Sunday, February 23, 2020

दीवालिया घोषित कम्पनी केखिलाफ NI Act की धारा 138के तहत कार्रवाही पर रोक लगाई जा सकती है

दिवालिया घोषित करने... ताजा खबरें दिवालिया घोषित करने वाली कंपनी के ख़िलाफ़ NI एक्ट की धारा 138 के तहत कार्रवाई पर रोक लगाई जा सकती है? 

             सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ ने अटर्नी जनरल को उस याचिका पर नोटिस भेजा है जिसमें नेगोशिएबल इंस्ट्रुमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत ख़ुद को दिवालिया घोषित करने वाली कंपनी के ख़िलाफ़ कार्रवाई पर रोक लगाने की मांग की गई है। बीएसआई लिमिटेड एवं अन्य बनाम गिफ़्ट होल्डिंग्स प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य के मामले पर भरोसा करते हुए याचिकाकर्ता कंपनी के वक़ील ने कहा कि चूंकि, राष्ट्रीय कंपनी क़ानून अधिकरण (एनसीएलटी) की चेन्नई की एक खंडपीठ ने 10 जुलाई 2017 को एक आदेश के द्वारा रोक लगा दी थी इसलिए धारा 138 के तहत जारी वैधानिक नोटिस पर रोक लग जाती है।          याचिकाकर्ता के वक़ील ने एनसीएलटी के आदेश को उद्धृत करते हुए कहा कि जब तक भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता कोड (Insolvency and Bankruptcy Code) की धारा 14 के तहत कोर्पोरेट इंसोलवेंसी रेज़लूशन प्रक्रिया पूरी नहीं कर ली जाती है, इन बातों पर रोक लगा दी जानी चाहिए। "
          (a) मामले की सुनवाई या लंबित मामले की सुनवाई या निगमित ऋण प्राप्तकर्ता के ख़िलाफ़ किसी क़ानूनी अदालत, अधिकरण, मध्यस्थता पैनल या अन्य अथॉरिटी में कोई कार्रवाई।
       (b) किसी निगमित क़र्ज़दार का अपनी किसी संपत्ति या क़ानूनी अधिकारों या उसमें लाभकारी हितों के स्थानांतरण, रोक, अलग करना या उसको निपटाना।
         (c) SARFAESI Act, 2002 सहित किसी निगमित क़र्ज़दार द्वारा अपनी परिसंपत्ति को लेकर किसी भी तरह की सेक्योरिटी इंट्रेस्ट पर रोक लगाने, उसकी रिकवरी को लेकर किसी तरह की कार्रवाई।
       (d) अगर कोई संपत्ति किसी कोर्पोरेट क़र्ज़दार के क़ब्ज़े में है तो उस संपत्ति की उसके मालिक या उसे किराए पर लगानेवाले द्वारा रिकवरी। उपरोक्त को देखते हुए याचिकाकर्ता कंपनी के वक़ील ने कहा कि चूँकि नेगोशिएबल इंस्ट्रुमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत शिकायत भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता कोड (Insolvency and Bankruptcy Code)की धारा 14 के तहत रोक लगाए जाने की सूचना के जारी होने के बाद दर्ज की गई थी, कंपनी चेक से उस राशि को नहीं चुका सकती थी। पीठ ने इस मामले पर ग़ौर करना उचित समझा कि क्या वाक़ई इस प्रक्रिया पर रोक लगाई जा सकती है कि नहीं और इसीलिए भारत के अटर्नी जनरल को इस बारे में नोटिस जारी किया। "जिस तरह की स्थिति बनी है, हमें अटर्नी जनरल को नोटिस जारी करना उचित लगा ताक वह अगले मौक़े पर कोई क़ानून अधिकारी अदालत की मदद कर सके।"
         याचिकाकर्ता कंपनी ने मद्रास हाईकोर्ट से भी इसी तरह की अपील की थी जहां न्यायमूर्ति जीके इलाथीरैयन ने याचिका ठुकरा दी थी। यह कहा गया कि Negotiable Instruments Act की धारा 138 एक पीनल प्रावधान है जो अदालत को यह अधिकार देता है कि वह जेल में डालने या जुर्माना लागाने का आदेश पास करे। अदालत ने कहा कि उपरोक्त प्रावधान से लगता है कि रोक के तहत आपराधिक प्रक्रिया नहीं आती है और इसलिए याचिकाकर्ता को Insolvency and Bankruptcy Code की धारा 14 के तहत संरक्षण नहीं मिल सकता। 

Friday, February 21, 2020

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कोर्ट मैरिज क्या है यह कैसे होती है जानिये

जानिए हमारा कानून/जानिए क्या होती है... जानिए हमारा कानून जानिए क्या होती है कोर्ट मैरिज और कैसे की जा सकती है 

       भारत में विवाह के लिए अलग-अलग धार्मिक समुदायों को अलग-अलग अधिकार और दायित्व दिए गए हैं। पर्सनल लॉ सभी धर्म के लोगों को अलग अलग उपलब्ध कराया गया है, जैसे हिंदुओं के लिए हिंदू विवाह अधिनियम 1955 एवं हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम तथा मुसलमानों के लिए शरियत का कानून है। यह कानून मुसलमानों की पर्सनल विधि का काम करता है, जैसे विवाह, उत्तराधिकार, तलाक, भरण पोषण दत्तक ग्रहण इत्यादि विषयों पर यह विधि होती है। 
       विवाह एक मानव अधिकार है कोई भी समुदाय या विधि विवाह करने से व्यक्ति को रोक नहीं सकती है। पर्सनल लॉ की विधियां बहुत सारे मामलों में व्यक्तियों में विभेद करती है तथा विवाह करने से रोकती है। 
      जैसे मुसलमानों पर लागू शरीयत का कानून केवल दो मुसलमानों से विवाह संबंधित है, परंतु कोई एक मुसलमान है और कोई एक अन्य धर्म से है तो यह कानून विवाह को मान्यता नहीं देता है। 
        1954 में भारत की संसद में एक क्रांतिकारी कदम उठाया है। एक ऐसा कानून पारित किया गया है, जिसके माध्यम से कोई भी दो लोग जो भिन्न धर्मों से आते है, भिन्न जाति से आते है तथा जिनके बीच में उम्र बंधन भी हो सकते हैं। वह व्यक्ति बगैर किसी बंधन के विवाह कर सकते हैं। 
       भारत का विधान इन व्यक्तियों को इस अधिनियम के अंतर्गत एक कोर्ट मैरिज का विकल्प उपलब्ध कराता है। विशेष विवाह अधिनियम 1954 इस विवाह अधिनियम को बनाने का उद्देश्य अंतरजाती एवं अंतर धार्मिक विवाह को मान्यता देना है। 
        कोई भी दो बालिग लोग यदि वह प्रतिषिद्ध नातेदारी के अंतर्गत नहीं आते है और वह किसी भी धर्म या पंथ यह जाति के हो यदि वापस में विवाह करना चाहते है तो भारत का यह उदार संविधान उन लोगों को विवाह करने की पूर्ण सहमति प्रदान करता है। यहां तक विवाह में किए जाने वाले किसी कर्मकांड को किए जाने की बाध्यता भी नहीं रखी गई है।
        विशेष विवाह अधिनियम 1954 के अंतर्गत विवाह करने के लिए शर्तें इस अधिनियम के अंतर्गत विवाह अनुष्ठान किये जाने के लिए कुछ शर्तें रखी गई है। कोई भी व्यक्ति जो भारत की सीमा के भीतर रह रहा है। यदि शर्तो को पूरा कर देता है तो विवाह कर सकता है। यह विवाह केवल एक स्त्री और पुरुष के बीच ही होगा, अभी इस अधिनियम के माध्यम से समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं मिली है वह स्त्री और पुरुष आपस में विवाह कर सकते हैं जो निम्न शर्तों को पूरा करते हैं--
          अधिनियम की धारा 4 के अनुसार, किसी भी पक्षकार की पूर्व पति और पत्नी जीवित नहीं होना चाहिए। इस शर्त का अर्थ यह है कि किसी भी पक्षकार की कोई पूर्व पति पूर्व पत्नी इस विवाह को अनुस्थापित करते समय जीवित नहीं होना चाहिए। यह धारा पति या पत्नी के होते हुए दूसरे विवाह को करने को रोकती है। इस शर्त को अधिनियम में रखे जाने का अर्थ यही है की कोई भी पक्षकार पति या पत्नी के जीवित होते हुए कोई दूसरा विवाह नहीं कर पाए। 
         किसी भी पक्षकार को बार-बार उन्मत्ता के दौरे नहीं आना चाहिए यदि कोई व्यक्ति मानसिक रूप से ठीक नहीं रहता है तथा उसको बार-बार मत्ता के दौरे आते हैं या ऐसे मानसिक रोग से पीड़ित है तो ऐसी स्थिति में वह पक्षकार इस अधिनियम के अंतर्गत विवाह नहीं कर पाएगा। 
        कोई भी पक्षकार मानसिक रूप से विकृत चित्त नहीं होना चाहिए यदि पक्षकार मानसिक रूप से विकृत चित्त है कोई भी निर्णय ले पाने में असमर्थ है ऐसे पक्षकारों को इस अधिनियम के अंतर्गत विवाह करने की मान्यता नहीं दी गई है।
        पक्षकार प्रतिषिद्ध नातेदारी के अंतर्गत नहीं होना चाहिए अधिनियम की अनुसूची में कुछ प्रतिषिद्ध नातेदारी बताई गई है। यह नातेदारी सामाजिक नैतिकता को ध्यान में रखते हुए प्रतिषिद्ध की गई है। 
        कोई पक्षकार यदि आपस में ऐसे नातेदार है जो समाज में ऐसे रिश्ते होते हैं जिन्हें पवित्र समझा जाता है तथा उन रिश्तो के आपस में संभोग किए जाने को अत्यंत बुरा काम समझा जाता है।इस नातेदारी को आपस में विवाह करने से इस अधिनियम के अंतर्गत रोका गया है। 
        विवाह अधिकारी अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत विवाह अधिकारी जैसा पद निर्मित किया गया है। 
      विवाह अधिकारी अपने पास आए विवाह के आवेदनों पर विचार करने के बाद पक्षकारों के विवाह अनुष्ठापित करवाने की जिम्मेदारी रखता है। यह अधिनियम की अत्यंत महत्वपूर्ण कड़ी है। ऐसे अधिकारी की नियुक्ति राज्य सरकार इस अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत राजपत्र में अधिसूचना के माध्यम से करती है। विवाह का पंजीकरण इस अधिनियम की विशेषता यह है कि इस अधिनियम के अंतर्गत दो पक्षकारों के बीच किए गए किसी वैध विवाह को राज्य सरकारों द्वारा रजिस्ट्रीकृत कर मान्यता प्रदान की जाती है,तथा एक प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया जाता है जो विवाह के अनुष्ठान के परिणामस्वरूप विवाह के पक्षकारों को दिया जाता है। व्यक्ति इस अधिनियम में विवाह को करने के लिए किसी भी तरह से विवाह का अनुष्ठान कर सकता है। जैसे कोई दो पक्षकार केवल एक दूसरे को माला डाल कर विवाह अनुष्ठापित कर सकता है। विवाह के पंजीकरण की प्रक्रिया यदि कोई दो पक्षकार इस अधिनियम के अंतर्गत अपना कोई विशेष विवाह पंजीकरण करवाना चाहते हैं तो अधिनियम के अंतर्गत ऐसे विवाह के रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया दी गई है। प्रक्रिया को अपनाकर कोई भी व्यक्ति अपने विवाह को रजिस्टर करवा सकते है। विवाह अधिकारी को लिखित सूचना देना अधिनियम की धारा 5 के अंतर्गत विवाह अधिकारी को एक लिखित सूचना देनी होती है। पक्षकार यदि एक माह तक किसी ऐसे जिले में रह रहे हैं जिसमें उन्हें विवाह अधिकारी को सूचना देनी है, तो उस जिले के विवाह अधिकारी को ऐसी लिखित सूचना किसी आवेदन के माध्यम से करेंगे तथा अधिकारी के समक्ष यह पक्षकार आपस में विवाह स्थापित करने की इच्छा रखेंगे तथा पक्षकार आवेदन में बताएंगे की हम यह विवाह आपसी सहमति एवं स्वतंत्र सहमति से कर रहे है।              विवाह सूचना का प्रकाशन अधिनियम की धारा 6 बताती है कि यदि किसी जिले के विवाह अधिकारी को विवाह के इच्छुक पक्षकारों से कोई आवेदन प्राप्त होता है तो ऐसे आवेदन प्राप्त होने के बाद विवाह की सूचना का प्रकाशन करेगा। इस प्रकाशन में वह विवाह की नियत की गई दिनांक लिखेगा तथा जनसाधारण से आपत्तियां मांगेगा तथा या मालूम करेगा कि कोई पक्षकार किसी अन्य व्यक्ति के अधिकारों का अतिक्रमण तो नहीं कर रहा है,या फिर विवाह प्रतिषिद्ध नातेदारी के अंतर्गत तो नहीं है।
             विवाह पर आपत्ति या लेना इस अधिनियम के अंतर्गत अनुष्ठापित किए जाने वाले विवाह पर कोई व्यक्ति जिसके अधिकारों का अतिक्रमण हो रहा है वह आपत्ति लेता है तो जिस दिन से विवाह की सूचना का प्रकाशन किया गया है। उस दिन से 30 दिन के भीतर कोई भी व्यक्ति इस तरह के विवाह पर आपत्ति ले सकता है। यदि वह आपत्ति लेता है तो जांच हेतु विवाह को रोक दिया जाता है। यदि कोई आपत्ति नहीं आती है तो विवाह अधिकारी विवाह को अनुष्ठापित करने के लिए नियत तारीख पर रख देता है। विवाह का अनुष्ठान तथा गवाह अधिनियम की धारा 11 के अंतर्गत इस विवाह को अनुष्ठान करने के लिए तीन साक्षी की आवश्यकता होती है।यह साक्षी विवाह में गवाह बनेंगे तथा इस विवाह की घोषणा अधिनियम में दिए गए प्रारूप के अंतर्गत करेंगे।पक्षकार जो तारीख विवाह अधिकारी द्वारा नियुक्त नियत की गई है उस तारीख को विवाह अनुष्ठापन करेंगे तथा जिस तरह की इच्छा से विवाह करना चाहते है उस तरह से विवाह कर सकेंगे। विवाह का प्रमाणपत्र इस अधिनियम के अंतर्गत यदि नियत तारीख को विवाह संपन्न कर दिया जाता है तो विवाह अधिकारी द्वारा एक प्रमाण पत्र विवाह के पक्षकारों को दे दिया जाता है तथा विवाह को विवाह अधिकारी अपने रजिस्टर में अंकित कर लेगा।इस रजिस्टर और इस प्रमाण पत्र पर तीन साक्षी होंगे उन तीन साक्षी की हस्ताक्षर होगी तथा यह विवाह इस प्रमाण पत्र के माध्यम से इस अधिनियम के अंतर्गत प्रमाणित हो जाएगा। 
             अन्य रूपों से अनुष्ठापित विवाह भी इस अधिनियम के अंतर्गत रजिस्टर हो सकते है इस अधिनियम के अंतर्गत केवल विशेष विवाहों को ही रजिस्ट्रीकृत नहीं किया जाता है अपितु ऐसे विवाहों को भी रजिस्टर कर कर दिया जाता है जो किसी अन्य रीति से हो गए हैं। पक्षकार चाहे तो वह अपना विवाह इस अधिनियम के अंतर्गत रजिस्टर करवा सकते हैं। इसके लिए एक आवेदन जिले के विवाह अधिकारी को देना होगा और जो नियत फीस तय की गई है उस फीस को जमा करना होगा।
            विवाह अधिकारी इस अधिनियम के अंतर्गत उन पक्षकारों को विवाह का प्रमाण पत्र प्रस्तुत कर देगा। यदि विवाह इस अधिनियम के अंतर्गत रजिस्टर हो गया तो उत्तराधिकार भी भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के अंतर्गत लागू होंगे, पर यदि हिंदू सिख बौद्ध जैन का विवाह हिंदू सिख बौद्ध जैन इत्यादि से होता है तो ऐसी परिस्थिति में उत्तराधिकार उनकी पर्सनल लॉ का ही लागू होगा पर तलाक और भरण पोषण की विधि विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत लागू होगी।
           कोई दो पक्षकारों का विवाह मुस्लिम विवाह की पद्धति से हुआ है और अगर वह पक्षकार इस अधिनियम के अंतर्गत अपने विवाह को रजिस्टर करवाना चाहते हैं तो यह अधिनियम उन्हें ऐसे विवाह के रजिस्ट्रीकरण के लिए आज्ञा देता है। विवाह विच्छेद एवं विवाह शून्यकरण एवं शून्य विवाह इस अधिनियम के अंतर्गत यदि कोई विवाह प्रमाणित करवाया गया है तो ऐसे विवाह का शून्यकरण, ऐसे विवाह को शून्य घोषित किया जाना तथा इस विवाह के पक्षकारों को विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त किए जाने की अर्जी जिला न्यायालय में इस अधिनियम के अंतर्गत ही दी जाएगी। 
          यदि विवाह इस अधिनियम के अंतर्गत हो रहा है तो तलाक भी इस अधिनियम के अंतर्गत ही होगा। इस अधिनियम के अंतर्गत तलाक लेने की प्रक्रिया अधिनियम की धारा 24 से लेकर 30 तक दी गई है। इन धाराओं में किन प्रक्रियाओं से तलाक लिया जाएगा और किन प्रक्रियाओं के अंतर्गत किसी विवाह को शून्य घोषित करवाया जा सकेगा। 
          विवाह विच्छेद की डिक्री जिला न्यायालय द्वारा प्रदान की जाएगी या फिर विवाह को शून्य घोषित करना, जिला न्यायालय द्वारा किया जाएगा।शून्यकरण की डिक्री जिला न्यायालय द्वारा ही दी जाएगी।अब भले आपसी सहमति से तलाक की डिक्री क्यों नहीं हो। विवाह के प्रमाण पत्र से 1 वर्ष के भीतर तलाक नहीं लिया जा सकता कोई भी पक्षकार विवाह की दिनांक से 1 वर्ष के भीतर इस अधिनियम के अंतर्गत विवाह विच्छेद के लिए कोई ऐसी अर्जी जिला न्यायालय में नहीं दे सकेगा। एक वर्ष के बाद ही विवाह विच्छेद के लिए कोई अर्जी जिला न्यायालय में दी जा सकेगी, परंतु यदि संकट अधिक है और तलाक नितांत जरूरी है तो ऐसी परिस्थिति में यदि जिला न्यायाधीश को यह संतोष हो जाए की अर्ज़ी स्वीकार करना अत्यंत आवश्यक है तो ही अर्ज़ी को स्वीकार किया जाएगा। तलाक की अर्जी किस जिले में दी जाएगी पक्षकार तलाक की अर्जी निम्न चार जगहों पर प्रस्तुत कर सकते है।
          जिले में जहां विवाह अनुष्ठापित किया गया है, विवाह का प्रमाण पत्र जिस जिले के विवाह अधिकारी से प्राप्त किया गया है,उस जिले के जिला न्यायालय में तलाक की अर्जी लगाई जा सकती है। जिस जिले में पक्षकार अंतिम समय रहे थे उस जिले में भी तलाक की अर्जी लगाई जा सकती जिस जिले मैं प्रत्यार्थी रह रहा है उस जिले में भी तलाक की अर्जी लगाई जा सकती है। 
         यदि तलाक की अर्जी स्त्री द्वारा लगाई जा रही है तो वहां अर्जी लगाते समय जिस जिले में रह रही है उस जिले में अर्जी लगा सकती है। यदि कोई दो मुस्लिम आपस में विवाह करते हैं और विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत अपने विवाह को रजिस्टर करवाते हैं तो ऐसी परिस्थिति में उन दोनों पर मुस्लिम विवाह के बाद मुस्लिम उत्तराधिकार, तलाक, भरण पोषण के नियम नहीं बल्कि विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत बताया गया भरण-पोषण और तलाक की विधि लागू होगी। 
       यदि व्यक्ति पर्सनल लॉ के किन्हीं नियमों से संतुष्ट नहीं है तो वह विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत भी अपना विवाह रजिस्टर करवा सकता है।

Wednesday, February 19, 2020

घरेलू हिंसा कानून पर सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख फैसले

 घरेलू हिंसा कानून पर सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख फैसले 

 28 Nov 2019 7:22 PM


           महिलाओं की सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005, 26 अक्टूबर 2006 को लागू किया गया था। अधिनियम का उद्देश्य "परिवार के भीतर किसी भी तरह की हिंसा की शिकार महिलाओं को संविधान के तहत प्रत्याभूत अधिकारों को अधिक प्रभावी संरक्षण प्रदान करना" है। 
        अशोक कीनी महिलाओं की सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005, 26 अक्टूबर 2006 को लागू किया गया था। अधिनियम का उद्देश्य "परिवार के भीतर किसी भी तरह की हिंसा की शिकार महिलाओं को संविधान के तहत प्रत्याभूत अधिकारों को अधिक प्रभावी संरक्षण प्रदान करना" है।           
       सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून के क्रियान्वयन में कुछ महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किए हैं और व्याख्याएं दी हैं। इस आलेख में इस अधिनियम के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के लगभग सभी फैसलों को शामिल किया गया है। साझा घरेलू और वैकल्पिक आवास [एसआर बत्रा बनाम तरुणा बत्रा (2006)] घरेलू हिंसा अधिनियम के लागू होने के लगभग दो महीने बाद, सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में अधिनियम के कुछ प्रावधानों की व्याख्या की थी। इस मामले में, अदालत ने पत्नी की ओर से से दिए निवेदन का निस्तारण किया था कि साझा घर की परिभाषा में एक ऐसा घर शामिल है, जहां पीड़ित व्यक्ति रहता हो अथवा जीवन की किसी अवस्था में घरेलू रिश्तों में रह चुका हो। अदालत ने धारा 17 (1), धारा 2 (एस) का हवाला देते हुए कहा कि पत्नी केवल साझा घर में निवास के अधिकार का दावा करने की हकदार है और एक `साझा घर 'का मतलब केवल उस घर से है या लिया जाता है जो पति द्वारा किराए पर लिया गया हो या उसी का हो, या वह घर जो संयुक्त परिवार से संबंधित हों, जिसमें पति भी एक सदस्य हो। इसके अलावा, धारा 19 (1) (एफ) की व्याख्या करते हुए, जस्टिस एसबी सिन्हा और जस्‍टिस मार्कंडेय काटजू की बेंच ने कहा कि           वैकल्पिक आवास के लिए केवल पति के खिलाफ ही दावा सकता है, न कि पति के ससुराल वालों या अन्य रिश्तेदारों के खिलाफ। इस मामले के तथ्यों में माना गया है कि        पत्नी अपनी सास की संप‌त्त‌ि में आवास के अधिकार का दावा नहीं कर सकती है। 
           'विवाह की प्रकृति के संबंध' की आवश्यकताएं [डीवेलुसामी बनाम डी पच्चीमाला (2010)] इस मामले में अदालत ने कहा कि अधिनियम की धारा 2 (एफ) में 'घरेलू संबंध' की परिभाषा में न केवल विवाह के संबंध, बल्कि 'विवाह की प्रकृति' के संबंध भी शामिल हैं।'विवाह की प्रकृति के संबंध' को घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत परिभाषित नहीं किया गया है, बेंच ने इसका अर्थ समझाया है। जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस टीएस ठाकुर की पीठ ने कहा कि सभी लिव-इन रिश्‍ते 'विवाह की प्रकृति के संबंध' नहीं होंगे, उन्हें नीचे दी गई आवश्यकताओं (सामान्य कानून विवाह की आवश्यकताओं) को पूरा करना होगा और इसके अलावा दोनों पक्षों को एक साथ 'साझा घर' में रहना चाहिए। 
   1-जोड़े को खुद को समाज में जीवनसाथी के रूप में पेश करना चा‌हिए।   
   2-उन्हें शादी करने की कानूनी उम्र का होना चाहिए 
   3-उन्हें अविवाहित होने सहित अन्य प्रकार से कानूनी विवाह में प्रवेश करने योग्य होना चाहिए।
   4 -उन्होंने स्वेच्छा से सहवास किया और पर्याप्त अवधि के लिए जीवनसाथी के रूप में खुद को दुनिया के         
       समक्ष  पेश किया हो।
  5-आगे कहा गया था कि केवल वीकेंड एक साथ बिताना या वन नाइट स्टैंट 'घरेलू संबंध' की श्रेणी में नहीं आ पाएगा। 
         अगर किसी व्यक्ति के पास एक 'रखैल' होती है, जिसे वह वित्तीय रूप से भरण-पोषण देता है और मुख्य रूप से यौन उद्देश्य के लिए प्रयोग करना है और/या एक नौकर के रूप में उपयोग करता है, तो ये संबंध शादी की प्रकृति में संबंध नहीं गिने जाएंगे।'
      महिला रिश्तेदारों के खिलाफ शिकायत दर्ज की जा सकती है [संध्या मनोज वानखड़े बनाम मनोज भीमराव वानखड़े (2011)] अधिनियम की धारा 2 (q) में वाक्यांश "प्रतिवादी" की व्याख्या करते हुए अदालत ने कहा कि पति या पुरुष साथी की महिला रिश्तेदारों को शिकायत के दायरे से बाहर नहीं रखा गया है। यह माना गया था कि विवाह की प्रकृति के रिश्ते में रहने वाली एक पीड़ित पत्नी या महिला, पति या पुरुष साथी के किसी रिश्तेदार के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकती है। जस्टिस अल्तमस कबीर और स‌ीरियाक जोसेफ की पीठ ने कहा था: "उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट है कि यद्यपि धारा 2 (q) प्रतिवादी को किसी भी वयस्क पुरुष के रूप में परिभाषित करती है, जो कि पीड़ित व्यक्ति के साथ घरेलू संबंध में है या रह चुका है, ये शर्त पति या पुरुष साथी के रिश्तेदार को श‌िकायत के दायरे में शामिल कर, जो विवाह की प्रकृति के रिश्ते में रहने वाली पीड़‌ित पत्नी या महिला ने दर्ज कराई है, उक्त परिभाषा के दायरे को बड़ा करती है। 
        "यह सच है कि शब्द " महिला " धारा 2 (q) की शर्त में इस्तेमाल भी नहीं किया गया है, लेकिन दूसरी ओर, यदि विधानमंडल का इरादा महिलाओं को शिकायत के दायरे से बाहर करने का है, जो एक पीड़ित पत्नी द्वारा दायर किया जा सकता है, तो महिलाओं को विशेष रूप से बाहर रखा जाएगा, इसके बजाय शर्त में यह दिया जा रहा है कि पति या पुरुष साथी के किसी रिश्तेदार के खिलाफ भी शिकायत दर्ज की जा सकती है। "रिश्तेदार" शब्द के लिए कोई प्रतिबंधात्मक अर्थ नहीं दिया गया है, न ही उक्त शब्द को घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 में केवल पुरुषों तक सीमित करने के लिए परिभाषित किया गया है...ऐसी परिस्थितियों में, यह स्पष्ट है कि घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के प्रावधानों के तहत की जा सकने वाली शिकायत के दायरे से पति या पुरुष साथी की महिला रिश्तेदारों को बाहर करने का विधायिका का इरादा कभी नहीं था।"
          हिंसा अधिनियम लागू होने से पहले पार्टियों का संचालन [वीडी भनोट बनाम सविता भनोट (2012)] इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा कि घरेलू हिंसा अधिनियम के लागू होने से पहले से भी पक्षों के आचरण को धारा 18, 19 और 20 के तहत आदेश पारित करते समय ध्यान में रखा जा सकता है। यहां तक कि अगर एक पत्नी, जो अतीत में एक ही घर में रह चुकी है, अब साथ नहीं रहती, जब अधिनियम लागू हुआ, तब वह अधिनियम के संरक्षण की हकदार होगी। मामले में फैसला देने वाली बेंच में जस्टिस अल्तमस कबीर और जस्टिस जे चेलमेश्वर शामिल थे।
            जानें कि लिव इन रिलेशनशिप विवाह की प्रकृति का है [इंद्र सरमा बनाम वीकेवी सरमा (2013)] क्या "लिव-इन रिलेशनशिप" डीवी अधिनियम की धारा 2 (एफ) के तहत "घरेलू संबंध" की परिभाषा के तहत "विवाह की प्रकृति के संबंध" जैसा होगा और ऐसे संबंध में शामिल महिला के रखरखाव में विफल रहने पर संबध विच्छेद हाने को डीवी अधिनियम की धारा 3 के अर्थ में "घरेलू हिंसा" की श्रेणी में रखा जाएगा? सुप्रीम कोर्ट ने उक्त मामले में इसी मुद्दे पर विचार किया था। जस्टिस केएस राधाकृष्णन और ज‌स्ट‌िस प‌िनाकी चन्द्र घोष की बेंच ने इस मसले पर विस्तृत चर्चा के बाद, किन परिस्थितियों में लिव-इन रिलेशनशिप "विवाह की प्रकृति में संबंध" के अंतर्गत आएगा, के परीक्षण के लिए दिशानिर्देश तय किए। -संबंध की अवधि- डीवी अधिनियम की धारा 2 (एफ) ने "किसी भी समय" वाक्यांश का उपयोग किया है, जिसका अर्थ है एक संबंध को बनाए रखने और जारी रखने के लिए समय की उचित अवधि जो अलग-अलग मामले में भिन्न हो सकती है, जो हालात पर निर्भर है -साझा घर- इसे डीवी एक्ट की धारा 2 (एस) के तहत परिभाषित किया गया है और इसलिए, आगे विस्तार की आवश्यकता नहीं है। -संसाधनों और वित्तीय व्यवस्थाओं की पूलिंग- एक दूसरे का सहयोग करना, या उनमें से किसी एक का, वित्तीय रूप से, बैंक खातों को साझा करना, दोनों के नाम या महिला के नाम पर अचल संपत्तियों को अर्जित करना, व्यापार में दीर्घकालिक निवेश, अलग और संयुक्त नामों में शेयर ताकि लंबे समय तक संबंध बना रहे, ये सभी कारक हो सकते हैं। -घरेलू व्यवस्था- जिम्मेदारी सौंपना, विशेष रूप से लिए महिला को घर चालाने की, घर की सफाई, खाना बनाना, घर की देखरेख या रख-रखाव जैसी गतिविधियां करना आदि, विवाह की प्रकृति के संबंध का संकेत हैं। -यौन संबंध- विवाह जैसे संबंध यौन संबंध को संद‌र्भित करते हैं, नकि केवल आनंद के लिए, बल्‍कि भावनात्मक और अंतरंग संबंध के लिए, बच्चों के जन्म के लिए, ताकि भावनात्मक सहयोग, सहवास, भौतिक स्नेह, देखभाल आदि हो सके। -बच्चे- बच्चे पैदा करना शादी की प्रकृति के रिश्ते का एक मजबूत संकेत है। इसलिए, पक्ष ‌दीर्घजीवी संबंध बनाने का इरादा रखते हैं। बच्‍चों के पालनपोषण के लिए की जिम्‍मेदारी साझा करना और उनका सहयोग करना भी एक मजबूत संकेत है। सार्वजनिक स्तर पर सामाजीकरण- सार्वजनिक स्तर पति-पत्नी के रूप में पेश आना, दोस्तों, संबंध‌ियों और अन्य लोगों के साथ ऐसे उठना-बैठना, जैसे कि वे पति-पत्नी हैं, ऐसे विवाह की प्रकृति के संबंध रखना एक मजबूत परि‌‌स्थिति है। पक्षों का इरादा और आचरण- पार्टियों का सामान्य इरादा कि उनका रिश्ता क्या है और इसमें शामिल होना है, और उनकी संबंधित भूमिकाएं और जिम्मेदारियों के रूप, मुख्य रूप से उस रिश्ते की प्रकृति को निर्धारित करते हैं। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें शिकायत में सभी को प्रतिवादी बनाने की पदावनत प्रवृत्ति [आशीष दीक्षित बनाम यूपी राज्य (2013)] इस मामले में, पीड़ित पत्नी ने अपने पति और उसके सास-ससुर सहित पर‌िवार के सभी सदस्यों को डीवी एक्ट के तहत दायर शिकायत में प्रतिवादी बनाया था। जस्टिस एचएल दत्तू और चंद्रमौली कुमार प्रसाद ने पति और माता-पिता को छोड़कर सभी प्रतिवादियों के खिलाफ शिकायत को खारिज कर दिया। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें
             कोर्ट को डीवी एक्ट के तहत पार‌ित रखरखाव आदेश में हस्तक्षेप करने वाले अंतरिम आदेशों को पारित करने में धीमा होना चाहिए [शालू ओझा बनाम प्रशांत ओझा (2014)] इस मामले में, मजिस्ट्रेट ने पति को प्रति माह दो लाख के रुपए रखरखाव का भुगतान करने का आदेश दिया। पति ने सत्र न्यायालय के समक्ष आदेश का प्रतिवाद किया, जिसने अंततः अपील को खारिज कर दिया क्योंकि उसने सशर्त आदेश का पालन नहीं किया था। मामले में रखरखाव देने के आदेश में उच्च न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप किया गया, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उस पर प्रतिवाद किया गया। ज‌‌स्टिस चेलमेश्वर और ज‌‌स्टिस एके सीकरी की सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए बने कानून के तहत उत्पन्न मामले में, उच्च न्यायालय को ऐसे आदेश, जिसके द्वारा अपीलकर्ता को रखरखाव प्रदान किया जाता है, में हस्तक्षेप करने के लिए, अंतरिम आदेश देने में धीमी गति से दखल देना चाहिए, जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें 
            न्यायिक विच्छेद के बाद भी पत्नी ' पीड़ित व्यक्ति' हो सकती है [कृष्णा भट्टाचार्जी बनाम सारथी चौधरी (2015)] यह कहा गया कि केवल इसलिए कि न्यायिक विच्छेद का आदेश पारित किया चुका है, पत्नी का घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत 'पीड़ित व्यक्ति' का दर्जा खत्म नहीं हो जाता है। जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस प्रफुल्ल सी पंत की पीठ ने कहा कि एक बार तलाक का आदेश पारित हो जाने के बाद, पार्टियों की स्थिति अलग हो जाती है, लेकिन न्यायिक विच्छेद के आदेश में ऐसा नहीं है। अदालत कहा कि निचली अदालत में के आदेश में कहा गया है‌ कि चूंकि दोंनों पक्षों को न्यायिक विच्छेद हो चुका है, इसलिए पत्नी को "पीड़ित व्यक्ति" का दर्जा नहीं दिया जा सकता,, स्वीकार किए जा ने योग्य नहीं है। जजमेंट को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें
             न्यायालय घरेलू हिंसा की शिकायतों के संशोधन की अनुमति देने में असमर्थ नहीं है [कुनापारेड्डी @ नुक्कला शंका बालाजी बनाम कुनपारेड्डी स्वर्ण कुमारी (2016)] इस मामले में, न्यायालय ने माना कि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के तहत दायर शिकायतों या याचिकाओं के संशोधन की अनुमति दी जा सकती है। यदि शिकायत/आवेदन आदि को संशोधित करने की शक्ति पूर्वोक्त प्रावधान में नहीं पढ़ी जाती है, तो वो उद्देश्य अधिनियम स्वयं जिसकी सेवा का प्रयास करता है, वो कई मामलों में पराजित हो सकता है। जस्टिस एके सीकरी और जस्टिस आरके अग्रवाल की बेंच ने ये फैसला दिया। जजमेंट को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें
         असफल तलाक की कार्यवाही डीवी एक्ट के तहत दायर आवेदन की रखरखाव को प्रतिकूल तरीके से प्रभावित नहीं कर सकती है [राकेश नागरदास दुबल शाहा बनाम मीना प्रकाश दुबल शाहा (2016)] सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में कहा कि, असफल तलाक की कार्यवाही, अधिनियम के तहत प्रतियोगी प्रतिवादियों द्वारा दायर आवेदन की स्थिरता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित नहीं कर सकती है। सत्र न्यायालय ने मामले में इस आधार पर आवेदन को बरकरार नहीं रखा था कि चूंकि पति पत्नी ने पहले से ही तलाक की कार्यवाही शुरू की थी, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम बाद में लागू हुआ। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति शिवा कीर्ति सिंह की पीठ ने उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा, जिसने सत्र न्यायालय के आदेश को अलग रखा था। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें 
           डीवी एक्ट के तहत नाबालिगों, महिलाओं के लिए राहत नहीं मांगी जा सकती है [हीरालाल पी हरसोरा बनाम कुसुम नरोत्तमदास हरसोरा (2016)] सुप्रीम कोर्ट ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 2 (क्यू) में "व्यक्ति" शब्द से पहले "वयस्क पुरुष" शब्द को समाप्त कर दिय, जिसमें कहा गया था कि ये शब्द समान रूप से स्थित व्यक्तियों के बीच भेदभाव करते हैं, और अधिनियम द्वारा अपेक्षित उद्देश्यों के विपरीत हैं। जस्टिस कुरियन जोसेफ और जस्टिस आरएफ नरीमन की बेंच ने कहा कि अगर "प्रतिवादी" को केवल एक वयस्क पुरुष व्यक्ति के रूप में पढ़ा जाना है तो यह स्पष्ट है कि जो महिलाएं पीड़ित व्यक्ति को अलग करती हैं या घर से बाहर निकालती हैं, वे इसके दायरे में नहीं आती हैं, और यदि है तो अधिनियम के उद्देश्‍य को एक वयस्क पुरुष व्यक्ति द्वारा खुद सामने ने आकर किसी महिला को समाने करके प‌ीड़‌ित व्यक्ति को घर से बाहर किया जा सकता है या अलग किया जा सकता है और इस प्रकार अधिनियम के उद्देश्यों का आसानी से हराया जा सकता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि यह भी संभव है कि एक गैर-वयस्क 16 या 17 वर्ष की आयु का सदस्य, घरेलू हिंसा के कृत्यों सहायता या पालन कर सकता है या जो पीड़ित को साझा घर से बाहर निकालने या बेदखल करने मदद कर सकता है या कर सकता है। जजमेंट को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें 
           एक पक्ष को 'साझे घर' का कब्जा देने के लिए 'घरेलू आवश्यक है [मनमोहन अटावर बनाम नीलम मनमोहन अटावर (2017)] इस मामले में, यह देखा गया कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत एक पार्टी को एक घर पर कब्जा करने की अनुमति देने के ‌लिए एक आदेश जारी करने के लिए, यह आवश्यक है कि दोनों पक्षों में घरेलू संबंध में रहते हों। जस्टिस आरएफ नरीमन और जस्टिस संजय किशन कौल की खंडपीठ ने कहा कि डीवी एक्ट की धारा 2 (एफ) के तहत परिभाषित "घरेलू संबंध" दो व्यक्तियों को संदर्भित करता है जो एक "साझा घर" में एक साथ रहते हैं, जो डीवी एक्ट की धारा 2S के तहत परिभाषित है। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें 
           लाइव-इन पार्टनर घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों के तहत रखरखाव की मांग कर सकते हैं [ललिता टोप्पो बनाम झारखंड राज्य (2018)] इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक लिव-इन पार्टनर घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 से महिलाओं की सुरक्षा के प्रावधानों के तहत रखरखाव की मांग कर सकता है। तीन न्यायाधीशों की पीठ ने एक दो न्यायाधीश की पीठ के संदर्भ पर विचार करते हुए, जिसमें सीआरपीसी की धारा पर 125 के दायरे और लिव इन रिश्तों पर बात की गई थी। दो न्यायाधीशों की पीठ ने झारखंड उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ एक अपील पर विचार करते हुए इस मामले को रिफर किया था, उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 उस महिला को रखरखाव का अनुदान प्रदान नहीं करता है, जिसने कानूनी रूप से उस व्यक्ति के साथ शादी नहीं की, ‌जिससे रखरखाव की मांग की गई है। घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों का उल्लेख करते हुए, पीठ ने कहा कि अधिनियम याचिकाकर्ता द्वारा इस मामले में रखरखाव की मांग करने के लिए एक प्रभावशाली उपाय होगा, तब भी जबकि कि वह कानूनी रूप से पत्नी नहीं है और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत रखरखाव की हकदार नहीं हैं। यह भी कहा गया कि अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार आर्थिक दुरुपयोग भी घरेलू हिंसा में शामिल है। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें 
        देवर को डीवी एक्ट के तहत विधवा को रखरखाव का भुगतान करने का आदेश [अजय कुमार बनाम लता@ शारुती (2019)] इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने DV एक्‍ट के तहत पारित एक आदेश को, जिसमें एक विधवा को रखरखाव का भुगतान करने के लिए एक देवर को निर्देश दिया गया था, बरकरार रखा। महिला और उसका मृतक पति एक ऐसे घर में रहते थे, जो पैतृक हिंदू संयुक्त परिवार की संपत्ति की श्रेणी में आता था। मृतक पति और भाई संयुक्त रूप से एक किरयाना दुकान का व्यवसाय करते थे। महिला ने घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत एक शिकायत दर्ज की, जिसमें आरोप लगाया गया कि पति की मृत्यु के बाद उसे और उसके बच्चे को अपने वैवाहिक घर में नहीं रहने दिया गया। ट्रायल कोर्ट ने एक अंतरिम आदेश पारित किया जिसमें महिला को 4,000 रुपए और बच्चे को 2,000 रुपए मासिक की सहायता प्रदान की गई। देवर को उक्त राशि का भुगतान करने के लिए निर्देशित किया गया था। देवर की इस दलील को खारिज कर दिया गया कि उसके खिलाफ भरण-पोषण का आदेश पारित करने का कोई प्रावधान नहीं है। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस हेमंत गुप्ता की खंडपीठ ने कहा कि धारा 2 (क्यू) का मूल भाग यह दर्शाता है कि ''प्रतिवादी" का अर्थ किसी भी वयस्क पुरुष व्यक्ति से है, जो पीड़ित व्यक्ति के साथ घरेलू संबंध में है या रहा है और जिसके खिलाफ मदद मांगी गई है।" जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें 

Sunday, February 16, 2020

जानिये दंड न्यायालय के दंड देने की शक्तियां और पद


 जानिए दंड न्यायालय के दंड देने की शक्तियां और पद 

17Feb 2020 9:30

     किसी समय राजा ही विधि का निर्माण करता था तथा राजा ही व्यक्तियों को अभियोजित करता था। राजा ही न्यायाधीश का काम करता था। 
      लोकतांत्रिक व्यवस्था के आने के बाद न्याय के कार्य न्यायपालिका को प्राप्त हो गए तथा राज्य ने विधि के माध्यम से न्यायपालिका को दोषियों को दंड देने हेतु सशक्त किया। न्यायपालिका के भीतर अलग अलग दंड न्यायालय होते हैं तथा इन दंड न्यायालयों को शक्तियां दी गई हैं। यह लोगों के अपराध में विचारण कर सकते हैं तथा इन व्यक्तियों को उस विचारण के परिणामस्वरूप दंड भी दे सकते हैं। 
      दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 5 के अंतर्गत यह बताने का प्रयास किया गया है कि दंड देने की शक्ति किसी मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश को प्राप्त नहीं होती है अपितु शक्तियां न्यायालय को प्राप्त होती हैं तथा न्यायालय किसी व्यक्ति का विचारण करता है और उसे दंडादेश सुनाता है। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अंतर्गत न्यायालयों को शक्तियां दी गई हैं एवं अध्याय 3 में इसका उल्लेख किया गया है। इस लेख के माध्यम से हम न्यायालयों की कुछ शक्तियों को समझने का प्रयास करेंगे कौन से न्यायालय किसी अपराध का विचारण कर सकते हैं 
    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 26 के अंतर्गत न्यायालय का उल्लेख किया गया है जो किसी अपराध का विचारण करते हैं तथा भारत में किसी अपराध के संबंध में विचारण करने की शक्ति इन्हें प्राप्त है। यह अधिनियम की इस धारा के माध्यम से बताने का प्रयास किया गया है। इस धारा के अंतर्गत निम्न न्यायालयों को किसी भी अपराध में विचारण करने की शक्ति प्राप्त होंगी 
                    उच्च न्यायालय (हाईकोर्ट)          सत्र न्यायालय (सेशन कोर्ट)          वह न्यायालय जिसका उल्लेख      प्रथम अनुसूची में किया गया है 'बलात्कार के मामले में केवल स्त्री पीठासीन अधिकारी ही मामले का विचारण कर सकती है' यदि कोई विशेष विधि है और उस विशेष विधि के अंतर्गत किसी मामले का विचारण करने के लिए किसी न्यायालय को शक्तियां दी गई है तो उस विशेष न्यायालय द्वारा मामले का विचारण कर लिया जाएगा यदि उस विशेष विधि में यह उल्लेखित नहीं किया गया है कि किस न्यायालय द्वारा मामले का विचारण किया जाएगा तो ऐसी परिस्थिति में- उच्च न्यायालय ऐसा न्यायालय जिसका उल्लेख प्रथम अनुसूची में किया गया है। 

     दंड प्रक्रिया संहिता में प्रथम अनुसूची में भारतीय दंड संहिता के अपराधों का उल्लेख है तथा इस अनुसूची में कौन से अपराध     संज्ञेय      हैं और कौन से अपराध     असंज्ञेय    हैं, अपराध जमानती होंगे या अजमानतीय होंगे तथा कौन से न्यायालय द्वारा विचारण होगा, इसका उल्लेख किया गया है। 
      सुधीर बनाम मध्यप्रदेश राज्य एआईआर 2001 उच्चतम न्यायालय 825 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां एक ही घटना से संबंधित दो मामले हो जिनमें एक की सुनवाई की अधिकारिता सेशन कोर्ट को हो तथा दूसरे की मजिस्ट्रेट को तो ऐसी दशा में उन दोनों ही मामलों की सुनवाई सेशन कोर्ट द्वारा की जा सकती है तथा मजिस्ट्रेट द्वारा विचारण योग्य मामलों को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को अंतरित किया जाना आवश्यक नहीं है। इस धारा में कहीं भी विचारण के संबंध में उच्चतम न्यायालय का नाम नहीं आता है।
      किसी भी विचारण को उच्च न्यायालय नहीं करता। अपराधों का विचारण दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत केवल इन्हीं न्यायालय द्वारा किया जाता है। 
       किशोरों के मामले को सुनने की अधिकारिता किस न्यायालय की होगी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 27 के अंतर्गत यह उल्लेख किया गया है कि किशोरों के मामले में कौन से न्यायालयों को विचारण करने की अधिकारिता होगी। 
     जिस व्यक्ति को न्यायालय में हाजिर किया गया है, यदि उसकी आयु न्यायालय में हाजिर करते समय 16 वर्ष से कम है तो मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा या फिर किसी ऐसे न्यायालय द्वारा जिसे बाल अधिनियम 1960 और किशोर अपराधियों के उपचार प्रशिक्षण में पुनर्वास के लिए उपबंध करने वाली तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन विशेष रूप से सशक्त किया गया हो, वह मामले की सुनवाई करेगा। बालकों के मामले में पृथक से बाल न्यायालय होते हैं। अगर बाल न्यायालय नहीं हैं तो ऐसी परिस्थिति में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा बालकों का विचारण किया जाता है। इस धारा का उपयोग केवल तब किया जा सकता है जब न्यायालय में उपस्थित किए गए व्यक्ति की उम्र 16 वर्ष से कम होगी परंतु उनके द्वारा किया गया अपराध मृत्युदंड या आजीवन कारावास से दंडनीय नहीं होना चाहिए। ----रघुवीर बनाम हरियाणा राज्य एआईआर 1981 एस सी 2037 के मामले में सत्र न्यायालय द्वारा एक बाल अभियुक्त को तीन अन्य व्यक्तियों के साथ भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अधीन अभियोजित कर उसे उक्त अपराध के लिए सिद्धदोष किया गया। किंतु सुप्रीम कोर्ट ने संहिता की धारा 27 के अनुसरण में कथित अपराध के विचारण को रद्द करते हुए उक्त विचारण को हरियाणा बाल अधिनियम 1974 के अधीन किए जाने के निर्देश दिए। प्रताप सिंह बनाम झारखंड राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय निर्णय दिया कि जहां मजिस्ट्रेट को यह पता है कि अभियुक्त किशोर आयु का है अर्थात 18 साल से कम आयु का है, लड़का लड़की कुछ भी हो तो सबसे पहले अपराध की तारीख को अभियुक्त की निश्चित आयु क्या थी, इसका निर्धारण करना चाहिए। जन्म- मृत रजिस्टर में दर्ज तारीख,स्कूल रजिस्टर में लिखी तारीख विश्वसनीय आधार माना जाएगा। अभियुक्त को स्वयं को किशोर आयु का सिद्ध करने की भार नहीं होता है। अपितु मजिस्ट्रेट ही अभिनिर्धारित करता है कि अभियुक्त किशोर आयु का है या नहीं। 

          उच्च न्यायालय और सत्र न्यायालय क्या दंड दे सकते हैं यह सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि उच्च न्यायालय एवं सत्र न्यायालय क्या दंड दे सकेंगे और कितनी कितनी अवधि के दंड दिए जाने की शक्ति इन दोनों न्यायालयों को प्राप्त है। इस प्रश्न का उत्तर हमें दंड प्रक्रिया संहिता की-- धारा 28 में प्राप्त होता है, जहां यह बताया गया है कि उच्च न्यायालय एवं सत्र न्यायालय क्या दंड दे सकेंगे एवं दंड देने में इन दोनों न्यायालय को क्या शक्तियां प्राप्त है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 28 के अंतर्गत मुख्य तीन न्यायालयों का उल्लेख किया गया है जिनके द्वारा दंड दिया जाता है। उच्च न्यायालय उच्च न्यायालय विधि द्वारा प्राधिकृत कोई भी दंड दे सकता है जिस दंड को भारतीय दंड विधि में भारतीय संसद द्वारा पारित अधिनियम के माध्यम से अधिनियमित किया गया है। वह दंड उच्च न्यायालय द्वारा दिया जा सकता है।ऐसा दंड किसी भी प्रकार का हो सकता है। 
        दंड दिए जाने के संबंध में उच्च न्यायालय भारतीय दंड व्यवस्था की सर्वाधिक शक्तिशाली संस्था है, जो किसी भी भांति का दंड दे सकती है। प्रवृत विधि में जो भी दंडो का उल्लेख किया गया है वह दंड उच्च न्यायालय द्वारा दिए जा सकेंगे। सत्र न्यायाधीश द्वारा दिया जाने वाला दंड दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 28 के अंतर्गत सत्र न्यायालय का उल्लेख किया गया है। सत्र न्यायालय को कितने भागों में बांटा जा सकता है एवं कौन-कौन से न्यायालय सेशन न्यायालय कहलाएंगे एवं जिन के पीठासीन अधिकारी न्यायाधीश कहलाएंगे। 
      न्यायाधीशों को दंड देने की शक्ति कहां तक होगी। सत्र न्यायाधीश कोई भी सत्र न्यायाधीश का न्यायालय विधि द्वारा प्राधिकृत कोई भी दंडादेश दे सकता है,परन्तु सत्र न्यायालय द्वारा दिया जाने वाला मृत्युदंड उच्च न्यायालय द्वारा पुष्ट किए जाने की आवश्यकता होगी। 
     किसी भी सत्र न्यायाधीश द्वारा दिया गया मृत्युदंड उच्च न्यायालय द्वारा पुष्ट किया जाता है। जब उच्च न्यायालय किसी भी सिद्धदोष को दिए मृत्युदंड को पुष्ट कर देता है तो ही वह मृत्युदंड मान्यता रखता है। 
       अपर सत्र न्यायाधीश कोई भी अपर सत्र न्यायाधीश वह सभी दंड दे सकता है जो सत्र न्यायाधीश दे सकता है। सहायक सत्र न्यायधीश सहायक सत्र न्यायधीश मृत्यु दंड, आजीवन कारावास या 10 वर्ष से अधिक की कारावास की अवधि के सिवाय कोई भी दंडादेश दे सकता है। अर्थात सहायक सत्र न्यायाधीश मृत्युदंड आजीवन कारावास और 10 वर्ष के ऊपर का कारावास नहीं दे सकता है। उसे केवल किसी भी सिद्धदोष को 10 वर्ष तक कारावास दिए जाने की शक्ति प्राप्त है। 
       किसी भी मामले में न्यायाधीश कितना दंड देंगे, दंड की अवधि न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर होगी। उच्चतम न्यायालय ने मध्यप्रदेश राज्य बनाम घनश्याम सिंह के वाद में यह स्पष्ट किया है कि उस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए जिसके लिए किसी अभियुक्त को दंडित किया जाता है। 
       यह सर्वसाधारण नियम नहीं बनाया जा सकता कि विचारण में अत्यधिक विलंब के सभी मामलों में अभियुक्तों को न्यूनतम दंड से दंडित किया जाना उचित होगा। दूसरे शब्दों में या कहा जा सकता है कि विचारण का लंबे समय तक लंबित रहना स्वयमेव अभियुक्त को कम दंड दिए जाने का उचित कारण नहीं माना जाना चाहिए। 
      किसी भी न्यायालय द्वारा दंड की अवधि न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर करती है, परंतु ऐसा विवेक भी युक्तियुक्त होना चाहिए। 
      कोई भी अपराध में दंड अपराध की गंभीरता को देख कर दिया जाना चाहिए। कर्नाटक राज्य बनाम राजू के बाद में कुछ ऐसा ही मामला सामने आया था, जिसमें 10 वर्ष की बच्ची का बलात्कार करने वाले अभियुक्त को 7 वर्ष के कारावास से दंडित किया गया था, परंतु कर्नाटक उच्च न्यायालय की एकल पीठ में दंड को कम करके साढ़े 3 वर्ष का कर दिया था। उच्चतम न्यायालय ने इस निर्णय की भर्त्सना की थी तथा कम से कम 10 वर्ष तक का दंड इस अपराध में दिए जाने के संदर्भ में उल्लेख किया था। हालांकि बाद में बलात्कार जैसे अपराध में भारतीय दंड संहिता में संशोधन कर दिए गए तथा बलात्कार में मृत्युदंड तक का प्रावधान रख दिया गया है। 
     इस कड़ी में केवल उच्च न्यायालय एवं न्यायाधीशों की दंड देने की शक्ति का उल्लेख किया गया है। अगली कड़ी में मजिस्ट्रेट द्वारा दंड दिए जाने की शक्ति का उल्लेख किया जाएगा तथा दंड न्यायालय की अन्य शक्तियों के संबंध में भी चर्चा की जाएगी। T

पैन कार्ड,बैंक दस्तावे,भूमि राजस्व की रसीद से किसी व्यक्ति की नागरिकता साबित नहीं होती -गुवाहाटी हाई कोर्ट

पैन कार्ड, बैंक दस्तावेज़, भूमि राजस्व की रसीद से किसी व्यक्ति की नागरिकता साबित नहीं होती : गुवाहाटी हाईकोर्ट

17 Feb 2020 4:18 

गुवाहाटी हाईकोर्ट ने कहा है कि भूमि राजस्व (Land Revenue) के भुगतान की रसीद के आधार पर किसी व्यक्ति की नागरिकता साबित नहीं होती है। साथ ही, अपने पिछले फैसले के बाद, न्यायालय ने माना कि पैन कार्ड और बैंक दस्तावेज़ भी नागरिकता साबित नहीं करते हैं।

       न्यायमूर्ति मनोजीत भुयान और न्यायमूर्ति पार्थिवज्योति सैकिया की पीठ ने विदेशी ट्रिब्यूनल, बक्सा के आदेश के खिलाफ ज़ुबैदा बेगम द्वारा दायर रिट याचिका को खारिज करते हुए ये टिप्पणियां कीं। इस आदेश में ज़ुबैदा बेगम को 1971 के घटनाक्रम के परिपेक्ष्य में विदेशी घोषित किया गया था।

      पुलिस अधीक्षक (बी) के एक संदर्भ के आधार पर विदेशी ट्रिब्यूनल, बक्सा, तामुलपुर, असम ने याचिकाकर्ता को नोटिस जारी कर उसे भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए कहा था।

      ट्रिब्यूनल से पहले, उसने कहा कि उसके माता-पिता के नाम 1966 की वोटर लिस्ट में थे। उसने दावा किया कि उसके दादा-दादी के नाम भी 1966 की वोटर लिस्ट में दिखाई दिए थे। याचिकाकर्ता ने आगे कहा कि सन 1970 और सन 1997 की मतदाता सूची भी में भी उसके पिता का नाम था।

       ट्रिब्यूनल ने पाया कि याचिकाकर्ता अपने अनुमानित माता-पिता के साथ संबंध दिखाने वाला कोई भी दस्तावेज पेश नहीं कर सकी। हाईकोर्ट ने ट्रिब्यूनल के इन निष्कर्षों से सहमति व्यक्त की।

पैन कार्ड और बैंक दस्तावेजों पर याचिकाकर्ता की निर्भरता को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया और कहा,

      "भारत में यह मामला बाबुल इस्लाम बनाम भारत संघ [WP(C)/3547/2016] में पहले ही आयोजित किया जा चुका है कि पैन कार्ड और बैंक दस्तावेज़ नागरिकता का प्रमाण नहीं हैं।"इस फैसले में कहा गया था कि समर्थित साक्ष्य के अभाव में केवल एक मतदान फोटो पहचान पत्र प्रस्तुत करना नागरिकता का प्रमाण नहीं होगा।

मतदान फोटो पहचान पत्र नागरिकता का निर्णायक प्रमाण नहीं : गुवाहाटी हाईकोर्ट

       यह भी पाया गया कि याचिकाकर्ता अपने अनुमानित भाई के साथ संबंध दिखाते हुए दस्तावेज पेश नहीं कर सकी, जिसका नाम 2015 की मतदाता सूची में दिखाई दिया था। कोर्ट ने कहा कि गांव बूरा द्वारा जारी प्रमाण पत्र किसी व्यक्ति की नागरिकता का प्रमाण नहीं हो सकता।

पीठ ने कहा कि भूमि राजस्व के भुगतान प्राप्तियां (रसीद) किसी व्यक्ति की नागरिकता साबित नहीं करती हैं।

इन निष्कर्षों पर हाईकोर्ट ने रिट याचिका को खारिज कर दिया और कहा,

       "हम पाते हैं कि ट्रिब्यूनल ने इससे पहले रखे गए साक्ष्यों की सही ढंग से सराहना की है और हम ट्रिब्यूनल के निर्णय में व्यापकता देख सकते हैं। यही स्थिति होने के नाते, हम इस बात को दोहराएंगे कि याचिकाकर्ता अपने अनुमानित माता-पिता और उसके अनुमानित भाई के साथ संबंध को साबित करने में विफल रही, इसलिए, हम पाते हैं कि यह रिट याचिका योग्यता रहित है और उसी के अनुसार, हम इसे खारिज करते हैं।"

सीपीसी जानिये एक पक्षीय डिक्री और उसे अपास्त किये जाने के आधार

 सीपीसी : जानिए एकपक्षीय डिक्री और उसे अपास्त किए जाने के आधार 

 16 Feb 2020 

         सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के अंतर्गत जब पक्षकारों को समन किया जाता है तो आदेश 9 के अंतर्गत पक्षकारों की उपस्थिति या अनुपस्थिति के परिणाम दिए गए है। इन परिणामों में से एक परिणाम एकपक्षीय आदेश या डिक्री होता है। एकपक्षीय आज्ञप्ति का अर्थ बुलाए गए पक्षकारों द्वारा अदालत में उपस्थित नहीं होने के कारण किसी एक पक्षकार को सुना जाना तथा जो पक्षकार अदालत में उपस्थित न होकर अपने लिखित अभिकथन नहीं करता है उस पक्षकार को वाद से एकपक्षीय कर दिया जाता है। 
       जो पक्षकार न्यायालय में वाद लेकर आता है केवल उसी के तर्क को सुनकर केवल उसी के साक्षियों को सुनकर न्यायालय द्वारा एक पक्षीय आदेश या आज्ञप्ति पारित कर दी जाती है। हालांकि एकपक्षीय आज्ञप्ति नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध है, क्योंकि इस एकपक्षीय आज्ञप्ति या निर्णय में केवल एक ही पक्षकार को सुना जाता है, जिस प्रकार के विरुद्ध आदेश हैं, निर्णय पारित किया जाता है उस पक्षकार को सुना नहीं जाता है। उसकी अनुपस्थिति में एकपक्षीय आज्ञप्ति पारित कर दी जाती है। एकपक्षीय आज्ञप्ति उसी स्थिति में पारित की जाती है जिस स्थिति में पक्षकार समन द्वारा सूचना प्राप्त होने पर भी न्यायालय में उपस्थित होकर लिखित अभिकथन नहीं करता है। बाद में आगे की कार्यवाही में भाग नहीं लेता है तथा विचारण का भागीदार नहीं बनता है। इस परिस्थिति में पक्षकार वाद से बचने का प्रयास करता है।
          दीवानी प्रकरण में एकपक्षीय आज्ञप्ति दिया जाना भी एक आवश्यक कार्य है, क्योंकि पक्षकार मुकदमों से बचते है तथा जिन पक्षकारों के अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है एवं पक्षकारों को व्यथित किया गया है वह पक्षकार जो किसी व्यक्ति विशेष के कार्यों द्वारा आहत हैं। ये लोग ऐसी अनुपस्थित रहने वाले पक्षकार के कारण न्यायालय में उपस्थित होकर न्याय प्राप्त नहीं कर पाते हैं। 
         न्याय के सिद्धांतों को गतिशील बनाने हेतु एक एकपक्षीय आज्ञप्ति दी जाती है तथा यह न्यायालय की विशेष शक्ति है। जहां समन सम्यक रूप से तामील किया गया हो और प्रतिवादी उपस्थित नहीं हों, वहां न्यायालय एकपक्षीय अग्रसर हो सकेगा। एकपक्षीय आज्ञप्ति पारित कर सकेगा, इसी प्रकार यदि प्रतिवादी समन प्राप्ति के हस्ताक्षर करने से इंकार कर दे तथा रजिस्ट्रीकरण पत्र को भी लेने से मना कर दे तब ऐसे प्रतिवादी के विरुद्ध एकपक्षीय कार्रवाई की जा सकेगी। 
       एकपक्षीय आज्ञप्ति अपास्त किया जाना सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 9 नियम 7 व 13 में एकपक्षीय आज्ञप्ति आदेशों को अपास्त किए जाने के बारे में प्रावधान किया गया है। यदि सुनवाई एकपक्षीय स्थगित कर दी गई हो तो प्रतिवादी उपसंजात हो सकेगा और उपसंजाति के लिए हेतु संरक्षित कर सकेगा। न्यायालय खर्च दिलवाकर या अन्यथा सुने जाने और लिखित कथन संस्थित किए जाने का आदेश दे सकेगा। अगर सुनवाई पूरी गई हो और वाद को निर्णय के लिए रखा गया हो तो ऐसी परिस्थिति में आदेश 9 के नियम 7 के अंतर्गत एकपक्षीय आदेश को अपास्त नहीं किया जाना चाहिए। 
        यह सुनील कुमार बनाम प्रवीणचंद्र के मामले में 2008 राजस्थान 179 में कहा गया है। जहां ऐसा प्रतिवादी जिसके विरुद्ध एकपक्षीय आज्ञप्ति पारित की गई है। न्यायालय का समाधान कर देता है कि- समन सम्यक रूप से तामील नहीं हुआ था। उसके उपस्थित नहीं होने का कोई पर्याप्त कारण है, वह ऐसे एकपक्षीय एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त किए जाने के लिए आवेदन कर सकेगा और न्यायालय ऐसे आवेदन पर खर्च देखकर या अन्यथा शर्त पर एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त करने का आदेश दे सकेगा। 
       वीके इंडस्ट्रीज बनाम मध्य प्रदेश इलेक्ट्रॉनिक बोर्ड के मामले में यह उल्लेख किया गया है कि एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त किए जाने के लिए जो शर्तें निर्धारित की जाएगी। उन शर्तों को युक्तियुक्त होना चाहिए। कोई भी ऐसी शर्त जो युक्तियुक्त नहीं है उसे आज्ञप्ति अपास्त किए जाने के लिए न्यायालय द्वारा शर्तों में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। कोई भी एकपक्षीय आज्ञप्ति केवल इस आधार पर की समन की तामील में अनियमितता की गई थी अपास्त नहीं की जा सकेगी। समन की तामील में अनियमितता के साथ पक्षकार के पास कोई पर्याप्त युक्तियुक्त हेतु भी होना चाहिए,जिसके कारण वह न्यायालय में उपस्थित नहीं हो सका।
         किशोर कुमार अग्रवाल बनाम वासुदेव प्रसाद गुटगुटिया एआईआर 1977 पटना 131 के मामले में यह कहा गया है कि यहां कोई मामला एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय को अंतरित कर दिया गया हो, लेकिन उसकी सूचना पक्षकारों को नहीं दी गई हो वहां किसी पक्षकार के विरुद्ध पारित एकपक्षीय आज्ञप्ति अपास्त किए जाने योग्य होगी।
        एवी चार्ज बनाम एस एम आर ट्रेडर्स और अन्य ए आई आर 1980 केरल 100 के प्रकरण में यह कहा गया है कि जहां कोई तिथि प्रतिवादी के साक्ष्य के लिए नियत हो वह प्रतिवादी नियत तिथि को बीमारी के कारण उपस्थित नहीं हुआ हो एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त कराने वाद की पुनर्स्थापना के लिए प्रस्तुत आवेदन संधारण योग्य होगा।
       एक अन्य मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा बीमारी को भी युक्तियुक्त बीमारी माना गया है। पक्षकार किसी ऐसी बीमारी से पीड़ित हो जिस बीमारी के कारण वह न्यायालय तक आ पाने में असमर्थ हो तो ही इस कारण से डिक्री को अपास्त किए जाने हेतु आवेदन किया जा सकता है। 
      मैसर्स प्रेस्टिज लाइट्स लिमिटेड स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि किसी एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त कराने हेतु प्रस्तुत आवेदन पत्र को इस आधार पर खारिज नहीं किया जाना चाहिए कि निर्णीत ऋणी द्वारा विषय से संबंधित कोई पूर्व निर्णय पेश नहीं किया गया। न्यायालय के लिए भी विधि की अज्ञानता क्षम्य (माफी योग्य) नहीं है। 
      समय-समय पर भारत के उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय में एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त किए जाने हेतु आने वाले वादों में कुछ पर्याप्त और अपर्याप्त कारणों का वर्गीकरण किया गया है। सुनवाई की तिथि के संबंध में सद्भावनापूर्ण भूल। गाड़ी का विलंब से पहुंचना। अधिवक्ता का बीमार हो जाना। विरोधी पक्षकार का कपाट। डायरी में सुनवाई की तारीख गलत अंकित कर दी जाना। वाद मित्र अथवा संरक्षक की लापरवाही। पक्षकार के संबंधी की मृत्यु हो जाना। पक्षकार का कारवासित हो जाना। विरोधी पक्षकार द्वारा निदेश नहीं मिलना।
         सिविल प्रक्रिया संहिता अंतर्गत कोई भी डिक्री किसी भी आवेदन पर तब तक अपास्त नहीं की जाएगी जब तक वाद के विरोधी पक्षकार को उसकी सूचना नहीं दी जाती। वाद के विरोधी पक्षकार को सूचना देने के उपरांत ही एकपक्षीय डिक्री को अपास्त किया जा सकेगा। अनुपस्थिति के कारणों की पर्याप्तता का प्रश्न है या प्रत्येक मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। 
       चक्रधर चौधरी बना पदमालवदास के मामले में हाई ब्लड प्रेशर को अनुपस्थिति का पर्याप्त कारण माना है। यदि कोई पक्षकार हाई ब्लड प्रेशर से पीड़ित है तो इस आधार पर एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त किया जा सकता है । 
       दिल्ली विकास प्राधिकरण बनाम शांति देवी एआरआई 1982 दिल्ली 159 का मामला है। इस मामले में अधिवक्ता न्यायालय में दिए गए समय से लेट पहुंचे। उन्होंने इसके लिए न्यायालय में एक शपथ पत्र भी पेश किया था। जब न्यायालय में पहुंचे तो उन्हें मालूम हुआ कि न्यायालय द्वारा मामले में एकपक्षीय कार्यवाही करने का आदेश दिया जा चुका है। 
       जब अधिवक्ता द्वारा मामले में एकपक्षीय आदेश को अपास्त किए जाने का आवेदन दिया गया तो इसे पर्याप्त कारण माना गया तथा एकपक्षीय आदेश को अपास्त कर दिया गया। मधुबाला बनाम श्रीमती पुष्पा देवी के मामले में ऐसी एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त करने के आवेदन को ग्राह्य माना गया है जो- विवाह को शून्य एवं अकृत घोषित कराने से संबंधित थी। पति द्वारा कपट के अधीन प्राप्त की गई थी। पत्नी द्वारा एकपक्षीय आज्ञप्ति की जानकारी होने की तारीख से 1 माह के भीतर अपास्त करने हेतु आवेदन कर दिया गया था। 
       विश्वनाथ सिंह बनाम गोपाल कृष्ण सिंघल का मामला है। इस मामले में प्रतिवादी की बीमारी को अपास्त का एक अच्छा आधार माना गया।खासतौर से वहां जहां वादी ने इसका खंडन नहीं किया हो। आलोक साबू बनाम स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया गया है कि एकपक्षीय आदेश को अपास्त करने के लिए ऋण वसूली अधिकरण द्वारा एक पूर्वोक्त शर्त के तौर पर खर्चा अधिकृत किया जा सकता है लेकिन एक करोड़ रुपए जमा कराने जैसी कठोर शर्त नहीं लगा सकता। 
      सैयद हसनल्लाह अन्य बनाम अहमद बेग अन्य का मामला एकपक्षीय आज्ञप्ति को अपास्त करने के लिए निम्नांकित पर्याप्त आधार माना गया है- समन का अंग्रेजी में जारी किया जाना जबकि प्रतिवादी अंग्रेजी नहीं जानता हो। निर्णय का आर्डर शीट पर ही लिखा जाना।अर्थात निर्णय पृथक से विस्तृत नहीं लिखा गया था। 
      एकपक्षीय आज्ञप्ति के आदेश के विरुद्ध उपचार- प्रतिवादी द्वारा अपील धारा 96(2) के अंतर्गत पुनर्विलोकन धारा 114 आदेश 47 के अंतर्गत आवेदन आदेश 9 के नियम 13 के अंतर्गत एकपक्षीय आज्ञप्ति पारित करने वाले न्यायालय में आज्ञप्ति पारित होने की तिथि से या समन शामिल होने की अवस्था में उस दिनांक से जबकि आवेदक को आज्ञप्ति का ज्ञान हुआ 30 दिन के अंदर प्रतिवादी द्वारा आवेदन किया जाना चाहिए। 

बलात्कार के मामले में अभियुक्त को केवल पीढिता की गवाही के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता है -सुप्रीम कोर्ट

 बलात्कार के मामले में अभियुक्त को केवल पीड़िता की गवाही के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जब तक कि उसकी गवाही वास्तविक गुणवत्ता की न हो : सुप्रीम कोर्ट 

16 Feb 2020 

        सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि बलात्कर केस के किसी आरोपी की सजा पीड़िता की एकमात्र गवाही के आधार पर नहीं हो सकती है, जब तक कि वह वास्तविक गवाह का टेस्ट पास न कर ले। न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एमआर शाह की खंडपीठ ने फैसला दिया कि पीड़िता के एकमात्र साक्ष्य के आधार पर किसी अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए सबूत बिल्कुल भरोसेमंद, बेदाग और वास्तविक गुणवत्ता वाले होने चाहिए। 
       राय संदीप उर्फ दीपू बनाम राज्य के मामले पर भरोसा करते हुए खंडपीठ ने दोहराया है कि वास्तविक (स्टर्लिंग) गवाह बहुत उच्च गुणवत्ता का होना चाहिए, जिसका बयान अखंडनीय होना चाहिए। ऐसे गवाह के बयान पर विचार करने वाली अदालत इस स्थिति में होनी चाहिए कि वह बिना किसी संदेह के इसके बयान स्वीकार कर ले। इस तरह के एक गवाह की गुणवत्ता का परीक्षण करने के लिए गवाह की स्थिति सारहीन होगी। वह इस तरह के गवाह द्वारा दिए गए बयान की सत्यता है। मामले के तथ्य पीड़िता ने अपने बहनोई, अपीलकर्ता (अभियुक्त) के खिलाफ 16.09.2011 को शिकायत दर्ज कराई, जिसमें आरोप लगाया गया कि उसने पूर्व रात उसके साथ बलात्कार किया था। अपीलकर्ता के खिलाफ मखदुमपुर पुलिस स्टेशन, पटना में प्राथमिकी दर्ज की गई और फिर मामले की जांच की गई। जांच के निष्कर्ष पर आईओ ने अपीलकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 376 (1) और 450 के तहत आरोप पत्र दायर किया। 
        जहानाबाद में अतिरिक्त सत्र न्यायालय ने मामले की सुनवाई की। अपीलकर्ता ने सभी तरह से निर्दोष होने की बात कही। अभियोजन पक्ष ने पीड़िता और चिकित्सा अधिकारी सहित आठ गवाहों की गवाही करवाई। 8 गवाहों में से तीन गवाहों ने अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन नहीं किया और अपने बयान से मुकर गए। ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को आईपीसी की धारा 376 के तहत अपराध के लिए 10 साल के कारवास और आईपीसी की धारा 450 के तहत 7 साल के कारावास की सजा दी। इसके बाद अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट के समक्ष अपील दायर की जिसे हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था। इसके बाद अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की।
         पार्टियों द्वारा दी गई दलीलें अपीलार्थी की ओर से पेश वकील ने तर्क दिया कि अपीलकर्ता को दोषी ठहराते हुए न्यायालयों ने तथ्यात्मक गलती की है। उन्होंने तर्क दिया कि अविश्वसनीय चिकित्सा साक्ष्य, पीड़िता के बयान में विरोधाभास और एफआईआर दर्ज करने में देरी से पीड़िता की विश्वसनीयता पर गंभीर संदेह पैदा हुआ है।
        मामले के मुख्य आरोपी की तरफ से पेश वकील संतोष कुमार द्वारा प्रस्तुत किया गया कि पीड़िता के बयानों/ सबूतों को छोड़कर,जिसकी चिकित्सा साक्ष्य द्वारा पुष्टि नहीं की गई है, अभियुक्त को इस अपराध से जोड़ने के लिए कोई अन्य स्वतंत्र और ठोस साक्ष्य नहीं है। अपीलकर्ता के वकील ने आगे तर्क दिया कि जब आईपीसी की धारा 376 के तहत अभियुक्त की सजा केवल पीड़िता की एकमात्र गवाही पर हुई है और चूंकि मेडिकल साक्ष्य की सामग्री में विरोधाभास मौजूद है तो उस आधार पर अभियुक्त को दोषी ठहराना असुरक्षित है।
        प्रतिवादी राज्य की तरफ से पेश वकील ने कहा कि सबूतों का मूल्यांकन करते हुए न्यायालयों द्वारा उचित लाभ दिया जाना चाहिए। चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने रंजीत हजारिका बनाम असम राज्य और पंजाब राज्य बनाम वी.गुरमीत सिंह और अन्य लोगों के खिलाफ मामलों में लगातार माना था कि, पीड़िता के साक्ष्य पर विश्वास किया जाना चाहिए क्योंकि कोई भी स्वाभिमानी महिला अदालत में सिर्फ अपने सम्मान के खिलाफ ऐसा बयान देने के लिए आगे नहीं आएगी कि उसके साथ बलात्कार का अपराध हुआ है। इसके अलावा उन्होंने तर्क दिया कि केवल इसलिए क्योंकि मेडिकल रिपोर्ट अनिर्णायक थी, आरोपी की बेगुनाही का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता था। बेंच ने कहा, "आपराधिक अपील की अनुमति देते हुए और अपीलार्थी के खिलाफ लगाए गए सभी आरोपों से बरी करते हुए अदालत ने माना कि किसी भी अन्य सहायक सबूत की अनुपस्थिति में पीड़िता के बयान को पूरे सच के रूप में नहीं लिया जा सकता, इसलिए दोषसिद्धि को बनाए रखने की कोई गुंजाइश नहीं थी।" न्यायालय ने आगे कहा कि पीड़िता के साक्ष्य में भौतिक या तथ्यात्मक विरोधाभास थे और अपीलकर्ता-अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए यह विश्वसनीय और भरोसेमंद नहीं थे। 
      अदालत ने कहा, " हालांकि आमतौर पर पीड़िता की एकमात्र गवाही बलात्कार के एक आरोपी को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त होती है, परंतु अदालत झूठे आरोप के खिलाफ आरोपी को सुरक्षा देने के दृष्टिकोण को नहीं खो सकती। इस बात को नहीं नकारा जा सकता है कि बलात्कार, पीड़िता के लिए सबसे बड़ी पीड़ा और अपमान का कारण बनता है, लेकिन साथ ही बलात्कार का झूठा आरोप भी अभियुक्त के लिए समान रूप से संकट, अपमान और क्षति का कारण बन सकता है। अभियुक्त को भी उसके खिलाफ लगाए गए झूठे आरोप की संभावना से सुरक्षा दी जानी चाहिए, विशेष रूप से जहां बड़ी संख्या में आरोपी शामिल हों।
      " अपीलार्थी के लिए अधिवक्ता संतोष कुमार ने तर्क दिया। अधिवक्ता केशव मोहन ने प्रतिवादी राज्य की ओर से बहस का नेतृत्व किया। 

दो से अधिक बच्चों वाली महिला को मात्रित्व अवकाश देने के उत्तराखण्ड हाई कोर्ट के फैसले पर दखल देने से इन्कार- सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड हाईकोर्ट के दो बच्चों वाली महिला को मातृत्व अवकाश देने से इनकार के फैसले में दखल से इनकार किया 

16 Feb 2020 

      सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड सरकार के उस नियम में दखल देने से इंकार कर दिया है जिसमें दो या दो से अधिक बच्चों वाली महिला को इस आधार पर मातृत्व अवकाश देने से इनकार किया गया है कि उसके पहले ही दो या दो से अधिक बच्चे हैं। पीठ ने कहा कि यह राज्य सरकार का नीतिगत निर्णय है। जस्टिस आर बानुमति और जस्टिस ए एस बोपन्ना की पीठ ने उर्मिला मसीह की उच्च न्यायालय के 17 सितंबर, 2019 के आदेश के खिलाफ दायर याचिका खारिज कर दी। पीठ ने कहा कि हमें उस आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं दिखाई देता है, जिसमें उच्च न्यायालय ने उचित रूप से विचार किया है कि बनाया गया नियम एक नीतिगत मामला है और इस तरह कोई हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। याचिकाकर्ता ने एक घोषणा की मांग की थी कि दो या अधिक जीवित बच्चों वाली महिलाओं को मातृत्व अवकाश नहीं देने का प्रतिबंध असंवैधानिक है। उन्होंने कहा था कि राज्य महिला कर्मचारियों को दो जीवित बच्चों के साथ मातृत्व अवकाश पर प्रतिबंध लगाने का मौलिक नियम 153 संविधान के न्यायोचित कार्य और मातृत्व राहत की उचित और मानवीय स्थिति से निपटने के लिए मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 और अनुच्छेद 42 का उल्लंघन करता है। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता को इस आधार पर कोई राहत देने से इनकार कर दिया था कि मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 राज्य सरकार के कर्मचारियों पर लागू नहीं है और अनुच्छेद 42 निर्देश सिद्धांतों का एक हिस्सा होने के नाते अदालत द्वारा लागू करने योग्य नहीं है।

Wednesday, February 12, 2020

तथ्य सम्बन्धी सवाल खडे होने एन आई एक्ट की धारा 138 के तहत दर्ज शिकायत निरस्त नहीं की जा सकती -सुप्रीम कोर्ट


तथ्य-संबंधी सवाल खड़े होने पर एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत दर्ज शिकायत निरस्त नहीं की जा सकती 

12 Feb 2020 7:15 


        तथ्य-संबंधी सवाल खड़े होने पर एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत दर्ज शिकायत निरस्त नहीं की जा सकती : सुप्रीम कोर्ट   
         सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट (एनआई) एक्ट की धारा 138 के तहत चेक बाउंस की शिकायत निरस्त नहीं की जा सकती, जब तथ्य संबंधी विवादित सवाल उसमें निहित हों।

     इस मामले में हाईकोर्ट ने आरोपी की ओर से दायर याचिका में कहा था कि चूंकि कथित फर्जी रसीद के आधार पर एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत आपराधिक मामला दर्ज किया गया था, इसलिए शिकायत निरस्त की जाती है।

             सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह दलील दी गयी थी कि हाईकोर्ट ने इस बात पर गौर नहीं किया कि आरोपी ने स्वीकार किया है कि उसके अपने एनआरई खाते से चेक जारी किया गया है।

             इस दलील पर सहमति जताते हुए न्यायमूर्ति आर भानुमति और न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना की पीठ ने कहा कि एकबारगी चेक जारी करने की बात स्वीकार लेने/स्थापित हो जाने के बाद एनआई एक्ट की धारा 139 के तहत उपधारणा चेक होल्डर के पक्ष में जाएगी।

अपील स्वीकार करते हुए बेंच ने कहा :

                " एक बार चेक जारी करने की बात स्वीकार लेने/स्थापित हो जाने के बाद एनआई एक्ट की धारा 139 के तहत उपधारणा चेक होल्डर के पक्ष में जाएगी और यह शिकायतकर्ता-अपीलकर्ता संख्या 3 हैं।

एनआई एक्ट की धारा 139 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 118(ए) के तहत तर्कों की प्रकृति खंडन योग्य है। योगेशभाई ने निश्चित तौर पर अपने बचाव में कहा था कि कोई गैरकानूनी प्रवर्तनीय ऋण नहीं है और उसने अपीलकर्ता संख्या-3 हसमुखभाई को जमीन खरीदने में मदद के लिए चेक दिया था।



          साक्ष्य मुहैया कराकर दलील के खंडन का दायित्व आरोपी पर है। हाईकोर्ट ने इस बात को ध्यान में नहीं रखा कि जब तक आरोपी अपने बोझ का निर्वहन नहीं करता तब तक एनआई एक्ट की धारा 139 के तहत मामला बना रहेगा।

             साक्ष्य पेश करके इस उपधारणा के खंडन की जिम्मेदारी योगेशभाई पर है। जब तथ्यों से संबंधित विवादित वैसे सवाल शामिल हों, जिनके निर्धारण के लिए दोनों पक्षों द्वारा साक्ष्य मुहैया कराना जरूरी हो, तो हाईकोर्ट को एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत शिकायत को दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 का इस्तेमाल करके निरस्त नहीं करना चाहिए था।"

          सीआरपीसी की धारा 482 के तहत प्राप्त शक्तियों के संदर्भ में बेंच ने कहा :

               "यद्यपि, कोर्ट के पास एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत दर्ज आपराधिक शिकायत को समय-सीमा आदि जैसे कानूनी मुद्दों पर खारिज करने का अधिकार है, लेकिन एनआई एक्ट की धारा 139 के तहत योगेशभाई के खिलाफ दर्ज आपराधिक शिकायत को केवल इस आधार पर खारिज नहीं किया जाना चाहिए था कि अपीलकर्ता संख्या-3 और प्रतिवादी संख्या-2 के बीच परस्पर विवाद है।

                हमारा मानना है कि हाईकोर्ट ने एनआई एक्ट की धारा 139 के तहत कानूनी उपधारणा को ध्यान में रखे बिना एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत दर्ज आपराधिक शिकायत (सीसी संख्या 367/2016) को निरस्त करके गंभीर त्रुटि की है।"

केस का नाम : राजेशभाई मुलजीभाई पटेल बनाम गुजरात सरकार

केस नं. – क्रिमिनल अपील नं.- 251-252/2020

कोरम : न्यायमूर्ति आर भानुमति और न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना

वकील : एडवोकेट डी एन पारिख और सीनियर एडवोकेट ऐश्वर्या भाटी

Sunday, February 9, 2020

सिविल मामलों विचारण (Trial )प्रक्रिया जानिये नयें अधिवक्ताओं के लिए

जानिए सिविल मामलों में विचारण (Trial) की प्रक्रिया 

9 Feb 2020 11:59 AM 

      नए अधिवक्ता एवं छात्रों द्वारा सिविल विधि को कठिन समझा जाता है। सिविल विधि आपराधिक विधि के मुकाबले थोड़ी कठिन होती है।

          सिविल विधि को यदि उसके व्यवस्थित क्रम में पढ़ा जाए तो यह विधि कठिन नहीं होती। इस लेख के माध्यम से हम सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के प्रावधानों से विचारण (Trial) की प्रक्रिया को सरलतापूर्वक समझने का प्रयास करेंगे। सिविल प्रक्रिया संहिता विचारण की प्रक्रिया बताती है। सहिंता के अनुसार व्यवस्थित प्रक्रिया दी गई है तथा कोई भी मुकदमा किस प्रकार प्रारंभ से समाप्त होता है। 

        वाद पत्र एवं वाद के पक्षकार (आदेश 1) सिविल प्रक्रिया संहिता में वादों का प्रारंभ वाद पत्र से किया जाता है। एक वाद, वाद के पक्षकार से प्रारंभ होता है। किसी भी वाद में दो से अधिक पक्षकार हो सकते हैं। कोई भी वाद एक पक्षीय नहीं होता है। ऐसा ना हो कि कोई पक्ष न्याय से वंचित रह जाए अथवा निर्दोष व्यक्ति अनावश्यक ही अन्याय का सामना करे। 

         वाद संस्थित करते समय इस बात का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए कि वाद में वादी प्रतिवादी के रूप में उन सभी व्यक्तियों को सम्मानित कर दिया जाए जो न्याय के लिए आवश्यक है। यह दूसरी तरफ उन व्यक्तियों को वाद में सम्मिलित कर आवश्यक रूप से परेशान नहीं किया जाए जिनको सम्मिलित किया जाना आवश्यक नहीं है। वाद पत्र में सबसे पहले वादियों का उल्लेख किया जाता है। 

         वाद में मुख्यतः दो पक्षकार होते हैं वादी एवं प्रतिवादी। वादी वह होता है जो वादपत्र प्रस्तुत कर न्यायालय से अनुतोष की मांग करता है। प्रतिवादी वह है जो वादपत्र का अपने लिखित कथन द्वारा उत्तर देकर प्रतिरक्षा प्रस्तुत करता है। पक्षकारों का चयन सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए तथा जो आवश्यक पक्षकार हैं उन्हें वाद पत्र में नहीं जोड़ा जाना चाहिए। वाद की रचना (आदेश 2) सिविल प्रकरणों में वाद की रचना महत्वपूर्ण होती है। इसका उल्लेख आदेश 2 में मिलता है। जहां वाद का संयोजन एवं कु-संयोजन बताया गया है। यह कहा गया है कि किसी भी हेतु के लिए एक समय में वाद लगा लेना चाहिए तथा बार-बार वाद लगाने से बचना चाहिए।

         यह आदेश यह स्पष्ट करना चाहता है कि किसी वाद में वाद का संयोजन करना चाहिए। सभी हेतु उस एक ही वाद में आ जाए तथा अलग-अलग हेतु के लिए अलग-अलग वाद लगाने की समस्या से बचा जा सके। वाद की बहुलता से बचा जा सके। न्यायालय वाद की बाहुल्यता से बच सके। राज्य के ऊपर अधिक मुकदमे होंगे,अधिक समय मुकदमे में देना होगा। जनता को सरल न्याय नहीं मिल पाएगा इसलिए इस आदेश के अंतर्गत बताए गए नियमों में वाद की बाहुल्यता को रोकने के प्रयास किए गए हैं। वाद का संयोजन इस प्रकार करने को कहा गया है कि वाद के सारे प्रमुख कारण इस एक ही वाद में आ जाए। अभिवचन (आदेश 6) जब वादी द्वारा कोई वाद पत्र प्रस्तुत किया जाता है तथा अनुतोष मांगा जाता है तो प्रतिवादी द्वारा अपना लिखित अभिवचन पेश किया जाता है,जिसे अभिवचन कहते है।

         यह प्रावधान सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के आदेश 6 में डाला गया है। अभिवचन ऐसे कथन होते हैं जो किसी मामले में पक्षकार द्वारा लिखे हो तैयार किए जाते है, इसमें उन सब बातों का उल्लेख देता है जिनके आधार पर वाद निर्मित किया जाएगा तथा प्रतिवादी अपना लिखित कथन प्रस्तुत करेगा। अभिवचन शब्द वादपत्र एवं प्रतिवादी के लिखित कथन दोनों को शामिल किया गया है। लिखित कथन प्रतिवादी का अभिवचन होता है जिसमें वह वादी के कथनों का उत्तर देता है।


         सामान्यता वह अपने लिखित कथन में तो वादों के तथ्यों को अस्वीकार करता है या फिर स्वीकार करता है, यह कभी-कभी विशेष कथन प्रस्तुत कर अपनी प्रतिरक्षा करता है।जिन तथ्यों को अस्वीकार करता है वह विवाधक तथ्य बन जाते है। वादपत्र (आदेश 7) वाद पत्र वादी द्वारा न्यायालय में पेश किया गया एक पत्र होता है, जिसमें वह उन तथ्यों का अभिकथन करता है जिसके आधार पर कि वह न्यायालय से अनुतोष की मांग करता है। न्यायालय की प्रत्येक न्यायिक प्रक्रिया का आरंभ वादपत्र के दायर किए जाने से होता है। इस वादपत्र में वादी अपना अभिकथन करता है तथा न्यायालय से इन्हीं बिंदुओं पर अनुतोष मांगता है। वाद का पेश किया जाना वाद को किस अदालत में पेश करना है,किसी भी न्यायिक कार्यवाही का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है। जब वाद रचना हो जाती है, वाद पत्र तैयार कर लिया जाता है तो वाद कौन से न्यायालय में पेश किया जाएगा यह तय करना सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत धारा 15 से लेकर 20 तक बताया गया है। वाद को पेश करने के लिए सर्वप्रथम तो यह नियम है कि कोई भी वाद सबसे निम्न स्तर की अदालत में विचारण के लिए पेश किया जाएगा।

        विचारण की प्रक्रिया से ऊपरी अदालतों के भार को कम करने हेतु इस प्रकार का नियम रखा गया है। वाद को पेश करने के लिए इन धाराओं के अंतर्गत मूल्य के आधार पर, क्षेत्र के आधार पर, कुछ अन्य आधार भी संहिता के अंतर्गत बताए गए हैं। 

        वाद का संस्थित होना सिविल प्रकिया संहिता की धारा 26 आदेश 4 के अंतर्गत वाद के संस्थित होने के संदर्भ में बताया गया है। जब क्षेत्राधिकार रखने वाले न्यायालय में पेश किया जाता है तो वह या तो वाद को खारिज कर देता है या वाद को संस्थित कर लेता है और वाद का नम्बर अपने रजिस्टर में अंकित कर वाद क्रमांक पेश कर दिया जाता है। वाद संस्थित हो गया इसका अर्थ है न्यायालय वाद में आगे की कार्यवाही करेगा। सम्मन धारा 27 आदेश 5 के अंतर्गत प्रतिवादी को सम्मन किए जाते हैं। सम्मन न्यायिक प्रक्रिया की महत्वपूर्ण कड़ी है, जब न्यायालय किसी मामले को सुनने के लिए आश्वस्त हो जाता है तो वह मामले में बनाए गए प्रतिवादियो को सम्मन जारी करता है। धारा 27 में सम्मन का उल्लेख किया गया है। आदेश 5 में इस सम्मन की तामील के संबंध में उल्लेख किया गया है। 

          मामले के संस्थित होने के बाद सबसे पहली कार्यवाही सम्मन की होती है, जिस न्यायालय में मामला संस्थित किया जाता है। उस न्यायालय द्वारा सर्वप्रथम सम्मन निकाला जाता है।यह सम्मन सब प्रतिभागियों को होता है। उपस्थिति व अनुपस्थिति के प्रभाव (आदेश 19) इस आदेश के माध्यम से यह जाना जाता है कि यदि सम्मन हो जाने के बाद सम्मन पर बुलाया गया प्रतिवादी उपस्थित नहीं होता है तो क्या कार्यवाही होगी,प्रतिवादी उपस्थित होता है तू क्या कार्यवाही होगी। उपस्थित होने पर कार्यवाही आगे बढ़ायी जाती है और अनुपस्थिति में सम्मन की तामील की प्रक्रिया में परिवर्तन इत्यादि किया जाता है अंत में एकपक्षीय भी किया जा सकता है। डिस्कवरी ऑफ फैक्ट्स आदेश 11 में तथ्य को जाना जाता है तथा विवाधक तथ्यों को पहचान कर उन्हें इंगित किया जाता है।जब डिस्कवरी ऑफ फैक्ट होता है तब किसी विवाद में न्यायिक कार्यवाही ठीक अर्थों में आरंभ होता है।यहाँ से विवाधक तथ्यों को साबित नासाबित किये जाने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है।विचारण भी यहीं से आरंभ होता है। डिस्कवरी ऑफ फैक्ट्स के अंतर्गत सभी तथ्यों को प्रकट करना होता है जिनसे मामले का गठन होता है। एडमिशन (स्वीकारोक्ति) विवाद के निपटारे में एडमिशन का एक महत्वपूर्ण स्थान है। 

          सिविल प्रकिया के अंतर्गत एक पक्षकार दूसरे पक्षकार के मामले को स्वीकार करता है और ऐसे स्वीकार किए गए मामले के संबंध में पक्षकारों के बीच कोई विवाद नहीं रह जाता है। परिणामस्वरूप ऐसे मामलों को साक्षी द्वारा सिद्ध करने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है और न्यायालय एडमिशन के आधार पर अपना निर्णय सुनाने के लिए अग्रसर हो सकता है। इस प्रकार एडमिशन वाद के निपटारे को सुलभ कर देता है। संहिता के आदेश 12 में ऐसे एडमिशन के बारे में प्रावधान किया गया है। दस्तावेजों का प्रस्तुतीकरण आदेश 13 के अंतर्गत दस्तावेजों की मूल प्रतियां प्रस्तुत की जाती है तथा इन दस्तावेजों को प्रकरण का साक्ष्य कहा जाता है। साक्ष्य को प्रकरण इस चरण पर आने के बाद ही प्रस्तुत किया जाता है। वाद पत्र के साथ दस्तावेजों की छायाप्रति लगा सकते है, परंतु एडमिशन होने या नहीं होने के उपरांत जिन मूल दस्तावेज पर विचारण चलेगा तथा विवाधक तथ्यों के संबंध में दस्तावेजों का प्रकटीकरण किया जाता है। वाद पदों का निश्चय किया जाना सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 14 के अंतर्गत फ्रेमिंग ऑफ इश्यू अर्थात वाद पदों का निश्चय किया जाता है। किन तथ्यों पर विवाद है यह तय किया जाता है, जिससे आगे मामले का विचार किया जा सके। साक्षियों सूची सहिंता के आदेश 16 के अंतर्गत साक्षियों की सूची प्रस्तुत की जाती है तथा इस सूची में साक्षियों की संख्या होती है, तथा उनके नाम होते हैं जो किसी विवादित तथ्य को साबित ना साबित करने के लिए पेश किए जाते है। साक्ष्य लेखन सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 18 के अंतर्गत साक्ष्यों को लिखा जाता है,साक्ष्य का लेखबद्ध किया जाना अत्यंत आवश्यक होता है। 

सिविल प्रक्रिया संशोधन 
     
         अधिनियम 2002 द्वारा साक्ष्य को लेखबद्ध किए जाने की प्रक्रिया में संशोधन भी किए गए है तथा प्रत्येक साक्षी शपथ पत्र पर माना गया है।न्यायालय साक्ष्य को लेखबद्ध कराने की प्रक्रिया पूरी करता है। निर्णय व डिक्री.     
            अधिनियम के आदेश 20 व धारा 35 के अंतर्गत मामले में अंतिम निर्णय लिया जाता है या डिक्री दी जाती है। डिक्री एवं निर्णय में कुछ अंतर होते है परंतु इस लेख में सागर में गागर भर पाना संभव नहीं होगा। इस अंतर को समझा जाना थोड़ा कठिन है। डिक्री एवं निर्णय के अंतर को किसी अन्य के लेख के माध्यम से समझा जाएगा। न्यायाधीश सबसे अंत में किसी भी मामले में निर्णय सुना देता है, आज्ञप्ति जारी कर देता है। 

प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुचाने के मामले में क्या कहता है कानून

 प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंंचाने के मामलों पर क्या कहता है कानून? 

 22 Dec 2019 1:28 

       कई बार देश में विरोध प्रदर्शन, हिंसक हो जाते हैं और जिसके परिणामस्वरूप लोक संपत्ति को काफी नुकसान पहुचंता है। हाल के समय में उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पश्चिम बंगाल और असम के कुछ हिस्सों में इसी प्रकार की हिंसा देखने को मिली, जहाँ लोक संपत्ति को नुकसान पहुंंचाया गया। हम एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते यह समझते हैं कि इस तरह की हिंसा में न केवल लोक संपत्ति को नुकसान पहुंंचता है, बल्कि टैक्स अदा करने वाले नागरिकों के धन का नुकसान होता है, सरकार के खर्चों पर बोझ बढ़ता है, अशांति फैलती है और आमजन का जीवन प्रभावित होता है। ऐसे में यह जरुरी हो जाता है कि हम लोक संपत्ति को होने वाले नुकसान से सम्बंधित कानूनी बातों को विस्तार से समझें। हाल ही में जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में छात्रों पर कथित पुलिस ज्यादती की याचिकाओं पर सुनवाई के लिए सहमत होते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एस. ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की बेंच ने दंगों और सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करने पर नाराजगी व्यक्त की थी। उन्होंने कहा था, "हम जानते हैं कि दंगे कैसे होते हैं। इसे पहले बंद कर दें। हमारे लिए सिर्फ यह तय नहीं कर सकते क्योंकि पथराव किया जा रहा है। हमने काफी दंगे देखे हैं। यह तब तय करना होगा जब चीजें शांत हों। हम कुछ भी तय कर सकते हैं। दंगे रुकने दो। सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट किया जा रहा है। कोर्ट अभी कुछ नहीं कर सकता है, दंगों को रोकें।" अगर विरोध प्रदर्शन ऐसे ही चले और सार्वजनिक संपत्तियों को नष्ट किया गया तो हम कुछ नहीं करेंगे।" इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों के खिलाफ पुलिस हिंसा की कोर्ट की निगरानी में जांच की मांग करने वाली याचिकाओं के एक समूह पर कार्रवाई करने से इनकार कर दिया था। वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह, संजय हेगड़े और कॉलिन गोंजाल्विस की दलीलें सुनने के बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने आदेश दिया, "मामले और विवाद की प्रकृति के संबंध में, और जिस विशाल क्षेत्र में मामला फैला हुआ है, हमें नहीं लगता कि इसके लिए एक समिति नियुक्त करना संभवतः है। उच्च न्यायालयों से संपर्क किया जा सकता है जहां घटनाएं हुई हैं।" लोक संपत्ति को हुए नुकसान को लेकर क्या है कानून? लोक संपत्ति को होने वाले नुकसान के लिए संसद द्वारा वर्ष 1984 में एक कानून बनाया गया था जिसे लोक संपत्ति नुकसान निवारक अधिनियम, 1984 के रूप में जाना जाता है, इसके अंतर्गत कुल 7 धाराएँ हैं, हालाँकि हाल ही में इसमें बदलाव की मांग उठी है जिसे हम आगे समझेंगे। यह कानून यह कहता है कि जो कोई व्यक्ति किसी लोक संपत्ति की बाबत कोई कार्य करके रिष्टि (Mischief) करेगा, उसे 5 वर्ष तक के कारावास और जुर्माने के साथ दण्डित किया जायेगा [धारा 3(1)]। गौरतलब है कि इस अधिनियम के अंतर्गत 'रिष्टि' का वही अर्थ है, जो धारा 425, भारतीय दंड संहिता, 1860 में है [धारा 2 (क)]। इसके अलावा यदि कुछ विशिष्ट प्रकार की संपत्तियों के बाबत कोई व्यक्ति कोई कार्य करके रिष्टि करेगा, उसे कम से कम 6 महीने की कठोर कारावास (अधिकतम 5 वर्ष तक का कठोर कारावास) एवं जुर्माने के साथ दण्डित किया जायेगा [धारा 3 (2)]। धारा 3 (2) के मामलों में, इन विशिष्ट संपत्तियों में निम्नलिखित संपत्तियां शामिल हैं:- (क) कोई ऐसा भवन, प्रतिष्ठान या अन्य संपत्ति, जिसका उपयोग जल, प्रकाश, शक्ति या उर्जा के उत्पादन, वितरण या प्रदाय के सम्बन्ध में किया जाता है, (ख) कोई तेल प्रतिष्ठान, (ग) कोई मॉल संकर्म, (घ) कोई कारखाना, लोक परिवहन या दूर संचार का कोई साधन या उसके सम्बन्ध में उपयोग किया जाने वाला कोई भवन, प्रतिष्ठान या अन्य संपत्ति. इसके अलावा यदि अग्नि या विस्फोटक पदार्थ द्वारा लोक संपत्ति को नुकसान कारित करने वाली रिष्टि की जाती है तो ऐसे व्यक्ति को कम से कम 1 वर्ष के कारावास (अधिकतम 10 वर्ष तक के कठोर कारावास) और जुर्माने से दण्डित किया जाएगा [धारा 4]। गौरतलब है कि इस धारा के अंतर्गत धारा 3 की उपधारा (1) एवं (2) के विषय में बात की गयी है। लोक संपत्ति क्या है? इस कानून में "लोक संपत्ति" का मतलब भी समझाया गया है। अधिनियम की धारा 2 (ख) के अनुसार, "लोक संपत्ति" से अभिप्रेत है, ऐसी कोई संपत्ति, चाहे वह स्थावर हो या जंगम (जिसके अंतर्गत कोई मशीनरी है), जो निम्नलिखित के स्वामित्व या कब्जे में या नियंत्रण के अधीन है :- (i) केन्द्रीय सरकार; या (ii) राज्य सरकार; या (iii) स्थानीय प्राधिकारी; या (iv) किसी केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन स्थापित निगम; या (v) कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 617 में परिभाषित कंपनी; या (vi) ऐसी संस्था, समुत्थान या उपक्रम, जिसे केन्द्रीय सरकार, सरकारी राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे: क्या मौजूदा कानून है पर्याप्त? सुप्रीम कोर्ट ने कई मौकों पर इस मौजूदा कानून, अर्थात लोक संपत्ति नुकसान निवारक अधिनियम, 1984 को अपर्याप्त पाया है, और इसके लिए दिशानिर्देशों के माध्यम से कानून में मौजूद कमी को दूर करने का प्रयास किया है। वर्ष 2007 में, अदालत ने "विभिन्न ऐसे उदाहरणों के बारे में संज्ञान लिया, जहां आंदोलन, बंद, हड़ताल इत्यादि, के नाम पर सार्वजनिक और निजी संपत्तियों को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुँचाया गया था"। दरअसल गुर्जर नेताओं द्वारा अपने समुदाय को एसटी का दर्जा देने की मांग करने के बाद, कई राज्यों में हिंसा भड़क गयी थी जिसके बाद इस कानून में बदलाव का सुझाव देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश के. टी. थॉमस और वरिष्ठ वकील फली नरीमन के नेतृत्व में 2 समितियों का गठन भी किया था। गौरतलब है कि सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के. टी. थॉमस की अध्यक्षता वाली समिति ने जहाँ लोक संपत्ति नुकसान निवारक अधिनियम 1984 के प्रावधानों को कड़ा करने के लिए और विरोध प्रदर्शन के दौरान बर्बरता के कृत्यों के लिए नेताओं को जवाबदेह बनाने पर विचार किया, वहीँ वरिष्ठ अधिवक्ता फली एस नरीमन को ऐसे बंद इत्यादि के मीडिया कवरेज को लेकर उपायों की सिफारिश करने का काम सौंपा गया था। सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के. टी. थॉमस की अध्यक्षता वाली समिति ने यह पाया कि राज्य सरकारों द्वारा 1984 के इस अधिनियम का कम ही इस्तेमाल किया जाता है, जबकि उनके द्वारा ज्यादातर भारतीय दंड संहिता, 1860 के प्रावधानों का इस्तेमाल किया जाता है। इसके बाद वर्ष 2009 में, In Re: Destruction of Public & Private Properties v State of AP and Ors (2009) 5 SCC 212. के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने 2 विशेषज्ञ समितियों की सिफारिशों के आधार पर दिशा-निर्देश जारी किए थे। वर्ष 2009 में आये इस मामले के बाद से, सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश (संपत्ति के विनाश के खिलाफ) यह हैं कि उस नेता/प्रमुख/आयोजक पर इस विनाश के दायित्व को स्वीकार किया जाएगा, जिसने विरोध करने का आह्वान किया था। समिति के सुझाव को स्वीकार करते हुए, अदालत ने वर्ष 2009 के इस मामले में यह कहा था कि अभियोजन को यह साबित करने की आवश्यकता होनी चाहिए कि किसी संगठन द्वारा बुलाये गए डायरेक्ट एक्शन में सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचा है, और आरोपी ने भी ऐसी प्रत्यक्ष कार्रवाई में भाग लिया है। अदालत ने यह भी कहा कि दंगाइयों को नुकसान के लिए सख्ती से उत्तरदायी बनाया जाएगा, और हुए नुकसान की "क्षतिपूर्ति" करने के लिए, कंपनसेशन वसूला जाएगा। अदालत ने यह साफ़ शब्दों में कहा था कि, "जहां व्यक्ति या लोग, चाहे संयुक्त रूप से या अन्यथा, एक विरोध का हिस्सा हैं, जो हिंसक हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप निजी या सार्वजनिक/लोक संपत्ति को नुकसान होता है, तो जिन व्यक्तियों ने यह नुकसान किया है, या वे उस विरोध का हिस्सा थे या जिन्होंने इसे आयोजित किया है, उन्हें इस नुकसान के लिए कड़ाई से उत्तरदायी माना जायेगा, और इस नुकसान का आकलन सामान्य अदालतों द्वारा किया जा सकता है या अधिकार को लागू करने के लिए बनाई गई किसी विशेष प्रक्रिया द्वारा किया जा सकता है।" दिशानिर्देशों के अनुसार, "यदि विरोध या उसके कारण, संपत्ति का एक बड़ा विनाश होता है, तो उच्च न्यायालय स्वयं से, मुकदमा चलाने की कार्रवाई शुरू कर सकता है और नुकसान की जांच करने और मुआवजा देने के लिए एक मशीनरी स्थापित कर सकता है। जहां एक से अधिक राज्यों में हिंसा हुई है, वहां सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ऐसी कार्रवाई की जा सकती है। इस नुकसान का दायित्व, अपराध करने वाले अपराधियों पर होगा और इस तरह के विरोध के आयोजक भी उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित दायित्व के अनुसार उत्तरदायी होंगे।" इसके अलावा इस मामले में यह भी दिशानिर्देश जारी किये गए कि, प्रत्येक मामले में, उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय, जैसा भी मामला हो, हर्जाने का अनुमान लगाने और दायित्व की जांच करने के लिए एक आयुक्त या सेवानिवृत्त जिला जज को क्लेम कमिश्नर (दावा आयुक्त) के रूप में नियुक्त कर सकता है। क्लेम कमिश्नर की सहायता के लिए एक असेसर नियुक्त किया जा सकता है। नुकसान को इंगित करने और अपराधियों के साथ सांठगांठ स्थापित करने के लिए, दावा आयुक्त और अस्सिटेंट, हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट से, जैसा भी मामला हो, मौजूदा वीडियो या अन्य रिकॉर्डिंग को निजी और सार्वजनिक स्रोतों से तलब करने के लिए निर्देश ले सकते हैं। इसके अलावा अनुकरणीय हर्जाना (Exemplary damages) एक सीमा तक प्रदान किया जा सकता है जो देय होने वाली क्षति की राशि के दोगुने से अधिक नहीं हो सकता है। वर्ष 2018 में कोडूनगल्लुर फिल्म सोसाइटी बनाम भारत संघ (2018) 10 SCC 713 के मामले में अदालत ने वर्ष 2009 के मामले में जारी दिशा-निर्देशों के अतिरिक्त कुछ दिशा-निर्देश जारी किये. पुलिस को जिम्मेदारी को दिशा-निर्देशों में संकलित करते हुए अदालत ने कहा:- A) जब हिंसा की कोई भी घटना, संपत्ति को नुकसान पहुंचाती है, तो संबंधित पुलिस अधिकारियों को प्राथमिकी दर्ज करनी चाहिए और वैधानिक अवधि के भीतर यथासंभव अन्वेषण पूरा करना चाहिए और उस संबंध में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करनी चाहिए। एफआईआर दर्ज करने और पर्याप्त कारण के बिना वैधानिक अवधि के भीतर जांच करने में किसी भी विफलता को संबंधित अधिकारी की ओर से कर्तव्य के खिलाफ माना जाना चाहिए और ऐसे मामलों को सही तरीके से विभागीय कार्रवाई के माध्यम से आगे बढ़ाया जा सकता है। B) चूंकि नोडल अधिकारी, सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों और अन्य संपत्तियों के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए प्रत्येक जिले में समग्र जिम्मेदारी रखता है, इसीलिए उसे एफआईआर दर्ज करने और / या उस संबंध में अन्वेषण कराने में किसी भी अस्पष्ट और / या असंबद्ध देरी को, उक्त नोडल अधिकारी की ओर से निष्क्रियता का मामला माना जाएगा। C) वीडियोग्राफी के संदर्भ में अधिकारी-प्रभारी को सर्वप्रथम, संबंधित पुलिस स्टेशन द्वारा घटनाओं को वीडियो-रिकॉर्ड करने के लिए बनाये गए स्थानीय वीडियो ऑपरेटरों के पैनल में से सदस्यों को कॉल करना चाहिए। यदि उक्त वीडियो ऑपरेटर, किसी भी कारण से घटनाओं को रिकॉर्ड करने में असमर्थ हैं या यदि प्रभारी अधिकारी की यह राय है कि पूरक जानकारी की आवश्यकता है, तो वह निजी वीडियो ऑपरेटरों से भी ऐसा करने को कह सकते हैं कि वे घटनाओं को रिकॉर्ड करें और यदि आवश्यक हो तो उक्त घटना के बारे में जानकारी के लिए मीडिया से अनुरोध करें। D) इस तरह के अपराधों के संबंध में अन्वेषण / परीक्षण की स्थिति रिपोर्ट, इस तरह के परीक्षण (ओं) के परिणामों सहित, संबंधित राज्य पुलिस की आधिकारिक वेबसाइट पर नियमित रूप से अपलोड की जाएगी। E) किसी भी व्यक्ति (यों) को इस तरह के अपराधों के आरोपों से बरी करने की स्थिति में, नोडल अधिकारी को ऐसे अभियुक्त के खिलाफ अपील दायर करने के लिए लोक अभियोजक के साथ समन्वय करना चाहिए। क्या है मौजूदा समस्या? हालाँकि, चूँकि ऐसा विनाश सामूहिक भीड़ द्वारा किया जाता है, और ऐसे ज्यादातर मामलों में, कोई पहचानने योग्य नेता/आयोजक नहीं होता है। यहां तक कि उन मामलों में, जहां बड़े पैमाने पर बुलाये गए आंदोलनों में पोस्टर पर कई बड़े नाम मौजूद होते हैं, परन्तु अदालत में यह तर्क दिया जा सकता है कि ऐसे लोगों ने कभी भी स्पष्ट रूप से ऐसे आन्दोलन/बंद/हड़ताल को नहीं बुलाया है। जैसा कि हमने जाना इस अधिनियम की धारा 4 के तहत, लोक संपत्ति को आग से नुकसान पहुंचाने की सजा, अधिकतम 10 साल तक की कारावास एवं जुर्माना है। लेकिन हाल के दौर में यह देखा गया है कि इस अधिनियम का इस्तेमाल न होने के कारण, यह क़ानून अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल रहा है। बंदों की संख्या में वृद्धि, उत्पीड़न, आंदोलन और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के बावजूद, अदालत में कम ही लोग दोषी करार दिए जा पाते हैं। इस तरह की घटनाओं से जुड़े सबूतों की उचित समझ न होना और अन्वेषण प्रक्रिया को उचित रूप में समझ पाने में असमर्थ अधिकारियों के कारण ऐसे मामलों में अपराधियों को दंडित करने में असमर्थता देखि गयी है। राज्य सरकारों ने नियमित रूप से अपराधियों को बुक करने के लिए विशिष्ट कानून के बजाय भारतीय दंड संहिता के कम सख्त प्रावधानों का सहारा लिया है जोकि उचित नहीं है। जैसा कि हमने देखा कि बंद, हड़ताल या आंदोलन के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले व्यक्तियों या राजनीतिक संगठनों द्वारा जिस तरह से क्षति पहुंचाई जाती है, उसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बात पर जोर दिया है कि इस तरह के कृत्यों से संबंधित पार्टी से क्षतिपूर्ति की जाए, हालाँकि वो भी करने में सरकारें अभी तक समग्र रूप से असमर्थ रही हैं। कोशी जैकब बनाम भारत संघ WRIT PETITION (CIVIL) NO.55 OF 2017 के मामले में, अदालत ने यह दोहराया था कि 1984 के इस कानून में बदलाव लाने की आवश्यकता है, और वास्तव में सरकार को इस कानून में बदलाव की दिशा में कदम उठाने चाहिए। एक ताज़ा मामले में, जब उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ और राज्य के अन्य हिस्सों में हाल ही में संशोधित नागरिकता अधिनियम के खिलाफ हिंसक विरोध प्रदर्शन हुआ तो उसमे भी हिंसा के चलते सार्वजनिक एवं निजी संपत्ति को बहुत नुकसान पहुंचा, जिसपर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यह इंगित किया कि संपत्ति को हुए नुकसान की भरपाई के लिए तोड़-फोड़ एवं हिंसा करने वाले व्यक्तियों की संपत्ति की नीलामी की जाएगी। उम्मीद यह है कि राज्य सरकार की यह कार्यवाही, सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के अंतर्गत, उचित रूप से अंजाम दी जाएगी, जिससे इन दिशा-निर्देशों का पालन करने की देश में एक बेहतर शुरुआत हो सके। 

Saturday, February 8, 2020

NDPS एक्ट 1985 का नियम जानिए -प्रमुख बातें


भारत के कड़े अधिनियमों में से एक अधिनियम है एनडीपीएस एक्ट 1985, जानिए प्रमुख बातें 

31 Dec 2019 12:56 PM

             भारतीय संसद में 1985 में एनडीपीएस एक्ट पारित किया गया, जिसका पूरा नाम नारकोटिक्स ड्रग्स साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट  1985 है। नारकोटिक्स का अर्थ नींद से है और साइकोट्रोपिक का अर्थ उन पदार्थों से है जो मस्तिष्क के कार्यक्रम को परिवर्तित कर देता है। कुछ ड्रग और पदार्थ ऐसे है जिनका उत्पादन और विक्रय ज़रूरी है, लेकिन उनका अनियमित उत्पादन तथा विक्रय नहीं किया जा सकता। उन पर सरकार का कड़ा प्रतिबंध होता है और रेगुलेशन है, क्योंकि ये पदार्थ अत्यधिक मात्रा में उपयोग में लाने से नशे में प्रयोग होने लगते हैं, जो मानव समाज के लिए बहुत बड़ी त्रासदी सिद्ध हो सकती है। ऐसी त्रासदी से बचने के लिए विश्व के लगभग सभी देशों द्वारा इस तरह के अधिनियम बनाए गए हैं। एनडीपीएस अधिनियम के बनने से पहले भी समस्त भारत के लिए कुछ अधिनियम थे जो इन पदार्थों का नियमन करते थे। जैसे डेंजरस ड्रग्स अधिनियम 1930 था। सभी अधिनियम को समाप्त कर एक अधिनियम बनाया गया, जिसका नाम एनडीपीएस एक्ट 1985 रखा गया। 
     यह अधिनियम इन पदार्थ और ड्रग्स के संबंध में पूरी व्यवस्थित प्रकिया और दंड का उल्लेख करता है। यूएन सम्मेलन के बाद एनडीपीएस एक्ट कई यूनाइटेड नेशन और यूनाइडेट स्टेट के सम्मेलनों में एनडीपीएस एक्ट बनाये जाने पर यूएन द्वारा ज़ोर दिया गया है तथा कठोरतापूर्वक इस अधिनियम को अधिनियमित किये जाने पर बल दिया है, उसके परिणामस्वरूप भारत समेत कई राष्ट्रों के ऐसे कानून तैयार किये हैं। एनडीपीएस एक्ट में प्रतिबंधित ड्रग्स अधिनियम के द्वारा एक अनुसूची दी गयी है। उस अनुसूची में केंद्रीय सरकार उन ड्रग्स को सम्मलित करती है जो नशे में प्रयोग होकर मानव जीवन के लिए संकट हो सकते है। 
       इन ड्रग्स का उपयोग जीवन बचाने हेतु दवाई और अन्य स्थानों पर होता है, परन्तु इनका अत्यधिक सेवन नशे में प्रयुक्त होता है, इसलिए इन्हें पूर्ण रूप से प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता परन्तु इनका नियमन अवश्य किया जा सकता है। कोका प्लांट्स, कैनाबिस, ओपियम पॉपी जैसे पौधे इसमे शामिल किए गए हैं। 
       मात्रा का महत्व इस अधिनियम में मात्रा के द्वारा ही दंड का प्रावधान किया गया है। मात्रा को तीन भागों में बांटा गया है, जिसमे,अल्पमात्रा और वाणिज्यिक और इन दोनों के बीच की मात्रा है। दंड भी इन तीन स्तरों पर ही होगा-----
1. अल्पमात्रा के लिए एक वर्ष तक का कारावास और जुर्माना जो दस हजार तक का हो सकेगा। 
2. अल्पमात्रा और वाणिजियक मात्रा के बीच की मात्रा के लिए दस वर्ष तक का कारावास और जुर्माना जो एक लाख तक का हो सकेगा। 
3. वाणिज्यिक मात्रा में बीस वर्ष तक का कारावास और कम से कम एक लाख तक का जुर्माना जो दो लाख तक का हो सकता है। 
    मात्रा का निर्धारण समय समय पर केंद्र द्वारा किया जाता रहता है। यहां अगर भारत के सीमा क्षेत्र के भीतर व्यक्ति के पास यदि एक ग्राम भी अफीम इस अधिनियम के अधीन बनाये नियम या दिए आदेश के अंतर्गत अनुज्ञप्ति के बगैर पायी जाती है तो भी वह दोषी होगा। ऐसे मामले में वह अल्पमात्रा का दोषी माना जाएगा। 
         इन पदार्थों और ड्रग्स का लगभग हर रूप प्रतिबंधित किया गया है और शास्ति रखी गयी है- अधिनियम के अंतर्गत अनुसूची में डाले गए पदार्थो का निर्माण, मैन्यूफेक्चरिंग, कृषि, प्रकिया, क्रय, विक्रय, संग्रह, आयात, निर्यात, परिवाहन और यहां तक उपभोग भी प्रतिबंधित किया गया है। इस ही के साथ उपभोग पर भी दंड रखा गया है।
     इस अधिनियम में है मृत्युदंड तक का प्रावधान इस अधिनियम में मृत्युदंड का भी प्रावधान रखा गया है। अधिनियम की धारा 31 A के अंतर्गत एक बार सिद्धदोष ठहराए जाने के बाद पुनः उस तरह का अपराध किया जाता है तो मृत्युदंड भी दिया जा सकता है। 
     अधिनियम के अंतर्गत अपराधों का प्रयास, तैयारी,उत्प्रेरणा,षड़यंत्र, उपभोग और फाइनेंस को भी अपराध बनाया गया है।
     और इन सभी के लिए वही दंड है जो इन अपराधों के लिए दंड रखा गया है। तीन प्रमुख पौधे अधिनियम के अंतर्गत तीन प्रमुख पौधे हैं, जिनकी खेती, परिवहन, आयात, निर्यात, संग्रह, क्रय, विक्रय, उत्पादन, कब्ज़ा और उपभोग अनुज्ञप्ति और इस अधिनियम के अंतर्गत किसी आदेश के बगैर दंडनीय है। 
 1-कोका का पौधा- इस पौधे से मुख्यता कोकेन प्राप्त की जाती है। कोकेन अत्यधिक नशीली होती है।
2- कैनाबिस का पौधा- इसे सामान्यता भांग का पौधा भी कहा जाता है। इस ही पौधे की फूल,पत्तियों और तने को सुखाकर गांजा बनाया जाता है। 
3-भांग केवल पत्तियों से तैयार हो जाती है। इस पौधे की मादा प्रजाति से एक गोंद जैसा द्रव निकलता है जिससे चरस बनती है। 
4-पोस्त का पौधा- इसे अफीम के पौधे के नाम से जाना जाता है। इस पौधे की पत्तियां नशीली नहीं होती है। इसका एक फल होता है जिसे डोडा कहा जाता है। डोडा पर चाकू मारने से दूध जैसा द्रव निकलता है जो सूखने पर अफीम बनता है। डोडा के भीतर दाने होते है जिन्हें खस खस के दाने कहा जाता है वह नशीले नहीं होते हैं, उन्हें मेवों में इस्तेमाल किया जाता है, जो सूखा हुआ ऊपर खोल बचता है उसे डोडा चूरा कहा जाता है जो नशीला होता है लेकिन अफीम से कम। इस ही पौधे से अत्यधिक आवश्यक औषधि मॉर्फिन प्राप्त की जाती है जो दर्द निवारक और नींद के लिए प्रयुक्त होती है।
        विशेष न्यायालय इस अधिनियम की धारा 36 के अंतर्गत विशेष न्यायालय से गठन किया गया है। उन ही न्यायालय द्वारा यह मामले विचारित किये जाते हैं। इस अधिनियम का उद्देश्य नशे के कारोबार पर सख्ती से अंकुश लगाना है और इसीलिए विशेष न्यायालय बनाए गए हैंं। अपराधी परिवीक्षा का लाभ नहीं मिलना अधिनियम के अंतर्गत सिद्धदोष व्यक्ति को अपराधी परिवीक्षा एवं दंड प्रकिया सहिंता 1973 की धारा 360 का लाभ नहीं मिलेगा। तलाशी के लिए शर्तें अधिनियम की धारा 50 के अंतर्गत तलाशी के लिए कुछ शर्तें रखी गयी हैं। इस धारा के निर्माण का उद्देश्य फ़र्ज़ी मुकदमे से जनसाधारण को सुरक्षित करना है। जब पुलिस या जांच अधिकारी किसी व्यक्ति से प्रतिबंधित स्वापक औषधि या मनः प्रभावी पदार्थ पाए जाने की शंका करता है तो उस निरुद्ध कर निकटवर्ती राजपत्रित अधिकारी या मजिस्ट्रेट के समक्ष लेकर जाएगा तथा उसके सामने तलाशी लेगा।       हालांकि पंजाब राज्य बनाम बलजिंदर सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निजी तलाशी के दौरान एनडीपीएस अधिनियम की धारा 50 का पालन नहीं करने से वाहन से हुई बरामदगी अमान्य नहीं हो जाती। 
     इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरोपी की निजी तलाशी के दौरान नशीला पदार्थ अधिनियम ‌(एनडीपीएस ) की धारा 50 का पालन नहीं करने के कारण वाहन से हुई बरामदगी अमान्य नहीं हो जाती है। 
      न्यायमूर्ति यूयू ललित, इंदु मल्होत्रा और कृष्ण मुरारी की पीठ ने कहा कि एनडीपीएस अधिनियम की धारा 50 सिर्फ निजी तलाशी तक सीमित है न कि वाहन या किसी कंटेनर परिसर की। आरिफ खान बनाम उत्तरांचल सरकार (एससी) के मामले में धारा 50 की भाषा की सम्पूर्णता को नजरंदाज किया गया है। धारा 50 स्पष्ट शब्दों में लिखा गया है। 
     जहां तक आरोपी को मजिस्ट्रेट या एक राजपत्रित अधिकारी के समक्ष तलाशी के विकल्प दिये जाने का प्रश्न है तो इस धारा में कोई भ्रम की स्थिति नहीं है। धारा 50(एक) और (दो) में इस्तेमाल भाषा ऐसे दृष्टांत बताती है, जहां संदिग्ध व्यक्ति मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी की मौजूदगी में तलाशी न कराने की इच्छा व्यक्त करता है।            धारा 50(एक) 'यदि ऐसा व्यक्ति आवश्यक समझता है' मुहावरे का इस्तेमाल करती है जबकि 50(दो) में कहा गया है, 'यदि ऐसा अनुरोध किया जाता है।' इसी तरह, धारा 50(पांच) और (छह) वैसे दृष्टांत देती है, जहां मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी की अनुपस्थिति में एक अधिकारी द्वारा कारणों को दर्ज करके तथा वरीय अधिकारी को सूचित करके तलाशी ली जाती है। 
      स्पष्ट रूप से, विधायिका ने मादक पदार्थों के संदिग्ध आरोपियों की तलाशी के दौरान किसी मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी की उपस्थिति अनिवार्य करने पर विचार नहीं किया। 
     आरिफ खान मामले में, आरोपी ने मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी की मौजूदगी में तलाशी लिये जाने का अपना अधिकार छोड़ दिया था। 
       हालांकि, उच्चतम न्यायालय ने पैरा संख्या 244 में बगैर कोई उचित कारण दिये खुद ही निष्कर्ष निकाल लिया कि चूंकि तलाशी संदिग्ध के शरीर की करनी थी, इसलिए, अभियोजन पक्ष के लिए यह साबित करना अनिवार्य है कि अपीलकर्ता की तलाशी और रिकवरी मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी की उपस्थिति में हुई थी। 

Friday, February 7, 2020

पुनर्विचार याचिका में पारित किसी आदेश की समीक्षा नहीं की जा सकती -सुप्रीम कोर्ट

 पुनर्विचार याचिका में पारित किसी आदेश की समीक्षा नहीं हो सकती : सुप्रीम कोर्ट 

7 Feb 2020 9:31


          पुनर्विचार याचिका में पारित किसी आदेश की समीक्षा नहीं हो सकती है, सुप्रीम कोर्ट ने एनजीओ लोक प्रहरी द्वारा पुनर्विचार याचिका में पारित आदेश को वापस लेने के लिए दायर एक आवेदन को खारिज करते हुए ये टिप्पणी की। 
         दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2018 में एनजीओ लोक प्रहरी द्वारा एक जनहित याचिका को खारिज कर दिया था जिसमें मांग की गई थी कि चूंकि कानून दोषसिद्धि पर रोक प्रदान नहीं करता है, यहां तक ​​कि इस मामले में अपीलीय अदालत द्वारा एक अपराध के लिए इस पर रोक लगाई गई हो तो भी जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 के तहत अयोग्यता पर ऐसे किसी भी स्थगन आदेश का प्रभाव नहीं होता है। अदालत ने दोहराया था कि एक बार सांसद या विधायक की दोषसिद्धि को अपीलीय अदालत ने सीआरपीसी की धारा 389 के तहत रोक दिया है तो जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 की उपधारा 1, 2 और 3 के तहत अयोग्यता संचालित नहीं होगी। इसके बाद, एनजीओ ने पुनर्विचार याचिका दायर की जिस पर चेंबर में विचार किया गया और खारिज कर दिया गया। बाद में एनजीओ द्वारा आदेश को वापस लेने का आवेदन दायर किया गया जिसे रजिस्ट्रार ने पंजीकृत करने से मना कर दिया। जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस दिनेश माहेश्वरी की पीठ के समक्ष यह मामला रखा गया था। यह तर्क दिया गया था कि रजिस्ट्रार के पास सर्वोच्च न्यायालय के नियमों, 2013 में उल्लिखित तीन आधारों को छोड़कर, आदेश वापस लेने के आवेदन के पंजीकरण से इनकार करने की कोई शक्ति नहीं है। इस संबंध में, पीठ ने देखा: उक्त आवेदन में दावा की गई राहत, हमारी राय में, अस्थिर है।                    पुनर्विचार याचिका में पारित आदेश की कोई समीक्षा नहीं हो सकती है। ये तथ्य कि पुनर्विचार याचिका में आदेश पारित किए जाने से पहले आवेदक-याचिकाकर्ता को नहीं सुना गया था, ' आदेश वापस के लिए आवेदन' दायर करने का आधार नहीं हो सकता है। इसके लिए, इस न्यायालय के व्यवहार और नियमों के अनुसार चेंबर में विचार करने की परंपरा के आधार पर पुनर्विचार याचिका का निर्णय लिया गया है। इस प्रकार, पीठ ने आवेदन को खारिज कर दिया। 
    लोक प्रहरी बनाम भारत निर्वाचन आयोग लोक प्रहरी द्वारा दायर जनहित याचिका में पारित फैसले में, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एएम खानविलकर की पीठ ने इस प्रकार कहा था: ".... यह अच्छी तरह से तय किया गया है कि अपीलीय अदालत के पास शक्ति है कि वो एक उपयुक्त मामले में, सजा को निलंबित करने के अलावा धारा 389 के तहत दोषसिद्धि पर भी रोक लगा सकता है लेकिन ये शक्ति एक अपवाद के रूप में है।इसका प्रयोग करने से पहले अपीलीय अदालत को इसके परिणाम के बारे में पता होना चाहिए कि अगर दोषसिद्धि पर रोक नहीं लगाई जाती तो यह सुनिश्चित हो कि इसके परिणाम अलग होंगे। एक बार अपील अदालत द्वारा दोषसिद्धि पर रोक लगाने के बाद, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 की उपधारा 1, 2 और 3 के तहत अयोग्यता संचालित नहीं होगी। अनुच्छेद 102 (1) (ई) और अनुच्छेद 191 (1) (ई) के तहत अयोग्यता संसद द्वारा या उसके तहत बनाए गए किसी भी नियम के तहत संचालित होती है। धारा 8 के उपर्युक्त प्रावधानों के तहत अयोग्यता सूचीबद्ध अपराधों में से किसी एक पर हो सकती है। 
        एक बार दोषसिद्धि पर अपील के लंबित रहने के दौरान रोक लगा दी गई तो अयोग्यता जो सजा के परिणाम के रूप में संचालित होती है, प्रभाव में नहीं ले सकती या बनी नहीं रह सकती है।" यह भी स्पष्ट किया था कि ये प्रस्तुत करने में कोई योग्यता नहीं है कि धारा 389 के तहत अपीलीय अदालत द्वारा प्रदत्त शक्ति में, एक उपयुक्त मामले में, दोषसिद्धि पर रोक लगाने की कोई शक्ति शामिल नहीं है- यह इस प्रकार कहा गया था: "स्पष्ट रूप से, अपीलीय अदालत इस तरह की शक्ति होती है। राम नारंग मामले में कानूनी स्थिति और उसके बाद के फैसलों के तहत ये प्रस्तुत करने में कोई योग्यता नहीं है कि धारा 389 के तहत अपीलीय अदालत में दी गई शक्ति में एक उचित मामले में दोषसिद्धि पर रोक लगाने की शक्ति शामिल नहीं है। 
        स्पष्ट रूप से, अपीलीय अदालत के पास ऐसी शक्ति होती है। इसके अलावा, निश्चित रूप से ऐसा नहीं है कि कि अपीलीय अदालत द्वारा दोषसिद्धि पर रोक लगाने के बावजूद अयोग्यता बनी रहेगी। 
       अपीलीय अदालत में ये प्राधिकृत शक्ति ये सुनिश्चित करने के लिए है कि अस्थिर या तुच्छ आधार पर एक सजा गंभीर पूर्वाग्रह पैदा करने के लिए काम ना करे। जैसा कि लिली थॉमस के फैसले में स्पष्ट किया गया है कि दोषसिद्धि पर रोक के कारण धारा 8 1, 2 और 3 के उपबंधों से संबंधित अयोग्यता के परिणाम भुगतने से व्यक्ति को राहत मिलेगी।"