Thursday, September 26, 2019

वसीयत या उपहार में दी गई पिता की स्वयं अर्जित सम्पत्ति,पुत्र के लिए भी स्वयं अर्जित सम्पत्ति,सुप्रीम का निर्णय पढें

वसीयत या उपहार में दी गयी पिता की स्वयंअर्जित सम्पत्ति, पुत्र के लिए भी स्वयंअर्जित सम्पत्ति, पढ़िए सुप्रीम कोर्ट का फैसला

26 Sep 2019 12:39 PM

         सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि मिताक्षरा उत्तराधिकार कानून के अनुसार, पिता की स्वयं अर्जित सम्पदा यदि वसीयत/उपहार के तौर पर पुत्र को दी जाती है तो वह स्वयं अर्जित सम्पदा की श्रेणी में ही रहेगी और यह पैतृक सम्पत्ति तब तक नहीं कहलाएगी, जब तक.   
वसीयतनामा में इस बारे में अलग से जिक्र न किया गया हो। न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ गोविंदभाई छोटाभाई पटेल एवं अन्य बनाम पटेल रमणभाई माथुरभाई मामले में गुजरात हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील की सुनवाई कर रही थी। मामले की पृष्ठभूमि छोटाभाई आशाभाई पटेल ने अपने पुत्र रमणभाई माथुरभाई पटेल के पक्ष में 1977 में उपहार विलेख तैयार किया था। छोटाभाई के दूसरे बेटों ने इस उपहार को चुनौती देते हुए इस सम्पत्ति में हिस्सा का दावा किया था। उनका दावा था कि छोटाभाई ने वारिस के तौर पर अपने पिता (आशाभाई पटेल) से वह सम्पत्ति हासिल की थी, इसलिए वह पैतृक सम्पत्ति की श्रेणी में आती है। दूसरी दलील यह भी दी गयी थी कि उपहार विलेख की तसदीक भी साबित नहीं हो पायी थी। हाईकोर्ट ने, हालांकि निचली अदालत के फैसले को यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि वह सम्पत्ति पैतृक नहीं थी, साथ ही छोटाभाई को अपनी सम्पत्ति रमणभाई को उपहार के तौर पर देने का अधिकार था। यह उस तथ्य पर आधारित था कि संबंधित सम्पत्ति छोटाभाई के पिता की स्वयंअर्जित सम्पत्ति थी। हाईकोर्ट के इस फैसले को शीर्ष अदालत में विशेष अनुमति याचिका दायर करके प्रतिवादी द्वारा चुनौती दी गयी थी। सुप्रीम कोर्ट का निष्कर्ष सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सबसे प्रमुख प्रश्न यह था कि वारिस के तौर पर अपने पिता से हासिल की गयी यह सम्पत्ति क्या दानकर्ता (छोटाभाई) पैतृक सम्पत्ति थी? कोर्ट ने कहा कि इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने 'सी एन अरुणाचल मुदलियार बनाम सी ए मुरुगनाथ मुदलियार' (1953) के मामले में अपनी व्यवस्था दी हुई है। न्यायालय ने इस बात पर विचार करते हुए कि वसीयत के जरिये उपहार विलेख से प्राप्त पिता की स्वयंअर्जित सम्पत्ति में पुत्र किस प्रकार का अधिकार रखेगा, व्यवस्था दी कि मिताक्षरा पिता को अपनी स्वयं की अर्जित सम्पत्ति को किसी को देने का अधिकार है और इसके लिए उसपर कोई वंशज आपत्ति नहीं कर सकता। कोर्ट ने यह भी कहा था कि इस वसीयत या उपहार के तौर पर दी गयी इस तरह की सम्पत्ति को पैतृक सम्पत्ति की श्रेणी में रखना संभव नहीं है। न्यायालय ने आगे कहा कि पिता द्वारा अपने पुत्र को उपहार में दी गयी सम्पत्ति उपहार प्राप्त करने वाले के लिए सिर्फ पैतृक सम्पत्ति इसलिए नहीं हो जाती क्योंकि उसने अपने पिता या पूर्वज से उसे हासिल की है। इस मामले में कोर्ट ने कहा, "मिताक्षरा पिता को अपनी स्वयं की अर्जित सम्पत्ति को किसी को देने का अधिकार है और इस पर उसपर कोई वंशज आपत्ति नहीं कर सकता है, इस स्थापित कानून के मद्देनजर हम यह नहीं कह सकते कि पिता द्वारा अपने पुत्र को उपहार में दी गयी इस प्रकार की सम्पत्ति उपहार प्राप्त करने वाले (पुत्र) के लिए आवश्यक तौर पर पैतृक सम्पत्ति होनी चाहिए, सिर्फ इसलिए कि उपहार प्राप्त करने वाले ने अपने पिता या पूर्वज से उसे हासिल की है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि उपहार प्राप्त करने वाले के पुत्र उसमें हिस्सा के हकदार होंगे। इस मामले में न्यायालय ने पाया कि वादियों ने वसीयतनामा भी पेश नहीं किया था, जिसके जरिये दानकर्ता (छोटाभाई) ने अपने पिता से यह सम्पत्ति हासिल की थी। इसलिए यह निर्धारित करने का कोई और उपाय भी नहीं था कि वसीयतनामे में इस बात का जिक्र किया गया हो कि संबंधित प्रोपर्टी पैतृक प्रोपर्टी होगी या नहीं। कोर्ट ने कहा, "आशाभाई पटेल ने यह सम्पत्ति खरीदी थी, इस अविवादित तथ्य के मद्देनजर वह (आशाभाई) किसी भी व्यक्ति को वसीयत देने के लिए अधिकृत थे। चूंकि उस वसीयत में लाभुक दानकर्ता के पुत्र ही थे और वसीयत में कोई अन्य इच्छा भी नहीं जतायी गयी थी, इसलिए सी एन अरुणाचल मुदलियार मामले के फैसले के आलोक में संबंधित सम्पत्ति स्वयंअर्जित सम्पत्ति की श्रेणी में आयेगी।" सम्पत्ति को पैतृक सम्पत्ति साबित करना वादी की जिम्मेदारी "संबंधित प्रोपर्टी को पैतृक सम्पत्ति साबित करने की जिम्मेदारी वादी की थी। वादियों को यह साबित करना था कि आशाभाई ने अपनी वसीयत में इस सम्पत्ति को परिवार के लाभ के लिए पैतृक सम्पत्ति की श्रेणी में रखने की इच्छा जतायी थी। इस तरह के किसी ठोस आधार या प्रमाण के अभाव में दानकर्ता की यह सम्पत्ति स्वयंअर्जित प्रोपर्टी की श्रेणी में आती है। और एक बार यदि संबंधित सम्पत्ति दानकर्ता के लिए स्वयं की अर्जित प्रोपर्टी साबित हो जाती है तो उसे किसी भी व्यक्ति को अपनी मर्जी के हिसाब से उपहार विलेख देने का अधिकार है, भले ही वह परिवार के लिए अजनबी ही क्यों न हो? न्यायालय ने यह भी व्यवस्था दी कि उपहार प्राप्त करने वाले को उपहार के अभिप्रमाणन को साबित करने की तब तक जरूरत नहीं है जब तक प्रतिवादी ने इसके निष्पादन को विशेषतौर पर विवादित न ठहराया हो। जुलाई में दिये गये एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वारिस के तौर पर पुत्र द्वारा हासिल पिता की सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति होती है, लेकिन ऐसा केवल तभी होता है जब वारिस संबंधी वसीयत नहीं की गयी हो। यह मामला भिन्न है क्योंकि इस मामले में वसीयतनामा के जरिये सम्पत्ति उपहारस्वरूप दी गयी थी। इस मामले में भी, सुप्रीम कोर्ट ने श्याम नारायण प्रसाद बनाम कृष्ण प्रसाद एवं अन्य (2018) का विशेष हवाला देते हुए कहा, "उपरोक्त मामले में बंटवारे के बाद सम्पत्ति की स्थिति को लेकर सवाल उठे थे। यह सवाल इस मामले में नहीं उठ रहा है क्योंकि यह बंटवारे का मामला नहीं है, बल्कि उपहार प्राप्त करने वाले के पक्ष में वसीयतनामा का है।"

Thursday, September 12, 2019

किसी अपराध में जुर्माना कैसे तय किया जाता हैअर्थदण्ड पर क्या कहती है भा. द. संहिता

12 Sep 2019
        अक्सर ऐसा देखा जाता है कि अपराधी को सज़ा के तौर पर अर्थदंड भी लगाया जाता है। यह प्रश्न स्वाभाविक है कि आखिर एक ही प्रकृति के जुर्म में अर्थदंड कम या अधिक कैसे हो सकता है? आखिर जुर्माने की राशि का निर्धारण कैसे किया जाता है? विधि द्वारा जुर्माने की राशि आखिर कैसे तय होती है? 

           अपराध साबित होने पर भारतीय दंड संहिता 1860 में किसी अपराध के लिए सज़ा के साथ साथ अर्थदड या जुर्माने का भी प्रावधान है। अर्थदंड की राशि किसी कानून की धारा में उल्लेखित राशि द्वारा निर्धारित की जाती है। अगर किसी कानून में अर्थदंड की राशि का उल्लेख है तो फिर अर्थदंड भी उसके अनुसार तय किया जाएगा। इसे हम इस तरह समझ सकते हैं कि भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 154 में कहा गया है कि उस भूमि का स्वामी या अधिभोगी जिस पर विधि विरुद्ध जमाव किया गया है, उस पर एक हज़ार रुपए का जुर्माना किया जाएगा। इससे यह स्पष्ट होता है कि कानून की किसी धारा में ही यदि राशि का उल्लेख है तो उसी के अनुसार अर्थदंड का निर्धारण होगा। आईपीसी की धारा 510 में जुर्माने की अधिकतम राशि 10 रुपए बताई गई है। हालांकि इस राशि का निर्धारण बहुत समय पहले हुआ था और व्यावहारिक रूप से इस राशि को बदला जाना चाहिए। यह भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 510 में बहुत पहले निर्धारित की गई राशि है। कानून में जुर्माने की राशि अगर निर्धारित न हो तो : अगर किसी कानून में अपराध के लिए जुर्माने की निश्चित राशि का उल्लेख न हो तो इस स्थिति में भारतीय दंड संहिता की धारा 63 जुर्माने की रकम का उल्लेख करती है। धारा 63 कहती है कि "जहां कि वह राशि अभिव्यक्त नहीं की गई है, जितनी राशि तक जुर्माना हो सकता है, वहां अपराधी जिस रकम के जुर्माने का दायी है, वह असीमित है किंतु अत्याधिक नहीं होगी।" इसका अर्थ यह हुआ कि जुर्माने की रकम कितनी भी हो सकती है, अर्थात असीमित हो सकती है, किंतु अत्याधिक नहीं, अर्थात अपराधी की आर्थिक स्थिति के अनुसार जुर्माने की राशि अत्याधिक नहीं होगी। अपराधी की आर्थिक स्थिति के अनुसार ही जुर्माना तय होगा। जुर्म बड़ा है या छोटा है उसके आधार पर जुर्माना तय नहीं होगा, बल्कि अपराधी की हैसियत क्या है, उसे देखते हुए जुर्माने की राशि का निर्धारण होता है, जिससे कानून अपराध की रोकथाम में कारगर साबित हो सके।.   

           आईपीसी में इसे संतुलित किया गया है कि यह न हो कि कमज़ोर आर्थिक स्थिति वाले अपराधी पर इतना अधिक जुर्माना लगा दिया जाए कि वह न्याय व्यवस्था से ही असंतुष्ट हो जाए और किसी धनवान अपराधी पर उसकी आर्थिक स्थिति के अनुसार इतना कम जुर्माना लगाया जाए कि कानून का उल्लंघन करना उसके लिए आसान हो जाए और कानून का उसे डर उसके मन से निकल जाए। तो स्पष्ट हुआ कि किसी अपराध के लिए जुर्माना इस आधार पर नहीं होता है कि अपराध की प्रकृति क्या है। ऐसा बिलकुल नहीं है कि यदि गंभीर है तो अधिक जुर्माना और अपराध यदि कम गंभीरता का है तो अधिक जुर्माना होगा। बल्कि जिन अपराधों में जुर्माने की राशि का उल्लेख विधि द्वारा नहीं किया गया है, उन अपराधों में अदालत अपराधी की मौजूदा आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर जुर्माना तय करती है। इसीलिए कई बार अदालतों के फैसलों में एक ही प्रकृति के अपराध के लिए जुर्माने की अलग अलग राशि होती है।

Tuesday, August 13, 2019

निकाहनामा है तो अन्तर्धार्मिक जोडे पर विशेष विवाह अधिनियम के तहत पंजीकरण के लिए दबाव नहीं डाला जा सकता,पढिये फैसला सुप्रीम कोर्ट


13 Aug 2019 11:22 AM

हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक जोड़े को दिशानिर्देश जारी किया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने संशोधित कर दिया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अंतरधार्मिक शादी करने वाले जोड़े को विशेष विवाह अधिनियम के तहत शादी को पंजीकृत कराने का निर्देश जारी किया था, जबकि इस जोड़े ने पहले ही निकाहनामा हासिल कर लिया था। एक जोड़े ने पुलिस सुरक्षा के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट में अर्ज़ी दी। हाईकोर्ट ने यह जानने के बाद कि लड़की इस्लाम धर्म क़बूल करने से पहले और उस लड़के से शादी करने से पूर्व हिंदू थी, इस जोड़े को अपनी शादी को विशेष विवाह अधिनियम के तहत रजिस्ट्रार के समक्ष पंजीकृत कराने का निर्देश दिया। इसके बाद अदालत ने पुलिस को कहा कि जब वे शादी के पंजीकरण का प्रमाणपत्र दिखाएं तो वे यह सुनिश्चित करें कि उनके शांतिपूर्ण वैवाहिक जीवन में कोई ख़लल नहीं पड़े। इस जोड़े ने हाईकोर्ट के इस निर्देश के बाद सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी दी और कहा कि उन्होंने पहले ही निकाहनामा हासिल कर लिया है और अब वे अपनी शादी को विशेष विवाह अधिनियम के तहत पंजीकृत नहीं कराना चाहते। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एमएम शांतनागौदर और संजीव खन्ना ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि अगर ऐसा है तो अदालत उन्हें अपनी शादी को पंजीकृत करने के लिए बाध्य नहीं कर सकती। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इलाहबाद हाईकोर्ट के आदेश को संशोधित कर दिया।

138NI Act. चैक पर जिसे रुपये मिलने हैं.उसका नाम आरोपी ने खुद बदला यह साबित करने की जिम्मेदारी शिकायतकर्ता की :केरल हाई

13 Aug 2019 10:57 AM 64

केरल हाईकोर्ट ने कहा है कि जब किसी चेक में जिसको राशि का भुगतान होना है उसका नाम बदला जाता है तो यह साबित करने की ज़िम्मेदारी शिकायतकर्ता की है कि आरोपी ने ख़ुद यह बदलाव किया है या फिर आरोपी की सहमति से ऐसा किया गया है। न्यायमूर्ति आर नारायण पिशारदी ने ने जीमोल जोसेफ़ बनाम कौशतुभं मामले में यह भी कहा कि अधिनियम की धारा 138 के तहत पावर ऑफ़ अटर्नी के माध्यम से शिकायत दर्ज करना क़ानूनन वैध है। इस मामले में चेक पर पाने वाले का नाम "कौस्थुभन" (आरोपी का नाम) लिखा था जिसे काटकर उस जगह पर पानेवाले के रूप में शिकायतकर्ता का नाम लिख दिया गया था। नेगोशबल इंस्ट्रुमेंट (एनआई) ऐक्ट की धारा 87 और प्रस्तुत किए गए साक्ष्य के अनुसार अदालत ने पहली अपीली अदालत के फ़ैसले से सहमति जताई जिसमें कहा गया था कि चेक पर पानेवाले के नाम को सही किया गया है पर इसे आरोपी के हस्ताखर से सत्यापित नहीं किया गया है और इस स्थिति में यह असंभव है कि शिकायतकर्ता ने इसे स्वीकार किया हो। अदालत ने आगे कहा कि अगर एनआई में किसी पक्ष की सहमति के बिना अगर कोई बदलाव होता है तो यह उस इंस्ट्रुमेंट को रद्द करने जैसा है और इस तरह के इंस्ट्रुमेंट के आधार पर कोई आपराधिक कार्रवाई शुरू नहीं की जा सकती। अदालत ने आगे कहा : जो पक्ष बदलाव की अनुमति देता है और जो बदलाव करता है उन्हें इस तरह के बदलाव के ख़िलाफ़ शिकायत का अधिकार नहीं है। अगर चेक जारी करने वाले ने ही बदलाव किया है तो वह बाद में यह कहकर लाभ नहीं उठा सकता कि चेक बेकार हो गया क्योंकि उसमें बदलाव किया गया है। अगर पाने वाले ने चेक में बदलाव किया है और इसका अनुमोदन चेक जारी करने वाले ने किया है तो इस तरह के बदलाव का प्रयोग भी पाने वाले के अधिकार के विरुद्ध नहीं किया जा सकता। जब चेक में पाने वाले के नाम को बदला गया है तो यह ज़िम्मेदारी शिकायतकर्ता की होती है कि वह साबित करे कि आरोपी ने ख़ुद यह बदलाव किया है या फिर इसमें उसकी भी सहमति है। पीडब्ल्यू 1 और पीडब्ल्यू 2 के साक्ष्य यह साबित नहीं करते कि चेक पर नाम में बदलाव आरोपी ने ख़ुद किया अठा या फिर उसमें उसकी भी सहमती थी। चेक के बारे में शिकायत पीओए के माध्यम से दायर हो सकती है अदालत ने कहा कि पीओए ग्रांटर का एजेंट होता है और वह ग्रांटर के कहने पर क़ानूनी प्रक्रिया को आगे बढ़ाता है। यह सच है कि पीओए होल्डर अपने नाम से कोई शिकायत दर्ज नहीं करा सकता। वह प्रिन्सिपल के ख़िलाफ़ आपराधिक कार्यवाही शुरू कर सकता है और अधिनियम की धारा 138 के पीओए के माध्यम से शिकायत दर्ज करना पूरी तरह वैध है। आरोपी को हलफ़नामा दायर कर साक्ष्य देने का अधिकार नहीं है यद्यपि अदालत ने आरोपी को बरी किए जाने को सही ठहराया पर उसने इस बात पर भी ग़ौर किया कि आरोपी ने एक हलफ़नामा दायर कर साक्ष्य दिया था जिसमें उसने कहा था कि उसने ख़ुद के ही नाम पर चेक जारी किया था ताकि वह बैंक से राशि निकाल सके और उसने यह चेक अपने मित्र बाबू को दे दिया था बैंक से राशि निकालने के लिए पर बाबू ने वह चेक खो दिया। अदालत ने इस पर कहा, अगर कोई व्यक्ति अधिनियम की धारा 138 के तहत एक मामले में आरोपी है तो वह अधिनियम की धारा 145(1) हलफ़नामा दायर कर साक्ष्य नहीं दे सकता। यह अधिकार सिर्फ़ शिकायतकर्ता को ही प्राप्त है।अदालत ने कहा, "जब जिस पार्टी ने किसी को गवाही के लिए बुलाया है उससे उसने पूछताछ नहीं की है तो फिर उससे पूछताछ का सवाल भी नहीं उठता। साक्ष्य अधिनियम की धारा 138 यह कहती है कि गवाह पहले पार्टी ख़ुद अपने गवाह से पूछताछ करे और इसके बाद उससे क्रॉस-इग्ज़ैमिनेशन होगा…"।

Tuesday, August 6, 2019

एक अदालत से दूसरी अदालत में केस कैसे ट्रांफर होते हैं

एक अदालत से दूसरी अदालत में कैसे होते हैं केस ट्रांसफर, जानिए सुप्रीम कोर्ट के अधिकार और प्रक्रिया

5 Aug 2019 8:03 PM GMT

एक अदालत से दूसरी अदालत में कैसे होते हैं केस ट्रांसफर, जानिए सुप्रीम कोर्ट के अधिकार और प्रक्रिया
          
         ताज़ा उन्नाव मामले के अलावा सुप्रीम कोर्ट के ऐसे कई केस हैं जबकि केस या अपील एक राज्य से दूसरे राज्य में ट्रांसफर हुए हैं। जब भी सुप्रीम कोर्ट को यह प्रतीत करवाया जाता है कि न्याय के उद्देश्य के लिए यह समीचीन है कि इस धारा के तहत आदेश किया जाए...
उन्नाव रेप कांड में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले के तहत इस मामले के केस उत्तर प्रदेश के उन्नाव से दिल्ली ट्रांसफर कर दिये। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद एक बार फिर इस तथ्य पर ध्यान गया कि कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने केस एक राज्य से दूसरे राज्य में ट्रांसफर किए हैं।

        आखिर सुप्रीम कोर्ट को किसी केस या अपील को एक राज्य से दूसरे राज्य में ट्रांसफर करने की शक्ति किस तरह मिलती है और इसकी प्रक्रिया क्या है? यह आज हम इस आलेख के माध्यम से जानेंगे।

           दंड प्रक्रिया संहिता याने Criminal Procedure Code 1973 [CrPC] के चैप्टर 31 में सेक्शन 406 से लेकर सेक्शन 412 तक का विवरण दिया गया है, जो सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के केस ट्रांसफर करने की पावर से के बारे में बताया गया है। किसी केस या अपील को एक राज्य से दूसरे राज्य में ट्रांसफर करने का अधिकार सिर्फ सुप्रीम कोर्ट को है और उसे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 406 से यह अधिकार मिलता है।

यह कहती है दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 406 :

        Criminal Procedure Code 1973 [CrPC] की धारा 406 के अनुसार जब भी सुप्रीम कोर्ट को यह प्रतीत करवाया जाता है कि न्याय के उद्देश्य के लिए यह समीचीन है कि इस धारा के तहत आदेश किया जाए तो सुप्रीम कोर्ट किसी विशेष मामले या अपील को एक हाईकोर्ट से दूसरे हाईकोर्ट या किसी हाईकोर्ट के अधीनस्थ आपराधिक न्यायालय से दूसरे हाईकोर्ट के अधीनस्थ आपराधिक न्यायालय में स्थानांतरित करने का निर्देश दे सकता है।

       धारा 406 आगे कहती है कि सुप्रीम कोर्ट भारत के एटोर्नी जनरल या हितबद्ध पक्षकार के आवेदन पर ही इस धार के तहत कार्य कर सकता है। अगर यह आवेदन एटोर्नी जनरल नहीं दे रहे हैं और कोई पक्षकार दे रहा है तो पक्षकार को इस आवेदन के साथ एक शपथ पत्र लगाना होगा।

        जहां इस धारा प्रदत शक्तियों का प्रयोग करने के लिए कोई आवेदन खारिज कर दिया जाता है, वहां, यदि सुप्रीम कोर्ट की यह राय है कि आवेदन तुच्छ या तंग करने वाला था तो वह आवेदक को आदेश दे सकता है कि वह एक हजार रुपए से अनिधक इतनी राशि, जितनी वह न्यायालय उस मामले की परिस्थितियों में समुचित समझे प्रतिकर के तौर पर उस व्यक्ति को दे जिसने आवेदन का विरोध किया था।

        इस तरह Criminal Procedure Code 1973 [CrPC] की धारा 406 से स्पष्ट होता है कि सुप्रीम कोर्ट किसी केस या अपील को एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरित कर सकता है।

        हाईकोर्ट को भी इसी तरह से अधिकार प्राप्त हैं लेकिन हाईकोर्ट अपने राज्य के अधिकार क्षेत्र में किसी केस या अपील को एक दंड न्यायालय से दूसरे दंड न्यायालय में स्थानांतरित कर सकता है।

          Criminal Procedure Code 1973 [CrPC] की धारा 407 में हाईकोर्ट की इस शक्ति का वर्णन है।

          ताज़ा उन्नाव मामले के अलावा सुप्रीम कोर्ट के ऐसे कई केस हैं जबकि केस या अपील एक राज्य से दूसरे राज्य में ट्रांसफर हुए हैं। इसी तरह से हाईकोर्ट भी अपने अधिकार क्षेत्र में एक ही राज्य में किसी अपील या केस को एक अदालत से दूसरी अदालत में स्थानांतरित करते हैं।

Thursday, April 18, 2019

आपसी सहमति से तलाक के मामले में निर्धारित समय-सीमा को किसी दंपत्ति को हो रही व्यक्तिगत परेशानी के आधार पर नहीं कर सकते है खत्म-मध्य प्रदेश हाईकोर्ट [आर्डर पढ़े


18 April 2019 3:15 PM

             मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा है कि दोनों पक्षकारों को हो रही व्यक्तिगत परेशानी के आधार पर हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी(2) के तहत निर्धारित छह माह की अवधि को खत्म नहीं किया जा सकता है। इस मामले में एक दंपत्ति ने आपसी सहमति से तलाक की अर्जी कोर्ट के समक्ष दायर की थी और मांग की थी कि छह महीने के कूलिंग आॅफ यानि शीलतन की समय अवधि को खत्म किया जाए। 
           इन दोनों पक्षकारों की तरफ से दलील दी गई थी िकवह जल्दी-जल्दी कोर्ट के चक्कर नहीं काट सकते है क्योंकि उनमें से एक डाबरा में निजी स्कूल में शिक्षक है और दूसरा डाक्टर।इसलिए इस समय अवधि को खत्म करने की मांग की थी। कोर्ट ने इस अर्जी को खारिज कर दिया,जिसके बाद उन्होंने उस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने अमरदीप सिंह बनाम हरवीन कौर के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि उस फैसले में माना गया था कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी(2) के तहत दी गई समय अवधि अनिवार्य प्रकृति की नहीं है,बल्कि यह निर्देशिका प्रकृति की है। इसलिए हर मामले की परिस्थितियों व तथ्यों को देखने के बाद निचली अदालत इस समय अवधि से छूट दे सकती है। जिन मामलों में निचली अदालत को यह लगे कि दोेनों पक्षों में सुलह की कोई संभावना नहीं है और न ही साथ रहने के कोई चांस नहीं है,उन मामलों में निचली अदालत इस समय अवधि से छूट दे सकती है। 
                परंतु जस्टिस गुरपाल सिंह अहलुवानिया ने टिप्पणी करते हुए कहा कि इस मामले में जो आधार पक्षकारों ने दिया,वह इस अवधि को खत्म करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है क्योंकि इस मामले में दोनों पक्षकारों का कहना है कि वह बार-बार कोर्ट नहीं आ सकते है। 
            कोर्ट ने कहा कि-जब कोई पक्षकार किसी निश्चित प्रावधान के तहत कोर्ट से राहत मांगने के लिए जाते है तो उस समय उनको कानून के तहत बनाई या उपलब्ध प्रक्रिया का पालन करना चाहिए। अगर वह चाहते थे कि निचली अदालत आपसी सहमति से तलाक के मामले में निर्धारित हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी(2) के तहत दी गई छह माह की अवधि को खत्म कर दे तो उनको इंगित करना चाहिए था कि अब उनके बीच वैकल्पिक पुर्नवास या आपस में साथ रहने का कोई मौका नहीं है। परंतु दोनों पक्षकारों को हो रही व्यक्तिगत परेशानी के आधार पर इस निर्धारित अवधि से छूट नहीं दी जा सकती है। इसी के साथ कोई इस मामले में दायर पुनःविचार याचिका को खारिज कर दिया।







बलात्कार के आरोपी ने कहा पीड़िता से उसकी हुई है शादी; सुप्रीम कोर्ट ने उसे शादी का प्रमाण पत्र पेश करने को कहा


18 April 2019 5:37 PM

           बलात्कार के आरोपी एक व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी देकर कहा है कि पीड़िता से उसकी मार्च 2018 में शादी हो चुकी है। इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निचली अदालत द्वारा उसको जारी सम्मन को निरस्त करने की उसकी अपील ठुकरा दी थी। जब आरोपी ने दावा किया कि पीडिता से उसकी शादी हो चुकी है, इस मामले की सुनवाई कर रहे न्यायमूर्ति एमएम शांतनागौडा और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की पीठ ने उसे तीन सप्ताह के भीतर शादी का प्रमाणपत्र अदालत में पेश करने को कहा। 
          पीठ ने इस मामले की सुनवाई की अगली तारीख़ तीन सप्ताह के बाद रखी है और चेतावनी दी है कि इस मामले को आगे और स्थगित नहीं किया जाएगा। अगर शादी हुई है यह साबित हो जाता है तो क्या होगा? पर सवाल उठता है कि अगर आरोपी शादी का प्रमाणपत्र पेश कर देता है और उसकी शादी सही पाई जाती है तो क्या होगा? उस स्थिति में अदालत उसकी अपील स्वीकार कर सकता है क्योंकि वर्तमान क़ानून वैवाहिक संबंध में बलात्कार को अपवाद माना गया है। 
            आईपीसी की धारा 375 के अपवाद 2 में कहा गया है एक व्यक्ति का अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध को, अगर पत्नी 15 साल से कम उम्र की नहीं है तो, बलात्कार नहीं माना जाएगा। हालाँकि यह भी नोट करना ज़रूरी है कि धारा 376B के तहत पत्नी से अलग रहने के दौरान उसके साथ यौन संबंध बनाना दंडनीय है। इस प्रावधान में कहा गया है : 
           "अगर कोई व्यक्ति अलग रहने के आदेश या किसी और वजह से अलग रह रही अपनी पत्नी के साथ उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उससे यौन संबंध स्थापित करता है तो यह दंडनीय है…यह दंड कारावास के रूप में दो साल से कम नहीं होगा और यह सात साल तक की अवधि के लिए हो सकता है और उस पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है।" इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने Independent Thought vs Union Of India मामले में 18 साल से कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध को बलात्कार बताया है भले ही वह शादीशुदा है या नहीं।
             दिल्ली हाईकोर्ट में लंबित है इस प्रावधान को चुनौती का वाद धारा 375 के तहत वैवाहिक संबंध में बलात्कार के बारे में अपवाद के प्रावधान को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी गई है। गुजरात हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जेबी परदीवाला का मत है कि वैवाहिक संबंध में बलात्कार के बारे में जो अपवाद किया है उसको हटाकर ही समाज को यह संदेश दिया जा सकता है कि महिलाओं के साथ वह अमानवीय व्यवहार नहीं करसकता और इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता और यह कि वैवाहिक संबंध में बलात्कार की इजाज़त पति का विशेषाधिकार नहीं है बल्कि यह एक हिंसा है और एक अन्याय है जिसके लिए दंड मिलना चाहिए। न्यायमूर्ति जेएस वर्मा समिति ने अपनी रिपोर्ट में वैवाहिक संबंध में बलात्कार के बारे में अपवाद को समाप्त किए जाने की अनुशंसा की गई हैल।






आरोपी की अनुपस्थिति में गवाहों के बयान दर्ज करना है एक साध्य उल्लंघन-सुप्रीम कोर्ट ने हत्या के मामले में फिर से सुनवाई के आदेश को ठहराया सही [निर्णय पढ़े]


18 April 2019 12:16 PM

            सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि अभियोजन पक्ष की गवाही के समय अगर आरोपी अनुपस्थित है तो इससे अपने आप में केस की सुनवाई दूषित नहीं होती है,बशर्ते इससे आरोपी पर कोई प्रतिकूल असर न हो।
जस्टिस उदय उमेश ललित वाली बेंच ने इस मामले में हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी। हाईकोर्ट ने एक मामले में फिर से सुनवाई के आदेश देते हुए निचली अदालत से कहा था कि कानूनीतौर पर गवाहों के बयान दर्ज करे।
            हाईकोर्ट ने कहा था कि पहले राउंड में जो बयान दर्ज किए गए है,उस समय आरोपी की उपस्थिति सुनिश्चित नहीं की गई थी।
आरोपी की तरफ से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने दलील दी कि आरोपी के पास यह अधिकार होता है कि उसके सामने गवाही हो। यह उसका मूल्यवान अधिकार है और इससे छेड़छाड़ करने से गंभीर प्रतिकूल असर पड़ता है।
         कोर्ट ने इन दलीलों पर सहमति जताते हुए कहा कि यह अधिकार मूल्यवान है और इस मामले में उल्लंघन हुआ है। परंतु कोर्ट ने इन सवालों पर भी ध्यान दिया।
           इस तरह के उल्लंघन का प्रभाव देखने के क्या तथ्य उपलब्ध है। क्या इससे मामले की सुनवाई प्रभावित हुई है या इस तरह का उल्लंघन साध्य है। कोर्ट ने कहा कि कोर्ट के चैप्टर XXV का मुख्य विषय व सेक्शन 461 में बताए गए नियम 'अनियमित सुनवाई' से संबंधित है।जिनमें कहा गया है कि किसी उल्लंघन या अनियमितता से मामले की सुनवाई नष्ट नहीं होती है या हानि नहीं पहुंचती है,बशर्ते इस अनियमितता या उल्लघंन से आरोपी को बहुत क्षति न हुई हो या उसके साथ पक्षपात न हुआ हो।
           कोर्ट ने कहा कि- हाईकोर्ट का आदेश यह नहीं है कि सारे सबूतों को फिर से पढ़ा जाए। हाईकोर्ट का निर्देश यह है कि सिर्फ उन गवाहों के बयान फिर से दर्ज किए जाए,जिनके बयान आरोपी के समक्ष नहीं हुए थे।उस निर्देश के अनुसार कोर्ट में आरोपी की उपस्थिति जरूरी है ताकि वह गवाह को कोर्ट में बयान देेते समय देख सके और उस गवाह से जिरह कर सके। इसलिए इन मूल जरूरतों को निष्ठा से पूरा किया जाए।
             इसके अलावा कोई क्षति या हानि नहीं हुई है। कोड में दिए आरोपी या याचिकाकर्ता के अधिकारों के बारे में बेंच ने कहा कि-पाॅवर की जो बात है तो पूरे मामले की दोबारा सुनवाई का आदेश दिया जा सकता है।
जबकि इस मामले में तो हाईकोर्ट ने कमतौर पर इस अधिकार का प्रयोग करते हुए सिर्फ 12 गवाहों के बयान फिर से करवाने के लिए कहा है। ऐसे में हाईकोर्ट का यह निर्देश अधिकारक्षेत्र के अंतर्गत आता है।
            ऐसे में हाईकोर्ट ने किसी भी तरह अपने अधिकारक्षेत्र का उल्लंघन नहीं किया है। हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराते हुए व निचली अदालत को फिर से सुनवाई करने की अनुमति देते हुए बेंच ने कहा कि- एक परिवार के चार लोगों की मौत हुई है।
             इसलिए ऐसे मामले में समाज का भी हित होगा कि आरोपी को सजा मिले। साथ ही इस बात को सुनिश्चित किया जाए कि मामले की सुनवाई निष्पक्ष हो। सिर्फ उन गवाहों के बयान फिर से दर्ज करने के लिए कहा गया है,जिनसे यह सुनिश्चित हो सके कि अभियोजन पक्ष का हित बना रहे,वहीं दूसरी तरफ आरोपी को यह अधिकार मिले िकवह गवाह को अपने खिलाफ बयान देते हुए देख सके। जिसके बाद वह अपने वकील को अच्छे से निर्देश दे पाए कि गवाह से क्या-क्या सवाल जिरह में किए जाए। इस प्रक्रिया में आरोपी के हित की रक्षा भी होगी।
           अगर हम इन दलीलों को स्वीकार कर ले कि इससे मामले की सुनवाई खराब होगी और हाईकोर्ट के पास यह अधिकार नहीं है िकवह संबंधित गवाहों के बयान फिर से दर्ज करने का आदेश दे सके,तो इससे न्याय निष्फल होगा।
            आरोपी,जिन पर चार लोगों की मौत को केस चल रहा है,उनके खिलाफ प्रभावी तरीके से सुनवाई नहीं चल पाएगी। तकनीकी तौर पर उल्लंघन होने के कारण उनके खिलाफ दर्ज सबूतों को प्रयोग नहीं किया जा सकेगा,जिससे न्याय को बहुत बड़ा अघात पहुंचेगा और न्याय निष्फल हो जाएगा





Wednesday, April 17, 2019

जनप्रतिनिधि अधिनियम नहीं देता है चुनाव आयोग को यह अधिकार कि वह सहायता प्राप्त निजी स्कूलों के कर्मचारियों का कर ले

अधिग्रहण-बाॅम्बे हाईकोर्ट

April 2019 8:56 PM बाॅम्बे

           हाईकोर्ट ने माना है कि जनप्रतिनिधि अधिनियम ( प्यूपल रेप्रीजेंटेशन एक्ट) 1950 चुनाव आयोग या उसके किसी अधिकारी को यह अधिकार नहीं देता है कि चुनाव में ड्यूटी देने के लिए वह किसी सहायता प्राप्त निजी स्कूल के शिक्षण या गैर-शिक्षण कर्मचारियों की सेवाओं अधिग्रहण कर ले या उनकी सहायता ले। दो सदस्यीय खंडपीठ के जस्टिस ए.एस ओका व जस्टिस एम.एस सनकचलेचा इस मामले में गोरेगांव,मुम्बई के दो स्कूलों की तरफ से दायर याचिकाओं पर सुनवाई कर रहे थे। 
         याचिकाकर्ताओं ने असिस्टेंट इलैक्ट्रोल रजिस्ट्रेशन आॅफिसर के तीन आदेशों को चुनौती दी थी। इन आदेश में स्कूलों के गैर-शिक्षण कर्मियों की सेवाएं भी चुनाव ड्यूटी में लेने की बात कही गई थी।          
        याचिकाकर्ताओं का कहना था कि जनप्रतिनिधि अधिनियम के सेक्शन 29 के तहत आॅफिसर के पास सहायता प्राप्त निजी स्कूलों के कर्मियों की सेवाएं चुनाव में लेने का अधिकार नहीं है। इसके अलावा यह भी मांग की गई थी कि लोक प्रतिनिधि अधिनियम 1951( रेप्रीजेंटेशन आॅॅफ दा प्यूपल एक्ट 1951) के सेक्शन 159 के तहत यह घोषित किया जाए कि प्रतिवादी नम्बर एक से आठ तक ( जो कि भारतीय चुनाव आयोग व उसके अधिकारी है) के पास यह अधिकार नहीं है कि याचिकाकर्ताओं द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों के कर्मचारियों की सेवाएं अनिश्चितकाल तक अधिग्रहण कर ले। कोर्ट ने जनप्रतिनिधि अधिनियम 1950 के सेक्शन 29 को देखने के बाद कहा कि-इस सेक्शन को पढ़ने के बाद साफ हो जाता है कि चीफ इलैक्ट्रोल आॅफिसर इस सेक्शन के तहत मिले अपने अधिकारों का प्रयोग करके सिर्फ राज्य की स्थानीय प्राधिकरणोंके कर्मचारियों की सेवाएं ले सकता है या उनका अधिग्रहण किया जा सकता है। 
         स्थानीय प्राधिकरणों के बारे में न तो एक्ट 1950 में परिभाषित किया गया है और न ही एक्ट 1951 में। ऐसी परिस्थितियों में साधारण खंड अधिनियम 1897 (जरनल क्लाज एक्ट 1897) से रेफरेंस लेना जरूरी है। साधारण खंड अधिनियम 1897 में स्थानीय प्राधिकरण की परिभाषा देखने के बाद कोर्ट ने कहा कि-स्थानीय प्राधिकरण की परिभाषा को सामान्य तौर पर पढ़ने के बाद ही यह साफ हो रहा है कि राज्य से सहायता प्राप्त निजी स्कूल स्थानीय प्राधिकरण की परिभाषा में नहीं आते है। इस बात पर भी कोई विवाद नहीं है कि याचिकाकर्ता या उनके स्कूल पर सरकार या निगम के प्रबंधन का कोई नियंत्रण है। ऐसे में एक्ट 1950 के सेक्शन 29 के तहत याचिकाकर्ताओं या उनके सहायता प्राप्त स्कूलों को भेजा गया नोटिस अधिकारक्षेत्र से बाहर है।
         भारतीय चुनाव आयोग के वकील प्रदीप राजागोपाल ने भी माना कि तीनों आदेश बिना अधिकारक्षेत्र के जारी किए गए है और इस बात पर कोई आपत्ति जाहिर नहीं की। हालांकि महाराष्ट्र राज्य की वकील गीता शास्त्री और राजागोपाल ने बयान दिया कि शैक्षणिक व गैर-शैक्षणिक कर्मचारियों की सेवाएं एक निश्चित व विशेष अवधि के लिए ही ली जा सकती है। जिसमें तीन दिन की ट्रेनिंग के लिए व दो दिन मतदान के लिए होते है। कोर्ट ने इस बयान को स्वीकार कर लिया। इसलिए कोर्ट ने इस मामले में दायर याचिकाओं को स्वीकार कर लिया और असिस्टेंट इलैक्ट्रोल रजिस्ट्रेशन आॅफिसर के आदेशों को रद्द कर दिया।

NI अधिनियम की धारा 143A (अंतरिम मुआवज़ा) को पिछले प्रभाव से लागू करने का प्रावधान नहीं : पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट [निर्णय पढ़े ]

17 April 2019 11:15 AM

        पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा है कि निगोशिएबल इंस्ट्रुमेंट ऐक्ट (एनआईए) की धारा 143A को पिछले प्रभाव से लागू करने का प्रावधान नहीं है जबकि 148 के प्रावधान उन लंबित अपीलों पर लागू होंगे जिस दिन इसके प्रावधान को लागू करने की अधिसूचना जारी की गई। न्यायमूर्ति राजबीर सहरावत ने कहा कि अधिनियम कि धारा 143A ने आरोपी के ख़िलाफ़ एक नया दायित्व तय किया है जिसका प्रावधान वर्तमान क़ानून में नहीं था।
         लेकिन धारा 148 को यथावत रहने दिया गया है; और कुछ हद तक इसे आरोपी के हित में संशोधित किया गया है। वर्ष 2018 में इस अधिनियम दो नए प्रावधान जोड़े गए। इसमें पहला है धारा 143A जिसके द्वारा निचली अदालत को आरोपी को अंतरिम मुआवज़ा देने का आदेश जारी करने का अधिकार दिया गया है पर यह राशि 'चेक की राशि' से 20% से ज़्यादा नहीं होना चाहिए। एक अन्य धारा 148 जोड़ा गया जो अपीली अदालत को आरोपी/अपीलकर्ता को यह आदेश देने का अधिकार देता है कि वह निचली अदालत ने जो 'जुर्माना' या 'मुआवजा' चुकाने को कहा है उस की 20% राशि वह जमा करे।
          वर्तमान मामले में कोर्ट के समक्ष जो अपील लंबित है वे निचली और अपीली अदालतों के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील है। अधिनियम की नई धारा 143A के प्रावधानों को आधार बनाकर फ़ैसले दिए गए जिसे अब चुनौती दी गई है। कोर्ट ने कहा, "चूँकि अधिनियम का जो संशोधन हुआ है उसमें इस नए प्रावधानों को पिछले प्रभाव से लागू करने का प्रावधान नहीं है विशेषकर लंबित मामलों में। इसलिए लंबित मामलों के बारे में जो कि इन प्रावधानों के लागू होने के पहले से मौजूद हैं, के बारे में इन नए प्रावधानों के आधार पर फ़ैसला नहीं दिया जा सकता।
          कोर्ट ने कहा, "…अंतरिम मुआवज़ा जो कि किसी मामले में करोड़ों रुपए भी हो सकता है और ऐसे व्यक्ति के लिए जो कुछ लाख रुपए भी मुश्किल से जुगाड़ सकता है, इस धारा का परिणाम तबाही पैदा करने वाला हो सकता है…इसलिए इस प्रावधान को ज़्यादा से ज़्यादा आगे होने वाले इस तरह के मामलों में लागू किया जा सकता है क्योंकि वर्तमान मामले में आरोपी इस बात से अवगत होगा कि वह जो कर रहा है उसका परिणाम क्या हो सकता है …पर ये प्रावधान उन मामलों में लागू नहीं हो सकते जहाँ अदालती कार्रवाई उस समय शुरू हुई जब ये संशोधित प्रावधानों का अस्तित्व भी नहीं था।
           अदालत ने धारा 148 के बारे में कहा कि किसी दोषी व्यक्ति से जुर्माने या मुआवजे की राशि वसूलने का प्रावधान सीआरपीसी में धारा 148 के अस्तित्व में आने से पहले से ही मौजूद है। ये प्रावधान दोषी/अपीलकर्ता को ज़्यादा राहत देने वाला है।