Thursday, April 18, 2019

आपसी सहमति से तलाक के मामले में निर्धारित समय-सीमा को किसी दंपत्ति को हो रही व्यक्तिगत परेशानी के आधार पर नहीं कर सकते है खत्म-मध्य प्रदेश हाईकोर्ट [आर्डर पढ़े


18 April 2019 3:15 PM

             मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा है कि दोनों पक्षकारों को हो रही व्यक्तिगत परेशानी के आधार पर हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी(2) के तहत निर्धारित छह माह की अवधि को खत्म नहीं किया जा सकता है। इस मामले में एक दंपत्ति ने आपसी सहमति से तलाक की अर्जी कोर्ट के समक्ष दायर की थी और मांग की थी कि छह महीने के कूलिंग आॅफ यानि शीलतन की समय अवधि को खत्म किया जाए। 
           इन दोनों पक्षकारों की तरफ से दलील दी गई थी िकवह जल्दी-जल्दी कोर्ट के चक्कर नहीं काट सकते है क्योंकि उनमें से एक डाबरा में निजी स्कूल में शिक्षक है और दूसरा डाक्टर।इसलिए इस समय अवधि को खत्म करने की मांग की थी। कोर्ट ने इस अर्जी को खारिज कर दिया,जिसके बाद उन्होंने उस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने अमरदीप सिंह बनाम हरवीन कौर के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि उस फैसले में माना गया था कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी(2) के तहत दी गई समय अवधि अनिवार्य प्रकृति की नहीं है,बल्कि यह निर्देशिका प्रकृति की है। इसलिए हर मामले की परिस्थितियों व तथ्यों को देखने के बाद निचली अदालत इस समय अवधि से छूट दे सकती है। जिन मामलों में निचली अदालत को यह लगे कि दोेनों पक्षों में सुलह की कोई संभावना नहीं है और न ही साथ रहने के कोई चांस नहीं है,उन मामलों में निचली अदालत इस समय अवधि से छूट दे सकती है। 
                परंतु जस्टिस गुरपाल सिंह अहलुवानिया ने टिप्पणी करते हुए कहा कि इस मामले में जो आधार पक्षकारों ने दिया,वह इस अवधि को खत्म करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है क्योंकि इस मामले में दोनों पक्षकारों का कहना है कि वह बार-बार कोर्ट नहीं आ सकते है। 
            कोर्ट ने कहा कि-जब कोई पक्षकार किसी निश्चित प्रावधान के तहत कोर्ट से राहत मांगने के लिए जाते है तो उस समय उनको कानून के तहत बनाई या उपलब्ध प्रक्रिया का पालन करना चाहिए। अगर वह चाहते थे कि निचली अदालत आपसी सहमति से तलाक के मामले में निर्धारित हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी(2) के तहत दी गई छह माह की अवधि को खत्म कर दे तो उनको इंगित करना चाहिए था कि अब उनके बीच वैकल्पिक पुर्नवास या आपस में साथ रहने का कोई मौका नहीं है। परंतु दोनों पक्षकारों को हो रही व्यक्तिगत परेशानी के आधार पर इस निर्धारित अवधि से छूट नहीं दी जा सकती है। इसी के साथ कोई इस मामले में दायर पुनःविचार याचिका को खारिज कर दिया।







बलात्कार के आरोपी ने कहा पीड़िता से उसकी हुई है शादी; सुप्रीम कोर्ट ने उसे शादी का प्रमाण पत्र पेश करने को कहा


18 April 2019 5:37 PM

           बलात्कार के आरोपी एक व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी देकर कहा है कि पीड़िता से उसकी मार्च 2018 में शादी हो चुकी है। इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निचली अदालत द्वारा उसको जारी सम्मन को निरस्त करने की उसकी अपील ठुकरा दी थी। जब आरोपी ने दावा किया कि पीडिता से उसकी शादी हो चुकी है, इस मामले की सुनवाई कर रहे न्यायमूर्ति एमएम शांतनागौडा और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की पीठ ने उसे तीन सप्ताह के भीतर शादी का प्रमाणपत्र अदालत में पेश करने को कहा। 
          पीठ ने इस मामले की सुनवाई की अगली तारीख़ तीन सप्ताह के बाद रखी है और चेतावनी दी है कि इस मामले को आगे और स्थगित नहीं किया जाएगा। अगर शादी हुई है यह साबित हो जाता है तो क्या होगा? पर सवाल उठता है कि अगर आरोपी शादी का प्रमाणपत्र पेश कर देता है और उसकी शादी सही पाई जाती है तो क्या होगा? उस स्थिति में अदालत उसकी अपील स्वीकार कर सकता है क्योंकि वर्तमान क़ानून वैवाहिक संबंध में बलात्कार को अपवाद माना गया है। 
            आईपीसी की धारा 375 के अपवाद 2 में कहा गया है एक व्यक्ति का अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध को, अगर पत्नी 15 साल से कम उम्र की नहीं है तो, बलात्कार नहीं माना जाएगा। हालाँकि यह भी नोट करना ज़रूरी है कि धारा 376B के तहत पत्नी से अलग रहने के दौरान उसके साथ यौन संबंध बनाना दंडनीय है। इस प्रावधान में कहा गया है : 
           "अगर कोई व्यक्ति अलग रहने के आदेश या किसी और वजह से अलग रह रही अपनी पत्नी के साथ उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उससे यौन संबंध स्थापित करता है तो यह दंडनीय है…यह दंड कारावास के रूप में दो साल से कम नहीं होगा और यह सात साल तक की अवधि के लिए हो सकता है और उस पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है।" इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने Independent Thought vs Union Of India मामले में 18 साल से कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध को बलात्कार बताया है भले ही वह शादीशुदा है या नहीं।
             दिल्ली हाईकोर्ट में लंबित है इस प्रावधान को चुनौती का वाद धारा 375 के तहत वैवाहिक संबंध में बलात्कार के बारे में अपवाद के प्रावधान को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी गई है। गुजरात हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जेबी परदीवाला का मत है कि वैवाहिक संबंध में बलात्कार के बारे में जो अपवाद किया है उसको हटाकर ही समाज को यह संदेश दिया जा सकता है कि महिलाओं के साथ वह अमानवीय व्यवहार नहीं करसकता और इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता और यह कि वैवाहिक संबंध में बलात्कार की इजाज़त पति का विशेषाधिकार नहीं है बल्कि यह एक हिंसा है और एक अन्याय है जिसके लिए दंड मिलना चाहिए। न्यायमूर्ति जेएस वर्मा समिति ने अपनी रिपोर्ट में वैवाहिक संबंध में बलात्कार के बारे में अपवाद को समाप्त किए जाने की अनुशंसा की गई हैल।






आरोपी की अनुपस्थिति में गवाहों के बयान दर्ज करना है एक साध्य उल्लंघन-सुप्रीम कोर्ट ने हत्या के मामले में फिर से सुनवाई के आदेश को ठहराया सही [निर्णय पढ़े]


18 April 2019 12:16 PM

            सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि अभियोजन पक्ष की गवाही के समय अगर आरोपी अनुपस्थित है तो इससे अपने आप में केस की सुनवाई दूषित नहीं होती है,बशर्ते इससे आरोपी पर कोई प्रतिकूल असर न हो।
जस्टिस उदय उमेश ललित वाली बेंच ने इस मामले में हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी। हाईकोर्ट ने एक मामले में फिर से सुनवाई के आदेश देते हुए निचली अदालत से कहा था कि कानूनीतौर पर गवाहों के बयान दर्ज करे।
            हाईकोर्ट ने कहा था कि पहले राउंड में जो बयान दर्ज किए गए है,उस समय आरोपी की उपस्थिति सुनिश्चित नहीं की गई थी।
आरोपी की तरफ से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने दलील दी कि आरोपी के पास यह अधिकार होता है कि उसके सामने गवाही हो। यह उसका मूल्यवान अधिकार है और इससे छेड़छाड़ करने से गंभीर प्रतिकूल असर पड़ता है।
         कोर्ट ने इन दलीलों पर सहमति जताते हुए कहा कि यह अधिकार मूल्यवान है और इस मामले में उल्लंघन हुआ है। परंतु कोर्ट ने इन सवालों पर भी ध्यान दिया।
           इस तरह के उल्लंघन का प्रभाव देखने के क्या तथ्य उपलब्ध है। क्या इससे मामले की सुनवाई प्रभावित हुई है या इस तरह का उल्लंघन साध्य है। कोर्ट ने कहा कि कोर्ट के चैप्टर XXV का मुख्य विषय व सेक्शन 461 में बताए गए नियम 'अनियमित सुनवाई' से संबंधित है।जिनमें कहा गया है कि किसी उल्लंघन या अनियमितता से मामले की सुनवाई नष्ट नहीं होती है या हानि नहीं पहुंचती है,बशर्ते इस अनियमितता या उल्लघंन से आरोपी को बहुत क्षति न हुई हो या उसके साथ पक्षपात न हुआ हो।
           कोर्ट ने कहा कि- हाईकोर्ट का आदेश यह नहीं है कि सारे सबूतों को फिर से पढ़ा जाए। हाईकोर्ट का निर्देश यह है कि सिर्फ उन गवाहों के बयान फिर से दर्ज किए जाए,जिनके बयान आरोपी के समक्ष नहीं हुए थे।उस निर्देश के अनुसार कोर्ट में आरोपी की उपस्थिति जरूरी है ताकि वह गवाह को कोर्ट में बयान देेते समय देख सके और उस गवाह से जिरह कर सके। इसलिए इन मूल जरूरतों को निष्ठा से पूरा किया जाए।
             इसके अलावा कोई क्षति या हानि नहीं हुई है। कोड में दिए आरोपी या याचिकाकर्ता के अधिकारों के बारे में बेंच ने कहा कि-पाॅवर की जो बात है तो पूरे मामले की दोबारा सुनवाई का आदेश दिया जा सकता है।
जबकि इस मामले में तो हाईकोर्ट ने कमतौर पर इस अधिकार का प्रयोग करते हुए सिर्फ 12 गवाहों के बयान फिर से करवाने के लिए कहा है। ऐसे में हाईकोर्ट का यह निर्देश अधिकारक्षेत्र के अंतर्गत आता है।
            ऐसे में हाईकोर्ट ने किसी भी तरह अपने अधिकारक्षेत्र का उल्लंघन नहीं किया है। हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराते हुए व निचली अदालत को फिर से सुनवाई करने की अनुमति देते हुए बेंच ने कहा कि- एक परिवार के चार लोगों की मौत हुई है।
             इसलिए ऐसे मामले में समाज का भी हित होगा कि आरोपी को सजा मिले। साथ ही इस बात को सुनिश्चित किया जाए कि मामले की सुनवाई निष्पक्ष हो। सिर्फ उन गवाहों के बयान फिर से दर्ज करने के लिए कहा गया है,जिनसे यह सुनिश्चित हो सके कि अभियोजन पक्ष का हित बना रहे,वहीं दूसरी तरफ आरोपी को यह अधिकार मिले िकवह गवाह को अपने खिलाफ बयान देते हुए देख सके। जिसके बाद वह अपने वकील को अच्छे से निर्देश दे पाए कि गवाह से क्या-क्या सवाल जिरह में किए जाए। इस प्रक्रिया में आरोपी के हित की रक्षा भी होगी।
           अगर हम इन दलीलों को स्वीकार कर ले कि इससे मामले की सुनवाई खराब होगी और हाईकोर्ट के पास यह अधिकार नहीं है िकवह संबंधित गवाहों के बयान फिर से दर्ज करने का आदेश दे सके,तो इससे न्याय निष्फल होगा।
            आरोपी,जिन पर चार लोगों की मौत को केस चल रहा है,उनके खिलाफ प्रभावी तरीके से सुनवाई नहीं चल पाएगी। तकनीकी तौर पर उल्लंघन होने के कारण उनके खिलाफ दर्ज सबूतों को प्रयोग नहीं किया जा सकेगा,जिससे न्याय को बहुत बड़ा अघात पहुंचेगा और न्याय निष्फल हो जाएगा





Wednesday, April 17, 2019

जनप्रतिनिधि अधिनियम नहीं देता है चुनाव आयोग को यह अधिकार कि वह सहायता प्राप्त निजी स्कूलों के कर्मचारियों का कर ले

अधिग्रहण-बाॅम्बे हाईकोर्ट

April 2019 8:56 PM बाॅम्बे

           हाईकोर्ट ने माना है कि जनप्रतिनिधि अधिनियम ( प्यूपल रेप्रीजेंटेशन एक्ट) 1950 चुनाव आयोग या उसके किसी अधिकारी को यह अधिकार नहीं देता है कि चुनाव में ड्यूटी देने के लिए वह किसी सहायता प्राप्त निजी स्कूल के शिक्षण या गैर-शिक्षण कर्मचारियों की सेवाओं अधिग्रहण कर ले या उनकी सहायता ले। दो सदस्यीय खंडपीठ के जस्टिस ए.एस ओका व जस्टिस एम.एस सनकचलेचा इस मामले में गोरेगांव,मुम्बई के दो स्कूलों की तरफ से दायर याचिकाओं पर सुनवाई कर रहे थे। 
         याचिकाकर्ताओं ने असिस्टेंट इलैक्ट्रोल रजिस्ट्रेशन आॅफिसर के तीन आदेशों को चुनौती दी थी। इन आदेश में स्कूलों के गैर-शिक्षण कर्मियों की सेवाएं भी चुनाव ड्यूटी में लेने की बात कही गई थी।          
        याचिकाकर्ताओं का कहना था कि जनप्रतिनिधि अधिनियम के सेक्शन 29 के तहत आॅफिसर के पास सहायता प्राप्त निजी स्कूलों के कर्मियों की सेवाएं चुनाव में लेने का अधिकार नहीं है। इसके अलावा यह भी मांग की गई थी कि लोक प्रतिनिधि अधिनियम 1951( रेप्रीजेंटेशन आॅॅफ दा प्यूपल एक्ट 1951) के सेक्शन 159 के तहत यह घोषित किया जाए कि प्रतिवादी नम्बर एक से आठ तक ( जो कि भारतीय चुनाव आयोग व उसके अधिकारी है) के पास यह अधिकार नहीं है कि याचिकाकर्ताओं द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों के कर्मचारियों की सेवाएं अनिश्चितकाल तक अधिग्रहण कर ले। कोर्ट ने जनप्रतिनिधि अधिनियम 1950 के सेक्शन 29 को देखने के बाद कहा कि-इस सेक्शन को पढ़ने के बाद साफ हो जाता है कि चीफ इलैक्ट्रोल आॅफिसर इस सेक्शन के तहत मिले अपने अधिकारों का प्रयोग करके सिर्फ राज्य की स्थानीय प्राधिकरणोंके कर्मचारियों की सेवाएं ले सकता है या उनका अधिग्रहण किया जा सकता है। 
         स्थानीय प्राधिकरणों के बारे में न तो एक्ट 1950 में परिभाषित किया गया है और न ही एक्ट 1951 में। ऐसी परिस्थितियों में साधारण खंड अधिनियम 1897 (जरनल क्लाज एक्ट 1897) से रेफरेंस लेना जरूरी है। साधारण खंड अधिनियम 1897 में स्थानीय प्राधिकरण की परिभाषा देखने के बाद कोर्ट ने कहा कि-स्थानीय प्राधिकरण की परिभाषा को सामान्य तौर पर पढ़ने के बाद ही यह साफ हो रहा है कि राज्य से सहायता प्राप्त निजी स्कूल स्थानीय प्राधिकरण की परिभाषा में नहीं आते है। इस बात पर भी कोई विवाद नहीं है कि याचिकाकर्ता या उनके स्कूल पर सरकार या निगम के प्रबंधन का कोई नियंत्रण है। ऐसे में एक्ट 1950 के सेक्शन 29 के तहत याचिकाकर्ताओं या उनके सहायता प्राप्त स्कूलों को भेजा गया नोटिस अधिकारक्षेत्र से बाहर है।
         भारतीय चुनाव आयोग के वकील प्रदीप राजागोपाल ने भी माना कि तीनों आदेश बिना अधिकारक्षेत्र के जारी किए गए है और इस बात पर कोई आपत्ति जाहिर नहीं की। हालांकि महाराष्ट्र राज्य की वकील गीता शास्त्री और राजागोपाल ने बयान दिया कि शैक्षणिक व गैर-शैक्षणिक कर्मचारियों की सेवाएं एक निश्चित व विशेष अवधि के लिए ही ली जा सकती है। जिसमें तीन दिन की ट्रेनिंग के लिए व दो दिन मतदान के लिए होते है। कोर्ट ने इस बयान को स्वीकार कर लिया। इसलिए कोर्ट ने इस मामले में दायर याचिकाओं को स्वीकार कर लिया और असिस्टेंट इलैक्ट्रोल रजिस्ट्रेशन आॅफिसर के आदेशों को रद्द कर दिया।

NI अधिनियम की धारा 143A (अंतरिम मुआवज़ा) को पिछले प्रभाव से लागू करने का प्रावधान नहीं : पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट [निर्णय पढ़े ]

17 April 2019 11:15 AM

        पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा है कि निगोशिएबल इंस्ट्रुमेंट ऐक्ट (एनआईए) की धारा 143A को पिछले प्रभाव से लागू करने का प्रावधान नहीं है जबकि 148 के प्रावधान उन लंबित अपीलों पर लागू होंगे जिस दिन इसके प्रावधान को लागू करने की अधिसूचना जारी की गई। न्यायमूर्ति राजबीर सहरावत ने कहा कि अधिनियम कि धारा 143A ने आरोपी के ख़िलाफ़ एक नया दायित्व तय किया है जिसका प्रावधान वर्तमान क़ानून में नहीं था।
         लेकिन धारा 148 को यथावत रहने दिया गया है; और कुछ हद तक इसे आरोपी के हित में संशोधित किया गया है। वर्ष 2018 में इस अधिनियम दो नए प्रावधान जोड़े गए। इसमें पहला है धारा 143A जिसके द्वारा निचली अदालत को आरोपी को अंतरिम मुआवज़ा देने का आदेश जारी करने का अधिकार दिया गया है पर यह राशि 'चेक की राशि' से 20% से ज़्यादा नहीं होना चाहिए। एक अन्य धारा 148 जोड़ा गया जो अपीली अदालत को आरोपी/अपीलकर्ता को यह आदेश देने का अधिकार देता है कि वह निचली अदालत ने जो 'जुर्माना' या 'मुआवजा' चुकाने को कहा है उस की 20% राशि वह जमा करे।
          वर्तमान मामले में कोर्ट के समक्ष जो अपील लंबित है वे निचली और अपीली अदालतों के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील है। अधिनियम की नई धारा 143A के प्रावधानों को आधार बनाकर फ़ैसले दिए गए जिसे अब चुनौती दी गई है। कोर्ट ने कहा, "चूँकि अधिनियम का जो संशोधन हुआ है उसमें इस नए प्रावधानों को पिछले प्रभाव से लागू करने का प्रावधान नहीं है विशेषकर लंबित मामलों में। इसलिए लंबित मामलों के बारे में जो कि इन प्रावधानों के लागू होने के पहले से मौजूद हैं, के बारे में इन नए प्रावधानों के आधार पर फ़ैसला नहीं दिया जा सकता।
          कोर्ट ने कहा, "…अंतरिम मुआवज़ा जो कि किसी मामले में करोड़ों रुपए भी हो सकता है और ऐसे व्यक्ति के लिए जो कुछ लाख रुपए भी मुश्किल से जुगाड़ सकता है, इस धारा का परिणाम तबाही पैदा करने वाला हो सकता है…इसलिए इस प्रावधान को ज़्यादा से ज़्यादा आगे होने वाले इस तरह के मामलों में लागू किया जा सकता है क्योंकि वर्तमान मामले में आरोपी इस बात से अवगत होगा कि वह जो कर रहा है उसका परिणाम क्या हो सकता है …पर ये प्रावधान उन मामलों में लागू नहीं हो सकते जहाँ अदालती कार्रवाई उस समय शुरू हुई जब ये संशोधित प्रावधानों का अस्तित्व भी नहीं था।
           अदालत ने धारा 148 के बारे में कहा कि किसी दोषी व्यक्ति से जुर्माने या मुआवजे की राशि वसूलने का प्रावधान सीआरपीसी में धारा 148 के अस्तित्व में आने से पहले से ही मौजूद है। ये प्रावधान दोषी/अपीलकर्ता को ज़्यादा राहत देने वाला है।

Monday, April 1, 2019

आइये जाने FIR के बारे में


              कोई भी अपराध मात्र एक पीड़ित के खिलाफ अपराध नहीं होता बल्कि वह सामाजिक सुरक्षा एवं कानून व्यवस्था को एक चुनौती होता है. इसलिए जब भी कोई अपराध होता है तो पीड़ित तो एक निजी व्यक्ति ही होता है फिर भी राज्य / सरकार उस अपराध के विरुद्ध कार्यवाही करती है.
            अपराधी को उचित सजा दिलाना और न्याय सुनिश्चित करना पीड़ित का नहीं बल्कि राज्य का कर्तव्य एवं अधिकार माना जाता है, यह प्रक्रिया FIR दायर करने से शुरू होती है.
           आज के लेख में हम FIR और उससे जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात करेंगे. FIR क्या होती है? FIR या प्रथम दृष्टया रिपोर्ट जैसा की नाम से ही स्पष्ट है, अपराध के सम्बन्ध में पुलिस को दी गयी प्रथम सूचना होती है.
 हर पुलिस थाने में एक रजिस्टर जिसे FIR बुक कहा जाता है, रखी होती है.
FIR दायर करने का तात्पर्य है अपराध की सूचना उस बुक में लिखवाना/ रिकॉर्ड करवाना.
FIR का उद्देश्य होता है कि अपराध की समुचित पड़ताल और कानूनी कार्यवाही सम्बंधित मशीनरी को प्रारम्भ किया जा सके. कौन FIR दायर करवा सकता है?
            भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार न केवल पीड़ित बल्कि कोई भी व्यक्ति जिसे किसी अपराध के घटित होने की जानकारी हो वह FIR दर्ज़ करवा सकता है.
            भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 39 के तहत कुछ मामलों में हर व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह निम्नलिखित अपराध या उसकी संभावना के सन्दर्भ में पुलिस को सूचित करें-
१. राज्य के विरुद्ध अपराध जैसे- भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करना, उसकी तैयारी करना.
२. लोक शान्ति के विरुद्ध अपराध जैसे- unlawful assembly , riot
३. food aduleration , सार्वजानिक जल स्त्रोत, हवा आदि को हानि पहुँचाने से सम्बंधित मामले.
४. हत्या, किडनेपिंग, लूट, डकैती के मामले.
५. सार्वजानिक रोड, जलाशय, लैंड मार्क, सार्वजानिक सम्पति को पहुँचाने से सम्बंधित मामले.
६. करेंसी नोट, बैंक नोट की जालसाज़ी से जुड़े मामले. क्या FIR पुलिस का अनिवार्य कर्तव्य है?

         भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता अनुसार अपराधों को दो श्रेणी में बाँटा गया है- संज्ञेय एवं गैर संज्ञेय अपराध. संज्ञेय अपराध मूलतः गंभीर अपराध होते है जैसे हत्या, बलात्कार आदि. संज्ञेय अपराध के आरोपित को पुलिस बिना वारंट गिरफ्तार कर सकती है. इस तरह के मामलों की सूचना मिलने पर पुलिस तुरंत FIR दर्ज़ करने के लिए बाध्य है.
            अगर दी गयी सूचना से ये स्पष्ट है कि सज्ञेय अपराध घटित हुआ है तो पुलिस के लिए यह अनिवार्य है कि वह FIR बिना किसी प्रारम्भिक जाँच के तुरंत रजिस्टर करें. हालाँकि कुछ संज्ञेय अपराधों में भी पुलिस तुरंत FIR न रिकॉर्ड कर प्राम्भिक जांच कर सकती है, ये मामलें इस प्रकार से है-

१. वैवाहिक और घरेलू मामले
२. व्यावसायिक मामले
३. भ्रष्टाचार सम्बंधित मामले
४. डॉक्टर या हॉस्पिटल द्वारा लापरवाही के मामले
५. ऐसा कोई मामला जहाँ मामले की सूचना देने/ रिपोर्ट करने में बिना किसी संतोषजनक कारण असामान्य देरी हुई हो. दूसरी ओर, गैर संज्ञेय मामले काम गंभीर मामले होते है, इसलिए गैर संज्ञेय मामलों में पुलिस सीधे फिर नहीं दर्ज़ करती.
         आप मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा १५५(२) के तहत प्रार्थना पत्र पेश कर सकते है.

कहाँ दायर करें FIR?
              अधिकांशतः FIR उस थाने में दायर की जाती है जिस थाने के अधिकार क्षेत्र में अपराध हुआ हो. पर पुलिस आपकी सूचना को रिकॉर्ड करने से इस आधार पर मना नहीं कर सकती कि अपराध का स्थान उनके कार्यक्षेत्र से बाहर है. ऐसी स्थिति में पुलिस 'जीरो FIR' रिकॉर्ड करती है और सम्बंधित थाने को आपकी FIR भेज देती है.
           पुलिस अगर FIR करने में आनाकानी करे तो क्या करे? अगर पुलिस संज्ञेय अपराध के मामले में भी आपकी FIR न रजिस्टर करें तो आप निम्लिखित विकल्प अपना सकते हैं- आप उच्च पुलिस अधिकारीयों SP, DIG आदि को पुलिस द्वारा FIR न लिखने की सूचना दे सकते है. यह अधिकारी सम्बंधित पुलिस अधिकारी को FIR दायर करने का निर्देशन दे सकता है.

  आप यह कार्य SP को डाक द्वारा पत्र भेजकर कर सकते है.

आप संबंधित मजिस्ट्रेट के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता की धारा १५६(३) तहत प्रार्थना पत्र दायर कर सकते है. इस प्रार्थना पत्र पर मजिस्ट्रेट पुलिस को FIR दायर करने और मामले की तहकीकात का आदेश दे सकता है.

  तीसरा, आप हाई कोर्ट के समक्ष संविधान के अनुच्छेद २२६ के तहत यह प्रार्थना पेश कर सकते है कि पुलिस आपकी FIR दायर करे. FIR दायर करवाते समय किन-किन बातों का रखे ख्याल?- हालांकि पुलिस का कर्तव्य है की मौखिक दी गयी सूचना को भी रजिस्टर करे फिर भी वास्तविक व्यवहार में ये ज्यादा उपयुक्त होगा कि आप थानाधिकारी को सम्बोधित करते हुए लिखित में अपनी शिकायत पेश करे जिसके आधार पर पुलिस FIR दायर करेगी. FIR रिकॉर्ड होने के बाद आपको पढ़ कर सुनाई जाये, यह आपका हक़ है.
            यह अधिकार सुनिश्चित करता है कि FIR लिखने में किसी तरह की गड़बड़ी नहीं की गयी है जैसे- आपके द्वारा दी गयी सूचना में किसी तरह का फेरबदल करना या सूचना का कोई महत्वपूर्ण बिंदु छोड़ देना इत्यादि.
           FIR रिकॉर्डिंग पर आपका हस्ताक्षर या अंगूठे का चिन्ह लेना अनिवार्य है.
           बिना कोई शुल्क दिए FIR की कॉपी पाना आपका अधिकार है. उसकी माँग अवश्य करें.
           FIR की कॉपी में दिए गए FIR नंबर या DD नंबर के आधार पर आप अपनी FIR का ऑनलाइन को भी ट्रैक कर सकते है. इसलिए कॉपी और नंबर को संभाल कर रखे. FIR दायर करवाने में देरी ना करें. हालाँकि अपराध विधि इस सिद्धांत कार्य करती है कि चूँकि अपराध सिर्फ पीड़ित के खिलाफ नहीं समाज के खिलाफ अपराध है इसलिए सिविल मामलों जैसे समय की पाबंदियां आपराधिक मामलों पर नहीं लागू होती, इसलिए सामान्यत: FIR दायर करने के लिए कोई समय सीमा नहीं है. फिर भी FIR दायर करने में अनावश्यक देरी नहीं होनी चाहिए.
           FIR दायर करने में देरी होने पर भी अपराधी के खिलाफ तहकीकात और कानूनी कार्यवाही की जा

सकती है फिर भी FIR दायर करने में हुई देरी अपराधी के विरुद्ध केस को कमजोर बनाती है.

कोर्ट में FIR दायर करने में हुई देरी का स्पष्टीकरण देना अनिवार्य होता है.
FIR आपराधिक घटना का विस्तृत ब्यौरा या इनसाइक्लोपीडिया' नहीं होती.
FIR में मुख्यत: घटना की प्रमुख-प्रमुख बिंदुओं को ही संक्षिप्त रूप में रजिस्टर किया जाता है.
ट्रायल के दौरान FIR मुख्य साक्ष्य भी नहीं होती. पर फिर भी FIR लिखवाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अपराध सम्बंधित मुख्य-मुख्य बातें भलीभांति रूप में लिख ली जाये क्योंकि FIR का प्रयोग कुछ उद्देध्यों के लिए ट्रायल के दौरान किया जा सकता है जैसे- बयानों में किसी विरोदाभास के सन्दर्भ में, किसी बयान की सम्पुष्टि के लिए आदि. इसलिए आवश्यक है कि आप अपराध की सूचना पूर्ण सच्चाई, बिना बढ़ाये- चढ़ाये, बिना कुछ छुपाए दे.
           महिलाओं के लिए FIR दायर करने के लिए खास सुविधाएँ- अगर अपराध महिलाओं पर अत्याचार जैसे बलात्कार, छेड़छाड़ आदि से सम्बंधित है तो FIR महिला पुलिस अधिकारी द्वारा ही रजिस्टर की जाएगी ताकि पीड़ित महिला बिना किसी संकोच या भय के अपनी बात कह सके.
          महिला अपराधों के निम्नलिखित मामलों में महिला पुलिस अधिकारी ही FIR रजिस्टर करेंगी- १. तेजाब फेंक कर महिलाओं को पहुंचाने से सम्बंधित मामले। २. यौन उत्पीड़न। ३. बलात्कार सम्बन्धी मामले. ४. छेड़छाड़, शील भंग, पीछा करना से सम्बंधित मामले.
         उपर्युक्त मामलों में अगर पुलिस अधिकारी FIR नहीं करें तो वह भारतीय दंड संहिता की धारा 166A तहत दंड प्राप्ति का हक़दार है.
             उपर्युक्त मामलों के सन्दर्भ में अगर पीड़िता शारीरिक या मानसिक रूप से नि:शक्त है तो FIR पीड़िता के घर या उसकी मर्ज़ी के किसी अन्य स्थान पर दायर की जाएगी.
ऐसे मामले में इंटरप्रेटर आदि की व्यवस्था सुनिश्चित करना अनिवार्य है.

          हमारे देश में बड़ी संख्या में मामलों की रिपोर्टिंग नहीं की जाती जिससे अपराधियों को बढ़ावा मिलता है और पीड़ितों को उचित न्याय भी नहीं मिल पता.
          ऐसे में जरूरी है कि हम FIR पहलुओं को समझे और अपराध की सूचना पुलिस को दे.
हाल ही में भारत सरकार 'SMART POLICE INITIATIVE' लायी है जिसके तहत लगभग ७ अपराधों सम्बंधित सूचना ऑनलाइन पोर्टल (https://digitalpolice.gov.in/ncr/State_Selection.aspx )
द्वारा दी जा सकती है. पोर्टल पर लॉग-इन कर बिना पुलिस स्टेशन जाए ही रिपोर्ट दायर की जा सकती है. इस तरह के ऑनलाइन पोर्टल अलग- अलग राज्यों ने भी शुरू किये है. आप उनके बारे में भी पता कर सकते है.


(लेखक सुरभि करवा राष्ट्रिय विधि विश्विद्यालय, दिल्ली की छात्रा है. लेख में मदद करने के लिए वो अपने सहकर्मी शिखर टंडन को धन्यवाद ज्ञापित करती है.)