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Sunday, December 1, 2019
न्यायिक हिरासत और पुलिस हिरासत में अन्तर
Monday, November 25, 2019
भले ही मोटर बिक गया हो मगर दुर्घटना का देय गाडी मालिक द्वारा होगा
Thursday, November 21, 2019
अभियोजन पक्ष की सहायता के लिए निजी वकील जिरह और गवाहों का परीक्षण नहीं कर सकता
Wednesday, November 20, 2019
साइवर अपराध भाग-2
Monday, November 18, 2019
साइवर कानून भाग-1
Saturday, November 9, 2019
अयोध्या का फैसला
Friday, November 1, 2019
अपील दर्ज करने की समय सीमा
Monday, October 28, 2019
शिकायत दर्ज करवाने में देरी का एक मात्र आधार पर मामले को खारिज नहीं किया जा सकता -केरल हाई कोर्ट
Friday, October 4, 2019
पिता ऐसी बेटी को गुजारे की मासिक राशि देने के लिए बाध्य नहीं जो खुद कमा रही है
पिता ऐसी बेटी को गुज़ारे की मासिक राशि देने के लिए बाध्य नहीं जो ख़ुद कमा रही है : कर्नाटक हाईकोर्ट
5 Oct 2019.
कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा है कि पिता अपनी उस बेटी को गुज़ारे की मासिक राशि देने के लिए बाध्य नहीं है जो नौकरी से पैसे कमा रही है। न्यायमूर्ति एसएन सत्यनारायण और पीजीएम पाटिल ने इस बारे में सदाशिवानंद की याचिका आंशिक रूप से स्वीकार कर ली। पीठ ने कहा, "शुरुआत में अदालत ने कुछ राशि के भुगतान के बारे में आदेश देकर ठीक किया था पर जब उस समय के बाद के लिए नहीं जब उसे किसी प्रतिष्ठित कंपनी में 20-25 हज़ार प्रति माह की नौकरी मिल गई। उसको 10 हज़ार की अतिरिक्त राशि दिलाकर उसकी आदत नहीं बिगाड़ी जा सकती। पिता के कंधे पर अन्य अविवाहित बेटियों के गुज़ारे का भार भी है और रिपोर्ट के हिसाब से इन लोगों ने अपनी पढ़ाई रोक दी है और दो बेटे अभी भी बालिग़ नहीं हुए हैं और उसे उनका भरण-पोषण तब तक करना है जबतक कि वे अपने पैरों पर खड़े नहीं हो जाते"। पीठ ने शादी में ख़र्च होने वाली राशि को 15 लाख से घटाकर 5 लाख कर दिया। अदालत ने कहा, "शादी का ख़र्च तब होना है जब बेटियों की शादी का दिन निर्धारित हो जाता है और यह ख़र्च 5 लाख से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए"। पिता ने पारिवारिक अदालत के 9 नवंबर 2016 के फ़ैसले के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में अपील की थी। उसकी दूसरी बेटी पद्मिनी ने अदालत में हिंदू अडॉप्शन एंड मेंट्नेन्स ऐक्ट के तहत एक मामला दायर किया और नागरिक प्रक्रिया संहिता के आदेश VII नियम 1 के तहत भी राहत की माँग की। बेटी ने कोर्ट से कहा था कि वह उसके पिता को उसकी शादी होने तक गुज़ारे की राशि देना जारी रखे, शादी की तिथि निर्धारित होती है तो शादी का ख़र्च दे और उसकी शिक्षा ठीक तरह से पूरी हो जाए इसकी व्यवस्था करे। पिता ने कहा कि अदालत ने उसके मामले को जल्दबाज़ी में निपटा दिया और पेश किए गए साक्ष्यों पर ग़ौर नहीं किया। उसकी बेटी बीई करने के बाद एम टेक भी कर चुकी है और एक कंपनी में नौकरी से ठीक ठाक राशि कमा रही है। पर अदालत ने इन तथ्यों को नज़रंदाज़ कर बेटी को 10 हज़ार हर माह देने और शादी के लिए 15 लाख की राशि देने का फ़ैसला सुना दिया। पीठ ने उपलब्ध साक्ष्यों पर ग़ौर करने के बाद कहा, "…अपीलकर्ता और उसकी पत्नी के बीच चल रहे कई सारे मामलों में एक मामला यह भी है जिसमें पत्नी ने अपने गुज़ारे की राशि और अपनी बेटियों की गुज़ारे की राशि के लिए अदालत में मामला दायर कर रखा है; दूसरा वैवाहिक संबंधों की बहाली के लिए और तीसरा संपत्ति के मामले से संबंधित है जिसमें उसने 6/7 हिस्सेदारी की माँग की है"। "इस मामले में वादी एक इंजीनियरिंग स्नातक है और वह नौकरी में है। अगर सिर्फ़ यह माना जाए कि उसे 20 से 25 हज़ार ही मिल रहे हैं, इतनी राशि के बाद अदालत का उसे गुज़ारे की राशि देने का आदेश देना तर्कसंगत नहीं है। उसको शादी के लिए 15 लाख की राशि देने का आदेश भी तर्कसंगत नहीं है जबकि इसकी कोई माँग नहीं की गई थी। इस बात का कोई ब्योरा नहीं पेश किया गया है कि वादी की शादी में 15 लाख रुपए ख़र्च होंगे। अदालत ख़ुद ही यह अनुमान लगा रहा है कि उसकी शादी में 15 लाख रुपए ख़र्च होंगे और यह भी किसी तरह से तर्कसंगत नहीं है"।
Wednesday, October 2, 2019
भारतीय दण्ड संहिता
Sunday, September 29, 2019
सेल डीड /वसीयत के गवाह के लिए यह जानना जरूरी नहीं कि दस्तावेज में क्या लिखा है, सुप्रीम कोर्ट
सेल डीड/वसीयत के गवाह के लिए यह जानना ज़रूरी नहीं है कि दस्तावेज़ में क्या लिखा है, सुप्रीम कोर्ट का फैसला
30 Sep 2019
'गवाहों के लिए यह जरूरी नहीं है कि उन्हें पता हो कि दस्तावेजों में क्या निहित है।'' सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सेल डीड और वसीयत जैसे दस्तावेजों के गवाहों के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि वह यह जानते हों कि उन दस्तावेजों में क्या निहित है। इस मुकदमे में वादी ने इस घोषणा के लिए प्रार्थना की थी कि उसे सूट की संपत्ति के कब्जे की मालिक घोषित किया जाए और यह भी प्रार्थना की थी कि प्रतिवादियों को आदेश दिया जाए कि उसके कब्जे में दखल न दें। यह भी दलील दी गई थी कि प्रतिवादियों के पक्ष में की गई दो सेल-डीड और वसीयतनामा, नकली और धोखाधड़ी के दस्तावेज हैं और वह वादी के लिए बाध्यकारी नहीं हैं। ट्रायल कोर्ट ने सूट का फैसला वादी के पक्ष में सुनाया था। हालांकि हाईकोर्ट ने प्रतिवादियों द्वारा दायर अपील को स्वीकार करते हुए सूट को खारिज कर दिया था। वसीयत या उपहार में दी गयी पिता की स्वयंअर्जित सम्पत्ति, पुत्र के लिए भी स्वयंअर्जित सम्पत्ति, पढ़िए सुप्रीम कोर्ट का फैसला सुप्रीम कोर्ट में दायर अपील ''हेमकुंवर बाई बनाम सुमेरसिंह'' में वादी की तरफ से दलील दी गई कि इन दस्तावेजों के दोनों गवाह ने कहा है कि उन्हें दस्तावेजों की सामग्री या आशय या अंशों के बारे में पता नहीं था, जब उन्होंने गवाह के रूप में इन दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किए थे। मामले में एक अन्य विवाद यह था कि क्या रतनकुंवरबाई, जो एक अनपढ़ महिला थीं और कैंसर से पीड़ित थीं, इन दस्तावेजों को निष्पादित नहीं कर सकती थीं। न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की खंडपीठ ने रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्यों का निरीक्षण करते हुए उल्लेख किया है कि गवाहों में से एक गवाह ने स्पष्ट रूप से कहा था कि इन सेल-डीड/बिक्री-डीड और वसीयत के पंजीकरण के समय, संबंधित उप-रजिस्ट्रार ने मृतक के समक्ष संक्षेप में तीनों दस्तावेजों की विषय वस्तु को पढ़ा था। हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराते हुए पीठ ने कहा कि- "यह तर्क दिया गया है कि इन दोनों गवाहों ने कहा है कि उन्हें दस्तावेजों की सामग्री या विषय-वस्तु के बारे में पता नहीं था, जब उन्होंने गवाह के रूप में इन दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किए थे। गवाहों के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह यह जानते हों कि उन दस्तावेजों में क्या निहित है। इसके अलावा, जब इन गवाहों ने कहा है कि सब-रजिस्ट्रार ने मृतक को दस्तावेजों का सार बताया था, तो ऐसे में वे पंजीकरण के समय इन दस्तावेजों की प्रकृति से अवगत हो गए थे। वास्तव में अंतर सिंह और लक्ष्मण सिंह, दोनों ने विचार के स्थानांतरण के संबंध में बयान दिया है।"
Saturday, September 28, 2019
पत्नी अगर व्यभिचार में नहीं है तो तलाक के वाद भी है भरण पोषण पाने की हकदार, केरल हाई कोर्ट
पत्नी अगर व्यभिचार में नहीं है तो तलाक के बाद भी है भरण-पोषण पाने की हकदार, केरल हाईकोर्ट का आदेश
28 Sep 2019
‘‘सीआरपीसी की धारा 125 (4) के तहत, भरण-पोषण देने से इनकार करने के लिए ‘व्यभिचार में रहना’शब्द का प्रयोग किया गया है।’’ केरल हाईकोर्ट ने कहा है कि जिस पत्नी को व्यभिचार के आधार पर तलाक दिया गया है, उसको भविष्य में गुजारा भत्ता देने के लिए केवल इस आधार पर मना किया जा सकता है कि वह अभी भी 'व्यभिचार में'रह रही है। न्यायमूर्ति ए.एम शफीक और न्यायमूर्ति एन.अनिल कुमार की खंडपीठ ने पति को दिए गए उस तलाक के आदेश को बरकरार रखा है, जो पत्नी द्वारा 'व्यभिचार' करने के आधार पर दिया गया था। पीठ ने कहा कि महिला के भरण पोषण के दावे से इंकार करने और इस बात का संकेत देने के लिए कोई दलील नहीं दी गई कि उसकी पत्नी 'व्यभिचार' में रह रही है। इस मामले में दिया गया तर्क यह था कि 'व्यभिचार में रहना',जिसका अर्थ है कि उसकी पत्नी को 'व्यभिचार में रहना'जारी रखना चाहिए, इस बात को जानते हुए भी कि इस दंपत्ति को व्यभिचार के आधार पर ही तलाक दिया गया था। पति द्वारा कोर्ट के समक्ष व्यभिचार का कोई एक ऐसा उदाहरण पेश कर देने और उसे साबित कर देने का मतलब यह नहीं है कि पत्नी अभी भी व्यभिचार में ही रह रही है। पीठ ने कहा कि- "हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 (1) (आई) के तहत, तलाक प्रदान किया जा सकता है, यदि विवाह पूर्ण होने के बाद, पति या पत्नी अपने जीवनसाथी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के साथ स्वैच्छिक संभोग करते हैं या संबंध बनाते हैं। धारा 13 (1) (आई) के तहत तलाक प्राप्त करने के लिए, किसी अन्य व्यक्ति के साथ स्वैच्छिक संभोग का एक उदाहरण भी पर्याप्त है, जबकि धारा 125 (4) के तहत रख-रखाव को अस्वीकार करने या देने से इंकार करने के लिए ''व्यभिचार में रहना'' शब्द का प्रयोग किया गया है।" न्यायालय ने यह भी माना है कि जब मामले में इस बात के सबूत हों ,जिनसे यह साबित किया जा सके कि वह व्यभिचार में लिप्त थी, ऐेसे में उसे पिछली अवधि का भरण पोषण नहीं जा सकता है। अपवित्रता का एक कृत्य या सदाचार या नैतिकता की कुछ खामियां एक पत्नी को भरण पोषण का दावा करने से विमुख नहीं कर सकती। हाईकोर्ट ने हाल ही में दिए इस फैसले में ,वर्ष 1999 में दिए गए एक फैसले का हवाला दिया है,जिसमें कहा गया था कि दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के तहत अपवित्रता का एक कृत्य या सदाचार या नैतिकता की कुछ खामियां एक पत्नी को उसके पति पर रख-रखाव का दावा करने से विमुख नहीं कर सकती है। न्यायमूर्ति अलेक्जेंडर थॉमस ने एक पारिवारिक अदालत के फैसले को रद्द करते हुए कहा कि- इस मामले में यह दलील भी दी गई है कि निचली अदालत ने 'व्यभिचार में रहने' की क्रिया या कार्य के गठन के लिए ने विभिन्न मामलों में दिए गए फैसलों सहित 'संधा बनाम नारायणन ,1999 (1)केएलटी 688' मामले में दिए गए फैसले पर विचार नहीं किया। इन फैसलों के अनुसार इस तरह के आचरण में निरंतर रहना या व्यभिचारी या प्रेमी के साथ अर्ध-स्थायी मेल-जोल की स्थिति में रहना जरूरी है और आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत अपवित्रता का एक कृत्य या सदाचार या नैतिकता की कुछ खामियां एक पत्नी को उसके पति पर रख-रखाव का दावा करने से विमुख नहीं कर सकती हैं। इस आदेश का पालन कई अन्य मामलों में भी किया गया है,जिनमें शीला व अन्य बनाम अल्बर्ट हेम्सन उर्फ जेम्स,2015(1) केएलटी एसएन 113 केस भी शामिल है। मामले में यह भी इंगित किया गया कि इस बात के सबूत रिकॉर्ड पर हैं,जिनसे यह साबित होता है कि याचिकाकर्ता अपने माता-पिता के साथ रह रही है। इसलिए याचिकाकर्ता द्वारा यह तर्क दिया गया कि दूर-दूर तक यह बताने के लिए कोई सबूत नहीं है कि याचिकाकर्ता किसी भी तरीके से व्यभिचार में रह रही थी। इन पहलुओं को देखने के बाद इस कोर्ट का यह मानना है कि पारिवारिक अदालत ने उक्त महत्वपूर्ण पहलुओं पर न तो उचित रूप विचार किया और न ही इनका उल्लेख किया। 'संध्या बनाम नारायणन' में न्यायमूर्ति केएम शफी ने यह अवलोकन किया था- '' वर्तमान सीआरपीसी की धारा 125 (4) और सीआरपीसी 1898 की धारा 488 (4) में उपयोग किए गए वाक्यांश 'व्यभिचार में रहने वाली' का अर्थ है कि व्यभिचारी या प्रेमी के साथ पत्नी की ओर से निरंतर आचरण या उसके साथ संलिप्त रहना, जैसा भी मामला हो सकता है। सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपवित्रता का एक कृत्य या सदाचार या नैतिकता की कुछ खामियां एक पत्नी को उसके पति पर रख-रखाव का दावा करने से विमुख नहीं कर सकती हैं।''