Saturday, September 28, 2019

पत्नी अगर व्यभिचार में नहीं है तो तलाक के वाद भी है भरण पोषण पाने की हकदार, केरल हाई कोर्ट

पत्नी अगर व्यभिचार में नहीं है तो तलाक के बाद भी है भरण-पोषण पाने की हकदार, केरल हाईकोर्ट का आदेश

28 Sep 2019

‘‘सीआरपीसी की धारा 125 (4) के तहत, भरण-पोषण देने से इनकार करने के लिए ‘व्यभिचार में रहना’शब्द का प्रयोग किया गया है।’’ केरल हाईकोर्ट ने कहा है कि जिस पत्नी को व्यभिचार के आधार पर तलाक दिया गया है, उसको भविष्य में गुजारा भत्ता देने के लिए केवल इस आधार पर मना किया जा सकता है कि वह अभी भी 'व्यभिचार में'रह रही है। न्यायमूर्ति ए.एम शफीक और न्यायमूर्ति एन.अनिल कुमार की खंडपीठ ने पति को दिए गए उस तलाक के आदेश को बरकरार रखा है, जो पत्नी द्वारा 'व्यभिचार' करने के आधार पर दिया गया था। पीठ ने कहा कि महिला के भरण पोषण के दावे से इंकार करने और इस बात का संकेत देने के लिए कोई दलील नहीं दी गई कि उसकी पत्नी 'व्यभिचार' में रह रही है। इस मामले में दिया गया तर्क यह था कि 'व्यभिचार में रहना',जिसका अर्थ है कि उसकी पत्नी को 'व्यभिचार में रहना'जारी रखना चाहिए, इस बात को जानते हुए भी कि इस दंपत्ति को व्यभिचार के आधार पर ही तलाक दिया गया था। पति द्वारा कोर्ट के समक्ष व्यभिचार का कोई एक ऐसा उदाहरण पेश कर देने और उसे साबित कर देने का मतलब यह नहीं है कि पत्नी अभी भी व्यभिचार में ही रह रही है। पीठ ने कहा कि- "हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 (1) (आई) के तहत, तलाक प्रदान किया जा सकता है, यदि विवाह पूर्ण होने के बाद, पति या पत्नी अपने जीवनसाथी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के साथ स्वैच्छिक संभोग करते हैं या संबंध बनाते हैं। धारा 13 (1) (आई) के तहत तलाक प्राप्त करने के लिए, किसी अन्य व्यक्ति के साथ स्वैच्छिक संभोग का एक उदाहरण भी पर्याप्त है, जबकि धारा 125 (4) के तहत रख-रखाव को अस्वीकार करने या देने से इंकार करने के लिए ''व्यभिचार में रहना'' शब्द का प्रयोग किया गया है।" न्यायालय ने यह भी माना है कि जब मामले में इस बात के सबूत हों ,जिनसे यह साबित किया जा सके कि वह व्यभिचार में लिप्त थी, ऐेसे में उसे पिछली अवधि का भरण पोषण नहीं जा सकता है। अपवित्रता का एक कृत्य या सदाचार या नैतिकता की कुछ खामियां एक पत्नी को भरण पोषण का दावा करने से विमुख नहीं कर सकती। हाईकोर्ट ने हाल ही में दिए इस फैसले में ,वर्ष 1999 में दिए गए एक फैसले का हवाला दिया है,जिसमें कहा गया था कि दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के तहत अपवित्रता का एक कृत्य या सदाचार या नैतिकता की कुछ खामियां एक पत्नी को उसके पति पर रख-रखाव का दावा करने से विमुख नहीं कर सकती है। न्यायमूर्ति अलेक्जेंडर थॉमस ने एक पारिवारिक अदालत के फैसले को रद्द करते हुए कहा कि- इस मामले में यह दलील भी दी गई है कि निचली अदालत ने 'व्यभिचार में रहने' की क्रिया या कार्य के गठन के लिए ने विभिन्न मामलों में दिए गए फैसलों सहित 'संधा बनाम नारायणन ,1999 (1)केएलटी 688' मामले में दिए गए फैसले पर विचार नहीं किया। इन फैसलों के अनुसार इस तरह के आचरण में निरंतर रहना या व्यभिचारी या प्रेमी के साथ अर्ध-स्थायी मेल-जोल की स्थिति में रहना जरूरी है और आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत अपवित्रता का एक कृत्य या सदाचार या नैतिकता की कुछ खामियां एक पत्नी को उसके पति पर रख-रखाव का दावा करने से विमुख नहीं कर सकती हैं। इस आदेश का पालन कई अन्य मामलों में भी किया गया है,जिनमें शीला व अन्य बनाम अल्बर्ट हेम्सन उर्फ जेम्स,2015(1) केएलटी एसएन 113 केस भी शामिल है। मामले में यह भी इंगित किया गया कि इस बात के सबूत रिकॉर्ड पर हैं,जिनसे यह साबित होता है कि याचिकाकर्ता अपने माता-पिता के साथ रह रही है। इसलिए याचिकाकर्ता द्वारा यह तर्क दिया गया कि दूर-दूर तक यह बताने के लिए कोई सबूत नहीं है कि याचिकाकर्ता किसी भी तरीके से व्यभिचार में रह रही थी। इन पहलुओं को देखने के बाद इस कोर्ट का यह मानना है कि पारिवारिक अदालत ने उक्त महत्वपूर्ण पहलुओं पर न तो उचित रूप विचार किया और न ही इनका उल्लेख किया। 'संध्या बनाम नारायणन' में न्यायमूर्ति केएम शफी ने यह अवलोकन किया था- '' वर्तमान सीआरपीसी की धारा 125 (4) और सीआरपीसी 1898 की धारा 488 (4) में उपयोग किए गए वाक्यांश 'व्यभिचार में रहने वाली' का अर्थ है कि व्यभिचारी या प्रेमी के साथ पत्नी की ओर से निरंतर आचरण या उसके साथ संलिप्त रहना, जैसा भी मामला हो सकता है। सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपवित्रता का एक कृत्य या सदाचार या नैतिकता की कुछ खामियां एक पत्नी को उसके पति पर रख-रखाव का दावा करने से विमुख नहीं कर सकती हैं।''

साथ नहीं रहने के आधार पर तलाक लेने वाली महिला भरण पोषण की हकदार है? पढ़िए क्या कहता है सुप्रीम कोर्ट

साथ नहीं रहने के आधार पर तलाक लेने वाली महिला भरण पोषण की हकदार है? पढ़िए क्या कहता है सुप्रीम कोर्ट

28 Sep 2019

      पति इस आधार पर अपनी पत्नी को तलाक़ नहीं दे सकता कि वह अब उसके साथ नहीं रह रही है और फिर वह उसे गुज़ारे की राशि न दे जिसकी वह हक़दार है…।” सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर किसी पत्नी को उसके पति ने इस आधार पर तलाक़ दिया है कि पत्नी ने उसे छोड़ दिया है, तो उसे (पत्नी को) दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC)की धारा 125 के तहत भरण पोषण की राशि प्राप्त करने का अधिकार है। न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और अनिरुद्ध बोस ने इस मामले को किसी बड़ी पीठ को सौंपने से मना कर दिया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट लगातार यह कहता रहा है और उसका यह मत दंड प्रक्रिया संहिता के पूरी तरह अनुरूप है। पीठ ने इस संदर्भ में वनमाला बनाम एचएम रंगनाथ भट्ट और रोहतास सिंह बनाम रमेंद्री मामलों में दो जजों की पीठ और मनोज कुमार बनाम चम्पा देवी मामले में तीन जजों की पीठ के फ़ैसले का हवाला दिया। पीठ ने कहा, "दो जजों की पीठों द्वारा दिए गए फ़ैसलों को तीन जजों की पीठ सही ठहरा चुका है और हम किसी बड़ी पीठ को यह मामला नहीं सौंप सकते। वैसे भी इस अदालत ने भी लगातार यही राय व्यक्त की है और जो राय दी गई है वह सीआरपीसी की भावना के अनुरूप है। यह दलील कि तलाकशुदा पत्नी अपने पूर्व पति के साथ रहने के लिए बाध्य है, तर्कहीन है।" दलील डॉक्टर स्वपन कुमार बनर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के संदर्भ में वक़ील देबल बनर्जी ने कहा कि कोई भी पत्नी जिसने अपनी पति को छोड़ दिया है वह सीआरपीसी की धारा 125 भरण पोषण की राशि का दावा नहीं कर सकती। उनकी दलील थी कि चूँकि 'पत्नी' के तहत 'तलाकशुदा महिला'भी आती है इसलिए ऐसी महिला जिसे पति को छोड़ देने के कारण तलाक़ दिया गया है, वह भी सीआरपीसी की धारा 125 की उप-धारा 4 के तहत गुज़ारा राशि की मांग नहीं कर सकती है। उप-धारा 4 में कहा गया है कि किसी भी पत्नी को इस धारा के तहत गुज़ारे की राशि या अंतरिम गुज़ारे की राशि नहीं मिल सकती अगर वह व्यभिचार के तहत या बिना किसी पर्याप्त कारण के अपने पति के साथ रहने से मना कर देती है या अगर दोनों आपसी सहमति से अलग-अलग रह रहे हैं। पीठ ने इस दलील को ख़ारिज करते हुए कहा - "…सवाल है कि उप-धारा 4 के प्रावधानों को इस संदर्भ में कैसे पढ़ा जाए जब हम विशेषकर ऐसी महिलाओं की चर्चा करते हैं जिनके ख़िलाफ़ इस आधार पर तलाक़ का आदेश प्राप्त किया जा चुका है कि उन्होंने अपने पति को छोड़ दिया है। एक बार जब शादी का संबंध ख़त्म हो जाता है तो पत्नी पर अपने पूर्व पति के साथ रहने का कोई दबाव नहीं होता। यह बात कि तलाकशुदा पत्नी को पत्नी माना जाए इस बात को अतार्किकता की हद तक खींचा नहीं जा सकता कि तलाकशुदा पत्नी अपने पूर्व पति के साथ रहने के लिए बाध्य है। पति यह आग्रह नहीं कर सकता कि वह अपनी पत्नी को इसलिए तलाक़ देना चाहता है क्योंकि उसने उसके साथ रहना बंद कर दिया है और उसके बाद वह उसको गुज़ारे की राशि देना बंद कर दे, जबकि उसे यह राशि इस आधार पर मिलना चाहिए कि तलाक़ के बाद भी वह अपने पूर्व पति के साथ नहीं रहना चाहती है।" यह पत्नी पर निर्भर करता है कि वह गुज़ारे की राशि के लिए कब याचिका दायर करना चाहती है। इस मामले में पति को इस आधार पर तलाक़ का अधिकार दिया गया कि पत्नी ने उसको छोड़ दिया है। एक साल बाद उसने दुबारा शादी कर ली और इसके बाद ही पत्नी ने गुज़ारे की राशि के लिए आवेदन किया। इस मामले पर पीठ ने कहा, "हमारी राय में यह पूरी तरह पत्नी पर निर्भर करता है कि वह गुज़ारे की राशि के लिए कब याचिका दायर करती है। हो सकता है कि उस समय तक वह जो भी कमा रही थी वह उसके लिए पर्याप्त रहा होगा और हो सकता है कि वह गुज़ारे की राशि के लिए आवेदन देने के समय तक बातों को ज़्यादा खींचना नहीं चाहती थी। कारण चाहे जो भी रहा हो, पर शादी संबंधी मामलों के लंबित रहने के दौरान अगर उसने इसके लिए आवेदन नहीं दिया तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह बाद में इस तरह का आवेदन नहीं दे सकती है।" पत्नी अपने गुज़ारे लायक़ पर्याप्त राशि कमा रही है इसका कोई भी अनुमान नहीं लगा सकता है। इस मामले में एक अन्य मुद्दा यह था कि पत्नी कलकत्ता के जादवपुर विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है और वह एक योग्य आर्किटेक्ट है और इसलिए यह मान लिया जाए कि उसकी आमदनी पर्याप्त है। पीठ ने कहा कि पति ने इस बारे में कोई सबूत पेश नहीं किया है कि पत्नी की आय पर्याप्त है और वह कहां काम कर रही है, जबकि यह सब सबूत उसे ही पेश करना है। इस तरह के किसी भी साक्ष्य के अभाव में इस बारे में कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि पत्नी ख़ुद का ख़र्चा चलाने के लिए पर्याप्त राशि कमा रही है।

प्रतिकूल कब्जे के आधार पर सम्पत्ति पर हक जताया जा सकता है, सुप्रीम कोर्ट का फैसला 27

प्रतिकूल कब्जे के आधार पर सम्पत्ति पर हक जताया जा सकता है, सुप्रीम कोर्ट का फैसला

27 Sep 2019  उच्चतम

          न्यायालय ने एक बार फिर कहा है कि वादी प्रतिकूल कब्जे के आधार पर सम्पत्ति पर अपना दावा कर सकता है। मौजूदा अपील वादी की ओर से दायर मुकदमे से उत्पन्न हुई है, जिसमें उसने दावा किया था कि संबंधित जमीन 1963 से 1981 तक उसके कब्जे में थी और इस प्रकार उस जमीन पर प्रतिवादी के बजाय उसका हक है। निचली अदालत ने इस मामले में वादी के पक्ष में अपना आदेश सुनाया था, लेकिन हाईकोर्ट ने यह कहते हुए निचली अदालत का आदेश निरस्त कर दिया था कि वादी जमीन का असली मालिक नहीं था। न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ ने 'कृष्णमूर्ति एस सेतलुर (मृत) बनाम ओ. वी. नरसिम्हा सेट्टी (मृत)' मामले में राजस्व रिकॉर्ड पर विचार करते हुए कहा कि इससे पता चलता है कि 1963 से जमीन पर वादी का कब्जा था। कोर्ट ने कहा:- "जमीन पर कब्जा असली मालिक के प्रतिकूल था। यह इस मामले में एचआर अयंगार एवं उनके कानूनी प्रतिनिधियों के दावे के विपरीत था और उन्होंने जमीन पर कब्जे के लिए कभी भी कोई मुकदमा दायर नहीं किया। एक बार यह स्थापित हो जाता है कि विवादित जमीन पर वादी कृष्णमूर्ति एस सेतलुर का कब्जा था, तो इसका परिणाम यह होगा कि वादी का कब्जा 'प्रतिकूल कब्जा' था।" पीठ ने यह भी कहा कि प्रतिवादी यह साबित करने में असफल रहे हैं कि उन्होंने जमीन पर कब्जा कैसे हासिल किया। कोर्ट ने कहा कि हो सकता है कि मुकदमा दायर करने के बाद उन्हें बेदखल कर दिया गया हो, लेकिन इस बात का इस मुदकमे पर कोई असर नहीं पड़ा। कोर्ट ने 'रवीन्द्र कौर ग्रेवाल एवं अन्य बनाम मंजीत कौर' के मामले में तीन न्यायाधीशों की पीठ के हालिया फैसले का हवाला देते हुए कहा :- "रवीन्द्र कौर ग्रेवाल एवं अन्य बनाम मंजीत कौर मामले और संबंधित अन्य मामलों में भी इस कोर्ट की वृहद पीठ ने व्यवस्था दी हुई है कि प्रतिकूल कब्जे की दलील का इस्तेमाल वार और बचाव दोनों के रूप में किया जा सकता है, अर्थात तलवार और कवच दोनों के रूप में। ... इस प्रकार, इस बात को लेकर कोई विवाद नहीं हो सकता कि वादी प्रतिकूल कब्जे के आधार पर प्रोपर्टी पर अपना दावा कर सकता है।"

Thursday, September 26, 2019

वसीयत या उपहार में दी गई पिता की स्वयं अर्जित सम्पत्ति,पुत्र के लिए भी स्वयं अर्जित सम्पत्ति,सुप्रीम का निर्णय पढें

वसीयत या उपहार में दी गयी पिता की स्वयंअर्जित सम्पत्ति, पुत्र के लिए भी स्वयंअर्जित सम्पत्ति, पढ़िए सुप्रीम कोर्ट का फैसला

26 Sep 2019 12:39 PM

         सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि मिताक्षरा उत्तराधिकार कानून के अनुसार, पिता की स्वयं अर्जित सम्पदा यदि वसीयत/उपहार के तौर पर पुत्र को दी जाती है तो वह स्वयं अर्जित सम्पदा की श्रेणी में ही रहेगी और यह पैतृक सम्पत्ति तब तक नहीं कहलाएगी, जब तक.   
वसीयतनामा में इस बारे में अलग से जिक्र न किया गया हो। न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ गोविंदभाई छोटाभाई पटेल एवं अन्य बनाम पटेल रमणभाई माथुरभाई मामले में गुजरात हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील की सुनवाई कर रही थी। मामले की पृष्ठभूमि छोटाभाई आशाभाई पटेल ने अपने पुत्र रमणभाई माथुरभाई पटेल के पक्ष में 1977 में उपहार विलेख तैयार किया था। छोटाभाई के दूसरे बेटों ने इस उपहार को चुनौती देते हुए इस सम्पत्ति में हिस्सा का दावा किया था। उनका दावा था कि छोटाभाई ने वारिस के तौर पर अपने पिता (आशाभाई पटेल) से वह सम्पत्ति हासिल की थी, इसलिए वह पैतृक सम्पत्ति की श्रेणी में आती है। दूसरी दलील यह भी दी गयी थी कि उपहार विलेख की तसदीक भी साबित नहीं हो पायी थी। हाईकोर्ट ने, हालांकि निचली अदालत के फैसले को यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि वह सम्पत्ति पैतृक नहीं थी, साथ ही छोटाभाई को अपनी सम्पत्ति रमणभाई को उपहार के तौर पर देने का अधिकार था। यह उस तथ्य पर आधारित था कि संबंधित सम्पत्ति छोटाभाई के पिता की स्वयंअर्जित सम्पत्ति थी। हाईकोर्ट के इस फैसले को शीर्ष अदालत में विशेष अनुमति याचिका दायर करके प्रतिवादी द्वारा चुनौती दी गयी थी। सुप्रीम कोर्ट का निष्कर्ष सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सबसे प्रमुख प्रश्न यह था कि वारिस के तौर पर अपने पिता से हासिल की गयी यह सम्पत्ति क्या दानकर्ता (छोटाभाई) पैतृक सम्पत्ति थी? कोर्ट ने कहा कि इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने 'सी एन अरुणाचल मुदलियार बनाम सी ए मुरुगनाथ मुदलियार' (1953) के मामले में अपनी व्यवस्था दी हुई है। न्यायालय ने इस बात पर विचार करते हुए कि वसीयत के जरिये उपहार विलेख से प्राप्त पिता की स्वयंअर्जित सम्पत्ति में पुत्र किस प्रकार का अधिकार रखेगा, व्यवस्था दी कि मिताक्षरा पिता को अपनी स्वयं की अर्जित सम्पत्ति को किसी को देने का अधिकार है और इसके लिए उसपर कोई वंशज आपत्ति नहीं कर सकता। कोर्ट ने यह भी कहा था कि इस वसीयत या उपहार के तौर पर दी गयी इस तरह की सम्पत्ति को पैतृक सम्पत्ति की श्रेणी में रखना संभव नहीं है। न्यायालय ने आगे कहा कि पिता द्वारा अपने पुत्र को उपहार में दी गयी सम्पत्ति उपहार प्राप्त करने वाले के लिए सिर्फ पैतृक सम्पत्ति इसलिए नहीं हो जाती क्योंकि उसने अपने पिता या पूर्वज से उसे हासिल की है। इस मामले में कोर्ट ने कहा, "मिताक्षरा पिता को अपनी स्वयं की अर्जित सम्पत्ति को किसी को देने का अधिकार है और इस पर उसपर कोई वंशज आपत्ति नहीं कर सकता है, इस स्थापित कानून के मद्देनजर हम यह नहीं कह सकते कि पिता द्वारा अपने पुत्र को उपहार में दी गयी इस प्रकार की सम्पत्ति उपहार प्राप्त करने वाले (पुत्र) के लिए आवश्यक तौर पर पैतृक सम्पत्ति होनी चाहिए, सिर्फ इसलिए कि उपहार प्राप्त करने वाले ने अपने पिता या पूर्वज से उसे हासिल की है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि उपहार प्राप्त करने वाले के पुत्र उसमें हिस्सा के हकदार होंगे। इस मामले में न्यायालय ने पाया कि वादियों ने वसीयतनामा भी पेश नहीं किया था, जिसके जरिये दानकर्ता (छोटाभाई) ने अपने पिता से यह सम्पत्ति हासिल की थी। इसलिए यह निर्धारित करने का कोई और उपाय भी नहीं था कि वसीयतनामे में इस बात का जिक्र किया गया हो कि संबंधित प्रोपर्टी पैतृक प्रोपर्टी होगी या नहीं। कोर्ट ने कहा, "आशाभाई पटेल ने यह सम्पत्ति खरीदी थी, इस अविवादित तथ्य के मद्देनजर वह (आशाभाई) किसी भी व्यक्ति को वसीयत देने के लिए अधिकृत थे। चूंकि उस वसीयत में लाभुक दानकर्ता के पुत्र ही थे और वसीयत में कोई अन्य इच्छा भी नहीं जतायी गयी थी, इसलिए सी एन अरुणाचल मुदलियार मामले के फैसले के आलोक में संबंधित सम्पत्ति स्वयंअर्जित सम्पत्ति की श्रेणी में आयेगी।" सम्पत्ति को पैतृक सम्पत्ति साबित करना वादी की जिम्मेदारी "संबंधित प्रोपर्टी को पैतृक सम्पत्ति साबित करने की जिम्मेदारी वादी की थी। वादियों को यह साबित करना था कि आशाभाई ने अपनी वसीयत में इस सम्पत्ति को परिवार के लाभ के लिए पैतृक सम्पत्ति की श्रेणी में रखने की इच्छा जतायी थी। इस तरह के किसी ठोस आधार या प्रमाण के अभाव में दानकर्ता की यह सम्पत्ति स्वयंअर्जित प्रोपर्टी की श्रेणी में आती है। और एक बार यदि संबंधित सम्पत्ति दानकर्ता के लिए स्वयं की अर्जित प्रोपर्टी साबित हो जाती है तो उसे किसी भी व्यक्ति को अपनी मर्जी के हिसाब से उपहार विलेख देने का अधिकार है, भले ही वह परिवार के लिए अजनबी ही क्यों न हो? न्यायालय ने यह भी व्यवस्था दी कि उपहार प्राप्त करने वाले को उपहार के अभिप्रमाणन को साबित करने की तब तक जरूरत नहीं है जब तक प्रतिवादी ने इसके निष्पादन को विशेषतौर पर विवादित न ठहराया हो। जुलाई में दिये गये एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वारिस के तौर पर पुत्र द्वारा हासिल पिता की सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति होती है, लेकिन ऐसा केवल तभी होता है जब वारिस संबंधी वसीयत नहीं की गयी हो। यह मामला भिन्न है क्योंकि इस मामले में वसीयतनामा के जरिये सम्पत्ति उपहारस्वरूप दी गयी थी। इस मामले में भी, सुप्रीम कोर्ट ने श्याम नारायण प्रसाद बनाम कृष्ण प्रसाद एवं अन्य (2018) का विशेष हवाला देते हुए कहा, "उपरोक्त मामले में बंटवारे के बाद सम्पत्ति की स्थिति को लेकर सवाल उठे थे। यह सवाल इस मामले में नहीं उठ रहा है क्योंकि यह बंटवारे का मामला नहीं है, बल्कि उपहार प्राप्त करने वाले के पक्ष में वसीयतनामा का है।"

Thursday, September 12, 2019

किसी अपराध में जुर्माना कैसे तय किया जाता हैअर्थदण्ड पर क्या कहती है भा. द. संहिता

12 Sep 2019
        अक्सर ऐसा देखा जाता है कि अपराधी को सज़ा के तौर पर अर्थदंड भी लगाया जाता है। यह प्रश्न स्वाभाविक है कि आखिर एक ही प्रकृति के जुर्म में अर्थदंड कम या अधिक कैसे हो सकता है? आखिर जुर्माने की राशि का निर्धारण कैसे किया जाता है? विधि द्वारा जुर्माने की राशि आखिर कैसे तय होती है? 

           अपराध साबित होने पर भारतीय दंड संहिता 1860 में किसी अपराध के लिए सज़ा के साथ साथ अर्थदड या जुर्माने का भी प्रावधान है। अर्थदंड की राशि किसी कानून की धारा में उल्लेखित राशि द्वारा निर्धारित की जाती है। अगर किसी कानून में अर्थदंड की राशि का उल्लेख है तो फिर अर्थदंड भी उसके अनुसार तय किया जाएगा। इसे हम इस तरह समझ सकते हैं कि भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 154 में कहा गया है कि उस भूमि का स्वामी या अधिभोगी जिस पर विधि विरुद्ध जमाव किया गया है, उस पर एक हज़ार रुपए का जुर्माना किया जाएगा। इससे यह स्पष्ट होता है कि कानून की किसी धारा में ही यदि राशि का उल्लेख है तो उसी के अनुसार अर्थदंड का निर्धारण होगा। आईपीसी की धारा 510 में जुर्माने की अधिकतम राशि 10 रुपए बताई गई है। हालांकि इस राशि का निर्धारण बहुत समय पहले हुआ था और व्यावहारिक रूप से इस राशि को बदला जाना चाहिए। यह भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 510 में बहुत पहले निर्धारित की गई राशि है। कानून में जुर्माने की राशि अगर निर्धारित न हो तो : अगर किसी कानून में अपराध के लिए जुर्माने की निश्चित राशि का उल्लेख न हो तो इस स्थिति में भारतीय दंड संहिता की धारा 63 जुर्माने की रकम का उल्लेख करती है। धारा 63 कहती है कि "जहां कि वह राशि अभिव्यक्त नहीं की गई है, जितनी राशि तक जुर्माना हो सकता है, वहां अपराधी जिस रकम के जुर्माने का दायी है, वह असीमित है किंतु अत्याधिक नहीं होगी।" इसका अर्थ यह हुआ कि जुर्माने की रकम कितनी भी हो सकती है, अर्थात असीमित हो सकती है, किंतु अत्याधिक नहीं, अर्थात अपराधी की आर्थिक स्थिति के अनुसार जुर्माने की राशि अत्याधिक नहीं होगी। अपराधी की आर्थिक स्थिति के अनुसार ही जुर्माना तय होगा। जुर्म बड़ा है या छोटा है उसके आधार पर जुर्माना तय नहीं होगा, बल्कि अपराधी की हैसियत क्या है, उसे देखते हुए जुर्माने की राशि का निर्धारण होता है, जिससे कानून अपराध की रोकथाम में कारगर साबित हो सके।.   

           आईपीसी में इसे संतुलित किया गया है कि यह न हो कि कमज़ोर आर्थिक स्थिति वाले अपराधी पर इतना अधिक जुर्माना लगा दिया जाए कि वह न्याय व्यवस्था से ही असंतुष्ट हो जाए और किसी धनवान अपराधी पर उसकी आर्थिक स्थिति के अनुसार इतना कम जुर्माना लगाया जाए कि कानून का उल्लंघन करना उसके लिए आसान हो जाए और कानून का उसे डर उसके मन से निकल जाए। तो स्पष्ट हुआ कि किसी अपराध के लिए जुर्माना इस आधार पर नहीं होता है कि अपराध की प्रकृति क्या है। ऐसा बिलकुल नहीं है कि यदि गंभीर है तो अधिक जुर्माना और अपराध यदि कम गंभीरता का है तो अधिक जुर्माना होगा। बल्कि जिन अपराधों में जुर्माने की राशि का उल्लेख विधि द्वारा नहीं किया गया है, उन अपराधों में अदालत अपराधी की मौजूदा आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर जुर्माना तय करती है। इसीलिए कई बार अदालतों के फैसलों में एक ही प्रकृति के अपराध के लिए जुर्माने की अलग अलग राशि होती है।

Tuesday, August 13, 2019

निकाहनामा है तो अन्तर्धार्मिक जोडे पर विशेष विवाह अधिनियम के तहत पंजीकरण के लिए दबाव नहीं डाला जा सकता,पढिये फैसला सुप्रीम कोर्ट


13 Aug 2019 11:22 AM

हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक जोड़े को दिशानिर्देश जारी किया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने संशोधित कर दिया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अंतरधार्मिक शादी करने वाले जोड़े को विशेष विवाह अधिनियम के तहत शादी को पंजीकृत कराने का निर्देश जारी किया था, जबकि इस जोड़े ने पहले ही निकाहनामा हासिल कर लिया था। एक जोड़े ने पुलिस सुरक्षा के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट में अर्ज़ी दी। हाईकोर्ट ने यह जानने के बाद कि लड़की इस्लाम धर्म क़बूल करने से पहले और उस लड़के से शादी करने से पूर्व हिंदू थी, इस जोड़े को अपनी शादी को विशेष विवाह अधिनियम के तहत रजिस्ट्रार के समक्ष पंजीकृत कराने का निर्देश दिया। इसके बाद अदालत ने पुलिस को कहा कि जब वे शादी के पंजीकरण का प्रमाणपत्र दिखाएं तो वे यह सुनिश्चित करें कि उनके शांतिपूर्ण वैवाहिक जीवन में कोई ख़लल नहीं पड़े। इस जोड़े ने हाईकोर्ट के इस निर्देश के बाद सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी दी और कहा कि उन्होंने पहले ही निकाहनामा हासिल कर लिया है और अब वे अपनी शादी को विशेष विवाह अधिनियम के तहत पंजीकृत नहीं कराना चाहते। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एमएम शांतनागौदर और संजीव खन्ना ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि अगर ऐसा है तो अदालत उन्हें अपनी शादी को पंजीकृत करने के लिए बाध्य नहीं कर सकती। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इलाहबाद हाईकोर्ट के आदेश को संशोधित कर दिया।