Wednesday, December 25, 2019

बन्द कमरे की कार्यवाही जानें

जानिए 'इन -कैमरा' (बंद कमरा) कार्यवाही क्या होती है, इसे कब आयोजित किया जाता है?

 25 Dec 2019 8:30 



भारत में स्थापित न्यायिक प्रणाली की एक आवश्यक और आंतरिक व्यवस्था के रूप में यह अच्छी तरह से तय किया गया है कि देश में 'खुले न्यायालय' (Open Court) का सिद्धांत कार्यशील होगा। अर्थात न्यायालय में कोई भी न्यायिक कार्य एवं न्यायालय की कार्यशैली, जनसाधारण की नजरों से दूर नहीं होगी, और कोई भी व्यक्ति, जब चाहे न्याय के मंदिर में प्रवेश करते हुए वहां की कार्यप्रणाली का अनुभव कर सकता है। यह सिद्धांत, किसी भी आमजन को, जो कानून के शासन के वास्तविक प्रवर्तन को देखने का इच्छुक है, ऐसा करने में सक्षम बनाता है। इस बात को विस्तार से समझाने की कोई आवश्यकता नहीं है कि खुले न्यायालय की प्रणाली, एक निष्पक्ष एवं स्वतंत्र प्रणाली के रूप में मानी जाती है। इस तरह की पारदर्शिता, न्यायिक व्यवस्था में लोगों के विश्वास को भी मजबूत करती है और प्रणाली के नियमन के साथ-साथ उसकी दक्षता को भी सुनिश्चित करती है। इसी क्रम में, नरेश बनाम महाराष्ट्र राज्य (AIR 1967 SC 1) के मामले में इस सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या की गयी है। इस मामले में यह कहा गया कि, "महान दार्शनिक, प्लेटो ने बहुत पहले अपने कानूनों में यह विचार किया था कि नागरिकों को ट्रायल के वक्त उपस्थित होना चाहिए और उसे ध्यान से सुनना चाहिए। हेगेल ने अपने 'अधिकार के दर्शन' में कहा है कि न्यायिक कार्यवाही सार्वजनिक होनी चाहिए क्योंकि न्यायालय का उद्देश्य न्याय करना है, जो सभी के लिए एक सार्वभौमिक मामला है, कुछ असाधारण मामलों को छोड़कर, न्याय की अदालत की कार्यवाही को जनता के लिए खोला जाना चाहिए।" हालाँकि परिस्थितियों के मुताबिक, हर बार यह न्याय एवं पक्षकारों के हित में नहीं होता कि हर मामले की कार्यवाही को खुली अदालत में अंजाम दिया जाए। इसीलिए 'इन-कैमरा' कार्यवाही (बंद कमरे में चलने होने वाली कार्यवाही) को अंजाम दिया जाता है और इसे एक खुली अदालत के नियम एवं सिद्धांत के अपवाद के रूप में समझा जाता है। एक खुली अदालत या खुला न्याय तब होता है, जब किसी मामले की सुनवाई आम लोगों और प्रेस की उपस्थिति में की जाती है, जो जनता के समक्ष मामलों को रिपोर्ट करेगा। किसी भी अदालती कार्यवाही का सामान्य कोर्स, एक खुली अदालत है। जहाँ खुली अदालत प्रणाली एक नियम है, वहीँ 'इन-कैमरा' कार्यवाही एक अपवाद है। निजी सुनवाई/बंद कमरे की सनुवाई, केवल न्यायाधीश, वकील, अभियुक्त की उपस्थिति में संबंधित गवाहों के साथ आयोजित की जाती है। इस तरह की सुनवाई की कार्यवाही मीडिया या आम जनता को ज्ञात नहीं होती है। गौरतलब है कि प्रेस और अन्य मीडिया को भी "इन-कैमरा" कार्यवाही, प्रकाशित करने की अनुमति नहीं है, इस संदर्भ में, हम "बंद कमरे में" कार्यवाही पर भारतीय कानून के कुछ बुनियादी प्रावधानों पर गौर कर सकते हैं। कानूनी प्रावधान क्या हैं? सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 153 बी यह कहती है कि, 'वह स्थान जहाँ किसी वाद के विचारण के प्रयोजन के लिए कोई सिविल न्यायालय लगता है, खुला न्यायालय समझा जायेगा और उसमे साधारणतः जनता की वहां तक पहुँच होगी जहाँ तक जनता इसमें सुविधापूर्वक समां सके: परन्तु यदि पीठासीन न्यायाधीश ठीक समझे तो वह किसी विशिष्ट मामले की जांच या विचारण के किसी भी प्रक्रम पर यह आदेश दे सकता है कि साधारणतः जनता या किसी विशिष्ट व्यक्ति की न्यायालय द्वारा प्रयुक्त कमरे या भवन तक पहुँच नहीं होगी या वह उसमे नहीं आएगा या वह नहीं रहेगा। 'इन-कैमरा' कार्यवाही आमतौर पर न्यायिक पृथक्करण, तलाक की कार्यवाही, नपुंसकता और ऐसे अन्य मामलों सहित वैवाहिक विवादों के मामलों में आयोजित की जाती है। हालाँकि, जहाँ एक सिविल कोर्ट, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के तहत कार्यवाही का संचालन कर रही है, उसके पास यह विवेकाधिकार होता है कि वह एक मुकदमे में "इन-कैमरा" कार्यवाही करने के आदेश दे सकती है (केवल परिवार से संबंधित मामलों की कार्यवाही, या यदि पार्टियों की ऐसी इच्छा हो तो) - Order XXXII A Rule 2 CPC के अंतर्गत। बेशक, अदालतें अपने निहित शक्तियों के अभ्यास में किसी भी व्यक्ति के अदालत में प्रवेश पर रोक लगा सकती हैं। इसी प्रकार, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 327 (1) में यह कहा गया है कि 'वह स्थान, जिसमे कोई दंड न्यायालय किसी अपराध की जांच या विचारण के प्रयोग से बैठता है, खुला न्यायालय समझा जायेगा, जिसमे जनता साधारणतः प्रवेश कर सकेगी जहाँ तक कि सुविधापूर्वक वे उसमे समां सकें': हालाँकि इसी धारा में यह प्रावधान है कि, 'यदि पीठासीन न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट ठीक समझे तो वह किसी विशिष्ट मामले की जांच या विचारण के किसी भी प्रक्रम में यह आदेश दे सकता है कि जनसाधारण या कोई विशेष व्यक्ति उस कमरे में या भवन में, जो न्यायालय द्वारा उपयोग में लाया जा रहा है, न तो प्रवेश करेगा, न होगा न रहेगा।' इसी प्रकार हम देख सकते हैं कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 327 में उन मामलों के प्रकारों को रखा गया है, जिनकी कार्यवाही "इन-कैमरा" संचालित की जानी चाहिए, इनमे बलात्कार, पीड़िता की मृत्यु या लगातार विकृतशील दशा कारित करने, पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ पृथक्करण के दौरान मैथुन, प्राधिकार में किसी व्यक्ति द्वारा मैथुन, सामूहिक बलात्संग के मामले शामिल हैं। "कैमरा में" कार्यवाही आम तौर पर ऊपर बताए गए संवेदनशील मुद्दों से जुड़े मामलों में पार्टियों की गोपनीयता की रक्षा के लिए आयोजित की जाती है। इसके सम्बन्ध में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 327 (2) कहती है:- (2) उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी, भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 376, धारा 376 क, धारा 376 ख, धारा 376 ग़, धारा 376 घ, धारा 376 ड के अधीन, बलात्संग या किसी अपराध की जांच या उसका विचारण बंद कमरे में किया जायेगा। इसके अलावा हम हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 और परिवार न्यायालय अधिनियम के तहत "कैमरे में" कार्यवाही के अन्य उदाहरण देख सकते हैं। हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के अंतर्गत धारा 22 की कार्यवाही, कैमरे में होनी चाहिए और यह मुद्रित या प्रकाशित नहीं हो सकती है। इस अधिनियम के तहत हर कार्यवाही 'बंद कमरे' में की जाएगी और किसी भी व्यक्ति के संबंध में किसी भी मामले को छापना या प्रकाशित करना कानूनन उचित नहीं होगा। उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के फैसले को मुद्रित या प्रकाशित, न्यायालय की पूर्व अनुमति के साथ किया जाता है। फैमिली कोर्ट एक्ट की धारा 11 कहती है कि, हर उस मुकदमे या कार्यवाही में, जिसके लिए यह एक्ट लागू होता है, उसकी कार्यवाही 'इन-कैमरा' हो सकती है, यदि फैमिली कोर्ट की ऐसी इच्छा हो और यह कैमरा के अंतर्गत होगी ही, अगर कोई पक्षकार चाहें तो। संथिनी बनाम विजय वेंकटेश TRANSFER PETITION (CIVIL) NO।1278 OF 2016 के मामले में CJI की पीठ ने यह फैसला दिया था कि वैवाहिक विवादों की कार्यवाही को 'बंद कमरे' में आयोजित किया जा सकता है। अदालत ने कहा कि 'इन-कैमरा' कार्यवाही करने का निर्णय, पारिवारिक अदालतों पर छोड़ दिया जाना चाहिए। एक कठोर नियम नहीं बनाते हुए, अदालत ने आगे कहा कि 'इन-कैमरा' कार्यवाही करने के कारण, केस-टू-केस विश्लेषण पर निर्भर कर सकते हैं। 'इन-कैमरा' कार्यवाही की महत्वता कुछ विशेष मामलों में 'इन-कैमरा' कार्यवाही की महत्वता ऐसे समझी जा सकती है कि अपने विवेक के प्रयोग में और यदि अदालत ऐसा करना उचित समझती है, तो न्यायालय यह आदेश दे सकता है कि किसी मुकदमें की कार्यवाही को 'इन-कैमरा' रखा जायेगा, और आम तौर पर जनता के पास अदालत द्वारा उपयोग किए जाने वाले न्यायालय कक्ष या भवन में पहुंचने या रहने की कोई अनुमति नहीं होगी। इस अपवाद की प्रकृति ही ऐसी है कि अदालत के लिए यह निर्णय लेने से पहले कि अदालती कार्यवाही को जनता की निगाह से बाहर रखा जायेगा, उचित देखभाल और सावधानी बरतने की आवश्यकता है। ऐसी सावधानी बरतने के बाद असाधारण और उचित मामलों में, अदालत यह निर्देश दे सकती है कि पूरी कार्यवाही या उसका एक हिस्सा 'इन-कैमरा' संचालित किया जाएगा - जानकी बल्लाव बनाम बेनेट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड (AIR 1989 Orissa 225)। हमे यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि सार्वजनिक परीक्षण के महत्व पर जोर देते हुए, हम इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि न्यायपालिका का प्राथमिक कार्य, उन पक्षों के बीच न्याय करना है, जो मामले को अदालत के सामने लाते हैं। नरेश श्रीधर मिराजकर एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य 1966 SCR (3) 744 के मामले में अदालत ने इस प्रश्न का अवलोकन किया था कि यदि किसी कारण से, मामले का परिक्षण करने वाला न्यायाधीश इस बात को लेकर संतुष्ट हो जाता है कि मामले में सच्चाई खोजने का उद्देश्य धुंधला जाएगा, यदि गवाहों को सार्वजनिक रूप से साक्ष्य देने की आवश्यकता होगी तो क्या यह बेहतर नहीं कि उसे यह अन्तर्निहित शक्ति दी जाए कि वह उस मामले की कार्यवाही को आंशिक रूप से या पूरी तरह से 'इन-कैमरा' आयोजित करने के आदेश दे? यदि अदालत का प्राथमिक कार्य उसके सामने लाए गए मामलों में न्याय करना है, तो इस बात को स्वीकार करना मुश्किल है कि खुले अदालत के सिद्धांत के लिए कोई अपवाद नहीं हो सकता है। ऐसे मामले अवश्य उत्पन्न हो सकते हैं, जहां इस सिद्धांत का पालन करने से न्याय स्वयं पराजित हो सकता है। यही कारण है कि नरेश श्रीधर मिराजकर मामले में कहा गया कि 'इन-कैमरा' ट्रायल, या कार्यवाही मामले की परिस्थितियों को देखते हुए आयोजित की जा सकती है। आइये देखते हैं वह कुछ मामले जहाँ "इन-कैमरा" कार्यवाही को अनुमति दी गयी भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद का मामला: पुलिस के आदेशों की अवहेलना में 20 दिसम्बर 2019 को नमाज के बाद दिल्ली की जामा मस्जिद पर विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद को शनिवार (21 दिसम्बर) को मस्जिद से बाहर आने के बाद गिरफ्तार कर लिया गया था। उन्हें चाणक्यपुरी पुलिस स्टेशन ले जाया गया और बाद में अदालत में पेश किया गया, जहाँ असामान्य रूप से एक 'इन-कैमरा' सुनवाई की गयी और उन्हें 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। इससे पहले दिल्ली पुलिस के कर्मियों ने पत्रकारों को अदालत कक्ष में पहुंचने से रोकने के लिए, अदालत के दरवाजे बंद कर दिए थे, लेकिन कुछ पत्रकारों ने विरोध प्रदर्शन के बाद अदालत कक्ष में प्रवेश प्राप्त कर लिया। जब पत्रकारों ने पुलिस के व्यवहार के बारे में मजिस्ट्रेट से शिकायत की, तो मामले की सुनवाई की प्रेस रिपोर्टिंग को रोकते हुए "इन-कैमरा" कार्यवाही के लिए मजिस्ट्रेट अरजिंदर कौर द्वारा एक आदेश पारित किया गया। आजाद के वकील एडवोकेट महमूद पारचा ने मीडिया रिपोर्टिंग पर रोक लगाने पर आपत्ति जताई। पत्रकारों ने जिला न्यायाधीश कामिनी लाउ के समक्ष पुलिस के व्यवहार और मीडिया रिपोर्टिंग पर रोक के बारे में शिकायत की। जिला न्यायाधीश ने मौखिक रूप से सहमति व्यक्त की कि अदालत की कार्यवाही की रिपोर्टिंग करना मीडिया का मौलिक अधिकार था, और उन्होंने इस घटना को "बिल्कुल दुर्भाग्यपूर्ण" करार दिया। नपुंसकता का मामला: केरल राज्य के एक मामले में, एक पत्नी ने पति की नपुंसकता के आधार पर तलाक की मांग की थी। तलाक की कार्यवाही के दौरान, पत्नी ने अपने और अपने परिवार की गोपनीयता बनाए रखने के लिए, 'इन-कैमरा' कार्यवाही के लिए आवेदन किया था। लिएंडर पेस के खिलाफ घरेलू हिंसा की कार्यवाही: रिया पिल्लई ने बांद्रा मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट अदालत के सामने अपने पति लिएंडर पेस के खिलाफ एक याचिका दायर की थी (घरेलू हिंसा का आरोप लगाते हुए), जिसमें अदालत ने कहा था कि यह मामला एक "व्यक्तिगत प्रकृति" का था और इस लिए कार्यवाही का हिस्सा, बंद कमरे में आयोजित किया गया था। आसाराम बापू के खिलाफ बलात्कार का मामला: आसाराम बापू के खिलाफ बलात्कार के आरोपों में, गांधीनगर की एक अदालत ने मई 2017 में बंद कमरे में कार्यवाही आयोजित करने का आदेश दिया था। गवाहों की सुरक्षा के लिए एवं उनकी गोपनीयता बनाए रखने के लिए यह फैसला किया गया था। अदालत ने कहा, "अब से, गवाहों के जीवन पर जोखिम को देखते हुए, कार्यवाही 'इन-कैमरा' आयोजित की जाएगी।" 16 दिसंबर, 20012 गैंगरेप: एक 23 वर्षीय महिला के साथ बस में 6 लोगों द्वारा बर्बरतापूर्वक बलात्कार करने के मामले की सुनवाई करते हुए, दिल्ली की एक अदालत ने कार्यवाही को बंद कमरे में आयोजित करने का आदेश दिया था। 

Tuesday, December 24, 2019

धारा 144सीआरपीसी क्या है

एक्सप्लेनरः धारा 144 सीआरपीसी लगाने के आधार क्या हैं? 

21 Dec 2019 1:00 PM 

              इन दिनों ' धारा 144 सीआरपीसी' की खासी चर्चा हो रही है। हाल ही में संसद से पास नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ बड़े पैमाने पर हो रहे विरोध पर लगाम लगाने के लिए देश्‍ भर में पुलिस ने धारा 144 का इस्तेमाल किया है। उत्तर प्रदेश की तकरीबन आबादी 20 करोड़ है और पुलिस ने बीते दिनों पूरे सूबे पर धारा 144 लगा दी थी। यूपी डीजीपी ने ये जानकारी ट्विटर पर दी थी। बेंगलुरु के पुलिस आयुक्त ने धारा 144 लगाने को सही ठहराते हुए कहा कि जब दूसरों को 'असुविधा' हो तो मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगाया जा सकता है। क्‍या है 'खूंखार' धारा 144 सीआरपीसी की धारा 144 ‌‌डि‌स्टिक्ट मजिस्ट्रेट, सब-‌डी‌विजनल मजिस्ट्रेट या किसी अन्य कार्यकारी मजिस्ट्रेट को राज्य सरकार की ओर से किसी विशेष स्‍थान या क्षेत्र में एक व्यक्ति या आम जनता को "विशेष गतिविधि से दूर रहने " या "अपने कब्जे या प्रबंधन की किसी संपत्ति के संबंध में कोई आदेश लेने के लिए" आदेश जारी करती है। धारा 144 लगाने का आदेश "मजिस्ट्रेट" निम्न ‌स्थितियों पर रोक लगाने के लिए दे सकता है- 1-किसी भी व्यक्ति को कानूनी रूप से नियोजित करने में बाधा हो, परेशानी हो या चोट आने की आशंका हो 2-मानव जीवन को, स्वास्‍थ्य और सुरक्षा पर संकट हो 3- अशांति, दंगा या उत्पीड़न की आशंका हो। यह आदेश एक विशेष व्यक्ति या आम जनता के खिलाफ पारित किया जा सकता है। एक पक्षीय आदेश भी पारित किया जा सकता है। तो, क्या धारा 144 के तहत प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग एक कार्यकारी अधिकारी किसी खतरे की अशंका के आधार पर महज व्यक्‍तिगत संतुष्टि के लिए कर सकता है? उक्त प्रश्न का हल ढूंढ़ने से पहले यह ध्यान में रखना जरूरी है कि धारा 144 के तहत दिए गए आदेश संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए), (बी) और (सी) के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों मसलन अभिव्यक्ति, स्वतंत्रता, एक जगह जुटने और प्रदर्शन के अधिकार का हनन करते हैं। इसलिए धारा 144 के तहत दिए गए आदेशों को अनुच्छेद 19 के अनुसार "उचित प्रतिबंध" की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। यह पता लगाने के लिए कि प्रतिबंध अनुच्छेद 19 के तहत दी गई स्वतंत्रता की कसौटी पर उचित है या नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने "अनुपातिकता का परीक्षण" विकसित किया है। मॉडर्न डेंटल कॉलेज केस (2016) में संविधान पीठ के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रतिबंध लगाने वाले कानून को आनुपातिक माना जाएगा: 1-यह एक उचित उद्देश्य को पाने के लिए हो, और 2-यदि उद्देश्य का पाने के लिए किए गए उपाय तर्कसंगत रूप से उद्देश्य से जुड़े हों, और 3-यदि इस तरह के उपाय जरूरी हों। पुट्टस्वामी मामले (2017) में, सुप्रीम कोर्ट ने आनुपातिकता निर्धारित करने के लिए 'फोर-फोल्ड टेस्ट' किया: (a) एक अधिकार को सीमित करने वाले उपाय लक्ष्य वैध हों (वैध लक्ष्य चरण)। (b) लक्ष्य को आगे बढ़ाने का उपयुक्त साधन होना चाहिए (उपयुक्तता या औचित्य संबंध चरण)। (c)कोई कम प्रतिबंधात्मक लेकिन समान रूप से प्रभावी विकल्प नहीं होना चाहिए (आवश्यकता चरण)। (d)उपाय का अधिकार उपभोक्ताओं पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं होना चाहिए (संतुलन चरण)। इस प्रकार धारा 144 सीआरपीसी के तहत पारित आदेशों की वैधता का परीक्षण 'तर्कशीलता' और 'आनुपातिकता' के इन सिद्धांतों के आधार पर किया जाएगा। वरिष्ठ अधिवक्ता मेनका गुरुस्वामी ने अपनी रिसर्च 'फ्रीडम टू असेंबली एंड फ्रीडम ऑफ एसोसिएशन' में लिखा है कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1), (बी) और (सी) के विरोधाभासी दृष्टिकोण और सीआरपीसी की धारा 144 "औपनिवेशिक विरासत का एक प्रतिबिंब है और समकालीन भारतीय राज्य द्वारा 1872 की दंड प्रक्रिया संहिता के अधिकांश प्रावधानों को निर्विवाद रूप से अपना लिया गया है। खतरे की संभावना मात्र धारा 144 लगाने की आधार नहीं सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि मात्र खतरे की आशंका के आधार पर धारा 144 सीआरपीसी लागू करके नागरिकों के अधिकारों पर रोक नहीं लगाई जा सकती है। 'संभावना' या 'प्रवृत्ति' नहीं 'आसन्न' खतरे की स्पष्‍ट आशंका होनी चाहिए। बाबूलाल परते बनाम महाराष्ट्र राज्य (1961) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि धारा 144 का उपयोग खतरे की प्रत्याशा में भी किया जा सकता है, हालांकि ये पर्याप्त सामग्रियों पर आधारित होना चाहिए, सार्वजनिक सुरक्षा के लिए किसी गतिविधि पर तत्काल रोक लगाने की आवश्यकता को जरूरी बताते हों। "धारा में निर्धारित परीक्षण केवल 'संभावना' या 'प्रवृत्ति' नहीं है। धारा कहती है कि मजिस्ट्रेट को संतुष्ट होना चाहिए कि सार्वजनिक सुरक्षा पर आसन्‍न खतरे को रोकने के लिए विशेष कृत्यों पर तत्काल रोकथाम आवश्यक है। धारा के तहत प्रदत्त शक्तियां खतरा मौजूद होने की स्थिति में भी प्रयोग होंगी और खतरे की आशंका होने पर भी।" मधु लिमये बनाम एसडीएम (1970) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने धारा 144 की संवैधानिकता को ये कारण देते हुए बरकरार रखा कि उसने 'सार्वजनिक व्यवस्था के हित में' उचित प्रतिबंध की व्यवस्‍था की। हालांकि, अदालत ने कहा कि इस शक्ति का प्रयोग केवल आकस्मिक और जरूरी स्थितियों में ही किया जाना चाहिए: "धारा 144 के तहत कार्रवाई का आधार स्थिति की तात्कालिकता है और कुछ हानिकारक घटनाओं को रोकने में सक्षम होने की प्रभावकारिता है।" रे-रामलीला मैदान मामले (2012) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा: "केवल आशंका के मामले में, ‌बिना किसी भौतिक तथ्यों के, जो ये बता सके कि कि आशंका आसन्न और वास्तविक है, अधिकारियों के लिए ये उचित नहीं है कि वो नागरिक के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाए।" जैसा कि रे रामलीला हादसा प्रकरण में बताया गया है, धारा 144 के तहत आदेश की आवश्यक शर्तें हैं: (1) यह एक कार्यकारी शक्ति है जो अधिकारी में निहित होती है; (2) कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार मौजूद होना चाहिए; (3) तत्काल रोकथाम या शीघ्र उपाय वांछनीय है; तथा (4) एक आदेश, लिखित रूप में, भौतिक तथ्यों को बताते हुए पारित किया जाना चाहिए और संबंधित व्यक्ति पर उसी तरह से कार्य किया जाना चाहिए। इस मामले में, अदालत ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर लगाए गए प्रतिबंधों के समर्थन में कारण और भौतिक तथ्य मौजूद नहीं है। न्यायालय ने प्रदर्शनकारियों पर पुलिस कार्रवाई को अवैध बताते हुए कहा कि: "पुलिस यह स्थापित करने में विफल रही है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी कि जहां हस्तक्षेप करने की आवश्यकता थी"। अदालत ने पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने आदेश दिया और उन लोगों को मुआवजा देने का आदेश दिया जो पुलिस कृत्यों के कारण पीड़ित हुए थे। इसलिए, उपरोक्त निर्णय, जब आनुपातिकता के सिद्धांत के साथ पढ़े जाते हैं, इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि धारा 144 के तहत आदेश केवल तभी दिया जा सकता है, जब साबित करने के लिए निम्न कारण हों: 1-यह खतरा तत्काल है। 2-तत्काल खतरे को रोकने के लिए प्रतिबंध आवश्यक हैं। इसके अलावा, प्रतिबंध बिल्कुल आवश्यक होना चाहिए, और जितना संभव हो उतना कम आक्रामक होना चाहिए, खतरे के अनुपात में होना चाहिए। इसका मतलब है कि अगर खतरे से बचने के लिए कम प्रतिबंधात्मक साधन हैं, तो उन्हें अपनाया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह भी है कि केवल सार्वजनिक विरोध को दबाने के इरादे से पारित किए गए प्रतिबंध के व्यापक आदेश कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने शायरा बानो बनाम भारत संघ और अधीक्षक, केंद्रीय कारागार बनाम राम मनोहर लोहिया के मामलों में कहा है कि एक राजकीय कार्रवाई जो तर्कहीन रूप है या पर्याप्त निर्धारण सिद्धांत के बिना की गई है, प्रकट रूप से मनमानी है और राज्य केवल भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर तभी प्रतिबंध लगा सकता है यदि वह भाषण और सार्वजनिक व्यवस्था के बीच एक करीबी संबंध देख रहा हो।

Saturday, December 14, 2019

विधि के विभिन्न एक समान शव्दों में अन्तर

जानिए कानून के एक जैसे शब्द और उनके अलग अलग अर्थ 

13 Dec 2019 

भारतीय विधि व्यवस्था में आम लोगों के सामने ऐसे बहुत से शब्द आते हैं, जो दो शब्द एक जैसे अर्थो के प्रतीत होते हैं, परंतु उन शब्दों के अर्थ बहुत भिन्न भिन्न होते हैं। कानूनी प्रक्रिया से दूर रहने वाले लोग या फिर ऐसे लोग जिनका न्यायालय इत्यादि से कोई काम नहीं रहा वह इन शब्दों से भ्रमित होते हैं। बहुत से लोग तो सारा जीवन उन शब्दों को पढ़ते, देखते और उपयोग करते रहते हैं, उसके पश्चात भी उन शब्दों के संबंध में उचित जानकारी नहीं रख पाते हैं। ये शब्द भ्रमित करने वाले होते हैं। आप जानकारी के अभाव में यह तय ही नहीं कर पाते कि इस व्यंजन के लिए यह शब्द होगा या फिर वह शब्द होगा, दो शब्दों के बीच भ्रम जैसा तत्व जन्म ले लेता है। कभी कभी बात भी शब्दों के बीच रह जाती है। सही अर्थ वाली बात हो ही नहीं पाती और उसके स्थान पर गलत अर्थ के शब्द को उपयोग में कर लिया जाता है। विधि के ज्ञान में विधि के शब्दों की उचित जानकारी अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखती है। शब्दों का ठीक ज्ञान होना चाहिए। आम व्यक्ति से लेकर विधि व्यवसायी को भी शब्दों के ठीक अर्थों और टर्मिनोलॉजी की आवश्यकता होती है। इस लेख में ऐसे कुछ शब्दों पर चर्चा की जा रही है। बिल और अधिनियम- आधुनिक समय में राज्य द्वारा अपने राज्य के भीतर राज्य के संचालन और राज्य के नागरिक तथा गैर नागरिकों के लिए आदेशों को विधि कहा जाता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 में विधि को परिभाषित किया गया है, जिसमे अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, विनियम, अधिसूचना, रूढ़ि या प्रथा विधि माना गया है। अधिनियम इस ही विधि का एक हिस्सा है। अधिनियम एक सहिंताबद्ध विधि है, जिसमें किसी विशेष विषय पर राज्य का व्यवस्थित विधान होता है। अधिनियम संसद की बनायी सबसे शक्तिशाली विधि होती है।अधिनियम को अध्ययन, धाराओं और उपधाराओं के अंतर्गत सुविधाओं के हिसाब से बांटा जा सकता है। वैसे अधिनियम में धाराएं और उपधारा आवश्यक रूप से होती ही हैं। बिल संसदीय विधि का शैशव काल है। कोई अधिनियम बिल होने के बाद ही अधिनियम का रूप लेता है। एक तरह से बिल जब बहुमत प्राप्त कर जाता है तो वह अधिनियम हो जाता है। बगैर यथेष्ट बहुमत प्राप्त किए कोई बिल अधिनियम का रूप नहीं धारण करता है। यदि बिल बहुमत प्राप्त नहीं कर पाता है तो यह कहा जा सकता है कि अधिनियम अपने शैशव काम मे ही मर गया। बिल यथेष्ट सदनों और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से मोहर लगने पर ही अधिनियम होता है। बिल पर जैसे ही राष्ट्रपति अपनी मोहर लगाते हैं, वह अधिनियम होकर राज्य में विधि बनकर लागू हो जाता है। बिल को विधि नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बिल आदेशात्मक रूप से राज्य में लागू नहीं होता है वह संसद में ही रहता है। बिल का विकसित रूप अधिनियम होता है। धारा और अनुच्छेद- हांलाकि जानकार लोग अनुच्छेद और धारा का अंतर बहुत अच्छी समझते हैं। आम लोगों के लिए धारा और अनुच्छेद बहुत ज्यादा भ्रमित करने वाले शब्द हैं। यह शब्द तो आम लोगों के साथ बहुत से नेतागणों को भी भ्रमित कर देते हैं। वह समझ ही नहीं पाते कि धारा किसे कहा जाए और अनुच्छेद किसे कहा जाए। जैसे कि आपने कश्मीर के संबंध में सुना होगा कि धारा 370। पत्रकारों द्वारा भी 370 के साथ धारा शब्द उपयोग कर दिया जाता था, परन्तु यह धारा शब्द बिल्कुल नहीं है, यह अनुच्छेद 370 है। धारा- संसद द्वारा जो साधारण अधिनियम बनाए जाते हैं, उनमें विषयों को बांटने के लिए धारा शब्द उपयोग किया जाता है। धारा के साथ उपधारा भी रखी जाती है। धारा को अंग्रेजी भाषा में 'सेक्शन' कहा जाता है। धारा अधिनियम का महत्वपूर्ण भाग होती है। किसी भी अधिनियम में मुख्यतः धारा ही उपयोग में लाई जाती है, परन्तु कुछ अधिनियम में आदेश और नियम भी होते हैं। अनुच्छेद- किसी भी संविधान में अनुच्छेद होते हैं। कोई आधुनिक संविधान बगैर अनुच्छेद के शायद ही पूर्ण होता होगा। संविधान को पृथक पृथक भागों में बांटा जाता है तथा यह भाग अनुच्छेद में बंटे होते हैं, परन्तु भिन्न भिन्न भाग के लिए भिन्न भिन्न अनुच्छेद नहीं होते हैं। अनुच्छेद सीधे चलते हैं जैसे अनुच्छेद 1 से शुरु हुआ और अनुच्छेद 400 पर संविधान समाप्त हुआ। जिला एवं सत्र न्यायालय- भारत की अधिकांश जिलों की कोर्ट के बाहर जिला एवं सत्र न्यायालय लिखा होता है। इस कोर्ट को जिला कोर्ट के नाम से जाना जाता है। ये दोनों कोर्ट एक नहीं हैं, इनके अर्थ अलग अलग हैं, परन्तु व्यक्ति एक ही है। सामान्यतः हम इन दोनों कोर्ट को एक ही कोर्ट मान कर चलते हैं। जिला न्यायालय- जब किसी सिविल मामले को सुना जाता है तो सुनने वाला न्यायालय जिला न्यायालय कहलाता है, अर्थात जिले का सबसे बड़ा न्यायालय जो किसी भी सिविल मामले में सुनवाई करेगा। सत्र न्यायालय- जब किसी आपराधिक मामले की सुनवाई की जाती है तो न्यायालय को सत्र न्यायालय कहा जाता है अर्थात जिले का सबसे बड़ा आपराधिक मामलों को सुनने वाला न्यायालय। जैसे यदि किसी आरोपी पर भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अंतर्गत अभियोजन चलेगा तो उसकी सुनवाई सत्र न्यायालय में हो होगी, क्योंकि मृत्यु दंड और आजीवन कारावास देने की अधिकारिकता केवल सत्र न्यायाधीश को होती है। सिविल जज और मजिस्ट्रेट और कार्यपालक मजिस्ट्रेट- सिविल जज और मजिस्ट्रेट एक ही व्यक्ति है। यह मामलों के नेचर से पता किया जाता है कि वह मामला सिविल है या आपराधिक। जब किसी सिविल मामले को किसी न्यायाधीश द्वारा सुना जाता है तो उसे सिविल जज कहा जाता है। यह सिविल जज फर्स्ट और सेकंड क्लास होते हैं। मामलों को सुनने की अधिकारिकता और और कोई आदेश सुनाने के अधिकार के आधार पर क्लास तय की जाती है। किसी भी जिला न्यायाधीश से नीचे सिविल मामलों को सुनने वाला न्यायाधीश सिविल जज कहा जाता है। मजिस्ट्रेट- जब यही न्यायाधीश किसी आपराधिक मामले को सुनता है तो वह मजिस्ट्रेट कहलाता है। मजिस्ट्रेट और सिविल जज का निर्धारण मामले की प्रकृति के आधार पर होता है। कार्यपालक मजिस्ट्रेट-यह कार्यपालिका का एक अंग है पर इसे सेमी ज्यूडिशियल पोस्ट भी मानी गई है, क्योंकि यह कुछ न्यायिक अधिकार और कर्तव्य भी रखता है। ज़मानती और दोषमुक्त- बहुत से मामलों में ज़मानती आरोपी को दोषमुक्त समझ लिया जाता है। ज़मानती और दोषमुक्त में अंतर होता है और अंतर बहुत बड़ा अंतर है। भारत की आपराधिक वैधानिक व्यवस्था उदारतापूर्वक है। यहां किसी भी आरोपी को ज़मानत पर छोड़े जाने के नियम रखे गए हैं। ज़मानती और गैर-ज़मानती अपराधों का वर्गीकरण किया गया है। ज़मानती- ज़मानती का अर्थ होता है ऐसा व्यक्ति जिस पर कोई अभियोजन चल है और न्यायलयों द्वारा उस व्यक्ति को जमानत या मुचलके पर छोड़ा गया है तथा उसके दोषसिद्ध होने पर उसे पुनः हिरासत में ले लिया जाएगा। दोषमुक्ति- दोषमुक्ति का अर्थ है आरोपी को विचारण में सभी तरह के आरोपो से दोषमुक्त कर दिया गया तथा आरोपी अब दोषमुक्त है, जितने आरोप उस पर लगाये थे वह कोई भी सिद्ध नहीं हुए। आरोपी और दोषसिद्ध- आरोपी और दोषसिद्ध में भी अंतर है।आरोपी वह व्यक्ति है, जिस पर राज्य द्वारा किसी अपराध में अभियोजन चलाया जा रहा है। हमारे यहां किसी भी व्यक्ति पर आरोप तय होना तो दूर की बात है एफआईआर दर्ज होते ही उसे दोषसिद्ध घोषित कर दिया जाता है, जबकि भारत में आरोपी को दोषसिद्ध व्यक्ति बनाने तक एक लंबी प्रक्रिया है। अधिकांश भारतीय विचारण जैसी किसी चीज़ को समझते ही नहीं। दोषसिद्ध- दोषसिद्ध वह व्यक्ति है जिस पर आरोप लगने के बाद विचारण हो जाने के बाद किसी भी अदालत द्वारा दोषसिद्ध घोषित कर दिया गया है अर्थात आरोपी पर लगे सभी आरोप सिद्ध हो चुके हैं और वह अपराध करने वाला मान लिया गया है तथा उस अपराध के लिए उसे दंड सुना दिया गया है। राज्य द्वारा आरोप लगाना बहुत सरल है। आरोप तय अदालत द्वारा किये जाते हैं। राज्य पुलिस या अन्य जांच एजेंसी द्वारा अपना अंतिम प्रतिवेदन अदालत के समक्ष पेश कर देता है। आरोप तय करना न्यायालय का काम है। आरोप लगते ही व्यक्ति को दोषसिद्ध नहीं मान लेना चाहिए। संसद और सांसद- लोकतांत्रिक व्यवस्था में विधान निर्माण का कार्य संसद द्वारा किया जाता है। लोकसभा राज्यसभा और राष्ट्रपति से मिलकर भारतीय संसद बनती है। यह तीनों संसद के अंग है। इस संसद के दोनो सदनों के सदस्यों को सांसद कहा जाता है।जैसे लोकसभा सांसद और राज्यसभा सांसद। नगर निगम और नगर पालिका- यह दो शब्दों से भी आम आदमी को बहुत काम होता है। यह दो शब्द जीवन का अहम हिस्सा है। कहते समय इन दोनों शब्दों को एक जैसा समझ लिया जाता है, जबकि शब्द और उसके अर्थ दोनों में बहुत अंतर है। वैसे तो अलग अलग प्रदेशों के द्वारा अपने अपने निकाय विधान बनाये जाते हैं, परन्तु फिर भी एक व्यवस्थित नियम है कि 20 हज़ार से ऊपर आबादी के कस्बो में और दो लाख से कम आबादी के शहरों में नगर पालिका बनायी जाती है। दो लाख से ऊपर आबादी के शहरों में नगर निगम बनाई जाती है। नगर निगम और पालिका के नियम अलग अलग है तथा अधिकार कर्तव्य भी अलग अलग अधिरोपित किये गए हैं। शमनीय और गैर शमनीय- अपराध दो तरह के हैं। पहला शमनीय और दूसरा गैर शमनीय। जिन अपराधों को दंड प्रक्रिया सहिंता के अंर्तगत समझौते के लिए बताया गया अर्थात जिन में समझौता किया जा सकता है वह अपराध शमनीय है। जिन अपराधों में समझौता नहीं किया जा सकता अर्थात जिनमे न्यायालय द्वारा या तो दोषमुक्त किया जाएगा या दोषसिद्ध किया जाएगा, परन्तु अपराध का शमन नहीं होगा। जैसे भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत धारा 302 और 376 इत्यादि के अपराध बहुत से मामलों में लोग हत्या जैसे अपराध को भी शमनीय समझ लेते

Thursday, December 12, 2019

बिना वकील के केश लडना

बिना वकील के आप खुद भी लड़ सकते हैं अपना मुकदमा, यह है प्रक्रिया 

 12 Dec 2019 7:45 AM 

 जब कोई व्यक्ति समस्याओं से घिर जाता है तो उसे न्यायालय से ही उम्मीद रहती है। वकीलों की बेतहाशा फीस के कारण आदमी अपने किसी भी मामले को न्यायालय में ले जाने से डरता है, लेकिन कानून में इतनी गुंजाइश है कि आप न्यायालय की अनुमति से अपना केस खुद लड़ सकते हैं। अधिवक्ता अधिनियम के अंतर्गत आप बगैर अधिवक्ता हुए विधि व्यवसाय नहीं कर सकते परंतु स्वयं का मुकदमा लड़ सकते हैं, यह आपका नैसर्गिक अधिकार है। न्यायालय आपको अपना मुकदमा लड़ने से कतई निषिद्ध नहीं कर सकता। आप न्यायालय में वक़ील स्वयं की इच्छा से नियुक्त करते हैं तथा मुकदमे के लिए वक़ील पत्र पर हस्ताक्षर करके वकील को अपने मुकदमे में प्रत्येक प्रकार के अधिकार सौंपते हैं। वकालत है चुनौतीपूर्ण पेशा, जानिए सफल वकील बनने के आवश्यक गुण कभी कभी जीवन में ऐसी परिस्थितियों का जन्म होता है जब आप को किसी आपराधिक मामलों में आरोपी बना दिया जाएं और राज्य द्वारा न्यायालय में आप पर कोई अभियोजन चलाया जा रहा है या फिर आपके किसी अधिकार के अतिक्रमण होने पर आप कोई सिविल मामला लेकर न्यायालय की शरण में जाते हैं। इनमें हर परिस्थिति में आपको वक़ील नियुक्त करने की आवश्यकता नहीं है, न्यायालय आपको वक़ील नियुक्त करने हेतु विवश नहीं करता। वक़ील आपकी सुविधा के लिए आप खुद नियुक्त करते हैं। भारतीय न्याय व्यवस्था बेहद तकनीकी है, जहां आपको पग पग पर वैधानिक जानकारियों की आवश्यकता होती है। इस परेशानी से व्यथित न हों, इसलिए आप न्यायालय में पैरवी के लिए वक़ील नियुक्त करते हैं। आज हम चर्चा करेंगे उन बिंदुओं पर जिनकी सहायता से आप स्वयं भी खुद के मुकदमे में पैरवी कर सकते हैं। हालांकि यह बिंदु नितांत सटीक तो नहीं परन्तु फिर भी आपको स्वयं का मुकदमा लड़ने में ज़रूर सहायता करेंगे। आपको अपना मुकदमा लड़ने के लिए केवल थोड़ा बहुत सामाजिक जानकारियों और साधारण तर्क पर ज्ञान हो और साथ ही कम से कम हिंदी भाषा में आप निपुण हों, ताकि अपनी बात को भाषा की सहायता से प्रभावी बना सकें। आइए जनाते हैं, क्या हैं वे बिंदु? बेयर एक्ट ख़रीदें- किसी भी अधिनियम पर बाज़ार में अलग अलग प्रकाशन संस्थाएं बेयर एक्ट प्रकाशित करती हैं। इनकी कीमत नाममात्र की होती है। आप बाज़ार से इन बेयर एक्ट को खरीद सकते हैं। इनकी भाषा भी कोई गूढ़ गहन नहीं होती है, परंतु उस ही शब्द को उपयोग किया जाता है जिस शब्द को विधायिका ने प्रयोग किया है। आपराधिक मामले में- यदि आप पर किसी आपराधिक मामले का अभियोजन चल रहा है तो आप सर्वप्रथम तीन अधिनियम की बेयर एक्ट खरीदें- भारतीय दंड संहिता 1860 दंड प्रक्रिया सहिंता 1973 भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 भारतीय दंड सहिंता भारत की सीमा में अपराधों का निर्धारण करती है और उनके लिए दंड बताती है। दंड प्रक्रिया सहिंता उन अपराधों में किस प्रकिया से व्यक्ति को दंड तक ले जाया जाएगा, इसका निर्धारण करती है। साक्ष्य अधिनियम यह तय करता है कि किन साक्ष्यों को प्रकिया में शामिल किया जाएगा तथा कौन से एविडेन्स पर आरोपी को सज़ा दी जा सकती है। यह तीनों अधिनियम किसी भी आपराधिक मामले में महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं। सारा मुकदमा इन तीनों के आधार पर ही पर ही संचालित किया जाता है। न्यायाधीश से आज्ञा लेना- आप न्यायाधीश से आज्ञा लेकर ही स्वयं के मुकदमे में स्वयं पैरवी कर सकते हैं, परन्तु न्यायाधीश आपको वकील नियुक्त करने का परामर्श दे सकते हैं। इस पर आप कह सकते हैं कि पुलिस कार्यवाही में मुझे खुद ही पैरवी करने की अनुमति दें तथा इतना समय दें कि मैं ड्राफ्टिंग इत्यादि कर सकूं। अगर आप निरुद्ध हैं तो- यदि आप किसी आपराधिक मामले में पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए हैं और पुलिस ने आपको बंदी बनाया हुआ है। संविधान के अनुच्छेद 22 के अंतर्गत पुलिस को आपको गिरफ्तार करने के चौबीस घंटों के भीतर किसी भी क्षेत्राधिकार के न्यायालय में पेश करना होगा। जब आपको न्यायालय में पेश किया जाए तो आप पुलिस से अपनी एफआईआर की एक प्रति मांग सकते हैं। एफआईआर लेकर सबसे पहले उस घटना का विवरण पढ़ें फिर किन धाराओं में आपको निरूद्ध किया गया है यह जानकारी देखें तथा अपराध की सूचना देने वाला कौन व्यक्ति है यह नाम देखें। पुलिस की गिरफ्तारी के बाद बंदी व्यक्ति स्वयं अपनी जमानत याचिका लगा सकता है। आरोपी को सबसे पहले एफआईआर से यह मालूम करना होगा कि किन धाराओं तथा अधिनियम के अंतर्गत मुझ पर प्रकरण दर्ज किया गया है तथा वह अपराध जमानतीय है या गैरजमानती है। जमानती अपराध में मजिस्ट्रेट और पुलिस द्वारा जमानत दे दी जाती है पर गैरजमानती अपराध की सूरत में जमानत देने या नहीं देना न्यायलय के विवेक पर निर्भर करता है। न्यायालय से यह निवेदन करें कि पुलिस मुझे जमानत याचिका दाखिल करने के लिए थोड़ा समय दे। बाजार में सभी अभिवचनों के फॉर्मेट उपलब्ध होते हैं आप उन अभिवचनों को खरीद कर न्यायालय में अपनी जमानत याचिका लगा दें। याचिका बनाकर कोर्ट बाबू को दी जा सकती है, फिर मजिस्ट्रेट उस पर संज्ञान लेंगे। यदि न्यायालय आपको जमानत पर छोड़ देता है तो किसी जमानतदार के सहयोग से आप पुलिस निरूद्ध से बाहर हो सकते हैं। पुलिस निरूद्ध से बाहर होकर आप उन धाराओं, उन अधिनियम को पढ़ें जिनके अन्तर्गत आपको आरोपी बनाया गया है। विचारण के दरमियान- जब आप पर आरोप तय हो जाएं और पुलिस द्वारा अपना अंतिम प्रतिवेदन (चालान) प्रस्तुत कर दिया जाए तो आप गवाहों का प्रतिपरीक्षण कीजिए। आपको न्यायलय के नकल विभाग में एक एप्लिकेशन लगाने पर बोर्ड पर रखी आपके मुकदमे को फाइल में लगे पुलिस के पेश किए चालान की नकल की सत्यप्रतिलिपि प्राप्त हो जाएगी। चालान को अच्छे से पढ़ना- चालान की नकल मिलने पर आप चालान को अच्छे से पढ़िए तथा किन किन गवाहों ने क्या क्या कथन किया है। इस पर मंथन कीजिए तथा ऐसे तर्क को जन्म दीजिए, जिससे आप गवाहों के दिये कथन को अपने विरुद्ध दिए कथन को अपने पक्ष में कर लें तथा अपने खिलाफ गए गवाहों को झूठा सिद्ध कर सकें। सिविल मामले में- सिविल मामले में अपना मुकदमा स्वयं लड़ना अपेक्षाकृत थोड़ा सरल होता है, क्योंकि यहां हमारे पास समय रहता है तथा हम पुलिस द्वारा निरूद्ध नहीं होते हैं। किसी भी सिविल मुकदमों में यदि आपको स्वयं मुकदमा लड़ना है तो सिविल प्रक्रिया सहिंता अच्छे से समझिए और यह देखिए कि आपके किस अधिकार का अतिक्रमण हो रहा है और वह अधिकार किस अधिनियम के अंतर्गत आ रहा है। जैसे अगर कोई संविदा विधि से संबंधित मामला है तो सबसे पहले भारतीय संविदा अधिनियम देखें। कोई मामला राजस्व से संबंधित है तो अपने प्रदेश का राजस्व अधिनियम या कोड देखिए और उस पर गहन शोध करें। मामले की समस्त कार्यवाही सी पी सी के अंतर्गत ही कि संचालित की जाती है। जहां तक संभव हो वहां तक आप अपने मुकदमे के लिए वकील नियुक्त करने का प्रयास करें क्योंकि वकील आपके महत्वपूर्ण मुकदमे में ठीक पैरवी कर सकते हैं। अपना केस खुद लड़ने का विकल्प आपातकालीन या फिर आर्थिक तंगी में प्रयोग किया जा सकता है लेकिन प्रयास करना चाहिए कि आपका मुकदमा कोई वकील ही देखे, क्योंकि यह संभव है सामने वाले पक्षकार द्वारा कोई वकील पैरवी के लिए खड़ा किया जाए।

Tuesday, December 10, 2019

छेत्राधिकार से बाहर होने पर जीरो FIR पंजीकरण अनिवार्य

 जब अपराध क्षेत्राधिकार के बाहर किया गया हो तो ज़ीरो FIR का पंजीकरण अनिवार्य : दिल्ली हाईकोर्ट 

 10 Dec 2019 1:57 PM 

           दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली के पुलिस आयुक्त को निर्देश दिया है कि वे कानून के अनुसार कार्यवाही न करने वाले उन पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करें, जिन्होंने 'जीरो एफआईआर' दर्ज करने से इनकार कर दिया था। साथ ही पुलिस आयुक्त को निर्देश दिया है कि वे शहर के सभी पुलिस स्टेशनों को एक सर्कुलर जारी करें, जिसमें कहा जाए कि जब उन्हें एक संज्ञेय अपराध की शिकायत प्राप्त हो, तब वह 'जीरो एफआईआर' दर्ज करें, भले ही अपराध उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर हुआ हो। 
        न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत की एकल पीठ ने निर्देश पारित करते हुए दिल्ली के पुलिस आयुक्त को यह भी निर्देश दिया है कि सर्कुलर जारी करके यह भी कहा जाए कि यदि किसी कारण से मामले को बंद किया जाना है तो उसे यथोचित आदेश के साथ बंद किया जाए और बिना किसी देरी के इस बारे में शिकायतकर्ता को लिखित में सूचित किया जाए। 
      यह है मामला बबीता शर्मा, इस मामले में प्रतिवादी नंबर 7 ने याचिकाकर्ता के खिलाफ 10 अप्रैल 2017 को नजफगढ़ पुलिस स्टेशन में शिकायत की थी और जालसाज़ी करने का आरोप लगाया था। उक्त थाने के एस.एच.ओ ने याचिकाकर्ता से गहन पूछताछ करने के बाद मामले को बंद कर दिया था और पहली शिकायत के निष्कर्ष को बबीता शर्मा ने किसी भी अदालत या किसी उच्च अधिकारी के समक्ष चुनौती नहीं दी।
         याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि बबीता शर्मा (प्रतिवादी नंबर 7) ने बाबा हरिदास नगर और नजफगढ़ पुलिस स्टेशनों के समक्ष समान तथ्यों के साथ आरोप लगाते हुए क्रमशः 04 अप्रैल 2018 और 03 जून 2019 को दूसरी और तीसरी बार शिकायत दर्ज की। 
       याचिकाकर्ता को संबंधित जांच अधिकारी (आई.ओ) ने दोनों बार जांच के लिए विधिवत रूप से बुलाया था, जिसमें याचिकाकर्ता ने अधिकारी को बताया था कि समान तथ्यों पर प्रतिवादी नंबर 7 की तरफ से दायर इसी तरह की शिकायतों को पहले ही बंद किया जा चुका है। जिसके बाद, याचिकाकर्ता को संबंधित जांच अधिकारी द्वारा किसी भी आगे की पूछताछ के लिए नहीं बुलाया गया था।
        जब 26 जुलाई 2019 को बबिता शर्मा (प्रतिवादी नंबर 7) द्वारा चैथी बार उन्हीं तथ्यों के आधार पर आरोप लगाते हुए सटीक शिकायत कापसहेड़ा पुलिस स्टेशन में दर्ज की गई थी, तो उक्त पुलिस स्टेशन के एस.आई ने याचिकाकर्ता को जांच में सहयोग करने के लिए बुलाया था। हालांकि, उसने एसआई को विधिवत रूप से बबीता शर्मा (प्रतिवादी नंबर 7) द्वारा समान तथ्यों के आधार पर दायर इसी तरह की शिकायतों के बारे में समझाया, परंतु अधिकारी ने उसके द्वारा दी गई जानकारी पर कोई ध्यान नहीं दिया। बदले में उसे अमानवीय तरीके से धमकाया कि अगर याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी नंबर 7 द्वारा रिश्वत के रूप में मांगे पैसे नहीं दिए तो उसे गंभीर परिणामों का सामना करना पड़ेगा। याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील ने दलील कि कापसहेड़ा के एस.आई व अन्य द्वारा याचिकाकर्ता का उत्पीड़न किया गया।
         जिसके बारे में विधिवत रूप से पुलिस आयुक्त को सूचित किया गया था लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई। राज्य की ओर से पेश हुए एपीपी ने माना कि शिकायतों की सामग्री के अनुसार, संज्ञेय अपराध बनता था और नजफगढ़ पुलिस थाने में प्राथमिकी दर्ज की जानी चाहिए थी। अदालत ने कहा, "सीआरपीसी की धारा 154 के अनुसार, यदि किसी भी पुलिस स्टेशन को संज्ञेय अपराध के किए जाने से संबंधित कोई भी सूचना मिलती है तो पुलिस स्टेशन उस मामले में एफआईआर दर्ज करने के लिए बाध्य है। अदालत ने आगे कहा, यदि अपराध उक्त पुलिस स्टेशन के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है, तो 'जीरो एफआईआर' दर्ज करने के बाद, उसे आगे की जांच के लिए संबंधित पुलिस स्टेशन में स्थानांतरित किया जाना चाहिए जहां अपराध किया गया है।" अदालत ने कहा, ''यह विवाद में नहीं है कि दिसंबर 2012 में हुए जघन्य 'निर्भया कांड' के बाद नए आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 में 'जीरो एफआईआर' का प्रावधान न्यायमूर्ति वर्मा समिति की रिपोर्ट में एक सिफारिश के रूप में सामने आया था। 
        प्रावधान में कहा गया है 'जीरो एफआईआर' पीड़ित के द्वारा किसी भी पुलिस थाने में दर्ज कराई जा सकती है, भले ही उसके आवास या अपराध की घटना का स्थान कोई भी हो।'' यह भी विवाद में नहीं है कि ''पिछले कई वर्षों से 'जीरो एफआईआर'भारत में प्रचलित है।
      '' इस प्रकार, उक्त प्रावधान या तथ्य के बारे में पता होने के बावजूद, किसी भी पुलिस स्टेशन ने प्रतिवादी नंबर 7 की शिकायत पर मामला दर्ज नहीं किया, जबकि संयुक्त रूप से माना गया है कि प्रतिवादी नंबर 7की शिकायत के अनुसार संज्ञेय अपराध किया गया है। इस प्रकार, शिकायतकर्ता/प्रतिवादी नंबर 7 को ऊपर बताए गए पुलिस स्टेशनों की निष्क्रियता के कारण दर-दर भटकने या एक थाने से दूसरे थाने पर जाने के लिए मजबूर किया गया था। याचिका का निपटारा करते हुए अदालत ने निर्देश दिया कि "इस प्रकार, मैं दिल्ली के पुलिस आयुक्त को निर्देश देता हूं कि वह एनसीटी दिल्ली के सभी पुलिस स्टेशनों और सभी संबंधितों को परिपत्र या स्थायी आदेश जारी करें कि यदि किसी पुलिस स्टेशन में संज्ञेय अपराध की शिकायत प्राप्त होती है, और अपराध अन्य पुलिस स्टेशन के क्षेत्राधिकार में हुआ है तो उस मामले में, वह पुलिस स्टेशन 'जीरो एफआईआर' दर्ज करें,जिसे इस तरह की शिकायत प्राप्त हुई है और उसके बाद मामले को संबंधित पुलिस स्टेशन को हस्तांतरित कर दिया जाए। 
       मैं आगे, इस मामले में दिल्ली के पुलिस आयुक्त को परिपत्र/ स्थायी आदेश जारी करने का निर्देश देता हूं कि कोई शिकायत सीआरएल.एम.सी यानि क्रिमनल शिकायत 5933/2019 के पेज नंबर 13 पर दिए गए 13 कारणों में से किसी भी कारण से बंद किया जाना है, तो उसे यथोचित आदेश के साथ बंद किया जाए और बिना किसी देरी के इस बारे में शिकायतकर्ता को लिखित में सूचित किया जाए।" आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहांं क्लिक करेंं 

फेमली कोर्ट विवाह के मामले भी देख सकता है

बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा, फैमिली कोर्ट वैवाहिक विवाद के साथ घरेलू हिंसा मामले की भी कर सकता है सुनवाई 

 10 Dec 2019 4:15 

बॉम्बे हाईकोर्ट ने पिछले महीने घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 की धारा 12 के तहत एक लंबित आपराधिक कार्यवाही को पुणे की फैमिली कोर्ट में ट्रांसफर करने की अनुमति दे दी, ताकि न्याय के हित में इस कार्यवाही को भी फैमिली कोर्ट में लंबित तलाक की याचिका के साथ-साथ चलाया जा सके। न्यायमूर्ति एस.सी गुप्ते ने संतोष मुलिक की तरफ से इस तरह के स्थानांतरण के लिए दायर आवेदन पर सुनवाई की थी। मुलिक ने अदालत के समक्ष दलील दी थी कि उसकी पत्नी मोहिनी चौधरी ने उसके द्वारा तलाक की याचिका दायर करने के बाद घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत उक्त कार्यवाही दायर की थी। आवेदक पति की ओर से अधिवक्ता अभिजीत सरवटे और अधिवक्ता अजिंक्य उदने उपस्थित हुए और प्रतिवादी पत्नी की तरफ से वकील सुहास रोहिले पेश हुए। आवेदक के वकील ने कहा कि न्याय के हित में विशेष रूप से घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 26 के संबंध में उक्त आवेदन को पुणे स्थित परिवार न्यायालय में स्थानांतरित किया जा सकता है, जहां दोनों मामलों की एक साथ सुनवाई की जा सकती है। जबकि, रोहिले ने तर्क दिया कि अधिनियम की धारा 12 के तहत दायर घरेलू हिंसा की कार्यवाही पर विचार करने के लिए फैमिली कोर्ट के पास कोई अधिकार या अधिकार क्षेत्र नहीं है। उन्होंने संदीप मृण्मय चक्रवर्ती बनाम रेशिता संदीप चक्रवर्ती और मिनोती सुभाष आनंद बनाम सुभाष मनोहरलाल आनंद मामलों में बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा दिए दो फैसलों का भी हवाला दिया। वकील सरवटे ने श्रीमती नीतू सिंह बनाम सुनील सिंह मामले में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट द्वारा दिए एक फैसले का हवाला दिया और दलील दी कि लंबित वैवाहिक कार्यवाही के मामले में अधिनियम की धारा 26 के तहत फैमिली कोर्ट के समक्ष आगे बढ़ने या कार्यवाही करने का विकल्प असंतुष्ट पक्षकार (जो वर्तमान मामले में प्रतिवादी है) के पास उपलब्ध है। कोर्ट ने कहा कि परिवार न्यायालय या फैमिली कोर्ट के पास उक्त अधिनियम की धारा 26 के अनुसार अधिकार क्षेत्र है- ''इस मिश्रित सिविल याचिका में किया गया सवाल, जो एक कार्यवाही का स्थानांतरण चाहता है, जो इस बारे में नहीं है कि किसके पास अधिनियम के तहत इस तरह की कार्यवाही दायर करने या फैमिली कोर्ट में स्थानांतरित करवाने का विकल्प है। सवाल यह है कि क्या यह न्याय के हित में होगा कि दो कार्यवाहियों को एक साथ सुना जाए ? और यदि पारिवारिक न्यायालय इन कार्यवाही को एक साथ सुनने के लिए उचित न्यायालय है, तो क्या उसके पास आपराधिक न्यायालय के समक्ष दायर घरेलू हिंसा कार्यवाही में की गई प्रार्थना पर विचार करने का क्षेत्राधिकार है? यदि दोनों मामलों को एक साथ सुना जाता है, तो यह निश्चित रूप से न्याय के हित में है कि उन्हें सुना जाए, क्योंकि पक्षकारों को केवल फैमिली कोर्ट के सामने आना पड़ेगा। जहां तक फैमिली कोर्ट के अधिकार क्षेत्र का संबंध है, अधिनियम की धारा 26 के संबंध में और हमारी अदालतों ने ऐसे क्षेत्राधिकार के पक्ष में निर्णय दिए हैं, तो संभवतः यह नहीं कहा जा सकता है कि फैमिली कोर्ट के पास ऐसे क्षेत्राधिकार का अभाव है।'' अदालत ने आगे कहा जो तर्क दिया गया था, उसके विपरीत, कार्यवाही का उक्त हस्तांतरण उसके अपील के अधिकार पर रोक नहीं लगाएगा- ''किसी भी तरह से , अगर घरेलू हिंसा कार्यवाही को फैमिली कोर्ट के समक्ष वैवाहिक कार्यवाही के साथ सुना जाता है तो भी इस अदालत में अपील दायर हो सकती है और इस अर्थ में, यह नहीं कहा जा सकता है कि किसी भी पक्ष ने अपना अपील दायर करने का अधिकार खो दिया है। जो खो गया है वह है सिर्फ पुनरीक्षण या संशोधन का एक अधिकार। हालांकि, उपरोक्त न्याय के सिद्धांत के आधार पर कार्यवाही के हस्तांतरण या स्थानांतरण से इनकार करने के लिए कोई आधार नहीं है।'' इस प्रकार, आवेदन की अपील को स्वीकार कर लिया गया था। आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें

बीमा कानून मुआवजा

 बीमा कानून, दुर्घटना मृत्यु और मुआवजा, जानिए अदालत के प्रमुख निर्णय

10 Dec 2019 

यद्यपि सुनने में भले ही अटपटा लगे, लेकिन 'दुर्घटना क्या है'यह हमेशा से दिलचस्प न्यायिक चर्चाओं के केंद्र में रहा है। सामान्य रूप से समझा जाता है कि दुर्घटना एक अप्रत्याशित घटना है, जो सामान्य रूप से घटित नहीं होती, बल्कि जिससे अप्रिय, दुखद या चौंकाने वाले परिणाम सामने आते हैं। 
       सुप्रीम कोर्ट ने 'श्रीमती अलका शुक्ला बनाम भारतीय जीवन बीमा निगम' मामले में अपना फैसला सुनाते हुए इस पहलू पर विस्तार से चर्चा की है। इन दिनों जीवन बीमा पॉलिसियों में 'दुर्घटना मृत्यु लाभ' की शर्त बहुत ही आम बात है। यदि किसी बीमित व्यक्ति की मौत दुर्घटना के कारण हो जाती है तो यह योजना सामान्य जीवन बीमा राशि के अलावा अतिरिक्त कवरेज भी प्रदान करती है। बेशक, इसका लाभ उठाने के लिए बीमित व्यक्ति को अतिरिक्त प्रीमियम का भुगतान करना होता है। उपरोक्त मामले में कोर्ट को यह तय करना था कि क्या कोई व्यक्ति मोटरसाइकिल चलाते वक्त दिल का दौरा पड़ने से मर जाता है तो उसे 'दुर्घटना में हुई मृत्यु' कहा जा सकता है? बीमा कंपनी ने इस आधार पर दावा नामंजूर कर दिया था कि मौत दुर्घटनावश नहीं हुई थी। इसे चुनौती देते हुए मृतक की पत्नी ने उपभोक्ता शिकायत की थी। यद्यपि राज्य आयोग ने याचिका को अनुमति दे दी थी, लेकिन बीमा कंपनी की अपील पर राष्ट्रीय आयोग ने राज्य आयोग के फैसले को पलट दिया था। उसके बाद उसने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। इस मामले में उपलब्ध चिकित्सकीय दस्तावेजों के अनुसार, मौत का कारण दिल का दौरा पड़ना था और स्कूटर से गिरने से इसका कोई लेना देना नहीं था। इस बात का कोई सबूत नहीं था कि मोटरसाइकिल से गिरने के कारण मृतक को शारीरिक चोट लगी थी या उसी के कारण उसे दिल का दौरा पड़ा था। न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ ने पाया कि इस मामले में मौत की वजह बाइक से गिरना नहीं थी। मौत हृदयाघात से हुई थी, जिसे हिंसक, दृष्टिगोचर और बाह्य तरीकों' से हुई दुर्घटना नहीं कहा जा सकता। 'एक्सिडेंटल' मीन्स' और 'एक्सिडेंटल रिजल्ट्स' अपने निष्कर्ष तक पहुंचने के दौरान, सुप्रीम कोर्ट ने 'दुर्घटना के कारकों' और 'दुर्घटना के परिणामों' की अवधारणाओं पर चर्चा की, जिनका इस्तेमाल ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए दुनिया भर के न्यायालयों द्वारा किया जाता है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने फैसले में कहा कि ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा और सिंगापुर सहित दुनिया भर की अदालतों के बीच इस बात को लेकर मतभिन्नता है कि क्या दुर्घटना बीमा दावों का निर्णय करते वक्त 'दुर्घटना के कारकों' और 'दुर्घटना के परिणामों' के बीच अंतर बनाये रखना चाहिए। 'दुर्घटना के कारकों' के दृष्टिकोण के अनुसार, मौत का केवल अप्रत्याशित होना ही उसे 'दुर्घटना में मौत' के रूप में वर्गीकृत करने के लिए पर्याप्त नहीं है। यह 'एक्सिडेंटल मीन्स'से होना चाहिए था। यह दृष्टिकोण 'हिंसक, दृष्टिगोचर एवं बाहरी तरीकों' के वाक्यांश में प्रयुक्त 'कारकों (मीन्स)' के इस्तेमाल से समर्थन हासिल करता है। 

     'लैंड्रेस बनाम फीनिक्स म्यूचुअल लाइफ इंश्योरेंस' मामले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का 1934 का फैसला गोल्फ खेलते वक्त एक व्यक्ति की लू लगने से हुई मौत से जुड़े बीमा दावों से संबंधित है। बहुमत के फैसले में यह कहते हुए बीमा दावे को नकार दिया गया कि 'बीमा आकस्मिक परिणाम के खिलाफ नहीं है' और यदि किसी बाहह्य और आकस्मिक कारणों से मौत हुई हो तभी बीमा का भुगतान किये जाने की जरूरत है। न्यायमूर्ति कॉर्दोजो ने हालांकि बहुमत से असहमति का फैसला सुनाया। उनके अनुसार, 'कारक' और 'परिणाम' के बीच अंतर कृत्रिम था। उन्होंने दलील दी थी कि यदि मौत कोई आकस्मिक परिणाम थी, तो यह निश्चित तौर पर 'एक्सिडेंटल मीन्स' से घटित हुई होगी। कनाडा के सुप्रीम कोर्ट ने लैंड्रेस मामले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के बहुमत के फैसले से अपना अलग मंतव्य दिया है। 

      'अमेरिकन इंटरनेशनल एश्योरेंस लाइफ कंपनी लिमिटेड और अमेरिकन लाइफ इंश्योरेंस कंपनी बनाम डोरोथी मार्टिन' मामले में बीमित व्यक्ति की मौत दवाओं की अधिक खुराक इंजेक्ट करने से हुई थी। बीमा कंपनी ने यह कहते हुए बीमा दावा खारिज कर दिया था कि मौत हिंसक एवं बाहरी 'एक्सिडेंटल मीन्स' के कारण नहीं हुई थी, बल्कि बीमित व्यक्ति द्वारा जानबूझकर किये गये कृत्य से हुई थी। कनाडा कोर्ट ने कहा कि यह तय करने के लिए कि क्या मौत का कारण 'एक्सिडेंटल' था, इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या इसके परिणाम वांछित थे? कोर्ट ने जस्टिस कोर्डोजो के तर्कों का इस्तेमाल करते हुए कहा, "हम (एक्सिडेंटल) 'मीन्स' को शेष कारक श्रृंखला से उपयोगी ढंग से अलग नहीं कर सकते और पूछ सकते हैं कि क्या वे जानबूझकर किये गये थे।" कोर्ट के अनुसार, 'एक्सिडेंटल डेथ'और 'डेथ बाय एक्सिडेंटल मीन्स'दोनों का एक ही अर्थ है और अनपेक्षित परिणामों को आकस्मिक माना चाहिए। कनाडाई अदालत के विचार का समर्थन करते हुए सिंगापुर सुप्रीम कोर्ट ने दवा के गैर-इरादतन ओवरडोज से संबंधित एक मामले में व्यवस्था दी कि 'आकस्मिक कारकों का परीक्षण उन मामलों में बीमा कवरेज से इन्कार करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए, जहां मौत का अनुमानित कारण मृतक का स्वैच्छिक कार्य था, जिसका अनपेक्षित परिणाम सामने आया था। जब मौत बाहरी हमले के कारण हुई 

       'कमलावती देवी बनाम बिहार सरकार' मामले में पटना हाईकोर्ट इस बात को लेकर जूझ रहा था कि क्या चुनाव ड्यूटी कर रहे एक अधिकारी की आपराधिक तत्वों के सशस्त्र हमले के कारण हुई मौत को पूरी तरह एवं प्रत्यक्ष तौर पर 'बाहरी हिंसा तथा किसी अन्य प्रत्यक्ष तरीके से हुई दुर्घटना का परिणाम' माना जा सकता है। 'एक्सिडेंटल मीन्स' और 'एक्सिडेंटल रिजल्ट्स' की अवधारणा पर विचार करने वाले न्यायमूर्ति आफताब आलम (जो बाद में सुप्रीम कोर्ट के जज भी बने) ने अपने फैसले में कहा कि वह लैंड्रेस मामले में जस्टिस कॉर्डोजो के विचार को मानने के पक्षधर हैं। यद्यपि न्यायमूर्ति आलम ने व्यवस्था दी कि यह मामला 'एक्सिडेंटल मीन्स' की कसौटी पर खरा है, साथ ही आपराधिक तत्वों द्वारा किया गया हमला 'बाह्य, हिंसक और दृष्टिगोचर' था। कोर्ट ने व्यवस्था दी कि दोनों ही पहलुओं से देखने पर यह मौत दुर्घटना बीमा लाभ के दायरे में आती है। 'अल्का शुक्ला' मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णायक रूप से यह निर्धारित करने के लिए जोखिम नहीं उठाया कि कौन सा दृष्टिकोण सही है। शीर्ष अदालत ने हालांकि इस तरह के मामलों को तय करने के लिए यह कहते हुए एक कसौटी तैयार की, "दुर्घटना लाभ कवर के तहत दावा कायम रखने के लिए यह स्थापित किया जाना चाहिए कि बीमित व्यक्ति को शारीरिक चोट लगी है जो मुकम्मल और प्रत्यक्ष तौर पर दुर्घटना का परिणाम है। दूसरे शब्दों में, दुर्घटना और शारीरिक चोट के बीच एक निकट संबंध मौजूद होना चाहिए। इसके अलावा, दुर्घटना बाहरी हिंसा और दृश्यमान साधनों का परिणाम हो।" 'हिंसक, दृष्टिगोचर एवं बाह्य' - इन शब्दों के अर्थ दुर्घटना लाभ उपबंध में 'एक्सिडेंटल मीन्स' के अभिप्राय की व्याख्या करने वाले इन शब्दों के निहितार्थों को समझना महत्वपूर्ण है। 'हिंसक साधनों' का अर्थ यह नहीं है कि इसमें खुला एवं पाश्विक बल का इस्तेमाल होना चाहिए। यहां तक कि हिंसा की सूक्ष्म घटना, यथा- जहरीली गैस के आकस्मिक सांस लेने, को भी 'हिंसा' माना जाएगा। कोई भी बाहरी कृत्य, जो मानव शरीर को कार्य करने में अक्षम बनाये, उसे 'हिंसक' माना जायेगा। 'हिंसक' शब्द का इस्तेमाल केवल 'किसी हिंसा के बिना' प्रतिशोध में किया जाता है। (इंग्लैंड का हैल्स्बरी कानून का चौथा संस्करण, 2013 (वॉल्यूम 25)) हैल्स्बरी नियम आगे बताता है कि 'बाहरी कारणों' का इस्तेमाल कुछ आंतरिक मामलों के प्रतिकूल के रूप में किया जाता है। कोई भी कारण, जो आंतरिक नहीं है वह बाह्य हो सकता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि चोट बाहरी होना चाहिए। हो सकता है, और अक्सर होता भी है कि आंतरिक चोट की मौजूदगी बाहर से नहीं प्रतीत होती है। इसलिए इस शब्द का प्रभाव इस बात को रेखांकित करने के लिए है कि पहचान योग्य किसी बाहरी चीजों के संदर्भ के बिना मानव शरीर के भीतर उत्पन्न होने वाले विकार दुर्घटना लाभ के तहत कवर नहीं होते हैं। इस धारणा के आधार पर, केरल उच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि किसी दुर्घटना को 'हिंसक' के रूप चिह्नित करने के लिए किसी तीसरे पक्ष या किसी बाहरी एजेंसी के कार्य की आवश्यकता नहीं थी 

        (वलसाला देवी बनाम मंडल प्रबंधक, कोट्टायम)। संबंधित मामले में उस बीमाधारक की मृत्यु को लेकर दुर्घटना लाभ का दावा किया गया था, जिसकी मौत एक ऊंची इमारत से गिरने के कारण हुई थी। इस बीमा दावे को यह कहते हुए ठुकरा दिया गया था कि यह 'हिंसक' घटना नहीं थी। बीमा कंपनी ने उस मेडिकल रिपोर्ट पर भरोसा किया था, जिसमें कहा गया था कि मृतक 'मधुमेह और उच्च रक्तचाप' से पीड़ित था। इसलिए बीमा कंपनी ने कहा कि इमारत से बीमित व्यक्ति के गिरने की वजह चिकित्सा की स्थिति थी, न कि कोई बाह्य कारण। बीमा कंपनी के इस रुख को नकारते हुए हाईकोर्ट ने कहा :- "यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि केवल तीसरे पक्ष के कारण हुई दुर्घटना ही इस उपबंध के तहत कवर होगा। चाहे यह किसी तीसरे पक्ष द्वारा अंजाम दिया गया हो, फिसल जाने के कारण या जैसा मौजूदा मामले में हुआ, इमारत से गिरने जैसी दुर्घटना इस बीमा कवरेज के दायरे में आयेगी, यदि यह घातक है। यहां तक कि इमारत से गिरने की घटना मधुमेह या उच्च रक्तचाप के कारण हुई, फिर भी यह दुर्घटना होगी, क्योंकि चिकित्सकीय कारणों से मौत नहीं हुई। इमारत से गिरना ही मौत की एक मात्र वजह थी, क्योंकि गिरने के कारण सिर में चोट लगी। इस मामले में 'बाहरी, हिंसक और दृष्टिगोचर' कारण सिर की चोट है और यही चोट मौत का कारण थी। इमारत से गिरना और सिर में चोट लगना, जिसके कारण मौत हुई, बाहरी कारण है, जबकि रक्तस्राव अथवा हाइपोग्लाइसीमिया आंतरिक कारण हैं। चोट दृष्टिगोचर भी है और इमारत से घातक तरीके से गिरना हिंसा का रूप।" 

      'अंबालाल लल्लूभाई पांचाल बनाम एलआईसी' मामले में गुजरात हाईकोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि कुत्ते के काटने से हुई मौत भी दुर्घटनावश हुई मौत है। कोर्ट ने कहा कि अप्रत्याशित रूप से होने वाले सभी हादसों, जो जानबूझकर या स्वैच्छिक नहीं हैं, को कवर करने के लिए 'दुर्घटना को एक व्यापक अर्थ दिया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा, "कुत्ते का काटना किसी इरादे से या अभिकल्पना के तहत नहीं किया जा सकता। यह अप्रत्याशित नुकसान है। कुत्ते का काटना निश्चित रूप से बाह्य, हिंसक और दृश्यमान' कारण होता है जिससे हुए नुकसान की वजह से मौत हुई। इसलिए हमारा मानना है कि कुत्ते के काटने से हुई मौत पॉलिसी उपबंध के तहत दुर्घटना लाभ के दायरे में 'बाह्य, हिंसक और दृश्यमान' कारण है।" नैसर्गिक रूप से हुई बीमारी दुर्घटना नहीं सुप्रीम कोर्ट ने 'शाखा प्रबंधक, नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम श्रीमती मौसमी भट्टाचार्जी और अन्य' के मामले में व्यवस्था दी थी कि मोजाम्बिक में मलेरिया के कारण होने वाली मृत्यु को 'दुर्घटनावश मृत्यु' नहीं कहा जा सकता। कोर्ट ने इस तथ्य के आधार पर यह व्यवस्था दी थी कि वह (मोजाम्बिया) इलाका मलेरिया की आशंका वाला क्षेत्र था और वहां मच्छर का काटना नैसर्गिक प्रक्रिया के बाहर नहीं था। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्टों में कहा गया है कि मोजाम्बिक में तीन में से एक व्यक्ति मलेरिया से पीड़ित है। कोर्ट ने कहा, "इसलिए यह मान लिया गया है कि जहां रोग नैसर्गिक रूप से हुआ हो, वह दुर्घटना की परिभाषा के दायरे में नहीं आयेगा। हालांकि, कोई रोग या शारीरिक स्थिति तब दुर्घटना के रूप में मानी जा सकती है जब इसका कारण या संचरण का तरीका अप्रत्याशित तथा अनपेक्षित हो।" हत्या एक दुर्घटना ? राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (एनसीडीआरसी) ने 'रॉयल सुन्दरम एलायंस इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम पवन बलराम मूलचंदानी' मामले में व्यवस्था दी थी कि हत्या को दुर्घटनावश हुई मृत्यु माना जा सकता है। आयोग ने 'निस्बेट बनाम रायने एंड बर्न' मामले में ब्रिटेन की अपीलीय अदालत के फैसले का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि मृतक व्यक्ति के दृष्टिकोण से हत्या एक दुर्घटना थी, क्योंकि उसकी वजह से वह व्यक्ति प्रभावित हुआ था। हेस्ल्बरी मामले से आयोग ने उद्धृत किया कि यदि चोट का तत्काल कारण बीमाधारक का जानबूझकर और अपनी इच्छा से किया गया कार्य नहीं है तो यह एक दुर्घटना होगी। आयोग ने कहा, "यह निष्कर्ष निकालना उचित और तर्कसंगत है कि व्यक्ति अनपेक्षित और गैर-इरादतन 'एक्सिडेंटल इंज्यूरी' के कारण होने वाली मौत के मद्देनजर व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा कराता है। इस मामले में, बीमाधारक द्वारा तत्काल जानबूझकर कोई ऐसा कार्य नहीं किया गया, जिसके कारण उसकी हत्या हुई। इस मामले में यह स्पष्ट नहीं है कि बीमित व्यक्ति ने तत्काल जानबूझकर किये गये किसी कार्य से या अपनी लापरवाही अथवा प्रवृत्ति के कारण या उकसावे में आकर घायल होने लायक स्थिति में खुद को डाला। उसकी मृत्यु अनपेक्षित और अप्रत्याशित घटना अर्थात् दुर्घटना के कारण हुई। पॉलिसी में वास्तव में 'हत्या'खासतौर पर अपेक्षित नहीं थी। इसलिए, मामले के तथ्यों के आईने में, मौत स्पष्ट रूप से आकस्मिक थी तथा बीमा पॉलिसी के तहत स्पष्टत: कवर थी।" 'रीता देवी बनाम न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड' मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने वाहन चोरी की कोशिश करने वाले व्यक्तियों के हाथों एक ऑटोरिक्शा चालक की हत्या को मोटर वाहन अधिनियम के तहत थर्ड पार्टी इंश्योरेंस वाले वाहन के इस्तेमाल से उत्पन्न दुर्घटना करार दिया था। जहां तक चालक की बात है तो यात्रियों द्वारा चोरी का प्रयास एक अप्रत्याशित घटना थी और अगर चालक इस तरह के प्रयास में मारा जाता है, तो यह नैसर्गिक कारण से इतर की घटना है। कोर्ट ने कहा था कि इस घटना को एक दुर्घटना के रूप में माना जाये क्योंकि यह ड्यूटी के दौरान घटित हुई। जब दुर्घटना के कारण बीमारी हो ऐसी परिस्थितियां भी हो सकती हैं जहां दुर्घटना तत्काल मृत्यु का कारण नहीं बनती हो, लेकिन अन्य स्वास्थ्य जटिलताओं को जन्म दे, जिससे मृत्यु हो सकती है। ऐसे मामले में, जहां एक व्यक्ति की दुर्घटना के तीन दिन बाद दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई, एनसीडीआरसी ने माना कि इसे दुर्घटना के कारण हुई मौत माना जाना चाहिए। आयोग ने 'कृष्णावती बनाम एलआईसी' मामले में निष्कर्ष दिया, "पहले दुर्घटना हुई, जिसके कारण व्यक्ति घायल हुआ और सीने में दर्द हुआ, और अंतत: उसकी मौत हो गयी। हो सकता है, चिकित्सा की भाषा में मौत का कारण 'दिल का दौरा पड़ना' बताया जा सकता है, लेकिन दिल का दौरा पड़ने का मुख्य कारण दुर्घटना की वजह से चोटिल होना था। सीने में दर्द की वजह दुर्घटना थी और उसके बाद दिल का दौरा पड़ा।" जब काम के तनाव के कारण मौत होती है ऐसे कई फैसले हैं जो कहते हैं कि अगर मौत काम से जुड़े तनाव के कारण होती है, तो इसे रोजगार के दौरान होने वाली दुर्घटना के रूप में माना जाना चाहिए, ताकि बीमा कवरेज की सुरक्षा मिल सके। ये निर्णय कामगार क्षतिपूर्ति अधिनियम के संदर्भ में दिए गए हैं।
        'यूनाइटेड इंडियन इंश्योरेंस कंपनी बनाम सी एस गोपालकृष्णन' के मामले में केरल हाईकोर्ट का निर्णय इस बिंदु पर एक अच्छा संदर्भ है, क्योंकि इसमें उच्च न्यायालय के कई अन्य फैसलों पर चर्चा की गई है, जिसमें कहा गया है कि कड़ी मेहनत की वजह से हुई बीमारी के कारण मृत्यु एक घातक दुर्घटना है।
        'लक्ष्मीबाई आत्माराम बनाम चेयरमैन और ट्रस्टी, बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट, चागला' मामले में खंडपीठ के लिए मुख्य न्यायाधीश ने कहा, "यदि नौकरी के कारण मृत्यु के कारक में योगदान हुआ या नौकरी की वजह से मौत हुई, या यों कहें कि मौत न केवल बीमारी से हुई बल्कि बीमारी और नौकरी दोनों के कारण, तब नियोक्ता जिम्मेदार होगा तथा यह कहा जा सकता है कि नौकर ी के कारण ही मौत हुई।" इस तरह के उपबंधों में पाया जाने वाला एक मानक वाक्यांश है- "हिंसक, दृश्यमान और बाहरी वजहों से हुई दुर्घटना के कारण मौत"।

Thursday, December 5, 2019

वकील अपनी सेवाओं का विग्यापन नहीं दे सकते क्यों? जानिये

 जानिए वकीलों को अपनी सेवाओं का विज्ञापन देने की अनुमति क्यों नहीं है? समझिये प्रतिबंध से जुड़ी अन्य महत्वपूर्ण बातें

5Dec 2019 1:12 PM 

भारत में हर साल बड़ी संख्या में लोग, बार काउंसिल में वकील के तौर पर नामांकित होने के लिए आवेदन करते हैं। इसके पश्च्यात, इस पेशे में अपना नाम बनाने की आकांक्षा के साथ वे वकालत शुरू करते हैं। लेकिन न तो कानून पेशा अपनाने वाले लोगों को और न ही लॉ फर्मों को अपने पेशे का विज्ञापन करने का अधिकार प्राप्त है। दरअसल वकीलों को ऐसा कुछ भी करने से प्रतिबंधित किया जाता है, जो भावी मुवक्किलों को प्रभावित कर सकता है। भारत में अधिवक्ताओं को बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा तैयार किए गए नियमों के तहत उनकी सेवाओं या उनके पेशे को लेकर विज्ञापन देने से रोक दिया जाता है। जैसा कि आर. एन. शर्मा, एडवोकेट बनाम हरियाणा राज्य 2003 (3) RCR (Criminal) 166 (P&H), के मामले में यह माना गया था कि एक वकील, कोर्ट का एक अधिकारी होता है, और कानूनी पेशा, व्यापार या व्यवसाय नहीं है; यह एक महान पेशा है और अधिवक्ताओं को कानूनी रूप से तय सीमाओं के भीतर अपने भावी मुवक्किलों के लिए न्याय करने का प्रयास करना होता है और शायद इसी कारणवश वकीलों को अपनी सेवाओं का प्रचार करने से रोका जाता है। वकीलों द्वारा विज्ञापन दिए जाने पर क्यों है रोक? कानूनी पेशेवरों द्वारा विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाने की शुरुआत, ब्रिटिश शासन के दौरान विकसित विक्टोरियन धारणाओं से शुरू हुई। भारत में, यूके के समान, कानूनी पेशे को एक सम्मानजनक पेशा माना जाता है, यही कारण है कि कानूनी पेशेवरों द्वारा विज्ञापन दिया जाना उचित नहीं माना जाता है, और व्यापक रूप से इसे स्वीकार नहीं किया जाता है (हालाँकि अब यूके में वकील, अपनी सेवाओं का विज्ञापन दे सकते हैं)। वकीलों को विज्ञापन देने से रोका जाना इस विचार पर आधारित है कि यदि इस पेशे में व्यावसायिकता व्याप्त हो जाएगी, तो यह प्रवृति इस पेशे के सम्मान को कम करेगी और वकील अपने ज्ञान, कौशल, भावना और आत्मसम्मान पर ध्यान देने के बजाय, उनको मिलने वाले प्रतिफल (लाभ, फीस, उपहार इत्यादि) पर ध्यान केन्द्रित करने लग जायेंगे। जैसा कि आर. एन. शर्मा मामले में भी कहा गया कि एक वकील का मुख्य उद्देश्य, न्याय दिलाना होना चाहिए न कि अपनी व्यक्तिगत सफलता सुनिश्चित करना, क्यूंकि वह मुख्यतः कोर्ट का एक अधिकारी होता है। विज्ञापन देने पर रोक होने के अन्य कारणों में विज्ञापनों की भ्रामक प्रकृति और सेवाओं में गुणवत्ता का नुकसान भी शामिल है। बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र बनाम एम. वी. दधोलकर के मामले में जस्टिस कृष्णा अय्यर ने यह कहा था कि "कानून कोई व्यापार नहीं है, इसमें किसी माल को बेचा नहीं जाता है और इसलिए व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा को कानूनी पेशे को बदनाम नहीं करना चाहिए." गौरतलब है कि, बीसीआई द्वारा प्रदान किए गए विज्ञापन प्रतिबंध सम्बन्धी नियम (जिन्हें हम आगे समझेंगे), यकीनन भारत में मध्यस्थता संस्थानों पर लागू नहीं होते हैं, क्योंकि ऐसे संस्थान 'कानूनी सेवा' देने के बजाय 'विवाद समाधान सेवाओं' की पेशकश करते हैं। ऐसा इसलिए भी है कि बार काउंसिल के नियम, केवल अधिवक्ताओं (लॉ फर्मों सहित) पर लागू होते हैं। यह विचार अवश्य सामने रखा जाता है कि कानूनी सेवाओं के उपभोक्ता (मुवक्किल/पक्षकार) को, किसी भी अन्य सेवाओं के उपभोक्ता (जैसे एक डॉक्टर से चिकित्सा सेवा प्राप्त करना) जैसे, अपने पैसे के लिए सर्वोत्तम मूल्य प्राप्त करने का अधिकार है। हालाँकि, मौजूदा नियमों के अंतर्गत वकीलों पर विज्ञापन देने पर लगे प्रतिबन्ध के चलते, मुक़दमे का पक्षकार अपनी भुगतान क्षमता के भीतर एक वकील को खोजने में सक्षम नहीं है। हालाँकि सी. डी. सेक्किज्हर बनाम सेक्रेटरी, बार काउंसिल, मद्रास AIR 1967 Mad 35 के मामले में जस्टिस वीरास्वामी ने इस ओर गौर किया था कि कानून के पेशे के एक सदस्य द्वारा, किसी भी रूप में विज्ञापन दिया जाना, निंदनीय आचरण के रूप में देखा जाता है। यह इसलिए भी है कि इस पेशे से जुड़े सज्जनों ने इस पेशे की महानता को विकसित किया है और खुद के लिए बड़े मानक स्थापित किये हैं, इस पेशे को मिलने वाले सम्मान और गरिमा के चलते यह पेशा, ऐसा उच्च स्थान प्राप्त करने के लिए उपयुक्त भी है। बार काउंसिल ऑफ इंडिया नियम 36 क्या कहता है? बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स के नियम 36 में कहा गया है कि भारतीय लॉ फर्म और वकीलों को ऑफलाइन या ऑनलाइन दोनों तरह से अपना विज्ञापन करने/देने की अनुमति नहीं है। बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स के नियम 36 में यह कहा गया है कि भारत में वकील, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से परिपत्रों, विज्ञापनों, व्यक्तिगत संचार या साक्षात्कारों के माध्यम से या अखबारों में टिप्पणियों या तस्वीरों को प्रस्तुत करने या प्रेरित करने के माध्यम से काम मांग या अपना विज्ञापन नहीं कर सकते हैं। नियम यह भी कहता है कि एक वकील के नाम की साइनबोर्ड या नेम-प्लेट, एक उचित आकार की होनी चाहिए और इनके जरिये यह इंगित नहीं किया जाना चाहिए कि वह वकील, बार काउंसिल के अध्यक्ष या सदस्य हैं, या किसी एसोसिएशन के सदस्य हैं या वह किसी व्यक्ति या संगठन से जुड़े हैं या वह न्यायाधीश या महाधिवक्ता रहे हैं। हालाँकि, बीसीआई ने नियम 36 में संशोधन करने हेतु वर्ष 2008 में एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसके अंतर्गत वकीलों को अपनी वेबसाइट पर, अपना नाम, पता, टेलीफोन नंबर, ईमेल आईडी, व्यावसायिक और शैक्षणिक योग्यता, नामांकन और अपने प्रैक्टिस क्षेत्र से संबंधित जानकारी प्रस्तुत करने की अनुमति दे दी गयी है। यह जानकारी प्रदान करने वाले कानूनी पेशेवरों को यह घोषणा भी करनी होती है कि उन्होंने पूर्ण रूप से वास्तविक जानकारी प्रस्तुत की है। एक वकील, जो इन नियमों का उल्लंघन करता है, उसके खिलाफ अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है। इस धारा ('कदाचार के लिए अधिवक्ताओं की सजा') के तहत प्राप्त शिकायत को लेकर, एक राज्य बार काउंसिल के पास निम्नलिखित शक्तियां हैं: शिकायत को खारिज करें, अधिवक्ता को फटकारें, वकील को सीमित अवधि के लिए प्रैक्टिस करने से रोक दें, अधिवक्ता का नाम अधिवक्ताओं के राज्य रोल से हटा दें। In Re: (13) एडवोकेट्स बनाम अज्ञात AIR 1934 All 1067 के मामले में, यह अभिनिर्णित किया गया था कि अखबारों में लेख प्रकाशित करते हुए, जहां लेखक ने खुद को न्यायालयों में वकालत करने वाले एक वकील के रूप में वर्णित किया था, वह अपनी सेवाओं का प्रचार करने का एक सस्ता तरीका है। एस. के. नाइकर बनाम प्राधिकृत अधिकारी (1967) 80 Mad. LW 153 के मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने यह माना था कि एक वकील का साइन बोर्ड या नेम प्लेट, मध्यम आकार का होना चाहिए और यह भी कहा गया कि एक वकील के हस्ताक्षर के तहत, अखबार में प्रकाशन के लिए लेख लिखना, पेशेवर शिष्टाचार का उल्लंघन है। अन्य देशों में क्या हैं नियम? अमेरिका में, वकीलों द्वारा विज्ञापन दिए जाने पर प्रतिबंधों की संवैधानिक वैधता को बेट्स बनाम स्टेट बार ऑफ एरिज़ोना (1977) के मामले में चुनौती दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रथम संशोधन (जो अन्य बातों के अलावा, वाक्‌-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य सुनिश्चित करता है) के संरक्षण में ऐसे प्रचार को उचित बताया क्योंकि इस तरह के संचार/प्रचार से जनता को अपने हित में निर्णय लेने की शक्ति मिलती है और इससे उचित मूल्य की जानकारी प्राप्त हो सकती है। यूके में स्थिति थोड़ी अलग है, हालांकि शुरुआत में, पारंपरिक विक्टोरियन धारणाओं के कारण, यूके में कानूनी विज्ञापन निषिद्ध था, परन्तु वर्ष 1970 में एकाधिकार और विलय आयोग और वर्ष 1986 में फेयर ट्रेडिंगस कार्यालय की समीक्षा के बाद (जिन्होंने कानूनी लाभ और पेशेवरों द्वारा विज्ञापन देने के फायदे पर प्रकाश डाला), ब्रिटेन में यह प्रतिबंध हटा दिया गया। यूके में, सॉलिसिटर पब्लिसिटी कोड, 1990 वकील द्वारा विज्ञापन दिए जाने को नियंत्रित करता है, लेकिन कानूनी सेवाओं के विज्ञापन की अनुमति देता है। हालाँकि वकील द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त होनी चाहिए कि भावी मुवक्किल और अन्य व्यक्ति, उचित जानकारी के साथ विकल्प चुनने में समर्थ हो सकें। इसके अलावा, सिंगापुर कानूनी पेशे (व्यावसायिक आचरण) नियम 2015 कानूनी पेशेवरों द्वारा ऐसे नियमों के अनुसार, 'प्रचार' की अनुमति देता है। नियम में बदलाव: समय की मांग? भारत में न्यायिक प्रणाली के दायरे में आने वाले पक्षकारों के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं है जिसके जरिये वे इस क्षेत्र में बेहतर वकीलों का चुनाव करने के लिए जानकारी प्राप्त कर सकें। अर्थात ऐसी कोई एकल एजेंसी नहीं है, जो संभवतः 'अच्छे" वकीलों की एक विश्वसनीय सूची प्रदान कर सके। कानूनी पेशा निस्संदेह एक महान पेशा है। लेकिन इसके साथ ही, यह बड़े पैमाने पर लोगों की जरूरतों को पूरा कर रहा है। इस बात को भी ध्यान में रखते हुए, विज्ञापन सम्बन्धी नियमों को और बेहतर किया जा सकता है। हालाँकि, भारत जैसे देश में, आबादी का एक बड़ा वर्ग निरक्षर है, और इसके चलते एक ऐसी स्थिति भी उत्पन्न होती है, जहाँ असंगत वकील, जनता का शोषण कर सकते हैं, जबकि कानून परंपरागत रूप से सार्वजनिक सेवा के लक्ष्य के साथ जुड़ा हुआ पेशा है, इसलिए वकीलों पर लगाये गए विज्ञापन सम्बन्धी प्रतिबन्ध की वकालत करने वाले लोग भी कम नहीं हैं। 

घरेलू हिंसा के प्रमुख फैसले -2006-2019

 घरेलू हिंसा कानून पर सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख फैसले [2006-2019] 


28 Nov 2019 7:22 PM 

 महिलाओं की सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005, 26 अक्टूबर 2006 को लागू किया गया था। अधिनियम का उद्देश्य "परिवार के भीतर किसी भी तरह की हिंसा की शिकार महिलाओं को संविधान के तहत प्रत्याभूत अधिकारों को अधिक प्रभावी संरक्षण प्रदान करना" है। अशोक कीनी महिलाओं की सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005, 26 अक्टूबर 2006 को लागू किया गया था। अधिनियम का उद्देश्य "परिवार के भीतर किसी भी तरह की हिंसा की शिकार महिलाओं को संविधान के तहत प्रत्याभूत अधिकारों को अधिक प्रभावी संरक्षण प्रदान करना" है। सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून के क्रियान्वयन में कुछ महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किए हैं और व्याख्याएं दी हैं। इस आलेख में इस अधिनियम के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के लगभग सभी फैसलों को शामिल किया गया है। साझा घरेलू और वैकल्पिक आवास [एसआर बत्रा बनाम तरुणा बत्रा (2006)] घरेलू हिंसा अधिनियम के लागू होने के लगभग दो महीने बाद, सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में अधिनियम के कुछ प्रावधानों की व्याख्या की थी। इस मामले में, अदालत ने पत्नी की ओर से से दिए निवेदन का निस्तारण किया था कि साझा घर की परिभाषा में एक ऐसा घर शामिल है, जहां पीड़ित व्यक्ति रहता हो अथवा जीवन की किसी अवस्था में घरेलू रिश्तों में रह चुका हो। अदालत ने धारा 17 (1), धारा 2 (एस) का हवाला देते हुए कहा कि पत्नी केवल साझा घर में निवास के अधिकार का दावा करने की हकदार है और एक `साझा घर 'का मतलब केवल उस घर से है या लिया जाता है जो पति द्वारा किराए पर लिया गया हो या उसी का हो, या वह घर जो संयुक्त परिवार से संबंधित हों, जिसमें पति भी एक सदस्य हो। इसके अलावा, धारा 19 (1) (एफ) की व्याख्या करते हुए, जस्टिस एसबी सिन्हा और जस्‍टिस मार्कंडेय काटजू की बेंच ने कहा कि वैकल्पिक आवास के लिए केवल पति के खिलाफ ही दावा सकता है, न कि पति के ससुराल वालों या अन्य रिश्तेदारों के खिलाफ। इस मामले के तथ्यों में माना गया है कि पत्नी अपनी सास की संप‌त्त‌ि में आवास के अधिकार का दावा नहीं कर सकती है। ' जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें 'विवाह की प्रकृति के संबंध' की आवश्यकताएं [डीवेलुसामी बनाम डी पच्चीमाला (2010)] इस मामले में अदालत ने कहा कि अधिनियम की धारा 2 (एफ) में 'घरेलू संबंध' की परिभाषा में न केवल विवाह के संबंध, बल्कि 'विवाह की प्रकृति' के संबंध भी शामिल हैं। 'विवाह की प्रकृति के संबंध' को घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत परिभाषित नहीं किया गया है, बेंच ने इसका अर्थ समझाया है। जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस टीएस ठाकुर की पीठ ने कहा कि सभी लिव-इन रिश्‍ते 'विवाह की प्रकृति के संबंध' नहीं होंगे, उन्हें नीचे दी गई आवश्यकताओं (सामान्य कानून विवाह की आवश्यकताओं) को पूरा करना होगा और इसके अलावा दोनों पक्षों को एक साथ 'साझा घर' में रहना चाहिए। -जोड़े को खुद को समाज में जीवनसाथी के रूप में पेश करना चा‌हिए। -उन्हें शादी करने की कानूनी उम्र का होना चाहिए -उन्हें अविवाहित होने सहित अन्य प्रकार से कानूनी विवाह में प्रवेश करने योग्य होना चाहिए। -उन्होंने स्वेच्छा से सहवास किया और पर्याप्त अवधि के लिए जीवनसाथी के रूप में खुद को दुनिया के समक्ष पेश किया हो। आगे कहा गया था कि केवल वीकेंड एक साथ बिताना या वन नाइट स्टैंट 'घरेलू संबंध' की श्रेणी में नहीं आ पाएगा। अगर किसी व्यक्ति के पास एक 'रखैल' होती है, जिसे वह वित्तीय रूप से भरण-पोषण देता है और मुख्य रूप से यौन उद्देश्य के लिए प्रयोग करना है और/या एक नौकर के रूप में उपयोग करता है, तो ये संबंध शादी की प्रकृति में संबंध नहीं गिने जाएंगे।' जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें पति की महिला रिश्तेदारों के खिलाफ शिकायत दर्ज की जा सकती है [संध्या मनोज वानखड़े बनाम मनोज भीमराव वानखड़े (2011)] अधिनियम की धारा 2 (q) में वाक्यांश "प्रतिवादी" की व्याख्या करते हुए अदालत ने कहा कि पति या पुरुष साथी की महिला रिश्तेदारों को शिकायत के दायरे से बाहर नहीं रखा गया है। यह माना गया था कि विवाह की प्रकृति के रिश्ते में रहने वाली एक पीड़ित पत्नी या महिला, पति या पुरुष साथी के किसी रिश्तेदार के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकती है। जस्टिस अल्तमस कबीर और स‌ीरियाक जोसेफ की पीठ ने कहा था: "उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट है कि यद्यपि धारा 2 (q) प्रतिवादी को किसी भी वयस्क पुरुष के रूप में परिभाषित करती है, जो कि पीड़ित व्यक्ति के साथ घरेलू संबंध में है या रह चुका है, ये शर्त पति या पुरुष साथी के रिश्तेदार को श‌िकायत के दायरे में शामिल कर, जो विवाह की प्रकृति के रिश्ते में रहने वाली पीड़‌ित पत्नी या महिला ने दर्ज कराई है, उक्त परिभाषा के दायरे को बड़ा करती है। "यह सच है कि शब्द " महिला " धारा 2 (q) की शर्त में इस्तेमाल भी नहीं किया गया है, लेकिन दूसरी ओर, यदि विधानमंडल का इरादा महिलाओं को शिकायत के दायरे से बाहर करने का है, जो एक पीड़ित पत्नी द्वारा दायर किया जा सकता है, तो महिलाओं को विशेष रूप से बाहर रखा जाएगा, इसके बजाय शर्त में यह दिया जा रहा है कि पति या पुरुष साथी के किसी रिश्तेदार के खिलाफ भी शिकायत दर्ज की जा सकती है। "रिश्तेदार" शब्द के लिए कोई प्रतिबंधात्मक अर्थ नहीं दिया गया है, न ही उक्त शब्द को घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 में केवल पुरुषों तक सीमित करने के लिए परिभाषित किया गया है...ऐसी परिस्थितियों में, यह स्पष्ट है कि घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के प्रावधानों के तहत की जा सकने वाली शिकायत के दायरे से पति या पुरुष साथी की महिला रिश्तेदारों को बाहर करने का विधायिका का इरादा कभी नहीं था।" जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें घरेलू हिंसा अधिनियम लागू होने से पहले पार्टियों का संचालन [वीडी भनोट बनाम सविता भनोट (2012)] इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा कि घरेलू हिंसा अधिनियम के लागू होने से पहले से भी पक्षों के आचरण को धारा 18, 19 और 20 के तहत आदेश पारित करते समय ध्यान में रखा जा सकता है। यहां तक कि अगर एक पत्नी, जो अतीत में एक ही घर में रह चुकी है, अब साथ नहीं रहती, जब अधिनियम लागू हुआ, तब वह अधिनियम के संरक्षण की हकदार होगी। मामले में फैसला देने वाली बेंच में जस्टिस अल्तमस कबीर और जस्टिस जे चेलमेश्वर शामिल थे। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें कैसे जानें कि लिव इन रिलेशनशिप विवाह की प्रकृति का है [इंद्र सरमा बनाम वीकेवी सरमा (2013)] क्या "लिव-इन रिलेशनशिप" डीवी अधिनियम की धारा 2 (एफ) के तहत "घरेलू संबंध" की परिभाषा के तहत "विवाह की प्रकृति के संबंध" जैसा होगा और ऐसे संबंध में शामिल महिला के रखरखाव में विफल रहने पर संबध विच्छेद हाने को डीवी अधिनियम की धारा 3 के अर्थ में "घरेलू हिंसा" की श्रेणी में रखा जाएगा? सुप्रीम कोर्ट ने उक्त मामले में इसी मुद्दे पर विचार किया था। जस्टिस केएस राधाकृष्णन और ज‌स्ट‌िस प‌िनाकी चन्द्र घोष की बेंच ने इस मसले पर विस्तृत चर्चा के बाद, किन परिस्थितियों में लिव-इन रिलेशनशिप "विवाह की प्रकृति में संबंध" के अंतर्गत आएगा, के परीक्षण के लिए दिशानिर्देश तय किए। -संबंध की अवधि- डीवी अधिनियम की धारा 2 (एफ) ने "किसी भी समय" वाक्यांश का उपयोग किया है, जिसका अर्थ है एक संबंध को बनाए रखने और जारी रखने के लिए समय की उचित अवधि जो अलग-अलग मामले में भिन्न हो सकती है, जो हालात पर निर्भर है -साझा घर- इसे डीवी एक्ट की धारा 2 (एस) के तहत परिभाषित किया गया है और इसलिए, आगे विस्तार की आवश्यकता नहीं है। -संसाधनों और वित्तीय व्यवस्थाओं की पूलिंग- एक दूसरे का सहयोग करना, या उनमें से किसी एक का, वित्तीय रूप से, बैंक खातों को साझा करना, दोनों के नाम या महिला के नाम पर अचल संपत्तियों को अर्जित करना, व्यापार में दीर्घकालिक निवेश, अलग और संयुक्त नामों में शेयर ताकि लंबे समय तक संबंध बना रहे, ये सभी कारक हो सकते हैं। -घरेलू व्यवस्था- जिम्मेदारी सौंपना, विशेष रूप से लिए महिला को घर चालाने की, घर की सफाई, खाना बनाना, घर की देखरेख या रख-रखाव जैसी गतिविधियां करना आदि, विवाह की प्रकृति के संबंध का संकेत हैं। -यौन संबंध- विवाह जैसे संबंध यौन संबंध को संद‌र्भित करते हैं, नकि केवल आनंद के लिए, बल्‍कि भावनात्मक और अंतरंग संबंध के लिए, बच्चों के जन्म के लिए, ताकि भावनात्मक सहयोग, सहवास, भौतिक स्नेह, देखभाल आदि हो सके। -बच्चे- बच्चे पैदा करना शादी की प्रकृति के रिश्ते का एक मजबूत संकेत है। इसलिए, पक्ष ‌दीर्घजीवी संबंध बनाने का इरादा रखते हैं। बच्‍चों के पालनपोषण के लिए की जिम्‍मेदारी साझा करना और उनका सहयोग करना भी एक मजबूत संकेत है। सार्वजनिक स्तर पर सामाजीकरण- सार्वजनिक स्तर पति-पत्नी के रूप में पेश आना, दोस्तों, संबंध‌ियों और अन्य लोगों के साथ ऐसे उठना-बैठना, जैसे कि वे पति-पत्नी हैं, ऐसे विवाह की प्रकृति के संबंध रखना एक मजबूत परि‌‌स्थिति है। पक्षों का इरादा और आचरण- पार्टियों का सामान्य इरादा कि उनका रिश्ता क्या है और इसमें शामिल होना है, और उनकी संबंधित भूमिकाएं और जिम्मेदारियों के रूप, मुख्य रूप से उस रिश्ते की प्रकृति को निर्धारित करते हैं। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें शिकायत में सभी को प्रतिवादी बनाने की पदावनत प्रवृत्ति [आशीष दीक्षित बनाम यूपी राज्य (2013)] इस मामले में, पीड़ित पत्नी ने अपने पति और उसके सास-ससुर सहित पर‌िवार के सभी सदस्यों को डीवी एक्ट के तहत दायर शिकायत में प्रतिवादी बनाया था। जस्टिस एचएल दत्तू और चंद्रमौली कुमार प्रसाद ने पति और माता-पिता को छोड़कर सभी प्रतिवादियों के खिलाफ शिकायत को खारिज कर दिया। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें कोर्ट को डीवी एक्ट के तहत पार‌ित रखरखाव आदेश में हस्तक्षेप करने वाले अंतरिम आदेशों को पारित करने में धीमा होना चाहिए [शालू ओझा बनाम प्रशांत ओझा (2014)] इस मामले में, मजिस्ट्रेट ने पति को प्रति माह दो लाख के रुपए रखरखाव का भुगतान करने का आदेश दिया। पति ने सत्र न्यायालय के समक्ष आदेश का प्रतिवाद किया, जिसने अंततः अपील को खारिज कर दिया क्योंकि उसने सशर्त आदेश का पालन नहीं किया था। मामले में रखरखाव देने के आदेश में उच्च न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप किया गया, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उस पर प्रतिवाद किया गया। ज‌‌स्टिस चेलमेश्वर और ज‌‌स्टिस एके सीकरी की सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए बने कानून के तहत उत्पन्न मामले में, उच्च न्यायालय को ऐसे आदेश, जिसके द्वारा अपीलकर्ता को रखरखाव प्रदान किया जाता है, में हस्तक्षेप करने के लिए, अंतरिम आदेश देने में धीमी गति से दखल देना चाहिए, जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें न्यायिक विच्छेद के बाद भी पत्नी ' पीड़ित व्यक्ति' हो सकती है [कृष्णा भट्टाचार्जी बनाम सारथी चौधरी (2015)] यह कहा गया कि केवल इसलिए कि न्यायिक विच्छेद का आदेश पारित किया चुका है, पत्नी का घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत 'पीड़ित व्यक्ति' का दर्जा खत्म नहीं हो जाता है। जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस प्रफुल्ल सी पंत की पीठ ने कहा कि एक बार तलाक का आदेश पारित हो जाने के बाद, पार्टियों की स्थिति अलग हो जाती है, लेकिन न्यायिक विच्छेद के आदेश में ऐसा नहीं है। अदालत कहा कि निचली अदालत में के आदेश में कहा गया है‌ कि चूंकि दोंनों पक्षों को न्यायिक विच्छेद हो चुका है, इसलिए पत्नी को "पीड़ित व्यक्ति" का दर्जा नहीं दिया जा सकता,, स्वीकार किए जा ने योग्य नहीं है। जजमेंट को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें न्यायालय घरेलू हिंसा की शिकायतों के संशोधन की अनुमति देने में असमर्थ नहीं है [कुनापारेड्डी @ नुक्कला शंका बालाजी बनाम कुनपारेड्डी स्वर्ण कुमारी (2016)] इस मामले में, न्यायालय ने माना कि घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के तहत दायर शिकायतों या याचिकाओं के संशोधन की अनुमति दी जा सकती है। यदि शिकायत/आवेदन आदि को संशोधित करने की शक्ति पूर्वोक्त प्रावधान में नहीं पढ़ी जाती है, तो वो उद्देश्य अधिनियम स्वयं जिसकी सेवा का प्रयास करता है, वो कई मामलों में पराजित हो सकता है। जस्टिस एके सीकरी और जस्टिस आरके अग्रवाल की बेंच ने ये फैसला दिया। जजमेंट को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें असफल तलाक की कार्यवाही डीवी एक्ट के तहत दायर आवेदन की रखरखाव को प्रतिकूल तरीके से प्रभावित नहीं कर सकती है [राकेश नागरदास दुबल शाहा बनाम मीना प्रकाश दुबल शाहा (2016)] सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में कहा कि, असफल तलाक की कार्यवाही, अधिनियम के तहत प्रतियोगी प्रतिवादियों द्वारा दायर आवेदन की स्थिरता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित नहीं कर सकती है। सत्र न्यायालय ने मामले में इस आधार पर आवेदन को बरकरार नहीं रखा था कि चूंकि पति पत्नी ने पहले से ही तलाक की कार्यवाही शुरू की थी, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम बाद में लागू हुआ। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति शिवा कीर्ति सिंह की पीठ ने उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा, जिसने सत्र न्यायालय के आदेश को अलग रखा था। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें डीवी एक्ट के तहत नाबालिगों, महिलाओं के लिए राहत नहीं मांगी जा सकती है [हीरालाल पी हरसोरा बनाम कुसुम नरोत्तमदास हरसोरा (2016)] सुप्रीम कोर्ट ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 2 (क्यू) में "व्यक्ति" शब्द से पहले "वयस्क पुरुष" शब्द को समाप्त कर दिय, जिसमें कहा गया था कि ये शब्द समान रूप से स्थित व्यक्तियों के बीच भेदभाव करते हैं, और अधिनियम द्वारा अपेक्षित उद्देश्यों के विपरीत हैं। जस्टिस कुरियन जोसेफ और जस्टिस आरएफ नरीमन की बेंच ने कहा कि अगर "प्रतिवादी" को केवल एक वयस्क पुरुष व्यक्ति के रूप में पढ़ा जाना है तो यह स्पष्ट है कि जो महिलाएं पीड़ित व्यक्ति को अलग करती हैं या घर से बाहर निकालती हैं, वे इसके दायरे में नहीं आती हैं, और यदि है तो अधिनियम के उद्देश्‍य को एक वयस्क पुरुष व्यक्ति द्वारा खुद सामने ने आकर किसी महिला को समाने करके प‌ीड़‌ित व्यक्ति को घर से बाहर किया जा सकता है या अलग किया जा सकता है और इस प्रकार अधिनियम के उद्देश्यों का आसानी से हराया जा सकता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि यह भी संभव है कि एक गैर-वयस्क 16 या 17 वर्ष की आयु का सदस्य, घरेलू हिंसा के कृत्यों सहायता या पालन कर सकता है या जो पीड़ित को साझा घर से बाहर निकालने या बेदखल करने मदद कर सकता है या कर सकता है। जजमेंट को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें एक पक्ष को 'साझे घर' का कब्जा देने के लिए 'घरेलू आवश्यक है [मनमोहन अटावर बनाम नीलम मनमोहन अटावर (2017)] इस मामले में, यह देखा गया कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत एक पार्टी को एक घर पर कब्जा करने की अनुमति देने के ‌लिए एक आदेश जारी करने के लिए, यह आवश्यक है कि दोनों पक्षों में घरेलू संबंध में रहते हों। जस्टिस आरएफ नरीमन और जस्टिस संजय किशन कौल की खंडपीठ ने कहा कि डीवी एक्ट की धारा 2 (एफ) के तहत परिभाषित "घरेलू संबंध" दो व्यक्तियों को संदर्भित करता है जो एक "साझा घर" में एक साथ रहते हैं, जो डीवी एक्ट की धारा 2S के तहत परिभाषित है। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें लाइव-इन पार्टनर घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों के तहत रखरखाव की मांग कर सकते हैं [ललिता टोप्पो बनाम झारखंड राज्य (2018)] इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक लिव-इन पार्टनर घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 से महिलाओं की सुरक्षा के प्रावधानों के तहत रखरखाव की मांग कर सकता है। तीन न्यायाधीशों की पीठ ने एक दो न्यायाधीश की पीठ के संदर्भ पर विचार करते हुए, जिसमें सीआरपीसी की धारा पर 125 के दायरे और लिव इन रिश्तों पर बात की गई थी। दो न्यायाधीशों की पीठ ने झारखंड उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ एक अपील पर विचार करते हुए इस मामले को रिफर किया था, उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 उस महिला को रखरखाव का अनुदान प्रदान नहीं करता है, जिसने कानूनी रूप से उस व्यक्ति के साथ शादी नहीं की, ‌जिससे रखरखाव की मांग की गई है। घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों का उल्लेख करते हुए, पीठ ने कहा कि अधिनियम याचिकाकर्ता द्वारा इस मामले में रखरखाव की मांग करने के लिए एक प्रभावशाली उपाय होगा, तब भी जबकि कि वह कानूनी रूप से पत्नी नहीं है और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत रखरखाव की हकदार नहीं हैं। यह भी कहा गया कि अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार आर्थिक दुरुपयोग भी घरेलू हिंसा में शामिल है। जजमेंट को पढ़ने / डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें देवर को डीवी एक्ट के तहत विधवा को रखरखाव का भुगतान करने का आदेश [अजय कुमार बनाम लता@ शारुती (2019)] इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने DV एक्‍ट के तहत पारित एक आदेश को, जिसमें एक विधवा को रखरखाव का भुगतान करने के लिए एक देवर को निर्देश दिया गया था, बरकरार रखा। महिला और उसका मृतक पति एक ऐसे घर में रहते थे, जो पैतृक हिंदू संयुक्त परिवार की संपत्ति की श्रेणी में आता था। मृतक पति और भाई संयुक्त रूप से एक किरयाना दुकान का व्यवसाय करते थे। महिला ने घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत एक शिकायत दर्ज की, जिसमें आरोप लगाया गया कि पति की मृत्यु के बाद उसे और उसके बच्चे को अपने वैवाहिक घर में नहीं रहने दिया गया। ट्रायल कोर्ट ने एक अंतरिम आदेश पारित किया जिसमें महिला को 4,000 रुपए और बच्चे को 2,000 रुपए मासिक की सहायता प्रदान की गई। देवर को उक्त राशि का भुगतान करने के लिए निर्देशित किया गया था। देवर की इस दलील को खारिज कर दिया गया कि उसके खिलाफ भरण-पोषण का आदेश पारित करने का कोई प्रावधान नहीं है। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस हेमंत गुप्ता की खंडपीठ ने कहा कि धारा 2 (क्यू) का मूल भाग यह दर्शाता है कि ''प्रतिवादी" का अर्थ किसी भी वयस्क पुरुष व्यक्ति से है, जो पीड़ित व्यक्ति के साथ घरेलू संबंध में है या रहा है और जिसके खिलाफ मदद मांगी गई है।"

Wednesday, December 4, 2019

वकील की फीस न देने पर कागज वापस देने को वाध्य नहीं वकील

क्या वकील क्लाइंट द्वारा फीस न दिए जाने की स्थिति में उसके कागज़ात वापस करने से मना कर सकते हैं? 

4 Dec 2019 9:45 AM 

जैसा कि हम जानते हैं कि वकालत एक पेशा है, यह कोई व्यवसाय नहीं और इस पेशे का उद्देश्य, लोगों की सेवा करना है। एक पेशे की अहमियत को समझाते हुए, रोस्को पाउंड ने कहा था: "ऐतिहासिक रूप से, पेशे में 3 विचार शामिल हैं: संगठन (Organisation), सीखने और सार्वजनिक सेवा की भावना। ये आवश्यक हैं। इसके अलावा, आजीविका प्राप्त करने का विचार, इसके साथ है (पर अधिक महत्वपूर्ण नहीं)।" कानूनी पेशा अपनाने वाले व्यक्तियों पर, समाज में कानून के शासन को बनाए रखने की एक बड़ी जिम्मेदारी होती है। सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करते हुए एक वकील को न्याय, निष्पक्षता, इक्विटी के सिद्धांतों का ध्यान रखना चाहिए। जैसा कि हम जानते हैं, एक वकील-मुवक्किल का संबंध, एक विश्वास का संबंध माना जाता है और इस प्रकार एक वकील का, अपने मुवक्किल के प्रति नैतिक दायित्व होता है। एक वकील एवं मुवक्किल के बीच (विवाद के रूप में), गोपनीयता (Secrecy), हितों के टकराव, फीस/शुल्क, महवपूर्ण कागजातों एवं मुक़दमे की देखभाल आदि सम्बंधित मामले जन्म ले सकते हैं। आखिर तब क्या होता है जब एक वकील एवं उसके मुवक्किल के बीच फीस को लेकर विवाद पैदा हो जाता है, ऐसे मामलों में मुवक्किल और वकील, एक-दूसरे पर अविश्वास करने लगते हैं। नतीजतन, वकील उस मामले/मुक़दमे को तब तक जारी नहीं रखना चाहता है, जब तक कि उसे अपनी फीस नहीं मिलती है, जबकि मुवक्किल, अपने वकील को बदलना चाहता है या उसे फीस नहीं चुकाना चाहता है। इस लेख में हम ऐसी ही स्थिति के बारे में बात करेंगे। सवाल यह है कि वकील को यदि फीस का भुगतान नहीं किया जाता/गया है, तो क्या वकील, मुवक्किल को उसके कागजात/अदालती दस्तावेज वापस करने से इंकार कर सकता है, जिससे वह उस मुवक्किल को अपने दस्तावेजों को वापस पाने के लिए भुगतान करने के लिए मजबूर कर सके? दूसरे शब्दों में, क्या एक वकील के पास धारण का अधिकार (Right to Lien) है, कि वह अपने मुवक्किल के कागजात को उस समय तक अपने पास रख सके (या लौटाने से माना करदे) जब तक उसकी फीस का मुवक्किल द्वारा भुगतान नहीं किया जाता है। वकील कौन होता है? एक वकील वह व्यक्ति होता है जो कानून की प्रैक्टिस करता है। ऐसा व्यक्ति या तो एक पैरालीगल हो सकता है, एक एडवोकेट, बैरिस्टर, अटॉर्नी, काउंसलर, सॉलिसिटर या एक चार्टर्ड लीगल एग्जीक्यूटिव हो सकता है। एक वकील के रूप में काम करने के दौरान, एक व्यक्ति कई कानूनी समस्याओं का समाधान करने के लिए, अमूर्त कानूनी सिद्धांतों और ज्ञान के व्यावहारिक अनुप्रयोग को शामिल करता है। इसके अलावा एक वकील, उन लोगों के कानूनी हितों को आगे बढ़ाने के लिए कार्य करता है, जो लोग ऐसे वकील की कानूनी सेवाएं लेने के लिए उसको नियुक्त करते हैं। एक वकील की भूमिका, कानूनी क्षेत्राधिकार के मामले में विभिन्न प्रकार की होती है, और इसलिए एक वकील को केवल सामान्य शब्दों में ही परिभाषित किया जा सकता है। क्या वकील, मुवक्किल द्वारा फीस न दिए जाने की स्थिति में उसके कागजात वापस करने से मना कर सकते हैं? इस प्रश्न का सीधा जवाब 'नहीं' है। सर्वोच्च न्यायालय ने आरडी सक्सेना बनाम बलराम प्रसाद शर्मा AIR 2000 SC 2912 के मामले में यह कहा है कि किसी भी पेशेवर वकील को अवैतनिक पारिश्रमिक के लिए किसी भी दावे के रूप में अपने मुवक्किल के मामले में उसके द्वारा किए गए काम से संबंधित, वापस करने योग्य रिकॉर्ड को अपने पास रख लेने का कोई अधिकार नहीं दिया जा सकता है। ऐसा एक पेशेवर, किसी भी अवैतनिक पारिश्रमिक का दावा करने के लिए, कानूनी उपायों का सहारा ले सकता है। अदालत ने यह भी कहा कि, हालांकि एक वकील का यह एक नैतिक दायित्व और पेशेवर कर्तव्य होता है कि जब मुवक्किल को अपना वकील बदलना आवश्यक हो, तो वह संक्षिप्त विवरणी (मामले से जुड़े कागजात) उस मुवक्किल को वापस करे। अदालत ने यह भी कहा कि फाइल वापस नहीं करने के मामले को पेशेवर कदाचार (Professional Misconduct) माना जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने इसी मामले में यह भी माना कि यदि कोई वकील, केस के कागजात पर ग्रहणाधिकार (Right to Lien) का दावा करता है, तो यह कितना महत्वपूर्ण है। अदालत ने इसका उत्तर देते हुए कहा कि अदालत/न्यायाधिकरण में चल रहा मामला, एक वकील के पारिश्रमिक के अधिकार से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है और यदि रिकॉर्ड के इस तरह के धारण की अनुमति दी जाती है तो यह प्रतिकूल रूप से मामले को प्रभावित और बाधित करेगा। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अंतर्गत 'ग्रहणाधिकार' CHAPTER – II - Standards of Professional Conduct and Etiquette (Rules under Section 49 (1) (c) of the Act read with the Proviso thereto) BAR COUNCIL OF INDIA RULES के नियम 28 और 29 के अंतर्गत, वकील अपनी फीस के रूप में, जिस मामले के लिए उसे वकील नियुक्त किया गया था, उस मामले की समाप्ति पर, वकील के पास बचे मुवक्किल द्वारा दिए गए पैसे एवं मुकदमे के दौरान प्राप्त पैसे को अपने पास रख सकता है। यह अधिकार तो बार काउन्सिल के नियमों के अंतर्गत दिया गया है, परन्तु अधिनियम के अंतर्गत उसे मुक़दमे से जुड़े दस्तावेजों को लेकर कोई ग्रहणाधिकार प्रदान नहीं किया गया है। हम यह जानते हैं कि भारत में बहुत सारे अनपढ़ लोग भी मामले में पक्षकार बनते हैं एवं वे एक वकील की सेवाएं लेते हैं, ऐसी स्थिति में, यह उचित नहीं हो सकता है कि वकील को उसके द्वारा दावा की गई फीस के लिए, मामले से जुड़े दस्तावेज को अपने पास रख लेने की अनुमति दी जाये। यदि ऐसी अनुमति दी जाएगी तो ऐसा कोई ग्रहणाधिकार, मुवक्किलों के शोषण के रास्ते खोल देगा। एक ओर जहाँ वकील का यह कर्तव्य है कि वह अपने मुवक्किल की फाइलों को लौटा दे (मुकदमा खत्म होने पर या वकील बदलने की स्थिति में), तो मुवक्किल को भी यह अधिकार है कि वह अपने वकील से फाइलें वापस प्राप्त कर सके, यह तब और अधिक जरुरी हो जाता है जब मुकदमा अदालत में अभी भी चल रहा हो। मुवक्किल के इस अधिकार को, अधिवक्ता के पेशेवर कर्तव्य (Professional Duty) के संगत समकक्ष के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 में परिकल्पित 'कदाचार' (Misconduct) को परिभाषित नहीं किया गया है। यह धारा, 'कदाचार, पेशेवर या अन्यथा' अभिव्यक्ति का उपयोग करती है। कदाचार शब्द एक विस्तृत शब्द है। इसे विषय वस्तु के संदर्भ में समझा जाना चाहिए। इसका शाब्दिक अर्थ है 'गलत आचरण' या 'अनुचित आचरण'। In re A Solicitor ex parte the Law Society [(1912) 1 KB 302] के मामले में जस्टिस चार्ल्स डार्लिंग ने टिपण्णी की थी कि: यदि यह दिखाया जाता है कि एक वकील ने अपने पेशे के अंतर्गत कार्य करते हुए ऐसा कुछ किया है, जो उचित रूप से अपमानजनक या बेईमानी के रूप में देखा जा सकता है तो यह पेशेवर कदाचार है। जॉर्ज फ्रिएर ग्राहम बनाम अटॉर्नी जनरल, फिजी (1936 PC 224) के मामले में भी इस परिभाषा को स्वीकृति मिली थी। भारत में मुवक्किल को उसकी फाइलें वापस करने से इनकार करने के मामले में, वकील को अधिनियम की धारा 35 के तहत कदाचार का दोषी माना जायेगा। यही बात आरडी सक्सेना के मामले में अभिनिर्णित की गयी थी। भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 171 के अंतर्गत वकील का ग्रहणाधिकार? जैसा कि हम जानते हैं कि भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 171 के तहत, जनरल बैलेंस ऑफ़ अकाउंट के लिए, प्रतिभूति (Security) के रूप में किसी भी 'माल' (Goods) को अपने पास बनाए रखने के लिए उच्च न्यायालय के वकीलों को अनुमति दी जाती है। इस प्रयोजन के लिए 'माल' और 'उपनिधान' (Bailment) के अर्थ को समझना आवश्यक है। माल विक्रय अधिनियम 1930 की धारा 2 (7) के तहत 'माल' से अनुयोज्य दावे और धन से भिन्न हर किस्म की जंगम संपत्ति अभिप्रेत है तथा इसके अंतर्गत स्टॉक और अंश, उगती फसलें, घास और भूमि से बद्ध या उसकी भागरूप ऐसी चीज़ें जिनका विक्रय से पूर्व या विक्रय संविदा के अधीन, भूमि से पृथक किया जाने का करार किया गया हो, शामिल हैं। वहीँ भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 148 के मुताबिक, "उपनिधान' एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को किसी प्रयोजन के लिए इस संविदा पर माल का परिदान करता है कि जब वह प्रयोजन पूरा हो जाए तब वह लौटा दिया जाएगा; या उसे परिदान करने वाले व्यक्ति के निदेशों के अनुसार अन्यथा व्ययनित कर दिया जाएगा।" आरडी सक्सेना के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इन परिभाषाओं की व्याख्या की और यह माना कि 'माल', बाजार में बिक्री योग्य होना चाहिए और जिस व्यक्ति को वह 'माल' प्रतिभूति के रूप में दिया गया है, वह उस माल का, धन के बदले में निपटान करने की स्थिति में होना चाहिए। रिकॉर्ड और केस पेपर और मूल दस्तावेजों की प्रतियों वाली फाइलों को 'माल' के रूप में नहीं देखा जा सकता है। अंत में पी. कृष्णामाचारी बनाम ऑफिसियल असाइनी मद्रास (एआईआर 1932 मद्रास 256) के मामले में डिवीजन बेंच ने कहा था कि एक वकील के पास इस तरह का ग्रहणाधिकार नहीं हो सकता है, जब तक कि इसके विपरीत मुवक्किल के साथ उसका कोई समझौता न हो। यह शायद तार्किक लगे कि यदि मुवक्किल ने वकील को उसके निर्धारित शुल्क का भुगतान करने से इनकार किया है, तो वकील को मुवक्किल के अदालती दस्तावेजों के ग्रहणाधिकार की अनुमति दी जानी चाहिए, लेकिन इसके ठीक विपरीत, अदालतों ने अपने तमाम निर्णयों में यह कहा है कि वकील को फीस देने में विफल रहने पर भी, एक वकील के पास यह अधिकार नहीं है कि वह अपने मुवक्किल के दस्तावेजों को अपने पास रख सके। 

Monday, December 2, 2019

क्या वकील आवासीय परिसर का प्रयोग कर सकते हैम


क्या वकील आवासीय परिसर का इस्तेमाल दफ्तर के रूप में कर सकते हैं?

2 Dec 2019 7:31 AM GMT

क्या वकील आवासीय परिसर का इस्तेमाल दफ्तर के रूप में कर सकते हैं?
चूंकि एक वकील की सेवा विशिष्ट ज्ञान, कौशल और अनुभव पर आधारित होती है, जो बहुत ही व्यक्ति-विशेष है, इसलिए इसे एक 'पेशेवर सेवा' माना जाता है।
लीगल प्रोफेशन कोई व्यावसायिक गतिविधि नहीं है। बल्कि, ये एक ऐसी पेशेवर गतिविधि माना जाता है, जो बिजनेस, ट्रेड और कॉमर्स से अलग है।

सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के कई निर्णय हैं जो इस अंतर को स्पष्ट करते हैं। चूंकि एक वकील की सेवा विशिष्ट ज्ञान, कौशल और अनुभव पर आधारित होती है, जो बहुत ही व्यक्ति-विशेष है, इसलिए इसे एक 'पेशेवर सेवा' माना जाता है।

शशिधरन वी पीटर और करुणाकर AIR 1984 SC 1700 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एक वकील का कार्यालय 'व्यावसायिक प्रतिष्ठान' नहीं है, जिसे दुकान व प्रतिष्ठान अधिनियम के तहत पंजीकरण की आवश्यकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस निष्कर्ष को सही ठहराने के लिए किसी मजबूत तर्क की आवश्यकता नहीं है कि एक वकील का कार्यालय या वकीलों की एक फर्म 'दुकान' नहीं है।

शिव नारायण और अन्य बनाम बनाम एमपी बिजली बोर्ड और अन्य AIR 1999 MP 246 के मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की डिवीजन बेंच के जजमेंट में कहा गया है कि वाणिज्यिक दर पर बिजली की खपत के भुगतान के लिए एडवोकेट का वर्गीकरण "वाणिज्यिक" शीर्षक के तहत करना मनमाना और तर्कहीन और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के ‌अधिकारों से परे है।

"…पेशेवर गतिविधि के मामले में किसी व्यक्ति को ‌कॉम‌‌‌र्स‌ियल या व्यावसायिक गतिविधि के लिए, जहां सामानों की बिक्री या लाभ के मंतव्य से नियोक्ता और कर्मचारियों के बीच सक्रिय सहयोग से लेनदेन किया जाता है, में अपने पेशेवर कौशल का इस्तेमाल करना पड़ता है। प्रोफेशन के मामले में, व्यक्ति आजीविका के लिए काम करता है, न कि केवल लाभ के उद्देश्य के लिए ", पेशे और वाणिज्य के बीच के अंतर को समझाते मध्य प्रदेश्‍ उच्च न्यायालय ने ये टिप्‍पणी की थी।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह अपील की गई थी। बिजली बोर्ड ने नई दिल्ली नगरपालिका परिषद बनाम सोहन लाल सचदेव (मृत) प्रतिनिधित्व श्रीमती हिरिंदर सचदेव द्वारा (2002) 2 एससीसी 494 पर भरोसा किया था। उस फैसले में कहा गया था कि गेस्ट हाउस के रूप में इस्तेमाल की जाने वाली एक इमारत व्यावसायिक प्रतिष्ठान है, ये देखते हुए कि यदि उसका उपयोग घरेलू नहीं है तो ये वाणिज्यिक है।

जस्टिस अरिजीत पसायत और एचके सेमा की डिवीजन बेंच ने अधिवक्ताओं के कार्यालय पर घरेलू बिजली दर लागू करने के संबंध में मध्या प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले को मंजूरी दे दी थी।

"एक पेशेवर गतिविधि एक व्यक्ति द्वारा अपने व्यक्तिगत कौशल और बुद्धिमत्ता द्वारा की जाने वाली गतिविधि होनी चाहिए। इसलिए एक पेशेवर गतिविधि और एक वाणिज्यिक गतिविध‌ि के बीच एक मौलिक अंतर है।" बेंच ने कहा था।

हालांकि, डिवीजन बेंच ने हिरिंदर सचदेव के मामले में में की गई टिप्पणी कि सभी गैर-घरेलू गतिविधियां वाणिज्यिक हैं, पर संशय व्यक्त किया और इस मामले को विचार के लिए बड़ी बेंच को भेजा दिया।

2000 के सिविल अपील नंबर 1065 में दिए गए फैसले में सुप्रीम कोर्ट की बड़ी पीठ ने दिनांक 27 अक्टूबर 2005 को कहा कि ये मुद्दा कि क्या अधिवक्ता एक वाणिज्यिक गतिविधि चला रहा था, हिरिंदर सचदेव के फैसले से संबंधित नहीं था। उसने हिरिंदर सचदेव के फैसले का सही माना, क्योंकि वहां अंतर वैधानिक परिभाषा पर आधारित था। बड़ी पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि वो इस सवाल में नहीं गया कि क्या एक वकील को वाणिज्यिक गतिविधि जारी रखने के लिए कहा जा सकता है?

तो, इस प्रकार मध्य प्रदेश हाइकोर्ट के फैसले कि वकालत वाणिज्यिक गतिविधि नहीं है, पर सुप्रीम कोर्ट ने भी मुहर लगा दी।

राजस्थान हाइकोर्ट की जयपुर खंडपीठ ने जेवीवीएन लिमिटेड और अन्य बनाम श्रीमती परिणीति जैन और अन्य एआईआर 2009 राजस्थान 110 के मामले में कहा था कि अपने निवास से कार्यालय चलाने वाले वकील से व्यावसायिक आधार पर अतिरिक्त शुल्क नहीं लिया जा सकता है। हालांकि, कार्यालय अगर एक स्वतंत्र वाणिज्यिक स्थान पर चलाया जाता है तो अधिवक्ता को वाणिज्यिक शुल्क से छूट नहीं दी जा सकती है। यहां निवास स्‍थान में कार्यालय और व्यावसायिक स्थान पर कार्यालय के बीच अंतर किया गया है। मद्रास हाइकोर्ट ने कानागासबाई बनाम अधीक्षण अभियंता के मामले में इसी का अनुकरण किया।

अधिवक्ताओं के कार्यालय पर 'व्यावसायिक भवन' के रूप में संपत्ति कर नहीं

दिल्ली हाइकोर्ट ने बीएन मैगॉन बनाम दक्षिण दिल्ली नगर निगम के मामले में कहा कि कार्यालय चलाने के लिए एक वकील द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला आवासीय परिसर संपत्ति कर के प्रयोजनों के लिए 'व्यावसायिक भवन' नहीं बन जाएगा। कोर्ट ने ये ध्यान में रखकर कहा था कि दिल्ली मास्टर प्लान 2021 में वकीलों, डॉक्टरों, चार्टर्ड एकाउंटेंट, आर्किटेक्ट्स आदि को व्यावसायिक गतिविधियों चलाने के ‌लिए आवासीय परिसर के उपयोग की अनुमति दी है, शर्त ये है कि पेशेवर स्थान क्षेत्र के लिए अनुमेय एफएआर से 50% से अधिक नहीं होना चाहिए।

डिस्ट्रिक्ट बार एसोसिएशन पंचकूला बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा AIR 2015 P&H 13 मामले में, पंजाब एंड हरियाणा डिवीजन बेंच ने हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण के नियमों को रद्द कर दिया था, जिसने अपने द्वारा आवंटित आवासीय परिसर का उपयोग करने एडवोकट ऑफिस के रूप करने के लिए शुल्क निर्धारित किया था। प्राधिकरण ने आवासीय उपयोग को वाणिज्यिक में बदलने के लिए यह फैसला ‌लिया था।

HUDA विनियमन ऐसी व्यावसायिक गतिविधियों के लिए निर्मित क्षेत्र के 25% के उपयोग की अनुमति दी थी। हालांकि, प्राधिकरण ने आवासीय परिसर के व्यावसायिक उपयोग की अनुमति देने के लिए शुल्क लगाया, जिसे उच्च न्यायालय रद्द कर दिया।

"हमने हुडा की ओर से पेश विद्वान वरिष्ठ वकील से एक प्रश्न पूछा है कि यदि एक प्रसिद्ध लेखक एक अध्ययन कक्ष बनाता, जिसे वो एक किताब लिखने के लिए उपयोग करता है और ये उसकी कमाई का स्रोत है, तो क्या इसे गैर-आवासीय उपयोग कहा जा सकता है? इस सवाल का वास्तव में कोई संतोषजनक उत्तर नहीं है क्योंकि वकालत के व्यक्तिगत पेशे की गतिविधि भी उन पुस्तकों और कागजात के अध्ययन पर आधारित है, जिसके लिए वह जगह का उपयोग करता है। यह एक महान पेशा है, इसलिए इस संदर्भ में इसे कॉमर्स या बिजनेस न माना जाए।",जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने ये टिप्‍पणी की।

बेंच ने कहा कि एक वकील के कानूनी पेशे की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए हुडा विनियमों में निर्धारित सीमित स्थान के उपयोग की शर्त किसी पेशे के चरित्र या गतिविधि को वाणिज्यिक में नहीं बदल सकता है।

जब केरल राज्य आवास बोर्ड के आवंटियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए केरल हाइकोर्ट में याचिका दायर की गई, जो अपने आवासीय परिसर का उपयोग वाणिज्यिक गतिविधियों के लिए कर रहे थे, तो उसने अधिवक्ताओं के कार्यालयों के खिलाफ आदेश पारित करने से इनकार कर दिया, हालांकि कई अन्य लोगों के खिलाफ निर्देश जारी किए गए थे जो उनका उपयोग व्यावसायिक गतिविधियों के लिए कर रहे थे। अदालत ने कहा कि एक वकील द्वारा योजना के तहत प्राप्त अपने आवास में कार्यालय चलाना वाणिज्यिक गतिविधि नहीं कहा जा सकता है।

कोर्ट ने कहा, "…एक अपार्टमेंट में प्रोफेशनल द्वारा निवास के साथ कार्यालया चलाने को वाणिज्यिक गतिव‌िधि नहीं कहा जा सकता है।"

स्थानीय कानूनों द्वारा प्रतिबंध

भवन अधिभोग के संबंध में कई स्थानीय कानून उस स्थान पर प्रतिबंध लगाते हैं, आवासीय परिसर में जिसका उपयोग व्यावसायिक गतिविधि के लिए किया जा सकता है। मैगनन बी मामले में निर्दिष्ट दिल्ली मास्टर प्लान में आवासीय स्थान के एफएआर के 50% के भीतर पेशेवर गतिविधि की अनुमति दी गई ‌थी।

हुडा विनियमन के मामले में, यह निर्मित स्थान का 25% था। केरल म्युनिसिपल बिल्डिंग रूल्स में कहा गया है कि अधिवक्ताओं, डॉक्टरों, आर्किटेक्ट्स आदि के लिए छोटे व्यावसायिक स्थान, जो 50 वर्ग मीटर के फर्श क्षेत्र से अधिक न हो और मुख्य आवासीय अधिभोग के हिस्से के रूप में उपयोग किए जाते हों, वे 'आवासीय भवनों' के समूह में शामिल हैं। ये नियम स्थानीय कानूनों के आधार पर भिन्न हो सकते हैं।

दिल्ली के संदर्भ में, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली प्रदेश नागरिक परिषद बनाम भारत संघ (2006) 6 एससीसी 305 के मामले में आदेश दिया कि आर्किटेक्ट, चार्टर्ड एकाउंटेंटों, डॉक्टरों और वकीलों द्वारा भी आवासीय परिसर में 50% से अधिक अनुमेय स्‍थान व्यावसायिक गतिविधियों को नहीं चलाया जा सकता है और उस आवासीय परिसर में ऐसे व्यक्ति द्वारा व्यावसायिक गतिविधियां नहीं की जा सकती, जो उस परिसर का न‌िवासी नहीं है।

अंत में, अधिवक्ताओं के कार्यालय को आवासीय परिसरों से संचालित किया जा सकता है, क्योंकि इसे व्यावसायिक गतिविधि नहीं माना जाता है। हालांकि, यह स्थानीय कानूनों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के अधीन है।

Sunday, December 1, 2019

न्यायिक हिरासत और पुलिस हिरासत में अन्तर


जानिए न्यायिक हिरासत और पुलिस हिरासत में क्या है अंतर

1 Dec 2019 

गिरफ्तारी के बाद हिरासत होती है, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि हिरासत के प्रत्येक मामले में पहले गिरफ्तारी हो। उदाहरण के तौर पर, जब कोई व्यक्ति अदालत के समक्ष आत्मसमर्पण करता है तो वह हिरासत में होता है, इस मामले में गिरफ्तारी नहीं होती है।
सामान्यतया 'कस्टडी' (हिरासत) का अर्थ एक व्यक्ति पर नियंत्रण या निगाह रखना है। इसका तात्पर्य किसी व्यक्ति के अपनी इच्छा के मुताबिक कहीं आने-जाने पर प्रतिबंध से है।

हिरासत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत आजादी के अधिकार पर सीधा हमला है, इसलिए, यह सुनिश्चित करने के लिए कानून में एक विस्तृत प्रक्रिया निर्धारित की गई है कि किसी व्यक्ति को केवल कानूनी उद्देश्यों के लिए ही अधिकारी द्वारा उचित, तार्किक और समानुपातिक तरीके से हिरासत में लिया जाये।

'हिरासत' और 'गिरफ्तारी'

हिरासत और गिरफ्तारी पर्यायवाची नहीं हैं। गिरफ्तारी किसी व्यक्ति को पुलिस द्वारा बलपूर्वक कैद में रखना है। (1)

गिरफ्तारी के बाद हिरासत होती है, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि हिरासत के प्रत्येक मामले में पहले गिरफ्तारी हो। उदाहरण के तौर पर, जब कोई व्यक्ति अदालत के समक्ष आत्मसमर्पण करता है तो वह हिरासत में होता है, इस मामले में गिरफ्तारी नहीं होती है।

न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने 'निरंजन सिंह बनाम प्रभाकरण राजाराम खरोटे'मामले में दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 438 के तहत 'हिरासत में'शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है -

"वह (एक व्यक्ति) केवल उस समय ही हिरासत में नहीं होता, जब पुलिस उसे गिरफ्तार करती है, उसे मजिस्ट्रेट के पास पेश करती है और उसे न्यायिक या अन्य कस्टडी पर रिमांड में लेती है। उसे उस वक्त भी हिरासत में कहा जा सकता है जब वह अदालत के समक्ष आत्मसमर्पण करता है और उसके निर्देशों को मान लेता है।(2)

इस प्रकार, जब किसी अभियुक्त ने सत्र अदालत के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया है, तो सत्र अदालत सीआरपीसी की धारा 439 के तहत जमानत याचिका पर विचार करने का अधिकार क्षेत्र हासिल कर लेता है।(3)

निरंजन सिंह मामले का अनुसरण करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में व्यवस्था दी थी कि यदि उच्च न्यायालय ने किसी आरोपी को अपने समक्ष आत्मसमर्पण करने की अनुमति दी है, तो वह उच्च न्यायालय की हिरासत में होगा। इसलिए, हाईकोर्ट को सीआरपीसी की धारा 439 के तहत नियमित जमानत के लिए आवेदन पर विचार करने का अधिकार होगा।(4)

पुलिस हिरासत

जब एक पुलिस अधिकारी एक व्यक्ति को संज्ञेय अपराध करने के संदेह में गिरफ्तार करता है, तो गिरफ्तार व्यक्ति को हिरासत में लिया गया बताया जाता है। पुलिस हिरासत का उद्देश्य अपराध के बारे में अधिक जानकारी इकट्ठा करने के लिए संदिग्ध से पूछताछ करना है, और सबूतों को नष्ट करने से रोकना और गवाहों को आरोपी द्वारा डरा-धमकाकर मामले को प्रभावित करने से बचाना है। यह कस्टडी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना 24 घंटे से अधिक नहीं हो सकती।

पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये गये और हिरासत में रखे गए प्रत्येक व्यक्ति को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर निकटतम मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए, जिसमें गिरफ्तारी के स्थान से लेकर मजिस्ट्रेट के कोर्ट तक के सफर का आवश्यक समय शामिल नहीं होगा।[5] मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना किसी भी व्यक्ति को 24 घंटे की अवधि से अधिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता है।[6]

न्यायिक हिरासत

जब पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के पास पेश किया जाता है तो उसके पास दो विकल्प होते हैं, आरोपी को पुलिस हिरासत में या न्यायिक हिरासत में भेजना।

यह सीआरपीसी की धारा 167(2) के प्रावधानों से स्पष्ट है कि मजिस्ट्रेट को जो उचित लगता है उस प्रकार की कस्टडी वह आरोपी के लिए मुकर्रर कर सकता है।

पुलिस हिरासत में, पुलिस के पास आरोपी की शारीरिक हिरासत होगी। इसलिए जब पुलिस हिरासत में भेजा जायेगा, तो आरोपी को पुलिस स्टेशन में बंद कर दिया जाएगा। उस परिदृश्य में, पुलिस को पूछताछ के लिए आरोपी तक हर समय पहुंच होगी।

न्यायिक हिरासत में, अभियुक्त मजिस्ट्रेट की हिरासत में होगा और उसे जेल भेजा जाएगा। न्यायिक हिरासत में रखे गये आरोपी से पूछताछ के लिए पुलिस को संबंधित मजिस्ट्रेट की अनुमति लेनी होगी। मजिस्ट्रेट की अनुमति से ऐसी हिरासत के दौरान पुलिस द्वारा पूछताछ, हिरासत की प्रकृति को बदल नहीं सकती है [7]।

धारा 167 के तहत यह आवश्यक नहीं कि सभी परिस्थितियों में गिरफ्तारी एक पुलिस अधिकारी द्वारा ही की जानी चाहिए, किसी और द्वारा नहीं तथा केस डायरी की प्रविष्टियां का रिकॉर्ड आवश्यक रूप से होना ही चाहिए। इसलिए, हिरासत निश्चित तौर पर एक सक्षम अधिकारी या गिरफ्तारी का अधिकार प्राप्त अधिकारी द्वारा इस मान्यता कि 'आरोपी संबंधित कानून के तहत दंडनीय अपराध का दोषी हो सकता है', पर विचार करते हुए गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को सक्षम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करने पर ही संभव होगा, बावजूद इसके कि जिस अधिकारी ने गिरफ्तारी की है वह सही अर्थों में पुलिस अधिकारी नहीं है।(8)

गिरफ्तारी के पहले पंद्रह दिनों के बाद पुलिस हिरासत नहीं

गिरफ्तारी के बाद मजिस्ट्रेट के समक्ष पेशी के पहले 15 दिनों के भीतर ही आरोपी को पुलिस हिरासत में भेजा जा सकता है।

सीआरपीसी की धारा 167(दो) का उपबंध-ए कहता है कि मजिस्ट्रेट पुलिस हिरासत में 15 दिनों की अवधि से परे अभियुक्तों की हिरासत अवधि बढ़ाने की अनुमति दे सकता है।

पुलिस हिरासत में नजरबंदी को आमतौर पर कानून मंजूरी नहीं देता। धारा 167 का उद्देश्य अभियुक्तों को उन तरीकों से बचाना है, जिन्हें "कुछ अति उत्साही और बेईमान पुलिस अधिकारियों" द्वारा अपनाया जा सकता है। [9]

सामान्य भाषा, खासकर "पुलिस की हिरासत से अन्यथा पंद्रह दिनों की अवधि से परे" शब्दों पर विचार करते हुए यह व्यवस्था दी गयी कि पहले पंद्रह दिनों की समाप्ति के बाद 90 दिनों या 60 दिनों की शेष अवधि के लिए केवल न्यायिक हिरासत ही होगी तथा यदि पुलिस कस्टडी आवश्यक हुई तो इसका आदेश केवल पहले 15 दिनों के भीतर ही हो सकता है।[10]

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है:

"इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि संबंधित धारा में अंतर्निहित सम्पूर्ण उद्देश्य पुलिस हिरासत अवधि को सीमित करना है। हालांकि, गंभीर प्रकृति के मामलों की जांच पूरी होने में उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए विधायिका ने अभियुक्तों को 90 दिनों की विस्तारित अवधि के लिए डिटेंशन बढ़ाने के प्रावधान किये हैं, लेकिन इस प्रावधान में स्पष्ट किया गया है कि इस प्रकार का डिटेंशन केवल न्यायिक हिरासत ही होगी। इस अवधि के दौरान पुलिस से गंभीर मामलों में भी जांच पूरी होने की अपेक्षा की जाती है। अन्य अपराधों के मामले में साठ दिनों की अवधि में जांच पूरी होने की उम्मीद की जाती है।" [11]

यदि मजिस्ट्रेट संतुष्ट है तो मृत्युदंड, आजीवन कारावास या 10 साल की जेल की सजा वाले अपराधों के लिए न्यायिक हिरासत 90 दिनों तक तथा अन्य अपराधों के लिए 60 दिनों तक बढ़ायी जा सकती है।

यदि परिस्थितियां न्यायोचित लगती हैं, तो सीआरपीसी की धारा 167 (दो) के तहत वर्णित प्रावधानों के अनुरूप निर्धारित समय सीमा (15 दिन में) न्यायिक हिरासत में भेजे गये आरोपी को पुलिस हिरासत और पुलिस हिरासत से न्यायिक हिरासत में भेजा जा सकता है।(12)

कई अपराध करने के आरोपी को पुलिस हिरासत

यदि यह पुलिस को पता है कि आरोपी एक संदिग्ध अपराध के लिए पहले से ही हिरासत में हो और वह कुछ अन्य अपराधों से भी जुड़ा है, तो क्या अन्य अपराधों के संबंध में पुलिस हिरासत मांगी जा सकी है, भले ही आरोपी ने पहले अपराध के लिए 15 दिनों की पुलिस हिरासत काट ली हो?

हां, बशर्ते कि दूसरे अपराधों को उस अपराध से अलग किया जा रहा हो, जिसके संबंध में उसे पहली बार हिरासत में लिया गया था।

हां, बशर्ते अन्य अपराध उस पहले वाले अपराध से भिन्न हों जिसके लिए उसे पहली बार पुलिस हिरासत में लिया गया था। जिस घटना के लिए आरोपी को पहले ही पुलिस हिरासत में ले लिया गया था और उस घटना की जांच के दौरान और अधिक गम्भीर अपराधों का पता चलता है तो पुलिस आरोपी को 15 दिन से अधिक के लिए हिरासत में लेने के लिए अधिकृत नहीं होगी।

सुप्रीम कोर्ट ने 'केंद्रीय जांच ब्यूरो, विशेष जांच प्रकोष्ठ-1, नयी दिल्ली बनाम अनुपम जे. कुलकर्णी एआईआर 1992, एससी 1768' मामले में इस स्थिति की विस्तृत व्याख्या कर दी है।

"एक घटना में ऐसा हो सकता है कि आरोपी ने कई अपराध किए हों और पुलिस उसे उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर एक या दो अपराधों के सिलसिले में गिरफ्तार कर सकती है और पुलिस हिरासत हासिल कर सकती है। यदि जांच के दौरान अधिक गंभीर मामलों में आरोपी की संलिप्तता पायी जाती है तो पहले 15 दिनों की कस्टडी के बाद पुलिस आगे की अवधि के लिए कस्टडी नहीं मांग सकती।

यदि इसकी अनुमति दी जाती है तो पुलिस विभिन्न चरणों में गंभीर प्रकृति के कुछ अपराध जोड़ सकती है और बार-बार पुलिस हिरासत की मांग कर सकती है, इस प्रकार धारा 167 में अंतर्निहित महत्वपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो सकेगी।

हालांकि यह प्रतिबंध दूसरी घटना पर लागू नहीं होगा, जिसमें गिरफ्तार आरोपी की संलिप्तता का खुलासा होता है। यह एक अलग ही मामला बनेगा और अगर एक अभियुक्त एक मामले में न्यायिक हिरासत में है और पुलिस को दूसरे मामले की जांच में उस व्यक्ति की आवश्यकता है तो उसे दूसरे मामले में औपचारिक तौर पर गिरफ्तार किया जाना चाहिए और फिर पुलिस हिरासत के लिए मजिस्ट्रेट का आदेश प्राप्त करना चाहिए।"

पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने एस. हरसिमरन सिंह बनाम पंजाब सरकार, 1984 के मामले में इस सवाल पर विचार किया कि क्या धारा 167(दो) में वर्णित 15 दिनों की पुलिस हिरासत की सीमा एक ही मामले पर लागू है या समान अभियुक्त वाले विभिन्न मामलों पर लागू होती है? न्यायालय ने व्यवस्था दी थी (पैरा 10ए)

"हमें एक अपराध के संदर्भ में हिरासत में रखे गये एक अपराधी की दूसरे अपराध की जांच के लिए फिर से गिरफ्तारी न करने को लेकर कोई ठोस प्रतिबंध नजर नहीं आता। दूसरे शब्दों में, अन्य अपराध की जांच के लिए सीआरपीसी की धारा 167(दो) के तहत मजिस्ट्रेट के आदेश द्वारा न्यायिक हिरासत को पुलिस हिरासत में बदले जाने में कोई बाधा नहीं है। इसलिए एक अलग मामले में फिर से गिरफ्तारी या दूसरी गिरफ्तारी कानून से परे नहीं है।"

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट ने कुलकर्णी मामले में व्यवहार्य करार दिया था।

पंद्रह दिन बीत जाने के बाद अभियुक्त को पुलिस हिरासत में बंद नहीं रखा जा सकता, भले ही उसी घटना से संबंधित कुछ अन्य अपराधों में उस आरोपी की संलिप्तता के बारे में बाद में पता क्यों न चला हो? (बुध सिंह बनाम पंजाब सरकार (2000)9 एससीसी266)

जब आगे की जांच के दौरान आरोपी को गिरफ्तार किया जाता है-

सीआरपीसी की धारा 309(दो) के प्रावधान किसी आरोपी को संज्ञान लेने के बाद हिरासत में भेजने के कोर्ट के अधिकार की व्याख्या करता है। यह रिमांड केवल न्यायिक हिरासत भी हो सकती है।

तो, क्या आरोप-पत्र दायर करने के बाद आगे की जांच के चरण में गिरफ्तार आरोपी को पुलिस रिमांड पर भेजा जा सकता है?

क्या ऐसे अभियुक्त को सीआरपीसी की धारा 309(दो) के प्रावधानों के मद्देनजर केवल न्यायिक हिरासत में भेजा जा सकता है?

सुप्रीम कोर्ट ने इन सवालों का जवाब सीबीआई बनाम दाऊद इब्राहिम कास्कर के फैसले में दिया था।(13) अदालत ने व्यवस्था दी कि आगे की जांच के चरण में गिरफ्तार किये गये आरोपी के रिमांड का मामला धारा 167(दो) के तहत निपटा जाना चाहिए, न कि धारा 309(दो) के प्रावधानों के तहत। क्योंकि जहां तक उस आरोपी का संदर्भ है तो जांच अब भी जारी है और पुलिस को उसकी कस्टडी देने से इन्कार नहीं किया जा सकता।

कोर्ट ने व्यवस्था दी :-

इस बात में कोई संदेह नहीं हो सकता कि उपरोक्त उपखंड के पहले प्रावधान में उल्लेखित रिमांड और कस्टडी धारा 167 के तहत 'डिटेंशन इन कस्टडी' से अलग हैं। पूर्व के प्रावधानों के तहत रिमांड मामले के संज्ञान के चरण से संबंधित होता है और ऐसे मामले में न्यायिक हिरासत में हो सकती है, लेकिन बाद में प्रावधानों के तहत डिटेंशन जांच के चरण से संबंधित होता है और शुरू में या तो पुलिस हिरासत या न्यायिक हिरासत कुछ भी हो सकती है। हालांकि किसी अपराध का संज्ञान लेने के बाद भी पुलिस को मामले की आगे की जांच करने का अधिकार रहेगा ही, जिसे केवल अध्याय-12 के अनुसार प्रयोग किया जा सकता है। हमें इस बात का कोई कारण नहीं दिखता कि क्यों धारा 167 के प्रावधान उस व्यक्ति पर लागू नहीं होगा, जो जांच के क्रम में पुलिस द्वारा बाद में गिरफ्तार किया जाता है।

जिस प्रकार मंसूरी मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने व्याख्या की है, उससे धारा 309 (दो) की व्याख्या होनी है, इसका मतलब है कि जब कोर्ट किसी अपराध का संज्ञान लेता है, तो वह सीआरपीसी की धारा 167 के तहत पुलिस कस्टडी में रखने के अपने अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकता। जांच एजेंसी आगे की जांच के दौरान गिरफ्तार व्यक्ति से पूछताछ के अवसर से वंचित नहीं हो सकती, भले ही उसे पर्याप्त सामग्रियां पेश करके अदालत को यह संतुष्ट करना पड़े कि उस व्यक्ति की पुलिस कस्टडी आवश्यक थी।

इसलिए हमारा मानना है कि धारा 309(दो) के तहत उल्लेखित शब्द 'एक्यूज्ड इफ इन कस्टडी' का संदर्भ एक वैसे आरोपी से है, जो संज्ञान लेते वक्त या उसके मामले में जांच या मुकदमा शुरू होने के दौरान अदालत के समक्ष था। इससे उस आरोपी का अभिप्राय नहीं है जो आगे की जांच के क्रम में गिरफ्तार किया गया हो।"

संज्ञान लेने के बाद गिरफ्तार किये गये भगोड़े आरोपी की पुलिस हिरासत

दाऊद इब्राहिम मामले में इस सिद्धांत का इस्तेमाल करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बाद में व्यवस्था दी कि आरोप पत्र दायर करने के बाद गिरफ्तार किये गये भगोड़े आरोपी को पुलिस कस्टडी में भेजा जा सकता है।(14) सर्वोच्च न्यायालय ने हाईकोर्ट के उस आदेश को निरस्त कर दिया जिसके तहत यह कहते हुए पुलिस रिमांड देने से इन्कार कर दिया गया था कि रिमांड 309(दो) के तहत थी।

संदर्भ :-

1. सीआरपीसी की धारा 46 कहती है कि पुलिस अधिकारी या सक्षम अधिकारी को गिरफ्तार किये जाने वाले व्यक्ति का शरीर छूना या जेल में डालना होगा।

2. निरंजन सिंह बनाम प्रभाकर राजाराम खरोटे, एआईआर 1980 एससी 785

3. आईबिड

4. संदीप कुमार बाफना बनाम महाराष्ट्र सरकार, एआईआर 2014 एससी 1745

5. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 22(एक)

6. सीआरपीसी की धारा 57

7. ज्ञान सिंह बनाम दिल्ली प्रशासन 1981 सीआरआईएलजे100

8. प्रवर्तन निेदेशालय बनाम दीपक महाजन एआईआर 1994 एससी 1775

9. केद्रीय जांच ब्यूरो, स्पेशल इंवेस्टीगेशन सेल-1, नयी दिल्ली बनाम अनुपम जे कुलकर्णी, एआाईआर 1992 एससी 1768

10. आईबिड

11. आईबिड

12. कोसानापु रामरेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश सरकार एवं अन्य, एआईआर 1994 एससी 1447

13. एआईआर 1997 एससी 2424

14. सीबीआई बनाम रतीन दंडापट और अन्य एआईआर, 2015 एससी 3285