Thursday, December 5, 2019

वकील अपनी सेवाओं का विग्यापन नहीं दे सकते क्यों? जानिये

 जानिए वकीलों को अपनी सेवाओं का विज्ञापन देने की अनुमति क्यों नहीं है? समझिये प्रतिबंध से जुड़ी अन्य महत्वपूर्ण बातें

5Dec 2019 1:12 PM 

भारत में हर साल बड़ी संख्या में लोग, बार काउंसिल में वकील के तौर पर नामांकित होने के लिए आवेदन करते हैं। इसके पश्च्यात, इस पेशे में अपना नाम बनाने की आकांक्षा के साथ वे वकालत शुरू करते हैं। लेकिन न तो कानून पेशा अपनाने वाले लोगों को और न ही लॉ फर्मों को अपने पेशे का विज्ञापन करने का अधिकार प्राप्त है। दरअसल वकीलों को ऐसा कुछ भी करने से प्रतिबंधित किया जाता है, जो भावी मुवक्किलों को प्रभावित कर सकता है। भारत में अधिवक्ताओं को बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा तैयार किए गए नियमों के तहत उनकी सेवाओं या उनके पेशे को लेकर विज्ञापन देने से रोक दिया जाता है। जैसा कि आर. एन. शर्मा, एडवोकेट बनाम हरियाणा राज्य 2003 (3) RCR (Criminal) 166 (P&H), के मामले में यह माना गया था कि एक वकील, कोर्ट का एक अधिकारी होता है, और कानूनी पेशा, व्यापार या व्यवसाय नहीं है; यह एक महान पेशा है और अधिवक्ताओं को कानूनी रूप से तय सीमाओं के भीतर अपने भावी मुवक्किलों के लिए न्याय करने का प्रयास करना होता है और शायद इसी कारणवश वकीलों को अपनी सेवाओं का प्रचार करने से रोका जाता है। वकीलों द्वारा विज्ञापन दिए जाने पर क्यों है रोक? कानूनी पेशेवरों द्वारा विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाने की शुरुआत, ब्रिटिश शासन के दौरान विकसित विक्टोरियन धारणाओं से शुरू हुई। भारत में, यूके के समान, कानूनी पेशे को एक सम्मानजनक पेशा माना जाता है, यही कारण है कि कानूनी पेशेवरों द्वारा विज्ञापन दिया जाना उचित नहीं माना जाता है, और व्यापक रूप से इसे स्वीकार नहीं किया जाता है (हालाँकि अब यूके में वकील, अपनी सेवाओं का विज्ञापन दे सकते हैं)। वकीलों को विज्ञापन देने से रोका जाना इस विचार पर आधारित है कि यदि इस पेशे में व्यावसायिकता व्याप्त हो जाएगी, तो यह प्रवृति इस पेशे के सम्मान को कम करेगी और वकील अपने ज्ञान, कौशल, भावना और आत्मसम्मान पर ध्यान देने के बजाय, उनको मिलने वाले प्रतिफल (लाभ, फीस, उपहार इत्यादि) पर ध्यान केन्द्रित करने लग जायेंगे। जैसा कि आर. एन. शर्मा मामले में भी कहा गया कि एक वकील का मुख्य उद्देश्य, न्याय दिलाना होना चाहिए न कि अपनी व्यक्तिगत सफलता सुनिश्चित करना, क्यूंकि वह मुख्यतः कोर्ट का एक अधिकारी होता है। विज्ञापन देने पर रोक होने के अन्य कारणों में विज्ञापनों की भ्रामक प्रकृति और सेवाओं में गुणवत्ता का नुकसान भी शामिल है। बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र बनाम एम. वी. दधोलकर के मामले में जस्टिस कृष्णा अय्यर ने यह कहा था कि "कानून कोई व्यापार नहीं है, इसमें किसी माल को बेचा नहीं जाता है और इसलिए व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा को कानूनी पेशे को बदनाम नहीं करना चाहिए." गौरतलब है कि, बीसीआई द्वारा प्रदान किए गए विज्ञापन प्रतिबंध सम्बन्धी नियम (जिन्हें हम आगे समझेंगे), यकीनन भारत में मध्यस्थता संस्थानों पर लागू नहीं होते हैं, क्योंकि ऐसे संस्थान 'कानूनी सेवा' देने के बजाय 'विवाद समाधान सेवाओं' की पेशकश करते हैं। ऐसा इसलिए भी है कि बार काउंसिल के नियम, केवल अधिवक्ताओं (लॉ फर्मों सहित) पर लागू होते हैं। यह विचार अवश्य सामने रखा जाता है कि कानूनी सेवाओं के उपभोक्ता (मुवक्किल/पक्षकार) को, किसी भी अन्य सेवाओं के उपभोक्ता (जैसे एक डॉक्टर से चिकित्सा सेवा प्राप्त करना) जैसे, अपने पैसे के लिए सर्वोत्तम मूल्य प्राप्त करने का अधिकार है। हालाँकि, मौजूदा नियमों के अंतर्गत वकीलों पर विज्ञापन देने पर लगे प्रतिबन्ध के चलते, मुक़दमे का पक्षकार अपनी भुगतान क्षमता के भीतर एक वकील को खोजने में सक्षम नहीं है। हालाँकि सी. डी. सेक्किज्हर बनाम सेक्रेटरी, बार काउंसिल, मद्रास AIR 1967 Mad 35 के मामले में जस्टिस वीरास्वामी ने इस ओर गौर किया था कि कानून के पेशे के एक सदस्य द्वारा, किसी भी रूप में विज्ञापन दिया जाना, निंदनीय आचरण के रूप में देखा जाता है। यह इसलिए भी है कि इस पेशे से जुड़े सज्जनों ने इस पेशे की महानता को विकसित किया है और खुद के लिए बड़े मानक स्थापित किये हैं, इस पेशे को मिलने वाले सम्मान और गरिमा के चलते यह पेशा, ऐसा उच्च स्थान प्राप्त करने के लिए उपयुक्त भी है। बार काउंसिल ऑफ इंडिया नियम 36 क्या कहता है? बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स के नियम 36 में कहा गया है कि भारतीय लॉ फर्म और वकीलों को ऑफलाइन या ऑनलाइन दोनों तरह से अपना विज्ञापन करने/देने की अनुमति नहीं है। बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स के नियम 36 में यह कहा गया है कि भारत में वकील, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से परिपत्रों, विज्ञापनों, व्यक्तिगत संचार या साक्षात्कारों के माध्यम से या अखबारों में टिप्पणियों या तस्वीरों को प्रस्तुत करने या प्रेरित करने के माध्यम से काम मांग या अपना विज्ञापन नहीं कर सकते हैं। नियम यह भी कहता है कि एक वकील के नाम की साइनबोर्ड या नेम-प्लेट, एक उचित आकार की होनी चाहिए और इनके जरिये यह इंगित नहीं किया जाना चाहिए कि वह वकील, बार काउंसिल के अध्यक्ष या सदस्य हैं, या किसी एसोसिएशन के सदस्य हैं या वह किसी व्यक्ति या संगठन से जुड़े हैं या वह न्यायाधीश या महाधिवक्ता रहे हैं। हालाँकि, बीसीआई ने नियम 36 में संशोधन करने हेतु वर्ष 2008 में एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसके अंतर्गत वकीलों को अपनी वेबसाइट पर, अपना नाम, पता, टेलीफोन नंबर, ईमेल आईडी, व्यावसायिक और शैक्षणिक योग्यता, नामांकन और अपने प्रैक्टिस क्षेत्र से संबंधित जानकारी प्रस्तुत करने की अनुमति दे दी गयी है। यह जानकारी प्रदान करने वाले कानूनी पेशेवरों को यह घोषणा भी करनी होती है कि उन्होंने पूर्ण रूप से वास्तविक जानकारी प्रस्तुत की है। एक वकील, जो इन नियमों का उल्लंघन करता है, उसके खिलाफ अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है। इस धारा ('कदाचार के लिए अधिवक्ताओं की सजा') के तहत प्राप्त शिकायत को लेकर, एक राज्य बार काउंसिल के पास निम्नलिखित शक्तियां हैं: शिकायत को खारिज करें, अधिवक्ता को फटकारें, वकील को सीमित अवधि के लिए प्रैक्टिस करने से रोक दें, अधिवक्ता का नाम अधिवक्ताओं के राज्य रोल से हटा दें। In Re: (13) एडवोकेट्स बनाम अज्ञात AIR 1934 All 1067 के मामले में, यह अभिनिर्णित किया गया था कि अखबारों में लेख प्रकाशित करते हुए, जहां लेखक ने खुद को न्यायालयों में वकालत करने वाले एक वकील के रूप में वर्णित किया था, वह अपनी सेवाओं का प्रचार करने का एक सस्ता तरीका है। एस. के. नाइकर बनाम प्राधिकृत अधिकारी (1967) 80 Mad. LW 153 के मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने यह माना था कि एक वकील का साइन बोर्ड या नेम प्लेट, मध्यम आकार का होना चाहिए और यह भी कहा गया कि एक वकील के हस्ताक्षर के तहत, अखबार में प्रकाशन के लिए लेख लिखना, पेशेवर शिष्टाचार का उल्लंघन है। अन्य देशों में क्या हैं नियम? अमेरिका में, वकीलों द्वारा विज्ञापन दिए जाने पर प्रतिबंधों की संवैधानिक वैधता को बेट्स बनाम स्टेट बार ऑफ एरिज़ोना (1977) के मामले में चुनौती दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रथम संशोधन (जो अन्य बातों के अलावा, वाक्‌-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य सुनिश्चित करता है) के संरक्षण में ऐसे प्रचार को उचित बताया क्योंकि इस तरह के संचार/प्रचार से जनता को अपने हित में निर्णय लेने की शक्ति मिलती है और इससे उचित मूल्य की जानकारी प्राप्त हो सकती है। यूके में स्थिति थोड़ी अलग है, हालांकि शुरुआत में, पारंपरिक विक्टोरियन धारणाओं के कारण, यूके में कानूनी विज्ञापन निषिद्ध था, परन्तु वर्ष 1970 में एकाधिकार और विलय आयोग और वर्ष 1986 में फेयर ट्रेडिंगस कार्यालय की समीक्षा के बाद (जिन्होंने कानूनी लाभ और पेशेवरों द्वारा विज्ञापन देने के फायदे पर प्रकाश डाला), ब्रिटेन में यह प्रतिबंध हटा दिया गया। यूके में, सॉलिसिटर पब्लिसिटी कोड, 1990 वकील द्वारा विज्ञापन दिए जाने को नियंत्रित करता है, लेकिन कानूनी सेवाओं के विज्ञापन की अनुमति देता है। हालाँकि वकील द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त होनी चाहिए कि भावी मुवक्किल और अन्य व्यक्ति, उचित जानकारी के साथ विकल्प चुनने में समर्थ हो सकें। इसके अलावा, सिंगापुर कानूनी पेशे (व्यावसायिक आचरण) नियम 2015 कानूनी पेशेवरों द्वारा ऐसे नियमों के अनुसार, 'प्रचार' की अनुमति देता है। नियम में बदलाव: समय की मांग? भारत में न्यायिक प्रणाली के दायरे में आने वाले पक्षकारों के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं है जिसके जरिये वे इस क्षेत्र में बेहतर वकीलों का चुनाव करने के लिए जानकारी प्राप्त कर सकें। अर्थात ऐसी कोई एकल एजेंसी नहीं है, जो संभवतः 'अच्छे" वकीलों की एक विश्वसनीय सूची प्रदान कर सके। कानूनी पेशा निस्संदेह एक महान पेशा है। लेकिन इसके साथ ही, यह बड़े पैमाने पर लोगों की जरूरतों को पूरा कर रहा है। इस बात को भी ध्यान में रखते हुए, विज्ञापन सम्बन्धी नियमों को और बेहतर किया जा सकता है। हालाँकि, भारत जैसे देश में, आबादी का एक बड़ा वर्ग निरक्षर है, और इसके चलते एक ऐसी स्थिति भी उत्पन्न होती है, जहाँ असंगत वकील, जनता का शोषण कर सकते हैं, जबकि कानून परंपरागत रूप से सार्वजनिक सेवा के लक्ष्य के साथ जुड़ा हुआ पेशा है, इसलिए वकीलों पर लगाये गए विज्ञापन सम्बन्धी प्रतिबन्ध की वकालत करने वाले लोग भी कम नहीं हैं। 

घरेलू हिंसा के प्रमुख फैसले -2006-2019

 घरेलू हिंसा कानून पर सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख फैसले [2006-2019] 


28 Nov 2019 7:22 PM 

 महिलाओं की सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005, 26 अक्टूबर 2006 को लागू किया गया था। अधिनियम का उद्देश्य "परिवार के भीतर किसी भी तरह की हिंसा की शिकार महिलाओं को संविधान के तहत प्रत्याभूत अधिकारों को अधिक प्रभावी संरक्षण प्रदान करना" है। अशोक कीनी महिलाओं की सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005, 26 अक्टूबर 2006 को लागू किया गया था। अधिनियम का उद्देश्य "परिवार के भीतर किसी भी तरह की हिंसा की शिकार महिलाओं को संविधान के तहत प्रत्याभूत अधिकारों को अधिक प्रभावी संरक्षण प्रदान करना" है। सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून के क्रियान्वयन में कुछ महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किए हैं और व्याख्याएं दी हैं। इस आलेख में इस अधिनियम के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के लगभग सभी फैसलों को शामिल किया गया है। साझा घरेलू और वैकल्पिक आवास [एसआर बत्रा बनाम तरुणा बत्रा (2006)] घरेलू हिंसा अधिनियम के लागू होने के लगभग दो महीने बाद, सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में अधिनियम के कुछ प्रावधानों की व्याख्या की थी। इस मामले में, अदालत ने पत्नी की ओर से से दिए निवेदन का निस्तारण किया था कि साझा घर की परिभाषा में एक ऐसा घर शामिल है, जहां पीड़ित व्यक्ति रहता हो अथवा जीवन की किसी अवस्था में घरेलू रिश्तों में रह चुका हो। अदालत ने धारा 17 (1), धारा 2 (एस) का हवाला देते हुए कहा कि पत्नी केवल साझा घर में निवास के अधिकार का दावा करने की हकदार है और एक `साझा घर 'का मतलब केवल उस घर से है या लिया जाता है जो पति द्वारा किराए पर लिया गया हो या उसी का हो, या वह घर जो संयुक्त परिवार से संबंधित हों, जिसमें पति भी एक सदस्य हो। इसके अलावा, धारा 19 (1) (एफ) की व्याख्या करते हुए, जस्टिस एसबी सिन्हा और जस्‍टिस मार्कंडेय काटजू की बेंच ने कहा कि वैकल्पिक आवास के लिए केवल पति के खिलाफ ही दावा सकता है, न कि पति के ससुराल वालों या अन्य रिश्तेदारों के खिलाफ। इस मामले के तथ्यों में माना गया है कि पत्नी अपनी सास की संप‌त्त‌ि में आवास के अधिकार का दावा नहीं कर सकती है। ' जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें 'विवाह की प्रकृति के संबंध' की आवश्यकताएं [डीवेलुसामी बनाम डी पच्चीमाला (2010)] इस मामले में अदालत ने कहा कि अधिनियम की धारा 2 (एफ) में 'घरेलू संबंध' की परिभाषा में न केवल विवाह के संबंध, बल्कि 'विवाह की प्रकृति' के संबंध भी शामिल हैं। 'विवाह की प्रकृति के संबंध' को घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत परिभाषित नहीं किया गया है, बेंच ने इसका अर्थ समझाया है। जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस टीएस ठाकुर की पीठ ने कहा कि सभी लिव-इन रिश्‍ते 'विवाह की प्रकृति के संबंध' नहीं होंगे, उन्हें नीचे दी गई आवश्यकताओं (सामान्य कानून विवाह की आवश्यकताओं) को पूरा करना होगा और इसके अलावा दोनों पक्षों को एक साथ 'साझा घर' में रहना चाहिए। -जोड़े को खुद को समाज में जीवनसाथी के रूप में पेश करना चा‌हिए। -उन्हें शादी करने की कानूनी उम्र का होना चाहिए -उन्हें अविवाहित होने सहित अन्य प्रकार से कानूनी विवाह में प्रवेश करने योग्य होना चाहिए। -उन्होंने स्वेच्छा से सहवास किया और पर्याप्त अवधि के लिए जीवनसाथी के रूप में खुद को दुनिया के समक्ष पेश किया हो। आगे कहा गया था कि केवल वीकेंड एक साथ बिताना या वन नाइट स्टैंट 'घरेलू संबंध' की श्रेणी में नहीं आ पाएगा। अगर किसी व्यक्ति के पास एक 'रखैल' होती है, जिसे वह वित्तीय रूप से भरण-पोषण देता है और मुख्य रूप से यौन उद्देश्य के लिए प्रयोग करना है और/या एक नौकर के रूप में उपयोग करता है, तो ये संबंध शादी की प्रकृति में संबंध नहीं गिने जाएंगे।' जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें पति की महिला रिश्तेदारों के खिलाफ शिकायत दर्ज की जा सकती है [संध्या मनोज वानखड़े बनाम मनोज भीमराव वानखड़े (2011)] अधिनियम की धारा 2 (q) में वाक्यांश "प्रतिवादी" की व्याख्या करते हुए अदालत ने कहा कि पति या पुरुष साथी की महिला रिश्तेदारों को शिकायत के दायरे से बाहर नहीं रखा गया है। यह माना गया था कि विवाह की प्रकृति के रिश्ते में रहने वाली एक पीड़ित पत्नी या महिला, पति या पुरुष साथी के किसी रिश्तेदार के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकती है। जस्टिस अल्तमस कबीर और स‌ीरियाक जोसेफ की पीठ ने कहा था: "उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट है कि यद्यपि धारा 2 (q) प्रतिवादी को किसी भी वयस्क पुरुष के रूप में परिभाषित करती है, जो कि पीड़ित व्यक्ति के साथ घरेलू संबंध में है या रह चुका है, ये शर्त पति या पुरुष साथी के रिश्तेदार को श‌िकायत के दायरे में शामिल कर, जो विवाह की प्रकृति के रिश्ते में रहने वाली पीड़‌ित पत्नी या महिला ने दर्ज कराई है, उक्त परिभाषा के दायरे को बड़ा करती है। "यह सच है कि शब्द " महिला " धारा 2 (q) की शर्त में इस्तेमाल भी नहीं किया गया है, लेकिन दूसरी ओर, यदि विधानमंडल का इरादा महिलाओं को शिकायत के दायरे से बाहर करने का है, जो एक पीड़ित पत्नी द्वारा दायर किया जा सकता है, तो महिलाओं को विशेष रूप से बाहर रखा जाएगा, इसके बजाय शर्त में यह दिया जा रहा है कि पति या पुरुष साथी के किसी रिश्तेदार के खिलाफ भी शिकायत दर्ज की जा सकती है। "रिश्तेदार" शब्द के लिए कोई प्रतिबंधात्मक अर्थ नहीं दिया गया है, न ही उक्त शब्द को घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 में केवल पुरुषों तक सीमित करने के लिए परिभाषित किया गया है...ऐसी परिस्थितियों में, यह स्पष्ट है कि घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के प्रावधानों के तहत की जा सकने वाली शिकायत के दायरे से पति या पुरुष साथी की महिला रिश्तेदारों को बाहर करने का विधायिका का इरादा कभी नहीं था।" जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें घरेलू हिंसा अधिनियम लागू होने से पहले पार्टियों का संचालन [वीडी भनोट बनाम सविता भनोट (2012)] इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा कि घरेलू हिंसा अधिनियम के लागू होने से पहले से भी पक्षों के आचरण को धारा 18, 19 और 20 के तहत आदेश पारित करते समय ध्यान में रखा जा सकता है। यहां तक कि अगर एक पत्नी, जो अतीत में एक ही घर में रह चुकी है, अब साथ नहीं रहती, जब अधिनियम लागू हुआ, तब वह अधिनियम के संरक्षण की हकदार होगी। मामले में फैसला देने वाली बेंच में जस्टिस अल्तमस कबीर और जस्टिस जे चेलमेश्वर शामिल थे। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें कैसे जानें कि लिव इन रिलेशनशिप विवाह की प्रकृति का है [इंद्र सरमा बनाम वीकेवी सरमा (2013)] क्या "लिव-इन रिलेशनशिप" डीवी अधिनियम की धारा 2 (एफ) के तहत "घरेलू संबंध" की परिभाषा के तहत "विवाह की प्रकृति के संबंध" जैसा होगा और ऐसे संबंध में शामिल महिला के रखरखाव में विफल रहने पर संबध विच्छेद हाने को डीवी अधिनियम की धारा 3 के अर्थ में "घरेलू हिंसा" की श्रेणी में रखा जाएगा? सुप्रीम कोर्ट ने उक्त मामले में इसी मुद्दे पर विचार किया था। जस्टिस केएस राधाकृष्णन और ज‌स्ट‌िस प‌िनाकी चन्द्र घोष की बेंच ने इस मसले पर विस्तृत चर्चा के बाद, किन परिस्थितियों में लिव-इन रिलेशनशिप "विवाह की प्रकृति में संबंध" के अंतर्गत आएगा, के परीक्षण के लिए दिशानिर्देश तय किए। -संबंध की अवधि- डीवी अधिनियम की धारा 2 (एफ) ने "किसी भी समय" वाक्यांश का उपयोग किया है, जिसका अर्थ है एक संबंध को बनाए रखने और जारी रखने के लिए समय की उचित अवधि जो अलग-अलग मामले में भिन्न हो सकती है, जो हालात पर निर्भर है -साझा घर- इसे डीवी एक्ट की धारा 2 (एस) के तहत परिभाषित किया गया है और इसलिए, आगे विस्तार की आवश्यकता नहीं है। -संसाधनों और वित्तीय व्यवस्थाओं की पूलिंग- एक दूसरे का सहयोग करना, या उनमें से किसी एक का, वित्तीय रूप से, बैंक खातों को साझा करना, दोनों के नाम या महिला के नाम पर अचल संपत्तियों को अर्जित करना, व्यापार में दीर्घकालिक निवेश, अलग और संयुक्त नामों में शेयर ताकि लंबे समय तक संबंध बना रहे, ये सभी कारक हो सकते हैं। -घरेलू व्यवस्था- जिम्मेदारी सौंपना, विशेष रूप से लिए महिला को घर चालाने की, घर की सफाई, खाना बनाना, घर की देखरेख या रख-रखाव जैसी गतिविधियां करना आदि, विवाह की प्रकृति के संबंध का संकेत हैं। -यौन संबंध- विवाह जैसे संबंध यौन संबंध को संद‌र्भित करते हैं, नकि केवल आनंद के लिए, बल्‍कि भावनात्मक और अंतरंग संबंध के लिए, बच्चों के जन्म के लिए, ताकि भावनात्मक सहयोग, सहवास, भौतिक स्नेह, देखभाल आदि हो सके। -बच्चे- बच्चे पैदा करना शादी की प्रकृति के रिश्ते का एक मजबूत संकेत है। इसलिए, पक्ष ‌दीर्घजीवी संबंध बनाने का इरादा रखते हैं। बच्‍चों के पालनपोषण के लिए की जिम्‍मेदारी साझा करना और उनका सहयोग करना भी एक मजबूत संकेत है। सार्वजनिक स्तर पर सामाजीकरण- सार्वजनिक स्तर पति-पत्नी के रूप में पेश आना, दोस्तों, संबंध‌ियों और अन्य लोगों के साथ ऐसे उठना-बैठना, जैसे कि वे पति-पत्नी हैं, ऐसे विवाह की प्रकृति के संबंध रखना एक मजबूत परि‌‌स्थिति है। पक्षों का इरादा और आचरण- पार्टियों का सामान्य इरादा कि उनका रिश्ता क्या है और इसमें शामिल होना है, और उनकी संबंधित भूमिकाएं और जिम्मेदारियों के रूप, मुख्य रूप से उस रिश्ते की प्रकृति को निर्धारित करते हैं। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें शिकायत में सभी को प्रतिवादी बनाने की पदावनत प्रवृत्ति [आशीष दीक्षित बनाम यूपी राज्य (2013)] इस मामले में, पीड़ित पत्नी ने अपने पति और उसके सास-ससुर सहित पर‌िवार के सभी सदस्यों को डीवी एक्ट के तहत दायर शिकायत में प्रतिवादी बनाया था। जस्टिस एचएल दत्तू और चंद्रमौली कुमार प्रसाद ने पति और माता-पिता को छोड़कर सभी प्रतिवादियों के खिलाफ शिकायत को खारिज कर दिया। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें कोर्ट को डीवी एक्ट के तहत पार‌ित रखरखाव आदेश में हस्तक्षेप करने वाले अंतरिम आदेशों को पारित करने में धीमा होना चाहिए [शालू ओझा बनाम प्रशांत ओझा (2014)] इस मामले में, मजिस्ट्रेट ने पति को प्रति माह दो लाख के रुपए रखरखाव का भुगतान करने का आदेश दिया। पति ने सत्र न्यायालय के समक्ष आदेश का प्रतिवाद किया, जिसने अंततः अपील को खारिज कर दिया क्योंकि उसने सशर्त आदेश का पालन नहीं किया था। मामले में रखरखाव देने के आदेश में उच्च न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप किया गया, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उस पर प्रतिवाद किया गया। ज‌‌स्टिस चेलमेश्वर और ज‌‌स्टिस एके सीकरी की सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए बने कानून के तहत उत्पन्न मामले में, उच्च न्यायालय को ऐसे आदेश, जिसके द्वारा अपीलकर्ता को रखरखाव प्रदान किया जाता है, में हस्तक्षेप करने के लिए, अंतरिम आदेश देने में धीमी गति से दखल देना चाहिए, जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें न्यायिक विच्छेद के बाद भी पत्नी ' पीड़ित व्यक्ति' हो सकती है [कृष्णा भट्टाचार्जी बनाम सारथी चौधरी (2015)] यह कहा गया कि केवल इसलिए कि न्यायिक विच्छेद का आदेश पारित किया चुका है, पत्नी का घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत 'पीड़ित व्यक्ति' का दर्जा खत्म नहीं हो जाता है। जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस प्रफुल्ल सी पंत की पीठ ने कहा कि एक बार तलाक का आदेश पारित हो जाने के बाद, पार्टियों की स्थिति अलग हो जाती है, लेकिन न्यायिक विच्छेद के आदेश में ऐसा नहीं है। अदालत कहा कि निचली अदालत में के आदेश में कहा गया है‌ कि चूंकि दोंनों पक्षों को न्यायिक विच्छेद हो चुका है, इसलिए पत्नी को "पीड़ित व्यक्ति" का दर्जा नहीं दिया जा सकता,, स्वीकार किए जा ने योग्य नहीं है। जजमेंट को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें न्यायालय घरेलू हिंसा की शिकायतों के संशोधन की अनुमति देने में असमर्थ नहीं है [कुनापारेड्डी @ नुक्कला शंका बालाजी बनाम कुनपारेड्डी स्वर्ण कुमारी (2016)] इस मामले में, न्यायालय ने माना कि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के तहत दायर शिकायतों या याचिकाओं के संशोधन की अनुमति दी जा सकती है। यदि शिकायत/आवेदन आदि को संशोधित करने की शक्ति पूर्वोक्त प्रावधान में नहीं पढ़ी जाती है, तो वो उद्देश्य अधिनियम स्वयं जिसकी सेवा का प्रयास करता है, वो कई मामलों में पराजित हो सकता है। जस्टिस एके सीकरी और जस्टिस आरके अग्रवाल की बेंच ने ये फैसला दिया। जजमेंट को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें असफल तलाक की कार्यवाही डीवी एक्ट के तहत दायर आवेदन की रखरखाव को प्रतिकूल तरीके से प्रभावित नहीं कर सकती है [राकेश नागरदास दुबल शाहा बनाम मीना प्रकाश दुबल शाहा (2016)] सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में कहा कि, असफल तलाक की कार्यवाही, अधिनियम के तहत प्रतियोगी प्रतिवादियों द्वारा दायर आवेदन की स्थिरता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित नहीं कर सकती है। सत्र न्यायालय ने मामले में इस आधार पर आवेदन को बरकरार नहीं रखा था कि चूंकि पति पत्नी ने पहले से ही तलाक की कार्यवाही शुरू की थी, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम बाद में लागू हुआ। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति शिवा कीर्ति सिंह की पीठ ने उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा, जिसने सत्र न्यायालय के आदेश को अलग रखा था। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें डीवी एक्ट के तहत नाबालिगों, महिलाओं के लिए राहत नहीं मांगी जा सकती है [हीरालाल पी हरसोरा बनाम कुसुम नरोत्तमदास हरसोरा (2016)] सुप्रीम कोर्ट ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 2 (क्यू) में "व्यक्ति" शब्द से पहले "वयस्क पुरुष" शब्द को समाप्त कर दिय, जिसमें कहा गया था कि ये शब्द समान रूप से स्थित व्यक्तियों के बीच भेदभाव करते हैं, और अधिनियम द्वारा अपेक्षित उद्देश्यों के विपरीत हैं। जस्टिस कुरियन जोसेफ और जस्टिस आरएफ नरीमन की बेंच ने कहा कि अगर "प्रतिवादी" को केवल एक वयस्क पुरुष व्यक्ति के रूप में पढ़ा जाना है तो यह स्पष्ट है कि जो महिलाएं पीड़ित व्यक्ति को अलग करती हैं या घर से बाहर निकालती हैं, वे इसके दायरे में नहीं आती हैं, और यदि है तो अधिनियम के उद्देश्‍य को एक वयस्क पुरुष व्यक्ति द्वारा खुद सामने ने आकर किसी महिला को समाने करके प‌ीड़‌ित व्यक्ति को घर से बाहर किया जा सकता है या अलग किया जा सकता है और इस प्रकार अधिनियम के उद्देश्यों का आसानी से हराया जा सकता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि यह भी संभव है कि एक गैर-वयस्क 16 या 17 वर्ष की आयु का सदस्य, घरेलू हिंसा के कृत्यों सहायता या पालन कर सकता है या जो पीड़ित को साझा घर से बाहर निकालने या बेदखल करने मदद कर सकता है या कर सकता है। जजमेंट को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें एक पक्ष को 'साझे घर' का कब्जा देने के लिए 'घरेलू आवश्यक है [मनमोहन अटावर बनाम नीलम मनमोहन अटावर (2017)] इस मामले में, यह देखा गया कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत एक पार्टी को एक घर पर कब्जा करने की अनुमति देने के ‌लिए एक आदेश जारी करने के लिए, यह आवश्यक है कि दोनों पक्षों में घरेलू संबंध में रहते हों। जस्टिस आरएफ नरीमन और जस्टिस संजय किशन कौल की खंडपीठ ने कहा कि डीवी एक्ट की धारा 2 (एफ) के तहत परिभाषित "घरेलू संबंध" दो व्यक्तियों को संदर्भित करता है जो एक "साझा घर" में एक साथ रहते हैं, जो डीवी एक्ट की धारा 2S के तहत परिभाषित है। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें लाइव-इन पार्टनर घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों के तहत रखरखाव की मांग कर सकते हैं [ललिता टोप्पो बनाम झारखंड राज्य (2018)] इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक लिव-इन पार्टनर घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 से महिलाओं की सुरक्षा के प्रावधानों के तहत रखरखाव की मांग कर सकता है। तीन न्यायाधीशों की पीठ ने एक दो न्यायाधीश की पीठ के संदर्भ पर विचार करते हुए, जिसमें सीआरपीसी की धारा पर 125 के दायरे और लिव इन रिश्तों पर बात की गई थी। दो न्यायाधीशों की पीठ ने झारखंड उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ एक अपील पर विचार करते हुए इस मामले को रिफर किया था, उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 उस महिला को रखरखाव का अनुदान प्रदान नहीं करता है, जिसने कानूनी रूप से उस व्यक्ति के साथ शादी नहीं की, ‌जिससे रखरखाव की मांग की गई है। घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों का उल्लेख करते हुए, पीठ ने कहा कि अधिनियम याचिकाकर्ता द्वारा इस मामले में रखरखाव की मांग करने के लिए एक प्रभावशाली उपाय होगा, तब भी जबकि कि वह कानूनी रूप से पत्नी नहीं है और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत रखरखाव की हकदार नहीं हैं। यह भी कहा गया कि अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार आर्थिक दुरुपयोग भी घरेलू हिंसा में शामिल है। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें देवर को डीवी एक्ट के तहत विधवा को रखरखाव का भुगतान करने का आदेश [अजय कुमार बनाम लता@ शारुती (2019)] इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने DV एक्‍ट के तहत पारित एक आदेश को, जिसमें एक विधवा को रखरखाव का भुगतान करने के लिए एक देवर को निर्देश दिया गया था, बरकरार रखा। महिला और उसका मृतक पति एक ऐसे घर में रहते थे, जो पैतृक हिंदू संयुक्त परिवार की संपत्ति की श्रेणी में आता था। मृतक पति और भाई संयुक्त रूप से एक किरयाना दुकान का व्यवसाय करते थे। महिला ने घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत एक शिकायत दर्ज की, जिसमें आरोप लगाया गया कि पति की मृत्यु के बाद उसे और उसके बच्चे को अपने वैवाहिक घर में नहीं रहने दिया गया। ट्रायल कोर्ट ने एक अंतरिम आदेश पारित किया जिसमें महिला को 4,000 रुपए और बच्चे को 2,000 रुपए मासिक की सहायता प्रदान की गई। देवर को उक्त राशि का भुगतान करने के लिए निर्देशित किया गया था। देवर की इस दलील को खारिज कर दिया गया कि उसके खिलाफ भरण-पोषण का आदेश पारित करने का कोई प्रावधान नहीं है। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस हेमंत गुप्ता की खंडपीठ ने कहा कि धारा 2 (क्यू) का मूल भाग यह दर्शाता है कि ''प्रतिवादी" का अर्थ किसी भी वयस्क पुरुष व्यक्ति से है, जो पीड़ित व्यक्ति के साथ घरेलू संबंध में है या रहा है और जिसके खिलाफ मदद मांगी गई है।"

Wednesday, December 4, 2019

वकील की फीस न देने पर कागज वापस देने को वाध्य नहीं वकील

क्या वकील क्लाइंट द्वारा फीस न दिए जाने की स्थिति में उसके कागज़ात वापस करने से मना कर सकते हैं? 

4 Dec 2019 9:45 AM 

जैसा कि हम जानते हैं कि वकालत एक पेशा है, यह कोई व्यवसाय नहीं और इस पेशे का उद्देश्य, लोगों की सेवा करना है। एक पेशे की अहमियत को समझाते हुए, रोस्को पाउंड ने कहा था: "ऐतिहासिक रूप से, पेशे में 3 विचार शामिल हैं: संगठन (Organisation), सीखने और सार्वजनिक सेवा की भावना। ये आवश्यक हैं। इसके अलावा, आजीविका प्राप्त करने का विचार, इसके साथ है (पर अधिक महत्वपूर्ण नहीं)।" कानूनी पेशा अपनाने वाले व्यक्तियों पर, समाज में कानून के शासन को बनाए रखने की एक बड़ी जिम्मेदारी होती है। सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करते हुए एक वकील को न्याय, निष्पक्षता, इक्विटी के सिद्धांतों का ध्यान रखना चाहिए। जैसा कि हम जानते हैं, एक वकील-मुवक्किल का संबंध, एक विश्वास का संबंध माना जाता है और इस प्रकार एक वकील का, अपने मुवक्किल के प्रति नैतिक दायित्व होता है। एक वकील एवं मुवक्किल के बीच (विवाद के रूप में), गोपनीयता (Secrecy), हितों के टकराव, फीस/शुल्क, महवपूर्ण कागजातों एवं मुक़दमे की देखभाल आदि सम्बंधित मामले जन्म ले सकते हैं। आखिर तब क्या होता है जब एक वकील एवं उसके मुवक्किल के बीच फीस को लेकर विवाद पैदा हो जाता है, ऐसे मामलों में मुवक्किल और वकील, एक-दूसरे पर अविश्वास करने लगते हैं। नतीजतन, वकील उस मामले/मुक़दमे को तब तक जारी नहीं रखना चाहता है, जब तक कि उसे अपनी फीस नहीं मिलती है, जबकि मुवक्किल, अपने वकील को बदलना चाहता है या उसे फीस नहीं चुकाना चाहता है। इस लेख में हम ऐसी ही स्थिति के बारे में बात करेंगे। सवाल यह है कि वकील को यदि फीस का भुगतान नहीं किया जाता/गया है, तो क्या वकील, मुवक्किल को उसके कागजात/अदालती दस्तावेज वापस करने से इंकार कर सकता है, जिससे वह उस मुवक्किल को अपने दस्तावेजों को वापस पाने के लिए भुगतान करने के लिए मजबूर कर सके? दूसरे शब्दों में, क्या एक वकील के पास धारण का अधिकार (Right to Lien) है, कि वह अपने मुवक्किल के कागजात को उस समय तक अपने पास रख सके (या लौटाने से माना करदे) जब तक उसकी फीस का मुवक्किल द्वारा भुगतान नहीं किया जाता है। वकील कौन होता है? एक वकील वह व्यक्ति होता है जो कानून की प्रैक्टिस करता है। ऐसा व्यक्ति या तो एक पैरालीगल हो सकता है, एक एडवोकेट, बैरिस्टर, अटॉर्नी, काउंसलर, सॉलिसिटर या एक चार्टर्ड लीगल एग्जीक्यूटिव हो सकता है। एक वकील के रूप में काम करने के दौरान, एक व्यक्ति कई कानूनी समस्याओं का समाधान करने के लिए, अमूर्त कानूनी सिद्धांतों और ज्ञान के व्यावहारिक अनुप्रयोग को शामिल करता है। इसके अलावा एक वकील, उन लोगों के कानूनी हितों को आगे बढ़ाने के लिए कार्य करता है, जो लोग ऐसे वकील की कानूनी सेवाएं लेने के लिए उसको नियुक्त करते हैं। एक वकील की भूमिका, कानूनी क्षेत्राधिकार के मामले में विभिन्न प्रकार की होती है, और इसलिए एक वकील को केवल सामान्य शब्दों में ही परिभाषित किया जा सकता है। क्या वकील, मुवक्किल द्वारा फीस न दिए जाने की स्थिति में उसके कागजात वापस करने से मना कर सकते हैं? इस प्रश्न का सीधा जवाब 'नहीं' है। सर्वोच्च न्यायालय ने आरडी सक्सेना बनाम बलराम प्रसाद शर्मा AIR 2000 SC 2912 के मामले में यह कहा है कि किसी भी पेशेवर वकील को अवैतनिक पारिश्रमिक के लिए किसी भी दावे के रूप में अपने मुवक्किल के मामले में उसके द्वारा किए गए काम से संबंधित, वापस करने योग्य रिकॉर्ड को अपने पास रख लेने का कोई अधिकार नहीं दिया जा सकता है। ऐसा एक पेशेवर, किसी भी अवैतनिक पारिश्रमिक का दावा करने के लिए, कानूनी उपायों का सहारा ले सकता है। अदालत ने यह भी कहा कि, हालांकि एक वकील का यह एक नैतिक दायित्व और पेशेवर कर्तव्य होता है कि जब मुवक्किल को अपना वकील बदलना आवश्यक हो, तो वह संक्षिप्त विवरणी (मामले से जुड़े कागजात) उस मुवक्किल को वापस करे। अदालत ने यह भी कहा कि फाइल वापस नहीं करने के मामले को पेशेवर कदाचार (Professional Misconduct) माना जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने इसी मामले में यह भी माना कि यदि कोई वकील, केस के कागजात पर ग्रहणाधिकार (Right to Lien) का दावा करता है, तो यह कितना महत्वपूर्ण है। अदालत ने इसका उत्तर देते हुए कहा कि अदालत/न्यायाधिकरण में चल रहा मामला, एक वकील के पारिश्रमिक के अधिकार से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है और यदि रिकॉर्ड के इस तरह के धारण की अनुमति दी जाती है तो यह प्रतिकूल रूप से मामले को प्रभावित और बाधित करेगा। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अंतर्गत 'ग्रहणाधिकार' CHAPTER – II - Standards of Professional Conduct and Etiquette (Rules under Section 49 (1) (c) of the Act read with the Proviso thereto) BAR COUNCIL OF INDIA RULES के नियम 28 और 29 के अंतर्गत, वकील अपनी फीस के रूप में, जिस मामले के लिए उसे वकील नियुक्त किया गया था, उस मामले की समाप्ति पर, वकील के पास बचे मुवक्किल द्वारा दिए गए पैसे एवं मुकदमे के दौरान प्राप्त पैसे को अपने पास रख सकता है। यह अधिकार तो बार काउन्सिल के नियमों के अंतर्गत दिया गया है, परन्तु अधिनियम के अंतर्गत उसे मुक़दमे से जुड़े दस्तावेजों को लेकर कोई ग्रहणाधिकार प्रदान नहीं किया गया है। हम यह जानते हैं कि भारत में बहुत सारे अनपढ़ लोग भी मामले में पक्षकार बनते हैं एवं वे एक वकील की सेवाएं लेते हैं, ऐसी स्थिति में, यह उचित नहीं हो सकता है कि वकील को उसके द्वारा दावा की गई फीस के लिए, मामले से जुड़े दस्तावेज को अपने पास रख लेने की अनुमति दी जाये। यदि ऐसी अनुमति दी जाएगी तो ऐसा कोई ग्रहणाधिकार, मुवक्किलों के शोषण के रास्ते खोल देगा। एक ओर जहाँ वकील का यह कर्तव्य है कि वह अपने मुवक्किल की फाइलों को लौटा दे (मुकदमा खत्म होने पर या वकील बदलने की स्थिति में), तो मुवक्किल को भी यह अधिकार है कि वह अपने वकील से फाइलें वापस प्राप्त कर सके, यह तब और अधिक जरुरी हो जाता है जब मुकदमा अदालत में अभी भी चल रहा हो। मुवक्किल के इस अधिकार को, अधिवक्ता के पेशेवर कर्तव्य (Professional Duty) के संगत समकक्ष के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 में परिकल्पित 'कदाचार' (Misconduct) को परिभाषित नहीं किया गया है। यह धारा, 'कदाचार, पेशेवर या अन्यथा' अभिव्यक्ति का उपयोग करती है। कदाचार शब्द एक विस्तृत शब्द है। इसे विषय वस्तु के संदर्भ में समझा जाना चाहिए। इसका शाब्दिक अर्थ है 'गलत आचरण' या 'अनुचित आचरण'। In re A Solicitor ex parte the Law Society [(1912) 1 KB 302] के मामले में जस्टिस चार्ल्स डार्लिंग ने टिपण्णी की थी कि: यदि यह दिखाया जाता है कि एक वकील ने अपने पेशे के अंतर्गत कार्य करते हुए ऐसा कुछ किया है, जो उचित रूप से अपमानजनक या बेईमानी के रूप में देखा जा सकता है तो यह पेशेवर कदाचार है। जॉर्ज फ्रिएर ग्राहम बनाम अटॉर्नी जनरल, फिजी (1936 PC 224) के मामले में भी इस परिभाषा को स्वीकृति मिली थी। भारत में मुवक्किल को उसकी फाइलें वापस करने से इनकार करने के मामले में, वकील को अधिनियम की धारा 35 के तहत कदाचार का दोषी माना जायेगा। यही बात आरडी सक्सेना के मामले में अभिनिर्णित की गयी थी। भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 171 के अंतर्गत वकील का ग्रहणाधिकार? जैसा कि हम जानते हैं कि भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 171 के तहत, जनरल बैलेंस ऑफ़ अकाउंट के लिए, प्रतिभूति (Security) के रूप में किसी भी 'माल' (Goods) को अपने पास बनाए रखने के लिए उच्च न्यायालय के वकीलों को अनुमति दी जाती है। इस प्रयोजन के लिए 'माल' और 'उपनिधान' (Bailment) के अर्थ को समझना आवश्यक है। माल विक्रय अधिनियम 1930 की धारा 2 (7) के तहत 'माल' से अनुयोज्य दावे और धन से भिन्न हर किस्म की जंगम संपत्ति अभिप्रेत है तथा इसके अंतर्गत स्टॉक और अंश, उगती फसलें, घास और भूमि से बद्ध या उसकी भागरूप ऐसी चीज़ें जिनका विक्रय से पूर्व या विक्रय संविदा के अधीन, भूमि से पृथक किया जाने का करार किया गया हो, शामिल हैं। वहीँ भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 148 के मुताबिक, "उपनिधान' एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को किसी प्रयोजन के लिए इस संविदा पर माल का परिदान करता है कि जब वह प्रयोजन पूरा हो जाए तब वह लौटा दिया जाएगा; या उसे परिदान करने वाले व्यक्ति के निदेशों के अनुसार अन्यथा व्ययनित कर दिया जाएगा।" आरडी सक्सेना के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इन परिभाषाओं की व्याख्या की और यह माना कि 'माल', बाजार में बिक्री योग्य होना चाहिए और जिस व्यक्ति को वह 'माल' प्रतिभूति के रूप में दिया गया है, वह उस माल का, धन के बदले में निपटान करने की स्थिति में होना चाहिए। रिकॉर्ड और केस पेपर और मूल दस्तावेजों की प्रतियों वाली फाइलों को 'माल' के रूप में नहीं देखा जा सकता है। अंत में पी. कृष्णामाचारी बनाम ऑफिसियल असाइनी मद्रास (एआईआर 1932 मद्रास 256) के मामले में डिवीजन बेंच ने कहा था कि एक वकील के पास इस तरह का ग्रहणाधिकार नहीं हो सकता है, जब तक कि इसके विपरीत मुवक्किल के साथ उसका कोई समझौता न हो। यह शायद तार्किक लगे कि यदि मुवक्किल ने वकील को उसके निर्धारित शुल्क का भुगतान करने से इनकार किया है, तो वकील को मुवक्किल के अदालती दस्तावेजों के ग्रहणाधिकार की अनुमति दी जानी चाहिए, लेकिन इसके ठीक विपरीत, अदालतों ने अपने तमाम निर्णयों में यह कहा है कि वकील को फीस देने में विफल रहने पर भी, एक वकील के पास यह अधिकार नहीं है कि वह अपने मुवक्किल के दस्तावेजों को अपने पास रख सके। 

Monday, December 2, 2019

क्या वकील आवासीय परिसर का प्रयोग कर सकते हैम


क्या वकील आवासीय परिसर का इस्तेमाल दफ्तर के रूप में कर सकते हैं?

2 Dec 2019 7:31 AM GMT

क्या वकील आवासीय परिसर का इस्तेमाल दफ्तर के रूप में कर सकते हैं?
चूंकि एक वकील की सेवा विशिष्ट ज्ञान, कौशल और अनुभव पर आधारित होती है, जो बहुत ही व्यक्ति-विशेष है, इसलिए इसे एक 'पेशेवर सेवा' माना जाता है।
लीगल प्रोफेशन कोई व्यावसायिक गतिविधि नहीं है। बल्कि, ये एक ऐसी पेशेवर गतिविधि माना जाता है, जो बिजनेस, ट्रेड और कॉमर्स से अलग है।

सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के कई निर्णय हैं जो इस अंतर को स्पष्ट करते हैं। चूंकि एक वकील की सेवा विशिष्ट ज्ञान, कौशल और अनुभव पर आधारित होती है, जो बहुत ही व्यक्ति-विशेष है, इसलिए इसे एक 'पेशेवर सेवा' माना जाता है।

शशिधरन वी पीटर और करुणाकर AIR 1984 SC 1700 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एक वकील का कार्यालय 'व्यावसायिक प्रतिष्ठान' नहीं है, जिसे दुकान व प्रतिष्ठान अधिनियम के तहत पंजीकरण की आवश्यकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस निष्कर्ष को सही ठहराने के लिए किसी मजबूत तर्क की आवश्यकता नहीं है कि एक वकील का कार्यालय या वकीलों की एक फर्म 'दुकान' नहीं है।

शिव नारायण और अन्य बनाम बनाम एमपी बिजली बोर्ड और अन्य AIR 1999 MP 246 के मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की डिवीजन बेंच के जजमेंट में कहा गया है कि वाणिज्यिक दर पर बिजली की खपत के भुगतान के लिए एडवोकेट का वर्गीकरण "वाणिज्यिक" शीर्षक के तहत करना मनमाना और तर्कहीन और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के ‌अधिकारों से परे है।

"…पेशेवर गतिविधि के मामले में किसी व्यक्ति को ‌कॉम‌‌‌र्स‌ियल या व्यावसायिक गतिविधि के लिए, जहां सामानों की बिक्री या लाभ के मंतव्य से नियोक्ता और कर्मचारियों के बीच सक्रिय सहयोग से लेनदेन किया जाता है, में अपने पेशेवर कौशल का इस्तेमाल करना पड़ता है। प्रोफेशन के मामले में, व्यक्ति आजीविका के लिए काम करता है, न कि केवल लाभ के उद्देश्य के लिए ", पेशे और वाणिज्य के बीच के अंतर को समझाते मध्य प्रदेश्‍ उच्च न्यायालय ने ये टिप्‍पणी की थी।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह अपील की गई थी। बिजली बोर्ड ने नई दिल्ली नगरपालिका परिषद बनाम सोहन लाल सचदेव (मृत) प्रतिनिधित्व श्रीमती हिरिंदर सचदेव द्वारा (2002) 2 एससीसी 494 पर भरोसा किया था। उस फैसले में कहा गया था कि गेस्ट हाउस के रूप में इस्तेमाल की जाने वाली एक इमारत व्यावसायिक प्रतिष्ठान है, ये देखते हुए कि यदि उसका उपयोग घरेलू नहीं है तो ये वाणिज्यिक है।

जस्टिस अरिजीत पसायत और एचके सेमा की डिवीजन बेंच ने अधिवक्ताओं के कार्यालय पर घरेलू बिजली दर लागू करने के संबंध में मध्या प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले को मंजूरी दे दी थी।

"एक पेशेवर गतिविधि एक व्यक्ति द्वारा अपने व्यक्तिगत कौशल और बुद्धिमत्ता द्वारा की जाने वाली गतिविधि होनी चाहिए। इसलिए एक पेशेवर गतिविधि और एक वाणिज्यिक गतिविध‌ि के बीच एक मौलिक अंतर है।" बेंच ने कहा था।

हालांकि, डिवीजन बेंच ने हिरिंदर सचदेव के मामले में में की गई टिप्पणी कि सभी गैर-घरेलू गतिविधियां वाणिज्यिक हैं, पर संशय व्यक्त किया और इस मामले को विचार के लिए बड़ी बेंच को भेजा दिया।

2000 के सिविल अपील नंबर 1065 में दिए गए फैसले में सुप्रीम कोर्ट की बड़ी पीठ ने दिनांक 27 अक्टूबर 2005 को कहा कि ये मुद्दा कि क्या अधिवक्ता एक वाणिज्यिक गतिविधि चला रहा था, हिरिंदर सचदेव के फैसले से संबंधित नहीं था। उसने हिरिंदर सचदेव के फैसले का सही माना, क्योंकि वहां अंतर वैधानिक परिभाषा पर आधारित था। बड़ी पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि वो इस सवाल में नहीं गया कि क्या एक वकील को वाणिज्यिक गतिविधि जारी रखने के लिए कहा जा सकता है?

तो, इस प्रकार मध्य प्रदेश हाइकोर्ट के फैसले कि वकालत वाणिज्यिक गतिविधि नहीं है, पर सुप्रीम कोर्ट ने भी मुहर लगा दी।

राजस्थान हाइकोर्ट की जयपुर खंडपीठ ने जेवीवीएन लिमिटेड और अन्य बनाम श्रीमती परिणीति जैन और अन्य एआईआर 2009 राजस्थान 110 के मामले में कहा था कि अपने निवास से कार्यालय चलाने वाले वकील से व्यावसायिक आधार पर अतिरिक्त शुल्क नहीं लिया जा सकता है। हालांकि, कार्यालय अगर एक स्वतंत्र वाणिज्यिक स्थान पर चलाया जाता है तो अधिवक्ता को वाणिज्यिक शुल्क से छूट नहीं दी जा सकती है। यहां निवास स्‍थान में कार्यालय और व्यावसायिक स्थान पर कार्यालय के बीच अंतर किया गया है। मद्रास हाइकोर्ट ने कानागासबाई बनाम अधीक्षण अभियंता के मामले में इसी का अनुकरण किया।

अधिवक्ताओं के कार्यालय पर 'व्यावसायिक भवन' के रूप में संपत्ति कर नहीं

दिल्ली हाइकोर्ट ने बीएन मैगॉन बनाम दक्षिण दिल्ली नगर निगम के मामले में कहा कि कार्यालय चलाने के लिए एक वकील द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला आवासीय परिसर संपत्ति कर के प्रयोजनों के लिए 'व्यावसायिक भवन' नहीं बन जाएगा। कोर्ट ने ये ध्यान में रखकर कहा था कि दिल्ली मास्टर प्लान 2021 में वकीलों, डॉक्टरों, चार्टर्ड एकाउंटेंट, आर्किटेक्ट्स आदि को व्यावसायिक गतिविधियों चलाने के ‌लिए आवासीय परिसर के उपयोग की अनुमति दी है, शर्त ये है कि पेशेवर स्थान क्षेत्र के लिए अनुमेय एफएआर से 50% से अधिक नहीं होना चाहिए।

डिस्ट्रिक्ट बार एसोसिएशन पंचकूला बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा AIR 2015 P&H 13 मामले में, पंजाब एंड हरियाणा डिवीजन बेंच ने हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण के नियमों को रद्द कर दिया था, जिसने अपने द्वारा आवंटित आवासीय परिसर का उपयोग करने एडवोकट ऑफिस के रूप करने के लिए शुल्क निर्धारित किया था। प्राधिकरण ने आवासीय उपयोग को वाणिज्यिक में बदलने के लिए यह फैसला ‌लिया था।

HUDA विनियमन ऐसी व्यावसायिक गतिविधियों के लिए निर्मित क्षेत्र के 25% के उपयोग की अनुमति दी थी। हालांकि, प्राधिकरण ने आवासीय परिसर के व्यावसायिक उपयोग की अनुमति देने के लिए शुल्क लगाया, जिसे उच्च न्यायालय रद्द कर दिया।

"हमने हुडा की ओर से पेश विद्वान वरिष्ठ वकील से एक प्रश्न पूछा है कि यदि एक प्रसिद्ध लेखक एक अध्ययन कक्ष बनाता, जिसे वो एक किताब लिखने के लिए उपयोग करता है और ये उसकी कमाई का स्रोत है, तो क्या इसे गैर-आवासीय उपयोग कहा जा सकता है? इस सवाल का वास्तव में कोई संतोषजनक उत्तर नहीं है क्योंकि वकालत के व्यक्तिगत पेशे की गतिविधि भी उन पुस्तकों और कागजात के अध्ययन पर आधारित है, जिसके लिए वह जगह का उपयोग करता है। यह एक महान पेशा है, इसलिए इस संदर्भ में इसे कॉमर्स या बिजनेस न माना जाए।",जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने ये टिप्‍पणी की।

बेंच ने कहा कि एक वकील के कानूनी पेशे की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए हुडा विनियमों में निर्धारित सीमित स्थान के उपयोग की शर्त किसी पेशे के चरित्र या गतिविधि को वाणिज्यिक में नहीं बदल सकता है।

जब केरल राज्य आवास बोर्ड के आवंटियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए केरल हाइकोर्ट में याचिका दायर की गई, जो अपने आवासीय परिसर का उपयोग वाणिज्यिक गतिविधियों के लिए कर रहे थे, तो उसने अधिवक्ताओं के कार्यालयों के खिलाफ आदेश पारित करने से इनकार कर दिया, हालांकि कई अन्य लोगों के खिलाफ निर्देश जारी किए गए थे जो उनका उपयोग व्यावसायिक गतिविधियों के लिए कर रहे थे। अदालत ने कहा कि एक वकील द्वारा योजना के तहत प्राप्त अपने आवास में कार्यालय चलाना वाणिज्यिक गतिविधि नहीं कहा जा सकता है।

कोर्ट ने कहा, "…एक अपार्टमेंट में प्रोफेशनल द्वारा निवास के साथ कार्यालया चलाने को वाणिज्यिक गतिव‌िधि नहीं कहा जा सकता है।"

स्थानीय कानूनों द्वारा प्रतिबंध

भवन अधिभोग के संबंध में कई स्थानीय कानून उस स्थान पर प्रतिबंध लगाते हैं, आवासीय परिसर में जिसका उपयोग व्यावसायिक गतिविधि के लिए किया जा सकता है। मैगनन बी मामले में निर्दिष्ट दिल्ली मास्टर प्लान में आवासीय स्थान के एफएआर के 50% के भीतर पेशेवर गतिविधि की अनुमति दी गई ‌थी।

हुडा विनियमन के मामले में, यह निर्मित स्थान का 25% था। केरल म्युनिसिपल बिल्डिंग रूल्स में कहा गया है कि अधिवक्ताओं, डॉक्टरों, आर्किटेक्ट्स आदि के लिए छोटे व्यावसायिक स्थान, जो 50 वर्ग मीटर के फर्श क्षेत्र से अधिक न हो और मुख्य आवासीय अधिभोग के हिस्से के रूप में उपयोग किए जाते हों, वे 'आवासीय भवनों' के समूह में शामिल हैं। ये नियम स्थानीय कानूनों के आधार पर भिन्न हो सकते हैं।

दिल्ली के संदर्भ में, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली प्रदेश नागरिक परिषद बनाम भारत संघ (2006) 6 एससीसी 305 के मामले में आदेश दिया कि आर्किटेक्ट, चार्टर्ड एकाउंटेंटों, डॉक्टरों और वकीलों द्वारा भी आवासीय परिसर में 50% से अधिक अनुमेय स्‍थान व्यावसायिक गतिविधियों को नहीं चलाया जा सकता है और उस आवासीय परिसर में ऐसे व्यक्ति द्वारा व्यावसायिक गतिविधियां नहीं की जा सकती, जो उस परिसर का न‌िवासी नहीं है।

अंत में, अधिवक्ताओं के कार्यालय को आवासीय परिसरों से संचालित किया जा सकता है, क्योंकि इसे व्यावसायिक गतिविधि नहीं माना जाता है। हालांकि, यह स्थानीय कानूनों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के अधीन है।

Sunday, December 1, 2019

न्यायिक हिरासत और पुलिस हिरासत में अन्तर


जानिए न्यायिक हिरासत और पुलिस हिरासत में क्या है अंतर

1 Dec 2019 

गिरफ्तारी के बाद हिरासत होती है, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि हिरासत के प्रत्येक मामले में पहले गिरफ्तारी हो। उदाहरण के तौर पर, जब कोई व्यक्ति अदालत के समक्ष आत्मसमर्पण करता है तो वह हिरासत में होता है, इस मामले में गिरफ्तारी नहीं होती है।
सामान्यतया 'कस्टडी' (हिरासत) का अर्थ एक व्यक्ति पर नियंत्रण या निगाह रखना है। इसका तात्पर्य किसी व्यक्ति के अपनी इच्छा के मुताबिक कहीं आने-जाने पर प्रतिबंध से है।

हिरासत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत आजादी के अधिकार पर सीधा हमला है, इसलिए, यह सुनिश्चित करने के लिए कानून में एक विस्तृत प्रक्रिया निर्धारित की गई है कि किसी व्यक्ति को केवल कानूनी उद्देश्यों के लिए ही अधिकारी द्वारा उचित, तार्किक और समानुपातिक तरीके से हिरासत में लिया जाये।

'हिरासत' और 'गिरफ्तारी'

हिरासत और गिरफ्तारी पर्यायवाची नहीं हैं। गिरफ्तारी किसी व्यक्ति को पुलिस द्वारा बलपूर्वक कैद में रखना है। (1)

गिरफ्तारी के बाद हिरासत होती है, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि हिरासत के प्रत्येक मामले में पहले गिरफ्तारी हो। उदाहरण के तौर पर, जब कोई व्यक्ति अदालत के समक्ष आत्मसमर्पण करता है तो वह हिरासत में होता है, इस मामले में गिरफ्तारी नहीं होती है।

न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने 'निरंजन सिंह बनाम प्रभाकरण राजाराम खरोटे'मामले में दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 438 के तहत 'हिरासत में'शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है -

"वह (एक व्यक्ति) केवल उस समय ही हिरासत में नहीं होता, जब पुलिस उसे गिरफ्तार करती है, उसे मजिस्ट्रेट के पास पेश करती है और उसे न्यायिक या अन्य कस्टडी पर रिमांड में लेती है। उसे उस वक्त भी हिरासत में कहा जा सकता है जब वह अदालत के समक्ष आत्मसमर्पण करता है और उसके निर्देशों को मान लेता है।(2)

इस प्रकार, जब किसी अभियुक्त ने सत्र अदालत के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया है, तो सत्र अदालत सीआरपीसी की धारा 439 के तहत जमानत याचिका पर विचार करने का अधिकार क्षेत्र हासिल कर लेता है।(3)

निरंजन सिंह मामले का अनुसरण करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में व्यवस्था दी थी कि यदि उच्च न्यायालय ने किसी आरोपी को अपने समक्ष आत्मसमर्पण करने की अनुमति दी है, तो वह उच्च न्यायालय की हिरासत में होगा। इसलिए, हाईकोर्ट को सीआरपीसी की धारा 439 के तहत नियमित जमानत के लिए आवेदन पर विचार करने का अधिकार होगा।(4)

पुलिस हिरासत

जब एक पुलिस अधिकारी एक व्यक्ति को संज्ञेय अपराध करने के संदेह में गिरफ्तार करता है, तो गिरफ्तार व्यक्ति को हिरासत में लिया गया बताया जाता है। पुलिस हिरासत का उद्देश्य अपराध के बारे में अधिक जानकारी इकट्ठा करने के लिए संदिग्ध से पूछताछ करना है, और सबूतों को नष्ट करने से रोकना और गवाहों को आरोपी द्वारा डरा-धमकाकर मामले को प्रभावित करने से बचाना है। यह कस्टडी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना 24 घंटे से अधिक नहीं हो सकती।

पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये गये और हिरासत में रखे गए प्रत्येक व्यक्ति को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर निकटतम मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए, जिसमें गिरफ्तारी के स्थान से लेकर मजिस्ट्रेट के कोर्ट तक के सफर का आवश्यक समय शामिल नहीं होगा।[5] मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना किसी भी व्यक्ति को 24 घंटे की अवधि से अधिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता है।[6]

न्यायिक हिरासत

जब पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के पास पेश किया जाता है तो उसके पास दो विकल्प होते हैं, आरोपी को पुलिस हिरासत में या न्यायिक हिरासत में भेजना।

यह सीआरपीसी की धारा 167(2) के प्रावधानों से स्पष्ट है कि मजिस्ट्रेट को जो उचित लगता है उस प्रकार की कस्टडी वह आरोपी के लिए मुकर्रर कर सकता है।

पुलिस हिरासत में, पुलिस के पास आरोपी की शारीरिक हिरासत होगी। इसलिए जब पुलिस हिरासत में भेजा जायेगा, तो आरोपी को पुलिस स्टेशन में बंद कर दिया जाएगा। उस परिदृश्य में, पुलिस को पूछताछ के लिए आरोपी तक हर समय पहुंच होगी।

न्यायिक हिरासत में, अभियुक्त मजिस्ट्रेट की हिरासत में होगा और उसे जेल भेजा जाएगा। न्यायिक हिरासत में रखे गये आरोपी से पूछताछ के लिए पुलिस को संबंधित मजिस्ट्रेट की अनुमति लेनी होगी। मजिस्ट्रेट की अनुमति से ऐसी हिरासत के दौरान पुलिस द्वारा पूछताछ, हिरासत की प्रकृति को बदल नहीं सकती है [7]।

धारा 167 के तहत यह आवश्यक नहीं कि सभी परिस्थितियों में गिरफ्तारी एक पुलिस अधिकारी द्वारा ही की जानी चाहिए, किसी और द्वारा नहीं तथा केस डायरी की प्रविष्टियां का रिकॉर्ड आवश्यक रूप से होना ही चाहिए। इसलिए, हिरासत निश्चित तौर पर एक सक्षम अधिकारी या गिरफ्तारी का अधिकार प्राप्त अधिकारी द्वारा इस मान्यता कि 'आरोपी संबंधित कानून के तहत दंडनीय अपराध का दोषी हो सकता है', पर विचार करते हुए गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को सक्षम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करने पर ही संभव होगा, बावजूद इसके कि जिस अधिकारी ने गिरफ्तारी की है वह सही अर्थों में पुलिस अधिकारी नहीं है।(8)

गिरफ्तारी के पहले पंद्रह दिनों के बाद पुलिस हिरासत नहीं

गिरफ्तारी के बाद मजिस्ट्रेट के समक्ष पेशी के पहले 15 दिनों के भीतर ही आरोपी को पुलिस हिरासत में भेजा जा सकता है।

सीआरपीसी की धारा 167(दो) का उपबंध-ए कहता है कि मजिस्ट्रेट पुलिस हिरासत में 15 दिनों की अवधि से परे अभियुक्तों की हिरासत अवधि बढ़ाने की अनुमति दे सकता है।

पुलिस हिरासत में नजरबंदी को आमतौर पर कानून मंजूरी नहीं देता। धारा 167 का उद्देश्य अभियुक्तों को उन तरीकों से बचाना है, जिन्हें "कुछ अति उत्साही और बेईमान पुलिस अधिकारियों" द्वारा अपनाया जा सकता है। [9]

सामान्य भाषा, खासकर "पुलिस की हिरासत से अन्यथा पंद्रह दिनों की अवधि से परे" शब्दों पर विचार करते हुए यह व्यवस्था दी गयी कि पहले पंद्रह दिनों की समाप्ति के बाद 90 दिनों या 60 दिनों की शेष अवधि के लिए केवल न्यायिक हिरासत ही होगी तथा यदि पुलिस कस्टडी आवश्यक हुई तो इसका आदेश केवल पहले 15 दिनों के भीतर ही हो सकता है।[10]

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है:

"इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि संबंधित धारा में अंतर्निहित सम्पूर्ण उद्देश्य पुलिस हिरासत अवधि को सीमित करना है। हालांकि, गंभीर प्रकृति के मामलों की जांच पूरी होने में उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए विधायिका ने अभियुक्तों को 90 दिनों की विस्तारित अवधि के लिए डिटेंशन बढ़ाने के प्रावधान किये हैं, लेकिन इस प्रावधान में स्पष्ट किया गया है कि इस प्रकार का डिटेंशन केवल न्यायिक हिरासत ही होगी। इस अवधि के दौरान पुलिस से गंभीर मामलों में भी जांच पूरी होने की अपेक्षा की जाती है। अन्य अपराधों के मामले में साठ दिनों की अवधि में जांच पूरी होने की उम्मीद की जाती है।" [11]

यदि मजिस्ट्रेट संतुष्ट है तो मृत्युदंड, आजीवन कारावास या 10 साल की जेल की सजा वाले अपराधों के लिए न्यायिक हिरासत 90 दिनों तक तथा अन्य अपराधों के लिए 60 दिनों तक बढ़ायी जा सकती है।

यदि परिस्थितियां न्यायोचित लगती हैं, तो सीआरपीसी की धारा 167 (दो) के तहत वर्णित प्रावधानों के अनुरूप निर्धारित समय सीमा (15 दिन में) न्यायिक हिरासत में भेजे गये आरोपी को पुलिस हिरासत और पुलिस हिरासत से न्यायिक हिरासत में भेजा जा सकता है।(12)

कई अपराध करने के आरोपी को पुलिस हिरासत

यदि यह पुलिस को पता है कि आरोपी एक संदिग्ध अपराध के लिए पहले से ही हिरासत में हो और वह कुछ अन्य अपराधों से भी जुड़ा है, तो क्या अन्य अपराधों के संबंध में पुलिस हिरासत मांगी जा सकी है, भले ही आरोपी ने पहले अपराध के लिए 15 दिनों की पुलिस हिरासत काट ली हो?

हां, बशर्ते कि दूसरे अपराधों को उस अपराध से अलग किया जा रहा हो, जिसके संबंध में उसे पहली बार हिरासत में लिया गया था।

हां, बशर्ते अन्य अपराध उस पहले वाले अपराध से भिन्न हों जिसके लिए उसे पहली बार पुलिस हिरासत में लिया गया था। जिस घटना के लिए आरोपी को पहले ही पुलिस हिरासत में ले लिया गया था और उस घटना की जांच के दौरान और अधिक गम्भीर अपराधों का पता चलता है तो पुलिस आरोपी को 15 दिन से अधिक के लिए हिरासत में लेने के लिए अधिकृत नहीं होगी।

सुप्रीम कोर्ट ने 'केंद्रीय जांच ब्यूरो, विशेष जांच प्रकोष्ठ-1, नयी दिल्ली बनाम अनुपम जे. कुलकर्णी एआईआर 1992, एससी 1768' मामले में इस स्थिति की विस्तृत व्याख्या कर दी है।

"एक घटना में ऐसा हो सकता है कि आरोपी ने कई अपराध किए हों और पुलिस उसे उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर एक या दो अपराधों के सिलसिले में गिरफ्तार कर सकती है और पुलिस हिरासत हासिल कर सकती है। यदि जांच के दौरान अधिक गंभीर मामलों में आरोपी की संलिप्तता पायी जाती है तो पहले 15 दिनों की कस्टडी के बाद पुलिस आगे की अवधि के लिए कस्टडी नहीं मांग सकती।

यदि इसकी अनुमति दी जाती है तो पुलिस विभिन्न चरणों में गंभीर प्रकृति के कुछ अपराध जोड़ सकती है और बार-बार पुलिस हिरासत की मांग कर सकती है, इस प्रकार धारा 167 में अंतर्निहित महत्वपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो सकेगी।

हालांकि यह प्रतिबंध दूसरी घटना पर लागू नहीं होगा, जिसमें गिरफ्तार आरोपी की संलिप्तता का खुलासा होता है। यह एक अलग ही मामला बनेगा और अगर एक अभियुक्त एक मामले में न्यायिक हिरासत में है और पुलिस को दूसरे मामले की जांच में उस व्यक्ति की आवश्यकता है तो उसे दूसरे मामले में औपचारिक तौर पर गिरफ्तार किया जाना चाहिए और फिर पुलिस हिरासत के लिए मजिस्ट्रेट का आदेश प्राप्त करना चाहिए।"

पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने एस. हरसिमरन सिंह बनाम पंजाब सरकार, 1984 के मामले में इस सवाल पर विचार किया कि क्या धारा 167(दो) में वर्णित 15 दिनों की पुलिस हिरासत की सीमा एक ही मामले पर लागू है या समान अभियुक्त वाले विभिन्न मामलों पर लागू होती है? न्यायालय ने व्यवस्था दी थी (पैरा 10ए)

"हमें एक अपराध के संदर्भ में हिरासत में रखे गये एक अपराधी की दूसरे अपराध की जांच के लिए फिर से गिरफ्तारी न करने को लेकर कोई ठोस प्रतिबंध नजर नहीं आता। दूसरे शब्दों में, अन्य अपराध की जांच के लिए सीआरपीसी की धारा 167(दो) के तहत मजिस्ट्रेट के आदेश द्वारा न्यायिक हिरासत को पुलिस हिरासत में बदले जाने में कोई बाधा नहीं है। इसलिए एक अलग मामले में फिर से गिरफ्तारी या दूसरी गिरफ्तारी कानून से परे नहीं है।"

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट ने कुलकर्णी मामले में व्यवहार्य करार दिया था।

पंद्रह दिन बीत जाने के बाद अभियुक्त को पुलिस हिरासत में बंद नहीं रखा जा सकता, भले ही उसी घटना से संबंधित कुछ अन्य अपराधों में उस आरोपी की संलिप्तता के बारे में बाद में पता क्यों न चला हो? (बुध सिंह बनाम पंजाब सरकार (2000)9 एससीसी266)

जब आगे की जांच के दौरान आरोपी को गिरफ्तार किया जाता है-

सीआरपीसी की धारा 309(दो) के प्रावधान किसी आरोपी को संज्ञान लेने के बाद हिरासत में भेजने के कोर्ट के अधिकार की व्याख्या करता है। यह रिमांड केवल न्यायिक हिरासत भी हो सकती है।

तो, क्या आरोप-पत्र दायर करने के बाद आगे की जांच के चरण में गिरफ्तार आरोपी को पुलिस रिमांड पर भेजा जा सकता है?

क्या ऐसे अभियुक्त को सीआरपीसी की धारा 309(दो) के प्रावधानों के मद्देनजर केवल न्यायिक हिरासत में भेजा जा सकता है?

सुप्रीम कोर्ट ने इन सवालों का जवाब सीबीआई बनाम दाऊद इब्राहिम कास्कर के फैसले में दिया था।(13) अदालत ने व्यवस्था दी कि आगे की जांच के चरण में गिरफ्तार किये गये आरोपी के रिमांड का मामला धारा 167(दो) के तहत निपटा जाना चाहिए, न कि धारा 309(दो) के प्रावधानों के तहत। क्योंकि जहां तक उस आरोपी का संदर्भ है तो जांच अब भी जारी है और पुलिस को उसकी कस्टडी देने से इन्कार नहीं किया जा सकता।

कोर्ट ने व्यवस्था दी :-

इस बात में कोई संदेह नहीं हो सकता कि उपरोक्त उपखंड के पहले प्रावधान में उल्लेखित रिमांड और कस्टडी धारा 167 के तहत 'डिटेंशन इन कस्टडी' से अलग हैं। पूर्व के प्रावधानों के तहत रिमांड मामले के संज्ञान के चरण से संबंधित होता है और ऐसे मामले में न्यायिक हिरासत में हो सकती है, लेकिन बाद में प्रावधानों के तहत डिटेंशन जांच के चरण से संबंधित होता है और शुरू में या तो पुलिस हिरासत या न्यायिक हिरासत कुछ भी हो सकती है। हालांकि किसी अपराध का संज्ञान लेने के बाद भी पुलिस को मामले की आगे की जांच करने का अधिकार रहेगा ही, जिसे केवल अध्याय-12 के अनुसार प्रयोग किया जा सकता है। हमें इस बात का कोई कारण नहीं दिखता कि क्यों धारा 167 के प्रावधान उस व्यक्ति पर लागू नहीं होगा, जो जांच के क्रम में पुलिस द्वारा बाद में गिरफ्तार किया जाता है।

जिस प्रकार मंसूरी मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने व्याख्या की है, उससे धारा 309 (दो) की व्याख्या होनी है, इसका मतलब है कि जब कोर्ट किसी अपराध का संज्ञान लेता है, तो वह सीआरपीसी की धारा 167 के तहत पुलिस कस्टडी में रखने के अपने अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकता। जांच एजेंसी आगे की जांच के दौरान गिरफ्तार व्यक्ति से पूछताछ के अवसर से वंचित नहीं हो सकती, भले ही उसे पर्याप्त सामग्रियां पेश करके अदालत को यह संतुष्ट करना पड़े कि उस व्यक्ति की पुलिस कस्टडी आवश्यक थी।

इसलिए हमारा मानना है कि धारा 309(दो) के तहत उल्लेखित शब्द 'एक्यूज्ड इफ इन कस्टडी' का संदर्भ एक वैसे आरोपी से है, जो संज्ञान लेते वक्त या उसके मामले में जांच या मुकदमा शुरू होने के दौरान अदालत के समक्ष था। इससे उस आरोपी का अभिप्राय नहीं है जो आगे की जांच के क्रम में गिरफ्तार किया गया हो।"

संज्ञान लेने के बाद गिरफ्तार किये गये भगोड़े आरोपी की पुलिस हिरासत

दाऊद इब्राहिम मामले में इस सिद्धांत का इस्तेमाल करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बाद में व्यवस्था दी कि आरोप पत्र दायर करने के बाद गिरफ्तार किये गये भगोड़े आरोपी को पुलिस कस्टडी में भेजा जा सकता है।(14) सर्वोच्च न्यायालय ने हाईकोर्ट के उस आदेश को निरस्त कर दिया जिसके तहत यह कहते हुए पुलिस रिमांड देने से इन्कार कर दिया गया था कि रिमांड 309(दो) के तहत थी।

संदर्भ :-

1. सीआरपीसी की धारा 46 कहती है कि पुलिस अधिकारी या सक्षम अधिकारी को गिरफ्तार किये जाने वाले व्यक्ति का शरीर छूना या जेल में डालना होगा।

2. निरंजन सिंह बनाम प्रभाकर राजाराम खरोटे, एआईआर 1980 एससी 785

3. आईबिड

4. संदीप कुमार बाफना बनाम महाराष्ट्र सरकार, एआईआर 2014 एससी 1745

5. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 22(एक)

6. सीआरपीसी की धारा 57

7. ज्ञान सिंह बनाम दिल्ली प्रशासन 1981 सीआरआईएलजे100

8. प्रवर्तन निेदेशालय बनाम दीपक महाजन एआईआर 1994 एससी 1775

9. केद्रीय जांच ब्यूरो, स्पेशल इंवेस्टीगेशन सेल-1, नयी दिल्ली बनाम अनुपम जे कुलकर्णी, एआाईआर 1992 एससी 1768

10. आईबिड

11. आईबिड

12. कोसानापु रामरेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश सरकार एवं अन्य, एआईआर 1994 एससी 1447

13. एआईआर 1997 एससी 2424

14. सीबीआई बनाम रतीन दंडापट और अन्य एआईआर, 2015 एससी 3285

Monday, November 25, 2019

भले ही मोटर बिक गया हो मगर दुर्घटना का देय गाडी मालिक द्वारा होगा

भले ही दुर्घटना के पहले वाहन बिक गया हो, दुर्घटना की तारीख पर वाहन का पंजीकृत मालिक मुआवजा देने के लिए उत्तरदायी : बॉम्बे हाईकोर्ट 

 25 Nov 2019 4:35 PM 

         बॉम्बे हाईकोर्ट ने माना है कि यदि कोई व्यक्ति जिसने अपनी कार बेची है, लेकिन संबंधित क्षेत्रीय परिवहन कार्यालय के रिकॉर्ड में पंजीकृत मालिक है, तो वह दुर्घटना के मामले में संबंधित पक्ष को मुआवजा देने के लिए उत्तरदायी होगा। न्यायमूर्ति आरडी धानुका ने हुफरीज़ सोनवाला की अपील पर सुनवाई की। हुफरीज़ ने मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण (एमएसीटी), मुंबई के फैसले को चुनौती दी, जिसमें 7.4% ब्याज के साथ 1,34,000 रुपये की पूरी मुआवजा राशि का भुगतान करने के लिए उन्हें उत्तरदायी ठहराया गया था। यह था मामला अपीलार्थी के अनुसार उसने उक्त वाहन को एक कल्पेश पांचाल को बेच दिया था और आरटीओ के अभिलेखों में उसके नाम से उक्त वाहन को हस्तांतरित करने के लिए पांचाल को सक्षम करने के लिए एक सुपुर्दगी और आवश्यक दस्तावेज के साथ वाहन का कब्जा सौंप दिया था। 8 मार्च, 2008 को पांचाल ने भारत दवे नाम के एक व्यक्ति को वाहन से टक्कर मारी और उसे घायल कर दिया। दवे को अस्पताल में भर्ती कराया गया था और दो सप्ताह तक उसका इलाज किया गया। इसके बाद, दवे ने एमएसीटी, मुंबई में पांचाल और अपीलकर्ता के खिलाफ मोटर वाहन अधिनियम, 1988 की धारा 166 के तहत एक आवेदन दायर किया, जिसमें 'नो फॉल्ट लायबिलिटी' के लिए उक्त अधिनियम की धारा 140 के तहत आवेदन किया गया था। 11 जून, 2009 को एमएसीटी, मुंबई ने दवे को मुआवजे का भुगतान करने के लिए अपीलकर्ता को ज़िम्मेदार ठहराते हुए फैसला सुनाया। सब्मिशन अपीलकर्ता के वकील रवि तलरेजा ने कहा कि भले ही अपीलकर्ता द्वारा सभी अपेक्षित दस्तावेजों के साथ डिलीवरी नोट सौंप दिया गया हो, लेकिन खरीदार ने उसके नाम पर उक्त वाहन को हस्तांतरित नहीं करवाया। तलरेजा ने कहा कि दुर्घटना के समय अपीलकर्ता को इस आधार पर क्षतिपूर्ति राशि का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता है कि वह वाहन उसके नाम पर खड़ा था। दूसरी ओर, एएमके गोखले द्वारा निर्देशित एडवोकेट कृतिका पोकाले प्रतिवादी नंबर 1 भारत दवे की ओर से पेश हुईं। उन्होंने कहा कि उक्त वाहन को 29 दिसंबर, 2008 को पांचाल के नाम पर स्थानांतरित कर दिया गया था और इस प्रकार यह स्पष्ट है कि दुर्घटना की तारीख में वाहन अपीलकर्ता के नाम पर था। अपीलार्थी द्वारा निर्धारित समय के भीतर उक्त अधिनियम की धारा 50 के तहत उक्त वाहन को हस्तांतरित करने की बाध्यता थी, पोकले ने तर्क दिया। अपनी दलील में उन्होंने नवीन कुमार बनाम विजय कुमार और अन्य के मामले में 6 फरवरी, 2018 को सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया। उक्त निर्णय में सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न पूर्व निर्णयों को संदर्भित किया गया है और मोटर वाहन अधिनियम की धारा 2 (30) और धारा 50 की जांच के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि जिस व्यक्ति के नाम पर वाहन दुर्घटना की तारीख पर रजिस्टर्ड था और जिस वाहन का बीमा नहीं किया गया था, वह धारा 2 (30) के अर्थ के भीतर वाहन का मालिक बना रहेगा और क्षतिपूर्ति का भुगतान करने के लिए जिम्मेदार होगा। कोर्ट का निर्णय : कोर्ट ने नवीन कुमार (सुप्रा) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख किया और कहा कि 14 दिनों के भीतर वाहन के कथित हस्तांतरण की रिपोर्टिंग करना अनिवार्य थी, जिसे करने में अपीलकर्ता करने में विफल रहा- "मेरे विचार में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित सिद्धांत वर्तमान मामले के तथ्यों पर स्पष्ट रूप से लागू होंगे। मैं उक्त निर्णयों से सम्मानजनक रूप से बाध्य हूं। अपीलकर्ता को मोटर वाहन अधिनियम की धारा 50 द्वारा निर्धारित समय के भीतर स्थानांतरण की सूचना नहीं थी और वह दुर्घटना के दिन उक्त वाहन का मालिक बना रहा और इस तरह अपीलकर्ता स्वामित्व की अवधि के दौरान हुई दुर्घटना के मद्देनजर मुआवजा देने के लिए उत्तरदायी था। " इस प्रकार, एमएसीटी के फैसले में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए, न्यायमूर्ति धानुका ने अपील खारिज कर दी- "मेरे विचार में, ट्रिब्यूनल द्वारा पारित जजमेंट और ऑर्डर किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं करता है, क्योंकि यह मोटर वाहन अधिनियम के अनुरूप है और कानून के सिद्धांतों का पालन करते हुए, मुझे उक्त निर्णय में कोई दुर्बलता नहीं मिलती।

Thursday, November 21, 2019

अभियोजन पक्ष की सहायता के लिए निजी वकील जिरह और गवाहों का परीक्षण नहीं कर सकता

21 Nov 2019 4:15 AM GM

अभियोजन पक्ष की सहायता के लिए नियुक्त निजी वकील जिरह और गवाहों का परीक्षण नहीं कर सकता : सुप्रीम कोर्ट


सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हालांकि, पीड़ित व्यक्ति अभियोजन पक्ष की सहायता के लिए एक निजी वकील को मामले में शामिल कर सकता है, लेकिन ऐसे वकील को मौखिक रूप से दलील देने या गवाहों का परीक्षण करने और जिरह करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता।

न्यायमूर्ति मोहन एम शांतनगौदर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखते हुए एक आपराधिक मामले में पीड़िता द्वारा दिए गए आवेदन को खारिज कर दिया। इस आवेदन में लोक अभियोजक के बाद उसके वकील को गवाह का क्रॉस एक्ज़ामिन करने के लिए उसके वकील की अनुमति मांगी।

न्यायालय ने कहा कि पीड़ित के वकील के पास अभियोजन पक्ष की सहायता करने का एक सीमित अधिकार है, जो अदालत या अभियोजन पक्ष को प्रश्न सुझाने तक विस्तारित हो सकता है, लेकिन उन्हें स्वयं नहीं पूछ सकता।

रेखा मुरारका बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले में बेंच ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के प्रासंगिक प्रावधानों का हवाला देते हुए इस मामले में उठाए गए विवाद को खारिज कर दिया कि धारा 24 ( 8) में परंतुक में "इस उप-धारा के तहत" शब्दों का उपयोग तात्पर्य यह है कि पीड़ित की ओर से कोई वकील विशेष लोक अभियोजक की केवल सहायता के लिए हो सकते हैं। इसमें कहा गया कि केवल विशेष लोक अभियोजकों के संबंध में प्रावधान लागू करने का कोई औचित्य नहीं है।

अदालत ने इसमेें यह जोड़ा,

"इस तरह की व्याख्या धारा 301 (2) के खिलाफ जाएगी, जो याचिकाकर्ता को एक निजी व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक के निर्देशों के अधीन बनाती है। हमारे विचार में उन्हें पूरा प्रभावपूर्ण बनाने के लिए इन प्रावधानों एक सामंजस्यपूर्ण रूप से पढ़ना चाहिए। "

अपीलार्थी का तर्क यह था कि इस तरह के निजी वकील की भूमिका लिखित दलीलों को दर्ज करने तक सीमित नहीं होनी चाहिए, जैसा कि धारा 301 (2) के तहत निजी पक्षकारों द्वारा लगाई गई याचिकाकर्ताओं के संबंध में कहा गया है। इसके बजाय, इसे मौखिक तर्क देने और गवाहों की जांच करने के लिए विस्तारित करना चाहिए।

न्यायालय ने कहा कि पीड़ित के वकील को मौखिक दलील देने और गवाहों की जिरह करने की अनुमति देना किसी सहायक भूमिका से परे है और एक समानांतर अभियोजन पक्ष का गठन करता है। पीठ ने कहा कि मुकदमे के संचालन में लोक अभियोजक को दी गई धारा 225 और धारा 301 (2) से स्पष्ट है कि इस तरह के फ्री हैंड की अनुमति देना सीआरपीसी के तहत परिकल्पित योजना के खिलाफ होगा।

यह देखा गया,

"जैसा कि धारा 301 (2) में कहा गया है, निजी पक्ष की याचिका लोक अभियोजक के निर्देशों के अधीन है। हमारे विचार में, धारा 24 (8) के प्रावधान के तहत पीड़ित के वकील को एक ही सिद्धांत लागू करना चाहिए, क्योंकि यह पर्याप्त रूप से यह सुनिश्चित करता है कि पीड़ित के हितों का प्रतिनिधित्व किया जाए।


यदि पीड़ित के वकील को लगता है कि गवाहों की परीक्षण या लोक अभियोजक द्वारा दी गई दलीलों के परीक्षण में एक निश्चित पहलू अविकसित हो गया है, तो वह स्वयं लोक अभियोजक के माध्यम से किसी भी प्रश्न या बिंदु को पूछ सकता है। यह न केवल सीआरपीसी की योजना के तहत लोक अभियोजक के सर्वोपरि स्थान को संरक्षित करेगा, बल्कि यह भी सुनिश्चित करेगा कि लोक अभियोजक और पीड़ित के वकील द्वारा उन्नत मामले के बीच कोई असंगतता न हो।"

उच्च न्यायालय के आदेश को कायम रखते हुए, पीठ ने आगे कहा,

"यहां तक कि अगर ऐसी स्थिति है, जहां लोक अभियोजक पीड़ित के वकील द्वारा सुझाव दिए जाने के बावजूद महत्व के कुछ मुद्दे को उजागर करने में विफल रहता है, तो भी पीड़ित के वकील को मौखिक तर्क देने या गवाहों की जांच करने का अनियंत्रित अधिकार नहीं दिया जा सकता।


इस तरह के मामलों में वह अभी भी पहले जज के माध्यम से अपने सवालों या तर्कों को रख सकता है, उदाहरण के लिए, यदि पीड़ित के वकील ने पाया कि लोक अभियोजक ने किसी गवाह की ठीक से जांच नहीं की है और उसके सुझावों को शामिल नहीं किया है, तो वह न्यायालय के नोटिस में ये सवाल ला सकता है। यदि न्यायाधीश इन सवालों में योग्यता देखते हैं तो वह सीआरपीसी की धारा 311 या भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 16 के तहत अपनी शक्तियों को लागू करके तदनुसार कार्रवाई कर सकता है। "

Wednesday, November 20, 2019

साइवर अपराध भाग-2

साइबर अपराध के प्रमुख प्रकार क्या हैं और कैसे दिया जाता है इन्हें अंजाम?: 'साइबर कानून श्रृंखला' (भाग 2) 

 21 Nov 2019 9:15

           पिछले लेख साइबर अपराध क्या है एवं इसे किसके विरूद्ध अंजाम दिया जाता है?: 'साइबर कानून श्रृंखला' (भाग 1) में हमने यह समझा कि साइबर अपराध क्या है एवं इसे किस के विरुद्ध अंजाम दिया जाता है। जैसा कि हमने जाना और समझा है, साइबर अपराधों को ऐसे गैरकानूनी कृत्यों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जहां कंप्यूटर का उपयोग या तो एक उपकरण या लक्ष्य या दोनों के रूप में किया जाता है। साइबर अपराध एक सामान्य शब्द है, जिसमें फ़िशिंग, स्पूफिंग, DoS हमला, क्रेडिट कार्ड धोखाधड़ी, ऑनलाइन लेन-देन धोखाधड़ी, बाल पोर्नोग्राफ़ी इत्यादि जैसे अपराध शामिल हैं। मौजूदा लेख में हम साइबर अपराध के मुख्य प्रकार की बात करेंगे और इन्हें समझने का प्रयास करेंगे।
        हैकिंग: इस प्रकार के साइबर अपराध में, एक व्यक्ति के कंप्यूटर के भीतर, उसकी व्यक्तिगत या संवेदनशील जानकारी को प्राप्त करने के उद्देश्य से पहुँच बनायी जाती है। गौरतलब है कि यह अपराध, एथिकल हैकिंग से अलग है, जिसका उपयोग कई संगठन अपने इंटरनेट सुरक्षा संरक्षण की जांच के लिए करते हैं।
        हैकिंग में, अपराधी किसी व्यक्ति के कंप्यूटर में प्रवेश करने के लिए विभिन्न प्रकार के सॉफ़्टवेयर का उपयोग करता है और पीड़ित व्यक्ति को यह पता नहीं चल सकता है कि उसका कंप्यूटर किसी दूरस्थ स्थान से एक्सेस किया जा रहा है।
        कई हैकर्स पासवर्ड क्रैक करने में सक्षम सॉफ्टवेर की मदद से आपके संसाधनों तक पहुंच प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। हैकर्स यह भी देख सकते हैं कि उपयोगकर्ता अपने कंप्यूटर पर क्या करते हैं और हैकर्स अपने कंप्यूटर पर उपयोगकर्ता की फ़ाइलों को आयात या उसे एक्सेस भी कर सकते हैं। 
      एक हैकर, उपयोगकर्ता की जानकारी के बिना उसके सिस्टम पर कई प्रोग्राम इंस्टॉल कर सकता है। इस तरह के प्रोग्राम का उपयोग, पासवर्ड और क्रेडिट कार्ड जैसी व्यक्तिगत जानकारी को चोरी करने के लिए भी किया जा सकता है। DDoS हमले इनका उपयोग ऑनलाइन सेवा को अनुपलब्ध बनाने के लिए किया जाता है और विभिन्न स्रोतों से ट्रैफिक लाकर साइट को डाउन किया जाता है। 
      बॉटनेट्स नामक संक्रमित उपकरणों के बड़े नेटवर्क को उपयोगकर्ताओं के कंप्यूटरों पर मैलवेयर जमा करके बनाया जाता है। नेटवर्क के डाउन होते ही हैकर सिस्टम को हैक कर लेता है। यह बॉटनेट्स, हैक किये गए कंप्यूटर से आने वाले वह नेटवर्क हैं जो रिमोट हैकर्स द्वारा बाहरी रूप से नियंत्रित किए जाते हैं। रिमोट हैकर्स इन बॉटनेट्स के जरिए स्पैम भेजते हैं या दूसरे कंप्यूटरों पर हमला करते हैं। 
       बॉटनेट्स का उपयोग मैलवेयर के रूप में कार्य करने के लिए भी किया जा सकता है। साइबर स्टॉकिंग: यह एक प्रकार का ऑनलाइन उत्पीड़न है, जिसमें पीड़ित को ऑनलाइन संदेशों और मेल्स के जरिये परेशान किया जाता है। आम तौर पर, ऑनलाइन उत्पीडन करने वाले स्टॉकर्स, पीड़ितों को जानते हैं और ऑफ़लाइन जरियों का सहारा लेने के बजाय, वे इंटरनेट का उपयोग करते हैं। हालांकि, अगर वे देखते हैं कि साइबर स्टॉकिंग का वांछित प्रभाव नहीं हो रहा है, तो वे साइबर स्टॉकिंग के साथ-साथ ऑफ़लाइन स्टॉकिंग भी शुरू करते हैं। धारा           354 D भारतीय दंड संहिता, 1860 में किसी महिला को ऑनलाइन स्टॉक करने से सम्बंधित कानून दिया गया है। उक्त धारा में यह कहा गया है कि "ऐसा कोई पुरुष, जो (i) किसी स्त्री का उससे व्यक्तिगत अन्योन्यक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए, उस स्त्री द्वारा स्पष्ट रूप से अनिच्छा उपदर्शित किये जाने के बावजूद, बारम्बार पीछा करता है और सम्पर्क करता है या संपर्क करने का प्रयत्न करता है; अथवा (ii) जो कोई किसी स्त्री द्वारा इन्टरनेट, ईमेल या किसी अन्य प्रारूप की इलेक्ट्रॉनिक संसूचना का प्रयोग किये जाने को मॉनिटर करता है; पीछा करने (Stalking) का अपराध करता है।" गौरतलब है कि जब कोई व्यक्ति, किसी अन्य व्यक्ति को ऑनलाइन धमकी देता है, तो सिविल और आपराधिक दोनों कानूनों का उल्लंघन होता है। पहचान की चोरी (Identity Theft): पहचान की चोरी को मोटे तौर पर दूसरे की व्यक्तिगत पहचान की जानकारी के उसके गैरकानूनी उपयोग के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। 
         ऑनलाइन वित्तीय लेनदेन और बैंकिंग सेवाओं के लिए इंटरनेट का उपयोग करने वाले लोगों के साथ यह एक बड़ी समस्या है। इस साइबर अपराध में, एक अपराधी किसी व्यक्ति के बैंक खाते, क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड, पूर्ण नाम और अन्य संवेदनशील जानकारी के बारे में जानकारी प्राप्त करता है, ताकि उसके द्वारा पैसे की निकासी हो सके या पीड़ित के नाम पर ऑनलाइन चीजें खरीदी जा सकें या अन्यथा उस धन तक पहुँच प्राप्त की जा सके। पहचान चोर, व्यक्ति की जानकारी का उपयोग क्रेडिट, फ़ाइल करों, या चिकित्सा सेवाओं को प्राप्त करने के लिए एवं धोखाधड़ी करने के लिए कर सकता है। यह पीड़ित के लिए बड़े वित्तीय नुकसान का कारण बन सकता है और यहां तक कि यह पीड़ित के क्रेडिट इतिहास को भी खराब कर सकता है। गौरतलब है कि यह साइबर अपराध तब होता है जब कोई अपराधी, उपयोगकर्ता की व्यक्तिगत जानकारी तक पहुँच प्राप्त करते हुए धन की चोरी करने, गोपनीय जानकारी तक पहुंच बनाने, या कर या स्वास्थ्य बीमा धोखाधड़ी कारित करता है। ऐसे साइबर अपराधी आपके नाम पर एक फोन/इंटरनेट खाता भी खोल सकते हैं, किसी आपराधिक गतिविधि की योजना बनाने के लिए आपके नाम का उपयोग कर सकते हैं और आपके नाम पर सरकारी लाभ का दावा भी कर सकते हैं। वे हैकिंग के माध्यम से उपयोगकर्ता के पासवर्ड का पता लगाकर, सोशल मीडिया से व्यक्तिगत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं, या आपको फ़िशिंग ईमेल भी भेज सकते हैं।
         फ़िशिंग - इस प्रकार के हमले में हैकर्स द्वारा उपयोगकर्ताओं को उनके खातों या कंप्यूटर तक पहुंच प्राप्त करने के उद्देश्य से दुर्भावनापूर्ण ईमेल अटैचमेंट या URL भेजे जाते हैं। चूँकि साइबर अपराधी तेज़ी से स्थापित होते जा रहे हैं एवं वे उन्नत तकनीक का उपयोग करते हैं, इसलिए इनके मेल अक्सर स्पैम के रूप में चिह्नित नहीं किये जा पाते हैं। गौरतलब है कि फिशिंग, वित्तीय अपराध का एक प्रकार है। उपयोगकर्ताओं को भेजे गए ऐसे ईमेल में यह दावा किया जाता है कि उन्हें अपना पासवर्ड बदलने या अपनी बिलिंग जानकारी अपडेट करने की आवश्यकता है, जिससे अपराधियों को निजी जानकारी का एक्सेस मिल सके। दोषपूर्ण सॉफ़्टवेयर: यह सॉफ़्टवेयर, जिसे कंप्यूटर वायरस भी कहा जाता है, इंटरनेट-आधारित सॉफ़्टवेयर या प्रोग्राम है जो किसी नेटवर्क को बाधित करने के लिए उपयोग किया जाता है। सॉफ़्टवेयर का उपयोग संवेदनशील जानकारी या डेटा एकत्र करने या सिस्टम में मौजूद सॉफ़्टवेयर को नुकसान पहुंचाने के लिए सिस्टम तक पहुंच प्राप्त करने के लिए किया जाता है। बाल पोर्नोग्राफी और दुर्व्यवहार: यह भी एक प्रकार का साइबर अपराध है जिसमें अपराधी, बाल पोर्नोग्राफी के उद्देश्य से चैट रूम के माध्यम से नाबालिगों को अपने साथ जोड़ते हैं। 
        ऑनलाइन बाल पोर्नोग्राफी को भारत में साइबर अपराध के सबसे जघन्य रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, जो भविष्य की पीढ़ी की सुरक्षा को खतरे में डाल रहा है। सिटी ऑफ़ यंगस्टाउन बनाम डे लॉरिटो (यूएसए, 1969) मामले के अनुसार, 'पोर्नोग्राफ़ी' कामुक उत्तेजना पैदा करने के उद्देश्य से डिज़ाइन किए गए कामुक व्यवहार का चित्रण है। यह शब्द, कार्य या कृत्य हैं, जिसका इरादा सेक्स भावनाओं को उत्तेजित करना होता है। यह कामुक प्रतिक्रिया को प्रोत्साहित करने के अपने एकमात्र उद्देश्य के साथ अक्सर वास्तविकता से भिन्न होता है। पोर्नोग्राफी शब्द का मतलब किसी काम या कला या रूप से है, जो सेक्स या यौन विषयों से संबंधित होता है। इसमें यौन गतिविधियों में शामिल पुरुष और महिला दोनों के चित्र/विडियो शामिल होते हैं, और यह इंटरनेट की दुनिया में पहुँच के भीतर है। आजकल पोर्नोग्राफी समाज के लिए एक तरह का व्यवसाय बन गया है क्योंकि लोग इसके जरिये आर्थिक लाभ प्राप्त करते हैं। भारत में बाल पोर्नोग्राफी एक गैरकानूनी कार्य है। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 और भारतीय दंड संहिता, 1860 बाल पोर्नोग्राफी के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है। साइबर आतंकवाद: यह सबसे गंभीर साइबर अपराधों में से एक माना जाता है। सरकार के खिलाफ किये गए ऐसे अपराध को साइबर आतंकवाद के रूप में जाना जाता है। 
        सरकारी साइबर अपराध में सरकारी वेबसाइट या सैन्य वेबसाइट को हैक किया जाना शामिल हैं। गौरतलब है कि जब सरकार के खिलाफ एक साइबर अपराध किया जाता है, तो इसे उस राष्ट्र की संप्रभुता पर हमला और युद्ध की कार्रवाई माना जाता है। ये अपराधी आमतौर पर आतंकवादी या अन्य देशों की दुश्मन सरकारें होती हैं। सॉफ्टवेयर चोरी: सॉफ्टवेयर चोरी में व्यावसायिक रूप से उपलब्ध सॉफ्टवेयर का अनधिकृत उपयोग, दोहराव, वितरण या बिक्री शामिल है। सॉफ्टवेयर पायरेसी को अक्सर सॉफ्ट लिफ्टिंग, जालसाजी, इंटरनेट चोरी, हार्ड-डिस्क लोडिंग, ओईएम अनबंडलिंग के रूप में लेबल किया जाता है। बौद्धिक सम्पदा के विरुद्ध साइबर अपराध - इस प्रकार का साइबर अपराध तब होता है जब कोई व्यक्ति कॉपीराइट का उल्लंघन करता है और ऐसा करते हुए संगीत, फिल्में, गेम, सॉफ्टवेयर इत्यादि गैरकानूनी रूप से डाउनलोड करता है। 
       कॉपीराइट और व्यापार रहस्य (Trade Secret) IP के दो रूप हैं जो अक्सर चोरी किये जाते हैं। उदाहरण के लिए, सॉफ्टवेयर की चोरी, एक प्रसिद्ध पकवान का नुस्खा या व्यापार रणनीतियों की चोरी करना आदि। आम तौर पर, चोरी की गई सामग्री, प्रतिद्वंद्वियों या अन्य को उत्पाद की आगे की बिक्री के लिए बेची जाती है। इसके चलते मूल रूप से इसे बनाने वाली कंपनी को भारी नुकसान हो सकता है। हालाँकि यह सच है कि साइबर अपराध की गंभीरता दिन प्रति दिन बढती जा रही है पर हम सूझ-बूझ के साथ सर्वोत्तम प्रथाओं का पालन करके, फ़िशिंग हमलों, रैंसमवेयर, मैलवेयर, पहचान की चोरी, घोटालों और अन्य प्रकार के साइबर अपराध से खुदका बचाव कर सकते हैं। हमे वेबसाइट ब्राउज़ करते समय सतर्क रहना चाहिए और किसी संदिग्ध ईमेल को रिपोर्ट करना चाहिए। हमे अपरिचित लिंक या विज्ञापनों पर कभी भी क्लिक नहीं करना चाहिए और जहाँ तक संभव हो वीपीएन का उपयोग करना चाहिए। 
        अपने क्रेडेंशियल दर्ज करने से पहले यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वेबसाइट सुरक्षित है या नहीं और कंप्यूटर सिस्टम में एंटीवायरस को अपडेटेड रखना चाहिए। इसके अलावा सोशल साइट एवं मेल के पासवर्ड मजबूत रखे जाने चाहिए।

Monday, November 18, 2019

साइवर कानून भाग-1

साइबर अपराध क्या है एवं इसे किसके विरूद्ध अंजाम दिया जाता है?: 'साइबर कानून श्रृंखला' (भाग 1)

जिस गति से तकनीक ने उन्नति की है, उसी गति से मनुष्य की इंटरनेट पर निर्भरता भी बढ़ी है। एक ही जगह पर बैठकर, इंटरनेट के जरिये मनुष्य की पहुँच, विश्व के हर कोने तक आसान हुई है। आज के समय में हर वो चीज़ जिसके विषय में इंसान सोच सकता है, उस तक उसकी पहुँच इंटरनेट के माध्यम से हो सकती है, जैसे कि सोशल नेटवर्किंग, ऑनलाइन शॉपिंग, डेटा स्टोर करना, गेमिंग, ऑनलाइन स्टडी, ऑनलाइन जॉब इत्यादि। आज के समय में इंटरनेट का उपयोग लगभग हर क्षेत्र में किया जाता है। इंटरनेट के विकास और इसके संबंधित लाभों के साथ साइबर अपराधों की अवधारणा भी विकसित हुई है। साइबर अपराध क्या है? साइबर अपराध विभिन्न रूपों में किए जाते हैं। कुछ साल पहले, इंटरनेट के माध्यम से होने वाले अपराधों के बारे में जागरूकता का अभाव था। साइबर अपराधों के मामलों में भारत भी उन देशों से पीछे नहीं है, जहां साइबर अपराधों की घटनाओं की दर भी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। साइबर अपराध के मामलों में एक साइबर क्रिमिनल, किसी उपकरण का उपयोग, उपयोगकर्ता की व्यक्तिगत जानकारी, गोपनीय व्यावसायिक जानकारी, सरकारी जानकारी या किसी डिवाइस को अक्षम करने के लिए कर सकता है। उपरोक्त सूचनाओं को ऑनलाइन बेचना या खरीदना भी एक साइबर अपराध है। इसमें कोई संशय नहीं है कि साइबर अपराध एक आपराधिक गतिविधि है, जिसे कंप्यूटर और इंटरनेट के उपयोग द्वारा अंजाम दिया जाता है। साइबर अपराध, जिसे 'इलेक्ट्रॉनिक अपराध' के रूप में भी जाना जाता है, एक ऐसा अपराध है जिसमें किसी भी अपराध को करने के लिए, कंप्यूटर, नेटवर्क डिवाइस या नेटवर्क का उपयोग, एक वस्तु या उपकरण के रूप में किया जाता है. जहाँ इनके (कंप्यूटर, नेटवर्क डिवाइस या नेटवर्क) जरिये ऐसे अपराधों को अंजाम दिया जाता है वहीँ इन्हें लक्ष्य बनाते हुए इनके विरुद्ध अपराध भी किया जाता है। ऐसे अपराध में साइबर जबरन वसूली, पहचान की चोरी, क्रेडिट कार्ड धोखाधड़ी, कंप्यूटर से व्यक्तिगत डेटा हैक करना, फ़िशिंग, अवैध डाउनलोडिंग, साइबर स्टॉकिंग, वायरस प्रसार, सहित कई प्रकार की गतिविधियाँ शामिल हैं। गौरतलब है कि सॉफ्टवेयर चोरी भी साइबर अपराध का ही एक रूप है, जिसमें यह जरूरी नहीं है कि साइबर अपराधी, ऑनलाइन पोर्टल के माध्यम से ही अपराध करे। जैसा कि हमने समझा, साइबर अपराध को दो तरीकों से वर्गीकृत किया जा सकता है: 1. वे अपराध जिनमें कंप्यूटर पर हमला किया जाता है। इस तरह के अपराधों के उदाहरण हैकिंग, वायरस हमले, डॉस हमले आदि हैं। 2. वे अपराध जिनमे कंप्यूटर को एक हथियार/उपकरण/ के रूप में उपयोग किया जाता है। इस प्रकार के अपराधों में साइबर आतंकवाद, आईपीआर उल्लंघन, क्रेडिट कार्ड धोखाधड़ी, ईएफटी धोखाधड़ी, पोर्नोग्राफी आदि शामिल हैं। साइबर कानून क्या है? साइबर कानून (Cyberlaw) वह एक शब्द है जिसका उपयोग संचार प्रौद्योगिकी, विशेष रूप से "साइबरस्पेस", यानी इंटरनेट के उपयोग से संबंधित कानूनी मुद्दों के विषय में बात करने के लिए किया जाता है। इसे कानून के एक अलग क्षेत्र के रूप में नहीं कहा जा सकता है, जैसा संपत्ति या अनुबंध के मामले में होता है, क्योंकि साइबर कानून में, कई कानून सम्बन्धी क्षेत्रों का समागम होता है. इसके अंतर्गत बौद्धिक संपदा, गोपनीयता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अधिकार जैसे कानूनी मामले/मुद्दे शामिल हैं। साइबर कानून के विभिन्न प्रकार के उद्देश्य होते हैं। कुछ कानून इस बात को लेकर नियम बनाते हैं कि व्यक्ति और कंपनियां, कंप्यूटर और इंटरनेट का उपयोग कैसे कर सकती हैं, जबकि कुछ कानून इंटरनेट पर अवैध गतिविधियों के माध्यम से लोगों को अपराध का शिकार बनने से बचाते हैं। संक्षेप में, साइबर कानून वह प्रयास है जिसके जरिये भौतिक दुनिया के लिए लागू कानून की प्रणाली का उपयोग, इंटरनेट पर मानव गतिविधि द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों से निपटने के लिए किया जाता है। भारत में सूचना प्रौद्योगिकी कानून (आईटी कानून) 2000, आईटी (संशोधन) अधिनियम 2008 द्वारा संशोधित साइबर कानून के रूप में जाना जाता है। इस कानून में "अपराध" के रूप में एक अलग अध्याय मौजूद है। हालांकि इसमें कई कमियां भी हैं और यह साइबर युद्ध की निगरानी के लिए एक बहुत प्रभावी कानून नहीं है, इसके अलावा विभिन्न साइबर अपराधों का उल्लेख, अपराध के उक्त अध्याय में दंड के साथ दंडनीय अपराध के रूप में किया गया है। साइबर अपराध की श्रेणियां साइबर अपराध के अंतर्गत 3 प्रमुख श्रेणियां आती हैं: व्यक्तिगत, संपत्ति और सरकार। दूसरे शब्दों में, प्रमुख रूप से किसी व्यक्ति/निकाय, संपत्ति एवं सरकार के खिलाफ साइबर अपराध किये जाते हैं. संपत्ति विशेष के विरुद्ध साइबर अपराध: कुछ ऑनलाइन अपराध संपत्ति के खिलाफ होते हैं, जैसे कि कंप्यूटर या सर्वर के खिलाफ या उसे जरिया बनाकर। इन अपराधों में डीडीओएस हमले, हैकिंग, वायरस ट्रांसमिशन, साइबर और टाइपो स्क्वाटिंग, कॉपीराइट उल्लंघन, आईपीआर उल्लंघन आदि शामिल हैं। मान लीजिये कोई आपको एक वेब-लिंक भेजे, जिसपर क्लिक करने के पश्च्यात एक वेबपेज खुले जहाँ आपसे आपके बैंक खाते/गोपनीय दस्तावेज संबंधित सारी जानकारी मांगी जाए और ऐसा कहा जाए कि यह जानकारी रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया या सरकार की ओर से मांगी जा रही है, आप वहां सारी जानकारी दे दें और फिर उस जानकारी के इस्तेमाल से आपके दस्तावेज एवं बैंक खाते के साथ छेड़छाड़ की जाये, तो यह संपत्ति के विरूद्ध साइबर हमला कहा जायेगा। व्यक्ति विशेष के विरूद्ध साइबर अपराध: ऐसे अपराध, यद्यपि ऑनलाइन होते हैं, परन्तु वे वास्तविक लोगों के जीवन को प्रभावित करते हैं। इनमें से कुछ अपराधों में साइबर उत्पीड़न और साइबरस्टॉकिंग, चाइल्ड पोर्नोग्राफी का वितरण, विभिन्न प्रकार के स्पूफिंग, क्रेडिट कार्ड धोखाधड़ी, मानव तस्करी, पहचान की चोरी और ऑनलाइन बदनाम किया जाना शामिल हैं। साइबर अपराध की इस श्रेणी में किसी व्यक्ति या समूह के खिलाफ दुर्भावनापूर्ण या अवैध जानकारी को ऑनलाइन वितरित किया जाता है। सरकार विशेष के विरुद्ध साइबर अपराध: यह सबसे गंभीर साइबर अपराध माना जाता है। सरकार के खिलाफ किये गए ऐसे अपराध को साइबर आतंकवाद के रूप में भी जाना जाता है। सरकारी साइबर अपराध में सरकारी वेबसाइट या सैन्य वेबसाइट को हैक किया जाना शामिल हैं। गौरतलब है कि जब सरकार के खिलाफ एक साइबर अपराध किया जाता है, तो इसे उस राष्ट्र की संप्रभुता पर हमला और युद्ध की कार्रवाई माना जाता है। ये अपराधी आमतौर पर आतंकवादी या अन्य देशों की दुश्मन सरकारें होती हैं। साइबर अपराध और हम यह सच है कि अधिकांश इंटरनेट उपयोगकर्ता इस तथ्य पर ध्यान नहीं देते हैं कि उनकी जानकारी को हैक किया जा सकता है और ऐसे लोग शायद ही कभी अपने पासवर्ड को बदलते/दस्तावेज की सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं। वे सतर्क होकर इन्टरनेट का उपयोग करने के विषय में जागरूकता नहीं रखते हैं और अपनी जानकारी पर साइबर हमले को लेकर सचेत नहीं रहते हैं और इसी के चलते तमाम लोग, अनजाने में साइबर अपराध की चपेट में आ जाते हैं। हमे अपने आप को और दूसरों को इसके निवारक उपायों को लेकर शिक्षित करना चाहिए, ताकि हम और आप एक व्यक्ति या व्यवसाय के रूप में खुद के बचाव के लिए सतर्कता बरत सकें। इसके अलावा साइबर अपराधों के मुद्दे से निपटने के लिए, विभिन्न शहरों के CID (आपराधिक जांच विभाग) ने विभिन्न शहरों में साइबर क्राइम सेल खोले हैं। भारत का सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (IT Act) स्पष्ट रूप से यह कहता है कि जब साइबर अपराध किया जाता है, तो इसका एक वैश्विक अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) है और इसलिए किसी भी साइबर सेल में इसको लेकर शिकायत दर्ज की जा सकती है। गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने साइबर अपराधों के बारे में जागरूकता फैलाने, अलर्ट/सलाह जारी करने, कानून प्रवर्तन कर्मियों/अभियोजन/न्यायिक अधिकारियों की क्षमता निर्माण/प्रशिक्षण के लिए एवं ऐसे अपराधों को रोकने और जांच में तेजी लाने के लिए साइबर फोरेंसिक सुविधाओं में सुधार आदि के लिए कदम उठाए हैं।

Saturday, November 9, 2019

अयोध्या का फैसला

अयोध्या फैसला : सुप्रीम कोर्ट के फैसले में किये गए ये मुख्य अवलोकन, पढ़िए फैसला 

9 Nov 2019 1:07 PM 

      सुप्रीम कोर्ट शनिवार को अयोध्या बाबरी मस्जिद भूमि विवाद मामले में बहुप्रतीक्षित फैसला सुना दिया। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने अयोध्या मामले में फैसला सुनाया। शीर्ष अदालत ने शनिवार को फैसला सुनाया और कहा कि विवादित ढांचा पूरी तरह से हिंदू पक्ष को दिया जाता है , जबकि मुसलिम पक्ष को अलग से मस्जिद बनाने के लिए 5 एकड़ ज़मीन देने का आदेश दिया। अदालत ने माना है कि अयोध्या में 2.77 एकड़ की पूरी विवादित भूमि को राम मंदिर के निर्माण के लिए सौंप दिया जाना चाहिए। इसी समय, अदालत ने यह भी कहा कि मस्जिद के निर्माण के लिए सुन्नी वक्फ बोर्ड को 5 एकड़ का एक वैकल्पिक भूखंड आवंटित किया जाना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि 1992 में बाबरी मस्जिद तोड़ना कानून का उल्लंघन था। केंद्र सरकार को इस संबंध में तीन महीने के भीतर एक योजना तैयार करने का निर्देश दिया गया है। अदालत ने मंदिर निर्माण के लिए ट्र्स्ट बोर्ड का गठन करने के आदेश दिए। सर्वसम्मत से किए गए इस निर्णय में अदालत के प्रमुख अवलोकन निम्नलिखित हैं। (i) केंद्र सरकार इस फैसले की तारीख से तीन महीने की अवधि के भीतर, अयोध्या अधिनियम 1993 में निश्चित क्षेत्र के अधिग्रहण के अनुभाग 6 और 7 के तहत इसमें निहित शक्तियों के अनुरूप एक योजना तैयार करेगी। धारा 6 के तहत न्यासी बोर्ड या किसी अन्य उपयुक्त निकाय के साथ एक ट्रस्ट की स्थापना की जाएगी। केंद्र सरकार द्वारा तैयार की जाने वाली योजना ट्रस्ट या निकाय के कामकाज के संबंध में आवश्यक प्रावधान करेगी। ट्रस्ट का प्रबंधन एक मंदिर के निर्माण और सभी आवश्यक आकस्मिक और पूरक मामलों सहित ट्रस्टियों की शक्तियां। (ii) आंतरिक और बाहरी प्रांगणों का कब्ज़ा न्यास के न्यासी बोर्ड को सौंप दिया जाएगा। उपर्युक्त निर्देशों के अनुसार तैयार की गई योजना के संदर्भ में प्रबंधन और विकास के लिए ट्रस्ट या निकाय को सौंपकर केंद्र सरकार बाकी अधिग्रहित भूमि के संबंध में उपयुक्त प्रावधान करने के लिए स्वतंत्र होगी। (iii) विवादित संपत्ति का कब्ज़ा केंद्र सरकार के तहत वैधानिक रिसीवर में निहित करना जारी रहेगा, 1993 के अयोध्या अधिनियम की धारा 6 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र के व्यायाम में एकतरफा, एक अधिसूचना ट्रस्ट या अन्य निकाय में संपत्ति निहित करते हुए जारी की जाती है। न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 142 का भी आह्वान किया है। सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि केंद्र सरकार द्वारा तैयार की जाने वाली योजना में ट्रस्ट या निकाय में उचित प्रतिनिधित्व में निर्मोही अखाड़ा को इस तरह से फिट किया जाए जैसा कि केंद्र सरकार मानती है। मस्जिद के लिए वैकल्पिक ज़मीन के बारे में दिशा-निर्देश इसके साथ ही उपर्युक्त खंड 2 के तहत ट्रस्ट या निकाय को विवादित संपत्ति सौंपने के साथ ही 5 एकड़ भूमि का एक उपयुक्त भूखंड वादी 4 सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को सौंप दिया जाएगा। भूमि या तो (ए) अयोध्या अधिनियम 1993 के तहत अधिग्रहित भूमि से केंद्र सरकार द्वारा आवंटित की जाएगी, या (बी) अयोध्या में एक उपयुक्त प्रमुख स्थान पर केंद्र सरकार और राज्य सरकार एक दूसरे के परामर्श से उपरोक्त अवधि में उपर्युक्त आवंटन के लिए कार्य करेंगी। सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड आवंटित भूमि पर मस्जिद के निर्माण के लिए सभी आवश्यक कदम उठाने के लिए स्वतंत्र होगा। ताकि अन्य संबद्ध सुविधाओं के साथ आवंटित किया जा सके। संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत इस न्यायालय में निहित शक्तियों के अनुसरण में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को भूमि के आवंटन के लिए निर्देश जारी किए गए हैं।

Friday, November 1, 2019

अपील दर्ज करने की समय सीमा

अपील दर्ज करने की सीमा की गणना उस आदेश की प्रमाणित प्रति में दर्ज तस्दीक के आधार पर होनी चाहिए : सुप्रीम कोर्ट 

1 Nov 2019 8:19 AM 101 

       सुप्रीम कोर्ट ने हाल के अपने एक फैसले में विशेष अनुमति याचिका को खारिज करते हुए कहा कि अदालत अपील की सीमा की गणना प्रमाणित प्रति में दर्ज तस्दीक के आधार पर होनी चाहिए। इस मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक जिला अदालत के फैसले को सही ठहराया था, जिसने एक आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया था कि इसमें एक अपील को इस आधार पर खारिज करने की मांग की गई थी कि वह परिसीमन से प्रतिबंधित है। परिसीमन की अवधि की गणना अपील के तहत आदेश की प्रमाणित प्रति में जो तस्दीक थी, उसके आधार पर की गई थी। यह कहा गया कि अपील सीमा के अधीन है, क्योंकि परिसीमन की गणना में प्रमाणित प्रति प्राप्त करने में जो समय खर्च होता है उसको इसमें से निकालना होता है। याचिकाकर्ता की दलील यह थी कि प्रमाणित प्रति उस समय तैयार हुई, जब प्रमाणित प्रति के पीछे तिथि दर्शायी गई इस अपील को खारिज करते हुए न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी और एमआर शाह की पीठ ने कहा, "यह कि प्रमाणित प्रति को हकीकत में प्रमाणित प्रति के पीछे के पृष्ठ पर तिथि के दर्शाने के पहले ही तैयार कर लिया गया। वे कौन सी परिस्थितियां थीं, जिनकी वजह से मामले के एक पक्ष को प्रमाणित प्रति पहले उपलब्ध कराई गई, जबकि दूसरे पक्ष को बाद में दी गई, जबकि इसके लिए आवेदन एक ही दिन दिए गए थे। ये ऐसे मामले नहीं हैं, जिन पर इन प्रक्रियाओं के दौरान निर्णय नहीं लिए जा सकते. हाईकोर्ट भी इस पर रिट याचिका में निर्णय नहीं कर सकता।" अदालत ने आगे कहा, "अदालत अपील की सीमा की गणना प्रमाणित प्रति में दर्ज किये गए तसदीक के आधार पर करने के लिए बाध्य हैं। अगर इसमें किसी भी तरह के अन्यायपूर्ण/या अनुचित होने का अंदेशा हो, तो इसका उपचार इस बात में है कि इस संबंध में एक घरेलू जांच शुरू की जाए या अदालत के संबंधित स्टाफ के खिलाफ आपराधिक जांच कराई जा सकती है जो प्रमाणित प्रति उपलब्ध कराने के लिए जिम्मेदार हैं।" आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें

Monday, October 28, 2019

शिकायत दर्ज करवाने में देरी का एक मात्र आधार पर मामले को खारिज नहीं किया जा सकता -केरल हाई कोर्ट

शिकायत दर्ज करवाने में देरी के एकमात्र आधार पर मामले को खारिज नहीं किया जा सकता, केरल हाईकोर्ट ने आईपीसी 420 के तहत मामले पर फैसले में  सुनवाई 

        जब शिकायत दर्ज करने के लिए कानून में कोई सीमा निर्धारित नहीं होती है, तो देरी के एकमात्र आधार पर इस कानून के अंतर्गत कोई मामला रद्द नहीं किया जा सकता। केरल हाईकोर्ट ने आईपीसी 420 के एक मामले में फैसला सुनाते हुए यह कहा। इस मामले [सिंधु एस पानिकर बनाम ए .बालाकृष्णन ], में शिकायतकर्ता द्वारा कथित लेनदेन 10.04.2007 को हुआ था। आरोपी द्वारा शिकायतकर्ता को कथित रूप से दिया गया चेक दिनांक 16.05.2007 का था। आरोपी के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 420 के तहत शिकायत 29.03.2011 को दर्ज की गई थी। अभियुक्त द्वारा धारा 482 सीआरपीसी के तहत दायर एक याचिका में न्यायमूर्ति आर नारायण पिशराडी ने इस मुद्दे पर विचार किया कि क्या इस शिकायत को अनुचित देरी के आधार पर रद्द कर दिया गया है? भले ही अधिनियम के तहत निर्धारित सीमा के संबंध में रोक नहीं है। अदालत ने कहा, "आपराधिक न्याय का सामान्य नियम यह है कि "एक अपराध कभी नहीं मरता है"। कानून की अदालत का दरवाजा खटखटाने में देरी के कारण खुद मामले को खारिज करने का कोई आधार नहीं होगा, हालांकि यह अंतिम फैसले तक पहुंचने में एक प्रासंगिक परिस्थिति हो सकती है (देखें जपानी साहू बनाम चंद्रशेखर मोहंती: AIR 2007 SC 2762)। जब शिकायत दर्ज करने के लिए समय सीमा की कोई अवधि निर्धारित नहीं की जाती है, तो इस देरी के एकमात्र आधार पर मामले को खारिज नहीं किया जा सकता। शिकायत दर्ज करने में देरी का सवाल अंतिम निर्णय पर पहुंचने में ध्यान में रखी जाने वाली परिस्थिति हो सकती है। लेकिन, अपने आप में यह शिकायत को खारिज करने के लिए कोई आधार नहीं देता है। अभियोजन को इस आधार पर खारिज नहीं किया जाना चाहिए कि शिकायत दर्ज करवाने देरी हुई। अपराध के कृत्य के बारे में शिकायत दर्ज करने में अयोग्य और अस्पष्टीकृत देरी निश्चित रूप से मामले में अंतिम निर्णय लेने के लिए अदालत द्वारा ध्यान में रखा जाने वाला एक कारक होगा, लेकिन, जब शिकायत को समय सीमा से रोका नहीं जाता है, तो केवल अवांछित देरी के आधार पर मामले को खारिज नहीं किया जा सकता। " अदालत ने लक्ष्मण बनाम कर्नाटक राज्य के शीर्ष न्यायालय के हालिया फैसले का उल्लेख किया, जिसमें यह कहा गया था कि रुपए वसूलने के लिए सिर्फ एनआई अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायत करना आरोपी के खिलाफ धोखाधड़ी के मामले को समाप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है। यह मामला विस्तार से पढ़ने के लिया यहां क्लिक करें। रुपए वसूलने के लिए सिर्फ एनआई अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायत करना आरोपी के खिलाफ धोखाधड़ी के मामले को समाप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं : सुप्रीम कोर्ट याचिका खारिज करते हुए अदालत ने कहा, " यह सही है कि शिकायतकर्ता ने निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत कोई शिकायत दर्ज नहीं की है। यह धारा पहले आरोपी / पहले याचिकाकर्ता को नोटिस भेजने के लिए प्रेरित करती है। लेकिन, पहले याचिकाकर्ता ने यह कहते हुए उत्तर नोटिस भेजा था कि बैंक में उसका कोई खाता नहीं है, जिस पर चेक कथित रूप से लगाया गया था। यहां तक कि अगर किसी व्यक्ति के खिलाफ निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत दंडनीय अपराध के लिए मुकदमा चलाया गया है और उससे निपटाया गया है, तो भी उसे बाद में धारा 420 आईपीसी के तहत अपराध के लिए दंडित किया जा सकता है। कारण यह है कि दोनों अपराधों के अवयव अलग-अलग हैं।"

Friday, October 4, 2019

पिता ऐसी बेटी को गुजारे की मासिक राशि देने के लिए बाध्य नहीं जो खुद कमा रही है

पिता ऐसी बेटी को गुज़ारे की मासिक राशि देने के लिए बाध्य नहीं जो ख़ुद कमा रही है : कर्नाटक हाईकोर्ट  

                 5 Oct 2019.                                   

          कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा है कि पिता अपनी उस बेटी को गुज़ारे की मासिक राशि देने के लिए बाध्य नहीं है जो नौकरी से पैसे कमा रही है। न्यायमूर्ति एसएन सत्यनारायण और पीजीएम पाटिल ने इस बारे में सदाशिवानंद की याचिका आंशिक रूप से स्वीकार कर ली। पीठ ने कहा, "शुरुआत में अदालत ने कुछ राशि के भुगतान के बारे में आदेश देकर ठीक किया था पर जब उस समय के बाद के लिए नहीं जब उसे किसी प्रतिष्ठित कंपनी में 20-25 हज़ार प्रति माह की नौकरी मिल गई। उसको 10 हज़ार की अतिरिक्त राशि दिलाकर उसकी आदत नहीं बिगाड़ी जा सकती। पिता के कंधे पर अन्य अविवाहित बेटियों के गुज़ारे का भार भी है और रिपोर्ट के हिसाब से इन लोगों ने अपनी पढ़ाई रोक दी है और दो बेटे अभी भी बालिग़ नहीं हुए हैं और उसे उनका भरण-पोषण तब तक करना है जबतक कि वे अपने पैरों पर खड़े नहीं हो जाते"। पीठ ने शादी में ख़र्च होने वाली राशि को 15 लाख से घटाकर 5 लाख कर दिया। अदालत ने कहा, "शादी का ख़र्च तब होना है जब बेटियों की शादी का दिन निर्धारित हो जाता है और यह ख़र्च 5 लाख से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए"। पिता ने पारिवारिक अदालत के 9 नवंबर 2016 के फ़ैसले के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में अपील की थी। उसकी दूसरी बेटी पद्मिनी ने अदालत में हिंदू अडॉप्शन एंड मेंट्नेन्स ऐक्ट के तहत एक मामला दायर किया और नागरिक प्रक्रिया संहिता के आदेश VII नियम 1 के तहत भी राहत की माँग की। बेटी ने कोर्ट से कहा था कि वह उसके पिता को उसकी शादी होने तक गुज़ारे की राशि देना जारी रखे, शादी की तिथि निर्धारित होती है तो शादी का ख़र्च दे और उसकी शिक्षा ठीक तरह से पूरी हो जाए इसकी व्यवस्था करे। पिता ने कहा कि अदालत ने उसके मामले को जल्दबाज़ी में निपटा दिया और पेश किए गए साक्ष्यों पर ग़ौर नहीं किया। उसकी बेटी बीई करने के बाद एम टेक भी कर चुकी है और एक कंपनी में नौकरी से ठीक ठाक राशि कमा रही है। पर अदालत ने इन तथ्यों को नज़रंदाज़ कर बेटी को 10 हज़ार हर माह देने और शादी के लिए 15 लाख की राशि देने का फ़ैसला सुना दिया। पीठ ने उपलब्ध साक्ष्यों पर ग़ौर करने के बाद कहा, "…अपीलकर्ता और उसकी पत्नी के बीच चल रहे कई सारे मामलों में एक मामला यह भी है जिसमें पत्नी ने अपने गुज़ारे की राशि और अपनी बेटियों की गुज़ारे की राशि के लिए अदालत में मामला दायर कर रखा है; दूसरा वैवाहिक संबंधों की बहाली के लिए और तीसरा संपत्ति के मामले से संबंधित है जिसमें उसने 6/7 हिस्सेदारी की माँग की है"। "इस मामले में वादी एक इंजीनियरिंग स्नातक है और वह नौकरी में है। अगर सिर्फ़ यह माना जाए कि उसे 20 से 25 हज़ार ही मिल रहे हैं, इतनी राशि के बाद अदालत का उसे गुज़ारे की राशि देने का आदेश देना तर्कसंगत नहीं है। उसको शादी के लिए 15 लाख की राशि देने का आदेश भी तर्कसंगत नहीं है जबकि इसकी कोई माँग नहीं की गई थी। इस बात का कोई ब्योरा नहीं पेश किया गया है कि वादी की शादी में 15 लाख रुपए ख़र्च होंगे। अदालत ख़ुद ही यह अनुमान लगा रहा है कि उसकी शादी में 15 लाख रुपए ख़र्च होंगे और यह भी किसी तरह से तर्कसंगत नहीं है"।