाना, बार काउंसिल ऑफ इंडिया के नियम 49 में यह कहा गया है कि कोई भी पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी, चाहे वह निगम का हो, निजी फर्म का हो या सरकार का हो, कानून की अदालत के समक्ष वकील के रूप में प्रैक्टिस नहीं कर सकता है। 
        कोई भी लोक सेवक, किसी अन्य पेशे/व्यवसाय में संलग्न नहीं हो सकता है और निश्चित रूप से वह लोक सेवा में रहते हुए वकील के रूप में अपनी सेवाएं नहीं दे सकता है। 
        एम. करुणानिधि बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1979) 3 SCC 431 के मामले में 5 न्यायाधीशों वाली बेंच ने यह स्पष्ट रूप से कहा था कि सांसद और विधायक, जनता के सेवक हैं (हालांकि नियोक्ता-कर्मचारी संबंध उनके लिए लागू नहीं होंगे)।.    
         दरअसल श्री करुणानिधि ने उनके ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोप से सम्बंधित इस मामले में यह तर्क दिया था कि वह एक लोक सेवक नहीं थे। सांसदों/विधायकों/एमएलसी की स्थिति, सदन (संसद/राज्य विधायी सदन) के सदस्य की होती है। सिर्फ यह तथ्य कि वे The Salary, Allowances and Pension of Members of Parliament Act, 1954 के तहत या उक्त अधिनियम के तहत बनाए गए संबंधित नियमों के तहत, अलग-अलग भत्तों के तहत वेतन प्राप्त करते हैं, यह नहीं कहा जा सकता कि सरकार और विधायकों/सांसदों के बीच नियोक्ता और कर्मचारी (Employer-Employee) के संबंध का निर्माण हो जाता है।
 भले ही उनके द्वारा प्राप्त भुगतान को वेतन का नाम दिया जाता हो। वास्तव में, विधायकों/सांसदों को लोक सेवक माना जाता है, लेकिन उनकी स्थिति सुई जेनेरिस है और निश्चित रूप से वे किसी भी व्यक्ति, सरकार, फर्म, निगम या इस तरह के कंसर्न के पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी में से एक नहीं बन जाते है (इसलिए बार काउंसिल रूल्स का रूल 49 उनपर लागू नहीं हो सकता है)। 
         इसके अलावा सदन के अध्यक्ष द्वारा विधायकों/सांसदों के खिलाफ अनुशासनात्मक या विशेषाधिकार कार्रवाई शुरू की जा सकती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारियों के रूप में माना जा सकता है। क्या विधायक एवं सांसद को वकालत करने की है अनुमति? हालाँकि, इस सवाल का जवाब शायद आपको अबतक मिल गया होगा, लेकिन फिर भी यदि एक वाक्य में कहना हो तो हम यह कह सकते हैं कि सांसदों एवं विधायकों को वकालत करने से रोकने के सम्बन्ध में कोई भी नियम मौजूद नहीं है। अर्थात, वे बिना रोक-टोक वकालत कर सकते हैं। इसके अलावा वर्ष 2018 में अश्विनी उपाध्याय बनाम भारत संघ [WRIT PETITION (CIVIL) NO।95 OF 2018] के मामले में अदालत ने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अंतर्गत ऐसा कोई सीधा प्रावधान/नियम नहीं है जो यह सुझाव दे सके कि चुने गए जनप्रतिनिधियों, सांसदों/विधायकों/ एमएलसी पर एक वकील बने रहने के सम्बन्ध में कोई प्रतिबंध लगाया गया है।
         अदालत ने यह भी कहा कि जब ऐसा कोई नियम/प्रावधान अधिनियम में मौजूद नहीं है तो न्यायालय द्वारा, जनप्रतिनिधियों को उस समय के दौरान जब वे सांसद/विधायक/एमएलसी हैं, अदालत में वकील के रूप में प्रैक्टिस करने से वंचित नहीं किया जा सकता है। जैसा कि डॉ. हनिराज एल चुलानी के मामले में अदालत द्वारा कहा गया है, यह बार काउंसिल ऑफ इंडिया का कर्त्तव्य है कि वे अपनी नियमावली के अंतर्गत उचित प्रतिबंधों को जगह दें। आज तक, चुने हुए जनप्रतिनिधियों पर वकालते प्रैक्टिस करने पर प्रतिबंधित लगाने के लिए कोई नियम नहीं बनाया गया है, इसलिए उनपर अदालत में वकील के रूप में प्रैक्टिस करने पर कोई रोक नहीं है। यह हम यह भी कह सकते हैं कि हमारी संसद एवं राज्यों के विधायी सदन, विभिन्न प्रतिभाओं, विभिन्न अनुभवों और विभिन्न व्यावसायिक कौशल द्वारा समृद्ध होने के हकदार हैं।

Tuesday, January 21, 2020

कोई भी धर्म पूजा के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देता


कोई भी धर्म पूजा के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देताः इलाहाबाद हाईकोर्ट ने म‌स्जिदों में लाउस्पीकर्स लगाने की इजाजत देने से किया इनकार

21 Jan 2020 4:30 AM


     कोई भी धर्म पूजा के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देताः इलाहाबाद हाईकोर्ट ने म‌स्जिदों में लाउस्पीकर्स लगाने की इजाजत देने से किया इनकार
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कोई भी धर्म पूजा के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देता। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह कहते हुए दो मस्जिदों की अजान के लिए लाउडस्पीकर लगाने की अनुमति की मांग को खार‌िज कर दिया है।

जस्ट‌िस पंकज मिठल और जस्टिस विपिन चंद्र दीक्षित ने अपने आदेश में कहा, "कोई भी धर्म ये आदेश या उपदेश नहीं देता है कि ध्वनि विस्तारक यंत्रों के जर‌िए प्रार्थना की जाए या प्रार्थना के लिए ड्रम बजाए जाएं और यदि ऐसी कोई परंपरा है, तो उससे दूसरों के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए, न किसी को परेशान किया जाना चा‌हिए।"

मामले में चर्च ऑफ गॉड (फुल गोस्पेल) इन इंडिया बनाम केकेआर मैजेस्टिक कॉलोनी वेलफेयर एसोसिएशन एंड ऑर्म्स, 2000 (7) एससीसी 282 के फैसले पर भरोसा किया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत प्रदत्त अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन हैं।

ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) नियम, 2000 के नियम 5 के तहत संबंधित प्राध‌िकरण की अनुमति के बिना सार्वजनिक स्‍थलों पर लाउडस्पीकर / पब्लिक एड्रेस सिस्टम/ ध्वनि उत्पादक यंत्र/ उपकरण या एम्पलीफायर का उपयोग नहीं किया जा सकता है। मामले में याचिकाकर्ताओं ने धार्मिक स्थलों पर एम्पलीफायरों और लाउडस्पीकरों के लाइसेंस का नवीनीकरण और इस्तेमाल की अनुमति मांगी थी।

याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि यह उनकी धार्मिक परंपरा का एक अनिवार्य हिस्सा है और बढ़ती आबादी के मद्देनजर एम्पलीफायरों और लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल कर लोगों को प्रार्थना के लिए बुलाना आवश्यक हो गया है।

हाईकोर्ट ने उक्त दलील को खारिज करते हुए कहा कि-

"यह सच है कि जैसा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 (1)के तहत गारंटीकृत है कि कोई भी व्यक्ति अपने धर्म का पालन, प्रचार और प्रसार कर सकता है, हालांकि उक्त अधिकार निरपेक्ष अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 25 के तहत प्रदत्त अधिकार व्यापक स्तर पर अनुच्छेद 19 1) (ए) के अधीन है और इस तरह दोनों को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए और सामंजस्यपूर्ण ढंग से लागू किया जाना चाहिए।"

मामले में आचार्य महाराजश्री नरंद्रप्रसादजी आनंदप्रसादजी महाराज बनाम गुजरात राज्य, 1975 (1) एससीसी 11 के फैसले पर भरोसा किया गया।

कोर्ट ने कहा कि मामले में शामिल मस्जिदें, जिस क्षेत्र में हैं, वो हिंदू और मुसलमानों की मिश्रित आबादी का इलाका है, और अतीत में इस मसले पर हुए विवादों ने गंभीर रूप ले चुके हैं। इसलिए अगर किसी भी पक्ष को साउंड एम्पलीफायरों का उपयोग करने की अनुमति दी जाती है तो दो समूहों के बीच तनाव बढ़ने की आशंका होगी।

कोर्ट ने कहा कि अधिकारियों ने लाउडस्पीकरों के उपयोग की अनुमति न देकर ठीक ही किया, विशेष रूप से उस इलाके में जहां दो धार्मिक समूहों के बीच दुश्मनी पैदा होने की संभावना थी, जिससे कानून और व्यवस्था की स्थिति पैदा हो सकती थी।

कोर्ट ने कहा कि "किसी भी क्षेत्र में कानून और व्यवस्था की स्थिति बनाए रखने की जिम्मेदारी के साथ प्रशासनिक अधिकारियों की होती है और वो अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए बाध्य होते हैं और उन्हें ये सुनिश्चित करना होता है कि क्षेत्र की शांति और व्यवस्‍था भंग न हो और अगर किसी घटना के संबंध में कोई तनाव या विवाद हो तो उस पर सुलह और समझौता किया जा सकता है। इस प्रकार, उन पर तनाव कम करने और यह सुनिश्चित करने के जिम्‍मेदारी होती है कि क्षेत्र में शांति बनी रहे।"

अदालत ने ध्वनि प्रदूषण और इससे सार्वजनिक स्वास्थ्य और शांति होने वाले नुकसान पर कहा-

"... भारत में लोगों को इस बात का एहसास नहीं है कि शोर अपने आप में एक प्रकार का प्रदूषण है। वे स्वास्थ्य पर इसके बुरे प्रभावों को लेकर पूरी तरह से सचेत भी नहीं हैं। हालांकि हाल के दिनों में इसके बारे में कुछ चिंता दिखाई दी है। "

कोर्ट ने कहा कि, दूसरी ओर, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, विशेष रूप से अमेरिका, इंग्लैंड और ऐसे अन्य देशों में, लोग ध्वनि प्रदूषण को लेकर काफी सचेत हैं और वे अपनी कारों के हॉर्न भी नहीं बजाते हैं और हॉन्‍किंग को बुरा व्यवहार माना जाता है, क्योंकि इससे न केवल दूसरों को असुविधा होती है बल्कि पर्यावरण को भी नुकसान होता है।

ध्‍वनि प्रदूषण (V), IN RE, 2005 (8) SCC 796 के नियमों में कहा गया है और जहां सुप्रीम कोर्ट ने राय दी है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत अभिव्यक्ति की आजादी आजादी किसी भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, हालांकि ये निरपेक्ष नहीं है। कोई भी व्यक्ति अपनी आवाज़ को बढ़ाने के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल को अपना मौलिक अधिकार बताने का दावा नहीं कर सकता क्योंकि प्रत्येक नागरिक को अपने घर में आराम और शांति से रहने का मौलिक अधिकार है।

"सार्वभौमिक रूप से स्वीकार्य हो चुका है कि शोर मनुष्य के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभावित डालता है। शोर बहरेपन, उच्च रक्तचाप, अवसाद, थकान और झुंझलाहट का कारण हो सकता है। अत्यधिक शोर से हृदय संबंधी बीमारियों, न्यूरोसिस और नर्वस ब्रेकडाउन जैसी ब‌ीमारियां हो सकती हैं।

हाईकोर्ट ने कहा, हमारा स्पष्ट मत है कि कोर्ट को अपने असाधारण क्षेत्राधिकार को प्रयोग करते हुए इस मामले में किसी तरह के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है, ऐसा करने से सामाजिक असंतुलन पैदा हो सकता है, ।

उल्‍लेखनीय है कि पिछले साल इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्य में डीजे के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था |

Monday, January 20, 2020

सबूत का भार जानिये


क्या होता है सबूत का भार? जानिए साक्ष्य अधिनियम की खास बातें

19 Jan 2020 

      साक्ष्य विधि का कार्य उन नियमों का प्रतिपादन करना है, जिनके द्वारा न्यायालय के समक्ष तथ्य साबित और खारिज किए जाते हैं। किसी तथ्य को साबित करने के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जा सकती है, उसके नियम साक्ष्य विधि द्वारा तय किये जाते हैं। साक्ष्य विधि अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण विधि है।

         समस्त भारत की न्याय प्रक्रिया भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की बुनियाद पर टिकी हुई है। साक्ष्य अधिनियम आपराधिक तथा सिविल दोनों प्रकार की विधियों में निर्णायक भूमिका निभाता है। इस साक्ष्य अधिनियम के माध्यम से ही यह तय किया जाता है कि सबूत को स्वीकार किया जाएगा या नहीं किया जाएगा।

         अधिनियम को बनाने का उद्देश्य साक्ष्यों के संबंध में सहिंताबद्ध विधि का निर्माण करना है, जिसके माध्यम से मूल विधि के सिद्धांतों तक पहुंचा जा सके। इस साक्ष्य अधिनियम के माध्यम से ही जो इतने सारे अधिनियम बनाए गए हैं, उनके लक्ष्य तक पहुंचा जाता है।

         कोई भी कार्यवाही या अभियोजन चलाया जाता है, अभियोजन पूर्ण रूप से इस अधिनियम पर ही आधारित होता है। बिना साक्ष्य अधिनियम के अभियोजन चलाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है तथा किसी भी सिविल राइट को बरकरार नहीं रखा जा सकता है। साक्ष्य अधिनियम 1872 अपने निर्माण से आज तक सबसे कम संशोधित किया गया है।

          साक्ष्य अधिनियम 1872 की प्रस्तावना से यह स्पष्ट है कि यह अधिनियम विशाल है, क्योंकि यह साक्ष्य विधि की कल्पना की परिभाषा देता है, समेकित करता है तथा संशोधन करता है।

साक्ष्य विधि में 'सबूत का भार' सिद्धांत

        साक्ष्य विधि में 'सबूत का भार' सिद्धांत का अत्यंत महत्व है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम में भी सबूत के भार का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। यह कहा जा सकता है कि सबूत का भार सिद्धांत साक्ष्य अधिनियम के मूल सिद्धांतों में से एक है तथा यह सिद्धांत साक्ष्य विधियों का मूलभूत सिद्धांत है।

        सबूत का भार सिद्धांत की परिभाषा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 101 में दी गई है। इस परिभाषा के अंतर्गत यह बताया गया है कि सबूत का भार किस व्यक्ति पर होगा। इस परिभाषा के अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य को साबित करने के लिए आबद्ध है, तब यह कहा जाता है कि उस व्यक्ति पर सबूत का भार है।

       जब किसी तथ्य को साबित करने के लिए सबूतों को लाने की आवश्यकता होती है। सबूतों को लाने का दायित्व भी किसी व्यक्ति पर बनता है। किसी वाद या कार्यवाही के भीतर सबूतों का भार किस व्यक्ति पर होगा। तथ्य को कौन व्यक्ति साबित करेगा तथा कौन सबूत पेश करेगा यह तय करना सबूत का भार सिद्धांत के अंतर्गत किया जाता है। प्रत्येक पक्षकार को ऐसे तथ्य स्थापित करने होते हैं जो उसके पक्ष में हो तो दूसरे पक्षकारों के विपक्ष में हो

साक्ष्य अधिनियम की धारा 101 के अंतर्गत

       "जो कोई न्यायालय से यह चाहता है कि वह ऐसे किसी विधिक अधिकार या दायित्व के बारे में निर्णय दे, जो तथ्यों के अस्तित्व पर निर्भर है, जिन्हें वह प्राख्यान करता है,उसे साबित करना होगा कि उन तथ्यों का अस्तित्व है। जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य का अस्तित्व साबित करने के लिए आबद्ध है तब यह कहा जाता है कि उस व्यक्ति पर सबूत का भार है।"

       धारा का यह सिद्धांत यह है कि जो पक्षकार किसी तथ्य के अस्तित्व के बारे में न्यायालय का समाधान करवाना चाहता है और उसके के आधार पर निर्णय चाहता है, ऐसे तथ्य को साबित करने का भार उसी पर होगा।

        अगर कोई व्यक्ति कोई संपत्ति इस आधार पर काबिज से प्राप्त करना चाहता है कि वह संपत्ति का मालिक है तो उसे ही अस्तित्व साबित करना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति न्यायालय में किसी व्यक्ति को किसी अपराध में सजा दिलवाना चाहे तो अभियोजन चलाने वालों को सिद्ध करना होगा कि वह व्यक्ति अपराध का दोषी है।

        एक प्रकार से सिद्धांत को इस प्रकार समझा जा सकता है कि जो व्यक्ति आरोप लगाता है, उसी व्यक्ति के ऊपर सबूत का भार आता है, अर्थात सबूत की जिम्मेदारी आरोप लगाने वाले व्यक्ति पर ही आती है।

सबूत के भार और साबित करने का भार

        सबूत के भार तथा साबित करने के भार की तुलना करते हुए गुजरात उच्च न्यायालय ने कहा है कि इनमें एक आवश्यक भेद है। सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जिसे कोई तथ्य साबित करना होता है और यह कभी बदलता नहीं है, परंतु साबित करने का भार का स्थान बदलता रहता है।साक्ष्य के मूल्यांकन में इस का भार लगातार बदलता रहता है।

        किसी भी वाद तथा कार्यवाही में साबित करने का भार निरंतर बदलता रहता है। यह भार कभी किस पक्षकार पर कभी किस पक्षकार निरंतर अपना स्थान बदलता है।

सबूत का भार किस पक्षकार पर होता है

        यह धारा यह ध्यान आकर्षित करती है कि-अगर किसी भी ओर से साक्ष्य ना दिया जाए तो जिस पक्षकार की बात विफल हो जाएगी उसी पर साबित करने का भार होता है। अगर क ने ख पर उधार धन वसूली और मध्यवर्ती लाभ के लिए कोई वाद दायर किया है तो अगर कोई भी पक्षकार साक्ष्य ना दे पाए तो क का दवा विफल हो जाए, इसलिए क पर साबित करने का भार है।

        साक्ष्य अधिनियम की धारा 102 के अंतर्गत सबूत का भार किस पर होगा यह प्रावधान किया गया है। यह धारा कहती है कि

         "किसी वाद या कार्यवाही में सबूत का भार उस व्यक्ति पर होगा जो असफल हो जाएगा यदि दोनों में से किसी भी ओर से कोई भी साक्ष्य न दिया जाएं।"
         इस सिद्धान्त से संबंधित महत्वपूर्ण वाद हुआ है, जिसे के ऐम नानावती बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्रए का मामला कहा जाता है। इस मामले में बीवी के प्रेमी की गोली मारकर उसके पति द्वारा हत्या की गई थी। महिला का पति नेवल ऑफिसर था। उसकी बीवी ने जारकर्म की संस्वीकृति की थी उसने बताया था कि उसका प्रेमी उसके घर आया तथा वह दोनों पति द्वारा रंगे हाथों पकड़े गए थे।

         पति ने अपनी रिवाल्वर निकाली तथा गोली अचानक चल गई। गोली चलने से प्रेमी आहूजा की मौके पर मृत्यु हो गई। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह दर्शाने का भार अभियुक्त पर था कि उनका संघर्ष हुआ, कि गोली या तो अचानक चल गई या आत्मरक्षा में चलाई गई। उसे दोषी पाया गया क्योंकि ऐसी कोई बात साबित नहीं कर पाया था।

        मेवा देवी बनाम रामप्रकाश के मामले में एक मोटर द्वारा दो व्यक्तियों को कुचल दिया गया था। मोटर के मालिक का यह कहना था कि स्ट्रिंग तथा ब्रेक के फेल हो जाने के कारण दुर्घटना हुई थी। न्यायालय ने कहा कि उसे ही यह साबित करना होगा और यह भी कि उसने गाड़ी सड़क के योग्य बचाए रखने के लिए उचित सावधानी बरती थी।  यहां पर इस प्रकरण के द्वारा न्यायलय ने स्पष्ट बताया है की यदि व्यक्ति अपवाद के सहारे बचना चाहता है तो उसको अपवाद को सिद्ध करने का भार उसी व्यक्ति पर होगा जो अपवाद के माध्यम से लाभ लेना चाहता है। यदि मोटर ब्रेक फेल होने का कारण लोगों पर चढ़ी थी और इसी के कारण लोगों की जान गई तो साबित करने का भार मोटर मालिक पर होगा उस व्यक्ति पर होगा जिस पर अभियोजन चलाया जा रहा है या जिस पर प्रतिकर के लिए मुकदमा लाया गया है।

        प्रबोध कुमार दास बनाम प्रफुल्ल कुमार दास के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है वसीयत के मामले में शुरू में साबित करने का भार उसी व्यक्ति पर होता है जो इसका लाभ लेना चाहता है। यह और भी भारी हो जाता है जब संदेह पैदा करने वाली परिस्थितियां भी रही हो।एक वसीयत का सही होने के बारे में कोलकाता उच्च न्यायालय इस कारण यकीन हो गया कि वसीयतकर्ता नि संतान था अपने अंतिम दिनों में भाई के लड़के के साथ रह रहा था।उसने उसे उसकी संपत्ति भी दी थी।

           एक अनपढ़ घूंघट में रहने वाली स्त्री ने अपने लड़के के पक्ष में अपनी कुल संपत्ति का दान पत्र हस्ताक्षरित किया। यह भार लड़के पर था। यह तथ्य साबित करे कि वह वैध दस्तावेज था, पूर्ण स्वतंत्रता से हस्ताक्षरित हुआ था। न्यायालय ने उस सबूत को मंजूर नहीं किया क्योंकि वसीयत नामे में तात्विक कमियां थी। यह निर्णय रनका निधि साहू बनाम नंद किशोरी साहू के मामले में दिया गया है।


Saturday, January 11, 2020

सी. आर. पी. सी. की धारा144 का प्रयोग विचारों की वैद्ध अभिव्यक्ति को रोकने के टूल के रूप में नहीं किया जा सकता


सीआरपीसी की धारा 144 का इस्तेमाल विचारों की वैध अभिव्यक्ति को रोकने के टूल के रूप में नहीं किया जा सकता : सुप्रीम कोर्ट

11 Jan 2020 


           सीआरपीसी की धारा 144, के तहत मिली शक्ति, उपचारात्मक के साथ-साथ निवारक होने के कारण, न केवल वहां प्रयोग की जाती है जहां खतरा मौजूद है, बल्कि तब भी प्रयोग की जाती है जब खतरे की आशंका हो।
          कश्मीर लॉकडाउन मामले में दिए गए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 144 के तहत मिले अधिकारों को विचारों की वैध अभिव्यक्ति या लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग करने से रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

कोर्ट ने कहा कि

         "सीआरपीसी की धारा 144 के प्रावधान केवल आपातकाल की स्थिति में और कानूनन नियोजित किसी व्यक्ति को बाधा पहुंचाने से रोकने और परेशान करने या चोट से रोकने के उद्देश्य से लागू होगें। सीआरपीसी की धारा 144 के तहत दोहराए गए आदेश, अधिकारों का दुरुपयोग माना जाएगा।''

           पीठ ने सीआरपीसी की धारा 144 के तहत प्रतिबंधों के बारे में अपनी बात शुरू करते हुए कहा कि,

          ''जैसा कि आपात स्थिति सरकार के कार्यों का पूरी तरह से बचाव नहीं करती, असहमति अस्थिरता को उचित नहीं ठहराती, कानून का शासन हमेशा चमकता है।''

          न्यायमूर्ति एनवी रमना, न्यायमूर्ति आर. सुभाष रेड्डी और न्यायमूर्ति बी.आर गवई की पीठ ने सीआरपीसी की धारा 144 के तहत शक्ति के प्रयोग के सिद्धांतों को संक्षेप में प्रस्तुत किया-

         सीआरपीसी की धारा 144, के तहत मिली शक्ति, उपचारात्मक के साथ-साथ निवारक होने के कारण, न केवल वहां प्रयोग की जाती है जहां खतरा मौजूद है, बल्कि वहां भी प्रयोग की जाती है जब खतरे की आशंका हो। हालांकि, खतरे का चिंतन ''आपातकाल'' की प्रकृति का होना चाहिए और कानूनी रूप से नियोजित किसी व्यक्ति को बाधा पहुंचाने और परेशान करने या चोट से रोकने के उद्देश्य से होना चाहिए।

         सीआरपीसी की धारा 144, के तहत मिली शक्ति का उपयोग विचारों या शिकायत की वैध अभिव्यक्ति या लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग करने से रोकने के लिए नहीं किया जा सकता है।

         सीआरपीसी की धारा 144 के तहत पारित एक आदेश, में आवश्यक और भौतिक तथ्यों को बताया जाना चाहिए ताकि उसकी न्यायिक समीक्षा की जा सके। शक्ति का प्रयोग वास्तवकि और उचित तरीके से किया जाना चाहिए, और यह आदेश भौतिक तथ्यों पर भरोसा करके दिया जाना चाहिए, जो समझदारी से लिये गए निर्णय का सूचक भी हो। यह पूर्वोक्त आदेश की न्यायिक जांच को सक्षम बनाएगा।

         सीआरपीसी की धारा 144 के तहत शक्ति का प्रयोग करते समय, मजिस्ट्रेट का कर्तव्य है कि वह आनुपातिकता के सिद्धांतों के आधार पर अधिकारों और प्रतिबंधों को संतुलित करे और उसके बाद कम से कम हस्तक्षेप करने वाले उपाय लागू करे।

          सीआरपीसी की धारा 144 के तहत बार-बार दिए गए आदेश, शक्ति का दुरुपयोग होगा।

        सीआरपीसी की धारा 144 के तहत मिले अधिकारों का प्रयोग उस समय भी किया जा सकता है,जब खतरे की आशंका हो।

          याचिकाकर्ताओं की ओर से दी गई दलीलों में से एक यह थी कि सीआरपीसी की धारा 144 के तहत दिए गए ऐसे आदेश महज आशंका के चलते पारित किए गए जो कानून की नजर में बरकरार नहीं रह सकते।

          इस को खारिज करते हुए, पीठ ने बाबूलाल परते नामक मामले का हवाला दिया ,जिसमें यह माना गया था कि इस धारा के तहत दी गई शक्ति न केवल वहां प्रयोग की जा सकती है, जहां वर्तमान में खतरा मौजूद है, बल्कि खतरे की आशंका होने पर भी प्रयोग करने योग्य है। लेकिन न्यायालय ने यह कहकर उसे सीमित बना दिया कि खतरे की प्रकृति ''आपातकाल''की होनी चाहिए और कानूनी रूप से नियोजित किसी व्यक्ति को बाधा पहुंचाने और परेशान करने या चोट से रोकने के उद्देश्य से होनी चाहिए।

          किसी भी विचार या शिकायत की वैध अभिव्यक्ति और लोकतांत्रिक अधिकारों के उपयोग को रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल नहीं की जा सकती।

          वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल द्वारा व्यक्त की गई चिंता कि भविष्य में कोई भी राज्य इस प्रकार के पूर्ण प्रतिबंध पारित कर सकता है, उदाहरण के लिए, विपक्षी दलों को चुनाव लड़ने या भाग लेने से रोकने के लिए,

इस पर पीठ ने कहा कि-

          ''इस संदर्भ में, यह नोट करना पर्याप्त है कि सीआरपीसी की धारा 144, के तहत मिली शक्ति को विचारों या शिकायत की वैध अभिव्यक्ति और लोकतांत्रिक अधिकारों के उपयोग को रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।

         हमारा संविधान भिन्न विचारों की अभिव्यक्ति, वैध अभिव्यक्तियों और अस्वीकृति की रक्षा करता है और यह सब सीआरपीसी की धारा 144, के आह्वान का आधार नहीं हो सकते हैं। जब तक यह दिखाने के लिए पर्याप्त सामग्री नहीं न हो कि हिंसा होने या सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा को खतरा या भय पैदा होने की आशंका है।

         यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि (''बाबूलाल परते मामला (सुप्रा)'') सीआरपीसी की धारा 144 के प्रावधान केवल आपातकाल की स्थिति और कानूनन नियुक्त किसी भी व्यक्ति को बाधा और परेशान करने या चोट पहुंचाने से रोकने के उद्देश्य से लागू होंगे।

        यह ध्यान देने के लिए पर्याप्त है कि याचिकाकर्ता की आशंकाओं को दूर करने के लिए सीआरपीसी की धारा 144 के तहत पर्याप्त सुरक्षा के उपाय मौजूद हैं, जिनमें इस धारा के तहत शक्ति के दुरुपयोग को चुनौती देने वाली न्यायिक समीक्षा भी शामिल है।''

         एक और विवाद यह था कि 'कानून और व्यवस्था' 'सार्वजनिक व्यवस्था' की तुलना में एक संकीर्ण दायरे में है और 'कानून और व्यवस्था' का आह्वान सीआरपीसी की धारा 144 के तहत प्रतिबंधों के एक संकीर्ण सेट को ही उचित ठहराएगा। इस पर पीठ ने विभिन्न मिसालों का जिक्र करते हुए कहा-

          '' कानून और व्यवस्था', 'सार्वजनिक व्यवस्था' और 'राज्य की सुरक्षा' के अलग-अलग कानूनी मानक हैं और मजिस्ट्रेट को स्थिति की प्रकृति के आधार पर प्रतिबंधों का पालन करना चाहिए। यदि दो परिवार सिंचाई के पानी को लेकर झगड़ा करते हैं, तो यह कानून और व्यवस्था को भंग कर सकता है , लेकिन ऐसी स्थिति में जब दो समुदाय एक दूसरे से लड़ाई करते हैं, तो स्थिति सार्वजनिक व्यवस्था की स्थिति में परिवर्तित हो सकती है।

        हालांकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि उपरोक्त दो अलग स्थितियों का निर्धारण करने के लिए एक समान दृष्टिकोण नहीं अपनाया जा सकता। मजिस्ट्रेट मौजूदा परिस्थितियों के गंभीरता का आकलन किए बिना पूर्ण प्रतिबंध वाला सूत्र लागू नहीं कर सकता प्रतिबंध संबंधित स्थिति के लिए आनुपातिक होना चाहिए।''

शक्ति का उपयोग जिम्मेदारी से किया जाना चाहिए

             पीठ ने यह भी देखा कि इस तरह के आदेश को किसी व्यक्ति विशेष या आम जनता के खिलाफ पारित किया जा सकता है। लेकिन इसमें यह भी कहा गया कि सीआरपीसी की धारा 144 के तहत पारित आदेश, सामान्य रूप से जनता के मौलिक अधिकारों पर प्रत्यक्ष प्रभाव ड़ालता हैं। पीठ ने कहा-

            ''इस तरह की शक्ति, अगर एक आकस्मिक और लापरवाह तरीके से उपयोग की जाती है, तो इसका परिणाम गंभीर अवैधता होगा। इस शक्ति का उपयोग जिम्मेदारी से केवल कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के उपाय के रूप में किया जाना चाहिए।''

न्यायिक समीक्षा की शक्ति का अस्तित्व निर्विवाद है

        इस सवाल पर कि क्या इस तरह के आदेशों की न्यायिक समीक्षा हो सकती है, पीठ ने कहा कि-

          "यह सच है कि हम अपील में नहीं बैठते हैं, हालांकि, न्यायिक समीक्षा की शक्ति का अस्तित्व निर्विवाद है। हमारा विचार है कि यह मजिस्ट्रेट और राज्य पर है कि सार्वजनिक शांति और कानून के लिए संभावित खतरे और 113 आदेश के बारे में एक उपयुक्त या सूचना देने वाला निर्णय लें।

           सार्वजनिक शांति और प्रशांति या कानून और व्यवस्था के लिए खतरे का आकलन करने के लिए राज्य को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया है। हालांकि, कानून के तहत उनको इस बात की आवश्यकता है कि इस शक्ति को लागू करने के लिए भौतिक तथ्यों को बताएं।

           इससे न्यायिक जांच सक्षम होगी और इस बात की जांच हो पाएगी कि क्या पाॅवर के आह्वान या लागू करने को सही ठहराने के लिए पर्याप्त तथ्य मौजूद हैं।

          ऐसी स्थिति में जहां नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगाया जा रहा है, उसे दी गई शक्ति से मनमानी के माध्यम से लागू नहीं किया जा सकता है, बल्कि यह वस्तुनिष्ठ तथ्यों पर आधारित होना चाहिए। सीआरपीसी की धारा 144 के तहत निवारक/ उपचारात्मक उपाय, परिश्रम के प्रकार, प्रादेशिकता की सीमा, प्रतिबंध की प्रकृति और उसी की अवधि के आधार पर होना चाहिए।

           तात्कालिकता की स्थिति में, प्रतिबंध या उपायों को तत्काल लगाने के लिए प्राधिकारी को अपनी राय बनाने के लिए ऐसी सामग्री के बारे में संतुष्ट होने की आवश्यकता होती है जो निवारक / उपचारात्मक हैं। हालांकि, यदि प्राधिकरण एक बड़े प्रादेशिक क्षेत्र पर या लंबी अवधि के लिए प्रतिबंध लगाने पर विचार करता है, तो सीमा रेखा या दहलीज की आवश्यकता अपेक्षाकृत अधिक है।

            सीआरपीसी की धारा 144 के तहत पारित एक आदेश, दिमाग के उचित अनुप्रयोग का संकेत होना चाहिए, जो 114 भौतिक तथ्यों और निर्देशित उपाय पर आधारित होना चाहिए। उचित तर्क, मामले में शामिल विवाद और उसके निष्कर्ष से संबंधित अधिकारी के दिमाग के प्र्योग को जोड़ता है। बुद्धिरहित या एक गुप्त तरीके से पारित आदेशों को कानून के अनुसार पारित आदेश नहीं कहा जा सकता है।"

केस का नाम- अनुराधा भसीन बनाम भारत संघ और गुलाम नबी आजाद बनाम भारत संघ

केस नंबर- डब्ल्यूपी(सी) 1031/19, 1164/19

बेंच- जस्टिस एन.वी रमना,जस्टिस आर. सुभाष रेड्डी और जस्टिस बी. आर गवई

        याचिकाकर्ता के वकील/इंटरव्यूअर्स-एडवोकेट वृंदा ग्रोवर, सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल, हुजैफा अहमदी,दुष्यंत दवे

प्रतिवादी के वकील- अटॉर्नी जनरल के. के वेणुगोपाल और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता

Friday, January 10, 2020

महिलाओं से सम्बन्धित कानून

जानिए महिलाओं से संबंधित भारतीय कानून

 6 Jan 2020 

       विश्व भर में समय-समय पर महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज उठती रही है। भारत में महिलाएं सामाजिक रीति-रिवाजों द्वारा शोषित और दमित होती रही हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व भी महिलाओं पर अत्याचारों की संख्याओं में कोई कमी नहीं थी तथा स्वतंत्रता के बाद भी महिलाओं के संबंध में अत्याचार और अपराध निरंतर घटित हो रहे थे। इन अपराधों के निवारण में कमी एवं इन पर रोक हेतु सशक्त विधान की आवश्यकता थी तथा भारतीय संसद में महिलाओं के संबंध में ऐसे विधान को बनाने से तनिक भी संकोच नहीं किया है। समय-समय पर भारतीय पार्लियामेंट ने महिलाओं से संबंधित विधि का निर्माण किया है। भारतीय संविधान में भी महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित करने के पूर्ण प्रयास किए गए हैं। 


भारतीय संविधान और महिलाएं उद्देशिका प्रस्तावना में महिलाओं का स्थान:  -

        उद्देशिका में वर्णित न्याय स्वतंत्रता समानता और बंधुत्व की स्थापना भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा कल्याणकारी राज्य की स्थापना में अंतर्निहित उद्देश्य को प्रकट करता है। यह उद्देश्य बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के आदर्श वाक्य पर चलकर ही प्राप्त किया जा सकता है। उद्देशिका में प्रकट विचार सभी नागरिकों के संदर्भ में समान रूप से लागू माने जाते हैं। स्त्रियों और पुरुषों के संदर्भ में विभेद कारी नहीं है। 

मूलभूत अधिकारों में महिलाओं का स्थान :   -

          भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में पदावली- विधि के समक्ष समता तथा विधियों का समान संरक्षण का प्रयोग किया गया है। दोनों वाक्यों का उद्देश्य समान न्याय प्रदान करना है। उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पतंजलि शास्त्री के मतानुसार विधि का समान संरक्षण विधि के समक्ष समता का ही उप सिद्धांत है तथा व्यापारिक रूप में दोनों एक ही है। 

अनुच्छेद 15 (3) :  -

           अनुच्छेद 15 3 में स्पष्ट रूप से इंगित किया गया है कि अनुच्छेद 15 में वर्णित प्रावधानों से प्रभावित रहते हुए राज्य महिलाओं के लिए विशेष उपबंध कर सकेगा जो कि उनके लाभ के लिए होगा। अर्थात ऐसी विधि बनाई जा सकती है जो महिलाओं के संबंध में लाभ है। 

वाद जहां महिलाओं के लिए विशेष उपबंध को संवैधानिक स्वीकार किया गया है :  -

        केवल स्त्रियों के लिए शिक्षण संस्थाओं की स्थापना तथा अन्य शिक्षण संस्थाओं में उनके लिए स्थान के आरक्षण को मुंबई उच्च न्यायालय द्वारा दत्तात्रेय बनाम स्टेट के बाद में संवैधानिक घोषित करते हुए कहा गया है कि अनुच्छेद 15 (3) यह संरक्षित है।
          भारत में दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धाराएं 125 और धारा 128 पत्नी स्त्रियों को पुरुष से भरण पोषण प्राप्त करने के अधिकार को मान्यता देते हैं। यह अधिकार केवल पत्नी चाहे वह तलाकशुदा हो या पृथक निवास कर रही हो और विवाह वैध हो तो उसको प्राप्त है। नूर सबा खातून के मामले में सुप्रीम कोर्ट का मत था कि इन प्रावधानों का उद्देश्य आवेदक को तत्कालीन अनुतोष राहत प्रदान करना है, ताकि उसे जीवन की कठिनाइयों से बचाया जा सके तथा उसे जीवन यापन हेतु न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित की जा सके या प्रावधान धर्म समाज समुदाय से निश्चित रहते हुए सभी को उपलब्ध है तथा परित्यक्त पृथक निवास कर रही विवाहित महिलाओं को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए है महिला हित रक्षार्थ विशेष उपबंध होने के कारण इसे संविधान सम्मत माना जाता है। 
        मुसमा चौकी बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान के मामले में दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 437 की वैधानिकता को चुनौती दी गई थी कि यह अनुच्छेद 15 (1) के प्रावधानों का उल्लंघन करता है। परंतु राजस्थान उच्च न्यायालय ने निर्धारित किया कि यह वैध है, क्योंकि यह महिलाओं के लिए विशेष उपबंध करता है तथा संविधान के अनुच्छेद 15 (3) द्वारा संरक्षित है। इसी प्रकार सुरेश कुमारी बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा के मामले में हरियाणा उच्च न्यायालय का अभिमत था की धारा 437 के अंतर्गत महिलाओं के पक्ष में भेदभाव विधि सम्मत है।

 महिलाओं के विरुद्ध अपराध एवं भारतीय दंड संहिता:  -

         भारतीय दंड संहिता1860 में अश्लीलता को परिभाषित नहीं किया गया है। अश्लीलता से संबंधित धाराएं 292, 293, साल 1969 में संशोधित की गई थी। इस संशोधन के माध्यम से विज्ञान साहित्य कला के उद्देश्य हेतु इन धाराओं को उदार बनाया गया है। इस धारा को बनाने का मकसद समाज में महिलाओं के प्रति उस विचार को दूर करना है जो महिलाओं के साथ लिंग आधारित भेदभाव को जन्म देता है। महिलाओं को सेक्स ऑब्जेक्ट की तरह पेश करने वाले विचार को इस धारा के अंतर्गत पूर्णता प्रतिबंधित किया गया है। 

अश्लील कार्य गाने :-

        भारतीय दंड संहिता में महिलाओं के प्रति अश्लील गाने कार्य करना दोनों को दंडनीय अपराध बनाया गया है धारा 294 के अनुसार कोई व्यक्ति किसी लोक स्थान में कोई अश्लील कार्य करेगा इस लोग स्थान में उसके समीप कोई ऐसे अश्लील गाने अथवा गीत पखवाड़े या शब्द गाएगा सुनाएगा उपचारित करेगा, जिससे दूसरों को परेशानी हो वह साधारण या सश्रम दोनों में से किसी भी प्रकार की कारावास से जिसकी अवधि 3 मास तक की हो सकेगी से दोनों से दंडित किया जाएगा।

 स्त्री की लज्जा हेतु भारतीय दंड संहिता के अन्य प्रावधान : -

         धारा 354 में स्त्री की लज्जा भंग करने के आशय से उस पर हमला आपराधिक बल का प्रयोग के विषय में वर्णित है कि जो कोई किसी स्त्री की लज्जा भंग करने के आशय से यह संभव जानते हुए कि ऐसा कार्य करते हुए वह उसकी लज्जा भंग करेगा। उस स्त्री पर हमला करेगा वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से जिसकी अवधि 2 वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जाएगा। इस धारा का लक्ष्य स्त्री के अस्तित्व की रक्षा करना है तथा उसके आत्मसम्मान और उसकी अस्मिता की रक्षा करना है। 

आईएपीसी धारा 376, बलात्कार:  -

       इस अपराध को भारतीय दंड संहिता में बलात्संग भी कहा गया है। यह अत्यंत जघन्य अपराध है। यह अपराध भारत की प्रमुख समस्या बनकर उभरा है। भारतीय दंड संहिता में इस अपराध मे मृत्युदंड तक दंडनीय रखा गया है। 

प्रकृति के विरुद्ध अपराध धारा 377 :-

      इस धारा के अंतर्गत हाल ही के अंदर संशोधन किए गए हैं, परंतु वह संशोधन समलैंगिकों के अधिकारों को सुरक्षित करने हेतु किए गए है। यदि कोई व्यक्ति किसी स्त्री जीव जंतुओं के साथ प्राकृतिक व्यवस्था के विरुद्ध चलते हुए अपनी इच्छा से इंद्रिय भोग करेगा वह आजीवन कारावास से दोनों में से किसी भी भांति के कारावास से जिसकी अवधि 10 वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडित होगा। प्रकृति की अवस्था के विरुद्ध संभोग मुखमैथुन एवं गुदामैथुन को माना गया है। यदि कोई स्त्री को इस प्रकार के संभोग हेतु विवश करता है तो वहां इस अपराध का अपराधी माना जाएगा। 

दहेज संबंधी अपराध आईपीसी 304 बी :  -

         दहेज की मांग न पूरी होने पर वधू की हत्या की घटनाएं निरंतर बढ़ती जा रही हैं। ऐसा विधायिका के संज्ञान में आया। खाना बनाते समय चूल्हे की आग वधु को काल कवलित करती है, ऐसा अधिकतर देखा जाता है। वर पक्ष का कोई भी शायद ही कभी जलकर मरता हो। इस समस्या से प्रभावी ढंग से निपटने हेतु भारतीय दंड संहिता में दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1986 बनने के बाद धारा 304 बी 'दहेज मृत्यु' के नवीन अपराध को जोड़ा गया है। वास्तव में इस संशोधन से पूर्व दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 को दहेज की कुरीति पर नियंत्रण बनाने हेतु अधिनियमित किया गया था, परंतु दहेज की मांग मृत्यु का कारण बनने लगी इसी कुरीति पर प्रभावी अंकुश लगाने के उद्देश्य से भारतीय दंड संहिता की धारा 304 बी तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113 बी जोड़ी गई। यह आजीवन कारावास तक से दंडनीय अपराध है। 

आईपीसी धारा 498 ए :  -

        इस धारा के अंतर्गत पति और उसके नातेदार द्वारा स्त्री के प्रति क्रूरता को रखा गया है। इस क्रूरता में मानसिक एवं शारीरिक दोनों तरह की क्रूरता को स्थान दिया गया है। यदि पति उसके नातेदार स्त्री के विरुद्ध मानसिक एवं शारीरिक क्रूरता करते हैं तो इस धारा के अंतर्गत दंडनीय अपराध है। यह एक संज्ञेय अपराध है और गैर जमानती भी है। 

दूसरा विवाह -

     आईपीसी धारा 494 के अनुसार जो कोई पति या पत्नी के जीवित होते हुए किसी ऐसी दशा में विवाह करेगा, जिसमें ऐसा विवाह इस कारण शून्य है कि वह ऐसे पति या पत्नी के जीवन काल में होता है। इस प्रकार पहले जीवन साथी के जीवित रहने पर दूसरा विवाह करना दंडनीय अपराध है। इसके लिए 7 वर्ष तक की सज़ा का प्रावधान है और दोषी जुर्माने से भी दंडनीय होगा। परंतु यह धारा उन लोगों पर लागू नहीं होती है, जिन लोगों को व्यक्तिगत विधि के अंतर्गत दूसरा विवाह करने का अधिकार अपनी रूढ़ि और प्रथाओं द्वारा दिए गए हैं। जैसे मुस्लिम और आदिवासियों पर यह धारा लागू नहीं होती, क्योंकि मुस्लिम धर्म और आदिवासी रूढ़ियों प्रथाओं के अनुसार कोई पुरुष दूसरा विवाह कर सकता है परंतु स्त्री दूसरा विवाह नहीं कर सकती। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अंतर्गत दूसरे विवाह को प्रतिबंधित किया गया है। 

घरेलू हिंसा अधिनियम :-

          महिलाएं घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण हेतु 2005 में भारतीय संसद द्वारा घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 बनाया गया। इस अधिनियम का उद्देश्य महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा को समाप्त करना था। इस अधिनियम के अंतर्गत पति द्वारा घर से निकाली गई महिला को घर में प्रवेश दिलाने का अधिकार भी दिया गया है या तलाकशुदा महिला को भरण पोषण उसकी संतान को भरण पोषण दिए जाने का अधिकार भी दिया गया है। यह महिलाओं के लिए बनाया गया अत्यंत सार्थक एवं सशक्त कानून है जिसके माध्यम से महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा को रोका जा सकता है। यह कानून हिंसा को रोकने हेतु सार्थक सिद्ध हो रहा है।

 कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न___

        जब महिलाएं घरों से निकलकर वित्तीय मजबूती के लिए कार्य स्थलों पर नौकरियां करने आई तो पुरुषों द्वारा महिलाओं को कार्यस्थल पर भी लैंगिक रूप से उत्पीड़न या यौन उत्पीड़न दिया गया। विशाखा बनाम राजस्थान राज्य नामक मामले में लैंगिक समानता के लिए कार्यरत एक गैर सरकारी संगठन द्वारा जनहित याचिका के माध्यम से संविधान के अनुच्छेद 14, 19 तथा 21 के अंतर्गत प्रदत्त अधिकारों को प्रभावी रूप से लागू कराने के उद्देश्य से एक प्रयास किया गया इस बात को निर्णीत करते समय उच्चतम न्यायालय द्वारा लैंगिक समानता को सुनिश्चित करने वाले अंतरराष्ट्रीय अभिसमयों की विषय वस्तु पर विश्वास किया गया और स्पष्ट किया गया कि मूलभूत रूप से लैंगिक समानता की उपलब्धता निर्वाचित एवं सुनिश्चित करते समय मनो विचित गरिमा सहित कार्य करने का अधिकार तथा लैंगिक उत्पीड़न के विरुद्ध सुरक्षा सुनिश्चित करना अंतर्निहित दायित्व होता है। इस निर्णय के माध्यम से उच्चतम न्यायालय ने कामकाजी महिलाओं के साथ हो रही यौन उत्पीड़न की घटनाओं की रोकथाम के लिए दिशानिर्देश जारी किए है। 

महिला आरोपी की दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अंतर्गत सुरक्षा----

        महिला आरोपियों को दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत विशेष सुरक्षा दी गई है धारा 46 में गिरफ्तारी के नियम बताए गए हैं, जिसमें महिला आरोपी की गिरफ्तारी महिला अधिकारी द्वारा ही की जाएगी। महिला चिकित्सक द्वारा ही महिला आरोपी का परीक्षण किया जाएगा। 

गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम 1971-

             इस अधिनियम के माध्यम से अबॉर्शन के नियम दिए गए हैं। कोई भी अबॉर्शन किस डॉक्टर द्वारा किया जाएगा या व्यवस्थित रूप से इस अधिनियम में बताया गया है। यह एक आपराधिक अधिनियम है, जिसमें गैर पंजीकृत चिकित्सक द्वारा गर्भ समापन हेतु दंड रखा गया है।

 भ्रूण लिंग चयन निषेध अधिनियम 1994 

          इस अधिनियम के अंतर्गत लिंग के चयन को निषेध किया गया है एवं लिंग के परीक्षण को पूर्णतः अवैध बनाया गया है।

 अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम 1956- 

        इस अधिनियम का मूल उद्देश्य महिलाओं को वेश्यावृत्ति से बचाना है एवं जो महिलाएं पूर्व से वेश्यावृत्ति इत्यादि कामों में लगी हुई है। उनका उत्थान करना है अधिनियम के अंतर्गत सुधार गृह एवं संरक्षण गृह बनाए गए तथा नए वेश्यालय को खुलने से रोकने का पूर्ण इंतजाम किया गया है। इस अधिनियम के बनने के बाद से भारत भर में वेश्यावृत्ति एवं मुजरा घरों के निर्माण में कमी आई है। भारत की सीमाओं के भीतर किसी भी प्रकार से मानव शरीर का संभोग हेतु खरीदा बेचा जाना जाना पूर्णतः प्रतिबंधित है वेश्यावृत्ति की रोक हेतु अधिनियम सार्थक सिद्ध हुआ है।

Wednesday, December 25, 2019

बन्द कमरे की कार्यवाही जानें

जानिए 'इन -कैमरा' (बंद कमरा) कार्यवाही क्या होती है, इसे कब आयोजित किया जाता है?

 25 Dec 2019 8:30 



भारत में स्थापित न्यायिक प्रणाली की एक आवश्यक और आंतरिक व्यवस्था के रूप में यह अच्छी तरह से तय किया गया है कि देश में 'खुले न्यायालय' (Open Court) का सिद्धांत कार्यशील होगा। अर्थात न्यायालय में कोई भी न्यायिक कार्य एवं न्यायालय की कार्यशैली, जनसाधारण की नजरों से दूर नहीं होगी, और कोई भी व्यक्ति, जब चाहे न्याय के मंदिर में प्रवेश करते हुए वहां की कार्यप्रणाली का अनुभव कर सकता है। यह सिद्धांत, किसी भी आमजन को, जो कानून के शासन के वास्तविक प्रवर्तन को देखने का इच्छुक है, ऐसा करने में सक्षम बनाता है। इस बात को विस्तार से समझाने की कोई आवश्यकता नहीं है कि खुले न्यायालय की प्रणाली, एक निष्पक्ष एवं स्वतंत्र प्रणाली के रूप में मानी जाती है। इस तरह की पारदर्शिता, न्यायिक व्यवस्था में लोगों के विश्वास को भी मजबूत करती है और प्रणाली के नियमन के साथ-साथ उसकी दक्षता को भी सुनिश्चित करती है। इसी क्रम में, नरेश बनाम महाराष्ट्र राज्य (AIR 1967 SC 1) के मामले में इस सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या की गयी है। इस मामले में यह कहा गया कि, "महान दार्शनिक, प्लेटो ने बहुत पहले अपने कानूनों में यह विचार किया था कि नागरिकों को ट्रायल के वक्त उपस्थित होना चाहिए और उसे ध्यान से सुनना चाहिए। हेगेल ने अपने 'अधिकार के दर्शन' में कहा है कि न्यायिक कार्यवाही सार्वजनिक होनी चाहिए क्योंकि न्यायालय का उद्देश्य न्याय करना है, जो सभी के लिए एक सार्वभौमिक मामला है, कुछ असाधारण मामलों को छोड़कर, न्याय की अदालत की कार्यवाही को जनता के लिए खोला जाना चाहिए।" हालाँकि परिस्थितियों के मुताबिक, हर बार यह न्याय एवं पक्षकारों के हित में नहीं होता कि हर मामले की कार्यवाही को खुली अदालत में अंजाम दिया जाए। इसीलिए 'इन-कैमरा' कार्यवाही (बंद कमरे में चलने होने वाली कार्यवाही) को अंजाम दिया जाता है और इसे एक खुली अदालत के नियम एवं सिद्धांत के अपवाद के रूप में समझा जाता है। एक खुली अदालत या खुला न्याय तब होता है, जब किसी मामले की सुनवाई आम लोगों और प्रेस की उपस्थिति में की जाती है, जो जनता के समक्ष मामलों को रिपोर्ट करेगा। किसी भी अदालती कार्यवाही का सामान्य कोर्स, एक खुली अदालत है। जहाँ खुली अदालत प्रणाली एक नियम है, वहीँ 'इन-कैमरा' कार्यवाही एक अपवाद है। निजी सुनवाई/बंद कमरे की सनुवाई, केवल न्यायाधीश, वकील, अभियुक्त की उपस्थिति में संबंधित गवाहों के साथ आयोजित की जाती है। इस तरह की सुनवाई की कार्यवाही मीडिया या आम जनता को ज्ञात नहीं होती है। गौरतलब है कि प्रेस और अन्य मीडिया को भी "इन-कैमरा" कार्यवाही, प्रकाशित करने की अनुमति नहीं है, इस संदर्भ में, हम "बंद कमरे में" कार्यवाही पर भारतीय कानून के कुछ बुनियादी प्रावधानों पर गौर कर सकते हैं। कानूनी प्रावधान क्या हैं? सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 153 बी यह कहती है कि, 'वह स्थान जहाँ किसी वाद के विचारण के प्रयोजन के लिए कोई सिविल न्यायालय लगता है, खुला न्यायालय समझा जायेगा और उसमे साधारणतः जनता की वहां तक पहुँच होगी जहाँ तक जनता इसमें सुविधापूर्वक समां सके: परन्तु यदि पीठासीन न्यायाधीश ठीक समझे तो वह किसी विशिष्ट मामले की जांच या विचारण के किसी भी प्रक्रम पर यह आदेश दे सकता है कि साधारणतः जनता या किसी विशिष्ट व्यक्ति की न्यायालय द्वारा प्रयुक्त कमरे या भवन तक पहुँच नहीं होगी या वह उसमे नहीं आएगा या वह नहीं रहेगा। 'इन-कैमरा' कार्यवाही आमतौर पर न्यायिक पृथक्करण, तलाक की कार्यवाही, नपुंसकता और ऐसे अन्य मामलों सहित वैवाहिक विवादों के मामलों में आयोजित की जाती है। हालाँकि, जहाँ एक सिविल कोर्ट, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के तहत कार्यवाही का संचालन कर रही है, उसके पास यह विवेकाधिकार होता है कि वह एक मुकदमे में "इन-कैमरा" कार्यवाही करने के आदेश दे सकती है (केवल परिवार से संबंधित मामलों की कार्यवाही, या यदि पार्टियों की ऐसी इच्छा हो तो) - Order XXXII A Rule 2 CPC के अंतर्गत। बेशक, अदालतें अपने निहित शक्तियों के अभ्यास में किसी भी व्यक्ति के अदालत में प्रवेश पर रोक लगा सकती हैं। इसी प्रकार, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 327 (1) में यह कहा गया है कि 'वह स्थान, जिसमे कोई दंड न्यायालय किसी अपराध की जांच या विचारण के प्रयोग से बैठता है, खुला न्यायालय समझा जायेगा, जिसमे जनता साधारणतः प्रवेश कर सकेगी जहाँ तक कि सुविधापूर्वक वे उसमे समां सकें': हालाँकि इसी धारा में यह प्रावधान है कि, 'यदि पीठासीन न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट ठीक समझे तो वह किसी विशिष्ट मामले की जांच या विचारण के किसी भी प्रक्रम में यह आदेश दे सकता है कि जनसाधारण या कोई विशेष व्यक्ति उस कमरे में या भवन में, जो न्यायालय द्वारा उपयोग में लाया जा रहा है, न तो प्रवेश करेगा, न होगा न रहेगा।' इसी प्रकार हम देख सकते हैं कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 327 में उन मामलों के प्रकारों को रखा गया है, जिनकी कार्यवाही "इन-कैमरा" संचालित की जानी चाहिए, इनमे बलात्कार, पीड़िता की मृत्यु या लगातार विकृतशील दशा कारित करने, पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ पृथक्करण के दौरान मैथुन, प्राधिकार में किसी व्यक्ति द्वारा मैथुन, सामूहिक बलात्संग के मामले शामिल हैं। "कैमरा में" कार्यवाही आम तौर पर ऊपर बताए गए संवेदनशील मुद्दों से जुड़े मामलों में पार्टियों की गोपनीयता की रक्षा के लिए आयोजित की जाती है। इसके सम्बन्ध में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 327 (2) कहती है:- (2) उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी, भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 376, धारा 376 क, धारा 376 ख, धारा 376 ग़, धारा 376 घ, धारा 376 ड के अधीन, बलात्संग या किसी अपराध की जांच या उसका विचारण बंद कमरे में किया जायेगा। इसके अलावा हम हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 और परिवार न्यायालय अधिनियम के तहत "कैमरे में" कार्यवाही के अन्य उदाहरण देख सकते हैं। हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के अंतर्गत धारा 22 की कार्यवाही, कैमरे में होनी चाहिए और यह मुद्रित या प्रकाशित नहीं हो सकती है। इस अधिनियम के तहत हर कार्यवाही 'बंद कमरे' में की जाएगी और किसी भी व्यक्ति के संबंध में किसी भी मामले को छापना या प्रकाशित करना कानूनन उचित नहीं होगा। उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के फैसले को मुद्रित या प्रकाशित, न्यायालय की पूर्व अनुमति के साथ किया जाता है। फैमिली कोर्ट एक्ट की धारा 11 कहती है कि, हर उस मुकदमे या कार्यवाही में, जिसके लिए यह एक्ट लागू होता है, उसकी कार्यवाही 'इन-कैमरा' हो सकती है, यदि फैमिली कोर्ट की ऐसी इच्छा हो और यह कैमरा के अंतर्गत होगी ही, अगर कोई पक्षकार चाहें तो। संथिनी बनाम विजय वेंकटेश TRANSFER PETITION (CIVIL) NO।1278 OF 2016 के मामले में CJI की पीठ ने यह फैसला दिया था कि वैवाहिक विवादों की कार्यवाही को 'बंद कमरे' में आयोजित किया जा सकता है। अदालत ने कहा कि 'इन-कैमरा' कार्यवाही करने का निर्णय, पारिवारिक अदालतों पर छोड़ दिया जाना चाहिए। एक कठोर नियम नहीं बनाते हुए, अदालत ने आगे कहा कि 'इन-कैमरा' कार्यवाही करने के कारण, केस-टू-केस विश्लेषण पर निर्भर कर सकते हैं। 'इन-कैमरा' कार्यवाही की महत्वता कुछ विशेष मामलों में 'इन-कैमरा' कार्यवाही की महत्वता ऐसे समझी जा सकती है कि अपने विवेक के प्रयोग में और यदि अदालत ऐसा करना उचित समझती है, तो न्यायालय यह आदेश दे सकता है कि किसी मुकदमें की कार्यवाही को 'इन-कैमरा' रखा जायेगा, और आम तौर पर जनता के पास अदालत द्वारा उपयोग किए जाने वाले न्यायालय कक्ष या भवन में पहुंचने या रहने की कोई अनुमति नहीं होगी। इस अपवाद की प्रकृति ही ऐसी है कि अदालत के लिए यह निर्णय लेने से पहले कि अदालती कार्यवाही को जनता की निगाह से बाहर रखा जायेगा, उचित देखभाल और सावधानी बरतने की आवश्यकता है। ऐसी सावधानी बरतने के बाद असाधारण और उचित मामलों में, अदालत यह निर्देश दे सकती है कि पूरी कार्यवाही या उसका एक हिस्सा 'इन-कैमरा' संचालित किया जाएगा - जानकी बल्लाव बनाम बेनेट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड (AIR 1989 Orissa 225)। हमे यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि सार्वजनिक परीक्षण के महत्व पर जोर देते हुए, हम इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि न्यायपालिका का प्राथमिक कार्य, उन पक्षों के बीच न्याय करना है, जो मामले को अदालत के सामने लाते हैं। नरेश श्रीधर मिराजकर एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य 1966 SCR (3) 744 के मामले में अदालत ने इस प्रश्न का अवलोकन किया था कि यदि किसी कारण से, मामले का परिक्षण करने वाला न्यायाधीश इस बात को लेकर संतुष्ट हो जाता है कि मामले में सच्चाई खोजने का उद्देश्य धुंधला जाएगा, यदि गवाहों को सार्वजनिक रूप से साक्ष्य देने की आवश्यकता होगी तो क्या यह बेहतर नहीं कि उसे यह अन्तर्निहित शक्ति दी जाए कि वह उस मामले की कार्यवाही को आंशिक रूप से या पूरी तरह से 'इन-कैमरा' आयोजित करने के आदेश दे? यदि अदालत का प्राथमिक कार्य उसके सामने लाए गए मामलों में न्याय करना है, तो इस बात को स्वीकार करना मुश्किल है कि खुले अदालत के सिद्धांत के लिए कोई अपवाद नहीं हो सकता है। ऐसे मामले अवश्य उत्पन्न हो सकते हैं, जहां इस सिद्धांत का पालन करने से न्याय स्वयं पराजित हो सकता है। यही कारण है कि नरेश श्रीधर मिराजकर मामले में कहा गया कि 'इन-कैमरा' ट्रायल, या कार्यवाही मामले की परिस्थितियों को देखते हुए आयोजित की जा सकती है। आइये देखते हैं वह कुछ मामले जहाँ "इन-कैमरा" कार्यवाही को अनुमति दी गयी भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद का मामला: पुलिस के आदेशों की अवहेलना में 20 दिसम्बर 2019 को नमाज के बाद दिल्ली की जामा मस्जिद पर विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद को शनिवार (21 दिसम्बर) को मस्जिद से बाहर आने के बाद गिरफ्तार कर लिया गया था। उन्हें चाणक्यपुरी पुलिस स्टेशन ले जाया गया और बाद में अदालत में पेश किया गया, जहाँ असामान्य रूप से एक 'इन-कैमरा' सुनवाई की गयी और उन्हें 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। इससे पहले दिल्ली पुलिस के कर्मियों ने पत्रकारों को अदालत कक्ष में पहुंचने से रोकने के लिए, अदालत के दरवाजे बंद कर दिए थे, लेकिन कुछ पत्रकारों ने विरोध प्रदर्शन के बाद अदालत कक्ष में प्रवेश प्राप्त कर लिया। जब पत्रकारों ने पुलिस के व्यवहार के बारे में मजिस्ट्रेट से शिकायत की, तो मामले की सुनवाई की प्रेस रिपोर्टिंग को रोकते हुए "इन-कैमरा" कार्यवाही के लिए मजिस्ट्रेट अरजिंदर कौर द्वारा एक आदेश पारित किया गया। आजाद के वकील एडवोकेट महमूद पारचा ने मीडिया रिपोर्टिंग पर रोक लगाने पर आपत्ति जताई। पत्रकारों ने जिला न्यायाधीश कामिनी लाउ के समक्ष पुलिस के व्यवहार और मीडिया रिपोर्टिंग पर रोक के बारे में शिकायत की। जिला न्यायाधीश ने मौखिक रूप से सहमति व्यक्त की कि अदालत की कार्यवाही की रिपोर्टिंग करना मीडिया का मौलिक अधिकार था, और उन्होंने इस घटना को "बिल्कुल दुर्भाग्यपूर्ण" करार दिया। नपुंसकता का मामला: केरल राज्य के एक मामले में, एक पत्नी ने पति की नपुंसकता के आधार पर तलाक की मांग की थी। तलाक की कार्यवाही के दौरान, पत्नी ने अपने और अपने परिवार की गोपनीयता बनाए रखने के लिए, 'इन-कैमरा' कार्यवाही के लिए आवेदन किया था। लिएंडर पेस के खिलाफ घरेलू हिंसा की कार्यवाही: रिया पिल्लई ने बांद्रा मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट अदालत के सामने अपने पति लिएंडर पेस के खिलाफ एक याचिका दायर की थी (घरेलू हिंसा का आरोप लगाते हुए), जिसमें अदालत ने कहा था कि यह मामला एक "व्यक्तिगत प्रकृति" का था और इस लिए कार्यवाही का हिस्सा, बंद कमरे में आयोजित किया गया था। आसाराम बापू के खिलाफ बलात्कार का मामला: आसाराम बापू के खिलाफ बलात्कार के आरोपों में, गांधीनगर की एक अदालत ने मई 2017 में बंद कमरे में कार्यवाही आयोजित करने का आदेश दिया था। गवाहों की सुरक्षा के लिए एवं उनकी गोपनीयता बनाए रखने के लिए यह फैसला किया गया था। अदालत ने कहा, "अब से, गवाहों के जीवन पर जोखिम को देखते हुए, कार्यवाही 'इन-कैमरा' आयोजित की जाएगी।" 16 दिसंबर, 20012 गैंगरेप: एक 23 वर्षीय महिला के साथ बस में 6 लोगों द्वारा बर्बरतापूर्वक बलात्कार करने के मामले की सुनवाई करते हुए, दिल्ली की एक अदालत ने कार्यवाही को बंद कमरे में आयोजित करने का आदेश दिया था। 

Tuesday, December 24, 2019

धारा 144सीआरपीसी क्या है

एक्सप्लेनरः धारा 144 सीआरपीसी लगाने के आधार क्या हैं? 

21 Dec 2019 1:00 PM 

              इन दिनों ' धारा 144 सीआरपीसी' की खासी चर्चा हो रही है। हाल ही में संसद से पास नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ बड़े पैमाने पर हो रहे विरोध पर लगाम लगाने के लिए देश्‍ भर में पुलिस ने धारा 144 का इस्तेमाल किया है। उत्तर प्रदेश की तकरीबन आबादी 20 करोड़ है और पुलिस ने बीते दिनों पूरे सूबे पर धारा 144 लगा दी थी। यूपी डीजीपी ने ये जानकारी ट्विटर पर दी थी। बेंगलुरु के पुलिस आयुक्त ने धारा 144 लगाने को सही ठहराते हुए कहा कि जब दूसरों को 'असुविधा' हो तो मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगाया जा सकता है। क्‍या है 'खूंखार' धारा 144 सीआरपीसी की धारा 144 ‌‌डि‌स्टिक्ट मजिस्ट्रेट, सब-‌डी‌विजनल मजिस्ट्रेट या किसी अन्य कार्यकारी मजिस्ट्रेट को राज्य सरकार की ओर से किसी विशेष स्‍थान या क्षेत्र में एक व्यक्ति या आम जनता को "विशेष गतिविधि से दूर रहने " या "अपने कब्जे या प्रबंधन की किसी संपत्ति के संबंध में कोई आदेश लेने के लिए" आदेश जारी करती है। धारा 144 लगाने का आदेश "मजिस्ट्रेट" निम्न ‌स्थितियों पर रोक लगाने के लिए दे सकता है- 1-किसी भी व्यक्ति को कानूनी रूप से नियोजित करने में बाधा हो, परेशानी हो या चोट आने की आशंका हो 2-मानव जीवन को, स्वास्‍थ्य और सुरक्षा पर संकट हो 3- अशांति, दंगा या उत्पीड़न की आशंका हो। यह आदेश एक विशेष व्यक्ति या आम जनता के खिलाफ पारित किया जा सकता है। एक पक्षीय आदेश भी पारित किया जा सकता है। तो, क्या धारा 144 के तहत प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग एक कार्यकारी अधिकारी किसी खतरे की अशंका के आधार पर महज व्यक्‍तिगत संतुष्टि के लिए कर सकता है? उक्त प्रश्न का हल ढूंढ़ने से पहले यह ध्यान में रखना जरूरी है कि धारा 144 के तहत दिए गए आदेश संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए), (बी) और (सी) के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों मसलन अभिव्यक्ति, स्वतंत्रता, एक जगह जुटने और प्रदर्शन के अधिकार का हनन करते हैं। इसलिए धारा 144 के तहत दिए गए आदेशों को अनुच्छेद 19 के अनुसार "उचित प्रतिबंध" की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। यह पता लगाने के लिए कि प्रतिबंध अनुच्छेद 19 के तहत दी गई स्वतंत्रता की कसौटी पर उचित है या नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने "अनुपातिकता का परीक्षण" विकसित किया है। मॉडर्न डेंटल कॉलेज केस (2016) में संविधान पीठ के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रतिबंध लगाने वाले कानून को आनुपातिक माना जाएगा: 1-यह एक उचित उद्देश्य को पाने के लिए हो, और 2-यदि उद्देश्य का पाने के लिए किए गए उपाय तर्कसंगत रूप से उद्देश्य से जुड़े हों, और 3-यदि इस तरह के उपाय जरूरी हों। पुट्टस्वामी मामले (2017) में, सुप्रीम कोर्ट ने आनुपातिकता निर्धारित करने के लिए 'फोर-फोल्ड टेस्ट' किया: (a) एक अधिकार को सीमित करने वाले उपाय लक्ष्य वैध हों (वैध लक्ष्य चरण)। (b) लक्ष्य को आगे बढ़ाने का उपयुक्त साधन होना चाहिए (उपयुक्तता या औचित्य संबंध चरण)। (c)कोई कम प्रतिबंधात्मक लेकिन समान रूप से प्रभावी विकल्प नहीं होना चाहिए (आवश्यकता चरण)। (d)उपाय का अधिकार उपभोक्ताओं पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं होना चाहिए (संतुलन चरण)। इस प्रकार धारा 144 सीआरपीसी के तहत पारित आदेशों की वैधता का परीक्षण 'तर्कशीलता' और 'आनुपातिकता' के इन सिद्धांतों के आधार पर किया जाएगा। वरिष्ठ अधिवक्ता मेनका गुरुस्वामी ने अपनी रिसर्च 'फ्रीडम टू असेंबली एंड फ्रीडम ऑफ एसोसिएशन' में लिखा है कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1), (बी) और (सी) के विरोधाभासी दृष्टिकोण और सीआरपीसी की धारा 144 "औपनिवेशिक विरासत का एक प्रतिबिंब है और समकालीन भारतीय राज्य द्वारा 1872 की दंड प्रक्रिया संहिता के अधिकांश प्रावधानों को निर्विवाद रूप से अपना लिया गया है। खतरे की संभावना मात्र धारा 144 लगाने की आधार नहीं सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि मात्र खतरे की आशंका के आधार पर धारा 144 सीआरपीसी लागू करके नागरिकों के अधिकारों पर रोक नहीं लगाई जा सकती है। 'संभावना' या 'प्रवृत्ति' नहीं 'आसन्न' खतरे की स्पष्‍ट आशंका होनी चाहिए। बाबूलाल परते बनाम महाराष्ट्र राज्य (1961) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि धारा 144 का उपयोग खतरे की प्रत्याशा में भी किया जा सकता है, हालांकि ये पर्याप्त सामग्रियों पर आधारित होना चाहिए, सार्वजनिक सुरक्षा के लिए किसी गतिविधि पर तत्काल रोक लगाने की आवश्यकता को जरूरी बताते हों। "धारा में निर्धारित परीक्षण केवल 'संभावना' या 'प्रवृत्ति' नहीं है। धारा कहती है कि मजिस्ट्रेट को संतुष्ट होना चाहिए कि सार्वजनिक सुरक्षा पर आसन्‍न खतरे को रोकने के लिए विशेष कृत्यों पर तत्काल रोकथाम आवश्यक है। धारा के तहत प्रदत्त शक्तियां खतरा मौजूद होने की स्थिति में भी प्रयोग होंगी और खतरे की आशंका होने पर भी।" मधु लिमये बनाम एसडीएम (1970) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने धारा 144 की संवैधानिकता को ये कारण देते हुए बरकरार रखा कि उसने 'सार्वजनिक व्यवस्था के हित में' उचित प्रतिबंध की व्यवस्‍था की। हालांकि, अदालत ने कहा कि इस शक्ति का प्रयोग केवल आकस्मिक और जरूरी स्थितियों में ही किया जाना चाहिए: "धारा 144 के तहत कार्रवाई का आधार स्थिति की तात्कालिकता है और कुछ हानिकारक घटनाओं को रोकने में सक्षम होने की प्रभावकारिता है।" रे-रामलीला मैदान मामले (2012) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा: "केवल आशंका के मामले में, ‌बिना किसी भौतिक तथ्यों के, जो ये बता सके कि कि आशंका आसन्न और वास्तविक है, अधिकारियों के लिए ये उचित नहीं है कि वो नागरिक के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाए।" जैसा कि रे रामलीला हादसा प्रकरण में बताया गया है, धारा 144 के तहत आदेश की आवश्यक शर्तें हैं: (1) यह एक कार्यकारी शक्ति है जो अधिकारी में निहित होती है; (2) कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार मौजूद होना चाहिए; (3) तत्काल रोकथाम या शीघ्र उपाय वांछनीय है; तथा (4) एक आदेश, लिखित रूप में, भौतिक तथ्यों को बताते हुए पारित किया जाना चाहिए और संबंधित व्यक्ति पर उसी तरह से कार्य किया जाना चाहिए। इस मामले में, अदालत ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर लगाए गए प्रतिबंधों के समर्थन में कारण और भौतिक तथ्य मौजूद नहीं है। न्यायालय ने प्रदर्शनकारियों पर पुलिस कार्रवाई को अवैध बताते हुए कहा कि: "पुलिस यह स्थापित करने में विफल रही है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी कि जहां हस्तक्षेप करने की आवश्यकता थी"। अदालत ने पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने आदेश दिया और उन लोगों को मुआवजा देने का आदेश दिया जो पुलिस कृत्यों के कारण पीड़ित हुए थे। इसलिए, उपरोक्त निर्णय, जब आनुपातिकता के सिद्धांत के साथ पढ़े जाते हैं, इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि धारा 144 के तहत आदेश केवल तभी दिया जा सकता है, जब साबित करने के लिए निम्न कारण हों: 1-यह खतरा तत्काल है। 2-तत्काल खतरे को रोकने के लिए प्रतिबंध आवश्यक हैं। इसके अलावा, प्रतिबंध बिल्कुल आवश्यक होना चाहिए, और जितना संभव हो उतना कम आक्रामक होना चाहिए, खतरे के अनुपात में होना चाहिए। इसका मतलब है कि अगर खतरे से बचने के लिए कम प्रतिबंधात्मक साधन हैं, तो उन्हें अपनाया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह भी है कि केवल सार्वजनिक विरोध को दबाने के इरादे से पारित किए गए प्रतिबंध के व्यापक आदेश कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने शायरा बानो बनाम भारत संघ और अधीक्षक, केंद्रीय कारागार बनाम राम मनोहर लोहिया के मामलों में कहा है कि एक राजकीय कार्रवाई जो तर्कहीन रूप है या पर्याप्त निर्धारण सिद्धांत के बिना की गई है, प्रकट रूप से मनमानी है और राज्य केवल भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर तभी प्रतिबंध लगा सकता है यदि वह भाषण और सार्वजनिक व्यवस्था के बीच एक करीबी संबंध देख रहा हो।

Saturday, December 14, 2019

विधि के विभिन्न एक समान शव्दों में अन्तर

जानिए कानून के एक जैसे शब्द और उनके अलग अलग अर्थ 

13 Dec 2019 

भारतीय विधि व्यवस्था में आम लोगों के सामने ऐसे बहुत से शब्द आते हैं, जो दो शब्द एक जैसे अर्थो के प्रतीत होते हैं, परंतु उन शब्दों के अर्थ बहुत भिन्न भिन्न होते हैं। कानूनी प्रक्रिया से दूर रहने वाले लोग या फिर ऐसे लोग जिनका न्यायालय इत्यादि से कोई काम नहीं रहा वह इन शब्दों से भ्रमित होते हैं। बहुत से लोग तो सारा जीवन उन शब्दों को पढ़ते, देखते और उपयोग करते रहते हैं, उसके पश्चात भी उन शब्दों के संबंध में उचित जानकारी नहीं रख पाते हैं। ये शब्द भ्रमित करने वाले होते हैं। आप जानकारी के अभाव में यह तय ही नहीं कर पाते कि इस व्यंजन के लिए यह शब्द होगा या फिर वह शब्द होगा, दो शब्दों के बीच भ्रम जैसा तत्व जन्म ले लेता है। कभी कभी बात भी शब्दों के बीच रह जाती है। सही अर्थ वाली बात हो ही नहीं पाती और उसके स्थान पर गलत अर्थ के शब्द को उपयोग में कर लिया जाता है। विधि के ज्ञान में विधि के शब्दों की उचित जानकारी अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखती है। शब्दों का ठीक ज्ञान होना चाहिए। आम व्यक्ति से लेकर विधि व्यवसायी को भी शब्दों के ठीक अर्थों और टर्मिनोलॉजी की आवश्यकता होती है। इस लेख में ऐसे कुछ शब्दों पर चर्चा की जा रही है। बिल और अधिनियम- आधुनिक समय में राज्य द्वारा अपने राज्य के भीतर राज्य के संचालन और राज्य के नागरिक तथा गैर नागरिकों के लिए आदेशों को विधि कहा जाता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 में विधि को परिभाषित किया गया है, जिसमे अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, विनियम, अधिसूचना, रूढ़ि या प्रथा विधि माना गया है। अधिनियम इस ही विधि का एक हिस्सा है। अधिनियम एक सहिंताबद्ध विधि है, जिसमें किसी विशेष विषय पर राज्य का व्यवस्थित विधान होता है। अधिनियम संसद की बनायी सबसे शक्तिशाली विधि होती है।अधिनियम को अध्ययन, धाराओं और उपधाराओं के अंतर्गत सुविधाओं के हिसाब से बांटा जा सकता है। वैसे अधिनियम में धाराएं और उपधारा आवश्यक रूप से होती ही हैं। बिल संसदीय विधि का शैशव काल है। कोई अधिनियम बिल होने के बाद ही अधिनियम का रूप लेता है। एक तरह से बिल जब बहुमत प्राप्त कर जाता है तो वह अधिनियम हो जाता है। बगैर यथेष्ट बहुमत प्राप्त किए कोई बिल अधिनियम का रूप नहीं धारण करता है। यदि बिल बहुमत प्राप्त नहीं कर पाता है तो यह कहा जा सकता है कि अधिनियम अपने शैशव काम मे ही मर गया। बिल यथेष्ट सदनों और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से मोहर लगने पर ही अधिनियम होता है। बिल पर जैसे ही राष्ट्रपति अपनी मोहर लगाते हैं, वह अधिनियम होकर राज्य में विधि बनकर लागू हो जाता है। बिल को विधि नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बिल आदेशात्मक रूप से राज्य में लागू नहीं होता है वह संसद में ही रहता है। बिल का विकसित रूप अधिनियम होता है। धारा और अनुच्छेद- हांलाकि जानकार लोग अनुच्छेद और धारा का अंतर बहुत अच्छी समझते हैं। आम लोगों के लिए धारा और अनुच्छेद बहुत ज्यादा भ्रमित करने वाले शब्द हैं। यह शब्द तो आम लोगों के साथ बहुत से नेतागणों को भी भ्रमित कर देते हैं। वह समझ ही नहीं पाते कि धारा किसे कहा जाए और अनुच्छेद किसे कहा जाए। जैसे कि आपने कश्मीर के संबंध में सुना होगा कि धारा 370। पत्रकारों द्वारा भी 370 के साथ धारा शब्द उपयोग कर दिया जाता था, परन्तु यह धारा शब्द बिल्कुल नहीं है, यह अनुच्छेद 370 है। धारा- संसद द्वारा जो साधारण अधिनियम बनाए जाते हैं, उनमें विषयों को बांटने के लिए धारा शब्द उपयोग किया जाता है। धारा के साथ उपधारा भी रखी जाती है। धारा को अंग्रेजी भाषा में 'सेक्शन' कहा जाता है। धारा अधिनियम का महत्वपूर्ण भाग होती है। किसी भी अधिनियम में मुख्यतः धारा ही उपयोग में लाई जाती है, परन्तु कुछ अधिनियम में आदेश और नियम भी होते हैं। अनुच्छेद- किसी भी संविधान में अनुच्छेद होते हैं। कोई आधुनिक संविधान बगैर अनुच्छेद के शायद ही पूर्ण होता होगा। संविधान को पृथक पृथक भागों में बांटा जाता है तथा यह भाग अनुच्छेद में बंटे होते हैं, परन्तु भिन्न भिन्न भाग के लिए भिन्न भिन्न अनुच्छेद नहीं होते हैं। अनुच्छेद सीधे चलते हैं जैसे अनुच्छेद 1 से शुरु हुआ और अनुच्छेद 400 पर संविधान समाप्त हुआ। जिला एवं सत्र न्यायालय- भारत की अधिकांश जिलों की कोर्ट के बाहर जिला एवं सत्र न्यायालय लिखा होता है। इस कोर्ट को जिला कोर्ट के नाम से जाना जाता है। ये दोनों कोर्ट एक नहीं हैं, इनके अर्थ अलग अलग हैं, परन्तु व्यक्ति एक ही है। सामान्यतः हम इन दोनों कोर्ट को एक ही कोर्ट मान कर चलते हैं। जिला न्यायालय- जब किसी सिविल मामले को सुना जाता है तो सुनने वाला न्यायालय जिला न्यायालय कहलाता है, अर्थात जिले का सबसे बड़ा न्यायालय जो किसी भी सिविल मामले में सुनवाई करेगा। सत्र न्यायालय- जब किसी आपराधिक मामले की सुनवाई की जाती है तो न्यायालय को सत्र न्यायालय कहा जाता है अर्थात जिले का सबसे बड़ा आपराधिक मामलों को सुनने वाला न्यायालय। जैसे यदि किसी आरोपी पर भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अंतर्गत अभियोजन चलेगा तो उसकी सुनवाई सत्र न्यायालय में हो होगी, क्योंकि मृत्यु दंड और आजीवन कारावास देने की अधिकारिकता केवल सत्र न्यायाधीश को होती है। सिविल जज और मजिस्ट्रेट और कार्यपालक मजिस्ट्रेट- सिविल जज और मजिस्ट्रेट एक ही व्यक्ति है। यह मामलों के नेचर से पता किया जाता है कि वह मामला सिविल है या आपराधिक। जब किसी सिविल मामले को किसी न्यायाधीश द्वारा सुना जाता है तो उसे सिविल जज कहा जाता है। यह सिविल जज फर्स्ट और सेकंड क्लास होते हैं। मामलों को सुनने की अधिकारिकता और और कोई आदेश सुनाने के अधिकार के आधार पर क्लास तय की जाती है। किसी भी जिला न्यायाधीश से नीचे सिविल मामलों को सुनने वाला न्यायाधीश सिविल जज कहा जाता है। मजिस्ट्रेट- जब यही न्यायाधीश किसी आपराधिक मामले को सुनता है तो वह मजिस्ट्रेट कहलाता है। मजिस्ट्रेट और सिविल जज का निर्धारण मामले की प्रकृति के आधार पर होता है। कार्यपालक मजिस्ट्रेट-यह कार्यपालिका का एक अंग है पर इसे सेमी ज्यूडिशियल पोस्ट भी मानी गई है, क्योंकि यह कुछ न्यायिक अधिकार और कर्तव्य भी रखता है। ज़मानती और दोषमुक्त- बहुत से मामलों में ज़मानती आरोपी को दोषमुक्त समझ लिया जाता है। ज़मानती और दोषमुक्त में अंतर होता है और अंतर बहुत बड़ा अंतर है। भारत की आपराधिक वैधानिक व्यवस्था उदारतापूर्वक है। यहां किसी भी आरोपी को ज़मानत पर छोड़े जाने के नियम रखे गए हैं। ज़मानती और गैर-ज़मानती अपराधों का वर्गीकरण किया गया है। ज़मानती- ज़मानती का अर्थ होता है ऐसा व्यक्ति जिस पर कोई अभियोजन चल है और न्यायलयों द्वारा उस व्यक्ति को जमानत या मुचलके पर छोड़ा गया है तथा उसके दोषसिद्ध होने पर उसे पुनः हिरासत में ले लिया जाएगा। दोषमुक्ति- दोषमुक्ति का अर्थ है आरोपी को विचारण में सभी तरह के आरोपो से दोषमुक्त कर दिया गया तथा आरोपी अब दोषमुक्त है, जितने आरोप उस पर लगाये थे वह कोई भी सिद्ध नहीं हुए। आरोपी और दोषसिद्ध- आरोपी और दोषसिद्ध में भी अंतर है।आरोपी वह व्यक्ति है, जिस पर राज्य द्वारा किसी अपराध में अभियोजन चलाया जा रहा है। हमारे यहां किसी भी व्यक्ति पर आरोप तय होना तो दूर की बात है एफआईआर दर्ज होते ही उसे दोषसिद्ध घोषित कर दिया जाता है, जबकि भारत में आरोपी को दोषसिद्ध व्यक्ति बनाने तक एक लंबी प्रक्रिया है। अधिकांश भारतीय विचारण जैसी किसी चीज़ को समझते ही नहीं। दोषसिद्ध- दोषसिद्ध वह व्यक्ति है जिस पर आरोप लगने के बाद विचारण हो जाने के बाद किसी भी अदालत द्वारा दोषसिद्ध घोषित कर दिया गया है अर्थात आरोपी पर लगे सभी आरोप सिद्ध हो चुके हैं और वह अपराध करने वाला मान लिया गया है तथा उस अपराध के लिए उसे दंड सुना दिया गया है। राज्य द्वारा आरोप लगाना बहुत सरल है। आरोप तय अदालत द्वारा किये जाते हैं। राज्य पुलिस या अन्य जांच एजेंसी द्वारा अपना अंतिम प्रतिवेदन अदालत के समक्ष पेश कर देता है। आरोप तय करना न्यायालय का काम है। आरोप लगते ही व्यक्ति को दोषसिद्ध नहीं मान लेना चाहिए। संसद और सांसद- लोकतांत्रिक व्यवस्था में विधान निर्माण का कार्य संसद द्वारा किया जाता है। लोकसभा राज्यसभा और राष्ट्रपति से मिलकर भारतीय संसद बनती है। यह तीनों संसद के अंग है। इस संसद के दोनो सदनों के सदस्यों को सांसद कहा जाता है।जैसे लोकसभा सांसद और राज्यसभा सांसद। नगर निगम और नगर पालिका- यह दो शब्दों से भी आम आदमी को बहुत काम होता है। यह दो शब्द जीवन का अहम हिस्सा है। कहते समय इन दोनों शब्दों को एक जैसा समझ लिया जाता है, जबकि शब्द और उसके अर्थ दोनों में बहुत अंतर है। वैसे तो अलग अलग प्रदेशों के द्वारा अपने अपने निकाय विधान बनाये जाते हैं, परन्तु फिर भी एक व्यवस्थित नियम है कि 20 हज़ार से ऊपर आबादी के कस्बो में और दो लाख से कम आबादी के शहरों में नगर पालिका बनायी जाती है। दो लाख से ऊपर आबादी के शहरों में नगर निगम बनाई जाती है। नगर निगम और पालिका के नियम अलग अलग है तथा अधिकार कर्तव्य भी अलग अलग अधिरोपित किये गए हैं। शमनीय और गैर शमनीय- अपराध दो तरह के हैं। पहला शमनीय और दूसरा गैर शमनीय। जिन अपराधों को दंड प्रक्रिया सहिंता के अंर्तगत समझौते के लिए बताया गया अर्थात जिन में समझौता किया जा सकता है वह अपराध शमनीय है। जिन अपराधों में समझौता नहीं किया जा सकता अर्थात जिनमे न्यायालय द्वारा या तो दोषमुक्त किया जाएगा या दोषसिद्ध किया जाएगा, परन्तु अपराध का शमन नहीं होगा। जैसे भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत धारा 302 और 376 इत्यादि के अपराध बहुत से मामलों में लोग हत्या जैसे अपराध को भी शमनीय समझ लेते

Thursday, December 12, 2019

बिना वकील के केश लडना

बिना वकील के आप खुद भी लड़ सकते हैं अपना मुकदमा, यह है प्रक्रिया 

 12 Dec 2019 7:45 AM 

 जब कोई व्यक्ति समस्याओं से घिर जाता है तो उसे न्यायालय से ही उम्मीद रहती है। वकीलों की बेतहाशा फीस के कारण आदमी अपने किसी भी मामले को न्यायालय में ले जाने से डरता है, लेकिन कानून में इतनी गुंजाइश है कि आप न्यायालय की अनुमति से अपना केस खुद लड़ सकते हैं। अधिवक्ता अधिनियम के अंतर्गत आप बगैर अधिवक्ता हुए विधि व्यवसाय नहीं कर सकते परंतु स्वयं का मुकदमा लड़ सकते हैं, यह आपका नैसर्गिक अधिकार है। न्यायालय आपको अपना मुकदमा लड़ने से कतई निषिद्ध नहीं कर सकता। आप न्यायालय में वक़ील स्वयं की इच्छा से नियुक्त करते हैं तथा मुकदमे के लिए वक़ील पत्र पर हस्ताक्षर करके वकील को अपने मुकदमे में प्रत्येक प्रकार के अधिकार सौंपते हैं। वकालत है चुनौतीपूर्ण पेशा, जानिए सफल वकील बनने के आवश्यक गुण कभी कभी जीवन में ऐसी परिस्थितियों का जन्म होता है जब आप को किसी आपराधिक मामलों में आरोपी बना दिया जाएं और राज्य द्वारा न्यायालय में आप पर कोई अभियोजन चलाया जा रहा है या फिर आपके किसी अधिकार के अतिक्रमण होने पर आप कोई सिविल मामला लेकर न्यायालय की शरण में जाते हैं। इनमें हर परिस्थिति में आपको वक़ील नियुक्त करने की आवश्यकता नहीं है, न्यायालय आपको वक़ील नियुक्त करने हेतु विवश नहीं करता। वक़ील आपकी सुविधा के लिए आप खुद नियुक्त करते हैं। भारतीय न्याय व्यवस्था बेहद तकनीकी है, जहां आपको पग पग पर वैधानिक जानकारियों की आवश्यकता होती है। इस परेशानी से व्यथित न हों, इसलिए आप न्यायालय में पैरवी के लिए वक़ील नियुक्त करते हैं। आज हम चर्चा करेंगे उन बिंदुओं पर जिनकी सहायता से आप स्वयं भी खुद के मुकदमे में पैरवी कर सकते हैं। हालांकि यह बिंदु नितांत सटीक तो नहीं परन्तु फिर भी आपको स्वयं का मुकदमा लड़ने में ज़रूर सहायता करेंगे। आपको अपना मुकदमा लड़ने के लिए केवल थोड़ा बहुत सामाजिक जानकारियों और साधारण तर्क पर ज्ञान हो और साथ ही कम से कम हिंदी भाषा में आप निपुण हों, ताकि अपनी बात को भाषा की सहायता से प्रभावी बना सकें। आइए जनाते हैं, क्या हैं वे बिंदु? बेयर एक्ट ख़रीदें- किसी भी अधिनियम पर बाज़ार में अलग अलग प्रकाशन संस्थाएं बेयर एक्ट प्रकाशित करती हैं। इनकी कीमत नाममात्र की होती है। आप बाज़ार से इन बेयर एक्ट को खरीद सकते हैं। इनकी भाषा भी कोई गूढ़ गहन नहीं होती है, परंतु उस ही शब्द को उपयोग किया जाता है जिस शब्द को विधायिका ने प्रयोग किया है। आपराधिक मामले में- यदि आप पर किसी आपराधिक मामले का अभियोजन चल रहा है तो आप सर्वप्रथम तीन अधिनियम की बेयर एक्ट खरीदें- भारतीय दंड संहिता 1860 दंड प्रक्रिया सहिंता 1973 भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 भारतीय दंड सहिंता भारत की सीमा में अपराधों का निर्धारण करती है और उनके लिए दंड बताती है। दंड प्रक्रिया सहिंता उन अपराधों में किस प्रकिया से व्यक्ति को दंड तक ले जाया जाएगा, इसका निर्धारण करती है। साक्ष्य अधिनियम यह तय करता है कि किन साक्ष्यों को प्रकिया में शामिल किया जाएगा तथा कौन से एविडेन्स पर आरोपी को सज़ा दी जा सकती है। यह तीनों अधिनियम किसी भी आपराधिक मामले में महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं। सारा मुकदमा इन तीनों के आधार पर ही पर ही संचालित किया जाता है। न्यायाधीश से आज्ञा लेना- आप न्यायाधीश से आज्ञा लेकर ही स्वयं के मुकदमे में स्वयं पैरवी कर सकते हैं, परन्तु न्यायाधीश आपको वकील नियुक्त करने का परामर्श दे सकते हैं। इस पर आप कह सकते हैं कि पुलिस कार्यवाही में मुझे खुद ही पैरवी करने की अनुमति दें तथा इतना समय दें कि मैं ड्राफ्टिंग इत्यादि कर सकूं। अगर आप निरुद्ध हैं तो- यदि आप किसी आपराधिक मामले में पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए हैं और पुलिस ने आपको बंदी बनाया हुआ है। संविधान के अनुच्छेद 22 के अंतर्गत पुलिस को आपको गिरफ्तार करने के चौबीस घंटों के भीतर किसी भी क्षेत्राधिकार के न्यायालय में पेश करना होगा। जब आपको न्यायालय में पेश किया जाए तो आप पुलिस से अपनी एफआईआर की एक प्रति मांग सकते हैं। एफआईआर लेकर सबसे पहले उस घटना का विवरण पढ़ें फिर किन धाराओं में आपको निरूद्ध किया गया है यह जानकारी देखें तथा अपराध की सूचना देने वाला कौन व्यक्ति है यह नाम देखें। पुलिस की गिरफ्तारी के बाद बंदी व्यक्ति स्वयं अपनी जमानत याचिका लगा सकता है। आरोपी को सबसे पहले एफआईआर से यह मालूम करना होगा कि किन धाराओं तथा अधिनियम के अंतर्गत मुझ पर प्रकरण दर्ज किया गया है तथा वह अपराध जमानतीय है या गैरजमानती है। जमानती अपराध में मजिस्ट्रेट और पुलिस द्वारा जमानत दे दी जाती है पर गैरजमानती अपराध की सूरत में जमानत देने या नहीं देना न्यायलय के विवेक पर निर्भर करता है। न्यायालय से यह निवेदन करें कि पुलिस मुझे जमानत याचिका दाखिल करने के लिए थोड़ा समय दे। बाजार में सभी अभिवचनों के फॉर्मेट उपलब्ध होते हैं आप उन अभिवचनों को खरीद कर न्यायालय में अपनी जमानत याचिका लगा दें। याचिका बनाकर कोर्ट बाबू को दी जा सकती है, फिर मजिस्ट्रेट उस पर संज्ञान लेंगे। यदि न्यायालय आपको जमानत पर छोड़ देता है तो किसी जमानतदार के सहयोग से आप पुलिस निरूद्ध से बाहर हो सकते हैं। पुलिस निरूद्ध से बाहर होकर आप उन धाराओं, उन अधिनियम को पढ़ें जिनके अन्तर्गत आपको आरोपी बनाया गया है। विचारण के दरमियान- जब आप पर आरोप तय हो जाएं और पुलिस द्वारा अपना अंतिम प्रतिवेदन (चालान) प्रस्तुत कर दिया जाए तो आप गवाहों का प्रतिपरीक्षण कीजिए। आपको न्यायलय के नकल विभाग में एक एप्लिकेशन लगाने पर बोर्ड पर रखी आपके मुकदमे को फाइल में लगे पुलिस के पेश किए चालान की नकल की सत्यप्रतिलिपि प्राप्त हो जाएगी। चालान को अच्छे से पढ़ना- चालान की नकल मिलने पर आप चालान को अच्छे से पढ़िए तथा किन किन गवाहों ने क्या क्या कथन किया है। इस पर मंथन कीजिए तथा ऐसे तर्क को जन्म दीजिए, जिससे आप गवाहों के दिये कथन को अपने विरुद्ध दिए कथन को अपने पक्ष में कर लें तथा अपने खिलाफ गए गवाहों को झूठा सिद्ध कर सकें। सिविल मामले में- सिविल मामले में अपना मुकदमा स्वयं लड़ना अपेक्षाकृत थोड़ा सरल होता है, क्योंकि यहां हमारे पास समय रहता है तथा हम पुलिस द्वारा निरूद्ध नहीं होते हैं। किसी भी सिविल मुकदमों में यदि आपको स्वयं मुकदमा लड़ना है तो सिविल प्रक्रिया सहिंता अच्छे से समझिए और यह देखिए कि आपके किस अधिकार का अतिक्रमण हो रहा है और वह अधिकार किस अधिनियम के अंतर्गत आ रहा है। जैसे अगर कोई संविदा विधि से संबंधित मामला है तो सबसे पहले भारतीय संविदा अधिनियम देखें। कोई मामला राजस्व से संबंधित है तो अपने प्रदेश का राजस्व अधिनियम या कोड देखिए और उस पर गहन शोध करें। मामले की समस्त कार्यवाही सी पी सी के अंतर्गत ही कि संचालित की जाती है। जहां तक संभव हो वहां तक आप अपने मुकदमे के लिए वकील नियुक्त करने का प्रयास करें क्योंकि वकील आपके महत्वपूर्ण मुकदमे में ठीक पैरवी कर सकते हैं। अपना केस खुद लड़ने का विकल्प आपातकालीन या फिर आर्थिक तंगी में प्रयोग किया जा सकता है लेकिन प्रयास करना चाहिए कि आपका मुकदमा कोई वकील ही देखे, क्योंकि यह संभव है सामने वाले पक्षकार द्वारा कोई वकील पैरवी के लिए खड़ा किया जाए।

Tuesday, December 10, 2019

छेत्राधिकार से बाहर होने पर जीरो FIR पंजीकरण अनिवार्य

 जब अपराध क्षेत्राधिकार के बाहर किया गया हो तो ज़ीरो FIR का पंजीकरण अनिवार्य : दिल्ली हाईकोर्ट 

 10 Dec 2019 1:57 PM 

           दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली के पुलिस आयुक्त को निर्देश दिया है कि वे कानून के अनुसार कार्यवाही न करने वाले उन पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करें, जिन्होंने 'जीरो एफआईआर' दर्ज करने से इनकार कर दिया था। साथ ही पुलिस आयुक्त को निर्देश दिया है कि वे शहर के सभी पुलिस स्टेशनों को एक सर्कुलर जारी करें, जिसमें कहा जाए कि जब उन्हें एक संज्ञेय अपराध की शिकायत प्राप्त हो, तब वह 'जीरो एफआईआर' दर्ज करें, भले ही अपराध उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर हुआ हो। 
        न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत की एकल पीठ ने निर्देश पारित करते हुए दिल्ली के पुलिस आयुक्त को यह भी निर्देश दिया है कि सर्कुलर जारी करके यह भी कहा जाए कि यदि किसी कारण से मामले को बंद किया जाना है तो उसे यथोचित आदेश के साथ बंद किया जाए और बिना किसी देरी के इस बारे में शिकायतकर्ता को लिखित में सूचित किया जाए। 
      यह है मामला बबीता शर्मा, इस मामले में प्रतिवादी नंबर 7 ने याचिकाकर्ता के खिलाफ 10 अप्रैल 2017 को नजफगढ़ पुलिस स्टेशन में शिकायत की थी और जालसाज़ी करने का आरोप लगाया था। उक्त थाने के एस.एच.ओ ने याचिकाकर्ता से गहन पूछताछ करने के बाद मामले को बंद कर दिया था और पहली शिकायत के निष्कर्ष को बबीता शर्मा ने किसी भी अदालत या किसी उच्च अधिकारी के समक्ष चुनौती नहीं दी।
         याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि बबीता शर्मा (प्रतिवादी नंबर 7) ने बाबा हरिदास नगर और नजफगढ़ पुलिस स्टेशनों के समक्ष समान तथ्यों के साथ आरोप लगाते हुए क्रमशः 04 अप्रैल 2018 और 03 जून 2019 को दूसरी और तीसरी बार शिकायत दर्ज की। 
       याचिकाकर्ता को संबंधित जांच अधिकारी (आई.ओ) ने दोनों बार जांच के लिए विधिवत रूप से बुलाया था, जिसमें याचिकाकर्ता ने अधिकारी को बताया था कि समान तथ्यों पर प्रतिवादी नंबर 7 की तरफ से दायर इसी तरह की शिकायतों को पहले ही बंद किया जा चुका है। जिसके बाद, याचिकाकर्ता को संबंधित जांच अधिकारी द्वारा किसी भी आगे की पूछताछ के लिए नहीं बुलाया गया था।
        जब 26 जुलाई 2019 को बबिता शर्मा (प्रतिवादी नंबर 7) द्वारा चैथी बार उन्हीं तथ्यों के आधार पर आरोप लगाते हुए सटीक शिकायत कापसहेड़ा पुलिस स्टेशन में दर्ज की गई थी, तो उक्त पुलिस स्टेशन के एस.आई ने याचिकाकर्ता को जांच में सहयोग करने के लिए बुलाया था। हालांकि, उसने एसआई को विधिवत रूप से बबीता शर्मा (प्रतिवादी नंबर 7) द्वारा समान तथ्यों के आधार पर दायर इसी तरह की शिकायतों के बारे में समझाया, परंतु अधिकारी ने उसके द्वारा दी गई जानकारी पर कोई ध्यान नहीं दिया। बदले में उसे अमानवीय तरीके से धमकाया कि अगर याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी नंबर 7 द्वारा रिश्वत के रूप में मांगे पैसे नहीं दिए तो उसे गंभीर परिणामों का सामना करना पड़ेगा। याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील ने दलील कि कापसहेड़ा के एस.आई व अन्य द्वारा याचिकाकर्ता का उत्पीड़न किया गया।
         जिसके बारे में विधिवत रूप से पुलिस आयुक्त को सूचित किया गया था लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई। राज्य की ओर से पेश हुए एपीपी ने माना कि शिकायतों की सामग्री के अनुसार, संज्ञेय अपराध बनता था और नजफगढ़ पुलिस थाने में प्राथमिकी दर्ज की जानी चाहिए थी। अदालत ने कहा, "सीआरपीसी की धारा 154 के अनुसार, यदि किसी भी पुलिस स्टेशन को संज्ञेय अपराध के किए जाने से संबंधित कोई भी सूचना मिलती है तो पुलिस स्टेशन उस मामले में एफआईआर दर्ज करने के लिए बाध्य है। अदालत ने आगे कहा, यदि अपराध उक्त पुलिस स्टेशन के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है, तो 'जीरो एफआईआर' दर्ज करने के बाद, उसे आगे की जांच के लिए संबंधित पुलिस स्टेशन में स्थानांतरित किया जाना चाहिए जहां अपराध किया गया है।" अदालत ने कहा, ''यह विवाद में नहीं है कि दिसंबर 2012 में हुए जघन्य 'निर्भया कांड' के बाद नए आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 में 'जीरो एफआईआर' का प्रावधान न्यायमूर्ति वर्मा समिति की रिपोर्ट में एक सिफारिश के रूप में सामने आया था। 
        प्रावधान में कहा गया है 'जीरो एफआईआर' पीड़ित के द्वारा किसी भी पुलिस थाने में दर्ज कराई जा सकती है, भले ही उसके आवास या अपराध की घटना का स्थान कोई भी हो।'' यह भी विवाद में नहीं है कि ''पिछले कई वर्षों से 'जीरो एफआईआर'भारत में प्रचलित है।
      '' इस प्रकार, उक्त प्रावधान या तथ्य के बारे में पता होने के बावजूद, किसी भी पुलिस स्टेशन ने प्रतिवादी नंबर 7 की शिकायत पर मामला दर्ज नहीं किया, जबकि संयुक्त रूप से माना गया है कि प्रतिवादी नंबर 7की शिकायत के अनुसार संज्ञेय अपराध किया गया है। इस प्रकार, शिकायतकर्ता/प्रतिवादी नंबर 7 को ऊपर बताए गए पुलिस स्टेशनों की निष्क्रियता के कारण दर-दर भटकने या एक थाने से दूसरे थाने पर जाने के लिए मजबूर किया गया था। याचिका का निपटारा करते हुए अदालत ने निर्देश दिया कि "इस प्रकार, मैं दिल्ली के पुलिस आयुक्त को निर्देश देता हूं कि वह एनसीटी दिल्ली के सभी पुलिस स्टेशनों और सभी संबंधितों को परिपत्र या स्थायी आदेश जारी करें कि यदि किसी पुलिस स्टेशन में संज्ञेय अपराध की शिकायत प्राप्त होती है, और अपराध अन्य पुलिस स्टेशन के क्षेत्राधिकार में हुआ है तो उस मामले में, वह पुलिस स्टेशन 'जीरो एफआईआर' दर्ज करें,जिसे इस तरह की शिकायत प्राप्त हुई है और उसके बाद मामले को संबंधित पुलिस स्टेशन को हस्तांतरित कर दिया जाए। 
       मैं आगे, इस मामले में दिल्ली के पुलिस आयुक्त को परिपत्र/ स्थायी आदेश जारी करने का निर्देश देता हूं कि कोई शिकायत सीआरएल.एम.सी यानि क्रिमनल शिकायत 5933/2019 के पेज नंबर 13 पर दिए गए 13 कारणों में से किसी भी कारण से बंद किया जाना है, तो उसे यथोचित आदेश के साथ बंद किया जाए और बिना किसी देरी के इस बारे में शिकायतकर्ता को लिखित में सूचित किया जाए।" आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहांं क्लिक करेंं 

फेमली कोर्ट विवाह के मामले भी देख सकता है

बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा, फैमिली कोर्ट वैवाहिक विवाद के साथ घरेलू हिंसा मामले की भी कर सकता है सुनवाई 

 10 Dec 2019 4:15 

बॉम्बे हाईकोर्ट ने पिछले महीने घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 की धारा 12 के तहत एक लंबित आपराधिक कार्यवाही को पुणे की फैमिली कोर्ट में ट्रांसफर करने की अनुमति दे दी, ताकि न्याय के हित में इस कार्यवाही को भी फैमिली कोर्ट में लंबित तलाक की याचिका के साथ-साथ चलाया जा सके। न्यायमूर्ति एस.सी गुप्ते ने संतोष मुलिक की तरफ से इस तरह के स्थानांतरण के लिए दायर आवेदन पर सुनवाई की थी। मुलिक ने अदालत के समक्ष दलील दी थी कि उसकी पत्नी मोहिनी चौधरी ने उसके द्वारा तलाक की याचिका दायर करने के बाद घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत उक्त कार्यवाही दायर की थी। आवेदक पति की ओर से अधिवक्ता अभिजीत सरवटे और अधिवक्ता अजिंक्य उदने उपस्थित हुए और प्रतिवादी पत्नी की तरफ से वकील सुहास रोहिले पेश हुए। आवेदक के वकील ने कहा कि न्याय के हित में विशेष रूप से घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 26 के संबंध में उक्त आवेदन को पुणे स्थित परिवार न्यायालय में स्थानांतरित किया जा सकता है, जहां दोनों मामलों की एक साथ सुनवाई की जा सकती है। जबकि, रोहिले ने तर्क दिया कि अधिनियम की धारा 12 के तहत दायर घरेलू हिंसा की कार्यवाही पर विचार करने के लिए फैमिली कोर्ट के पास कोई अधिकार या अधिकार क्षेत्र नहीं है। उन्होंने संदीप मृण्मय चक्रवर्ती बनाम रेशिता संदीप चक्रवर्ती और मिनोती सुभाष आनंद बनाम सुभाष मनोहरलाल आनंद मामलों में बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा दिए दो फैसलों का भी हवाला दिया। वकील सरवटे ने श्रीमती नीतू सिंह बनाम सुनील सिंह मामले में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट द्वारा दिए एक फैसले का हवाला दिया और दलील दी कि लंबित वैवाहिक कार्यवाही के मामले में अधिनियम की धारा 26 के तहत फैमिली कोर्ट के समक्ष आगे बढ़ने या कार्यवाही करने का विकल्प असंतुष्ट पक्षकार (जो वर्तमान मामले में प्रतिवादी है) के पास उपलब्ध है। कोर्ट ने कहा कि परिवार न्यायालय या फैमिली कोर्ट के पास उक्त अधिनियम की धारा 26 के अनुसार अधिकार क्षेत्र है- ''इस मिश्रित सिविल याचिका में किया गया सवाल, जो एक कार्यवाही का स्थानांतरण चाहता है, जो इस बारे में नहीं है कि किसके पास अधिनियम के तहत इस तरह की कार्यवाही दायर करने या फैमिली कोर्ट में स्थानांतरित करवाने का विकल्प है। सवाल यह है कि क्या यह न्याय के हित में होगा कि दो कार्यवाहियों को एक साथ सुना जाए ? और यदि पारिवारिक न्यायालय इन कार्यवाही को एक साथ सुनने के लिए उचित न्यायालय है, तो क्या उसके पास आपराधिक न्यायालय के समक्ष दायर घरेलू हिंसा कार्यवाही में की गई प्रार्थना पर विचार करने का क्षेत्राधिकार है? यदि दोनों मामलों को एक साथ सुना जाता है, तो यह निश्चित रूप से न्याय के हित में है कि उन्हें सुना जाए, क्योंकि पक्षकारों को केवल फैमिली कोर्ट के सामने आना पड़ेगा। जहां तक फैमिली कोर्ट के अधिकार क्षेत्र का संबंध है, अधिनियम की धारा 26 के संबंध में और हमारी अदालतों ने ऐसे क्षेत्राधिकार के पक्ष में निर्णय दिए हैं, तो संभवतः यह नहीं कहा जा सकता है कि फैमिली कोर्ट के पास ऐसे क्षेत्राधिकार का अभाव है।'' अदालत ने आगे कहा जो तर्क दिया गया था, उसके विपरीत, कार्यवाही का उक्त हस्तांतरण उसके अपील के अधिकार पर रोक नहीं लगाएगा- ''किसी भी तरह से , अगर घरेलू हिंसा कार्यवाही को फैमिली कोर्ट के समक्ष वैवाहिक कार्यवाही के साथ सुना जाता है तो भी इस अदालत में अपील दायर हो सकती है और इस अर्थ में, यह नहीं कहा जा सकता है कि किसी भी पक्ष ने अपना अपील दायर करने का अधिकार खो दिया है। जो खो गया है वह है सिर्फ पुनरीक्षण या संशोधन का एक अधिकार। हालांकि, उपरोक्त न्याय के सिद्धांत के आधार पर कार्यवाही के हस्तांतरण या स्थानांतरण से इनकार करने के लिए कोई आधार नहीं है।'' इस प्रकार, आवेदन की अपील को स्वीकार कर लिया गया था। आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें

बीमा कानून मुआवजा

 बीमा कानून, दुर्घटना मृत्यु और मुआवजा, जानिए अदालत के प्रमुख निर्णय

10 Dec 2019 

यद्यपि सुनने में भले ही अटपटा लगे, लेकिन 'दुर्घटना क्या है'यह हमेशा से दिलचस्प न्यायिक चर्चाओं के केंद्र में रहा है। सामान्य रूप से समझा जाता है कि दुर्घटना एक अप्रत्याशित घटना है, जो सामान्य रूप से घटित नहीं होती, बल्कि जिससे अप्रिय, दुखद या चौंकाने वाले परिणाम सामने आते हैं। 
       सुप्रीम कोर्ट ने 'श्रीमती अलका शुक्ला बनाम भारतीय जीवन बीमा निगम' मामले में अपना फैसला सुनाते हुए इस पहलू पर विस्तार से चर्चा की है। इन दिनों जीवन बीमा पॉलिसियों में 'दुर्घटना मृत्यु लाभ' की शर्त बहुत ही आम बात है। यदि किसी बीमित व्यक्ति की मौत दुर्घटना के कारण हो जाती है तो यह योजना सामान्य जीवन बीमा राशि के अलावा अतिरिक्त कवरेज भी प्रदान करती है। बेशक, इसका लाभ उठाने के लिए बीमित व्यक्ति को अतिरिक्त प्रीमियम का भुगतान करना होता है। उपरोक्त मामले में कोर्ट को यह तय करना था कि क्या कोई व्यक्ति मोटरसाइकिल चलाते वक्त दिल का दौरा पड़ने से मर जाता है तो उसे 'दुर्घटना में हुई मृत्यु' कहा जा सकता है? बीमा कंपनी ने इस आधार पर दावा नामंजूर कर दिया था कि मौत दुर्घटनावश नहीं हुई थी। इसे चुनौती देते हुए मृतक की पत्नी ने उपभोक्ता शिकायत की थी। यद्यपि राज्य आयोग ने याचिका को अनुमति दे दी थी, लेकिन बीमा कंपनी की अपील पर राष्ट्रीय आयोग ने राज्य आयोग के फैसले को पलट दिया था। उसके बाद उसने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। इस मामले में उपलब्ध चिकित्सकीय दस्तावेजों के अनुसार, मौत का कारण दिल का दौरा पड़ना था और स्कूटर से गिरने से इसका कोई लेना देना नहीं था। इस बात का कोई सबूत नहीं था कि मोटरसाइकिल से गिरने के कारण मृतक को शारीरिक चोट लगी थी या उसी के कारण उसे दिल का दौरा पड़ा था। न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ ने पाया कि इस मामले में मौत की वजह बाइक से गिरना नहीं थी। मौत हृदयाघात से हुई थी, जिसे हिंसक, दृष्टिगोचर और बाह्य तरीकों' से हुई दुर्घटना नहीं कहा जा सकता। 'एक्सिडेंटल' मीन्स' और 'एक्सिडेंटल रिजल्ट्स' अपने निष्कर्ष तक पहुंचने के दौरान, सुप्रीम कोर्ट ने 'दुर्घटना के कारकों' और 'दुर्घटना के परिणामों' की अवधारणाओं पर चर्चा की, जिनका इस्तेमाल ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए दुनिया भर के न्यायालयों द्वारा किया जाता है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने फैसले में कहा कि ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा और सिंगापुर सहित दुनिया भर की अदालतों के बीच इस बात को लेकर मतभिन्नता है कि क्या दुर्घटना बीमा दावों का निर्णय करते वक्त 'दुर्घटना के कारकों' और 'दुर्घटना के परिणामों' के बीच अंतर बनाये रखना चाहिए। 'दुर्घटना के कारकों' के दृष्टिकोण के अनुसार, मौत का केवल अप्रत्याशित होना ही उसे 'दुर्घटना में मौत' के रूप में वर्गीकृत करने के लिए पर्याप्त नहीं है। यह 'एक्सिडेंटल मीन्स'से होना चाहिए था। यह दृष्टिकोण 'हिंसक, दृष्टिगोचर एवं बाहरी तरीकों' के वाक्यांश में प्रयुक्त 'कारकों (मीन्स)' के इस्तेमाल से समर्थन हासिल करता है। 

     'लैंड्रेस बनाम फीनिक्स म्यूचुअल लाइफ इंश्योरेंस' मामले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का 1934 का फैसला गोल्फ खेलते वक्त एक व्यक्ति की लू लगने से हुई मौत से जुड़े बीमा दावों से संबंधित है। बहुमत के फैसले में यह कहते हुए बीमा दावे को नकार दिया गया कि 'बीमा आकस्मिक परिणाम के खिलाफ नहीं है' और यदि किसी बाहह्य और आकस्मिक कारणों से मौत हुई हो तभी बीमा का भुगतान किये जाने की जरूरत है। न्यायमूर्ति कॉर्दोजो ने हालांकि बहुमत से असहमति का फैसला सुनाया। उनके अनुसार, 'कारक' और 'परिणाम' के बीच अंतर कृत्रिम था। उन्होंने दलील दी थी कि यदि मौत कोई आकस्मिक परिणाम थी, तो यह निश्चित तौर पर 'एक्सिडेंटल मीन्स' से घटित हुई होगी। कनाडा के सुप्रीम कोर्ट ने लैंड्रेस मामले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के बहुमत के फैसले से अपना अलग मंतव्य दिया है। 

      'अमेरिकन इंटरनेशनल एश्योरेंस लाइफ कंपनी लिमिटेड और अमेरिकन लाइफ इंश्योरेंस कंपनी बनाम डोरोथी मार्टिन' मामले में बीमित व्यक्ति की मौत दवाओं की अधिक खुराक इंजेक्ट करने से हुई थी। बीमा कंपनी ने यह कहते हुए बीमा दावा खारिज कर दिया था कि मौत हिंसक एवं बाहरी 'एक्सिडेंटल मीन्स' के कारण नहीं हुई थी, बल्कि बीमित व्यक्ति द्वारा जानबूझकर किये गये कृत्य से हुई थी। कनाडा कोर्ट ने कहा कि यह तय करने के लिए कि क्या मौत का कारण 'एक्सिडेंटल' था, इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या इसके परिणाम वांछित थे? कोर्ट ने जस्टिस कोर्डोजो के तर्कों का इस्तेमाल करते हुए कहा, "हम (एक्सिडेंटल) 'मीन्स' को शेष कारक श्रृंखला से उपयोगी ढंग से अलग नहीं कर सकते और पूछ सकते हैं कि क्या वे जानबूझकर किये गये थे।" कोर्ट के अनुसार, 'एक्सिडेंटल डेथ'और 'डेथ बाय एक्सिडेंटल मीन्स'दोनों का एक ही अर्थ है और अनपेक्षित परिणामों को आकस्मिक माना चाहिए। कनाडाई अदालत के विचार का समर्थन करते हुए सिंगापुर सुप्रीम कोर्ट ने दवा के गैर-इरादतन ओवरडोज से संबंधित एक मामले में व्यवस्था दी कि 'आकस्मिक कारकों का परीक्षण उन मामलों में बीमा कवरेज से इन्कार करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए, जहां मौत का अनुमानित कारण मृतक का स्वैच्छिक कार्य था, जिसका अनपेक्षित परिणाम सामने आया था। जब मौत बाहरी हमले के कारण हुई 

       'कमलावती देवी बनाम बिहार सरकार' मामले में पटना हाईकोर्ट इस बात को लेकर जूझ रहा था कि क्या चुनाव ड्यूटी कर रहे एक अधिकारी की आपराधिक तत्वों के सशस्त्र हमले के कारण हुई मौत को पूरी तरह एवं प्रत्यक्ष तौर पर 'बाहरी हिंसा तथा किसी अन्य प्रत्यक्ष तरीके से हुई दुर्घटना का परिणाम' माना जा सकता है। 'एक्सिडेंटल मीन्स' और 'एक्सिडेंटल रिजल्ट्स' की अवधारणा पर विचार करने वाले न्यायमूर्ति आफताब आलम (जो बाद में सुप्रीम कोर्ट के जज भी बने) ने अपने फैसले में कहा कि वह लैंड्रेस मामले में जस्टिस कॉर्डोजो के विचार को मानने के पक्षधर हैं। यद्यपि न्यायमूर्ति आलम ने व्यवस्था दी कि यह मामला 'एक्सिडेंटल मीन्स' की कसौटी पर खरा है, साथ ही आपराधिक तत्वों द्वारा किया गया हमला 'बाह्य, हिंसक और दृष्टिगोचर' था। कोर्ट ने व्यवस्था दी कि दोनों ही पहलुओं से देखने पर यह मौत दुर्घटना बीमा लाभ के दायरे में आती है। 'अल्का शुक्ला' मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णायक रूप से यह निर्धारित करने के लिए जोखिम नहीं उठाया कि कौन सा दृष्टिकोण सही है। शीर्ष अदालत ने हालांकि इस तरह के मामलों को तय करने के लिए यह कहते हुए एक कसौटी तैयार की, "दुर्घटना लाभ कवर के तहत दावा कायम रखने के लिए यह स्थापित किया जाना चाहिए कि बीमित व्यक्ति को शारीरिक चोट लगी है जो मुकम्मल और प्रत्यक्ष तौर पर दुर्घटना का परिणाम है। दूसरे शब्दों में, दुर्घटना और शारीरिक चोट के बीच एक निकट संबंध मौजूद होना चाहिए। इसके अलावा, दुर्घटना बाहरी हिंसा और दृश्यमान साधनों का परिणाम हो।" 'हिंसक, दृष्टिगोचर एवं बाह्य' - इन शब्दों के अर्थ दुर्घटना लाभ उपबंध में 'एक्सिडेंटल मीन्स' के अभिप्राय की व्याख्या करने वाले इन शब्दों के निहितार्थों को समझना महत्वपूर्ण है। 'हिंसक साधनों' का अर्थ यह नहीं है कि इसमें खुला एवं पाश्विक बल का इस्तेमाल होना चाहिए। यहां तक कि हिंसा की सूक्ष्म घटना, यथा- जहरीली गैस के आकस्मिक सांस लेने, को भी 'हिंसा' माना जाएगा। कोई भी बाहरी कृत्य, जो मानव शरीर को कार्य करने में अक्षम बनाये, उसे 'हिंसक' माना जायेगा। 'हिंसक' शब्द का इस्तेमाल केवल 'किसी हिंसा के बिना' प्रतिशोध में किया जाता है। (इंग्लैंड का हैल्स्बरी कानून का चौथा संस्करण, 2013 (वॉल्यूम 25)) हैल्स्बरी नियम आगे बताता है कि 'बाहरी कारणों' का इस्तेमाल कुछ आंतरिक मामलों के प्रतिकूल के रूप में किया जाता है। कोई भी कारण, जो आंतरिक नहीं है वह बाह्य हो सकता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि चोट बाहरी होना चाहिए। हो सकता है, और अक्सर होता भी है कि आंतरिक चोट की मौजूदगी बाहर से नहीं प्रतीत होती है। इसलिए इस शब्द का प्रभाव इस बात को रेखांकित करने के लिए है कि पहचान योग्य किसी बाहरी चीजों के संदर्भ के बिना मानव शरीर के भीतर उत्पन्न होने वाले विकार दुर्घटना लाभ के तहत कवर नहीं होते हैं। इस धारणा के आधार पर, केरल उच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि किसी दुर्घटना को 'हिंसक' के रूप चिह्नित करने के लिए किसी तीसरे पक्ष या किसी बाहरी एजेंसी के कार्य की आवश्यकता नहीं थी 

        (वलसाला देवी बनाम मंडल प्रबंधक, कोट्टायम)। संबंधित मामले में उस बीमाधारक की मृत्यु को लेकर दुर्घटना लाभ का दावा किया गया था, जिसकी मौत एक ऊंची इमारत से गिरने के कारण हुई थी। इस बीमा दावे को यह कहते हुए ठुकरा दिया गया था कि यह 'हिंसक' घटना नहीं थी। बीमा कंपनी ने उस मेडिकल रिपोर्ट पर भरोसा किया था, जिसमें कहा गया था कि मृतक 'मधुमेह और उच्च रक्तचाप' से पीड़ित था। इसलिए बीमा कंपनी ने कहा कि इमारत से बीमित व्यक्ति के गिरने की वजह चिकित्सा की स्थिति थी, न कि कोई बाह्य कारण। बीमा कंपनी के इस रुख को नकारते हुए हाईकोर्ट ने कहा :- "यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि केवल तीसरे पक्ष के कारण हुई दुर्घटना ही इस उपबंध के तहत कवर होगा। चाहे यह किसी तीसरे पक्ष द्वारा अंजाम दिया गया हो, फिसल जाने के कारण या जैसा मौजूदा मामले में हुआ, इमारत से गिरने जैसी दुर्घटना इस बीमा कवरेज के दायरे में आयेगी, यदि यह घातक है। यहां तक कि इमारत से गिरने की घटना मधुमेह या उच्च रक्तचाप के कारण हुई, फिर भी यह दुर्घटना होगी, क्योंकि चिकित्सकीय कारणों से मौत नहीं हुई। इमारत से गिरना ही मौत की एक मात्र वजह थी, क्योंकि गिरने के कारण सिर में चोट लगी। इस मामले में 'बाहरी, हिंसक और दृष्टिगोचर' कारण सिर की चोट है और यही चोट मौत का कारण थी। इमारत से गिरना और सिर में चोट लगना, जिसके कारण मौत हुई, बाहरी कारण है, जबकि रक्तस्राव अथवा हाइपोग्लाइसीमिया आंतरिक कारण हैं। चोट दृष्टिगोचर भी है और इमारत से घातक तरीके से गिरना हिंसा का रूप।" 

      'अंबालाल लल्लूभाई पांचाल बनाम एलआईसी' मामले में गुजरात हाईकोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि कुत्ते के काटने से हुई मौत भी दुर्घटनावश हुई मौत है। कोर्ट ने कहा कि अप्रत्याशित रूप से होने वाले सभी हादसों, जो जानबूझकर या स्वैच्छिक नहीं हैं, को कवर करने के लिए 'दुर्घटना को एक व्यापक अर्थ दिया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा, "कुत्ते का काटना किसी इरादे से या अभिकल्पना के तहत नहीं किया जा सकता। यह अप्रत्याशित नुकसान है। कुत्ते का काटना निश्चित रूप से बाह्य, हिंसक और दृश्यमान' कारण होता है जिससे हुए नुकसान की वजह से मौत हुई। इसलिए हमारा मानना है कि कुत्ते के काटने से हुई मौत पॉलिसी उपबंध के तहत दुर्घटना लाभ के दायरे में 'बाह्य, हिंसक और दृश्यमान' कारण है।" नैसर्गिक रूप से हुई बीमारी दुर्घटना नहीं सुप्रीम कोर्ट ने 'शाखा प्रबंधक, नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम श्रीमती मौसमी भट्टाचार्जी और अन्य' के मामले में व्यवस्था दी थी कि मोजाम्बिक में मलेरिया के कारण होने वाली मृत्यु को 'दुर्घटनावश मृत्यु' नहीं कहा जा सकता। कोर्ट ने इस तथ्य के आधार पर यह व्यवस्था दी थी कि वह (मोजाम्बिया) इलाका मलेरिया की आशंका वाला क्षेत्र था और वहां मच्छर का काटना नैसर्गिक प्रक्रिया के बाहर नहीं था। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्टों में कहा गया है कि मोजाम्बिक में तीन में से एक व्यक्ति मलेरिया से पीड़ित है। कोर्ट ने कहा, "इसलिए यह मान लिया गया है कि जहां रोग नैसर्गिक रूप से हुआ हो, वह दुर्घटना की परिभाषा के दायरे में नहीं आयेगा। हालांकि, कोई रोग या शारीरिक स्थिति तब दुर्घटना के रूप में मानी जा सकती है जब इसका कारण या संचरण का तरीका अप्रत्याशित तथा अनपेक्षित हो।" हत्या एक दुर्घटना ? राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (एनसीडीआरसी) ने 'रॉयल सुन्दरम एलायंस इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम पवन बलराम मूलचंदानी' मामले में व्यवस्था दी थी कि हत्या को दुर्घटनावश हुई मृत्यु माना जा सकता है। आयोग ने 'निस्बेट बनाम रायने एंड बर्न' मामले में ब्रिटेन की अपीलीय अदालत के फैसले का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि मृतक व्यक्ति के दृष्टिकोण से हत्या एक दुर्घटना थी, क्योंकि उसकी वजह से वह व्यक्ति प्रभावित हुआ था। हेस्ल्बरी मामले से आयोग ने उद्धृत किया कि यदि चोट का तत्काल कारण बीमाधारक का जानबूझकर और अपनी इच्छा से किया गया कार्य नहीं है तो यह एक दुर्घटना होगी। आयोग ने कहा, "यह निष्कर्ष निकालना उचित और तर्कसंगत है कि व्यक्ति अनपेक्षित और गैर-इरादतन 'एक्सिडेंटल इंज्यूरी' के कारण होने वाली मौत के मद्देनजर व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा कराता है। इस मामले में, बीमाधारक द्वारा तत्काल जानबूझकर कोई ऐसा कार्य नहीं किया गया, जिसके कारण उसकी हत्या हुई। इस मामले में यह स्पष्ट नहीं है कि बीमित व्यक्ति ने तत्काल जानबूझकर किये गये किसी कार्य से या अपनी लापरवाही अथवा प्रवृत्ति के कारण या उकसावे में आकर घायल होने लायक स्थिति में खुद को डाला। उसकी मृत्यु अनपेक्षित और अप्रत्याशित घटना अर्थात् दुर्घटना के कारण हुई। पॉलिसी में वास्तव में 'हत्या'खासतौर पर अपेक्षित नहीं थी। इसलिए, मामले के तथ्यों के आईने में, मौत स्पष्ट रूप से आकस्मिक थी तथा बीमा पॉलिसी के तहत स्पष्टत: कवर थी।" 'रीता देवी बनाम न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड' मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने वाहन चोरी की कोशिश करने वाले व्यक्तियों के हाथों एक ऑटोरिक्शा चालक की हत्या को मोटर वाहन अधिनियम के तहत थर्ड पार्टी इंश्योरेंस वाले वाहन के इस्तेमाल से उत्पन्न दुर्घटना करार दिया था। जहां तक चालक की बात है तो यात्रियों द्वारा चोरी का प्रयास एक अप्रत्याशित घटना थी और अगर चालक इस तरह के प्रयास में मारा जाता है, तो यह नैसर्गिक कारण से इतर की घटना है। कोर्ट ने कहा था कि इस घटना को एक दुर्घटना के रूप में माना जाये क्योंकि यह ड्यूटी के दौरान घटित हुई। जब दुर्घटना के कारण बीमारी हो ऐसी परिस्थितियां भी हो सकती हैं जहां दुर्घटना तत्काल मृत्यु का कारण नहीं बनती हो, लेकिन अन्य स्वास्थ्य जटिलताओं को जन्म दे, जिससे मृत्यु हो सकती है। ऐसे मामले में, जहां एक व्यक्ति की दुर्घटना के तीन दिन बाद दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई, एनसीडीआरसी ने माना कि इसे दुर्घटना के कारण हुई मौत माना जाना चाहिए। आयोग ने 'कृष्णावती बनाम एलआईसी' मामले में निष्कर्ष दिया, "पहले दुर्घटना हुई, जिसके कारण व्यक्ति घायल हुआ और सीने में दर्द हुआ, और अंतत: उसकी मौत हो गयी। हो सकता है, चिकित्सा की भाषा में मौत का कारण 'दिल का दौरा पड़ना' बताया जा सकता है, लेकिन दिल का दौरा पड़ने का मुख्य कारण दुर्घटना की वजह से चोटिल होना था। सीने में दर्द की वजह दुर्घटना थी और उसके बाद दिल का दौरा पड़ा।" जब काम के तनाव के कारण मौत होती है ऐसे कई फैसले हैं जो कहते हैं कि अगर मौत काम से जुड़े तनाव के कारण होती है, तो इसे रोजगार के दौरान होने वाली दुर्घटना के रूप में माना जाना चाहिए, ताकि बीमा कवरेज की सुरक्षा मिल सके। ये निर्णय कामगार क्षतिपूर्ति अधिनियम के संदर्भ में दिए गए हैं।
        'यूनाइटेड इंडियन इंश्योरेंस कंपनी बनाम सी एस गोपालकृष्णन' के मामले में केरल हाईकोर्ट का निर्णय इस बिंदु पर एक अच्छा संदर्भ है, क्योंकि इसमें उच्च न्यायालय के कई अन्य फैसलों पर चर्चा की गई है, जिसमें कहा गया है कि कड़ी मेहनत की वजह से हुई बीमारी के कारण मृत्यु एक घातक दुर्घटना है।
        'लक्ष्मीबाई आत्माराम बनाम चेयरमैन और ट्रस्टी, बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट, चागला' मामले में खंडपीठ के लिए मुख्य न्यायाधीश ने कहा, "यदि नौकरी के कारण मृत्यु के कारक में योगदान हुआ या नौकरी की वजह से मौत हुई, या यों कहें कि मौत न केवल बीमारी से हुई बल्कि बीमारी और नौकरी दोनों के कारण, तब नियोक्ता जिम्मेदार होगा तथा यह कहा जा सकता है कि नौकर ी के कारण ही मौत हुई।" इस तरह के उपबंधों में पाया जाने वाला एक मानक वाक्यांश है- "हिंसक, दृश्यमान और बाहरी वजहों से हुई दुर्घटना के कारण मौत"।