Tuesday, August 13, 2019

निकाहनामा है तो अन्तर्धार्मिक जोडे पर विशेष विवाह अधिनियम के तहत पंजीकरण के लिए दबाव नहीं डाला जा सकता,पढिये फैसला सुप्रीम कोर्ट


13 Aug 2019 11:22 AM

हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक जोड़े को दिशानिर्देश जारी किया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने संशोधित कर दिया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अंतरधार्मिक शादी करने वाले जोड़े को विशेष विवाह अधिनियम के तहत शादी को पंजीकृत कराने का निर्देश जारी किया था, जबकि इस जोड़े ने पहले ही निकाहनामा हासिल कर लिया था। एक जोड़े ने पुलिस सुरक्षा के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट में अर्ज़ी दी। हाईकोर्ट ने यह जानने के बाद कि लड़की इस्लाम धर्म क़बूल करने से पहले और उस लड़के से शादी करने से पूर्व हिंदू थी, इस जोड़े को अपनी शादी को विशेष विवाह अधिनियम के तहत रजिस्ट्रार के समक्ष पंजीकृत कराने का निर्देश दिया। इसके बाद अदालत ने पुलिस को कहा कि जब वे शादी के पंजीकरण का प्रमाणपत्र दिखाएं तो वे यह सुनिश्चित करें कि उनके शांतिपूर्ण वैवाहिक जीवन में कोई ख़लल नहीं पड़े। इस जोड़े ने हाईकोर्ट के इस निर्देश के बाद सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी दी और कहा कि उन्होंने पहले ही निकाहनामा हासिल कर लिया है और अब वे अपनी शादी को विशेष विवाह अधिनियम के तहत पंजीकृत नहीं कराना चाहते। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एमएम शांतनागौदर और संजीव खन्ना ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि अगर ऐसा है तो अदालत उन्हें अपनी शादी को पंजीकृत करने के लिए बाध्य नहीं कर सकती। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इलाहबाद हाईकोर्ट के आदेश को संशोधित कर दिया।

138NI Act. चैक पर जिसे रुपये मिलने हैं.उसका नाम आरोपी ने खुद बदला यह साबित करने की जिम्मेदारी शिकायतकर्ता की :केरल हाई

13 Aug 2019 10:57 AM 64

केरल हाईकोर्ट ने कहा है कि जब किसी चेक में जिसको राशि का भुगतान होना है उसका नाम बदला जाता है तो यह साबित करने की ज़िम्मेदारी शिकायतकर्ता की है कि आरोपी ने ख़ुद यह बदलाव किया है या फिर आरोपी की सहमति से ऐसा किया गया है। न्यायमूर्ति आर नारायण पिशारदी ने ने जीमोल जोसेफ़ बनाम कौशतुभं मामले में यह भी कहा कि अधिनियम की धारा 138 के तहत पावर ऑफ़ अटर्नी के माध्यम से शिकायत दर्ज करना क़ानूनन वैध है। इस मामले में चेक पर पाने वाले का नाम "कौस्थुभन" (आरोपी का नाम) लिखा था जिसे काटकर उस जगह पर पानेवाले के रूप में शिकायतकर्ता का नाम लिख दिया गया था। नेगोशबल इंस्ट्रुमेंट (एनआई) ऐक्ट की धारा 87 और प्रस्तुत किए गए साक्ष्य के अनुसार अदालत ने पहली अपीली अदालत के फ़ैसले से सहमति जताई जिसमें कहा गया था कि चेक पर पानेवाले के नाम को सही किया गया है पर इसे आरोपी के हस्ताखर से सत्यापित नहीं किया गया है और इस स्थिति में यह असंभव है कि शिकायतकर्ता ने इसे स्वीकार किया हो। अदालत ने आगे कहा कि अगर एनआई में किसी पक्ष की सहमति के बिना अगर कोई बदलाव होता है तो यह उस इंस्ट्रुमेंट को रद्द करने जैसा है और इस तरह के इंस्ट्रुमेंट के आधार पर कोई आपराधिक कार्रवाई शुरू नहीं की जा सकती। अदालत ने आगे कहा : जो पक्ष बदलाव की अनुमति देता है और जो बदलाव करता है उन्हें इस तरह के बदलाव के ख़िलाफ़ शिकायत का अधिकार नहीं है। अगर चेक जारी करने वाले ने ही बदलाव किया है तो वह बाद में यह कहकर लाभ नहीं उठा सकता कि चेक बेकार हो गया क्योंकि उसमें बदलाव किया गया है। अगर पाने वाले ने चेक में बदलाव किया है और इसका अनुमोदन चेक जारी करने वाले ने किया है तो इस तरह के बदलाव का प्रयोग भी पाने वाले के अधिकार के विरुद्ध नहीं किया जा सकता। जब चेक में पाने वाले के नाम को बदला गया है तो यह ज़िम्मेदारी शिकायतकर्ता की होती है कि वह साबित करे कि आरोपी ने ख़ुद यह बदलाव किया है या फिर इसमें उसकी भी सहमति है। पीडब्ल्यू 1 और पीडब्ल्यू 2 के साक्ष्य यह साबित नहीं करते कि चेक पर नाम में बदलाव आरोपी ने ख़ुद किया अठा या फिर उसमें उसकी भी सहमती थी। चेक के बारे में शिकायत पीओए के माध्यम से दायर हो सकती है अदालत ने कहा कि पीओए ग्रांटर का एजेंट होता है और वह ग्रांटर के कहने पर क़ानूनी प्रक्रिया को आगे बढ़ाता है। यह सच है कि पीओए होल्डर अपने नाम से कोई शिकायत दर्ज नहीं करा सकता। वह प्रिन्सिपल के ख़िलाफ़ आपराधिक कार्यवाही शुरू कर सकता है और अधिनियम की धारा 138 के पीओए के माध्यम से शिकायत दर्ज करना पूरी तरह वैध है। आरोपी को हलफ़नामा दायर कर साक्ष्य देने का अधिकार नहीं है यद्यपि अदालत ने आरोपी को बरी किए जाने को सही ठहराया पर उसने इस बात पर भी ग़ौर किया कि आरोपी ने एक हलफ़नामा दायर कर साक्ष्य दिया था जिसमें उसने कहा था कि उसने ख़ुद के ही नाम पर चेक जारी किया था ताकि वह बैंक से राशि निकाल सके और उसने यह चेक अपने मित्र बाबू को दे दिया था बैंक से राशि निकालने के लिए पर बाबू ने वह चेक खो दिया। अदालत ने इस पर कहा, अगर कोई व्यक्ति अधिनियम की धारा 138 के तहत एक मामले में आरोपी है तो वह अधिनियम की धारा 145(1) हलफ़नामा दायर कर साक्ष्य नहीं दे सकता। यह अधिकार सिर्फ़ शिकायतकर्ता को ही प्राप्त है।अदालत ने कहा, "जब जिस पार्टी ने किसी को गवाही के लिए बुलाया है उससे उसने पूछताछ नहीं की है तो फिर उससे पूछताछ का सवाल भी नहीं उठता। साक्ष्य अधिनियम की धारा 138 यह कहती है कि गवाह पहले पार्टी ख़ुद अपने गवाह से पूछताछ करे और इसके बाद उससे क्रॉस-इग्ज़ैमिनेशन होगा…"।

Tuesday, August 6, 2019

एक अदालत से दूसरी अदालत में केस कैसे ट्रांफर होते हैं

एक अदालत से दूसरी अदालत में कैसे होते हैं केस ट्रांसफर, जानिए सुप्रीम कोर्ट के अधिकार और प्रक्रिया

5 Aug 2019 8:03 PM GMT

एक अदालत से दूसरी अदालत में कैसे होते हैं केस ट्रांसफर, जानिए सुप्रीम कोर्ट के अधिकार और प्रक्रिया
          
         ताज़ा उन्नाव मामले के अलावा सुप्रीम कोर्ट के ऐसे कई केस हैं जबकि केस या अपील एक राज्य से दूसरे राज्य में ट्रांसफर हुए हैं। जब भी सुप्रीम कोर्ट को यह प्रतीत करवाया जाता है कि न्याय के उद्देश्य के लिए यह समीचीन है कि इस धारा के तहत आदेश किया जाए...
उन्नाव रेप कांड में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले के तहत इस मामले के केस उत्तर प्रदेश के उन्नाव से दिल्ली ट्रांसफर कर दिये। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद एक बार फिर इस तथ्य पर ध्यान गया कि कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने केस एक राज्य से दूसरे राज्य में ट्रांसफर किए हैं।

        आखिर सुप्रीम कोर्ट को किसी केस या अपील को एक राज्य से दूसरे राज्य में ट्रांसफर करने की शक्ति किस तरह मिलती है और इसकी प्रक्रिया क्या है? यह आज हम इस आलेख के माध्यम से जानेंगे।

           दंड प्रक्रिया संहिता याने Criminal Procedure Code 1973 [CrPC] के चैप्टर 31 में सेक्शन 406 से लेकर सेक्शन 412 तक का विवरण दिया गया है, जो सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के केस ट्रांसफर करने की पावर से के बारे में बताया गया है। किसी केस या अपील को एक राज्य से दूसरे राज्य में ट्रांसफर करने का अधिकार सिर्फ सुप्रीम कोर्ट को है और उसे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 406 से यह अधिकार मिलता है।

यह कहती है दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 406 :

        Criminal Procedure Code 1973 [CrPC] की धारा 406 के अनुसार जब भी सुप्रीम कोर्ट को यह प्रतीत करवाया जाता है कि न्याय के उद्देश्य के लिए यह समीचीन है कि इस धारा के तहत आदेश किया जाए तो सुप्रीम कोर्ट किसी विशेष मामले या अपील को एक हाईकोर्ट से दूसरे हाईकोर्ट या किसी हाईकोर्ट के अधीनस्थ आपराधिक न्यायालय से दूसरे हाईकोर्ट के अधीनस्थ आपराधिक न्यायालय में स्थानांतरित करने का निर्देश दे सकता है।

       धारा 406 आगे कहती है कि सुप्रीम कोर्ट भारत के एटोर्नी जनरल या हितबद्ध पक्षकार के आवेदन पर ही इस धार के तहत कार्य कर सकता है। अगर यह आवेदन एटोर्नी जनरल नहीं दे रहे हैं और कोई पक्षकार दे रहा है तो पक्षकार को इस आवेदन के साथ एक शपथ पत्र लगाना होगा।

        जहां इस धारा प्रदत शक्तियों का प्रयोग करने के लिए कोई आवेदन खारिज कर दिया जाता है, वहां, यदि सुप्रीम कोर्ट की यह राय है कि आवेदन तुच्छ या तंग करने वाला था तो वह आवेदक को आदेश दे सकता है कि वह एक हजार रुपए से अनिधक इतनी राशि, जितनी वह न्यायालय उस मामले की परिस्थितियों में समुचित समझे प्रतिकर के तौर पर उस व्यक्ति को दे जिसने आवेदन का विरोध किया था।

        इस तरह Criminal Procedure Code 1973 [CrPC] की धारा 406 से स्पष्ट होता है कि सुप्रीम कोर्ट किसी केस या अपील को एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरित कर सकता है।

        हाईकोर्ट को भी इसी तरह से अधिकार प्राप्त हैं लेकिन हाईकोर्ट अपने राज्य के अधिकार क्षेत्र में किसी केस या अपील को एक दंड न्यायालय से दूसरे दंड न्यायालय में स्थानांतरित कर सकता है।

          Criminal Procedure Code 1973 [CrPC] की धारा 407 में हाईकोर्ट की इस शक्ति का वर्णन है।

          ताज़ा उन्नाव मामले के अलावा सुप्रीम कोर्ट के ऐसे कई केस हैं जबकि केस या अपील एक राज्य से दूसरे राज्य में ट्रांसफर हुए हैं। इसी तरह से हाईकोर्ट भी अपने अधिकार क्षेत्र में एक ही राज्य में किसी अपील या केस को एक अदालत से दूसरी अदालत में स्थानांतरित करते हैं।