Monday, April 20, 2020

रेप पीढिता की गवाही, रासुका कानून

जानिए हमारा कानून/साक्ष्य अधिनियम: जानिए ... जानिए हमारा कानून साक्ष्य अधिनियम: जानिए रेप पीड़िता की गवाही पर अदालत द्वारा कब भरोसा किया जा सकता है? 

20 April 2020 1:27 PM

 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 का अध्याय 9, 'साक्षियों के विषय में' प्रावधान करता है। इसके अंतर्गत धारा 118 यह बताती है कि कौन व्यक्ति टेस्टिफाई करने/गवाही देने या साक्ष्य देने में सक्षम है, हालाँकि, इस धारा के अंतर्गत किसी ख़ास वर्ग के व्यक्तियों की सूची नहीं दी गयी है जिन्हें साक्ष्य देने में सक्षम कहा गया हो। गौरतलब है कि इस धारा के अंतर्गत, ऐसी कोई आयु या व्यक्तियों के वर्ग का उल्लेख नहीं किया गया है, जो गवाह के गावही/बयान/साक्ष्य देने की योग्यता के प्रश्न को निर्धारित करते हों। मसलन, यह धारा सिर्फ और सिर्फ यह कहती है कि वे सभी व्यक्ति अदालत के समक्ष, गवाही/बयान दे सकते हैं जो उनसे किए गए प्रश्नों (अदालत द्वारा) को समझने एवं उन प्रश्नों के युक्तिसंगत उत्तर देने में सक्षम हैं| दूसरे शब्दों में, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 118 हमें यह बताती है कि आखिर कौन व्यक्ति मौखिक साक्ष्य दे सकते हैं। इस धारा के तहत ऐसा कोई भी व्यक्ति गवाही दे सकता है, जब तक कोर्ट की राय यह हो कि वह व्यक्ति कोमल वयस (tender years), अतिवार्धक्य शरीर (extreme old age) के या रोग मानसिक या शरीरिक या इसी प्रकार के किसी अन्य कारण के चलते पूछे गए सवालों को समझने में अक्षम हैं या फिर वह उन सवालों का युक्तिसंगत उत्तर देने में सक्षम नहीं हैं| इसी धारा के अंतर्गत, बाल गवाह (Child Witness) पर अदालत द्वारा कब भरोसा किया जा सकता है इसे हम एक पिछले लेख में समझ चुके हैं। मौजूदा लेख में हम यह समझेंगे कि आखिर एक रेप पीड़िता की गवाही का साक्ष्य के अंतर्गत मूल्य या महत्व क्या होता है? हम यह भी जानेंगे कि आखिर रेप पीड़िता द्वारा धारा 118 के अंतर्गत दिये गए साक्ष्य पर अदालत द्वारा कब भरोसा किया जा सकता है? रेप पीड़िता नहीं है सह-अपराधी (Accomplice) उच्चतम न्यायालय द्वारा अपने तमाम निर्णयों द्वारा इस बात को रेखांकित किया गया है कि न्यायालय को एक रेप पीड़िता की भावनात्मक उथल-पुथल और मनोवैज्ञानिक चोट से अनजान नहीं होना चाहिए जो उसे छेड़छाड़ या बलात्कार होने पर झेलनी पड़ती है। वह रेप के पश्च्यात, अपने पति सहित समाज और अपने निकट संबंधियों द्वारा शर्मिंदा होने के डर और शर्म की भावना का लगातार सामना करती है। अक्सर ही ऐसा भी होता है कि ऐसी महिला के साथ, जो एक अपराध की पीड़िता है, दया और समझदारी के साथ व्यवहार करने के बजाय, समाज उसे पाप की भागी के रूप में मानता है, जोकि हैरान करने वाला है। इसलिए, न्यायालय द्वारा अपने तमाम निर्णयों में यह महसूस किया गया है कि एक महिला, जो यौन-हिंसा की शिकार हुई है, वह हमेशा अपनी दुर्दशा का खुलासा करने के बारे में झिझकती होगी। अदालत को, इसी पृष्ठभूमि में उसके साक्ष्य का मूल्यांकन करना चाहिए। उच्चतम न्यायालय द्वारा महाराष्ट्र बनाम चंद्रप्रकाश केवलचंद जैन AIR 1990 SC 658 के मामले में यह देखा गया था कि यौन अपराध की पीड़ित महिला को एक सह-अपराधी (Accomplice) की तरह नहीं देखा जा सकता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 118 के अनुसार, वह निश्चित रूप से एक सक्षम गवाह है, और उसके बयान को शारीरिक हिंसा के पीड़ित एक घायल गवाह के बराबर माना जाना चाहिए। उसके बयान को भी उसी सावधानी और एहतियात से देखा जाना चाहिए, जिस सावधानी और एहतियात से एक घायल गवाह के बयान को देखा जाता है, उसे इससे अधिक सावधानी की आवश्यकता नहीं है। क्या साक्ष्य की संपुष्टि (Corroboration) है आवश्यक? सुप्रीम कोर्ट ने रामेश्वर बनाम राजस्थान राज्य 1952 SCR 377 के मामले में यह कहा था कि संपुष्टि (corroboration), बलात्कार के मामलों में एक अपरिहार्य आवश्यकता नहीं है। हालाँकि, अदालतों द्वारा इस नियम को मान्यता दी जा चुकी है कि रेप के मामलों में सजा होने से पहले, विवेक की आवश्यकता के रूप में, संपुष्टि की आवश्यकता हो सकती है - हिमाचल प्रदेश बनाम आशा राम 2006 SCC (Cri) 296। हालांकि यह नियम उस मामले में लागू नहीं होगा, जहां न्यायाधीश के मुताबिक, परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि संपुष्टि की आवश्यकता न हो। कानूनी नियम यह है कि दोषसिद्धि पर निर्णय लेते समय जज को सावधानी आधारित इस नियम के प्रति सजग होना चाहिए, यह नियम नहीं है कि दोष-सिद्धि के लिए हर मामले में संपुष्टि की ही जाये। गौरतलब है कि, भरवाड़ा भोगिनभाई हीरजीभाई बनाम गुजरात राज्य (1983 (3) SCC 217) के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह साफ़ तौर पर कहा गया था कि भारतीय परिस्थितियों में सम्पुष्टि के बिना पीड़ित महिला की गवाही पर एक्शन लेने से मना करना, पीड़िता के जख्मों को और अपमानित करने जैसा है। अदालत ने इस मामले में कहा था कि एक महिला या लड़की जो यौन अपराध की शिकायत करती है उसे क्यों शक, अविश्वास और संशय की नज़रों से देखा जाये? ऐसा करना एक पितृसत्तात्मक व्यवस्था के दुराग्रहों को उचित ठहरना होगा। आगे, उच्चतम न्यायालय द्वारा महाराष्ट्र बनाम चंद्रप्रकाश केवलचंद जैन AIR 1990 SC 658 के मामले में भी यह देखा गया था साक्ष्य विधि यह कहीं भी नहीं कहती है कि एक रेप पीड़िता के बयान को बिना संपुष्टि (Corroboration) के स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार से, कर्नेल सिंह बनाम मध्य प्रदेश, AIR (1995) SC 2472 में, उच्चतम न्यायालय द्वारा यह देखा गया कि एक महिला जो यौन हिंसा की शिकार है, वह स्वयं अपराध करने वाली एक अपराधी नहीं है, बल्कि वह किसी अन्य व्यक्ति की हवस का शिकार है, और इसलिए, उसके साक्ष्य को उस मात्रा के संदेह के साथ नहीं जांचा जाना चाहिए, जितना संदेह एक अपराधी के साक्ष्य पर किया जाता है। इसलिए ज्यादा से ज्यादा, विवेक के एक नियम के रूप में, अदालत द्वारा रेप पीड़िता के बयान के अलावा कुछ अन्य सबूतों की तलाश की जा सकती है जो उसकी गवाही को भरोसेमंद बनाते हैं। इसके अलावा, श्री नारायण साहा एवं अन्य बनाम त्रिपुरा राज्य (2004) 7 SCC 775 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा था कि यह आवश्यक है कि न्यायालय को इस तथ्य के प्रति सचेत होना चाहिए कि वह उस व्यक्ति (रेप पीड़िता) के साक्ष्य से निपट रहा है जो अपने द्वारा लगाए गए आरोप के परिणाम में रुचि रखती है। यदि न्यायालय इस बात को ध्यान में रखता है और स्वयं को संतुष्ट महसूस करता है कि वह अभियोजन पक्ष के साक्ष्य पर कार्रवाई कर सकता है, तो कानून के तहत ऐसा कोई नियम या प्रथा शामिल नहीं है संपुष्टि की मांग करे। इसलिए यहाँ हमे इस बात को लेकर अपना संदेह कर लेना चाहिए कि एक रेप पीड़िता के साक्ष्य की संपुष्टि के बिना किसी आरोप की दोष-सिद्धि नहीं हो सकती। पीड़िता का साक्ष्य भरोसे लायक होना है आवश्यक सुप्रीम कोर्ट ने राजू बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2008 (15) SCC 133) में यह कहा था कि सामान्यत: पीड़ित महिला की गवाही को संदेहास्पद न मान कर, उस पर भरोसा किया जाना चाहिए। उसके बयान को एक पीड़ित गवाह के बराबर मानना चाहिए, अगर उसका बयान भरोसे के लायक है तो उसके बयान की सम्पुष्टि करवाना जरुरी नहीं है। परन्तु, यदि किसी कारण से न्यायालय, अभियोजन पक्ष की गवाही पर निर्भरता रखने से हिचकिचाता है तो वह ऐसे साक्ष्य की तलाश कर सकता है जो किसी सह-अपराधी (Accomplice) के मामले में आवश्यक गवाही जितना गंभीर तो नहीं, पर अदालत की संतुष्टि के लिए आवश्यक आश्वासन दे सके। अभियोजन पक्ष की गवाही के प्रति आश्वासन देने के लिए आवश्यक सबूतों की प्रकृति को प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर आधारित होना चाहिए। गौरतलब है कि तमाम मामलों में अदालत द्वारा यह अच्छी तरह से तय किया गया है कि यदि पीड़िता एक वयस्क महिला है और पूरी समझ रखती है, तो अदालत उसकी गवाही पर दोष सिद्ध करने की हकदार होती है, जब तक कि उसके साक्ष्य के सम्बन्ध में यह नहीं दिखाया जाता है कि वह भरोसेमंद नहीं है। यदि रिकॉर्ड पर मौजूद परिस्थितियों की समग्रता यह बताती है कि अभियोजन पक्ष के पास आरोपित व्यक्ति को गलत तरीके से फंसाने का मजबूत मकसद नहीं है, तो अदालत को सामान्य तौर पर उसके सबूतों को स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। गौरतलब है कि रंजीत हजारिका बनाम असम राज्य (1998) 8 SCC 635 और पंजाब राज्य बनाम वी. गुरमीत सिंह और अन्य (1996) 2 SCC 384 के मामले में भी यह माना है कि रेप पीड़िता के साक्ष्य पर विश्वास किया जाना चाहिए, क्योंकि कोई भी स्वाभिमानी महिला अदालत में सिर्फ अपने सम्मान के खिलाफ ऐसा बयान देने के लिए आगे नहीं आएगी कि उसके साथ बलात्कार का अपराध हुआ है। राय संदीप उर्फ दीपू बनाम राज्य (एनसीटी ऑफ़ डेल्ही) 2012 8 SCC 21 के मामले में भी यह आयोजित किया गया था कि वास्तविक (स्टर्लिंग) गवाह बहुत उच्च गुणवत्ता का होना चाहिए, जिसका बयान अखंडनीय होना चाहिए। ऐसे गवाह के बयान पर विचार करने वाली अदालत इस स्थिति में होनी चाहिए कि वह बिना किसी संदेह के इसके बयान स्वीकार कर ले। एफआईआर में देरी के परिणाम भारत में, यदि अभियोजन पक्ष एक विवाहिता है, तो वह अपने पति को सूचित करने से अक्सर हिचकिचाती है। यदि वह दूरदराज इलाके में रहती है और विवाहिता नहीं भी है तो भी वह अपने घरवालों को कुछ भी कहने से बचती है, क्योंकि वह डरती है कि उसे घृणा की दृष्टि से देखा जायेगा या उसे ही ग़लत समझा जायेगा। इसलिए तमाम प्रकार की वजहों के चलते, एक रेप पीड़िता की ओर से रेप के सम्बन्ध में एफआईआर दर्ज करने में देरी की जा सकती है। कर्नेल सिंह बनाम मध्य प्रदेश, AIR (1995) SC 2472 के मामले में यह देखा गया था कि केवल इसलिए कि रेप की शिकायत को दर्ज करने में देरी की गयी थी, यह सवाल नहीं उठाता कि शिकायत झूठी थी। पुलिस के पास जाने की अनिच्छा का कारण, ऐसी महिलाओं के प्रति समाज का दुर्भाग्यपूर्ण रवैया होता है। हमारा समाज अक्सर ही उनपर संदेह करता है और उनके साथ सहानुभूति रखने के बजाय उनके साथ बुरा बर्ताव करता है। इसलिए, ऐसे मामलों में शिकायत दर्ज करने में देरी होना यह नहीं दर्शाता कि महिला का आरोप झूठा है। निष्कर्ष अंत में, यह साफ़ है कि एक रेप पीड़िता के साक्ष्य पर दोषसिद्धि की जा सकती है। बस उसका साक्ष्य भरोसे लायक होना चाहिए और यदि अदालत को जरुरत लगे तो विवेक के एक नियम के रूप में उसकी संपुष्टि के लिए आवश्यक सबूत तलाशे जा सकते हैं। हाल ही में संतोष प्रसाद बनाम बिहार राज्य CRIMINAL APPEAL NO. 264 OF 2020 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना है कि बलात्कर केस के किसी आरोपी की सजा पीड़िता की एकमात्र गवाही के आधार पर नहीं हो सकती है, जब तक कि वह वास्तविक गवाह का टेस्ट पास न कर ले और यदि वह अदालत को वास्तविक लगती है तो दोष-सिद्धि में कोई समस्या नहीं है। न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एमआर शाह की खंडपीठ ने इस मामले में फैसला सुनाते हुए यह साफ़ किया था कि पीड़िता के एकमात्र साक्ष्य के आधार पर किसी अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए सबूत बिल्कुल भरोसेमंद, बेदाग और वास्तविक गुणवत्ता वाले होने चाहिए। 











जानिए हमारा कानून जानिए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) के संदर्भ में विशेष बातें Shadab Salim19 April 2020 8:21 PM The National Security Act of 1980 is an act of the Indian Parliament promulgated on 23 September, 1980. मानव अधिकारों के अधीन किसी भी व्यक्ति को उसके द्वारा किए गए किसी अपराध के अधीन ही बंदी बनाया जा सकता है, परंतु भारत में कुछ निवारक विधियां ऐसी हैं, जिनके अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को अपराध करने के पूर्व ही या अपराध करने से रोकने के उद्देश्य से बंदी बनाया जा सकता है और एक निश्चित अवधि तक निरुद्ध रखा जा सकता है। राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम 1980 भी ऐसी ही एक निवारक विधि है, जो केंद्रीय और राज्य सरकार को तथा उसके अधीन रहने वाले अधिकारियों को असीमित शक्तियां प्रदान करती है। राज्य एवं केंद्र सरकार किसी भी व्यक्ति को राज्य और देश की सुरक्षा बनाए रखने के लिए निरुद्ध कर सकती है। अनेक बार इस अधिनियम की आलोचना की गई है, क्योंकि यह अधिनियम एक प्रकार से नागरिकों के विरुद्ध तथा नागरिकों से हटकर समस्त धरती के मनुष्य के विरुद्ध किसी भी राज्य के सरकार को असीमित शक्तियां प्रदान करता है। ए के राय बनाम भारत संघ ए आर आई 1982 उच्चतम न्यायालय 710 के मामले में इस अधिनियम को संविधान के संगत बताया गया है और यह निर्देश दिए गए हैं कि सरकारें इस अधिनियम को सावधानी से उपयोग में लाएं और बड़े ऐतिहासिक अपराधियों के लिए ही इस कानून का उपयोग करें। इस प्रकार का कानून शोषणकारी हो सकता है, यदि उस कानून को उसके गलत अर्थों में उपयोग किया जाए। इस लेख के माध्यम से राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के कुछ विशेष प्रावधानों पर चर्चा की जा रही है। केंद्रीय और राज्य दोनों को शक्तियां इस अधिनियम के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को निरुद्ध करने के लिए केंद्र और राज्य सरकार दोनों को शक्तियां दी गई हैं। केंद्रीय एवं राज्य सरकारों के अधीन रहने वाले पदाधिकारी इस अधिनियम के अंतर्गत उचित आधार पाए जाने पर व्यक्तियों को निरुद्ध कर सकते हैं। निरुद्ध करने के आधार निरूद्ध करने के आदेश अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत दिए गए हैं। केंद्र एवं राज्य सरकार किसी भी नागरिक को एवं विदेशी व्यक्ति को इस अधिनियम के अंतर्गत विरुद्ध कर सकती हैं। कोई भी ऐसा कार्य जिससे देश की सुरक्षा को ख़तरा हो, ऐसा कोई कार्य कोई विदेशी कर रहा हो या भारत में निरंतर रहने वाला कोई विदेशी किसी घटना को अंजाम देने के बाद भारत से भागने का निरंतर प्रयास कर रहा है। केंद्र सरकार या राज्य सरकार को यदि किसी व्यक्ति के संदर्भ में जब संतुष्टि हो जाती हैं कि वह व्यक्ति लोक व्यवस्था को बनाए रखने वाले कार्यों में बाधा डाल रहा है तथा वह व्यक्ति समाज के भीतर आवश्यक सेवा एवं वस्तुओं की पूर्ति में बाधा डाल रहा है, ऐसी आवश्यक सेवा और वस्तुओं को समाज में दिया जाना नितांत आवश्यक है और वह व्यक्ति इसकी पूर्ति में बाधा डालता है तो भी उसे निरुद्ध करने का आदेश दिया जा सकता है। राज्य सरकार किसी ऐसे स्थान पर किसी जिला दंडाधिकारी एवं पुलिस कमिश्नर को इस प्रकार से आदेश जारी करने के लिए निर्देश दे सकती है। सरकार यदि संतुष्ट है कि ऐसा आदेश दिया जाना चाहिए तो ऐसा आदेश दिए जाने के लिए निर्देश देती है, परंतु इस धारा के अंतर्गत यदि निर्देश दिया जाता है तो ऐसा निर्देश प्रथम बार 3 माह की अवधि से ज्यादा का नहीं होगा अर्थात जिस व्यक्ति को निरुद्ध करने का निर्देश जिला दंडाधिकारी एवं पुलिस कमिश्नर को राज्य सरकार ने दिया है तथा यह कहा है कि ऐसा आदेश तो ऐसे आदेश में किसी भी व्यक्ति को प्रथम बार तीन माह के लिए निरुद्ध किया जाएगा। अधिनियम की धारा 3 की उपधारा 3 के अंतर्गत यदि आदेश जारी किया जाता है तो पुलिस अधिकारी,जिला दंडाधिकारी को सरकार को रिपोर्ट भेजनी होगी एवं 12 दिन के भीतर ऐसी रिपोर्ट भेजनी ही होगी। यदि 12 दिन के भीतर ऐसी रिपोर्ट नहीं भेजी जाती है तो सरकार द्वारा दिया गया निर्देश प्रभावहीन हो जाएगा। निरूद्ध किए गए व्यक्ति को निरूद्ध किये जाने के आधार बताना निरूद्ध किए गए व्यक्ति को जिस दिनांक को निरूद्ध किया जाता है उस दिन से 5 दिन के भीतर निरूद्ध के आधार बताया जाए। यदि कोई युक्तियुक्त कारण है ऐसी परिस्थिति में 15 दिन के भीतर निरूद्ध किए गए व्यक्ति को निरुद्ध करने के आधार बताए जाएंगे तथा उसको उचित कार्यवाही करने के परामर्श दिए जाए। सलाहकार बोर्ड अधिनियम की धारा 9 के अनुसार केंद्र और राज्य सरकार सलाहकार बोर्ड का गठन करती है। सलाहकार बोर्ड में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश या फिर ऐसे न्यायाधीश होने की पात्रता रखने वाले व्यक्ति सदस्य होते हैं। अलग-अलग राज्यों के लिए अलग-अलग सलाहकार बोर्ड होते हैं। कोई राज्य एक से अधिक सलाहकार बोर्ड भी बना सकता है। इस अधिनियम के अंतर्गत सलाहकार बोर्ड की महत्वपूर्ण भूमिका है। राज्य सरकार सलाहकार बोर्ड को नियुक्त किए गए व्यक्तियों की रिपोर्ट प्रेषित करता है। सलाहकार बोर्ड के समक्ष ऐसी रिपोर्ट 3 सप्ताह के भीतर सरकारों को पेश करनी होती है। सलाहकार बोर्ड ऐसी रिपोर्ट के ऊपर अपनी जांच बैठाता है तथा उस पर अपना निर्णय भी देता है। इस अधिनियम के अंतर्गत सलाहकार बोर्ड धारा 12 के अनुसार किसी निरुद्ध किए गए व्यक्ति पर अपना निर्णय देते हुए एक निश्चित अवधि के लिए उस व्यक्ति को विरुद्ध किए जाने का आदेश देता है या फिर अधिनियम की धारा 12 की उपधारा (2) के अनुसार यदि लाए गए व्यक्ति के संदर्भ में सलाहकार बोर्ड यह पाता है कि लाए गए व्यक्ति को निरूद्ध किया जाना उचित नहीं है तो वह ऐसे व्यक्ति को छोड़ देता है। सलाहकार बोर्ड के समक्ष किसी निरूद्ध व्यक्ति की ओर से अधिवक्ता द्वारा पैरवी किए जाने का का प्रावधान इस अधिनियम में नहीं रखा गया है। निरुद्ध के जाने की अधिकतम अवधि अधिनियम की धारा 13 के अनुसार किसी भी निरूद्ध किए गए व्यक्ति को निरूद्ध किए जाने के आदेश देने से 12 महीने तक के लिए निरूद्ध रखे जाने का आदेश दिया जा सकता है। समुचित सरकार किसी भी समय अपने द्वारा दिए गए किसी भी आदेश को वापस भी ले सकती है या पुनः नवीन कोई आदेश दे सकती है। समुचित सरकार द्वारा दिए गए कोई आदेश को चुनौती इस अधिनियम के अंतर्गत यदि किसी व्यक्ति के विरुद्ध समुचित सरकार धारा 3 के अंतर्गत कोई आदेश जारी करती है तो वह व्यक्ति जिसके विरुद्ध आदेश जारी किया गया है वह सलाहकार बोर्ड के दिए निर्णय को उच्च न्यायालय में चुनौती दे सकता है। रिट याचिका के माध्यम से धारा 3 के अंतर्गत जारी किए गए आदेश को भी चुनौती दे सकता है या फिर दंड प्रक्रिया सहिंता की धारा 482 के अंतर्गत उच्च न्यायालय में आदेश को चुनौती दे सकता है।

Friday, April 10, 2020

कोरोना वाइरस और घरेलू हिंसा

स्तंभ/मास्क N-19, कोरोना... स्तंभ मास्क N-19, कोरोना वायरस और घरेलू हिंसा 

8 April 2020 5:38 PM 
         प्रज्ञा पारिजात सिंह फ्रांस के एक खामोश शहर - नैंसी में स्थित फार्मेसी की दुकान में पिछले रविवार को एक महिला आती है और केमिस्ट से दवाई के बहाने मदद मांगती है। वो दुकानदार को बताती है कि कोरोना वायरस की वजह से जबसे पूरा शहर लॉकडाउन है, उसका पति उसे रोज़ पीटता है और गाली-गलोच करता है । अपनी अक्षमता बताते हुए वो कहती है कि पति फ़ोन भी नहीं इस्तेमाल करने देता इसलिए मुश्किल से वो दवाई के बहाने बच्चों को लेकर आयी है। इस बात से अलार्म होकर दुकानदार, स्थानीय पुलिस को इत्तेला करता है और कुछ ही घंटों के अंदर पुलिस , रेस्क्यू टीम के साथ पहुंच जाती है और इस महिला और उनके बच्चों को बचा लेती है। करोना वायरस वैश्विक महामारी ने जहाँ पूरी दुनिया को हिला के रखा हुआ है, वही एक नया उभरता हुआ मुद्दा मुँह -बाये खड़ा है- घरेलु हिंसा। 
        घरेलु हिंसा की बात करें तो NCRB के 2018 के आंकड़ों के हिसाब से महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा की श्रेणी में घरेलु हिंसा सबसे ऊपर है। क्राइम रेट दर प्रति लाख महिला जनसँख्या के हिसाब से 58.8 % है। भारत का जहाँ विश्व में " जेंडर असमानता सूची " में 125-वांं नंबर है जो की पायदान में बहुत बाद में है, वहीँ ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में हमारा 87-वां स्थान है। फ्रांस ने उधारणतः ये नुस्खा स्पेन से सीखा । एक कोड वर्ड बनाया गया है" मास्क N - 19"। यदि कोई महिला सबसे सामने कुछ बोल नहीं सकती और अपने ऊपर हो रहे अत्याचार से मदद मांगना चाहती है वो मास्क N - 19 मांगेगी जिसका अर्थ है उसे हिंसा से बचने के लिए मदद की आवश्यकता है। ज्ञांत हो को कोरोना वायरस से बचने के लिए साधारण तौर पर मास्क N - 95 का इस्तेमाल होता है। भले ही यह एक सांकेतिक कोड हो लेकिन इसने कई महिलाओं के ऊपर हो रहे घरेलू हिंसा से हाल फिलहाल बचने में मदद की है। 
        अभी हाल ही में राष्ट्रीय महिला आयोग ने लॉकडाउन के बाद ईमेल के द्वारा आयी महिलाओं की शिकायतों का डाटा निकाला है । गौरतलब हो की इस साल के आंकड़ों पर जाएं तो होश -फाख्ता हो जायेंगे जनवरी में कंप्लेंट की संख्या 302 थी, फ़रवरी में 270 और मार्च में सिर्फ लॉकडाउन के बाद से ( 23 मार्च- से 31 मार्च तक यानि कुल एक हफ्ते का डाटा ) 291 कम्प्लेंट्स अभी तक भेजी जा चुकी हैं । ज़्यादातर कंप्लैंट्स पंजाब से हैं। कारण स्पष्ट हैं, घर के बाहर न निकल पाना, काम पे न जा पाना फ़्रस्ट्रेशन , आपसी संबंधों में खलल इत्यादि । रेसेअर्चेर्स की रिपोर्ट्स के अनुसार माने तो ये पता चलता है कि तनावपूर्ण माहौल अक्सर घरेलू हिंसा को बढ़ावा देता है। 2008 के इकॉनोमी क्राइसिस के दौरान पूरे विश्व में घरेलू हिंसाओं की संख्या बढ़ गयी थी। भारत में ही नहीं पूरे विश्व में फिलहाल इस वैश्विक महामारी के आने से घरेलू हिंसाओं की तादाद बढ़ गयी है जो की एक बेहद ही चिंताजनक और गंभीर मुद्दा है। भारत में क्या कानून है? घरेलू हिंसा से निबटने के लिए भारत ने 2005 में घरेलू हिंसा कानून लाया था । 
          वर्ष 2005 से पूर्व घरेलू हिंसा के खिलाफ महिलाओं के पास आपराधिक मामला दर्ज़ करने का अधिकार था| ऐसे मामलों में भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498A के अंतर्गत कार्यवाही होती थी| 2005 में 'घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं का संरक्षण अधिनियम' पारित हुआ जिसमें कई नए तरीके के अधिकार महिलाओं को दिए गए| धारा 498A का उद्देश्य अपराधी को दण्डित करना है जबकि घरेलू हिंसा अधिनियम का उद्देश्य पीड़ित महिला को रहने की जगह, गुजारा भत्ता, इत्यादि दिलाना है| घरेलू हिंसा अधिनियम पूर्णतया गैर अपराधिक ढंग का कानून है| घरेलू हिंसा अधिनियम का सबसे बड़ा फायदा ये हुआ है की जो महिलाएं पारिवारिक या सामजिक दवाब एवं पुलिस थाने के चक्करों से बचने के कारण अपराधिक कार्यवाही नहीं चाहती हैं वे अब अपने लिए प्रभावी संरक्षण का उपाय कर सकती हैं। 
       घरेलू हिंसा कई प्रकार की हो सकती हैं : आर्थिक , मानसिक, शारीरिक , दहेज़ की मांग , मौखिक, लैंगिक उत्पीड़न इत्यादि । घरेलू हिंसा अधिनियम केवल शादीशुदा महिलाओं के लिए नहीं बल्कि किसी भी महिला पर लागू होता है। बहनें, माता, भाभी, इत्यादि रिश्तों से जुडी महिलाएं भी इस अधिनियम के तहत पीड़ित महिला की परिभाषा में आती हैं| कोई भी महिला जो किसी भी पुरुष के साथ घरेलू सम्बन्ध में रहती हो या रह चुकी हो और घरेलू हिंसा का शिकार हो वो इस अधिनियम के तहत किसी भी समाधान या राहत की मांग कर सकती है।
          लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिला भी घरेलू हिंसा के खिलाफ इस अधिनियम के अंतर्गत अपने अधिकारों की मांग कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में डी. वेलुसामी बनाम डी. पत्चैअम्मल मामले में इस बात की पुष्टि की है। शिकायतकर्ता कौन हो सकता है ? घरेलू हिंसा की शिकायत का अधिकार केवल पीड़ित महिला को ही नहीं है। पीड़ित महिला की ओर से कोई भी व्यक्ति इसके खिलाफ शिकायत दर्ज करवा सकता है। पीड़ित महिला के अलावा उसका कोई भी रिश्तेदार, सामजिक कार्यकर्ता, NGO, पडोसी, इत्यादि भी महिला की ओर से शिकायत दर्ज करवा सकते हैं। शिकायत दर्ज करने के लिए यह ज़रूरी नहीं है की घरेलू हिंसा की घटना हो चुकी हो| अगर किसी को यह अंदेशा है की किसी महिला के ऊपर घरेलू हिंसा की जा सकती है तो इसकी भी शिकायत दर्ज करवाई जा सकती है। ये 2005 का महिला संरक्षण अधिनियम काफी कारगर रहा और काफी महिलाओं को सशक्त करने में सफल सिद्ध हुआ। कोरोना वायरस की वजह से अदालतें बंद हैं : परेशानी का सबब ये है की कोरोना की वजह से कोर्ट-अदालतें इत्यादि बंद हैं। दिन- प्रतिदिन सिर्फ ज़रुरत और अति-आवश्यक केसों की ही सुनवाई हो रही है। ऐसे में पीड़ित महिलाओं के ऊपर सबसे बड़ी मार पड़ी है इस महामारी से। चूंकि कानून रातों रात नहीं बन सकते और विधिक प्रक्रिया को समय लगता है ऐसे में क्या उपाय है ? कुछ तरीकें है जिनसे महिलाएं अपनी शिकायत दर्ज करा सकती हैं घर पर बैठकर ही : 1 - हेल्पलाइन / वुमन -इन- डिस्ट्रेस नंबर पर कॉल करके - 1091 /1090 2- वुमन हेल्पलाइन डोमेस्टिक एब्यूज / महिला हेल्पलाइन घरेलु हिंसा नंबर - 181 3- पुलिस को संपर्क करें - 100 4 - NCW / राष्ट्रीय महिला आयोग हेल्पलाइन नंबर- 011-26942369 ,26944754 इसके अलावा राष्ट्रीय महिला आयोग की वेबसाइट http://ncwapps.nic.in/onlinecomplaintsv2 / पर भी शिकायत दर्ज करवाई जा सकती है। इस वेबसाइट पर शिकायत पंजीकरण करने के साथ ही शिकायत की स्तिथि भी जांच सकते हैं| ईमेल है - complaintcell-ncw@nic.in स्पेन और फ्रांस ने जैसे नए कोड का इस्तेमाल किया कई ज़रूरतमंद महिलाओं को मदद मिली । ऐसे में चाहिए की सरकार इस बात को सुनिश्चित करें के जल्द से जल्द आर्डिनेंस पारित करके कोई बिल लाएं जिससे महिलाओं को मदद और सुरक्षा मिले। एक आल -इंडिया हॉटलाइन नंबर हो जिसमे महिलाएं अपनी कंप्लेंट फ़ोन के माध्यम से दर्ज़ करा सकें और उनकी लोकेशन के हिसाब से पुलिस और रेस्क्यू- टीम मदद करे । न्याय प्रक्रिया से जुड़े वकीलों को चाहिए की वह खुल कर लोगों की मदद करें - कंप्लेंट ड्राफ्ट करके कोर्ट तक पहुचाएं । कोर्ट इस बात की सुओ मोटो कॉग्नीज़न्स लेकर गाइडलाइन्स निर्धारित करे सिविल सोसाइटी , NGO इत्यादि सेन्सिटिज़ेशन , अवेयरनेस कैंपेन चलाएं ऑनलाइन माध्यम से। सबसे बड़ी बात है की आस-पड़ोस के लोग आँख-कान-प्रत्यक्ष -प्रमाण बनें और संदेह होने पर तुरंत अपने निकटतम थाने में इतल्ला करें। महिलाएं हिचकें ना और जिससे भी मदद ले पाएं, लें। जो भी महिलाएं फेसबुक , ट्विटर और सोशल मीडिया का इस्तेमाल करती हैं और मेल इत्यादि करना जानती हैं वो तुरंत अपने भरोसे के लोगों से या निकटतम अथॉरिटीज से संपर्क करें । 
         महिलाएं महिलाओं का साथ दें। चुप ना बैठें। संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य अंटोनिओ गुत्तरेस ने हाल ही में ट्वीट करके कहा की मुश्किल की ऐसी घडी में घर के अंदर जूझ रही महिलाओं की सुरक्षा करना सबसे आवश्यक है। उन्होंने अपील की है सारी सरकारों से की वे तुरंत प्रबंध करे ऐसी स्थितिओं से निबटने के लिए और महिलाओं की सुरक्षा हेतु उचित प्रबंध करने के लिए। अंत में माया एंग्लो का एक प्रसिद्ध उद्धहरण है जो उन्होंने अपनी किताब में लिखा था , यहाँ एकदम सटीक बैठता है : " वो हर एक बार जब एक औरत खुद के लिए खड़ी होती है जाने अनजाने , वो ना जाने कितनी और महिलाओं के लिए खड़ी होती है और सम्बल देती है " लेखक प्रज्ञा पारिजात सिंह सुप्रीम कोर्ट की वकील हैं और फ़िलहाल कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से LLM कर रही हैं।